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सोमवार, 30 दिसंबर 2019

छंद, गीत


छंद क्या है?
*
छंद क्या है?
छंद रस है,
रस बिना नीरस न होना
निराशा में पथ न खोना
चीरकर तम, कर उजाला
जागरण का गान होना
*
छंद क्या है?
छंद लय है
प्राणप्रद गंधित मलय है
सत्य में शिव का विलय है
सत्य सुंदर तभी शिव है
असुंदर के हित प्रलय है
*
छंद क्या है?
छंद ध्वनि है
नाद अनहद सृष्टि रचता
वीतरागी सतत भजता
डूब रागी गा-बजाता
शब्द सार्थक हो हुलसता
*
छंद क्या है?
छंद जग है
कथ्य कहता हुआ पग है
खुशी वरता हुआ डग है
कभी कलकल; कभी कलरव
दर्द पर विजयी सुमग है
*
छंद क्या है?
छंद जय है
सर्वहित की बात बोले
स्वार्थ विष किंचित् न घोले
अमिय औरों को पिलाए
नीलकंठी अभय डोले
*
छंद रस है
छंद लय है
छंद ध्वनि है
छंद जग है
छंद जय है
***
संजीव
२९-१२-२०१९
७९९९५५९६१८

शुक्रवार, 27 दिसंबर 2019

मकर संक्रांति

नवगीत
दूर कर दे भ्रांति
*
दूर कर दे भ्रांति
आ संक्राति!
हम आव्हान करते।
तले दीपक के
अँधेरा हो भले
हम किरण वरते।
*
रात में तम
हो नहीं तो
किस तरह आये सवेरा?
आस पंछी ने
उषा का
थाम कर कर नित्य टेरा।
प्रयासों की
हुलासों से
कर रहां कुड़माई मौसम-
नाचता दिनकर
दुपहरी संग
थककर छिपा कोहरा।
संक्रमण से जूझ
लायें शांति
जन अनुमान करते।
*
घाट-तट पर
नाव हो या नहीं
लेकिन धार तो हो।
शीश पर हो छाँव
कंधों पर
टिका कुछ भार तो हो।
इशारों से
पुकारों से
टेर सँकुचे ऋतु विकल हो-
उमंगों की
पतंगें उड़
कर सकें आनंद दोहरा।
लोहड़ी, पोंगल, बिहू
जन-क्रांति का
जय-गान करते।
*
ओट से ही वोट
मारें चोट
बाहर खोट कर दें।
देश का खाता
न रीते
तिजोरी में नोट भर दें।
पसीने के
नगीने से
हिंद-हिंदी जगजयी हो-
विधाता भी
जन्म ले
खुशियाँ लगाती रहें फेरा।
आम जन के
काम आकर
सेठ-नेता काश तरते।
१२-१-२०१७
***
बाल नवगीत:
संजीव
*
सूरज बबुआ!
चल स्कूल
*
धरती माँ की मीठी लोरी
सुनकर मस्ती खूब करी
बहिन उषा को गिरा दिया
तो पिता गगन से डाँट पड़ी
धूप बुआ ने लपक चुपाया
पछुआ लाई
बस्ता-फूल
सूरज बबुआ!
चल स्कूल
*
जय गणेश कह पाटी पूजन
पकड़ कलम लिख ओम
पैर पटक रो मत, मुस्काकर
देख रहे भू-व्योम
कन्नागोटी, पिट्टू, कैरम
मैडम पूर्णिमा के सँग-सँग
हँसकर
झूला झूल
सूरज बबुआ!
चल स्कूल
*
चिड़िया साथ फुदकती जाती
कोयल से शिशु गीत सुनो
'इकनी एक' सिखाता तोता
'अ' अनार का याद रखो
संध्या पतंग उड़ा, तिल-लड़ुआ
खा पर सबक
न भूल
सूरज बबुआ!
चल स्कूल
***
मंगलवार, 6 जनवरी 2015
नवगीत:
*.
काल है संक्रांति का
तुम मत थको सूरज!
.
दक्षिणायन की हवाएँ
कँपाती हैं हाड़
जड़ गँवा, जड़ युवा पीढ़ी
काटती है झाड़
प्रथा की चूनर न भाती
फेंकती है फाड़
स्वभाषा को भूल, इंग्लिश
से लड़ाती लाड़
टाल दो दिग्भ्रान्ति को
तुम मत रुको सूरज!
*
उत्तरायण की फिज़ाएँ
बनें शुभ की बाड़
दिन-ब-दिन बढ़ता रहे सुख
सत्य की हो आड़
जनविरोधी सियासत को
कब्र में दो गाड़
झाँक दो आतंक-दहशत
तुम जलाकर भाड़
ढाल हो चिर शांति का
तुम मत झुको सूरज!
***
नवगीत:
आओ भी सूरज
*
आओ भी सूरज!
छट गये हैं फूट के बादल
पतंगें एकता की मिल उड़ाओ
गाओ भी सूरज!
*
करधन दिप-दिप दमक रही है
पायल छन-छन छनक रही है
नच रहे हैं झूमकर मादल
बुराई हर अलावों में जलाओ
आओ भी सूरज!
*
खिचड़ी तिल-गुड़वाले लडुआ
पिज्जा तजकर खाओ बबुआ
छोड़ बोतल उठा लो छागल
पड़ोसी को खुशी में साथ पाओ
आओ भी सूरज!
*
रविवार, 4 जनवरी 2015
****
नवगीत:
उगना नित
*
उगना नित
हँस सूरज
धरती पर रखना पग
जलना नित, बुझना मत
तजना मत, अपना मग
छिपना मत, छलना मत
चलना नित
उठ सूरज
लिखना मत खत सूरज
दिखना मत बुत सूरज
हरना सब तम सूरज
करना कम गम सूरज
मलना मत
कर सूरज
कलियों पर तुहिना सम
कुसुमों पर गहना बन
सजना तुम सजना सम
फिरना तुम भँवरा बन
खिलना फिर
ढल सूरज
***
(छंदविधान: मात्रिक करुणाकर छंद, वर्णिक सुप्रतिष्ठा जातीय नायक छंद)
२.१.२०१५
नवगीत:
संक्रांति काल है
.
संक्रांति काल है
जगो, उठो
.
प्रतिनिधि होकर जन से दूर
आँखें रहते भी हो सूर
संसद हो चौपालों पर
राजनीति तज दे तंदूर
संभ्रांति टाल दो
जगो, उठो
.
खरपतवार न शेष रहे
कचरा कहीं न लेश रहे
तज सिद्धांत, बना सरकार
कुर्सी पा लो, ऐश रहे
झुका भाल हो
जगो, उठो
.
दोनों हाथ लिये लड्डू
रेवड़ी छिपा रहे नेता
मुँह में लैया-गज़क भरे
जन-गण को ठेंगा देता
डूबा ताल दो
जगो, उठो
.
सूरज को ढाँके बादल
सीमा पर सैनिक घायल
नाग-सांप फिर साथ हुए
गुँजा रहे बंसी-मादल
छिपा माल दो
जगो, उठो
.
नवता भरकर गीतों में
जन-आक्रोश पलीतों में
हाथ सेंक ले कवि तू भी
जाए आज अतीतों में
खींच खाल दो
जगो, उठो
*****

गुरुवार, 26 दिसंबर 2019

अभियान ७-८ दिसंबर २०१९

ॐ 
'कवि युगदृष्टा ही नहीं युग सृष्टा भी होता है' -संजीव 'सलिल'

चित्र में ये शामिल हो सकता है: 5 लोग, Avinash Beohar सहित, लोग बैठ रहे हैं

              जबलपुर ७-८ दिसंबर २०१९। विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर तथा विश्वरंग भोपाल के संयुक्त तत्वावधान में दो दिवसीय साहित्य संगोष्ठियों का आयोजन विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन स्थित संस्थान-पुस्तकालय में संपन्न हुआ।  प्रथम दिवस नवगीत विषयक विमर्श के मुख्य वक्ता  ख्यात समालोचक डॉ. रामसनेही लाल शर्मा फ़िरोज़ाबाद ने लोक जीवन में गीत के उद्भव, विकास, वर्तमान परिप्रेक्ष्य में प्रासंगिकता, देश-काल के अनुरूप गीत के कथ्य और शिल्प में परिवर्तन को इंगित करते हुए स्मृति शेष गीतर्षि देवेंद्र शर्मा 'इंद्र' के कथन "हर नवगीत होता है किंतु हर गीत नवगीत नहीं होता" का उलेखा करते हुए गीत को वैयक्तिक अनुभूति पर आश्रित तथा नवगीत को सामूहिक अनुभूति केंद्रित बताया। संस्थान के सभापति आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' की अध्यक्षता में संपन्न इस विमर्श में नवगीत लेखन में प्रविष्ट हो रहे रचनाकारों मिथलेश बड़गैया, विनीता श्रीवास्तव, संतोष शुक्ल, मीना भट्ट, राजलक्ष्मी शिवहरे, इंजी. सुरेंद्र पवार, इंजी. रामशंकर खरे आदि ने अपनी जिज्ञासा और प्रश्नों का समाधान प्राप्त किया। इस अवसर पर नवगीत संग्रहों 'सड़क पर' संजीव 'सलिल', 'शब्द वर्तमान' जयप्रकाश श्रीवास्तव, 'बुधिया लेता टोह' बसंत शर्मा, 'पोखर ठोंके दावा' अविनाश ब्योहार से नवगीतों का पाठ किया जाकर उनके कथ्य और शिल्प पर चर्चा की गयी। नवगीत समालोचक राधेश्याम बंधु दिल्ली ने नवगीत के तत्वों भाषा, बिम्ब, प्रतीक, मिथकीय प्रयोग आदि का सोदाहरण उल्लेख किया। अध्यक्षीय आसंदी से संबोधित करते हुए सलिल जी ने गीति काव्य के उद्भव, अवदान, स्वातंत्र्य प्राप्ति में योगदान का संकेत हुआ कहा कि कवि सामयिक घटनाओं का दर्शक मात्र नहीं अपितु भावी घटनाओं का नियामक भी होता है। आप्तकालीय परिस्थियों में दुष्यंत कुमार की रचनाओं के प्रभाव का संदर्भ देते हुए वक्त ने कहा कवी केवल युग दृष्टा नहीं युग सृष्टा भी होता है। संस्थान की स्थानीय इकाई अभियान के अध्यक्ष श्री बसंत शर्मा ने अतिथि स्वागत किया। आभार प्रदर्शन प्रचार सचिव श्री अविनाश ब्योहार ने किया। 

चित्र में ये शामिल हो सकता है: 1 व्यक्ति, बैठे हैं

           दूसरे दिन विश्ववाणी हिंदी संस्थान, अभियान जबलपुर तथा विश्वरंग भोपाल के संयुक्त तत्वावधान में संपन्न काव्य गोष्ठी में रवीन्द्रनाथ तिवारी लखनऊ, सुशील सरित आगरा, डॉ. शिवमंगल सिंह लखनऊ, डॉ. राम सनेही लाल शर्मा यायावर फ़िरोज़ाबाद, राधेश्याम बंधु दिल्ली, रामेश्वर शर्मा 'रामू भैया' कोटा, वीरेंद्र आस्तिक कानपुर के साथ स्थानीय कवियों आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', जयप्रकाश श्रीवास्तव, बसंत शर्मा, राजलक्ष्मी शिवहरे, संतोष शुक्ल, मिथलेश बड़गैया, विनीता श्रीवास्तव, अखिलेश खरे 'अखिल', अविनाश ब्योहार, सुरेंद्र पवार आदि ने काव्य पाठ किया। अतिथि कवियों ने संस्थान द्वारा हिंदी छंदों की कार्य शालाओं के नियमित आयोजनों, वॉट्सऐप तथा मुखपोथी (फेसबुक) आदि के माध्यम से श्रृंखला बद्ध शिक्षण की जानकारी पर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए अपने सहयोग के प्रति आश्वस्त किया।  विश्वरंग भोपाल द्वारा आयोजित टैगोर अंतर्राष्ट्रीय साहित्य एवं कला महोत्सव की जानकारी अतिथियों को संजीव 'सलिल' द्वारा दी गयी। पहले पहल, नया ज्ञानोदय, इलेक्ट्रॉनिकी आपके लिए, कथादेश, हंस तथा अन्य पत्रिकाओं व् पुस्तकों का अवलोकन अतिथियों ने किया।  इन आयोजनों को सफल बनाने में सुश्री आशा वर्मा, प्रो। साधना वर्मा, प्रो. आर. एल. शिवहरे, इंजी. हीरालाल बड़गैया, इंजी. रामशंकर खरे, मन्वन्तर, आभार ज्ञापन मिथलेश बड़गैया ने किया। 
***  







    

मंगलवार, 24 दिसंबर 2019

सामयिक गीत

सामयिक गीत 
नूराकुश्ती खेल रहे हो
देश गर्त में ठेल रहे हो
*
तुम ही नहीं सयाने जग में
तुम से कई समय के मग में
धूल धूसरित पड़े हुए हैं
शमशानों में गड़े हुए हैं
अवसर पाया काम करो कुछ
मिलकर जग में नाम करो कुछ
रिश्वत-सुविधा-अहंकार ही
झिल रहे हो, झेल रहे हो
नूराकुश्ती खेल रहे हो
देश गर्त में ठेल रहे हो
*
दलबंदी का दलदल घटक
राजनीति है गर्हित पातक
अपना पानी खून बतायें
खून और का व्यर्थ बहायें
सच को झूठ, झूठ को सच कह
मैली चादर रखते हो तह
देशहितों की अनदेखी कर
अपनी नाक नकेल रहे हो
नूराकुश्ती खेल रहे हो
देश गर्त में ठेल रहे हो
*


