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शनिवार, 8 मार्च 2025

संजीव वर्मा 'सलिल', परिचय २०२५,

परिचय : इंजी. संजीव वर्मा 'सलिल'।
संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपिअर टाउन, जबलपुर ४८२००१ मध्य प्रदेश। ईमेल- salil.sanjiv@gmail.com, वाट्सऐप ९४२५१८३२४४, चलभाष जिओ ७९९९५५९६१८।
जन्म: २०-८-१९५२, मंडला मध्य प्रदेश।
माता-पिता: स्व. शांति देवी - स्व. राज बहादुर वर्मा।
प्रेरणास्रोत: बुआश्री महीयसी महादेवी वर्मा।
शिक्षा: त्रिवर्षीय डिप्लोमा सिविल अभियांत्रिकी, बी.ई., एम.आई.ई., एम.आई.जी.एस.,विशारद, एम.ए. (अर्थशास्त्र, दर्शनशास्त्र), एल-एल. बी., डिप्लोमा पत्रकारिता, डी. सी. ए.।
उपलब्धि : - जीवन परिचय प्रकाशित ७ साहित्यकार कोश।
- 'हे हंसवाहिनी ज्ञानदायिनी अंब विमल मति दे' सरस्वती शिशु मंदिरों में दैनिक प्रार्थना करोड़ों विद्यार्थियों द्वारा हर दिन गायन।
- इंस्टीट्यूशन ऑफ़ इंजीनियर्स द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी में तकनीकी लेख 'वैश्विकता के निकष पर भारतीय यांत्रिकी संरचनाएँ को द्वितीय श्रेष्ठ - तकनीकी प्रपत्र पुरस्कार महामहिम राष्ट्रपति द्वारा।
- विश्व रिकॉर्डधारी तीन ग्रंथों 'भारत को जानें', 'आयुर्वेद को जानें' तथा 'संविधान को जानें' में सहभागी।
- '२१ वीं सदी के अंतर्राष्ट्रीय श्रेष्ठ व्यंग्यका'र में सहभागी।
- 'नवगीत के सृजन सारथी भाग २-३' में सहभागी।
- 'नई सदी के प्रतिनिधि दोहाकार' में सहभागी ।
- १५ उपनिषदों का हिंदी काव्यानुवाद।
- ५०० से अधिक नए छंदों की रचना।
- १६ भाषाओं/बोलिओं (हिंदी, संस्कृत, उर्दू, अंग्रेजी, बुंदेली, पचेली, छत्तीसगढ़ी, मालवी, निमाड़ी, बृज, हाड़ौती, भोजपुरी, सरायकी, गढ़वाली, मैथिली, अंगिका) में काव्य रचना।
- ७५ सरस्वती वंदना लेखन।
- इंटरनेट पर हिंदी छंदों तथा हिंदी अलंकारों पर दो वर्षीय लेखमालाएँ।
प्रकाशित कृतियाँ:
१. कलम के देव, (भक्ति गीत संग्रह १९९७),
२. भूकंप के साथ जीना सीखें, (जनोपयोगी तकनीकी १९९७),
३. लोकतंत्र का मक़बरा, (कविताएँ २००१),
४. मीत मेरे, (कविताएँ २००२),
५. सौरभः, (संस्कृत श्लोकों का दोहानुवाद) सहलेखन, २००३,
६. काल है संक्रांति का, नवगीत संग्रह २०१६,
७. कुरुक्षेत्र गाथा, प्रबंध काव्य सहलेखन २०१६,
८. सड़क पर, नवगीत संग्रह,
९. ओ मेरी तुम, श्रृंगार गीत संग्रह २०२१,
१०. आदमी अभी जिन्दा है, लघुकथा संग्रह २०२२,
११. इक्कीस श्रेष्ठ (आदिवासी) लोककथाएँ मध्य प्रदेश २०२२,
१२. इक्कीस श्रेष्ठ बुंदेली लोककथाएँ मध्य प्रदेश २०२२।
१३. जंगल में जनतंत्र, लघुकथा संग्रह २०२४।
ट्रू मिडिया पत्रिका दिल्ली द्वारा व्यक्तित्व-कृतित्व पर विशेषांक प्रकाशित।
- 'सलिल : एक साहित्यिक निर्झर' व्यक्तित्व-कृतित्व पर पुस्तक, लेखिका मनोरमा जैन 'पाखी', मुरैना।
(अ)- विश्व कीर्तिमान :
- जबलपुर में भारतरत्न सर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या की ९ मूर्तियों की स्थापना।
- हिंदी में ३२१ सॉनेट, ३२ सोनेटकारों का प्रथम संकलन संपादित-प्रकाशित।
- हिंदी में प्रथम सोरठा सतसई (डॉ. संतोष शुक्ला) का संपादन-प्रकाशन।
- विश्व में ऑन लाइन सर्वाधिक लंबी हिंदी छंद शिक्षण कक्षाएँ (हिन्द युग्म.कॉम पर २ वर्ष तक प्रति सप्ताह २ कक्षाएँ)।
- विश्व में ऑन लाइन सर्वाधिक लंबी हिंदी अलंकार शिक्षण कक्षाएँ (साहित्य शिल्पी.कॉम पर ८० अलंकार)।
- भारत को जानें, - आयुर्वेद को जानें तथा- छंदबद्ध 'भारत का संविधान' 
(आ). भूमिका लेखन: ९० पुस्तकें। (इ). तकनीकी लेख: १५। (ई). पुस्तक समीक्षा: ३०० से अधिक।
रचनायें प्रकाशित: मुक्तक मंजरी (४० मुक्तक), कन्टेम्परेरी हिंदी पोएट्री (परिचय सहित ८ कविताएँ अंग्रेजी में अनुवादित), ७५ साझा गद्य-पद्य संकलन, लगभग ४०० पत्रिकाएँ। मेकलसुता पत्रिका में २ वर्ष तक लेखमाला 'दोहा गाथा सनातन' प्रकाशित, पत्रिका शिखर वार्ता में भूकंप पर आमुख कथा।
अंतरजाल पर- १९९८ से सक्रिय, हिन्द युग्म पर छंद-शिक्षण २ वर्ष तक, साहित्य शिल्पी पर 'काव्य का रचनाशास्त्र' ८० अलंकारों पर लेखमाला, शताधिक छंदों पर लेखमाला।
विशेष उपलब्धि: ५०० से अधिक नए छंदों की रचना।, हिंदी, अंग्रेजी, बुंदेली, मालवी, निमाड़ी, भोजपुरी, छत्तीसगढ़ी, अवधी, बृज, राजस्थानी, सरायकी, नेपाली आदि में काव्य रचना।
संपादन १३ पुस्तकें, १७ स्मारिकाएँ, ७ पत्रिकाएँ, २ विशेषांक। 
साहित्यिक सम्मान- ३०० से अधिक। 
संप्रति: - पूर्व कार्यपालन यंत्री / पूर्व संभागीय परियोजना यंत्री लोक निर्माण विभाग म. प्र.। - अध्यक्ष इंडियन जिओटेक्नीकल सोसायटी जबलपुर चैप्टर। - अधिवक्ता म. प्र. उच्च न्यायालय। - सभापति विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर। प्रति वर्ष हिंदी की श्रेष्ठ कृतियों पर लगभग १.५ लाख रुपए के पुरस्कार । - संचालक समन्वय प्रकाशन संस्थान जबलपुर। - पूर्व वरिष्ठ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष / महामंत्री राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद जयपुर। - पूर्व राष्ट्रीय उपाध्यक्ष अखिल भारतीय कायस्थ महासभा दिल्ली। - पूर्व उपाध्यक्ष, अध्यक्ष लोक निर्माण समिति, पत्रिका संपादक म.प्र. डिप्लोमा इंजीनियर्स असोसिएशन भोपाल। - संरक्षक राजकुमारी बाई बाल निकेतन जबलपुर।


संपादन:
(क) कृतियाँ: १. निर्माण के नूपुर (अभियंता कवियों का संकलन १९८३),२. नींव के पत्थर (अभियंता कवियों का संकलन १९८५), ३. राम नाम सुखदाई १९९९ तथा २००९, ४. तिनका-तिनका नीड़ २०००, ५. ऑफ़ एंड ओन (अंग्रेजी ग़ज़ल संग्रह) २००१, ६. यदा-कदा (ऑफ़ एंड ऑन का हिंदी काव्यानुवाद) २००४, ७ . द्वार खड़े इतिहास के २००६, ८. समयजयी साहित्यशिल्पी प्रो. भागवतप्रसाद मिश्र 'नियाज़' (विवेचना) २००६, ९-१०. काव्य मंदाकिनी २००८ व २०१०, ११, दोहा दोहा नर्मदा २०१८, १२. दोहा सलिला निर्मला २०१८, १३. दोहा दीप्त दिनेश २०१८, हिंदी सॉनेट सलिला २०२३ (३२ सॉनेटकारों के ३२१ सॉनेट)।
(ख) स्मारिकाएँ: १. शिल्पांजलि १९८३, २. लेखनी १९८४, ३. इंजीनियर्स टाइम्स १९८४, ४. शिल्पा १९८६, ५. लेखनी-२ १९८९, ६. संकल्प १९९४,७. दिव्याशीष १९९६, ८. शाकाहार की खोज १९९९, ९. वास्तुदीप २००२ (विमोचन स्व. कुप. सी. सुदर्शन सरसंघ चालक तथा भाई महावीर राज्यपाल मध्य प्रदेश), १०. इंडियन जिओलॉजिकल सोसाइटी सम्मेलन २००४, ११. दूरभाषिका लोक निर्माण विभाग २००६, (विमोचन श्री नागेन्द्र सिंह तत्कालीन मंत्री लोक निर्माण विभाग म. प्र.) १२. निर्माण दूरभाषिका २००७, १३. विनायक दर्शन २००७, १४. मार्ग (IGS) २००९, १५. भवनांजलि (२०१३), १७. आरोहण रोटरी क्लब २०१२, १७. अभियंता बंधु (IEI) २०१३।


(ग) पत्रिकाएँ: १. चित्राशीष १९८० से १९९४, २. एम.पी. सबॉर्डिनेट इंजीनियर्स मंथली जर्नल १९८२ - १९८७, ३. यांत्रिकी समय १९८९-१९९०, ४. इंजीनियर्स टाइम्स १९९६-१९९८, ५. एफोड मंथली जर्नल १९८८-९०, ६. नर्मदा साहित्यिक पत्रिका २००२-२००४, ७. शब्द समिधा २०१९।
साहित्य त्रिवेणी त्रैमासिकी कोलकाता भारतीय छंद विधान विशेषांक अप्रैल-सितंबर १९१८ के अतिथि संपादक।
मासिकी शिखर वार्ता भोपाल के भूकंप अंक में जबलपुर भूकंप १९९३ संबंधी आमुख कथा प्रकाशित।


