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बुधवार, 20 मई 2009

ग़ज़ल: मनु बेतखल्लुस, दिल्ली

गमे-हस्ती के सौ बहाने हैं,
ख़ुद ही अपने पे आजमाने हैं

सर्द रातें गुजारने के लिए,
धूप के गीत गुनगुनाने हैं

कैद सौ आफ़ताब तो कर लूँ,
क्या मुहल्ले के घर जलाने हैं

आ ही जायेंगे वो चराग ढले,
और उनके कहाँ ठिकाने हैं

फ़िक्र पर बंदिशें हजारों हैं,
सोचिये, क्या हसीं जमाने हैं

तुझ सा मशहूर हो नहीं सकता
तुझ से हटकर, मेरे फ़साने हैं

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शुक्रवार, 15 मई 2009

ग़ज़ल: मनु बेतखल्लुस, दिल्ली


हस्रतों की उनके आगे यूँ नुमाईश हो गई

लब न हिल पाये निगाहों से गुजारिश हो गई

उम्र भर चाहा किए तुझको खुदा से भी सिवा

यूँ नहीं दिल में मेरे तेरी रिहाइश हो गई

अब कहीं जाना बुतों की आशनाई कहर है

जब किसी अहले-वफ़ा की आजमाइश हो गई

घर टपकता है मेरा, सो लौट जाएगा अबर

हम भरम पाले हुए थे और बारिश हो गई

जब तलक वो गौर फरमाते मेरी तहरीर पर

तब तलक मेरे रकीबों की सिफारिश हो गई

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बुधवार, 6 मई 2009

ग़ज़ल: मनु बेतखल्लुस, दिल्ली

मेरी निगाह ने वा कर दिए बवाल कई,

हुए हैं जान के दुश्मन ही हमखयाल कई


नज़र मिलाते ही मुझसे वो हुआ,

कहा था जिसने के, आ पूछ ले सवाल कई


उलट पलट दिया सब कुछ नई हवाओं ने,

कई निकाल दिए, हो गए बहाल कई


कहीं पे नूर, कहीं ज़ुल्मतें बरसती रहीं,

दिखाए रौशनी ने ऐसे भी कमाल कई


है बादे-मर्ग की बस्ती ज़रा अदब से चल,

यहाँ पे सोये हैं, तुझ जैसे बेमिसाल कई ************