सोमवार, 23 दिसंबर 2019

डॉ. इला घोष पत्रिका

सरस्‍वती सनातनी
जनगणहृदयवासिनीं धिय: कोशविकासिनीम् ।
जाड्यतिमिरविनाशिनीं नमामि हंसवाहिनीम् ।। १।।
कविमानसविहारिणीमन्‍त:शुद्धिकारिणीम् ।
कलिकालुष्‍यहारिणीं वन्‍दे पुस्‍तधारिणीम् ।।२।।
प्रभामण्‍डलपरिगतां पद्मासने संस्थिताम् ।
शुद्धसत्त्वस्‍वरूपां भजामि शारदां शिवाम् ।।३।।
भगवतीं गीर्देवतां नि:श्रेयसमूलां शुभाम् ।
विवेकरश्मिदीपिकामुपास्‍महे चिदात्मिकाम् ।।४।।
पश्‍यामि शान्‍तमूर्तिं पुर: प्रणिधानगम्‍याम् ।
तप: पूतां पुण्‍यां ज्‍योत्‍स्नावदातदेहाम् ।।५।।
स्निग्‍धमधुरिमं देव्‍या मुखारविन्‍दमभयदम्।
विलसति बिम्‍बाधरयो: सुस्मितं मन्‍दमन्‍दम् ।।६।।
सकरुणधवलनयनयोर्नीला कज्‍जलरेखा ।
पयोनिधिपुलिने यथा तमालश्‍यामलेखा ।।७।।
रत्‍नकिरीटराजितो घनकृष्‍णकेशपाश: ।
मुक्‍तावलीमण्डितो वर्तुल: कम्‍बुकण्‍ठ: ।।८।।
कस्‍तूरीरचितलिको ललितललाटिकायाम् ।
दुकूलं विमलशुभ्रं शोभते तनुलतायाम् ।।९।।
अवतंसीकृतकमले कर्णपाशयो रुचिरे । लम्‍बते
चाक्षसूत्रं करकिसलये पवित्रे ।।१०।।
आनतभुजवल्‍लरीषु मञ्जुमृणालवलया: ।
कलरणन्‍मणिनूपुरौ पाददेशयोर्देव्‍या : ।।११।।
मृदुलचरणप्रान्‍तेषु लाक्षारागरेखा: । चुम्‍बन्ति
रक्‍तकमले ननुनवाऽऽरुणीलेखा: ।।१२।।
यूथिकादामकाञ्ची मुष्टिग्राह्ये मध्‍ये । बालिकेव
सुलालिता कच्‍छपीवीणाऽङ्के ।।१३।।
शंखकोणेन वीणा-तन्त्रीं निनादयन्‍ती ।
मृदुमन्‍द्रमूर्च्‍छनाभी रागरागिन्‍य: सृजति ।।१४।।
समुपस्थितं समीपे कलहंसचक्रवालम् ।
लोहितचंचुचरणं नीहारहारधवलम् ।।१५।।
आरात्रिकं रचयति नभो नक्षत्रदीपै: ।। राधयति
मलयपवन: चन्‍दनसुरभिधूपै: ।।१६।।
सुरबाला रजतकमलैरर्चयन्ति गीर्देवीम् ।
अप्‍सरसो गीतनृत्‍यै रञ्जयन्ति सरस्‍वतीम् ।।१७।।
ब्रह्माविष्‍णुमहेशा: नमन्ति बद्धाञ्जलिभि:।
सिद्धगंधर्वयक्षा: श्रद्धानतै: शिरोभि: ।।१८।।
श्रुतिवचनैराह्वयन्ति वागीश्‍वरीमृषय:।
भक्तिनिर्झरीस्‍तुतिभि: सन्‍तर्पयन्ति मुनय: ।।१९।।
मतिस्‍मृतिधृतिप्रज्ञा मेधाऽथ च विवेकिता।
एता हि कला देव्‍या विश्‍वमंगलसाधका: ।।२०।।
अविद्याऽऽवरणेन यदपोहितं परमसत्‍यम्।
अपसर्याऽऽवरकं सैव, भावयति तत् तत्वम् ।।२१
प्रजायन्‍ते कल्‍पेषु येभ्‍यो ह्यनुशासनानि।
विद्यन्‍ते ग्रन्‍थेऽस्‍या बीजाक्षराणि तानि ।।२२।।
''असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्‍योतिर्गमय'' इति।
सुरेश्‍वरीप्रसादेन भवति याच्‍ञा फलवती ।।२३।।
दीयते न शुभा मति: दयामयहृदयया यदि।
नरपशुगहनमरण्‍यं जायेन्‍न धरातलं हि ।।२४।।
यत्र शिवसंकल्‍प: शुचिशीलं वा दृश्‍यते ।
तत्र विभूतिर्देव्‍या:सुव्‍यक्‍तं विभाव्‍यते ।।२५।।
भवेन्‍नाखिले भुवने तिमिरं सूचिभेद्यम् ।
वागीश्‍वरी स्‍वभासा न भासयेद् ब्रह्माण्‍डम् ।।२६।।
पश्‍यन्ति योगिनस्‍तां ब्रह्मण: परां कलाम् ।
स्निग्‍धज्‍योतिस्‍स्‍वरूपां सहस्रचन्‍द्रसमप्रभाम् ।।२७।।
ईक्षन्‍ते कर्मयोगिनो नानाविधविभूतिषु ।
कलासाहित्‍यसृष्टिषु सत्‍यसुन्‍दरशिवेषु च ।।२८।।
अवलोकयन्ति भक्‍ता: चतुर्भुजं हि विग्रहम् ।
वीणापुस्‍तकहस्‍तं धवलमरालवाहनम् ।।२९।।
सगुणा साकारा सा निर्गुणा निराकारा।
सा ध्‍यानगम्‍या सुलभाऽवाङ्मनसगोचरा च ।।३०।।
तपोमूर्तिर्या देवी, चिन्‍मयी चिरन्‍तनी । सा
दुरितात् पात्‍वस्‍मान्, सरस्‍वती सनातनी।।३१।।
ज्ञानम्‍भरा भारती त्‍वं त्‍वमेव च वागीश्‍वरी ।
रसभावमयी सरस्वती श्रुतिषु त्‍वं निगद्यसे ।।३२।।
कृपाभाजनस्‍तव भगवति, वागर्थैस्‍समृद्धिवान् ।
भवति मनीषी कालजयी, पुण्‍यश्‍लोक: कीर्तिमान् ।।३३।।
जीवनं जलबिन्‍दुतरलं नलिनीदले संस्थितम् ।
करुणालेशेन ते देवि भूयादमृतं मङ्गलम् ।।३४।।
*
जनगण के हृदय में निवास करने वाली, बुद्धि-कोष को विकसित करने वाली जड़ता के अन्‍धकार को नष्‍ट करने वाली, हंसवाहिनी देवी को नमन करती हूँ।।१।।
कवि-मानस में विहार करने वाली, अन्‍तर्तम को शुद्ध बनाने वाली, कलियुग की कलुषता को हर लेने वाली, पुस्‍तकधारिणी देवी की वन्‍दना करती हूँ।।२।।
प्रभामण्‍डल से उद्भासित, पद्मासन पर विराजमान, शुद्धसतोगुणसम्‍पन्‍न, कल्‍याणमयी शारदा को (अपनी) भक्ति अर्पित करती हूँ ।।३।।
नि:श्रेयस् (परम कल्‍याण या मोक्ष) प्रदान करने वाली, मंगलमयी, विवेक- रश्मि को दीप्‍त करने वाली, चैतन्‍यरूप, वाणी की देवी (सरस्‍वती) की हम उपासना करते हैं।।४।।
मैं ध्‍यानगम्‍य, शान्‍तमूर्ति, तप से पवित्र, पुण्‍यस्‍वरूप, ज्‍योत्‍स्ना सी उज्‍जवल देह वाली वाग्‍देवी को मानो प्रत्‍यक्ष देख रही हूँ।।५।।
देवी का स्निग्‍ध-मधुर मुख-कमल; (भक्‍तों को) अभय दे रहा है, उनके बिम्‍बफल के समान लाल अधरों पर मन्‍द-मन्‍द स्मित शोभायमान है।।६।।
करुणा से भरे धवल नयनों में; काजल की काली रेखा उसी प्रकार शोभित है जैसे उदधि-तट पर तमाल तरुओं की श्‍याम रेखा।।७।।
उनका सघन-कृष्‍ण केश पाश रत्‍न किरीट से तथा शंख की भाँति सुन्‍दर- वर्तुल कण्‍ठ; मुक्‍तामाला से मण्डित है।।८।।
ललित ललाट पर कस्‍तूरी-रचित तिलक, देहलता पर निर्मल-शुभ्र दुकूल (रेश्‍मी वस्‍त्र) शोभित हैं।।९।।
पाश की भाँति मनोरम कानों में कमल-पुष्‍प के आभूषण और किसलय के समान कोमल-पवित्र हाथ में अक्षसूत्र (जपमाला) है।।१०।।
नम्र-भुज-लताओं में मञ्जुल मृणाल-वलय तथा चरणों में कलमधुर ध्‍वनि वाले मणि-नूपुर शोभित हैं ।।११।।
मृदुल चरणों के किनारे अलक्‍तक की लाल रेखायें ऐसी प्रतीत होती है जैसे (उदित होते हुये) सूर्य की किरणें रक्‍त कमलों को चूम रही हों ।।१२।।
मुष्टि-ग्राह्य (अति क्षीण) कटि देश में जूही के फूलों की करधनी और अंक में लाड़ली बालिका की भाँति (देवी की प्रिय) 'कच्‍छपी' वीणा विराजमान है।।१३।।
शंखनिर्मित मिज़राब से वीणा के तारों को निनादित करती हुई (देवी) मृदुमन्‍द्रमूर्च्‍छनाओं से राग-रागिनियों को रच रही हैं ।।१४।।
समीप ही लाल चोंच और चरणों वाला, नीहार और मुक्‍ताहार की भाँति धवल कलहंसों का समूह विद्यमान है ।।१५।।
आकाश; नक्षत्र रूपी दीपों से देवी की आरती कर रहा है; तो मलय पवन चन्‍दन की सुगन्‍ध-रूप धूप से देवी का आराधन।।१६।।
सुरबालायें रजत-कमलों से वाग्देवी का अर्चन कर रही हैं, तो अप्‍सरायें गीत नृत्‍य से मनोरञ्जन।।१७।।
ब्रह्मा-विष्‍णु-महेश अंजलि बाँधे हाथ जोड़ कर देवी को प्रणाम कर रहे हैं, सिद्ध-गंधर्व और यक्ष श्रद्धा से शिर झुकाकर अभिवादन।।१८।।
ऋषिगण वेद वचनों से वागीश्‍वरी का आह्वान कर रहे हैं तो मुनि जन भक्ति के निर्झर स्‍तुतियों से उनका स्‍तवन।।१९।।
मति, स्‍मृति, धृति, प्रज्ञा, मेधा और विवेक; ये देवी की ही विश्‍व का मंगल करने वाली कलायें हैं ।।२०।।
अविद्या रूपी आवरण से जो परम सत्‍य ढक दिया गया है; उस तत्व को वे देवी ही; आवरण को हटाकर प्रकाशित करती हैं ।।२१।।
प्रत्‍येक कल्‍प (नव सृष्टि) में; जिनसे नाना अनुशासन (विद्या और शास्‍त्र) उत्‍पन्‍न होते हैं; वे बीजाक्षर देवी के (कर धृत) ग्रन्‍थ में ही विद्यमान हैं ।।२२।।
'असत् से मुझे सत् की ओर ले चलो, अंधकार से प्रकाश की ओर' (मुनष्‍य की) यह चिरन्‍तन प्रार्थना सुरेश्‍वरी की कृपा से ही फलवती होती है।।२३।।
करुणामयी देवी के द्वारा यदि शुभ बुद्धि नही दी जाती तो यह पृथिवी क्‍या नरपशुओं से पूर्ण अरण्‍य नहीं बन जाती ? ।।२४।।
जहाँ कहीं भीं शिव संकल्‍प और पवित्र आचार देखा जाता है वहाँ देवी की विभूति (ऐश्‍वर्य) ही व्‍यञ्जि‍त होती है ।।२५।।
समग्र संसार में सूचीभेद्य (सुई से बेधने योग्‍य घना) अंधकार नहीं छा जाता, यदि वाणी की र्इश्‍वरी (सरस्‍वती) अपनी दीप्ति से ब्रह्माण्‍ड को उद्भासित नहीं करती?।।२६।।
योगी जन; ब्रह्म की परम कला, सहस्रों चन्‍द्रों की भाँति प्रकाशमान, स्निग्‍ध ज्‍योति रूप देवी को (ज्ञान योग से) देखते हैं ।।२७।।
कर्मयोगी; कला और साहित्‍यसर्जना में, सत्‍य-शिव और सुन्‍दर में देवी के दर्शन करते हैं ।।२८।।
भक्‍तगण देवी के; हाथों में वीणा-पुस्‍तक लिये हुये, धवल मराल पर आसीन चतुर्भुज विग्रह को भजते हैं ।।२९।।
वे (देवी) सगुण-साकार हैं, निर्गुण-निराकार भी। ध्‍यान से पाने योग्‍य सुलभ हैं, वाणी-मन और इन्द्रियों से अगम्‍य भी ।।३०।।
जो देवी मूर्तिमान तप ही हैं, चिन्‍मय और चिरन्‍तन हैं; वे सनातनी सरस्‍वती; पापों से हमारी रक्षा करें ।।३१।।
(हे देवि!) वेदों में तुम्‍हें ही ज्ञान का भरण (पोषण) करने के कारण भारती, (वाणी की स्‍वामिनी) वागीश्‍वरी तथा रस-भाव से युक्‍त होने के कारण 'सरस्‍वती' कहा जाता है ।।३२।।
हे भगवति! जो तुम्‍हारी कृपा पा जाता है, वह वाणी और अर्थ से समृद्ध, कालजयी मनीषी, पवित्र नाम वाला और यशस्‍वी हो जाता है।।३३।।
जीवन; कमलदल पर अ‍वस्थित जल की बूँद के सदृश चंचल (नश्‍वर) है। हे देवि! तुम्‍हारी करुणा का लेश भी यदि मिल जाये तो व‍ह अमृत-मंगलमय हो जाये ।।३४।।
डॉ० इला घोष21, आदित्‍य कॉलोनी
नर्मदा रोड, जबलपुर (म॰प्र॰)चल दूरभाष - 9893798772
***
बिंदु -बिंदु परिचय : डाॅ. इला घोष 

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जन्म - ९ अप्रैल १९४८, झाँसी, (उ.प्र.)।
आत्मजा - श्रीमती तारासुन्दरी - श्री तारापद दास।
जीवनसाथी - श्री सपन कुमार घोष
शैक्षणिक योग्यता - एम.ए. संस्कृत, पीएच.डी.।
संप्रति - सेवा निवृत्त प्राचार्य, उच्च शिक्षा विभाग, म.प्र. शासन।
शोधकार्य -
१. लगभग १५० शोध संगोष्ठियों में शोध पत्र प्रस्तुति, बीज वक्तव्य, विषय प्रवर्तन, सत्रों की अध्यक्षता आदि।
२. ७५ से अधिक -शोध पत्र प्रकाशित, (संस्कृत साहित्य, काव्य -शास्त्र, दर्शन, भारतीय संस्कृति, कला, समाज, वैदिक संस्कृति, वेद, नारी विमर्श आदि से संबंधित)
३. १० शोधछात्रों का विद्या-वाचस्पति उपाधि हेतु निर्देशन।
प्रकाशित ग्रन्थ-
१. संस्कृत वाङ्मय में शिल्पकलाएँ।
२. ऋग्वैदिक ऋषिकाएँः जीवन एवं दर्शन (उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान, लखनऊ से पुरस्कृत)
३. चतुःसष्टि कला- सह लेखन।
४. संस्कृत वाङ्मय में कृषि विज्ञान (दिल्ली संस्कृत अकादेमी एवं उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान से पुरस्कृत)
५. वैदिक संस्कृति-संरचना: स्त्रियों का योगदान (कालिदास अकादेमी उज्जैन द्वारा भोज पुरस्कार से सम्मानित)
६. व्यक्तित्व विकास में वैदिक वाङ्मय का योगदान।
७. सफलता के सूत्र: वैदिक दृष्टि।
८. तमसा-तीरे (हिन्दी कविता संग्रह) म.प्र. लेखिका संघ, भोपाल एवं नारी अस्मिता, बडौदा से पुरस्कृत।
९. महीयसी (हिन्दी खण्ड काव्य) राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, म.प्र. भोपाल से पुरस्कृत।
१०. साहित्यवधू-काव्यपुरुषम् (हिन्दी एवं संस्कृत में रचितनाट्य)
११. हुये अवतरित क्यों राम? (हिन्दी खण्ड काव्य)
१२. आंजनेयचरितम् (संस्कृत महाकाव्य)
प्रकाशनाधीन-
१. गणिकापुराण (डाॅ. प्रार्थना मुखोपाध्याय द्वारा बांग्ला में रचित ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद)
२. अन्वे-ुनवजयाी यायावर (आचार्य कवि राजशेखर पर शोधलेखों का संकलन)
३. तस्यै नमः (सरस्वती - शतक)
उपलब्धियाँ/पुरस्कार/सम्मान
(१) अखिल भारतीय प्रबन्धलेखन पुरस्कार, दिल्ली संस्कृत अकादेमी, २००३।
(२) अखिल भारतीय प्रबन्धलेखन पुरस्कार, दिल्ली संस्कृत अकादेमी, २००४।
(३) अखिल भारतीय साहित्य पुरस्कार, उत्तरप्रदेश संस्कृत संस्थान, लखनऊ, २००५।
(४) अखिल भारतीय-शास्त्र पुरस्कार, उत्तरप्रदेश संस्कृत संस्थान, लखनऊ, २००७।
(५) अखिल भारतीय भोज पुरस्कार, कालिदास अकादेमी, उज्जैन एवं संस्कृति परिषद  म.प्र.शासन, २०१२।
(६) अस्मिता साहित्य पुरस्कार, बड़ोदरा, २०१५।
(७) सूरज बासकरी बा स्मृति पुरस्कार, हिन्दी लेखिका संघ, म.प्र., भोपाल, २०१६।
(८) सैयद अमीर अली मीर पुरस्कार, म.प्र. राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, भोपाल, २०१७।
(९) पं. बृजवल्लभ आचार्य संस्कृतज्ञ पुरस्कार २०१८, म.प्र. लेखक संघ भोपाल।
सम्मान
१. साहित्य कला सम्मान-श्री जगन्नाथ पुरी संस्कृत विश्वविद्यालय, पुरी, (उड़ीसा)।
२. ‘उषा देवी मित्रा’ अलंकरण-त्रिवेणी परिषद, जबलपुर।
३. ‘शिक्षक सम्मान’-मध्यप्रदेश प्राध्यापक संघ, जबलपुर।
४. ‘शोध सारथी’ सम्मान-माँ नर्मदा एजूकेशन सोसायटी, जबलपुर।
५. श्री संजीव दास स्मृति न्यास सम्मान।
६. ‘शिक्षा-रत्न’ सम्मान-विप्रकुल परिषद, जबलपुर।
७. ‘साहित्य भूषण’ सम्मान-साहित्यमण्डल नाथद्वारा।
८. ‘महीयसी’ अलंकरण- ‘विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान’ जबलपुर।
९. ‘ज्ञान-प्रकाश सम्मान-गुंजन कला सदन, म.प्र.।
१०. ‘शिक्षक गौरव’ सम्मान- (१९९४ बैच के छात्र) महाकोशल कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय जबलपुर।
सदस्यता
(१) अध्यक्ष, कालिदास एकेडमी ऑफ़ संस्कृत, म्यूजिक एण्ड फाइन आर्ट्स, दिल्ली।
(२) अध्यक्ष, महाकोशल, जबलपुर।
(३) संरक्षक सदस्य, त्रिवेणी परिषद, जबलपुर।
(४) मानद सदस्य, पाथेय जबलपुर।
(५) मानद सदस्य, प्राच्य विद्या सम्मेलन, कुरुक्षेत्र।
(६) अध्यक्ष, परिवार कल्याण समिति (२०१७-१८), जिला विधिक सेवा प्राधिकरण जबलपुर।
सम्पर्क - २१, आदित्य काॅलोनी, नर्मदा रोड, जबलपुर।  चलभाष ९८९३७९८७७२।



बातचीत : डॉ. इला घोष से 
संस्‍कृत वाङ्मय और शिक्षण की भावी भूमिका महत्वपूर्ण - डॉ. इला घोष  
साक्षात्कारकर्ता - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 

*
संजीव - आपने लम्‍बा समय शिक्षा-जगत् में व्‍यतीत किया है। आप इस क्षेत्र में ही आना चाहती थीं या आकस्मिक रूप से आ गईं ?

-आप सच कहते हैं संजीव जी, बहुत ही लम्‍बा समय.... चार दशकों से भी अधिक, लगभग ४३ वर्ष, सितम्‍बर १९७० से अप्रैल २०१३ तक शासकीय महाविद्यालयों में और उससे भी पहले छह माह जबलपुर विश्‍वविद्यालय के संस्‍कृत विभाग में। इस क्षेत्र में आने की इच्‍छा थी, क्‍योंकि मैं समझती थी कि 'ज्ञान' ही चेतन का प्रमुख धर्म है और प्राणियों में सर्वश्रेष्‍ठ होने के कारण उसका विकास मानव में ही सर्वाधिक होता है, अत: ज्ञान सम्‍पन्‍न मानव के निर्माण एवं अपनी धरोहर को पीढ़ि‍यों में हस्‍तान्‍तरित करने का यही सर्वोत्तम क्षेत्र है। हाँ, प्राचार्य पद पर कार्य करने को आप आकस्मिक कह सकते हैं, क्‍योंकि उसके लिये मेरे मन में न तो आकाँक्षा थी और न ही योग्यता। पदोन्‍नति आदेश आने के पश्‍चात् मैं घर से यही निश्‍चय करके निकली थी कि प्राचार्य के माध्‍यम से अपनी अस्‍वीकृति शासन को भेज दूँगी किन्‍तु जब कॉलेज पहुँची तब पानी पिलाने वाले कर्मचारी मंगल से लेकर प्राचार्य डॉ. ए.के.श्रीवास्‍तव तक सभी ने यह आत्‍मीय आग्रह किया कि मैं वह पद अवश्‍य स्‍वीकार करूँ; क्‍योंकि उस स्‍थान पर रहकर छात्र-हित और शैक्षणिक-गुणवत्ता के लिये अधिक अच्‍छा कार्य कर सकूँगी और अन्‍ततोगत्‍वा मैं १ जून २००१ को पदभार ग्रहण करने के लिये जुन्‍नारदेव जा पहुँची।

प्रश्‍न - वर्तमान शिक्षा प्रणाली से क्‍या आप सन्‍तुष्‍ट हैं?