अप्रकाशित कार्य-
मौलिक कृतियाँ:
कुत्ते बेहतर हैं ( लघुकथाएँ), आँख के तारे (बाल गीत), दर्पण मत तोड़ो (गीत), आशा पर आकाश (मुक्तक), पुष्पा जीवन बाग़ (हाइकु), काव्य किरण (कवितायें), जनक सुषमा (जनक छंद), मौसम ख़राब है (गीतिका), गले मिले दोहा-यमक (दोहा), दोहा-दोहा श्लेष (दोहा), मूं मत मोड़ो (बुंदेली), जनवाणी हिंदी नमन (खड़ी बोली, बुंदेली, अवधी, भोजपुरी, निमाड़ी, मालवी, छत्तीसगढ़ी, राजस्थानी, सिरायकी रचनाएँ), छंद कोश, अलंकार कोश, मुहावरा कोश, दोहा गाथा सनातन, छंद बहर का मूल है, तकनीकी शब्दार्थ सलिला।
अनुवाद:
(अ) ७ संस्कृत-हिंदी काव्यानुवाद: नर्मदा स्तुति (५ नर्मदाष्टक, नर्मदा कवच आदि), शिव-साधना (शिव तांडव स्तोत्र, शिव महिम्न स्तोत्र, द्वादश ज्योतिर्लिंग स्तोत्र आदि),रक्षक हैं श्री राम (रामरक्षा स्तोत्र), गजेन्द्र प्रणाम ( गजेन्द्र स्तोत्र), नृसिंह वंदना (नृसिंह स्तोत्र, कवच, गायत्री, आर्तनादाष्टक आदि), महालक्ष्मी स्तोत्र (श्री महालक्ष्यमष्टक स्तोत्र), विदुर नीति।
(आ) प्रबंध काव्य 'दिव्य गृह' (रोमानियन खंडकाव्य ल्यूसिआ फेरूल से प्रेरित)।
(इ) सत्य सूक्त (दोहानुवाद)।


सम्मान- ११ राज्यों (मध्यप्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, हरयाणा, दिल्ली, गुजरात, छत्तीसगढ़, असम, बंगाल, झारखण्ड) की विविध संस्थाओं द्वारा २०० से अधिक सम्मान तथा अलंकरण। प्रमुख सम्मान - संपादक रत्न २००३ श्रीनाथद्वारा, सरस्वती रत्न आसनसोल, विज्ञान रत्न, २० वीं शताब्दी रत्न हरयाणा, आचार्य हरयाणा, वाग्विदाम्बर उत्तर प्रदेश, साहित्य वारिधि, साहित्य शिरोमणि, वास्तु गौरव, मानस हंस, साहित्य गौरव, साहित्य श्री(३) बेंगलुरु, काव्य श्री, भाषा भूषण, कायस्थ कीर्तिध्वज, चित्रांश गौरव, कायस्थ भूषण, हरि ठाकुर स्मृति सम्मान, सारस्वत साहित्य सम्मान, कविगुरु रवीन्द्रनाथ सारस्वत सम्मान कोलकाता, युगपुरुष विवेकानंद पत्रकार रत्न सम्मान कोलकाता, साहित्य शिरोमणि सारस्वत सम्मान, भारत गौरव सारस्वत सम्मान, सर्वोच्च कामता प्रसाद गुरु वर्तिका अलंकरण जबलपुर, उत्कृष्टता प्रमाणपत्र, सर्टिफिकेट ऑफ़ मेरिट (३) इंजीनियर्स फोरम (भारत), अभव्यक्ति विश्वम् दुबई द्वारा नवगीत नवांकुर अलंकरण (११,०००/-), लोक साहित्य शिरोमणि अलंकरण गुंजन कला सदन जबलपुर २०१७, सर्वोच्च राजा धामदेव अलंकरण २०१७ गहमर, युग सुरभि २०१७, सर्वोच्च भवानी प्रसाद तिवारी प्रसंग अलंकरण जबलपुर २०२०, साहित्य सिंधु अलंकरण, सर्वोच्च भारतेंदु पुरस्कार (५०००/-) उत्कर्ष साहित्य अकादमी दिल्ली २०२२, दिव्य संगम श्री २०२३, साहित्य सिंधु २०२३, रजनीकान्त चौबे अलंकरण (५०००/-) प्रसंग जबलपुर २०२४आदि।

गुरुवार, 17 अगस्त 2023

संजीव वर्मा 'सलिल'


आप अपनी जानकारी आज ही भेज दीजिए---
1-नाम : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
2-पिता का नाम : स्मृतिशेष राजबहादुर वर्मा, पूर्व जेल अधीक्षक। 
3 -माता का नाम : स्मृतिशेष शांति देवी वर्मा, कवयित्री।
3 a - जीवन संगिनी : डॉ. साधना वर्मा, पूर्व प्राध्यापक अर्थशास्त्र।   
4-जन्म दिनांक : 20 अगस्त 1952। 
5-जन्म स्थान : मंडला, मध्य प्रदेश। 
6-प्रेरणाश्रोत : बुआश्री महियासी महादेवी वर्मा। 
7-दायित्व : पूर्व संभागीय परियोजना अभियंता लोक निर्माण विभाग, सभापति विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर, संचालक समन्वय प्रकाशन जबलपुर, चेयरमैन इंडियन जिओटेक्नीकल सोसायटी जबलपुर चैप्टर । पूर्व वरिष्ठ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष व महामंत्री राष्ट्रीय कायस्थ महासभा,  पूर्व राष्ट्रीय उपाध्यक्ष व मण्डल अध्यक्ष अखिल भारतीय कायस्थ महासभा, पूर्व संपादक चित्राशीष कायस्थ पत्रिका, पूर्व महामंत्री प्रादेशिक चित्रगुपर महासभा मध्य प्रदेश। 
8-किन क्षेत्रों में कार्यरत हैं/समाज/देश आदि : साहित्य सृजन, छंद शिक्षण, समाज सेवा, पर्यावरण सुधार, तकनीकी क्षेत्र में हिंदी का उपयोग, हिंदी से रोजगार, प्रेरक व्याख्यान, चित्रगुप्त जी व कायस्थों पर शोध आदि।  
9-कोई उल्लेखनीय उपलब्धि-
1. 500 से अधिक नये छंदों का आविष्कार। 
2. प्रति दिन लाखों बच्चों द्वारा सरस्वती वंदना 'हे हँसवाहिनी ज्ञानदायिनी अंब! विमल मति दे' का सभी सरस्वती शिशु मंदिरों में गायन। 
3. 85 पुस्तकों में भूमिका लेखन। 
4. 350 पुस्तकों की समीक्षा। 
5. 12 पुस्तकें प्रकाशित ।
6.  जीवन परिचय प्रकाशित 7 साहित्यकार कोश।
7.  इंस्टीट्यूशन ऑफ़ इंजीनियर्स द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी में तकनीकी लेख 'वैश्विकता के निकष पर भारतीय यांत्रिकी संरचनाएँ को द्वितीय श्रेष्ठ - तकनीकी प्रपत्र पुरस्कार महामहिम राष्ट्रपति द्वारा।
8.  9 बोलिओं में रचना।  
9. 75 सरस्वती वंदना लेखन ।  
10. 51 चित्रगुप्त भजन लेखन।
11. विशेष: विश्व रिकॉर्ड - विविध अभियंता संस्थाओं द्वारा जबलपुर में भारतरत्न सर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या की ९ मूर्तियों की स्थापना कराई।
12 ट्रू मिडिया पत्रिका द्वारा व्यक्तित्व-कृतित्व पर विशेषांक प्रकाशित।
13.  'सलिल : एक साहित्यिक निर्झर' व्यक्तित्व-कृतित्व पर पुस्तक, लेखिका मनोरमा 'पाखी'।
14. हिंदी सोनेट लेखन सिखाकर 32 सॉनेटकारों के 321 सॉनेटों का साझा संकलन प्रकाशित किया- विश्व रिकॉर्ड। 
15. इंडिया बुक ऑफ रिकार्ड में "भारत को जाने" एक अद्वितीय ग्रंथ लेखन में सहभागिता।
16. 300 से अधिक सम्मान, 12 प्रांतों की संस्थाओं द्वारा। 

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2021

दोहा सलिला

दोहा सलिला
पूनम नम नयना लिए, करे काव्य की वृष्टि।
पूर्णिमा रस ले बिखर, निखर रचे नव सृष्टि।।
*
प्रणय पत्रिका पूर्णिमा, प्रणयी मृग है चाँद।
चंचल हिरणी ज्योत्सना, रही गगन को फाँद।।
*

कार्यशाला दोहा से कुंडलिया

कार्यशाला
दोहा से कुंडलिया
संजीव वर्मा 'सलिल', 
*
पुष्पाता परिमल लुटा, सुमन सु मन बेनाम।
प्रभु पग पर चढ़ धन्य हो, कण्ठ वरे निष्काम।।
चढ़े सुंदरी शीश पर, कहे न कर अभिमान।
हृदय भंग मत कर प्रिये!, ले-दे दिल का दान।।
नयन नयन से लड़े, झुके मिल मुस्काता।
प्रणयी पल पल लुटा, प्रणय परिमल पुष्पाता।।
*
संजीव
१८-२-२०२०
९४२५१८३२४४

नवगीत: तोड़ दें नपना

नवगीत:
तोड़ दें नपना

*
अंदाज अपना-अपना
आओ! तोड़ दें नपना
*
चोर लूट खाएंगे
देश की तिजोरी पर
पहला ऐसा देंगे
अच्छे दिन आएंगे
.
भूखे मर जाएंगे
अन्नदाता किसान
आवारा फिरें युवा
रोजी ना पाएंगे
तोड़ रहे हर सपना
अंदाज अपना-अपना
*
निज यश खुद गाएंगे
हमीं विश्व के नेता
वायदों को जुमला कह
ठेंगा दिखलाएंगे
.
खूब जुल्म ढाएंगे
सांस, आस, कविता पर
आय घटा, टैक्स बढ़ा
बांसुरी बजाएंगे
कवि! चुप माला जपना
अंदाज अपना-अपना
***
१८.२.२०१८

नवगीत- पड़ा मावठा

नवगीत-
पड़ा मावठा
*
पड़ा मावठा
घिरा कोहरा
जला अँगीठी
आगी ताप
*
सिकुड़-घुसड़कर बैठ बावले
थर-थर मत कँप, गरम चाय ले
सुट्टा मार चिलम का जी भर
उठा टिमकिया, दे दे थाप
पड़ा मावठा
घिरा कोहरा
जला अँगीठी
आगी ताप
*
आल्हा-ऊदल बड़े लड़ैया
टेर जोर से,भगा लड़ैया
गारे राई,सुना सवैया
घाघ-भड्डरी
बन जा आप
पड़ा मावठा
घिरा कोहरा
जला अँगीठी
आगी ताप
*
कुछ अपनी, कुछ जग की कह ले
ढाई आखर चादर तह ले
सुख-दुःख, हँस-मसोस जी सह ले
चिंता-फिकिर
बना दे भाप
पड़ा मावठा
घिरा कोहरा
जला अँगीठी
आगी ताप
*
बाप न भैया, भला रुपैया
मेरा-तेरा करें न लगैया
सींग मारती मरखन गैया
उठ, नुक्कड़ का
रस्ता नाप
पड़ा मावठा
घिरा कोहरा
जला अँगीठी
आगी ताप
*
जाकी मोंड़ी, बाका मोंड़ा
नैन मटक्का थोडा-थोडा
हम-तुम ने नाहक सर फोड़ा
पर निंदा का
मर कर पाप
पड़ा मावठा
घिरा कोहरा
जला अँगीठी
आगी ताप
***