- मैं ही क्‍यों, कोई भी जगरूक व्‍यक्ति सन्‍तुष्‍ट नहीं होगा, क्‍योंकि शिक्षा के जो मुख्‍य उद्देश्‍य हैं- मनुष्‍य में मनुष्‍यत्‍व का विकास, चरित्रनिर्माण, आत्मिक गुणों का प्रस्‍फुटन, कर्तव्‍य बोध, जिम्‍मेदार नागरिक का सृजन, प्रतिदान का भाव, स्‍वतंत्र चिन्‍तन क्षमता का विकास या हमारी सनातन शब्‍दावली में कहें तो, उत्तरोत्तर क्रमश: मनुष्‍यत्‍व, ऋषित्‍व, देवत्‍व और ब्रह्मत्‍व का विकास; उसे पूर्ण करने में वर्तमान शिक्षा प्रणाली असफल रही है। यह केवल अपने पैकेज एवं वेतन वृद्धि की चिन्‍ता करने वाले, मानवीय मूल्‍यों और संवेदनाओं से रहित यन्‍त्र-मानव का निर्माण कर रही है। आये दिन जब पढ़े-लिखे लोगों द्वारा किये जाने वाले अपराधों के विषय में सुनती हूँ; तब सोचती हूँ.... गौतम बुद्ध, विवेकानन्‍द, गाँधी के देश में इतना चारित्रिक पतन! मन हा-हा-कार कर उठता है- कहाँ चूक हो गई हम शिक्षकों से ? सब कुछ जैसे मुट्ठी से फिसलती हुई रेत की तरह.....। प्रश्‍न - आपको अवसर मिले तो शिक्षा-नीति और पाठ्यक्रम में क्‍या परिवर्तन करना चाहेंगी?

-यदि अवसर मिले तो मैं उस प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति को पुन: लागू करना चाहूँगी, जिसमें 'शिक्षा' सच्‍चे अर्थों में 'ब्रह्मचर्या'; ज्ञान-ब्रह्म को पाने की साधना थी। प्रकृति के संसर्ग में रहकर ज्ञान का साक्षात्‍कार कर स्‍वत: प्रमाण से या श्रवण परम्‍परा से उसे हृदयंगम करने की प्रणाली थी, गुरु के ज्ञान रूपी गर्भ में रहकर 'द्विज'  के रूप में द्वितीय जन्‍म की व्‍यवस्‍था थी। जानकारियों को कूड़ा-करकट की तरह मस्तिष्‍क में भर लेने एवं परीक्षा के समय उत्तर पुस्तिका में उगल कर सब कुछ भूल जाने की पद्धति नहीं थी। पाठ्यक्रम में विश्‍वसहित्‍य के या महामानवों के उन चिन्‍तनों और अनुभवों को सम्मिलित किया जाना चाहिये, जिनमें असीम ऊर्जा और अनन्‍त प्रेरणा समाई हुई है।

संजीव - संस्‍कृत वाड्मय और संस्‍कृत शिक्षण की भावी भूमिका तथा उपादेयता से सम्‍बन्‍ध में क्‍या सोचती हैं?

इला जी - देखिए, संस्‍कृत भाषा को हमारे ऋषि-मुनियों ने मिथ्‍या ही 'देववाणी' या 'अमृता वाक्' नहीं कहा है। वह अमर है, सनातन है, भले ही अपने ही उत्‍पत्ति स्‍थान भारतवर्ष में उसकी उपेक्षा हो रही हो; आज और इससे भी पहले १८ वीं श. से ही इस ज्ञान भण्‍डार की ओर विश्‍व बड़ी ही उत्‍सुकता, ललक और सम्‍मान के साथ देख रहा है। पाश्‍चात्य विद्वानों ने इस पर कितना शोधपरक काम किया है, आप यह जानते ही हैं। सभी भारतीय आर्य भाषाओं, यहाँ तक कि ग्रीक, लैटिन, जर्मनी, फ्रेंच, अंग्रेजी आदि यूरोपीय भाषाओं के स्रोत, बुनावट और संरचना को यदि समझना है; तो संस्‍कृत का ज्ञान प्राप्‍त करना ही होगा। मेरी दृष्टि में ज्ञान-विज्ञान की ऐसी कोई शाखा नहीं है, जिसके बीज हमारे वेदों में निहित न हो; अत: इसके सम्‍बन्‍ध में कहा गया है- सर्वज्ञानमयो हि स:। हमारे शास्‍त्र, चाहे वे अर्थशास्‍त्र, धर्मशास्‍त्र और कामशास्‍त्र हो या नाट्यशास्‍त्र; सभी विश्‍व-कोषीय स्‍तर के परिपूर्ण ज्ञान- भण्‍डार हैं। महाभारत को तो 'ज्ञानमय दीप' ही कहा गया है, रामायण के सम्‍बन्‍ध में स्‍वयं सृष्टिकर्ता की उद्घोषणा है कि जब तक इस भूतल पर नदियाँ और पर्वत हैं, तब तक रामायणी कथा जीवित और प्रचलित रहेगी। ये कथन असत्‍य नहीं हैं। अत: संस्‍कृत वाङ्मय और शिक्षण की भावी भूमिका महत्त्वपूर्ण, अस्तित्‍व अक्षुण्‍ण और उपादेयता सार्वकालिक है।

संजीव - आपका साहित्‍य सृजन के क्षेत्र में प्रवेश कैसे हुआ ?

इला जी -  जिसे सच्‍चे अर्थों में साहित्‍य (काव्‍य) सृजन कहा जा सकता है, उस क्षेत्र में प्रवेश काफी विलम्‍ब से त्रिवेणी परिषद की प्रेरणा से हुआ, अवश्‍य ही पूर्व में कुछ छिट-पुट रचनायें महाविद्यालयीन पत्रिकाओं समाचार पत्रों के साहित्यिक अंकों तथा रचना, दूर्वा, सागरिका, नाट्यम्, दृक् आदि पत्रिकाओं में छपती रही थीं। ललित अथवा गवेषणात्‍मक लेखन की प्रवृत्ति विद्यार्थी जीवन से ही थी। वैदिक वाङ्मय, संस्‍कृति, कला, संस्‍कृत वाङ्मय में‍ विज्ञान आदि से सम्‍बन्धित शास्‍त्रीय एवं समीक्षात्‍मक ग्रन्‍थ प्रकाशित एवं पुरस्‍कृत हो चुके थे। विविध विषयों से सम्‍बद्ध लगभग ७५ शोधपत्र भी प्रकाशित हो चुके थे।साहित्‍य सृजन में प्रवेश को आप आकस्मिक ही मान सकते हैं। मेरे मातृ अथवा पितृपक्ष के पूरे परिवार में किसी में भी इस प्रकार की अभिरुचि नहीं थी। लगभग पाँच वर्ष पूर्व जब मैं त्रिवेणी परिषद् के कार्यक्रमों में सम्मिलित हुई, अनेक पुस्‍तकों का विमोचन होते देखा; तब मुझमें भी कुछ लिखने की इच्‍छा जागी। मैं समझती हूँ कि संस्‍कारधानी का साहित्यिक वातावरण, साधना-मयी त्रिवेणी परिषद् और आदरणीय सुमित्र जी वे प्रेरणा स्रोत हैं जो हमारे अन्‍तस्‍तल में सुप्‍त की भाँति निहित सृष्टि-बीजों को अंकुरित और पल्‍लवित होने के लिये आवश्‍यक उपादान जुटाते हैं।

संजीव - आपके प्रिय संस्‍कृत/हिन्‍दी रचनाकार और कृतियाँ कौन सी और क्‍यों हैं ?

इला जी - यदि आप संस्‍कृत की बात करते हैं, तो वैदिक साहित्‍य में मुझे ऋग्‍वेद और अथर्ववेद विशेष प्रिय हैं। ऋषियों की उदात्त मनोभूमि, साक्षात्‍कारात्‍मक अनुभूतियाँ, जीवन और जगत् के प्रति उल्‍लासमय सकारात्‍मक दृष्टिकोण मुझे विशेष रूप से प्रभावित करते हैं। अथर्ववेद का 'पृथिवी सूक्‍त' तो विश्‍व का प्रथम राष्‍ट्रगान तथा मातृभूमि की वन्‍दना है। उपनिषद्-वाङ्मय को मैं मानवीय-ज्ञान का चरम शिखर मानती हूँ। उप‍निषदों का अमृतमय संदेश- श्रृण्‍वन्‍तु विश्‍वेऽमृतस्‍य पुत्रा: 'हे अमृत पुत्रो! सुनो! मैंने उस आदित्‍यवर्ण परम पुरुष को देख लिया है।' मुझे जैसे किसी दूसरे ही लोक में ले जाते हैं। सत्‍यं वद, धर्मं चर, मातृ देवो भव...... इस साहित्‍य का अनुशासन है, ऋतं वदिष्‍यामि, सत्‍यं वदिष्‍यामि प्रतिज्ञा और मित्रस्‍य चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे (समस्‍त चराचर जगत् को मित्र की दृष्टि से देखूँ।) इसकी अभिलाषा है। संस्‍कृत रचनाकारों में वाल्‍मीकि, भास, कालिदास, बाणभट्ट विशेष प्रिय हैं। वाल्‍मीकीय 'रामायण' के सम्‍बन्‍ध में आचार्य राजशेखर ने कहा है कि इसमें अवगाहन कर गंगा भी पवित्र हो जाती है। भास के प्रशंसक तो स्‍वयं कालिदास भी हैं। बाणभट्ट का गद्य-शिल्‍प तो विश्‍व-साहित्‍य के लिये अनुपम देन ही है। हिन्‍दी साहित्‍य को मैंने बहुत अधिक पढ़ा नहीं है, जितना पढ़ा है; उसमें कबीर, तुलसी, जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा और गजानन माधव मुक्तिबोध हृदय पर विशेष छाप डालते हैं। यदि शिक्षा को भी सहित्‍य का एक प्रयोजन माना जाये तो जीवन जीने की सच्‍ची दृष्टि और कला; कबीर की रचनाएँ हमें सिखाती हैं।

संजीव - आप किसी कृति का विषय किस तरह चुनती हैं?

इला जी - संजीव जी, मुझे लगता है कि कृति का विषय चुनना नहीं पड़ता अपितु सहज ही मस्तिष्‍क में कौंध जाता है, क्‍योंकि आप निरन्‍तर जिस भौतिक, मानसिक और बौद्धिक जगत् में विचरण करते रहते हैं; वही आपको विषय सुझाता है। व्‍यक्ति की अभिरुचि, विचारधारा, मनोवृत्तियाँ और झुकाव भी विषय चुन लेते हैं।

संजीव - आपकी रचना-प्रक्रिया क्‍या है?

इला जी - देखिए, मैं न तो कोई प्रातिभ कवि हूँ, और न ही साहित्‍यकार; जिसकी रचना प्रक्रिया उल्‍लेख योग्‍य हो, फिर भी जैसे प्रत्‍येक व्‍यक्ति का व्‍यक्तित्‍व अपने आप में 'यूनीक' होता है, संभवत: रचना प्रक्रिया भी वैसी ही होती है। मेरे दिमाग में घूमते-फिरते, घर के काम-काज करते अचानक कोई विचार आता है और फिर उसे केन्‍द्र बनाकर बहुत से संबद्ध विचार परिधि से नाभि के ओर आने लगते हैं। जब ऐसे कुछ विचार पुञ्जीभूत हो जाते हैं, तब लिखने बैठती हूँ। लिखते समय वर्ण्‍य व्‍यक्ति, दृश्‍य या भाव आँखों के सामने प्रत्‍यक्ष हो उठता है, पद और वाक्‍य कागज पर उतरने लगते हैं। उस प्रथम लेखन को अंतिम रूप देते समय संस्‍कृत भाषा की विद्यार्थी होने के कारण शब्‍द प्रयोगों पर अवश्‍य पुनर्विचार करती हूँ। पुनरुक्ति हमारे यहाँ वैरस्‍य का कारण (रसानुभूति में बाधक) एक बड़ा दोष माना गया है, उससे बचती हूँ और प्रयास करती हूँ कि ऐसे शब्‍दों का चयन कर सकूँ जो अर्थ की अभिव्‍यक्ति में सर्वाधिक समर्थ हों।

संजीव  - लेखन सम्‍बन्‍धी भावी योजनाएँ क्‍या हैं?

इला जी - जीवन छोटा है, योजनाएँ बड़ीं। वेदों के कुछ महत्त्वपूर्ण सूक्‍तों के हिन्‍दी पद्यानुवाद की इच्‍छा है। उपनिषदों की ज्ञान-गरिमा को हिन्‍दी-पाठकों के लिये प्रस्‍तुत करने की अभिलाषा है। वैदिक युग की नारियों के जीवन को 'अथ मम कथा' शीर्षक से प्रकाशित करने की योजना है। बुद्ध के करुणामय जीवन पर कुछ लिखना चाहती हूँ। नहीं जानती ईश्‍वर की क्‍या इच्‍छा है।

संजीव - साहित्‍य की भूमिका समाज और समाज-निर्माण में कितनी है?

इला जी - आपका प्रश्‍न बहुत ही प्रासंगिक और महत्त्वपूर्ण है, पर हमें पहले कुछ अन्‍य प्रश्‍नों पर भी गौर करना होगा, जैसे कि क्‍या समाज और साहित्‍य एक दूसरे से सर्वथा असंपृक्‍त हैं या उनमें कोई अन्‍त: सम्‍बन्‍ध भी है? क्‍या साहित्‍यकार समाज का अभिन्‍न अंग है? क्‍या सहित्‍य-सृष्टि समाज में रहकर होती है या उससे कटकर? आदि। यदि इनका उत्तर 'हाँ' है तो कोई भी; समाज में साहित्‍य की भूमिका और समाज-निर्माण में उसके महनीय अवदान को नकार नहीं सकता। साहित्‍य, शास्‍त्र की भाँति न तो नैतिक उपदेश देता है और न ही अनुशासनात्‍मक नियम बनाता है, फिर भी अन्‍त: करण को झकझोरता हुआ, सोयों को जगाता हुआ, सामाजिक विकृतियों के शोधन तथा सौहार्द और साम्‍मनस्‍य पूर्ण समाज के निर्माण में सहायक होता है। मेरी दृष्टि में सभ्‍यता और संस्‍कृति के इतिहास में मानव-जाति की उपलब्धियों में सर्वोत्तम उपलब्धि साहित्‍य ही है। वही जीवन संग्राम में विजयी होने की प्रेरणा जगाता है, गहन तमस् में प्रकाश स्‍तम्‍भ बन जाता है।

कोई भी श्रेष्‍ठ कालजयी साहित्‍य न तो मात्र घटनाओं का लेखा-जोखा होता है, न ही कुत्सित यथार्थ का नग्‍न प्रदर्शन। वह न तो कोरी कल्‍पनाओं की उड़ान है और न ही गगनस्‍पर्शी आदर्शों का पुलिन्‍दा। वह उन जीवनमूल्‍यों और शिव-तत्त्वों का वाहक होता है जो समाज को सच्‍चे अर्थों में 'समाज' (समम् अजन्ति जना अस्मिन् इति- ऐसी संस्‍था जिसमें सभी मिलकर जीवन के समान लक्ष्‍यों की ओर अग्रसर होते हैं) बनाते हैं।

प्रश्‍न- क्‍या सहित्‍य-सृजन आजीविका भी हो सकता है? हाँ, तो कैसे?

-देखिए, यह हो भी सकता है और नहीं भी। राज्‍याश्रय प्राप्‍त गिने-चुने साहित्‍यकारों को यदि छोड़ दिया जाए तो सामान्‍यत: साहित्‍यकारों का जीवन संघर्षों और आर्थिक विपन्‍नता में ही बीता है क्‍योंकि उनकी कृति का सही मूल्‍याँकन शायद ही कभी उनके ही जीवन काल में हो पाया है। आज से एक हजार वर्ष पूर्व आचार्य राजशेखर ने इस विषय में बहुत ही सत्‍य एवं मार्मिक बात कही है- किसी कवि की रचना तब प्रशंसित होती है, जब वह इस संसार से चला गया हो या किसी दूर देश के निवासी ने उसकी प्रशंसा कर दी हो। प्रत्यक्ष (वर्तमान) महान कवि के विषय में भी लोक की मनोवृत्ति अवज्ञापूर्ण ही होती है। जो भी हो सरस्‍वती के साधक प्राय: लक्ष्‍मी से दूर ही रहते हैं। वस्‍तुत: सारस्‍वत- साधना ऐसी तपस्‍या है, जिसका लक्ष्‍य भौतिक उपलब्धि कदापि नहीं होता, फिर ऐसे भी स्‍वाभिमानी कवि हुये हैं जो मानते हैं- संतन को सीकरी सों क्‍या काम? वर्तमान युग में जब सभी क्षेत्रों में व्‍यावसायिकता का प्रवेश हो चुका है; 'जो बिकना है, वही लिखना है' का सिद्धान्‍त अपनाकर केवल जीवन-यापन के लिये ही क्‍यों, विलासितापूर्ण जीवन के लिये भी बहुत कुछ कमाया जा सकता है।

संजीव - भारत में भाषा सामाजिक टकराव का कारण बन रही है। बापू की सोच थी कि सभी भाषाएँ देवनागरी लिपि में लिखी जाएँ। आप बांग्‍ला-हिन्‍दी सेतु बनाने में समर्थ हैं। इस क्षेत्र में आपके द्वारा किये गये कार्य व भावी योजनाएँ क्‍या है?

इला जी - इसे बिडम्‍बना ही कहा जोयगा कि वह भारत देश, जहाँ सहस्रोंवर्ष पूर्व ऋग्‍वेद में स्‍वयं वाणी ने ही कहा है, 'अहं संगमनी' (मैं हूँ सबका संगम (मिलन) कराने वाली), अथर्ववेद के ऋषि ने कहा है- 'जनं बिभ्रती बहुधा विवाचसं.....पृथिवी यथौकसम्' (यह पृथिवी नाना प्रकार की वाणी बोलने वालों (विवाचसम्) का एक घर (ओकस्) है; उसी देश में भाषा ऐसे टकराव का कारण बन रही है। दोष भाषा का नहीं, उन संकीर्ण मनोवृत्तियों का है, जो क्षेत्रीयता से आगे बढ़कर कुछ सोच ही नहीं सकतीं। ये बड़े ही हर्ष के साथ विदेशी भाषा को तो गले लगा सकते हैं, पर अपनी ही माता-भगिनियों के समान भाषाओं के प्रति दुराग्रहपूर्व विद्रोही दृष्टि रखते हैं।

बापू की सोच और सुझाव उनकी उस व्‍यावहारिक दृष्टि की परिचायक है, जिसकी आज सर्वाधिक आवश्‍यकता है। वे यह मानते थे कि देवनागरी जैसी सर्वाधिक वैज्ञानिक लिपि को यदि भारत की सभी भाषाओं के लिये अपना लिया जाता है तो सम्‍बन्धित भाषा के साहित्य में प्रवेश एवं उससे संवाद के लिये सबसे पहले जो आवश्‍यक है- उसकी लिपि को सीखना, उस सीखने के समय और श्रम को बचाया जा सकता है। मुझे बांग्‍ला भाषा माँ के गर्भ से ही मिली है। मेरी दृष्टि में अलग-अलग भाषाओं को जोड़ने वाला मुख्‍य सेतु 'अनुवाद' ही है जो ना मिल सकने वाले दो किनारों को भी मिला देता है। मैंने इंजी. श्री शचीन्‍द्रनाथ समाद्दार की रामकृष्‍ण-विवेकानन्‍द पर केन्द्रित बांग्‍ला पुस्‍तक 'भाववार मोतो छोटो-छोटो कॉथा' का 'कतिपय चिन्‍तन योग्‍य प्रसंग' शीर्षक से दो खण्‍डों में, हिन्‍दी में अनुवाद किया है। पाठकों के अनुसार यह कहीं भी अनूदित पुस्‍तक का आभास न देते हुये मूल ग्रन्‍थ की भाँति ही आनन्दित करता है। हाल ही में मैंने डॉ. प्रार्थना मुखोपाध्‍याय (कलकत्ता) के अत्‍यन्‍त ही उच्‍चकोटि के गवेषणात्‍मक-साहित्यिक ग्रन्‍थ 'गणिका-पुराण' का अनुवाद किया है जो शीघ्र ही हिन्‍दी पाठकों को उपलब्‍ध हो सकेगा। यह आदान-प्रदान पारस्‍परिक सौहार्द और साम्‍मनस्‍य को विकसित कर सकता है। भविष्‍य में ऐसे किसी भी अवसर या कार्य का स्‍वागत करूँगी।

संजीव - अपके लेखन का उद्देश्‍य और साध्‍य क्‍या है?

इला जी - देखिए, लेखन एक सहज-नैसर्गिक क्रिया है; जब पर्वतों के भी हृदय में बहुत सा जल जमा हो जाता है; तब वह शिलाओं को फोड़कर सहज ही झरने लगता है, सरिता बनकर बहने लगता है। वे जलबिन्‍दु सम्‍भवत: यह नहीं जानते कि उन्‍हें कहाँ जाना है, किन्‍तु मार्ग पाते या बनाते हुये वे आगे बढ़ने लगते हैं और अन्‍तत: अनेक छोटे-बड़े स्रोतों से मिलते हुये; उस पारावार (समुद्र) तक पहुँच ही जाते हैं। इस प्रकार के साध्‍यहीन लेखन में भी अनायास ही जीवन-मूल्‍यों और सकारात्‍मक संदेश को गूँथ देना; आप मेरे लेखन का उद्देश्‍य मान सकते हैं।

संजीव - क्‍या आप अपनी उपलब्धियों से सन्‍तुष्‍ट हैं?

इला जी - रसखान ने कहा है- 'जब आवे संतोष धन, सब धन धूरि समान' भौतिक उपलब्धियों के क्षेत्र में मैं भी यही विश्‍वास रखती हूँ; किन्‍तु कुछ सन्‍दर्भों में असन्‍तोष और ललक आवश्‍यक होती है। जिस प्रकार का अर्थगाम्‍भीर्य, कल्‍पना वैभव, काव्‍य-पाक, रस-माधुर्य, वर्णना नैपुण्‍य, पाठकों को बाँधने की क्षमता और तीखी धार लेखनी में होनी चाहिये; वह मुझ में नहीं है; यह मैं भली-भाँति जानती हूँ। इन सब को अर्जित करने के लिये तो कई जन्‍मों की आवश्‍यकता है। कहते हैं-सिद्धार्थ ने बुद्ध बनने से पहले बोधि-सत्त्व के रूप में ५०० बार जन्‍म लिया था। अच्‍छा लेखक बनने के लिये हम जैसों को; पता नहीं कितने हजार जन्‍म लेने होंगे?

संजीव - आप युवा पीढ़ी को क्‍या संदेश देना चाहेंगी?

इला जी - युवा पीढ़ी को देने के लिये तो बहुत से संदेश हैं। अपने प्राध्‍यापक जीवन में भी यही करती रही हूँ। सर्वप्रथम उनसे कहना चाहूँगी- न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते मनुष्‍य को पवित्र करने वाला ज्ञान के समान दूसरा साधक नहीं है। ज्ञान-सरिता में अवगाहन गंगा-यमुना या नर्मदा में लगाई गई डुबकियों से भी अधिक पावन है। द्वितीय- सा विद्या या विमुक्‍तये- विद्या वही है; जो हमें सभी प्रकार की संकीर्णताओं, अंधविश्‍वासों, दुराग्रहों, विकृतियों और भेद-बुद्धि से मुक्‍त करती है। तृतीय- मानवीय गुणों से सम्‍पन्‍न गुणवान तेजस्‍वी युवा केवल भारत देश के ही नहीं अपितु समग्र विश्‍व के मेरुदण्‍ड हैं। चतुर्थ-हमारी साहित्यिक-सांस्‍कृतिक विरासत बहुत ही उदात्त, गरिमामय और पुरातन है; उसे जानें, समझें, गर्व की अनुभूति करें, उसका संरक्षण और संवर्धन करें।

संजीव - यदि आपको अलादीन का चिराग मिल जाए तो क्‍या माँगेगीं?

इला जी - संजीव जी, मैं जानती हूँ कि वह मिलेगा नहीं, फिर भी आपकी शुभकामनाओं से यदि मिल जाए तो यही माँगूँगी कि, संसार में जितने दु:ख-कष्‍ट, पीड़ा-उत्पीड़न, हिंसा-अपराध, भेद-भाव, खाइयाँ और दीवारें हैं; वे सभी समाप्‍त हो जाएँ। हमारी फूल सी कोमल बच्चियों के साथ पशुवत्-व्‍यवहार न हो। मानव मात्र के मुख पर मुस्‍कान हो, सुख-शान्ति पूर्ण जीवन जीने का अधिकार हो। अन्‍त में ऋषियों की उस तप:पूत वाणी में कहूँगी-

सर्वे भवन्‍तु सुखिन: सर्वे सन्‍तु निरामया:।
सर्वे भद्राणि पश्‍य‍न्‍तु मा कश्चिद्दु:खभाग्भवेत् ।।
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स्मृतियों के शतदल 

इला घोष
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               आज इस संध्या बेला में जब मैं पीछे मुड़कर अपने जीवन पर दृष्टिपात करती हूँ, तब स्मृतियों की अतल गहराइयों से बहुत से धुँधले-उजले, श्वेत-श्याम चित्र अभर कर ऊपर आ जाते हैं। शैशव-बचपन-यौवन, विवाह-परिवार-कर्ममय जीवन, माता-पिता, मित्र-बन्धु, आत्मीय- स्वजन, जीवन को दिशा देने वाले शिक्षक-प्राध्यापक-गुरुजन, और एक आचार्य के रुप में अर्जित छात्र-धन।

               प्रारम्भ करती हूँ जीवन के प्रभात से ......। जन्म हुआ ९ अगस्त १९४८ को; महारानी लक्ष्मी बाई जैसी वीरांगना की तेजोमयी भूमि झाँसी में। मैं भाग्यशालिनी थी कि मैंने स्वतंत्र भारत की उन्मुक्त पवन में प्रथम साँस ली। मैं अपनी माता ‘तारासुन्दरी’ और पिता ‘श्री तारापद दास’ की तृतीय संतान थी। उनकी प्रथम पुत्र संतान असमय ही काल-कवलित हो चुकी थी, द्वितीय थी मेरी बड़ी बहिन उमा और उसके बाद मैं। पुत्र की मृत्यु तथा लगातार दो कन्यायों के जन्म से माँ खिन्न थीं, किन्तु जैसा कि वे कहा करती थीं, किसी बड़े-बुजुर्ग ने उनसे कहा था कि ''यह कन्या विद्या-बुद्धि सम्पन्न वाग्देवी की साधिका'' होगी एवं पुत्र के दायित्वों का निर्वहन करेगी। इससे उन्हें कुछ सान्त्वना अवश्य मिली थी। संभवतः पिता ने इसी आशा से नाम रखा था - ‘इला’।

               शैशव के चित्र बहुत ही धुँधले हैं, केवल यह स्मरण है कि झाँसी में सीपरी बाजार के जिस मकान में हम लोग रहते थे उसके सामने एक बहुत बड़ा फलों का बगीचा था, जिसमें अमरूद, आम और नीबू के साथ संतरे के भी कई पौधे थे, जो अपने रसीले नारंगी फलों के कारण आकर्षण के केन्द्र थे। पीछे था विशाल-कब्रिस्तान। जगत् धारिणी धरित्री के दो रूप, एक सृष्टि- बीजों को पल्लवित, अंकुरित-पुष्पित और फलित करती हुई, द्वितीय संघर्षमय जीवन की समाप्ति पर माता की भाँति अपने अंक में चिर विश्राम देती हुई। उस समय इतनी समझ तो थी नहीं...... पर अब सोचने पर लगता है कि निश्चय ही उस परिवेश ने मेरे शिशु-मन पर कुछ अमिट रेखाएँ अवश्य खींची थीं। माँ सिलाई-कढ़ाई में निपुण, उत्साह और आनन्द से भरी हुई, उत्सव प्रिय थीं। वे हम दोनों बहिनों को अपने हाथ से सिले फ्रॅाक पहनाकर दुर्गापूजा-सरस्वती पूजा आदि आयोजनों में ले जाती थीं। (चित्र १)

               पिता रेल्वे में थे अतः स्थानान्तरण होते रहते थे। जब मैं लगभग चार वर्ष की थी तब हम झाँसी से ललितपुर आ गये। अब हमें भाई-दूज के लिये एक भाई भी मिल चुका था, जो बहुत ही शरारती था माँ जब घर के काम करती थीं तब उसे एक लम्बे पाड़ (साड़ी की किनारी) से बाँध कर रखती थीं। (चित्र २)

               मेरा विद्यार्थी जीवन ललितपुर से प्रारम्भ हुआ। जब मेरी बड़ी बहिन को स्कूल में भर्ती कराया गया; तब मैंने भी रो-धो कर स्कूल जाने की जिद पकड़ ली और उन से ढाई वर्ष छोटी होते हुये भी बस्ता लटकाकर स्कूल जाने लगी। उस समय न तो गाड़ी थी न ही घोड़ा। हम लोग बहुत से बच्चे मिलकर पैदल ही स्कूल जाते थे। मित्रों में अब केवल एक का ही स्मरण कर पा रही हूँ, उसका नाम था ‘इमरती’। उसके पिता सफाई कर्मी थे, पर मेरी उससे अच्छी दोस्ती थी। झाड़ियों से बेरी बीनने, पगडंडियों से चलकर इमलियाँ बटोरने और बगीचों में घुसकर कैरी तोड़ने में वह मेरी सखी थी, पर पढ़ने में उसका मन नहीं लगता था, परीक्षा के दिनों में जब हम लोग टाट पट्टी पर बैठकर परीक्षा देते थे तब वह मेरे पीछे बैठकर झाँक-झाँक कर मेरी कॉपी से नकल करती रहती थी। उस समय एक कहावत (दोहा) बहुत प्रसिद्ध थी-

झाँसी गले की फाँसी, दतिया गले का हार।
ललितपुर कभी न छोड़िये, जब तक मिले उधार।।

               मैं नहीं जानती इसके पीछे सच्चाई क्या थी....... जो भी हो मेरे पिता बहुत ही मितव्ययी, ईमानदार, कर्तव्यनिष्ठ गंभीर प्रकृति के व्यक्ति थे अतः उधार लेने का कोई प्रश्न ही नहीं था और हम लोग वहाँ से स्थानान्तरित होकर अशोकनगर आ गये। अशोक नगर ...... संभवतः भारत देश के महान सम्राट् अशोक कभी वहाँ से गुजरे होंगे या वह स्थान उनके साम्राज्य के अधीन रहा होगा, उस समय एक छोटा सा कस्बानुमा ग्राम था। वहाँ एक मुख्य स्थान था गाड़ी अड्डा, जहाँ अपनी उपज बेचने के लिये आये किसानों और उनकी बैलगाड़ियों का जमघट लगा रहता था। जिस मकान में हम लोग रहते थे यद्यपि वह दो मंजिला था पर फर्श कच्चा था, हर हफ्ते गोबर से लीपना पड़ता था। कुँए से पानी खींचकर दूसरी मंजिल पर लाना होता था। बड़ी बहिन दुबली-पतली कमजोर थी, भाई बहुत छोटा।  अतः इस काम में मुझे ही माँ की सहायता करनी पड़ती थी। शाम होने से पहले ही माँ चिमनियों को साफ कर, लालटेन में तेल भरकर रखतीं थीं। एक ही लालटेन की रोशनी में हम लोग पढ़ाई और स्कूल के गृहकार्य करते थे। लालटेन की रोशनी किसे जादा मिल रही है; इस बात को लेकर भाई-बहिनों में झगड़ा भी होता था।

               अब पिता का स्थानन्तरण कोटा हो गया। रेल्वे के आवास आदि की व्यवस्था न हो पाने के कारण हम भाई बहन और माँ; दादा-दादी-चाचा-ताई के पास जबलपुर आ गये। मैंने सातवीं कक्षा में जॉनसन स्कूल में प्रवेश लिया। एक गाँव-कस्बे और एक बड़े नगर के क्रिश्चियन स्कूल की पढ़ाई के स्तर में बहुत अन्तर था। प्रारम्भ में कुछ कठिनाइयाँ हुईं पर हमारी मीरा दीदी (ताईजी की लड़की) जो उस समय रौबर्टसन कॉलेज में अर्थशास्त्र में एम.ए. कर रही थीं ने हमारी बहुत सहायता की। उतनी ऊँची कक्षा में और मोटी-मोटी किताबों को पढ़ने के कारण हम लोग उनके प्रति बड़ी ही श्रद्धा और विस्मय रखते थे। शीघ्र ही मैं अपनी सखी-सहेलियों लोक-प्रिय हो गई। वे नाना धर्मों और पंथों की थीं। कुलवन्त, इन्द्रजीत, डेज़ी, नफ़ीसा, मंजु, सुरिन्दर कौर आदि। इनमें से अरुणा मदान शा. गृहविज्ञान महावि. और सुरिन्दर कौर वालिया शा. मानकुँबर बाई महा. के गृहविज्ञान विभाग के अध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त हुई हैं।

               ४७ नर्मदा रोड पर, पं. बनारसीदास के बंगले (जिसे कभी भूत बंगला कहा जाता था) के पास हमारे ताऊजी का बहुत बड़ा मकान था। वस्तुतः वह एक अमरूद का बगीचा था जिसे खरीदकर बीचों-बीच मकान बनावाया गया था। ग्वारीघाट के पास उनकी कई एकड़ों में फैली कृषि-भूमि भी थी। बैलगाड़ी, साइकिल रिक्शा और बड़ी सी वैन ये तीनों वाहन घर पर ही उपलब्ध थे। बचपन में ये सब चीजें और भी बड़ी दिखाई देती थीं। चाचा शिकार और पिकनिक के शौकीन थे, प्रायः संग्राम सागर-आमखास, मदन महल, तिलवारा, नहीं तो अपने घर के बगीचे में ही हम लोगों की पिकनिक होती थी। घर के पीछे पुआलों का मीनारनुमा ढेर लगा रहता, हम लोग उसमें लुका-छिपी का खेल खेलते। गोशाला में कई गायें और भैंसें बँधी रहतीं, बड़ी सी लोहे की कढ़ाई में ताईजी दूध-औंटाती, उस दूध का स्वाद जैसे आज भी मुँह पर लगा हुआ है।

               एक वर्ष बाद हम लोग कोटा आ गये। अपनी-आन-बान के लिये मर मिटने वाले वीर क्षत्रियों और क्षत्राणियों की उस पावन भूमि को देखने की ललक तो थी है ....... पर एक ही वर्ष वहाँ रह पाये थे कि पिताजी का ट्राँसफर आगरा हो गया। जहाँ रेल्वे क्वाटर्स थे, वह जगह ‘ईस्ट- बैंक’ कही जाती थी, याने यमुना का पूर्वी किनारा। हमारे घर से यमुना की दूरी बहुत ही कम थी। गर्मियों में प्रातः पाँच बजे से ही नदी तटपर पहुँचकर घण्टों स्नान करना बहुत ही आनन्ददायी होता था, उन दिनों यमुना में पानी इतना कम होता था कि लेट कर स्नान करना पड़ता था..... बचपन से ही जलस्रोतों के प्रति मैंने अद्भुत आकर्षण का अनुभव किया है, आज सोचती हूँ सचमुच ये ही तो हैं हमारी जीवन रेखायें, स्वच्छ, निर्मल, तरल, अनवरत प्रवहमान...... पर कितना बड़ा दुर्भाग्य है हमारा; कि हम इन्हें भी खोते जा रहे हैं। हम लोग जहाँ स्नान करते थे उसके पास ही था पुराना रेल्वे ब्रिज जो आगरा फोर्ट स्टेशन तक जाता था। दूसरी ओर कुछ दूरी पर था नया ब्रिज जो ईस्ट बैंक को मुख्य शहर से जोड़ता था। इस पर वाहनों, विशेष रूप से ताँगों, इक्कों मोटर गाड़ियों और पैदल चलने वालों का ताँता लगा रहता था। उसी ब्रिज से होकर हम लोग आर्यकन्या इण्टरमीडियेट कॉलेज, बेलनगंज जाया करते थे। सबसे अधिक मजा और हँसी तब आती थी जब ब्रिज से गुजरते ताँगों पर बैठे पर्यटक (विशेष रूप से बंगाली) उल्लास और रोमाँच से भरकर चिल्ला उठते थे ''अरे ! वह देखो ताजमहल!'' फिर, गिरते-पड़ते से एक दूसरे को ठेलकर उस दिशा में देखना ....। हमारे घर के सामने से आगरा फोर्ट दिखता था और पीछे आँगन का दरवाजा खोलने पर ताजमहल, अतः उनका वह रोमाँच हमारे कौतुक का ही कारण होता था।