शेर / द्विपदी, दोहा

शेर / द्विपदी

मिलाकर हाथ खासों ने, किया है आम को बाहर
नहीं लेना न देना ख़ास से, हम आम इन्सां हैं
दोहा दुनिया
*
राजनीति है बेरहम, सगा न कोई गैर
कुर्सी जिसके हाथ में, मात्र उसी की खैर
*
कुर्सी पर काबिज़ हुए, चेन्नम्मा के खास
चारों खाने चित हुए, अम्मा जी के दास
*
दोहा देहरादून में, मिला मचाता धूम
जितने मतदाता बने, सब है अफलातून
*
वाह वाह क्या बात है?, केर-बेर का संग
खाट नहीं बाकी बची, हुई साइकिल तंग
*
आया भाषणवीर है, छाया भाषणवीर
किसी काम का है नहीं, छोड़े भाषण-तीर
*
मत मत का सौदा करो, मत हो मत नीलाम
कीमत मत की समझ लो, तभी बनेगा काम
*
एक मरा दूजा बना, तीजा था तैयार
जेल हुई चौथा बढ़ा, दो कुर्सी-गल हार
*
१८-२- २०१७

लेख प्रेम गीत में संगीत चेतना

लेख 
प्रेम गीत में संगीत चेतना
संजीव
*
साहित्य और संगीत की स्वतंत्र सत्ता और अस्तित्व असंदिग्ध है किन्तु दोनों के समन्वय और सम्मिलन से अलौकिक सौंदर्य सृष्टि-वृष्टि होती है जो मानव मन को सच्चिदानंद की अनुभूति और सत-शिव-सुन्दर की प्रतीति कराती है. साहित्य जिसमें सबका हित समाहित हो और संगीत जिसे अनेक कंठों द्वारा सम्मिलित-समन्वित गायन१।
वाराहोपनिषद में अनुसार संगीत 'सम्यक गीत' है. भागवत पुराण 'नृत्य तथा वाद्य यंत्रों के साथ प्रस्तुत गायन' को संगीत कहता है तथा संगीत का लक्ष्य 'आनंद प्रदान करना' मानता है, यही उद्देश्य साहित्य का भी होता है.
संगीत के लिये आवश्यक है गीत, गीत के लिये छंद. छंद के लिये शब्द समूह की आवृत्ति चाहिए जबकि संगीत में भी लयखंड की आवृत्ति चाहिए। वैदिक तालीय छंद साहित्य और संगीत के समन्वय का ही उदाहरण है.
अक्षर ब्रम्ह और शब्द ब्रम्ह से साक्षात् साहित्य करता है तो नाद ब्रम्ह और ताल ब्रम्ह से संगीत। ब्रम्ह की
मतंग के अनुसार सकल सृष्टि नादात्मक है. साहित्य के छंद और संगीत के राग दोनों ब्रम्ह के दो रूपों का प्रतिनिधित्व करते हैं.
साहित्य और संगीत का साथ चोली-दामन का सा है. 'वीणा-पुस्तक धारिणीं भगवतीं जाड्यंधकारापहाम्' - वीणापाणी शारदा के कर में पुस्तक भी है.
'संगीत साहित्य कलाविहीन: साक्षात पशु: पुच्छ विषाणहीनः' में भी साहित्य और संगीत के सह अस्तित्व को स्वीकार किया गया है.
स्वर के बिना शब्द और शब्द के बिना स्वर अपूर्ण है, दोनों का सम्मिलन ही उन्हें पूर्ण करता है.
ग्रीक चिंतक और गणितज्ञ पायथागोरस के अनुसार 'संगीत विश्व की अणु-रेणु में परिव्याप्त है. प्लेटो के अनुसार 'संगीत समस्त विज्ञानों का मूल है जिसका निर्माण ईश्वर द्वारा सृष्टि की विसंवादी प्रवृत्तियों के निराकरण हेतु किया गया है. हर्मीस के अनुसार 'प्राकृतिक रचनाक्रम का प्रतिफलन ही संगीत है.
नाट्य शास्त्र के जनक भरत मुनि के अनुसार 'संगीत की सार्थकता गीत की प्रधानता में है. गीत, वाद्य तथा नृत्य में गीत ही अग्रगामी है, शेष अनुगामी.
गीत के एक रूप प्रगीत (लिरिक) का नामकरण यूनानी वाद्य ल्यूरा के साथ गाये जाने के अधर पर ही हुआ है. हिंदी साहित्य की दृष्टि से गीत और प्रगीत का अंतर आकारगत व्यापकता तथा संक्षिप्तता ही है.
गीत शब्दप्रधान संगीत और संगीत नाद प्रधान गीत है. अरस्तू ने ध्वनि और लय को काव्य का संगीत कहा है. गीत में शब्द साधना (वर्ण अथवा मात्रा की गणना) होती है, संगीत में स्वर और ताल की साधना श्लाघ्य है. गीत को शब्द रूप में संगीत और संगीत को स्वर रूप में गीत कहा जा सकता है.
प्रेम के दो रूप संयोग तथा वियोग श्रृंगार तथा करुण रस के कारक हैं.
प्रेम गीत इन दोनों रूपों की प्रस्तुति करते हैं. आदिकवि वाल्मीकि के कंठ से नि:सृत प्रथम काव्य क्रौंचवध की प्रतिक्रिया था. पंत जी के नौसर: 'वियोगी होगा पहला कवि / आह से उपजा होगा गान'
लव-कुश द्वारा रामायण का सस्वर पाठ सम्भवतः गीति काव्य और संगीत की प्रथम सार्वजनिक समन्वित प्रस्तुति थी.
लालित्य सम्राट जयदेव, मैथिलकोकिल विद्यापति, वात्सल्य शिरोमणि सूरदास, चैतन्य महाप्रभु, प्रेमदीवानी मीरा आदि ने प्रेमगीत और संगीत को श्वास-श्वास जिया, भले ही उनका प्रेम सांसारिक न होकर दिव्य आध्यात्मिक रहा हो.
आधुनिक हिंदी साहित्य में भारतेन्दु हरिश्चंद्र, मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पंत, बालकृष्ण शर्मा 'नवीन', हरिवंश राय बच्चन आदि कवियों की दृष्टि और सृष्टि में सकल सृष्टि संगीतमय होने की अनुभूति और प्रतीति उनकी रचनाओं की भाषा में अन्तर्निहित संगीतात्मकता व्यक्त करती है.
निराला कहते हैं- "मैंने अपनी शब्दावली को छोड़कर अन्यत्र सभी जगह संगीत के छंदशास्त्र की अनुवर्तिता की है.… जो संगीत कोमल, मधुर और उच्च भाव तदनुकूल भाषा और प्रकाशन से व्यक्त होता है, उसके साफल्य की मैंने कोशिश की है.''
पंत के अनुसार- "संस्कृत का संगीत जिस तरह हिल्लोलाकार मालोपमा से प्रवाहित होता है, उस तरह हिंदी का नहीं। वह लोल लहरों का चंचल कलरव, बाल झंकारों का छेकानुप्रास है.''
लोक में आल्हा, रासो, रास, कबीर, राई आदि परम्पराएं गीत और संगीत को समन्वित कर आत्मसात करती रहीं और कालजयी हो गयीं।
गीत और संगीत में प्रेम सर्वदा अन्तर्निहित रहा. नव गति, नव लय, ताल छंद नव (निराला), विमल वाणी ने वीणा ली (प्रसाद), बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ (महादेवी), स्वर्ण भृंग तारावलि वेष्ठित / गुंजित पुंजित तरल रसाल (पंत) से प्रेरित समकालीन और पश्चात्वर्ती रचनाकारों की रचनाओं में यह सर्वत्र देखा जा सकता है.
छायावादोत्तर काल में गोपालदास सक्सेना 'नीरज', सोम ठाकुर, भारत भूषण, कुंवर बेचैन आदि के गीतों और मुक्तिकाओं (गज़लों) में प्रेम के दोनों रूपों की सरस सांगीतिक प्रस्तुति की परंपरा अब भी जीवित है.

मंगलवार, 22 सितंबर 2020

लेख : हिंदी की प्रासंगिकता और हम. संजीव वर्मा 'सलिल'

 लेख :

हिंदी की प्रासंगिकता और हम.

संजीव वर्मा 'सलिल'

हिंदी जनवाणी तो हमेशा से है...समय इसे जगवाणी बनाता जा रहा है. जैसे-जैसे भारतीय विश्व में फ़ैल रहे हैं वे अधकचरी ही सही हिन्दी भी ले जा रहे हैं। हिंदी में संस्कृत, फ़ारसी, अरबी, उर्दू, अन्य देशज भाषाओँ / बोलिओं या विदेशी अंगरेजी शब्दों के सम्मिश्रण से घबराने के स्थान पर उन्हें आत्मसात करना होगा ताकि हिंदी हर भाव और अर्थ को अभिव्यक्त कर सके। 'हॉस्पिटल' को 'अस्पताल' बनाकर आत्मसात करने से भाषा समृद्ध होती है किन्तु 'फ्रीडम' को 'फ्रीडमता' बनाने से नहीं। दैनिक जीवन में व्याकरण सम्मत भाषा हमेशा प्रयोग में नहीं लाई जा सकती पर वह समीक्षा, शोध या गंभीर अभिव्यक्ति हेतु अनुपयुक्त होती है। हमें भाषा के प्राथमिक, माध्यमिक, उच्च तथा शोधपरक रूपों में भेद को समझना तथा स्वीकारना होगा। तत्सम तथा तद्भव शब्द हिंदी की जान हैं किन्तु इनका अनुपात तो प्रयोग करनेवाले की समझ पर ही निर्भर है। हिन्दी में अहिन्दी शब्दों का मिश्रण दाल में नमक की तरह हो किन्तु खीर में कंकर की तरह नहीं। 

 

हिंदी में शब्दों की कमी को दूर करने की ओर भी लगातार काम करना होगा। इस सिलसिले में सबसे अधिक प्रभावी भूमिका चिट्ठाकार निभा सकते हैं। वे विविध प्रदेशों, क्षेत्रों, व्यवसायों, रुचियों, शिक्षा, विषयों, विचारधाराओं, धर्मों तथा सर्जनात्मक प्रतिभा से संपन्न ऐसे व्यक्ति हैं जो प्रायः बिना किसी राग-द्वेष या स्वार्थ के सामाजिक साहचर्य के प्रति समर्पित हैं। उनमें से हर एक का शब्द भण्डार अलग-अलग है।  उनमें से हर एक को अलग-अलग शब्द भंडार की आवश्यकता है। कभी शब्द मिलते हैं कभी नहीं। यदि वे न मिलनेवाला 'शब्द' अन्य चिट्ठाकारों से पूछें तो अन्य अंचलों या बोलियों के शब्द भंडार में से अनेक शब्द मिल सकेंगे।  उपयुक्त न मिल पर आवश्यकतानुसार शब्द गढ़ने का काम भी चिट्ठा कर सकता है। इससे हिंदी का सतत विकास होगा। 

 