               वर्षा में यमुना का रूप कुछ दूसरा ही होता, लबालब भरी हुई यमुना ऐसी लगती थी कि जैसे हम ब्रिज से ही झुककर उसे छू सकते हैं। इसी इण्टरमीडियेट कॉलेज में ग्यारहवीं कक्षा में अध्ययन करते हुये संस्कृत के प्रति मेरा अनुराग हुआ। हमारी संस्कृत अध्यापिका थीं- श्रीमती पूनम शर्मा, पूनों के चाँद की तरह ही सुन्दर, वे हमें जब रामायण, गीता, शाकुन्तल, और बाणभट्ट की कादम्बरी के अंश पढ़ाती थीं, तब हम सभी छात्रायें अभिभूत भाव से उन्‍हें निहारते हुये उनके व्‍याख्‍यान को मानो अपने कानों से पी लेते थे।शाकुन्‍तल के वे प्रसिद्ध श्‍लोक और कादम्‍बरी के लम्बे-लम्बे उद्धरण मुझे; लगभग ५५ वर्षों बाद, अभी भी याद हैं। मैं यह मानती हूँ कि किसी भी विषय के प्रति रुचि और प्रेम जगाने में सबसे बड़ी भूमिका शिक्षक की हो होती है। हमारी प्रधानाचार्या श्रीमती मालती तिवारी को उन्हीं दिनों पीएच. डी. की उपाधि मिली थी। मेरे पिता उनकी इस उपलब्धि और ज्ञान-गरिमा के बड़े प्रशंसक थे। उस समय वह उपाधि; हम लोगों के लिये आसमान छूने जैसी ही थी। आर्यसमाजी स्कूल का संस्कारित वातावरण, शिक्षकों का सर्मपण एवं प्रोत्साहन मेरे लिये बहुत बड़े सम्बल और प्रेरक थे; जिन्होंने मेरे मन में भी शिक्षा के क्षेत्र में जाने के इच्छा का बीज-वपन किया था।(चित्र ३)

               पिताजी के बार-बार होने वाले स्थानान्तरणों की अस्थिरता के कारण हम लोग अब जबलपुर में ही स्थायी रूप से रहने लगे थे। मैंने बी.ए.द्वितीय वर्ष में होमसांइस कॉलेज में प्रवेश लिया था। रूपल पटेल, प्रभात मोहरीकर, डॉ. जयश्री जोशी, पद्मजा गोखले मुझसे जूनीयर थीं तो सोनल पटेल आदि सीनियर, चित्रलेखा दीक्षित (चैहान), मंजुला चौबे, वीणा श्रीराम, दीप्ति महीधर आदि हम एक ही कक्षा में थे। फ्री पीरियड में बगीचे में बैठकर एक दूसरे की शंकाओं का समाधान करना हमारे अध्ययन का ही अंग था और संभवतः उसी समय से मुझमें थोड़ी-थोड़ी शिक्षण-कला विकसित होने लगी थी। मैं इतिहास की प्राध्यापिका डॉ. चन्द्रावली गुप्ता के अध्यापन कौशल से विशेष रूप से प्रभावित थी। वे पहले हिन्दी में बोलती थीं और उसके तुरन्त बाद अंग्रेजी में उसका अनुवाद करती थीं। यूरोपियन हिस्ट्री को; बोर्ड पर क्षणभर में ही नक्शा बनाकर बहुत ही रोचक ढंग से पढ़ाती थीं। संस्कृत के बाद मेरी रुचि का दूसरा विषय इतिहास ही था। उन्होंने इतिहास में प्रवेश करने और उसे समझने के लिये ऐसी दृष्टि ही थी जो बाद में मेरे संस्कृत शोध-पत्रों में भी झलकती थी। सागर विश्वविद्यालय के हिन्दी-संस्कृत एवं दर्शनके प्रसिद्ध विद्वान डॉ. बच्चूलाल अवस्थी जी प्रायः कहा करते थे ‘तुम्हारा ''बैन्‍ट'' (झुकाव) इतिहासकी ओर है।’

               १९६७ में जबलपुर विश्वविद्यालय से मैरिट में द्वितीय स्थान प्राप्त कर मैंने बी.ए. पास किया। पिताजी चाहते थे बी. एड. करूँ पर मेरी इच्छा संस्कृत में एम.ए. करने की थी। घर से कई किलोमीटर दूर पचपेढ़ी स्थित विश्वविद्यालय पहुँचना आसान नहीं था। मैंने गरमियों की छुट्टी में साइकिल सीखी और विश्वविद्यालय-शिक्षण-विभाग जाने लगी; जो उसी वर्ष प्रारम्भ हुआ था। हमारे प्राध्यापकों में प्रमुख थे - डॉ. हीरालाल जैन, प्राकृत भाषा, जैन वाङ्मय और भाषा-विज्ञान के क्षेत्र में संपूर्ण भारत में ख्‍यातिलब्ध अधिकारी विद्वान्। उनका गौर वर्ण, भव्य व्यक्तित्व, प्रसन्न-सौम्य मुखाकृति हमें अनायास ही श्रद्धा से भर देती थी। उस समय डॉ. राजेन्द्र त्रिवेदी पालि-प्राकृत में एम.ए. कर रहे थे। संस्‍कृत और पालिप्राकृत की भाषाविज्ञान की कक्षायें साथ लगती थीं। डॉ. कृष्‍णकान्‍त चतुर्वेदी, वेदान्‍त दर्शन के प्रकाण्‍ड विद्वान हमें दर्शन पढ़ाते थे उनकी प्रखर, धाराप्रवाह, ओजस्वी वाणी हम छात्रों को अभिभूत करती हुई, विषय की गहराई में प्रवेश कराती हुई एक अन्वेषणात्मक दृष्टि भी देती थी। वे अपनी छात्र-मण्डली में विशेष प्रिय एवं श्रद्धेय थे। जैसे एक बीज में वृक्षों के समूह वन को खड़ा कर देने की शक्ति होती है; वैसे ही उनके प्रभावी व्यक्तित्व ने शिष्यों का एक ऐसा विशाल समूह खड़ा किया था, जो समाज के विभिन्न क्षेत्रों में अपनी सेवाएँ देते हुये उनकी ज्ञान-सम्पदा और यश को फैला रहे हैं। वे सच्चे अर्थों में शिष्यों के शुभचिन्तक गुरु और आचार्य थे जो एम.ए., पी.एच.डी. करने और नौकरी पाने तक उनकी देख-रेख करते हुये मार्गदर्शक बनते थे। यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण और उल्लेखनीय है कि लगातार कई वर्षों तक, पी.एस.सी संस्कृत की चयन सूची में अस्सी प्रतिशत प्रत्याशी उन्हीं के शिष्य रहे हैं।

               अपने शैक्षणिक प्राध्यापकीय जीवन की प्रगति में विशेष रूप से आभारी हूँ आदरणीया उर्मिला मिश्रा (प्राध्यापक-इतिहास, भोपाल) की जो शा. सेवा के प्रारम्भिक काल में मेरी संरक्षक-अभिभावक बनीं, जिनके साथ होड़ लगाकर मैंने दो वर्षों में ही पीएच.डी. की उपाधि पा ली। इतिहास के गूढ़ प्रश्नों पर उनके साथ होने वाले लम्बे संवाद मेरे पाथेय बने। एक सामान्य सी बालिका, जिसके घर में संस्कृत विद्या का न तो कोई परिवेश था न ही पृष्ठभूमि; वह दिल्ली के संस्कृत विद्वत् जगत् में अपनी पहचान न बना पाती यदि आदरणीया डॉ. सुषमा कुलश्रेष्ठ का मार्गदर्शन, स्नेह और प्रोत्साहन नहीं मिलता। वे प्रायः कहती थीं कि ''संस्कृत विद्या पर ब्राह्मणों और पुरुष वर्ग ने अपना अधिकार जमा रखा है। वे महिलाओं को आगे बढ़ाना नहीं चाहते। मेरे जीवन का लक्ष्य महिलाओं की प्रतिभा को सामने लाना है।'' समग्र भारत की कितनी ही संस्कृत प्राध्यापिकाओं को एक साथ जोड़कर उन्होंने अपनी ‘कालिदास अकादमी ऑफ संस्कृत एण्ड फाइन आर्ट्स के माध्यम से मंच और अवसर प्रदान किया था। डॉ. शोभा मुखर्जी, डॉ. चित्रा चतुर्वेदी, डॉ गीता श्रीवास्‍तव, डॉ. नवलता, डॉ मनुलता, डॉ. जयश्री जोशी, सुश्री ललिता वर्मा, श्रीमती सुभद्रा पाण्‍डे, डॉ. उषा दुबे, डॉ. स्मृति शुक्ला, आदरणीया साधना दीदी, गायत्री भाभी, रत्ना ओझा, डॉ. अनामिका तिवारी, श्रीमती छाया त्रिवेदी, डॉ. सुमन श्रीवास्तव, डॉ. पूर्णिमा केलकर एवं मेरे अन्‍त: करण में बसे मेरे अन्‍तेवासी (शिष्‍य) विशेषत: हरीराम रैदास, योगेश तिवारी, राधाकृष्‍ण पाण्‍डे, अभिषेक पाण्‍डे, नारायण दत्त त्रिपाठी; मेरे आत्‍मीय छोटी सी नातिन अनन्‍या, दीदी (ननद) श्रीमती सुषमा बोस, जीजाजी श्री अनाथबन्‍धु बोस, मेरे पति-श्री स्‍वपन घोष, पुत्री ईशिता, दामाद-श्री आलोक, पुत्र-ईशान सभी के व्यक्तित्व की सशक्त तरङ्गो ने मुझे प्रभावित किया है, कुछ न कुछ सिखाया है। आभारी हूँ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ की जिन्होंने मुझे इस प्रकार अपनी स्मृतियों के शतदल को.... पीछे मुड़कर देखने.... अनुभव करने का अवसर दिया। कुछ पंक्तियाँ इन भूली-बिसरी स्मृतियों पर-

मिल जाती यूँ ही जब कोई पुरानी तस्वीर
अल्मारी के किसी कोने में बेतरतीब
नाच जाता आँखों में वो नादान बचपन
तितलियों की दुनिया.....शरारतें.....वह भोलापन
समय का पहिया जैसे वहीं ठहर जाता
दूर....बहुत दूर.... कहीं .....यह मन भटक जाता
मिलता तस्वीर का जब....वह पुराना लिफाफा।
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कर्तृत्‍व

अद्वितीय कृति "संस्‍कृत वाङ्मय में शिल्‍पकलाएँ"
प्रो. सुषमा कुलश्रेष्‍ठ
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[कृति परिचय - संस्‍कृत वाङ्मय में शिल्‍पकलाएँ, डॉ. इला घोष, आईएसबीएन ८१-७८५४-०१९-३, प्रथम संस्‍करण २००४, पृष्‍ठ सं. ४१४,  मूल्‍य ₹  १२००, ईस्‍टर्न बुक लिंकर्स- दिल्‍ली।]

लेखक - प्रो. सुषमा कुलश्रेष्‍ठ - संस्‍थापिका-कालिदास संस्‍कृत संगीत कला एके‍डमी, दिल्‍ली/ पूर्व कुलपति, श्री जगन्नाथ संस्कृत विश्वविद्यालय, पुरी (उड़ीसा) राष्ट्रपति सम्मान से सम्मानित प्राच्य विद्या-विशारद। 
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             यह सृष्टि षोडशकलासम्पन्न ब्रह्म का लीलाकलाविलास है। यह सम्पूर्ण सृष्टि, हमारा ब्रह्माण्ड, यह चराचर जगत् देवशिल्प है क्योंकि उस दिव्य परमपुरुष की विशिष्ट रचना है। इसे जानने और समझने की मानवीय जिज्ञासा ने ही ज्ञान-विज्ञान की अनन्त शाखाओं को जन्म दिया है। भारतीय चिन्तकों ने इस सृष्टि को दिव्य कला के रूप में देखा है। मानुषी प्रतिभा एवं वैदुषी से इन्द्रियों के विषयों-शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध को आत्मिक आनन्द के लिए मनोभिराम, हृदयावर्जक तथा अतिशय कमनीय रूप में प्रस्तुत करना ही कला है। भारतीय परम्परा में कलाओं की परिनिष्ठित संख्या चतुष्षष्टि (चौंसठ) मानी गयी है। महर्षि वात्स्यायन ने ‘कामसूत्र’ में गीत, वाद्य, नृत्य, आलेख्‍य (चित्र), माल्यग्रन्थन, तिलकरचना, गन्धयुक्ति, शयनरचना, निमित्तिज्ञान प्रभृति इन चतुष्षष्टि कलाओं का परिगणन, कलाशिक्षण के प्रयोजनों का निरूपण एवं कलाभ्यास के माहात्म्य का सङ्कीर्तन किया है। परमानन्द की उपलब्धि को ही जीवन का चरम लक्ष्य मानने वाली भारतीय संस्कृति चतुष्षष्टि कलाओं के माध्यम से दैनन्दिन जीवन में भी आनन्द की उपासना करती रही है। कला के लिए संस्कृत वाङ्मय में प्रयुक्त प्रथम शब्द ‘शिल्प’ है। परवर्ती संस्कृत साहित्य में ‘शिल्प’ और ‘कला’ का पर्याय रूप में प्रयोग हुआ है। ‘शिल्प’ और ‘कला’ में कोई विभाजन रेखा नहीं है। आधुनिक युग में ‘ललितकला’ या ‘चारुशिल्प’ तथा ‘उपयोगी कला’ या ‘कारुशिल्प’, इन दो वर्गों में कला को वर्गीकृत किया जाता है। प्रस्तुत ग्रन्थ में ‘कारुशिल्प’ को ही ‘शिल्पकला’ कहा गया है। 

             प्रो. इला घोष द्वारा सुग्रथित कलाविषयक प्रस्तुत अप्रतिम ग्रन्थ आपके करकमलों में विराजमान है। इस ग्रन्थ में शिल्पकलाओं की समृद्ध परम्परा को संस्कृत वाङ्मय के माध्यम से देखने-परखने का मनोरम प्रयास किया गया है। ईसा पूर्व दस सहस्र वर्ष की रचना ऋग्वेद से प्रारम्भ कर मध्ययुग द्वादशवीं शताब्दी में श्रीहर्ष द्वारा प्रणीत नैषधीयचरित तक रचे गए विपुल संस्कृत वाङ्मय में बिखरी हुई शिल्पकलाविषयक सामग्री की विधिवद् अधीति, उनके अर्थबोध एवं परीक्षण के अनन्तर शिल्पकलाओं का प्रामाणिक शास्त्रीय विवेचन यहाँ सोदाहरण प्रस्तुत है। संस्कृत वाङ्मय को उपजीव्य बनाकर कलासम्बद्ध अद्यावधि प्रणीत ग्रन्थों में डॉ. इला घोष की यह कृति अद्वितीय है, यह विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है। शिल्पकलाविवेचनपरक यह कलाकृति स्वयम् एक शास्त्र है। हमारे प्राचीन ऋषि तथा अश्वघोष, कालिदास, भारवि, माघ, श्रीहर्ष प्रभृति महाकविगण कितने कलाप्रवीण तथा कलामर्मज्ञ थे, यह इस कृति से स्पष्ट है। इसके प्रायः सभी अध्यायों में उन सभी तत्वों एवं तथ्यों को उद्घाटित किया गया है, जो समझ में न आने के कारण साहित्य अध्येताओं एवं रसिकों को रसव्याघात से पीड़ि‍त करते रहे हैं।

             प्रो. इला घोष मेरी अन्तरङ्ग सखी हैं, वह विगत एकादश वर्षों से कलासम्बद्ध शास्त्रीय ग्रन्थों एवं संस्कृत वाङ्मय के प्रतिनिधिभूत ग्रन्थों के पठन-विवेचनादि की अजस्र साधना में सतत संलग्न रही हैं। उनकी इसी महीयसी साधना का अद्भुत सुफल है यह कलाकृति। कलानिपुणा विदुषी प्रो. इला का संस्कृतनिष्ठ हिन्दी भाषा पर असाधारण अधिकार है। उनकी विषयप्रस्तुति की शैली नितरां मनोहारिणी है। इतनी गम्भीर, सरस तथा पाण्डित्यपूर्ण कलाव्याख्यानकृति प्रस्तुत करने के लिए मैं प्रो. इला घोष को हार्दिक बधाई देती हूँ। मुझे पूर्ण विश्वास है, उनकी इस कृति का विद्वत्समाज में, कलारसिकों में, नागरकों (नागरिकों में भी) में तथा शोधार्थियों में अभिनन्दन एवं समादर होगा।
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सुप्रसिद्ध ग्रन्थ "ऋग्वैदिक ऋषिका: जीवन एवं दर्शन"
डॉ. उषा दुबे
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[कृति परिचय - ऋग्वैदिक ऋषिका: जीवन एवं दर्शन, डॉ. इला घोष, आईएसबीएन ८१-७८५४-१२५-४, पृष्‍ठ सं. २८६, प्रथम संस्‍करण २००७, प्रकाशक- ईस्‍टर्न बुक लिंकर्स दिल्‍ली, मूल्‍य ₹९००। ]

लेखक - डॉ. उषा दुबे, पूर्व प्राचार्य, शासकीय मानकुँवर बाई महाविद्यालय, जबलपुर, निदेशक - नानाजी देशमुख अनुसंधान केन्द्र, जबलपुर।
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             ‘अनेक मूल्यवान् ग्रन्थों की रचयिता, ख्यातिप्राप्त विदुषी लेखिका, डॉ. इला घोष मेरी आत्मीय हैं’, ऐसा सोचकर ही मैं गौरवान्वित हो उठती हूँ। मेरा उनसे परिचय कॉलेज में विभिन्न साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों के दौरान हुआ। घनिष्ठता तब और बढ़ गई, जब मैंने ‘नानाजी देशमुख प्रशिक्षण एवं अनुसंधान केन्द्र, जबलपुर’ की निदेशक रहते हुए उनके संपादकत्व में ‘महामानव नानाजी’ स्मारिका का प्रकाशन-कार्य सम्पन्न किया। भारतरत्न नानाजी को ‘महामानव’ के रूप में मूल्यांकित करते हुए प्रमाण-सहित अपने शोधपरक आलेख के प्रकाशन के साथ अनगिनत शुभकामनाएँ प्राप्त करने वाली डॉ. इला घोष आज मेरी बेहद नज़दीक़ी हैं। न जाने उनके व्यक्तित्व में ऐसा क्या आकर्षण रहा कि मैंने मन ही मन उसी दिन से उन्हें अपना आत्मीय मान लिया, जब वे पहली बार मुझसे मिलीं। हमने वृन्दावन, मथुरा, चित्रकूट की यात्राएँ अकादमिक गतिविधियों के परिप्रेक्ष्य में एक साथ की हैं।