सिविल इन्जीनियरिंग को हिंदी में नागरिकी अभियंत्रण या स्थापत्य यांत्रिकी क्या कहना चाहेंगे? इसके लिये अन्य उपयुक्त शब्द क्या हो? 'सिविल' की हिंदी में न तो स्वीकार्यता है न सार्थकता...फिर क्या करें? सॉइल, सिल्ट, सैंड, के लिये मिट्टी/मृदा, धूल तथा रेत का प्रयोग मैं करता हूँ पर उसे लोग ग्रहण नहीं कर पाते। सामान्यतः धूल-मिट्टी को एक मान लिया जाता है. रॉक, स्टोन, बोल्डर, पैबल्स, एग्रीगेट को हिंदी में क्या कहें? मैं इन्हें चट्टान, पत्थर, गिट्टा, रोड़ा, तथा गिट्टी लिखता हूँ। 

रेत या मिट्टी के परीक्षण में 'मटेरिअल रिटेंड ऑन सीव' तथा 'मटेरिअल पास्ड फ्रॉम सीव' को हिंदी में क्या कहें? मुझे एक शब्द याद आया 'छानन' यह किसी शब्दकोष में नहीं मिला। छानन का अर्थ किसी ने छन्नी से निकला पदार्थ बताया, किसी ने छन्नी पर रुका पदार्थ तथा कुछ ने इसे छानने पर मिला उपयोगी या निरुपयोगी पदार्थ कहा। काम करते समय आपके हाथ में न तो शब्द कोष होता है, न समय। कार्य विभागों में प्राक्कलन बनाने, माप लिखने तथा मूल्यांकन करने का काम अंगरेजी में ही किया जाता है जबकि अधिकतर अभियंता, ठेकेदार और सभी मजदूर अंगरेजी से अपरिचित हैं। सामान्यतः लोग गलत-सलत अंगरेजी लिखकर काम चला रहे हैं। लोक निर्माण विभाग की दर अनुसूची आज भी सिर्फ अंगरेजी मैं है। निविदा हिन्दी में है किन्तु उस हिन्दी को कोई नहीं समझ पाता, अंगरेजी अंश पढ़कर ही काम करना होता है। किताबी या संस्कृतनिष्ठ अनुवाद अधिक घातक है जो अर्थ का अनर्थ कर देता है। न्यायालय में मानक भी अंगरेजी पाठ को ही माना जाता है। हर विषय और विधा में यह उलझन है। मैं मानता हूँ कि इसका सामना करना ही एकमात्र रास्ता है किन्तु चिट्ठाजगत ही एक मंच ऐसा है जहाँ ऐसे प्रश्न उठाकर समाधान पाया जा सकता है। 

 

भाषा और साहित्य से सरकार जितना दूर हो बेहतर... जनतंत्र में जन, लोकतंत्र में लोक, प्रजातंत्र में प्रजा हर विषय में सरकार का रोना क्यों रोती है? सरकार का हाथ होगा तो चंद अंगरेजीदां अफसर पाँच सितारेवाले होटलों के वातानुकूलित कमरों में बैठकर ऐसे हवाई शब्द गढ़ेगे जिन्हें जनगण जान या समझ ही नहीं सकेगा। राजनीति विज्ञान में 'लेसीज फेयर' का सिद्धांत है जिसका आशय यह है कि वह सरकार सबसे अधिक अच्छी है जो सबसे कम शासन करती है। भाषा और साहित्य के सन्दर्भ में यही होना चाहिए।  लोकशक्ति बिना किसी भय और स्वार्थ के भाषा का विकास देश-काल-परिस्थिति के अनुरूप करती है। कबीर, तुलसी सरकार नहीं जन से जुड़े और जन में मान्य थे। भाषा का जितना विस्तार इन दोनों ने किया अन्यों ने नहीं। शब्दों को वापरना, गढ़ना, अप्रचलित अर्थ में प्रयोग करना और एक ही शब्द को अलग-अलग प्रसंगों में अलग-अलग अर्थ देने में इनका सानी नहीं। 

 

चिट्ठा जगत ही हिंदी को विश्व भाषा बना सकता है? अगले पाँच सालों के अन्दर विश्व की किसी भी अन्य भाषा की तुलना में हिंदी के चिट्ठे अधिक होंगे। क्या उनकी सामग्री भी अन्य भाषाओँ के चिट्ठों की सामग्री से अधिक प्रासंगिक, उपयोगी व् प्रामाणिक होगी? इस प्रश्न का उत्तर यदि 'हाँ' है तो सरकारी मदद या अड़चन से अप्रभावित हिन्दी सर्व स्वीकार्य होगी, इस प्रश्न का उत्तर यदि 'नहीं" है तो हिंदी को 'हाँ' के लिये जूझना होगा...अन्य विकल्प नहीं है। शायद कम ही लोग यह जानते हैं कि विश्व के अंतरिक्ष वैज्ञानिकों ने हमारे सौर मंडल और आकाशगंगा के परे संभावित सभ्यताओं से संपर्क के लिये विश्व की सभी भाषाओँ का ध्वनि और लिपि को लेकर वैज्ञानिक परीक्षण कर संस्कृत तथा हिन्दी को सर्वाधिक उपयुक्त पाया है तथा इन दोनों और कुछ अन्य भाषाओँ में अंतरिक्ष में संकेत प्रसारित किए जा रहे हैं ताकि अन्य सभ्यताएँ यदि हैं तो धरती से संपर्क कर सकें। अमरीकी राष्ट्रपति अमरीकनों को बार-बार हिन्दी सीखने के लिये चेता रहे हैं किन्तु कभी अंग्रेजों के गुलाम भारतीयों में अभी भी अपने आकाओं की भाषा सीखकर शेष देशवासियों पर प्रभुत्व ज़माने की भावना है। यही हिन्दी के लिये हानिप्रद है। 

 

भारत विश्व का सबसे बड़ा बाज़ार है तो भारतीयों की भाषा सीखना विदेशियों की विवशता है। विदेशों में लगातार हिन्दी शिक्षण और शोध का कार्य बढ़ रहा है। हर वर्ष कई विद्यालयों और कुछ विश्व विद्यालयों में हिंदी विभाग खुल रहे हैं। हिन्दी निरंतर विकसित हो रहे है जबकि उर्दू समेत अन्य अनेक भाषाएँ और बोलियाँ मरने की कगार पर हैं। इस सत्य को पचा न पानेवाले अपनी मातृभाषा हिन्दी के स्थान पर राजस्थानी, मारवाड़ी, मेवाड़ी, अवधी, ब्रज, भोजपुरी, छत्तीसगढ़ी, मालवी, निमाड़ी, बुन्देली या बघेली लिखाकर अपनी बोली को राष्ट्र भाषा या विश्व भाषा तो नहीं बना सकते पर हिंदी भाषियों की संख्या कुछ कम जरूर दर्ज करा सकते हैं। इससे भी हिन्दी का कुछ बनना-बिगड़ना नहीं है। आगत की आहट को पहचाननेवाला सहज ही समझ सकता है कि हिंदी ही भावी विश्व भाषा है। आज की आवश्यकता हिंदी को इस भूमिका के लिये तैयार करने के लिये शब्द-निर्माण, शब्द-ग्रहण, शब्द-अर्थ का निर्धारण, अनुवाद कार्य तथा मौलिक सृजन करते रहना है जिसे विश्व विद्यालयों की तुलना में अधिक प्रभावी तरीके से चिट्ठाकर कर रहे हैं। 

 

नए रचनाकारों के लिये आवश्यक है कि भाषा के व्याकरण और विधा की सीमाओं तथा परम्पराओं को ठीक से समझते हुए लिखें। नया प्रयोग अब तक लिखे को जानने के बाद ही हो सकता है। काव्य के क्षेत्र में हाथ आजमानेवालों को 'पिंगल' (काव्य-शास्त्र) में वर्णित नियम जानने ही चाहिए। इसमें किसी कठिन और उच्च कक्षा की पुस्तक की जरूरत नहीं है। १० वीं कक्षा तक की हिन्दी की किताबों में जो जानकारी है वह लेखन प्रारंभ करने के लिये पर्याप्त है। लिंग, वाचन, क्रिया, कारक, शब्द-भेद, उच्चारण के अनुसार हिज्जे कर शब्द को शुद्ध रूप में लिखना आ जाए तो गद्य-पद्य दोनों लिखा जा सकता है। बोलते समय हम प्रायः असावधान होते हैं। शब्दों के देशज (ग्रामीण या भदेसी) रूप बोलने में भले ही प्रचलित हैं पर साहित्य में दोष कहे गए हैं। कविता लिखते समय पिंगल (काव्य-शास्त्र) के नियमों और मान्यताओं का पालन आवश्यक है। कोई बदलाव या परिवर्तन विशेषज्ञता के बाद ही सुझाई जाना चाहिए। 

 

विश्व वाणी हिन्दी के उन्नयन और उत्थान में हमारी भूमिका शून्य हो तो भी हिन्दी की प्रगति नहीं रुकेगी किन्तु यदि हम प्रभावी भूमिका निभाएँ तो यह जीवन की बड़ी उपलब्धि होगी। आइए, हम सब इस दिशा में चिंतन कर अपने-अपने विचारों को बाँटें। 

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सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम

सोमवार, 6 जुलाई 2020

शीला पांडे

दो कवि रचना एक:
*
शीला पांडे:
झूठ मूठ की कांकर सांची गागर फोड़ गयी
प्रेम प्रीत की प्याली चटकी घायल छोड़ गयी
*
संजीव वर्मा 'सलिल'
लिए आस-विश्वास फेविक्विक आँख लगाती है
झुकी पलक संबंधों का नव सेतु बनाती है.
*

रविवार, 5 जुलाई 2020

परिचय संजीव वर्मा 'सलिल'