             अत्यन्त आकर्षक व्यक्तित्व की धनी डॉ. इला घोष के व्यक्तित्व के अभिन्न अंग उनकी शालीनता, गहन गंभीरता, कलात्मकता और सुरुचि-सम्पन्नता है। उनका यही व्यक्तित्व उनके समस्त साहित्य में प्रकट हुआ है। मुझे लगता है कि उनके अवचेतन मन में कहीं न कहीं सौन्दर्य वर्तमान है, अनुरागप्रियता और संभ्रान्तता के प्रति रुझान है। गंभीर इतनी कि समय-समय पर अपने साहित्य के लिए पुरस्कारों से सम्मानित होने पर भी कभी किसी से चर्चा तक नहीं करतीं। पत्र-पत्रिकाओं में पढ़कर या साहित्यानुरागी साथियों द्वारा बताये जाने पर ही लोग उन्हें बधाई दे पाते हैं। मैंने एक बार उनसे पुरस्कारों के संबंध में जिज्ञासा व्यक्त की कि आजकल तो साहित्य-पुरस्कारों में होड़ सी लग गई है। इस प्रकार के पुरस्कारों के विषय में आपकी क्या राय है? क्या इनसे साहित्य-सर्जना को प्रोत्साहन मिलता है अथवा साहित्येतर स्पर्धा को प्रश्रय मिलता है? उन्होंने सहज भाव से उत्तर दिया - ‘जब भी मुझे कोई पुरस्कार मिलता है, उस समय मैं हमेशा आत्मचिन्तन करती हूँ कि क्या वास्तव में मैं इसकी अधिकारिणी हूँ या नहीं? अब तो मैं अपने लेखन के लिए और भी ज़िम्मेदार हो गई हूँ। मुझे हमेशा अपने दायित्व का ध्यान रहता है।’

             आपने वेदों का गहन अध्ययन किया है। ‘ऋग्वैदिक ऋषिका: जीवन एवं दर्शन’ आपका सुप्रसिद्ध ग्रन्थ है। लेखिका की पीड़ाजनित अभिव्यक्ति इस ग्रंथ के सृजन का मूल है ऋग्वेद की महिमा का आकलन करते समय प्रायः विद्वानों द्वारा इस धारा को सर्वथा अनदेखा कर दिया गया है या नामोल्लेख मात्र से अपने कर्तव्‍य की इति समझ ली गई है, जबकि सत्य यह है कि ऋग्वैदिक जीनव-दर्शन और संस्कृति का सर्वांगीण अध्ययन समाज के इस अर्द्धांग की उपेक्षा से संभव नहीं है। वस्तुतः यह अध्ययन अधूरा और एकांगी है, जो मात्र पुरुष की दृष्टि से सारी व्यवस्थाओं और परिदृश्य को देखता, समझता और वर्णित करता है।’ (पुरोवाक् - ऋग्वैदिक ऋषिका: जीवन एवं दर्शन)।

             इस ग्रन्थ में लेखिका की पैनी अन्वेषी दृष्टि ने ऋग्वैदिक जीवन और विचारों के अन्तर्निहित अव्यक्त सूत्रों को पहचानने के लिए स्त्री-ऋषियों के मन्त्रों का गहन अध्ययन और विश्लेषण किया है। इस ग्रन्थ की रचना के विषय में स्वयं लेखिका के उद्गार द्रष्टव्य हैं - ''मुक्तारत्न का सर्जन करने वाले शुक्ति के दो सम्पुटों की भाँति इस सृष्टि-प्रक्रिया के दो चिरन्तन अंग हैं - स्त्री और पुरुष; जिनके सम्मिलित अवदान से ही राष्ट्र का निर्माण होता है। वैदिक ज्ञान-विज्ञान, सभ्यता-संस्कृति, धर्म-दर्शन, सामाजिक-नैतिक व्यवस्था के निर्माण में भी रोमशा, लोपामुद्रा, विश्वारा, घोषा, अपाला, जुहू, सूर्या और वागाम्भृणी जैसी ब्रह्मवादिनी ऋषिकाओं का महनीय योगदान रहा है। इस अवदान के साथ ही स्त्री-ऋषियों के जीवन के कई अनछुये पहलुओं को उनकी आशा-निराशा, सुख-दुःख, हास और अश्रु को, उनके जीवनसंघर्ष और उपलब्धियों के शिखर को उन्हीं के आत्मकथ्य के रूप में प्रथम बार उद्घाटित करता है यह ग्रन्थ - ‘ऋग्वैदिक ऋषिका: जीवन और दर्शन’।'' वैदिक काल में पुरुषप्रधान समाज दिखाई देता है; तथापि नारी का महत्त्व अक्षुण्ण और अप्रतिम है। नारी के महत्त्व के मूल में त्याग और बलिदान है। संतान के प्रसव और पालन में नारी का योग पुरुष की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण है - ‘मातृदेवो भव।’

             इसमें कोई संदेह नहीं कि नारी जीवन के इतिहास में सभी दृष्टियों से ऋग्वैदिक काल को ‘स्वर्णिम युग’ कहा जा सकता है; फिर भी लेखिका का मानना है कि अभी सत्य के अन्वेषण की आवश्यकता है। पुरुष-प्रधान समाज में जीवन ओर जगत् के प्रति आक्रोश के बावजूद वैदिक ऋषिकाओं का मूल स्वर जीवन है, पलायन या विरक्ति नहीं। लेखिका के शब्दों में “पुरुष व्यवस्था के अन्तर्गत कितनी ही नारी-प्रतिभाएँ समुचित अवसर और सामाजिक स्वीकृति के अभाव में अपरिचय के अंधकार में विलीन हो गई हैं। हर युग में स्त्री को अपने अस्तित्व और सत्ता की पहचान बनाने के लिए अपनी आवाज़ बुलंद करनी पड़ी है। ऐसा ही एक सशक्त स्वर है ऋग्वैदिक युग की रोमशा का।“ (पृष्ठ ३०)

             रोमशा की आत्मविश्वास से सराबोर अभिव्यक्ति, मा मे दभ्राणि मन्यथा (मुझे छोटा मत समझना) अहमस्मि रोमशा (मैं रोमशा हूँ), ऋग्वैदिक नारी-जागृति का जीता- जागता ऐसा प्रमाण है, जिसने नारी को आद्याशक्ति के रूप में प्रतिष्ठित करते हुए अन्यायों और अत्याचारों से लड़ने का साहस दिया है।

             इस ग्रन्थ में विदुषी लेखिका ने जहाँ एक ओर वैदिक ऋषिकाओं के मनावैज्ञानिक पक्ष पर शोधपरक विश्लेषण प्रस्तुत किया है, वहाँ दूसरी ओर ऋग्वेदकालीन सामाजिक व्यवस्था में ऋषिकाओं की भूमिका को रेखांकित भी किया है। इनमें प्रमुख हैं - अपने संपूर्ण जीवन को पतिसेवा में समर्पित कर देने वाली महर्षि अगस्त्य की पत्नी लोपामुद्रा। विश्व में प्रत्येक महामानव की महानता के पीछे किसी न किसी नारीशक्ति की प्रेरणा, सेवा और समर्पण का भाव रहा है। “चिरन्तन काल से स्त्रीजाति की आशा-आकांक्षाओं और सुख-दुःख के केन्द्र उसके पति, पुत्र और परिवार रहे हैं। उसने अपनी शक्ति व ऊर्जा के समग्र कोश को निःस्वार्थ भाव से इन्हीं के मंगल के लिए रिक्त किया है। उसके जीवन की हर साँस इन्हीं की हितकामना में रची-बसी है।“ (पृष्ठ ३३)

             लेखिका ने एक और अनछुए अंग को रेखांकित किया है; वह है वैदिक देवता इन्द्र का। अब तक इन्द्र सर्वथा असुरविजयी योद्धा के रूप में चित्रित हुए हैं, परन्तु सपत्नियों से इन्द्राणी के भय और अपनी पुत्रवधू व शुक्रपत्नी के प्रति उनके वात्सल्यपूर्ण हृदय को कोई जान नहीं सका। इसी प्रकार उषा के अरुणिम आलोक में अग्निदेव का आह्वान करती हुई गृहवधू विश्ववारा आत्रेयी ने अपने महान् विचारों से भारतीय संस्कृति को विश्ववरणीय बनाते हुये अपने नाम को सार्थक किया है। यदि आज भारत को अपने उसी पुरातन गौरव को प्राप्त करना है या विश्व की किसी भी संस्कृति को महान् बनना है, तो पूर्व की ओर ही देखना होगा क्योंकि प्रकाश की किरण पूर्व से ही फूटती है - एति प्राची विश्ववारा। (पृष्ठ ४९) 

             ऐसी ही तपोनिष्ठ, पवित्र आचरण से पुनः पति को प्राप्त करने वाली जुहू, निष्ठापूर्वक दौत्यकर्म और स्वामी के आदेशों का मनसा, वाचा, कर्मणा निर्वहन करने वाली सरमा, सृष्टि के गूढ़तम रहस्यों की ज्ञाता एवं प्रवक्ता अदिति, ब्रह्म से तादात्म्य स्थापित करनेवाली ‘अहं ब्रह्मास्मि’ की उद्घोषिका वागाम्भृणी और मरणोपरान्त-जीवन की व्याख्याता यमी वैवस्वती आदि अनेक ऋषिकाओं के आत्मकथ्य के रूप में अभिव्यक्त मंत्रों का अत्याधुनिक संदर्भों में पुनर्मूल्यांकन निस्संदेह ऋग्वैदिक काल की नारियों का माहात्म्य प्रामाणिक स्तर पर तो सिद्ध करता ही है, साथ ही लेखिका का दूरगामी संदेश ‘इक्कीसवीं सदी की वर्तमान नारी के संदर्भ में भी इन्हें समझना और परखना युग की माँग है“ विषय को पूर्णता प्रदान करता है। भारतीय मनीषा में नारी स्तुत्य है, आवाहनयोग्य है, रमणीय है, सुशील है और यशोमयी है।

             आज की भौतिकवादी संस्कृति से त्रस्त वर्तमान समाज में राष्ट्र के गौरवशाली नवनिर्माण हेतु इस ग्रन्थ की युगानुरूप प्रासंगिकता पहले से भी अधिक बढ़ गई है। अहंकार के बदले संस्कार, भव्यता के बदले सभ्यता, टेन्शन के बदले चिन्तन, संघर्ष के बदले संवेदना प्रतिष्ठित कर वे अपनी खोयी हुई मर्यादा और आत्मसम्मान को पुनः स्थापित कर सकती हैं। वास्तव में किसी भी विशिष्ट सृजन के लिए सृजनकर्ता की जीवन-दृष्टि महत्त्वपूर्ण होती है। स्वभाव से सरल और सौम्य होने के कारण ही सहजता डॉ. इला घोष का दामन कभी नहीं छोड़ती। उनकी समस्त कृतियों में अथाह ज्ञानभण्डार समाहित है। अन्वेषक दृष्टि होने के कारण उनका खोजी मन सृजन में कृतित्व के नित्य नये आयाम उद्घाटित करने को तत्पर रहता है। सृजन के माध्यम से प्रबुद्ध और विवेकशील पाठकों के साथ आप अपना सार्थक संबंध बनाये रखें, यही प्रभु से कामना है।
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वैदिक संस्कृति की संवाहिका प्रो. इला घोष

डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव
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[ कृति परिचय - वैदिक संस्कृति संरचना (नारी-योगदान-विभूषित), डॉ. इला घोष, आईएसबीएन ९७८-८१- ७८५ ४-२३३-१, पृष्‍ठ सं. ३९८, प्रथम संस्‍करण- २०१२, ईस्‍टर्न बुक लिंकर्स दिल्‍ली, मूल्‍य ₹१६५० ]

लेखक - डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव, संस्कृतज्ञ, संगीतकार, प्रतिष्ठित कथाकार, शोध निदेशक। 
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डॉ. इला घोष के व्यक्तित्व एवं कर्तृत्‍व के परिप्रेक्ष्य में विशेषांक निश्चय ही विद्यानुरागियों के लिए प्रेरणा के ज्वाजल्यमान प्रकाशस्तम्भ के रूप में सिद्धि-प्रसिद्धि के शिखर पर स्थापित होकर रचनाप्रवण साहित्यकारों, अनुसंधित्सुओं, सुधी पाठकों और ज्ञानपिपासुओं के पंथों को आलोकित करेगा। इस पहल के लिए चिरंजीव आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ प्रशंसा एवं साधुवाद के अधिकारी हैं।
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             मैं इला जी से आयु में ‘गुरुता’ प्राप्त किए हुए हूँ, परन्तु सत्य यह है कि वे मेरी ‘गुरु’ हैं। मेरे शोधकार्य की दिशा तब ही नियत हो गई थी, जब २००४  में पी.एच.डी.-निर्देशक के लिए मुझे उनका नाम सुझाया गया था। विषय था संगीतशास्त्र और हाथ में थे दो अस्पृष्ट संस्कृतग्रन्थ, टंकण-प्रति के रूप में। मार्ग अज्ञात था। मैं अपनी इच्छाशक्ति के खम्भे से टिकी, पंगुवत् खड़ी थी, तब मेरा लकुटि-सम्बल बनीं थीं, .....वे। विषयवस्तु उनके लिए करतलगत आम्लकी बन गई और उन्होंने इतनी स्पष्ट ‘सिनॉप्सिस’ बनवा दी कि मुझे शोधग्रन्थ बनाना सुगम हो गया। बहुश्रुता विदुषी प्राचार्य प्राध्यापिका ने अपनी व्यस्तता में भी मेरे लेखन के एक-एक अनुस्वार-हलन्त-विसर्ग, अल्पविराम-अर्द्धविराम-पूर्णविराम, वर्ण-व्यंजन-शब्द-पद- वाक्य, गद्यांश-पद्यांश, अनुच्छेद-परिच्छेद पर सतर्क दृष्टि बनाए रखी, अमित स्नेहिल प्रोत्साहन और सजग प्रेरणा के वातावरण में। वे मुझसे ‘’गुरुतर’ हैं, अपनी अथक अध्ययनशीलता, मननशीलता, गवेषणात्मकता और तत्परता में। वे ‘गुरुतम’ हैं, अपने पठन-पाठन, ज्ञान-विज्ञान, चिन्तन-दर्शन, लेखन-प्रवचन, अनुशासन-प्रशासन में और ‘अति गुरुतम’ हैं, सभ्यता-संस्कृति तथा मानव-मूल्यपरक, मंत्रश्रुत्यात्मक जीवनशैली में। फिर भी उनका आत्मीय भाव मेरी दिनचर्या में जाने-अनजाने कभी छात्रवात्सल्य तो कभी सख्यभाव के रूप में पाथेय बन जाता है।

             मंत्रश्रुत्यात्मक ज्ञान की जिज्ञासा ने ही उन्हें वैदिक साहित्य की ओर उन्मुख किया। महर्षि अरविंद के शब्दों में कहा जाए, तो वेदों की दिव्य वाणी कम्पन करती हुई असीम से निकलकर उसके अन्तःकरण में ही पहुँचती है, जिसने पहले से स्वयं को इस अपौरुषेय ज्ञान का पात्र बना लिया होता है। वेद-विज्ञान पर आधारित तीन ग्रन्थ आपने लोकार्पित किए हैं । राजशेखर का कथन है कि तप, प्रतिभा, मेधा और अन्तर्दृष्टि आत्मा के धर्म हैं, शरीर के नहीं; अतः ये स्त्री-पुरुष का भेद नहीं करते। ‘यस्य वाक्यं स ऋषिः इस सिद्धान्त के अनुसार ऋषित्व की प्राप्ति में स्त्री और पुरुष का भेद अनुचित मानकर प्रो. इला घोष ने इस ग्रन्‍थ में ऋग्वेद से लेकर उपनिषद् युग तक; अपने ज्ञान, तपोबल एवं आचरण से वैदिक संस्कृति का निर्माण, संवर्धन एवं पोषण करने वाली स्त्रियों के योगदान को उद्घाटित किया है।

             वैदिक संस्कृति से तात्पर्य है वेद, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद् जैसे वैदिक वाङ्मय के द्रष्टा एवं स्रष्टा मनीषी कवि ऋषियों द्वारा प्रवर्तित संस्कृति, जो सहस्रों वर्षों के अतीत हो जाने पर भी आज ‘हिन्दू संस्कृति’ के रूप में जीवित है। उदात्त जीवन-मूल्य, सह-अस्तित्व, विश्वबन्धुत्व, समष्टि कल्याण एवं सर्वांगीण विकास इस संस्कृति के घटक हैं। वैदिक संस्कृति कृण्वन्तो विश्वमार्यम् अर्थात् समग्र विश्व को ‘आर्य’ अथवा श्रेष्ठ मानव बनाने के उद्देश्य से अभिप्रेरित है। पुराणी युवती उषा के सदृश चिर पुराणी चिर नवीना यह संस्कृति ‘सत्यं शिवं सुन्दरम् ’ के भाव को लेकर विकसित हुई है - सा प्रथमा संस्कृतिर्विश्ववारा। लेखिका लिखती हैं -

             “सभ्यता के उषःकाल से ही भारत राष्ट्र ने दर्शन के माध्यम से सत्य की, साहित्य- साधना द्वारा शिव की एवं कला-सृष्टि द्वारा सौन्दर्य की उपासना की है।" स्त्री-ऋषियों को ‘मुनि’, ‘ब्रह्मवादिनी’, ‘ऋषि’ अथवा ‘ऋषिका’ कहा गया है। संस्कृति के निर्माण में इनके अवदान के मर्म को ग्रन्थ की रचयिता ने मनोरम शब्दों में रूपायित किया है - “संस्कृति रूपी वटवृक्ष की संरचना में स्त्री की भूमिका उस मिट्टी की भाँति है, जो न केवल बीज को अपने गर्भ में धारण करती है; अपितु अपनी गृहणशीलता और समावेशिता के गुण के कारण जल, वायु और उर्वरकों को अवशोषित कर उस बीज को अंकुरित, पल्लवित, पुष्पित और फलित भी करती है। वह वृक्ष को बढ़ाने में सहायक होती है, साथ ही वृद्धि की सीमाएँ निर्धारित करती है। वृक्ष भले ही अपनी शाखाओं को ऊपर की ओर फैलाए, उसकी जड़ें तो उसी मिट्टी में गहरे समाई होती हैं। वैदिक संस्कृति की सुदृढ़ जड़ों को भी स्त्रियों ने ही
धारित, पोषित और संवर्धित किया है।“

             विवेच्य ग्रन्थ ‘वैदिक संस्कृति संरचना (नारी-योगदान-विभूषित)’ तीन खण्डों में विभक्त है। प्रथम खण्ड में वैदिक संस्कृति के अन्तर्गत संस्कृति, वैदिक संस्कृति, वैदिक साहित्य, वैदिक संस्कृति की विशेषताएँ एवं वैदिक संस्कृति के निर्माता, इन बिन्दुओं पर विचार किया गया है। संस्कृति का शाब्दिक अर्थ है - ‘मानव जाति की शोभन सम्यक् कृति’। द्वितीय खण्ड में ४१ ऋषिकाओं के साहित्यिक-सांस्कृतिक योगदान को उल्लिखित किया गया है एवं तृतीय खण्ड ‘वैदिक संस्कृति के विविध आयाम’ के अन्तर्गत प्राकृतिक संरचना, राजनैतिक-ऐतिहासिक वैशिष्ट्य, सामाजिक संरचना, अर्थव्यवस्था, धर्म-दर्शन, शिक्षा, विज्ञान, भाषा, साहित्य एवं जीवन-मूल्य आदि संस्कृति के विविध घटकों में नारी-अवदान का निरूपण किया गया है। ग्रन्थ में कुल मिलाकर प्रसिद्ध, अल्पप्रसिद्ध तथा अप्रसिद्ध ऋषिकाओं के मंत्रों तथा सूक्तों के साथ उनका परिचय भी दिया गया है। इनके नाम हैं - रोमशा, लोपामुद्रा, नद्यः, अदिति१, अदिति२, विश्ववारा आत्रेयी, शश्वती आंगिरसी, अपाला आत्रेयी, सिकता निवावरी, शिखण्डिनीद्वय, वसुक्रपत्नी, घोषा काक्षीवती, अगस्त्यस्वसा, सूर्या सावित्री, उर्वशी, दक्षिणा, सरमा, जुहू ब्रह्मजाया, वागम्भृणी, रात्री भारद्वाजी, गोधा, इन्द्राणी, शचीपौलोमी, श्रद्धा कामायनी, इन्द्रमातरः, यमी वैवस्वती, सार्पराज्ञी, श्री, लाक्षा, मेधा, उपनिषद्-निषद्, शुन्ध्युव, वध्रिमती, विश्पला, मुद्गलानी, आटिकी, जबाला, यमपत्नी, उमा हैमवती, मैत्रेयी एवं गार्गी वाचक्नवी।

             ब्रह्मवादिनी रोमशा ने नारी के अधिकार और सम्मान को वैदिक संस्कृति का प्रमुख अंग बनाया। लोपामुद्रा ने सृष्टि के मूल ‘काम’ को पुरुषार्थ के रूप में मान्यता दिलाई। नदियों ने संसार की जीवनरेखा मातृभूता नदियों के संरक्षण तथा जलसंरक्षण का संदेश दिया। अदिति ने प्रथम महिला वैज्ञानिक एवं दार्शनिक के रूप में जगत्सृष्टि की मीमांसा की तथा अपने पुत्र मार्तण्ड को इस सृष्टि के जीवन के लिए नियोजित किया। विश्ववारा ने अग्नि-पूजा तथा यज्ञ-धर्म को विश्वधर्म के रूप में प्रतिष्ठित किया। शश्वती आंगिरसी ने महान् तप से पति को नपुसंकत्व से मुक्ति दिला कर नारीधर्म को सिद्ध किया तथा ‘नारी’ अभिधान प्राप्त किया। घोषा ने लोक-कल्याण को धर्म का मूल माना। अगस्त्यस्वसा ने राजधर्म का विवेचन किया। सूर्या ने विवाह को एक पवित्र संस्कार एवं स्थायी संस्था का रूप देते हुए गृहस्थ आश्रम एवं परिवार के स्वरूप तथा परिवार के सदस्यों के परस्पर कर्तव्‍य एवं अधिकारों का निर्धारण किया। शुन्घ्युव ने स्वयंवर को सामाजिक स्वीकृति दिलाई। सरमा ने दौत्यकर्म की मर्यादा और आचरण का निदर्शन किया। वागाम्भृणी ने वाक् को जनगण की शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित किया। गोधा ने मंत्र और श्रुति के अनुसार आचरण पर बल दिया। श्री ने जीवन में ‘अर्थ’ पुरुषार्थ के महत्त्व का प्रतिपादन किया। जुहू ने राष्ट्र की रक्षा के लिए क्षात्रतेज को आवश्यक माना। श्रद्धा, दक्षिणा और जबाला ने क्रमशः तप, श्रद्धा, दान और सत्य को जीवनमूल्य बताया। यमपत्नी ने अतिथि के प्रति कर्तव्य का निर्धारण किया और सत्यकाम- पत्नी ने शिष्य के प्रति कर्तव्यबोध का पाठ पढ़ाया। उमा हैमवती, मैत्रेयी तथा गार्गी ने आध्यात्मिक पक्ष पर विवेचना की।

             मंत्रों में अल्पाल्प शब्दों का प्रयोग होता है, जिनमें अर्थ व्यापक रूप से समाहित होता है। वेदों की भाषा आधुनिक संस्कृत से भिन्न अर्थात् दुरूह है; किन्तु प्रज्ञा, मति, धृति से सम्पन्न प्रो. इला घोष ने ऋषिकाओं के मंत्रों का क्षीरमंथन कर गूढ़ गहन अर्थ रूपी नवनीत प्रस्तुत किया है। उन्होंने वैदिक साहित्य में प्राप्त मात्र आधी या एक ऋचा से ही एक परिदृश्य उपस्थित किया, संपूर्ण कथानक का आधान किया, भाव-संवेगों की सृष्टि की, एक फलितार्थ की संकल्पना की एवं क्रमशः संस्कृति के विविध आयामों के स्थापन तथा उन्नयन का कारकत्व सिद्ध किया है। यह एक प्रबुद्ध मस्तिष्क की उर्वरा-शक्ति का ही प्रतिफलन है।

             विद्याव्यसनी, अध्यवसायी डॉ. इला घोष अपने बहुमूल्य समयचक्र से जिज्ञासुओं के लिए अवश्य यथा-तथा समय निकाल लेती हैं। जैसे एक ‘क्लिक’ से अन्तर्जाल पर ‘सर्च’ करते ही अनेक सूचनाओं के भण्डारागार में अभीप्सित पृष्ठ तक पहुँचा जा सकता है, वैसे ही ‘स्पीड डायल’ के एक अंक से डॉ. इला घोष से नई शंकाओं के समाधान, नए प्रश्नों के उत्तर और नए विषयों पर निर्देशन पाए जा सकते हैं। ‘तत्काल’ की यह सुविधा सर्वसुलभ है। मैं विराट् से इला जी की सुदीर्घ सारस्वत साधना के लिए प्रार्थना करती हूँ।
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"व्‍यक्तित्व विकास में वैदिक वाङ्मय का योगदान" मौलिक  शोध कृति 
आचार्य कृष्‍णकान्‍त चतुर्वेदी
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[कृति विवरण - व्‍यक्तित्व विकास में वैदिक वाङ्मय का योगदान, डॉ. इला घोष प्रथम संस्‍करण २०१५, आईएसबीएन ९७९-७८५४-२८३-६ , पृष्‍ठ सं. २२०,  मूल्‍य ₹६५०, ईस्‍टर्न बुल लिंकर्स-दिल्‍ली। ] 

लेखक-आचार्य कृष्‍णकान्‍त चतुर्वेदी, पूर्व आचार्य एवं अध्‍यक्ष-संस्‍कृत पालि प्राकृत विभाग, रानी दुर्गावती विश्‍वविद्यालय, गुरु- राजशेखर सृजन पीठ म.प्र. शासन संस्‍कृति विभाग, पूर्व निदेशक- कालिदास अकादमी उज्‍जैन, महामहिम राष्‍ट्रपति द्वारा सम्‍मान प्राप्‍त संस्‍कृत विद्वान।
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             “व्यक्तित्व विकास में वैदिक वाङ्मय का योगदान” कृति की लेखिका श्रीमती इला घोष अपने विमर्शात्मक शोध लेखन के लिये सुख्यात हैं। प्रस्तुत ग्रंथ उनके इस वैशिष्ट्य को और अच्छे ढंग से प्रमाणित करता है।व्यक्तित्व के विकास का महत्त्व, जाने या अनजाने, प्राचीनतम मानव सभ्यता से सर्वत्र ही रहा है। मनुष्य के विकास के जितने सोपान; उसने काल के पादक्षेपों के साथ पूरे किये; वे व्यक्तित्व विकास की प्रयोगशाला के असंख्य उदाहरण हैं। भारतीय सभ्यता और संस्कृति के तथा अन्य संस्कृतियों के ज्ञात सन्दर्भों में वैदिक वाङ्मय सर्वाधिक प्राचीन एवं अपनी संरक्षण प्रविधि के कारण अत्यन्त विश्वसनीय है। वैदिक वाङ्मय विशेष रूप से ऋग्वेद और अथर्ववेद में उपलब्ध सामग्री उसके बाद उपनिषद् वाङ्मय आदि सब मिलाकर विपुल साहित्य है, जो मानव जीवन के सभी पक्षों पर आवश्यक जानकारी देते हैं। प्रस्तुत ग्रंथ में एक समग्र दृष्टि से वैदिक वाङ्मय के प्रायः वे सभी सूत्र एवं तत्त्व संग्रहीत हैं जो, कदाचित् अभी तक अनुपलब्ध थे। विदुषी लेखिका ने ‘व्यक्तित्व’ के विभिन्न आयामों पर आधुनिकतम सामग्री के परिप्रेक्ष्य में अपने विचार तर्कसंगत एवं प्रामाणिक रूप से रखे हैं।

             आधुनिक सन्दर्भ में वैदिक वाङ्मय का प्रतिपादन, उसमें से सफल व्यक्तित्व के सूत्रों को सरल एवं सारगर्भित रूप में दे पाना इस कृति की विशिष्ट उपलब्धि है। तैत्तिरीयोपनिषद् के एक ही मंत्र में उन समस्त गुणों का उल्लेख है, जो व्यक्तित्व विकास के आधार हैं- सज्जनता, सदाचारिता, अध्ययनशीलता, आशावादिता, दृढ़संकल्पशक्तिमत्ता, ब्रह्मचर्य, तप आदि। वर्तमान युग, नवोदित पीढ़ी के लिये बहुविध कठिन संघर्ष से जूझने की अनिवार्यता लेकर आया है। एक ओर जहाँ कैरियर बनाने के लिये भीषण प्रतिस्पर्धा है वहीं दूसरी ओर समाज की नजरों में खरा उतरना भी आवश्यक है। इन कारणों से व्यक्तित्व विकास पर ध्यान जाना बहुत स्वाभाविक है।

             डॉ. इला घोष की पुस्तक भारतीय पीठिका के आधार पर गम्भीर मनन और चिन्तन का अवसर प्रदान करती है। वे एक सिद्ध-हस्त संशोधिका एवं लेखिका हैं, यह तथ्य इस पुस्तक में पदे-पदे अनुभूत होता है। मैं इसके लिये उन्हें साधुवाद देना चाहता हूँ, साथ ही यह अपेक्षा भी करता हूँ कि वे अपनी समृद्ध पारम्परिक ज्ञान की पीठिका पर और भी कुछ इसी तरह का दान देती रहें।
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सहेजनेयोग्य कृति ''तमसा तीरे" 
प्रो. त्रिभुवननाथ शुक्ल
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[कृति विवरण- तमसा-तीरे (कविता-संग्रह) डॉ. इला घोष, आईएसबीएन ९७८-८१-९०४९९९-२९- ६,प्रथम संस्‍करण २०१५, पृष्‍ठ सं. ८२,  मूल्‍य ₹  १५०, सन्‍दर्भ प्रकाशन, भोपाल।] 

लेखक- प्रो. त्रिभुवननाथ शुक्ल, पूर्व आचार्य एवं अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, जबलपुर, पूर्व निदेशक- म.प्र. हिन्‍दी साहित्य अकादेमी, भोपाल। 
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             जयशंकर प्रसाद जी ने लिखा है- ‘कविता करना अनंत पुण्यों का फल है। इसे मैं पढ़ता तो आया था, परंतु कभी रुककर इस पर विचार नहीं कर पाया था।  अभी-अभी जब मुझे डॉ. इला घोष का काव्य-संग्रह “तमसा-तीरे” पढ़ने को मिला; तब मैं इसका फलितार्थ जान सका। प्रो. घोष संस्कृत साहित्य की ख्यातिलब्ध विदुषी हैं। संस्कृत साहित्य को उन्होंने अनेक ग्रंथ-रत्न दिए हैं। विशेषतः वैदिक साहित्य पर उनका चिंतन बहुत सहेज कर रखने लायक है। ६५ वर्ष में सेवा निवृत्ति के बाद उन्होंने “तमसा-तीरे” लिखकर प्रसाद के कथन को चरितार्थ किया है। पहली रचना से लेकर अंतिम रचना तक उनकी काव्य यात्रा के सभी पड़ाव भारतीय मनुष्य की संवेदनाओं का संस्पर्श करते हुए चलते हैं। इनमें भारत भूमि की सुगंध और संस्कृति के इन्द्रधनुषी रंग निहित है। प्रकृति के जीवन्‍त चित्र इस संग्रह की विशेषता हैं, जैसे कि ‘दिन ढले’ शीर्षक कविता के कुछ अंश-

प्रतीची के गालों पर उछाह की लाली छाई
झीने लाल घूँघट में वह हौले से मुस्काई।
गहन हुई नीलिमा प्राची के मुख पर
चमके कुछ अश्रुकण नभ में तारे बनकर।

             संग्रह की सभी कविताएँ समय, समाज और देश की चिंता से गर्भित हैं। कविताओं कायही मर्म पाठकों को एक नया स्वाद दे पाता है। कुछ कविताएँ तो ऐसी बन पड़ी हैं, जिन्हें बार-बार पढ़ने का मन करता है। ये कविताएँ हैं- ‘प्रश्न तुम पूछो नचिकेता’; ‘दिन ढले’; ‘जीतो उस पशु को पहले’; ‘गाँव बन रहा शहर’; ‘फिर भी जीवन सुंदर हैं, मैं बीज एक नन्हा सा;और ‘तमसा तीरे’। अब मैं इन कविताओं में निहित जीवन दृष्टि पर कुछ कहना चाहूँगा। दो उदाहरण दूँगा-

‘कविता ! तुम नहीं, कामिनी केवल,
नीलकंठ विषपायी का
तुम अमृतमय गरल हो।’

             जीवन के संबंध में लेखिका के विचार द्रष्टव्य है-

वह रणवाद्य भेरी, तो वंशी की तान है
वह क्षणभंगुर नश्वर, तो अमृत की संतान है।

             कितना विरोधाभासी, फिर भी......... जीवन सुन्दर है।

             इसमें वक्रता है, जो कविता को ताकत देती है। ‘तमसा-तीरे’ में साहित्य और साहित्यकार की लोक हितकारी भूमिका को रेखांकित करते हुए कहा गया है-

तमसा तीरे जब-जब, निरीह क्रौञ्च मारा जाता है
कोई न कोई वाल्मीकि, रामायण अमर रच जाता है।

             ऐसी अनेक कविताएँ संग्रह में गुंफित हैं। डॉ. घोष का यह लेखन गतिमान रहे, ऐसी मेरी प्रभु से प्रार्थना है।
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महीयसी: एक विचारोत्तेजक कृति
डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’
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[कृति विवरण- महीयसी, (खण्‍डकाव्‍य), डॉ. इला घोष, प्रथम संस्‍करण २०१५, पृष्‍ठ सं. ५८, मूल्‍य ₹ १५०,  प्रकाशक- डॉ. इला घोष] 

लेखक- डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’, प्रसिद्ध साहित्‍यकार, संस्थापक-निदेशक, पाथेय साहित्य कला अकादमी, जबलपुर। 
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             ‘महीयसी’; हिन्दी, संस्कृत, बांग्ला भाषा एवं साहित्य की मर्मज्ञ, विदुषी लेखिका एवंकवयित्री डॉ. इला घोष का नवदृष्टि संपन्न विचारोत्तेजक खण्डकाव्य है, जिसे पाँच भागों में संयोजित किया गया है। प्रथम भाग ‘अधिकारिणी’ में देवगुरु बृहस्पति की पुत्री ‘रोमशा’ की व्यथा-कथा हैं। भेड़ों के शिशुओं के साथ खेलनेवाली रोमशा जब यौवनवती हुई -

यौवन में सौंपा जनक ने सिन्धुराज को कन्या का हाथ।

             ऋषि के प्रति राजा का श्रद्धाभाव था, इसलिये उन्होंने विवाह आदेश विधिपूर्वक शिरोधार्य कर लिया;
किन्तु पत्नी होकर भी रोमशा, बन न सकी सहधर्मिणी। अपमान और पीड़ा से व्यथित रोमशा ने इसके विरुद्ध आवाज़ उठाई-  बोलीं पति से निर्भय स्वर में 

‘समझें न उपेक्षायोग्य हेय/ परिणीता का अधिकार देय।’

             एक अबला के साहस पर सब अचम्भित थे। परिणति यह हुई कि उन्होंने सिन्धुराज का हृदय एवं पत्नी का अधिकार पाया। कवयित्री का कथन है -

रोमशा का यह आत्मकथ्य, नारी-अस्मिता का प्रथम स्वर।

             कृति के दूसरे भाग मानिनी में लोपामुद्रा और ऋषि अगस्‍त्‍य का आख्यान है। कथाक्रम सीधा सपाट दिखता है; किन्तु है उलझन भरा। विदर्भराज की सुकन्या लोपामुद्रा राजदुलारी। सपनों में बसी राजतनय की प्रतिमा। किसी प्रसंग में ऋषि अगस्त्य पहुँचे राजदरबार। लोपा पर मुग्ध ऋषि राजा से माँग बैठे लोपा को। विदर्भराज ने प्राजापत्य विधि से कन्या ऋषि को सौंप दी। झर-झर अश्रुपात करती लोपा प्रश्नाकुल थी। मौन को हीस्वीकृति मान लिया और गर्भधारिणी माँ कैसे दे बैठी सहमति? निदान, पहुँची शिविका ऋषि आश्रम में। लोपा ने वल्कल वस्त्र धारण किये।

बीतता रहा समय ऐसे ही, दिन-मास-ऋतु-संवत्सर,
पा सकीं न लोपा पति-संसर्ग, पुत्रवती माता का गौरव।

             महर्षि रहे तपोलीन। लोपा का कोमल मन मुरझाता गया। अंत में काम को पुरुषार्थ जान, ऋत का ज्ञान प्राप्त कर ऋषि‍ लौटे, तब उनके मन में उठी ‘समागम’ की इच्छा किन्तु लोपा के मन में कोई हिलोर नहीं उठी। फूट पड़ी पीड़ा-

पति-सेवा में ही लगी रही, गला देहश्री नवयौवन,
अब भोगे रतिसुख को वृद्धा, पाये कैसे वह तन-मन।

             तृतीय खण्‍ड विजयिनी में पार्वती की गाथा है। एक मिथ्या अभिमान था पार्वती के मन में कि वह जीत लेगी शिव को रूप से। नारद ऋषि ने कहा भी था - बनेगी शिवपत्नी निश्चय ही। पिता हिमालय की अनुमति से उस तपोयोगी, भावी पति की सेवा में निरत हुई पार्वती-

बस इसी प्रतीक्षा के साथ, कब प्रेम दृष्टि डालेंगे नाथ?