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परिचय- संजीव

नाम: संजीव वर्मा 'सलिल'।
संपर्क: विश्व वाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपिअर टाउन, जबलपुर ४८२००१।
salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१८३२४४, ७९९९५५९६१८।
जन्म: २०-८-१९५२, मंडला मध्य प्रदेश।
माता-पिता: स्व. शांति देवी - स्व. राज बहादुर वर्मा।
प्रेरणास्रोत: बुआश्री महीयसी महादेवी वर्मा।
शिक्षा: त्रिवर्षीय डिप्लोमा सिविल अभियांत्रिकी, बी.ई., एम. आई. ई., विशारद, एम. ए. (अर्थशास्त्र, दर्शनशास्त्र), एलएल. बी., डिप्लोमा पत्रकारिता, डी. सी. ए.।
संप्रति: पूर्व कार्यपालन यंत्री लोक निर्माण विभाग म. प्र., अधिवक्ता म. प्र. उच्च न्यायालय, अध्यक्ष अभियान जबलपुर, पूर्व वरिष्ठ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष / महामंत्री राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद, पूर्व राष्ट्रीय उपाध्यक्ष अखिल भारतीय कायस्थ महासभा, संरक्षक राजकुमारी बाई बाल निकेतन, संयोजक विश्ववाणी हिंदी परिषद, संयोजक समन्वय संस्था प्रौद्योगिकी विश्व विद्यालय भोपाल।
प्रकाशित कृतियाँ: १. कलम के देव (भक्ति गीत संग्रह १९९७), २. भूकंप के साथ जीना सीखें (जनोपयोगी तकनीकी १९९७), ३. लोकतंत्र का मक़बरा (कविताएँ २००१) विमोचन शायरे आज़म कृष्णबिहारी 'नूर', ४. मीत मेरे (कविताएँ २००२) विमोचन आचार्य विष्णुकांत शास्त्री तत्कालीन राज्यपाल उत्तर प्रदेश, ५. काल है संक्रांति का नवगीत संग्रह २०१६ विमोचन प्रवीण सक्सेना, लोकार्पण ज़हीर कुरैशी-योगराज प्रभाकर, हरिशंकर श्रीवास्तव पुरस्कार २५०० रु से पुरस्कृत ६. कुरुक्षेत्र गाथा प्रबंध काव्य २०१६ विमोचन रामकृष्ण कुसुमारिया मंत्री म. प्र. शासन, ७. सड़क पर गीत-नवगीत संग्रह, २०१८ अभिव्यक्ति विश्वम पुरस्कार १२,००० रु. नगद से पुरस्कृत, विमोचन प्रवीण सक्सेना-पूर्णिमा बर्मन-राजेंद्र वर्मा।
संपादन: (क) कृतियाँ: १. निर्माण के नूपुर (अभियंता कवियों का संकलन १९८३),२. नींव के पत्थर (अभियंता कवियों का संकलन १९८५), ३. राम नाम सुखदाई १९९९ तथा २००९, ४. तिनका-तिनका नीड़ २०००, ५. सौरभः (संस्कृत श्लोकों का दोहानुवाद) २००३, ६. ऑफ़ एंड ओन (अंग्रेजी ग़ज़ल संग्रह) २००१, ७. यदा-कदा (ऑफ़ एंड ओं का हिंदी काव्यानुवाद) २००४, ८. द्वार खड़े इतिहास के २००६, ९. समयजयी साहित्यशिल्पी प्रो. भागवतप्रसाद मिश्र 'नियाज़' (विवेचना) २००६, १०-११. काव्य मंदाकिनी २००८ व २०१०।
(ख) स्मारिकाएँ: १. शिल्पांजलि १९८३, २. लेखनी १९८४, ३. इंजीनियर्स टाइम्स १९८४, ४. शिल्पा १९८६, ५. लेखनी-२ १९८९, ६. संकल्प १९९४,७. दिव्याशीष १९९६, ८. शाकाहार की खोज १९९९, ९. वास्तुदीप २००२ (विमोचन स्व. कुप. सी. सुदर्शन सरसंघ चालक तथा भाई महावीर राज्यपाल मध्य प्रदेश), १०. इंडियन जिओलॉजिकल सोसाइटी सम्मेलन २००४, ११. दूरभाषिका लोक निर्माण विभाग २००६, (विमोचन श्री नागेन्द्र सिंह तत्कालीन मंत्री लोक निर्माण विभाग म. प्र.) १२. निर्माण दूरभाषिका २००७, १३. विनायक दर्शन २००७, १४. मार्ग (IGS) २००९, १५. भवनांजलि (२०१३), १६. अभियंता बंधु (IEI) २०१३। ​
(ग) पत्रिकाएँ: १. चित्राशीष १९८० से १९९४, २. एम.पी. सबॉर्डिनेट इंजीनियर्स मंथली जर्नल १९८२ - १९८७, ३. यांत्रिकी समय १९८९-१९९०, ४. इंजीनियर्स टाइम्स १९९६-१९९८, ५. एफोड मंथली जर्नल १९८८-९०, ६. नर्मदा साहित्यिक पत्रिका २००२-२००४।
(घ). भूमिका लेखन: ३६ पुस्तकें।
(च). तकनीकी लेख: १५।
अप्रकाशित कार्य-
मौलिक कृतियाँ:
जंगल में जनतंत्र, कुत्ते बेहतर हैं ( लघुकथाएँ), आँख के तारे (बाल गीत), दर्पण मत तोड़ो (गीत), आशा पर आकाश (मुक्तक), पुष्पा जीवन बाग़ (हाइकु), काव्य किरण (कवितायें), जनक सुषमा (जनक छंद), मौसम ख़राब है (गीतिका), गले मिले दोहा-यमक (दोहा), दोहा-दोहा श्लेष (दोहा), मूं मत मोड़ो (बुंदेली), जनवाणी हिंदी नमन (खड़ी बोली, बुंदेली, अवधी, भोजपुरी, निमाड़ी, मालवी, छत्तीसगढ़ी, राजस्थानी, सिरायकी रचनाएँ), छंद कोश, अलंकार कोश, मुहावरा कोश, दोहा गाथा सनातन, छंद बहर का मूल है, तकनीकी शब्दार्थ सलिला।
अनुवाद:
(अ) ७ संस्कृत-हिंदी काव्यानुवाद: नर्मदा स्तुति (५ नर्मदाष्टक, नर्मदा कवच आदि), शिव-साधना (शिव तांडव स्तोत्र, शिव महिम्न स्तोत्र, द्वादश ज्योतिर्लिंग स्तोत्र आदि),रक्षक हैं श्री राम (रामरक्षा स्तोत्र), गजेन्द्र प्रणाम ( गजेन्द्र स्तोत्र), नृसिंह वंदना (नृसिंह स्तोत्र, कवच, गायत्री, आर्तनादाष्टक आदि), महालक्ष्मी स्तोत्र (श्री महालक्ष्यमष्टक स्तोत्र), विदुर नीति।
(आ) पूनम लाया दिव्य गृह (रोमानियन खंडकाव्य ल्यूसिआ फेरूल)।
​(इ) सत्य सूक्त (दोहानुवाद)।
रचनायें प्रकाशित: मुक्तक मंजरी (४० मुक्तक), कन्टेम्परेरी हिंदी पोएट्री (८ रचनाएँ परिचय), ७५ गद्य-पद्य संकलन, लगभग ४०० पत्रिकाएँ। मेकलसुता पत्रिका में २ वर्ष तक लेखमाला 'दोहा गाथा सनातन' प्रकाशित, पत्रिका शिकार वार्ता में भूकंप पर आमुख कथा।
परिचय प्रकाशित ७ कोश।
अंतरजाल पर- १९९८ से सक्रिय, हिन्द युग्म पर छंद-शिक्षण २ वर्ष तक, साहित्य शिल्पी पर 'काव्य का रचनाशास्त्र' ८० अलंकारों पर लेखमाला, छंदों पर लेखमाला जारी ८० छंद हो चुके हैं।
विशेष उपलब्धि:
१. सरस्वती वंदना 'अंब विमल दे' समस्त सरस्वती शिशु मंदिर संस्थाओं में दैनिक प्रार्थना के रूप में प्रयुक्त।
२. 
सम्मान- १० राज्यों (मध्यप्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, हरयाणा, दिल्ली, गुजरात, छत्तीसगढ़, असम, बंगाल) की विविध संस्थाओं द्वारा शताधिक सम्मान तथा अलंकरण। प्रमुख सरस्वती रत्न, संपादक रत्न, विज्ञान रत्न, २० वीं शताब्दी रत्न, आचार्य, वाग्विदाम्बर, साहित्य वारिधि, साहित्य शिरोमणि, वास्तु गौरव, मानस हंस, साहित्य गौरव, साहित्य श्री(३), काव्य श्री, भाषा भूषण, कायस्थ कीर्तिध्वज, चित्रांश गौरव, कायस्थ भूषण, हरि ठाकुर स्मृति सम्मान, सारस्वत साहित्य सम्मान, कविगुरु रवीन्द्रनाथ सारस्वत सम्मान, युगपुरुष विवेकानंद पत्रकार रत्न सम्मान, साहित्य शिरोमणि सारस्वत सम्मान, भारत गौरव सारस्वत सम्मान, कामता प्रसाद गुरु वर्तिका अलंकरण, उत्कृष्टता प्रमाणपत्र, सर्टिफिकेट ऑफ़ मेरिट, लोक साहित्य अलंकरण गुंजन कला सदन जबलपुर २०१७, राजा धामदेव अलंकरण २०१७ गहमर, युग सुरभि २०१७, आदि।

संजीव वर्मा 'सलिल' --एक अजीम शख्सियत प्रोफेसर अनिल जैन

संजीव वर्मा 'सलिल' --एक अजीम शख्सियत
प्रोफेसर अनिल जैन
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यूँ तो होश संभालते ही मेरा मिज़ाज अदबी था । मैंने उर्दू, अंग्रेजी और हिंदी ज़ुबान के कई रिसाले पढ़ डाले थे । गाहे बगाहे क़लम भी चला लिया करता था
इसी शौक से मुब्तिला होकर कुछेक अंग्रेजी ग़ज़लें लिख डाली । बहुत समय तक तो ना मैंने खुद ने ना ही किसी और ने इन गजलों कोई तरजीह नहीं दी क्योंकि पेशतर तो मेरे क़स्बाई नुमा शहर में अंग्रेजी के जानकार न के बराबर थे दूसरा मैं खुद काफी झिझक महसूस कर रहा था कि पता नहीं लोग इस बारे में क्या सोचेंगे ।

इत्तफाकन मुझे आदरणीय संजीव वर्मा सलिल जी के बारे में पता चला । यहाँ यह भी बताते चलूं कि सलिल जी की प्राध्यापक पत्नी डॉ साधना वर्मा उन दिनों मेरी कलीग हुआ करती थीं । उनसे पता चला कि सलिल का मिज़ाज भी शायराना है ।
सलिल जी से पहली मुलाकात के अनुभव को लफ़्ज़ों में बयान करना बहुत ही मुश्किल काम है । बस इतना ही कहूँगा वे पल जीवन के चंद हमेशा याद रखे जाने वाले पल हैं । उनका गंभीर चेहरा, उनका अंदाज़े बयां, ज़ुबानों पर उनकी धाक औऱ सबसे बड़ी बात उनका हौसला अफजाई का जो शऊर मैंने देखा उस पर केवल रश्क़ किया जा सकता है ।
उन्होंने मेरी गज़लों को पढ़ा, दाद दी, और भरोसा दिया कि वे उन्हे साया करवाएंगे । औऱ ऐसा उन्होंने किया भी । इस तरह मेरी ग़ज़लें जिनका उन्वान 'ऑफ एंड ऑन' है अपने अंजाम तक पहुँची । मेरा सफ़र पूरा हुआ लेकिन सलिल जी यहीं नहीं रुके । ये उनका मेरे लिए स्नेह ही था कि वे मेरी किताब हर एक अदबी जलसों में लेकर जाते औऱ कोशिश करते कि मैं और भी बुलंदियों को छू सकूँ ।
इसी सिलसिले में उन्होंने मेरी किताब केरल के हिंदी के जाने माने एक प्रोफेसर डॉ बाबू जोसेफ को भेंट की और गज़लों की तफसील डॉ जोसेफ को बयां की । मैंने लिखा कम था लेकिन सलिल जी ने जो तफसील बताई उससे डॉ जोसेफ बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने मेरे दीवान का तर्जुमा हिंदी ज़ुबान में कर डाला जिसे हिंदी में 'यदा कदा' शीर्षक से प्रकाशित किया गया । इस तरह मेरी टोपी में एक पंख और जुड़ गया ।
इसके बाद रोज़मर्रा की ज़रुरतों में मशरूफ होने के कारण सलिल जी से मुलाकातों का दौर काफ़ी कम हो गया फिर भी फोन पर अक्सर मैं सलाह मशविरा किया करता था । हर मसले पर उनका नज़रिया बहुत साफ था और यही साफगोई उनके हर मशविरे का मज़मून हुआ करती थी ।
वक़्त अपनी रफ्तार से चलता रहा । छुटपुट लेखन भी चलता रहा । और वक्त जैसे फिर उसी मोड़ पर आकर खड़ा हो गया । हुआ यूं कि छोटी छोटी तहरीरों के सफे दर सफे जमा होकर एक किताब की शक्ल अख्तियार करने लगे और साया होने को मचल उठे ।
फिर वही सलिल जी से मुलाकातों का दौर शुरू हुआ । जिस्मानी तौर पर तो उनमें कोई फर्क नज़र नहीं आया लेकिन वैचारिक स्तर वे पूरी तरह से लबरेज़ थे । सलिल जी ने फिर मुझे इनकरेज किया कि मेरी पोयम्स में काफ़ी कुछ है जिसे लोग पसंद करेंगें ।उन्होंने ने यह भी बताया कि आज के दौर में किस तरह के नये नये प्रयोग किये जा रहे हैं । सलिल जी ने खुद ही मेरी अंग्रेजी पोयम्स जिसका टाइटल 'द सेकंड थॉट' है का प्रीफेस लिखा, कवर पेज डिजाइन करवाया और पब्लिश भी करवाई । यहां तक कि किताब का विमोचन भी उन्हीं ने करवाया ।
इस सब के लिए केवल शुक्रगुजार होना कहना मुनासिब नहीं होगा पर यह सच है कि यही सारी बातें किसी इंसान को उन बुलंदियों तक ले जाती हैं जिस बुलंदी पर आज इंजीनियर संजीव वर्मा'सलिल' कायम हैं । वे वास्तव में इसके हकदार हैं ।
[बी 47, वैशाली नगर, दमोह 9630631158 aniljaindamoh@gmail.com]

बुधवार, 1 जुलाई 2020

सम्माननीय काव्य गुरु आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

सम्माननीय काव्य गुरु आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
अमरेंद्र नारायण
[भूतपूर्व महासचिव एशिया पैसिफिक टेलीकौम्युनिटी शुभा आशीर्वाद, १०५५, रिज रोड, साउथ सिविल लाइन्स ,जबलपुर ४८२००१ मध्य प्रदेश दूरभाष +९१ ७६१ २६० ४६०० ई मेल amarnar@gmail.com]
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आचार्य संजीव वर्मा सलिल जी बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति हैं। वे एक कुशल अभियंता, एक सफल विधिवेत्ता, एक प्रशिक्षित पत्रकार और एक विख्यात साहित्यकार तो हैं ही, साथ ही हिंदी साहित्य के प्रचार-प्रसार हेतु
निरंतर कार्यरत एक कर्मठ हिंदी सेवी संयोजक भी हैं।
सलिल जी ने कई मधुर गीत लिखे हैं और एक विशेषज्ञ अभियंता के रूप में तकनीकी विषयों पर उपयोगी लेख लिख कर उन्होंने तकनीक के प्रचार में अपना सहयोग भी दिया है । साहित्य, अभियान्त्रिकी और सामाजिक विषयों से जुड़े कई सामयिक विषयों पर उन्होंने मौलिक और व्यावहारिक विचार रखे हैं।
सलिल जी विभिन्न संस्थाओं के सदस्य मात्र ही नहीं हैं, वे कई संस्थाओं के जन्मदाता भी हैं और संयोजक भी हैं। उनकी योग्यता और उनके समर्पित व्यक्तित्व से प्रभावित हो कर कई लोग साहित्य के क्षेत्र में उन्हें अपना गुरु मानते हैं। साहित्य सृजन हेतु उत्सुक अनेक जनों को उन्होंने विधिवत भाषा, व्याकरण और पिंगल सिखाया और उनके लिखे को तराशा-सँवारा है।
मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय का कोई अभिवक्ता एक प्रतिष्ठित अभियंता हो और पिंगल तथा उरूज का ज्ञाता भी हो- यह कोई साधारण बात नहीं है। विस्मृति के गह्वर से पुराने छंदों को खोज-खोज कर उनका मधुर शब्दावली से श्रृंगार कोई ऐसा शब्द चितेरा ही कर सकता है जिसमें एक विद्वान् की अन्वेषण क्षमता, अभियंता की व्यावहारिक सृजन प्रतिभा और एक सिद्धहस्त कलाकार के सौन्दर्य बोध का सम्यक समन्वय हो। सलिल जी का प्रभावशाली व्यक्तित्व इसी कोटि का है ।
सलिल जी का आग्रह है-
''मौन तज कर मनीषा कह बात अपनी''
यह आज के ऐसे परिवेश में और भी आवश्यक है जहाँ
''तंत्र लाठियाँ घुमाता, जन खाता है मार
उजियारे की हो रही अन्धकार से हार!''
कई रचनाकार संवेदनशील तो होते हैं पर वे मुखर नहीं हो पाते। सलिल जी का कहना है-
''रही सड़क पर अब तक चुप्पी,पर अब सच कहना ही होगा!''
साहित्यकार जब अपना मौन तोड़ता है तो उसकी वाणी कभी गर्जना कर चुनौती देती है तो कभी तीर बन कर बेंधती है । सलिल जी का साहित्यकार इसी प्रकृति का है! सलिल जी शुभ जहाँ है,उसका नमन करते हुए सनातन
सत्य की अभिव्यक्ति में विश्वास रखते हैं।
माँ सरस्वती से उनकी प्रार्थना है-
''अमल -धवल शुचि विमल सनातन मैया!
बुद्धि-ज्ञान-विज्ञान प्रदायिनी छैयां''
तिमिर हारिणी
भय निवारिणी सुखदा,
नाद-ताल, गति-यति
खेलें तव कैंया
अनहद सुनवा दो कल्याणी!
जय-जय वीणापाणी!''
उम्मीदों की फसल उगाने का आह्वान करते हुए सलिल जी ईश्वर, अपने माता पिता और पुरखों के प्रति भक्ति,श्रद्धा और कृतज्ञता अर्पित कर अपनी विनम्रता और शुभ का सम्मान करने की अपनी प्रवृत्ति का परिचय देते हैं । हर भावुक और संवेदनशील साहित्यकार अपने आस-पास बिखरे परिवेश पर अपनी दृष्टि डालता है और जहाँ उसकी भावुकता ठहर जाती है, वहां उसका चिंतन उसे उद्वेलित करने लगता है । इस ठहराव में भी गति का सन्देश है और आशा की प्रेरणा भी! सलिल जी का आह्वान है-
''आज नया इतिहास लिखें हम
कठिनाई में संकल्पों का
नव हास लिखें हम!''
सलिल जी एक कर्मठ साहित्य साधक और एक सम्माननीय काव्य गुरु भी हैं। अनेक युवा साहित्यकार उनसे प्रेरणा पाकर उत्कृष्ट साहित्य की सर्जना कर रहे हैं। उनका यह योगदान निरंतर फूलता-फलता रहे और उनकी प्रखर प्रतिभा के प्रसून खिलते रहें! हिंदी भाषा के विकास,विस्तार,प्रसार के लिये ऐसे समर्पित साधकों की बहुत आवश्यकता है। उन्हें सप्रेम नमस्कार।
***
1-7-2019 

शनिवार, 1 दिसंबर 2018

कुण्डलिया

कार्य शाला:
दोहा से कुण्डलिया 
*
बेटी जैसे धूप है, दिन भर करती बात।
शाम ढले पी घर चले, ले कर कुछ सौगात।।  -आभा सक्सेना 'दूनवी' 

लेकर कुछ सौगात, ढेर आशीष लुटाकर।
बोल अनबोले हो, जो भी हो चूक भुलाकर।। 
रखना हरदम याद, न हो किंचित भी हेटी। 
जाकर भी जा सकी, न दिल से प्यारी बेटी।। -संजीव वर्मा 'सलिल'
*** 
१.१२.२०१८ 

सोमवार, 9 जुलाई 2018

कार्यशाला: एक रचना दो रचनाकार

कार्यशाला: एक रचना दो रचनाकार 
सोहन परोहा 'सलिल'-संजीव वर्मा 'सलिल'
*
'सलिल!' तुम्हारे साथ भी, अजब विरोधाभास।
तन है मायाजाल में, मन में है सन्यास।।         -सोहन परोहा 'सलिल'

मन में है सन्यास, लेखनी रचे सृष्टि नव। 
जहाँ विसर्जन वहीं निरंतर होता उद्भव।। 
पा-खो; आया-गया है, हँस-रो रीते हाथ ही। 
अजब विरोधाभास है, 'सलिल' हमारे साथ भी।। -संजीव वर्मा 'सलिल'
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९.७.२०१८  

सोमवार, 26 मार्च 2018

समीक्षा नवगीत: हम जंगल के अमलतास, भगवत दुबे - संजीव वर्मा 'सलिल'

कृति चर्चा: 
हम जंगल के अमलतास : नवाशा प्रवाही नवगीत संकलन
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१ ८३२४४ 
[कृति विवरण: हम जंगल के अमलतास, नवगीत संग्रह, आचार्य भगवत दुबे, २००८, पृष्ठ १२०, १५० रु., आकार डिमाई, आवरण सजिल्द बहुरंगी जैकेटयुक्त, प्रकाशक कादंबरी जबलपुर, संपर्क: २६७२ विमल स्मृति, समीप पिसनहारी मढ़िया, जबलपुर ४८२००३, चलभाष ९३००६१३९७५] 
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विश्ववाणी हिंदी के समृद्ध वांग्मय को रसप्लावित करती नवगीतीय भावधारा के समर्थ-सशक्त हस्ताक्षर आचार्य भगवत दुबे के नवगीत उनके व्यक्तित्व की तरह सहज, सरल, खुरदरे, प्राणवंत ततः जिजीविषाजयी हैं. इन नवगीतों का कथ्य सामाजिक विसंगतियों के मरुस्थल  में मृग-मरीचिका की तरह आँखों में झूलते - टूटते स्वप्नों को पूरी बेबाकी से उद्घाटित तो करता है किन्तु हताश-निराश होकर आर्तनाद नहीं करता. ये नवगीत विधागत संकीर्ण मान्यताओं की अनदेखी कर, नवाशा का संचार करते हुए, अपने पद-चिन्हों से नव सृअन-पथ का अभिषेक करते हैं. संग्रह के प्रथम नवगीत 'ध्वजा नवगीत की' में आचार्य दुबे नवगीत के उन तत्वों का उल्लेख करते हैं जिन्हें वे नवगीत में आवश्यक मानते हैं:

                       नव प्रतीक, नव ताल, छंद नव लाये हैं 
                       जन-जीवन के सारे चित्र बनाये हैं 
                                              की सरगम तैयार नये संगीत की 
                       कसे उक्ति वैचित्र्य, चमत्कृत करते हैं 
                       छोटी सी गागर में सागर भरते हैं 
                                              जहाँ मछलियाँ विचरण करें प्रतीत की 
                       जो विरूपतायें समाज में दिखती हैं 
                       गीत पंक्तियाँ उसी व्यथा को लिखती हैं 
                                              लीक छोड़ दी पारंपरिक अतीत की 
                                              अब फहराने लगी ध्वजा नवगीत की 

सजग महाकाव्यकार, निपुण दोहाकार, प्रसिद्ध गजलकार, कुशल कहानीकार, विद्वान समीक्षक, सहृदय लोकगीतकार, मौलिक हाइकुकार आदि विविध रूपों में दुबे जी सतत सृजन कर चर्चित-सम्मानित हुए हैं. इन नवगीतों का वैशिष्ट्य आंचलिक जन-जीवन से अनुप्राणित होकर ग्राम्य जीवन के सहजानंद को शहरी जीवन के त्रासद वैभव पर वरीयता देते हुए मानव मूल्यों को शिखर पर स्थापित करना है. प्रो. देवेन्द्र शर्मा 'इंद्र' इन नवगीतों के संबंध में ठीक ही लिखते हैं: '...भाषा, छंद, लय, बिम्ब और प्रतीकों के समन्वित-सज्जित प्रयोग की कसौटी पर भी दुबे जी खरे उतरते हैं. उनके गीत थके-हरे और अवसाद-जर्जर मानव-मन को आस्था और विश्वास की लोकांतर यात्रा करने में पूर्णत: सफल हुए हैं. अलंकार लोकोक्तियों और मुहावरों के प्रचुर प्रयोग ने गीतों में जो ताजगी और खुशबू भर दी है, वह श्लाघनीय है.' 

निराला द्वारा 'नव गति, नव लय, ताल-छंद नव' के आव्हान से नवगीत का प्रादुर्भाव मानने और स्व. राजेंद्र प्रसाद सिंह तथा स्व. शम्भुनाथ सिंह द्वारा प्रतिष्ठापित नवगीत को उद्भव काल की मान्यताओं और सीमाओं में कैद रखने का आग्रह करनेवाले नवगीतकार यह विस्मृत कट देते हैं कि काव्य विधा पल-पल परिवर्तित होती सलिला सदृश्य किसी विशिष्ट भाव-भंगिमा में कैद की ही नहीं जा सकती. सतत बदलाव ही काव्य की प्राण शक्ति है. दुबे जी नवगीत में परिवर्तन के पक्षधर हैं: "पिंजरों में जंगल की / मैना मत पालिये / पाँव  में हवाओं के / बेड़ी मत डालिए... अब तक हैं यायावर' 

वृद्ध मेघ क्वांर के (मुखड़ा १२+११ x २, ३ अन्तरा १२+१२ x २ + १२+ ११), वक्त यह बहुरुपिया (मुखड़ा १४+१२ , १-३ अन्तरा १४+१२ x ३, २ अन्तरा १२+ १४ x २ अ= १४=१२), यातनाओं की सुई (मुखड़ा १९,२०,१९,१९, ३ अन्तरा १९ x ६), हम त्रिशंकु जैसे तारे हैं, नयन लाज के भी झुक जाते - पादाकुलक छंद(मुखड़ा १६x २, ३ अन्तरा १६x ६), स्वार्थी सब शिखरस्थ हुए- महाभागवत जाति (२६ मात्रीय), हवा हुई ज्वर ग्रस्त २५ या २६ मात्रा, मार्गदर्शन मनचलों का-यौगिक जाति (मुखड़ा १४ x ४, ३ अन्तरा २८ x २ ), आचरण आदर्श के बौने हुए- महापौराणिक जाति (मुखड़ा १९ x २, ३ अन्तरा १९ x ४), पसलियाँ बचीं (मुखड़ा १२+८,  १०=१०, ३ अन्तरा २०, २१ या २२ मात्रिक ४ पंक्तियाँ), खर्राटे भर रहे पहरुए (मुखड़ा १६ x २+१०, ३ अन्तरा १४ x ३ + १६+ १०),समय क्रूर डाकू ददुआ (मुखड़ा १६+१४ x २, ३ अन्तरा १६ x ४ + १४), दिल्ली तक जाएँगी लपटें (मुखड़ा २६x २, ३ अन्तरा २६x २ + २६), ओछे गणवेश (मुखड़ा २१ x २, ३ अन्तरा २० x २ + १२+१२ या ९), बूढ़ा हुआ बसंत (मुखड़ा २६ x २, ३ अन्तरा १६ x २ + २६), ब्याज रहे भरते (मुखड़ा २६ x २, ३ अन्तरा २६ x २ + २६) आदि से स्पष्ट है कि दुबे जी को छंदों पर अधिकार प्राप्त है. वे छंद के मानक रूप के अतिरिक्त कथ्य की माँग पर परिवर्तित रूप का प्रयोग भी करते हैं. वे लय को साधते हैं, यति-स्थान को नहीं. इससे उन्हें शब्द-चयन तथा शब्द-प्रयोग में सुविधा तथा स्वतंत्रता मिल जाती है जिससे भाव की समुचित अभिव्यक्ति संभव हो पाती है.
यथार्थवाद और प्रगतिवाद के खोखले नारों पर आधरित तथाकथित प्रगतिवादी कविता की नीरसता के व्यूह को अपने सरस नवगीतों से छिन्न-भिन्न करते हुए दुबे जी अपने नवगीतों को छद्म क्रांतिधर्मिता से बचाकर रचनात्मक अनुभूतियों और सृजनात्मकता की और उन्मुख कर पाते हैं: 'जुल्म का अनुवाद / ये टूटी पसलियाँ हैं / देखिये जिस ओर / आतंकी बिजलियाँ हैं / हो रहे तेजाब जैसे / वक्त के तेव ... युगीन विसंतियों के निराकरण के उपाय भी घातक हैं: 'उर्वरक डाले विषैले / मूक माटी में / उग रहे हथियार पीने / शांत घाटी में'...   किन्तु कहीं भी हताशा-निराशा या अवसाद नहीं है. अगले ही पल नवगीत आव्हान करता है: 'रूढ़ि-अंधविश्वासों की ये काराएँ तोड़ें'...'भ्रम के खरपतवार / ज्ञान की खुरपी से गोड़ें'. युगीन विडंबनाओं के साथ समन्वय और नवनिर्माण का स्वर समन्वित कर दुबेजी नवगीत को उद्देश्यपरक बना देते हैं.

राजनैतिक विद्रूपता का जीवंत चित्रण देखें: 'चीरहरण हो जाया करते / शकुनी के पाँसों से / छली गयी है प्रजा हमेशा / सत्ता के झाँसों से / राजनीti में सम्मानित / होती करतूतें काली'  प्रकृति का सानिंध्य चेतना और स्फूर्ति देता है. अतः, पर्यावरण की सुरक्षा हमारा दायित्व है:

कभी ग्रीष्म, पावस, शीतलता 
कभी वसंत सुहाना 
विपुल खनिज-फल-फूल अन्न 
जल-वायु प्रकृति से पाना
पर्यावरण सुरक्षा करके 
हों हम मुक्त ऋणों से 

नकारात्मता में भी सकरात्मकता देख पाने की दृष्टि स्वागतेय है:

ग्रीष्म ने जब भी जलाये पाँव मेरे
पीर की अनुभूति से परिचय हुआ है...

.....भ्रूण अँकुराये लता की कोख में जब
हार में भी जीत का निश्चय हुआ है. 
      


प्रो. विद्यानंदन राजीव के अनुसार ये 'नवगीत वर्तमान जीवन के यथार्थ से न केवल रू-ब-रू होते हैं वरन सामाजिक विसंगतियों से मुठभेड़ करने की प्रहारक मुद्रा में दिखाई देते हैं.'

सामाजिक मर्यादा को क्षत-विक्षत करती स्थिति का चित्रण देखें: 'आबरू बेशर्म होकर / दे रही न्योते प्रणय के / हैं घिनौने चित्र ये / अंग्रेजियत से संविलय के / कर रही है यौन शिक्षा / मार्गदर्शन मनचलों का'

मौसमी परिवर्तनों पर दुबे जी के नवगीतों की मुद्रा अपनी मिसाल आप है: 'सूरज मार  रहा किरणों के / कस-कस कर कोड़े / हवा हुई ज्वर ग्रस्त / देह पीली वृक्षों की / उलझी प्रश्नावली / नदी तट के यक्षों की / किन्तु युधिष्ठिर कृषक / धैर्य की वल्गा ना छोड़े.''

नवगीतकारों के सम्मुख नव छंद की समस्या प्राय: मुँह बाये रहती है. विवेच्य संग्रह के नवगीत पिन्गलीय विधानों का पालन करते हुए भी कथ्य की आवश्यकतानुसार गति-यति में परिवर्तन कर नवता की रक्षा कर पाते हैं.

'ध्वजा नवगीत की' शीर्षक नवगीत में २२-२२-२१ मात्रीय पंक्तियों के ६ अंतरे हैं. पहला समूह मुखड़े का कार्य कर रहा है, शेष समूह अंतरे के रूप में हैं. तृतीय पंक्ति में आनुप्रसिक तुकांतता का पालन किया गया है.

'हम जंगल के अमलतास' शीर्षक नवगीत पर कृति का नामकरण किया गया है. यह नवगीत महाभागवत जाति के गीतिका छंद में १४+१२ = २६ मात्रीय पंक्तियों में रचा गया है तथा पंक्त्यांत में  लघु-गुरु का भी पालन है. मुखड़े में २ तथा अंतरों में ३-३ पंक्तियाँ हैं.

'जहाँ लोकरस रहते शहदीले' शीर्षक रचना महाभागवत जातीय छंद में है.  मुखड़े तथा २ अंतरांत में गुरु-गुरु का पालन है, जबकि ३ रे अंतरे में एक गुरु है. यति में विविधता है: १६-१०, ११-१५, १४-१२.

'हार न मानी अच्छाई ने' शीर्षक गीत में प्रत्येक पंक्ति १६ मात्रीय है. मुखड़ा १६+१६=३२ मात्रिक है. अंतरे में ३२ मात्रिक २ (१६x४)  समतुकांती पंक्तियाँ है. सवैया के समान मात्राएँ होने पर भी पंक्त्यांत में भगण न होने से यह सवैया गीत नहीं है.

'ममता का छप्पर'  नवगीत महाभागवत जाति का है किन्तु यति में विविधता  १६+१०, ११+१५, १५+११ आदि के कारण यह मिश्रित संकर छंद में है.

'बेड़ियाँ न डालिये' के अंतरे में १२+११=२३ मात्रिक २ पंक्तियाँ, पहले-तीसरे अंतरे में १२+१२=२४ मात्रिक २-२ पंक्तियाँ तथा दूसरे अंतरे में १०+१३=२३ मात्रिक २ पंक्तियाँ है. तीनों अंतरों के अंत में मुखड़े के सामान १२+१२ मात्रिक पंक्ति है. गीत में मात्रिक तथा यति की विविधता के बावजूद प्रवाह भंग नहीं है.

'नंगपन ऊँचे महल का शील है' शीर्षक गीत महापौराणिक जातीय छंद में है. अधिकांश पंक्तियों में ग्रंथि छंद के पिन्गलीय विधान (पंक्त्यांत लघु-गुरु) का पालन है किन्तु कहीं-कहीं अंत के गुरु को २ लघु में बदल लिया गया है तथापि लय भंग न हो इसका ध्यान रखा गया है.


इन नवगीतों में खड़ी हिंदी, देशज बुन्देली, यदा-कदा उर्दू व् अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग, मुहावरों तथा लोकोक्तियों का प्रयोग हुआ है जो लालित्य में वृद्धि करता है. दुबे जी कथ्यानुसार प्रतीकों, बिम्बों, उपमाओं तथा रूपकों का प्रयोग करते हैं. उनका मत है: 'इस नयी विधा ने काव्य पर कुटिलतापूर्वक लादे गए अतिबौद्धिक अछ्न्दिल बोझ को हल्का अवश्य किया है.' हम जंगल के अमलतास' एक महत्वपूर्ण नवगीत संग्रह है जो छान्दस वैविध्य और लालित्यपूर्ण अभिव्यक्ति से परिपूर्ण है.
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संपर्क: समन्वयम् २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, ९४२५१ ८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com

समीक्षा: हिरण सुगंधों के- आचार्य भगवत दुबे आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

पुस्तक सलिला: 

हिरण सुगंधों के- आचार्य भगवत दुबे
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
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पुस्तक परिचय: हिरण सुगंधों के, गीत-नवगीत संग्रह रचनाकार- आचार्य भागवत दुबे, प्रकाशक- अनुभव प्रकाशन ई २८ लाजपत नगर साहिबाबाद २०१००५, प्रथम संस्करण- २००४, मूल्य- रूपये १२०/-, पृष्ठ- १२१। 
                                       विविध विधाओं में गत ५ दशकों से सृजनरत वरिष्ठ रचनाधर्मी आचार्य भगवत दुबे रचित ‘हिरण सुगंधों के’ के नवगीत किताबी कपोल कल्पना मात्र न होकर डगर-डगर में जगर-मगर करते अपनों के सपनों, आशाओं-अपेक्षाओं, संघर्षों-पीडाओं के जीवंत दस्तावेज हैं। ये नवगीत सामान्य ग्राम्य जनों की मूल मनोवृत्ति का दर्पण मात्र नहीं हैं अपितु उसके श्रम-सीकर में अवगाहन कर, उसकी संस्कृति में रचे-बसे भावों के मूर्त रूप हैं। इन नवगीतों में ख्यात समीक्षक नामवर सिंह जी की मान्यता के विपरीत ‘निजी आत्माभिव्यक्ति मात्र’ नहीं है अपितु उससे वृहत्तर आयाम में सार्वजनिक और सार्वजनीन यथार्थपरक सामाजिक चेतना, सामूहिक संवाद तथा सर्वहित संपादन का भाव अन्तर्निहित है। इनके बारे में दुबे जी ठीक ही कहते हैं-
‘बिम्ब नये सन्दर्भ पुराने
मिथक साम्यगत लेकर
परंपरा से मुक्त
छान्दसिक इनका काव्य कलेवर
सघन सूक्ष्म अभिव्यक्ति दृष्टि
सारे परिदृश्य प्रतीत के
पुनः आंचलिक संबंधों से
हम जुड़ रहे अतीत के’

                                       अतीत से जुड़कर वर्तमान में भविष्य को जोड़ते ये नवगीत रागात्मक, लयात्मक, संगीतात्मक, तथा चिन्तनात्मक भावभूमि से संपन्न हैं। डॉ. श्याम निर्मम के अनुसार: ‘इन नवगीतों में आज के मनुष्य की वेदना, उसका संघर्ष और जीवन की जद्दोजहद को भली-भाँति देखा जा सकता है। भाषा का नया मुहावरा, शिल्प की सहजता और नयी बुनावट, छंद का मनोहारी संसार इन गीतों में समाया है। आम आदमी का दुःख-दर्द, घर-परिवार की समस्याएँ, समकालीन विसंगतियाँ, थके-हारे मन का नैराश्य और संवेदनहीनता को दर्शाते ये नवगीत नवीन भंगिमाओं के साथ लोकधर्मी, बिम्बधर्मी और संवादधर्मी बन पड़े हैं।’
श्रम ढहाकर ही रहेगा / अब कुहासे का किला 
झोपडी की अस्मिता को / छू न पाएँगे महल अब 
पीठ पर श्रम की / न चाबुक के निशां / बन पाएँगे अब 
बाँध को / स्वीकारना होगा / नहर का फैसला 
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चुटकुले, चालू चले / औ' गीत हम बुनते रहे 
सींचते आँसू रहे / लतिकाओं, झाड़ों के लिए 
तालियाँ पिटती रहीं / हिंसक दहाड़ों  के लिए
मसखरी, अतिरंजना पर / शीश हम धुनते रहे 
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उच्छृंखल हो रही हवाएँ / मौसम भी बदचलन हुआ है  
इठलाती फिरती हैं नभ पर / सँवर षोडशी नील घटाएँ 
फहराती ज्यों खुली साड़ियाँ / सुर-धनु की रंगीं ध्वजाएँ 
पावस ऋतु में पूर्ण सुसज्जित / रंगमंच सा गगन हुआ है 
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                                       महाकाव्य, गीत, दोहा, कहानी, लघुकथा, गज़ल, आदि विविध विधाओं की अनेक कृतियों का सृजन कर राष्ट्रीय ख्याति अर्जित कर चुके आचार्य दुबे अद्भुत बिम्बों, सशक्त लोक-प्रतीकों, जीवंत रूपकों, अछूती उपमाओं, सामान्य ग्राम्यजनों की आशाओं-अपेक्षाओं की रागात्मक अभिव्यक्ति पारंपरिक पृष्ठभूमि की आधारशिला पर इस तरह कर सके हैं कि मुहावरों का सटीक प्रयोग, लोकोक्तियों की अर्थवत्ता, अलंकारों का आकर्षण इन नवगीतों में उपस्थित सार्थकता, लाक्षणिकता, संक्षिप्तता, बेधकता तथा रंजकता के पंचतत्वों के साथ समन्वित होकर इन्हें अर्थवत्ता दे सका है।
दबे पाँव सूर्य गया / पश्चिम की ओर 
प्राची से प्रगट हुआ / चाँद नवकिशोर 
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भूखा पेट कनस्तर खाली / चूल्हा ठंडा रहा 
अंगीठी सोयी मन मारे 
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सूखे कवित्त-ताल / मुरझाए पद्माकर 
ग्रहण-ग्रस्त चंद 
गीतों से निष्कासित / वासंती छंद 
                                       आम आदमी का दैनंदिन दुःख-सुख इन नवगीतों का उत्स और लक्ष्य है। दुबे जी के गृहनगर जबलपुर के समीप पतित पावनी नर्मदा पर बने बरगी बाँध के निर्माण से डूब में आयी जमीन गँवा चुके किसानों की व्यथा-कथा कहता नवगीत पारिस्थितिक विषमता व पीड़ा को शब्द देता है:
विस्थापन कर दिया बाँध ने
ढूँढें ठौर-ठिकाना
बिके ढोर-डंगर, घर-द्वारे
अब सब कुछ अनजाना
बाड़ी, खेत, बगीचा डूबे
काटा आम मिठौआ
उड़ने लगे उसी जंगल में
अब काले कौआ

                                       दुबे जी ने भाष की विरासत को ग्रहण मात्र नहीं करते नयी पीढ़ी के लिए उसमें कुछ जोड़ते भे एहेन। अपनी अभिव्यक्ति के लिये उनहोंने आवश्यकतानुसार नव शब्द भी गढ़े हैं-
सीमा कभी न लाँघी हमने
मानवीय मरजादों की
भेंट चाहती है रणचंडी
शायद अब दनुजादों की

                                       ‘साहबजादा’ शब्द की तर्ज़ पर गढ़ा गया शब्द ‘दनुजादा’ अपना अर्थ आप ही बता देता है। ऐसे नव प्रयोगों से भाषा की अभिव्यक्ति ही नहीं शब्दकोष भी समृद्ध होता है।
                                       दुबे जी नवगीतों में कथ्य के अनुरूप शब्द-चयन करते हैं- खुरपी से निन्वारे पौधे, मोची नाई कुम्हार बरेदी / बिछड़े बढ़ई बरौआ, बखरी के बिजार आवारा / जुते रहे भूखे हरवाहे आदि में देशजता, कविता की सरिता में / रेतीला पड़ा / शब्दोपल मार रहा, धरती ने पहिने / परिधान फिर ललाम, आयेगी क्या वन्य पथ से गीत गाती निर्झरा, ओस नहाये हैं दूर्वादल / नीहारों के मोती चुगते / किरण मराल दिवाकर आधी में परिनिष्ठित-संस्कारित शब्दावली, हलाकान कस्तूरी मृग, शीतल तासीर हमारी है, आदमखोर बकासुर की, हर मजहबी विवादों की यदि हवा ज़हरी हुई, किन्तु रिश्तों में सुरंगें हो गयीं में उर्दू लफ्जों के सटीक प्रयोग के साथ बोतलें बिकने लगीं, बैट्समैन मंत्री की हालत, जब तक फील्डर जागें, सौंपते दायित्व स्वीपर-नर्स को, आवभगत हो इंटरव्यू में, जीत रिजर्वेशन के बूते आदि में आवश्यकतानुसार अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग जिस सहजता से हुआ है, वह दुबेजी के सृजन सामर्थ्य का प्रमाण है।
                                       गीतों के छांदस विधान की नींव पर आक्रामक युगबोधी तेवरपरक कथ्य की दीवारें, जन-आकांक्षाओं की दरार तथा जन-पीडाओं के वातायन के सहारे दुबे जी इन नवगीतों के भवन को निर्मित-अलंकृत करते हैं। इन नवगीतों में असंतोष की सुगबुगाहट तो है किन्तु विद्रोह की मशाल या हताशा का कोहरा कहीं नहीं है। प्रगतिशीलता की छद्म क्रन्तिपरक भ्रान्ति से सर्वथा मुक्त होते हुए भी ये नवगीत आम आदमी के लिये हितकरी परिवर्तन की चाह ही नहीं माँग भी पूरी दमदारी से करते हैं। शहरी विकास से क्षरित होती ग्राम्य संस्कृति की अभ्यर्थना करते ये नवगीत अपनी परिभाषा आप रचते हैं। महानगरों के वातानुकूलित कक्षों में प्रतिष्ठित तथाकथित पुरोधाओं द्वारा घोषित मानकों के विपरीत ये नवगीत छंद व् अलंकारों को नवगीत के विकास में बाधक नहीं साधक मानते हुए पौराणिक मिथकों के इंगित मात्र से कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक अभिव्यक्त कर पाठक के चिंतन-मनन की आधारभूमि बनाते हैं। प्रख्यात नवगीतकार, समीक्षक श्री देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’ के अनुसार- ‘अनेक गीतकारों ने अपनी रचनाओं में लोक जीवन और लोक संस्कृति उतारने की कोशिश पहले भी की है तथापि मेरी जानकारी में जितनी प्रचुर और प्रभूत मात्रा में भगवत दुबे के गीत मिलते हैं उतने प्रमाणिक गीत अन्य दर्जनों गीतकारों ने मिलकर भी नहीं लिखे होंगे।’
                                       "हिरण सुगंधों के" के नवगीत पर्यावरणीय प्रदूषण और सांस्कृतिक प्रदूषण से दुर्गंधित वातावरण को नवजीवन देकर सुरभित सामाजिक मर्यादाओं के सृजन की प्रेरणा देने में समर्थ हैं। नयी पीढ़ी इन नवगीतों का रसास्वादन कर ग्राम-नगर के मध्य सांस्कृतिक राजदूत बनने की चेतना पाकर अतीत की विरासत को भविष्य की थाती बनाने में समर्थ हो सकती है।
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संपर्क: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विश्व वाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष: ०७९९९५५९६१८, ९४२५१ ८३२४४, salilsanjiv@gmail.com,. 
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