             इधर असुर तारक से पीड़ित देवगण इन्द्रलोक से जा पहुँचे ब्रह्म-सदन। स्तुति की ब्रह्मा की पाने अभय-शत्रुजय वर। उपाय निकला - ऊर्ध्‍वरेता शिव के रेतस् से जन्मे कुमार कार्तिकेय ही कर सकते हैं असुर संहार किन्तु यह संभव कैसे हो? तरंगित लावण्यसरित्-सी गौरी को देखकर कामदेव आश्वस्त हुए। जैसे ही शिव की समाधि टूटी, मदन ने शरसंधान किया। योगी क्षण को हुए विचलित। कारण खोजा हर ने। भभक उठा कालभैरव का तृतीय नेत्र। और भस्म कर डाला कामदेव को।
देख भस्मावशेष मन्मथ को, शैलतनया लौटी घर को।

उनकी आकुलता प्रकटी -

मैं ही हूँ विनाश का कारण, रति के वैधव्य का माध्यम।

अन्ततोगत्वा बाँध वल्कल कोमल तन पर तपस्विनी बनी पार्वती। ग्रीष्म में पंचाग्निसाधना। वर्षा में नभतले शयन। शीत में आकंठ जल में निमग्न। शिव के अशुभ रूप की चर्चा भला पार्वती को क्यों भाती ? वे बोलीं -

वे जैसे भी हैं, प्रेय हैं मेरे।

शंकर से साक्षात् की परिणति यों हुई -

बोले ईश ही विनत भाव से, विजयिनी तुम आत्मा के बल से।

             काव्यकृति का विशिष्ट भाग है - ‘अभिमानिनी’ यानी शकुन्तला का आख्‍यान। डॉ. इला घोष ने शकुन्तला की अंतःपीड़ा को गहराई से शब्दांकित किया है। अनदेखे पिता के प्रति पुत्री का मार्मिक निवेदन, पत्र के रूप में। शिकायत का स्वर अभरता है -

देख न पाई जी भर, अपने ही जनक को।

पीड़ा ‘वाणवती’ भी हो जाती है -

हे ब्रह्मर्षि, वासना की लहरों पर हो विजयी,
"विश्व-मित्र" बनने का क्या यही था उपाय ?

लाकर इस धरा पर, सौंप दिया मृत्यु को
पाप का पूर्ण भार, दे कर एक स्त्री को।

             शकुन्तला के भावोद्गार सरित् प्रवाह से -

क्या कन्याजन्म इतना ही अधम ?

             शकुन्तला ऋणी है उन पक्षियों की, जिन्होंने बचाया जीवन, शकुनों ने पक्षी होकर भी निभाया मानवधर्म। कवयित्री ने पितृप्रेम-वंचिता शकुन्तला के रिसते घाव दयाभाव के लिये नहीं अपितु नवीन चेतना के अंकुरण के लिये प्रदर्शित किये हैं।

             पंचम खण्‍ड अनुरागिणी में उदयन और वासवदत्ता की सुज्ञात बहुप्रचारित कथा का अंकन इला जी ने विशिष्ट कोण से किया है। महाकाल की नगरी उज्जयिनी के राजा महासेन चण्डप्रद्योत। वत्सदेश के नरेश उदयन - घोषवती वीणा के अद्भुत वादक। प्रद्योत तनया वासवदत्ता का उदयन से प्रेम विवाह, शत्रु से आक्रान्‍त वत्‍स देश को पुन: प्राप्‍त करने हेतु, मगधराज दर्शक की सहायता पाने के लिये वासवदत्ता का; स्‍वयं को अग्निदाह में मृत घोषित कर राजकुमारी पद्मावती से उदयन का विवाह करवाना....। कवयित्री ने उचित ही कहा है -

त्याग वह कितना बड़ा, आत्मदान महान।
आँक सका न जगत्, अनुरागिणी का बलिदान।

नारी जागरण और नारी सशक्तीकरण के युग में भी अभी नारी जगत् पूर्णरूपेण चैतन्य नहीं है। पुरानी कथाओं को नये संदर्भों से जोड़कर नवीन वैचारिक चेतना ग्रहण कर सकता है।
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नवीनतम काव्‍य-प्रयोग "महीयसी की महिमा"
डॉ. कृष्‍णकान्‍त चतुर्वेदी
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लेखक - डॉ. कृष्‍णकान्‍त चतुर्वेदी राष्‍ट्रपति सम्‍मान से सम्‍मानित, संस्‍कृत के प्रख्‍यात विद्वान, पूर्व निदेशक- कालिदास अकादमी उज्‍जैन, गुरु- राजशेखर सृजनपीठ म.प्र. शासन संस्‍कृति विभाग। 
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             श्रीमती डॉ. इला घोष का काव्‍यसंग्रह ‘महीयसी’ मेरे सम्‍मुख है। इस काव्‍यसंग्रह में भारतीय परम्‍परा की पाँच लम्‍बी कविताएँ हैं। श्रीमती डॉ. इला घोष संस्‍कृतजगत् में एक विदुषी संशोधिका के रूप में तो प्रसिद्ध हैं ही; परन्‍तु काव्‍य-सृजन एवं सहित्यिक गतिविधियों में भी समादृत हैं। उनके अध्‍ययन के व्‍यापक क्षेत्र में वैदिक वाङ्मय महत्त्वपूर्ण स्‍थान रखता है। संस्‍कृत साहित्‍य की गहरी अनुभूति और उसके विभिन्‍न साहित्यिक एवं कलापरक पक्षों में भी उनका गहरा अनुभव विद्यमान है, जिसके प्रमाण-स्‍वरूप अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्‍थ प्रकाशित हो चुके हैं। ‘महीयसी’ उनका नवीनतम काव्‍य-प्रयोग है, जिसे पाँच भागों में विभाजित किया गया है। जिनमें ‘अधिकारिणी’ रोमशा, ‘मानि‍नी’ लोपामु्द्रा, ‘विजयिनी’ पार्वती, ‘अभिमानिनी’ शकुन्‍तला और ‘अनुरागिणी’ वासवदत्ता के व्‍यक्तित्व मुख्‍य रूप से प्रतिष्ठित हैं। 

             ये पाँच स्‍त्री मनोभावों की ओर संकेत करती हैं जिनका चित्रण बहुत गम्‍भीरता से हुआ है। उनकी पीड़ा को प्रस्‍तुत करने वाले काव्‍य- प्रतिमान एवं काव्‍य पीठिका दोनों ही काव्‍य–सौन्‍दर्य से ओत:प्रोत है। कविता में एक विशेष प्रकार का लय और मार्दव है। मुख्‍य कथ्‍य के आने के पूर्व एक कोमल, कारुणिकप्रभावी राजपथ निर्मित  कर दिया गया है, जिसके माध्‍यम से कविता के अन्‍तस्‍तल पर सहज ही पहुँचा जा सकता है।
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संस्‍कृतवाङ्मये कृषिविज्ञानम्
डॉ. विनय कुमार प्‍यासी
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[कृति विवरण - संस्‍कृतवाङ्मये कृषिविज्ञानम्, डॉ. इला घोष, आईएसबीएन ९७८-८१-७८५४-३२५०३, प्रथम संस्‍करण-२०१७, पृष्‍ठ सं. ३१२, मूल्‍य ₹ ९५०, प्रकाशक-ईस्‍टर्न बुक लिंकर्स, दिल्‍ली]

लेखक- डॉ. विनय कुमार प्‍यासी, पूर्व छात्र-कल्‍याण अधिष्‍ठाता-ज.ने.कृ. विश्‍वविद्यालय जबलपुर। 
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डॉ. इला घोष की पुस्‍तक "संस्‍कृतवाङ्मये कृषि विज्ञानम्" संस्‍कृत भाषा में लिखी गई है। जैसा कि इसके नाम से ही स्‍पष्‍ट हो रहा है कि इसमें ऋषि-मुनियों के चिन्‍तन और प्राचीन भारत में प्रचलित कृषि की समृद्ध तथा लाभदायी पद्धतियों का शोधात्‍मक संचयन किया गया है। मैं अपने विद्यार्थी जीवन से सुनता आ रहा था कि हमारे देश के ऋषि-मुनियों ने संस्‍कृत भाषा में ऐसे बहुत से ग्रन्‍थों की रचना की है, जिनमें कृषि से सम्‍बन्धित उन्‍नत तकनीकि के उपयोग का उल्‍लेख मिलता है। उस युग में कृषि को अर्थ व्‍यवस्‍था की रीढ़ माना जाता था। आज भी कृषि सर्वाधिक उपयोगी और हितकारी उद्योग है। पुरातन कृषि से सम्‍बन्धित जानकारी को लेखिका ने सूक्ष्‍म से सूक्ष्‍म बिन्‍दुओं को ध्‍यान में रखते हुये व्‍यवस्थित ढंग से समाहित किया है। यह श्रमसाध्‍य अनुसन्‍धान बड़ा ही सार्थक और प्रशंसनीय है। जैसा कि हम देख रहे हैं कि भारत में प्रति दिन जनसंख्‍या दर बढ़ती जा रही है। ऐसे में आवश्‍यक हो जाता है कि कृषि का उत्‍पादन भी तीव्र गति से बढ़ाया जाये।

             हमारे प्रबुद्ध कृषि वैज्ञानिकों ने बहुत हद तक इसमें सफलता भी पाई है। हरित, श्‍वेत, पीत क्रान्तियाँ इसका एक अच्‍छा उदाहरण हैं परन्‍तु आज कृषि के लिये सर्वाधिक आवश्‍यक है उत्‍पादन वृद्धि के साथ-साथ अनाज फल दूध आदि में उसकी नैसर्गिक गुणवत्ता और सुगन्‍ध दोनों को ही सुरक्षित रखना। कृषि वैज्ञानिक इस दिशा में आज भी नये नये शोधों के द्वारा प्रयास कर रहे हैं कि खाद्यान्‍न किसी भी प्रकार से रोग संक्रमित न हो साथ ही उसमें पौष्टिक तत्त्वों की भी कमी न हो। ऐसी परिस्थिति में आवश्‍यक हो जाता है कि हमारी परम्‍परागतखेती की विधियों का सूक्ष्‍मता से अध्‍ययन किया जाये। इलाजी की यह पुस्‍तक इस दिशा में बहुत ही उपयोगी है। अधिक पैदावार के लिये जहाँ उर्वरभूमि की आवश्‍यकता होती है वहीं, बीज का स्‍वस्‍थ होना भी उतना ही आवश्‍यक है। बीज रोगमुक्‍त रहे और निष्क्रिय न हो इसके लिये शास्‍त्रों में बताया गया है कि उस युग में स्‍वर्ण मिश्रित जल से बीजों का उपचार किया जाता था। ऐसे में बीज तो स्‍वस्‍थ रहता ही था साथ ही भूमि की उर्वरा शक्ति को भी नष्‍ट नहीं होने देता था। 
             
             आज की सबसे भयावह समस्‍या है अनाज-फल-शाक आदि का कीटनाशक रसायनों से युक्‍त होना। ऐसे में भूमि की उर्वरा शक्ति तो कम होती ही जा रही है; साथ ही मनुष्‍यों के स्‍वास्‍थ्‍य पर भी धीरे धीरे हानिकारक प्रभाव पड़ता जा रहा है। पशु पक्षी भी इससे अछूते नहीं है। रोगनाशन की प्राचीन तकनीकियों की सहायता से कोई सस्‍ती, उपयोगी और टिकाऊ तकनीकि तैयार की जाये तो बहुत लाभ हो सकता है। फसलचक्र कृषि का महत्त्वपूर्ण पहलू है। हमारी प्राचीनतम परम्‍परा को आज पूर्णत: वैज्ञानिक माना जा रहा है। ऋतुओं के अनुसार फसल चक्र को अपनाना कृषि का कुशल प्रबन्‍धन भी है। भारत जैसे कृषि प्रधान देश में कृषि एक विस्‍तृत आयामों वाला उद्योग है। सभी छोटे-छोटे उद्योग भी इसी पर आधारित हैं। इस दृष्टि से देखें तो पुस्‍तक बड़ी उपयोगी है;क्‍योंकि इसमें बखूबी बताया गया है कि जहाँ पशुधन कृषि के लिये एक महत्त्वपूर्ण संसाधन है वहीं उद्यानिकी तथा वानिकी भी कृषि के महत्त्वपूर्ण अंग है। इन्‍हीं से कृषि की पूर्णता है। वर्तमान में कृषि के साथ साथ उद्यानिकी-वानिकी एवं पशुचिकित्‍सा की भी उच्‍चतर शिक्षा स्‍वतन्‍त्र रूप से दी जा रही है। अर्थात् ये सभी क्षेत्र कृषि से जुड़े हुये भी हैं पर स्‍व विस्‍तार के कारण स्‍वतन्‍त्र भी है।

             जल तो कृषि क्‍या सभी का जीवन है। इस दृष्टि से भी पुस्‍तक में मूल्‍यवान जानकारियाँ दी गई हैं। जल दूषित न हो, दूषित जल को प्राकृतिक ढंग से कैसे शुद्ध करें, जल का संरक्षण और संवर्धन कैसे किया जाये इन सभी समस्‍याओं के लिये पारम्‍परिक निदानों और उपायों के प्रति लोगों में जागरूकता बढ़ाने की महती आवश्‍यकता है। औद्योगिक क्र‍ान्ति की इस सदी में कृषि आधारित उद्योगों को केवल जीविकोपार्जन के लिये ही नहीं अपितु लाभ के धन्‍धे के रूप में देखा जा रहा है। लेखिका ने कृषि आधारित प्राचीन उद्योगों की जो सूची तैयार की है वो इस दृष्टि से बड़ी ही लाभदायी है। कृषि के स्‍वरूप, विकास, परिभाषा से लेकर कृषि प्रबन्‍धन तक के समस्‍त विषयों को बारह अध्‍यायों में विभाजित करने के क्रम में भी लेखिका का एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण स्‍पष्‍ट दिख रहा है।

             संस्‍कृत ग्रन्‍थों में पाई जाने वाली कृषि सम्‍बन्‍धी सामग्री को एक स्‍थान पर एक‍त्र करने में लेखिका के द्वारा किया गया अनुसन्‍धानात्‍मक श्रम कृषि प्रधान देश के हर प्रान्‍त के लिये बहुत ही उपयोगी है। इस पुस्‍तक का अंग्रेजी एवं हिन्‍दी में भी अनुवाद उपलब्‍ध हो जाये तो आने वाली कृषक पीढ़ि‍यों एवं कृषि छात्रों के लिये बहुत उपयोगी रहेगा। डॉ. घोष के अन्‍वेषण सामर्थ्‍य को मैं और श्रीमती माला प्‍यासी बधाई देते हैं और आगे भी उनके अनुसन्‍धान पक्ष की निरन्‍तर उद्भावना की मंगल कामना करते हैं।
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साहित्यवधू-काव्‍यपुरुषीयम् मिथक की साहित्यिक प्रस्तुति
प्रो. कमलनयन शुक्ल 
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[कृति विवरण-  साहित्यवधू-काव्‍यपुरुषीयम्, हिन्‍दी-संस्‍कृत नाट्य, डॉ. इला घोष,   प्रथम संस्‍करण-२०१८, पृ.५८, मूल्‍य ₹ १००, प्रकाशक-डॉ. इला घोष, जबलपुर। ]
 लेखक- प्रो. कमलनयन शुक्ल, आचार्य एवं अध्यक्ष/संस्कृत, पालि एवं प्राकृत विभाग, रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, जबलपुर। 
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             संस्कृत साहित्य में कविराज राजशेखर उभयविध प्रतिभा के प्रशस्त आचार्य थे। राजशेखर के पूर्व साहित्य एवं काव्य को लेकर आचार्यों की द्विविध परम्पराएँ प्रचलित थीं। प्रथम, जो साहित्य एवं काव्य में अन्तर मान्य करती थी एवं द्वितीय जो काव्य और साहित्य को एक मानती थी। आचार्य राजशेखर ने काव्यमीमांसा के तृतीय अध्याय में काव्यपुरुष एवं साहित्यविद्या वधू की मिथकीय उत्पत्ति दिखलाते हुए उन दोनों के अलौकिक गान्धर्व विवाह द्वारा उनका एकीकरण कर दिया। राजशेखर के इस कथानक में साहित्यिक भावनाओं की प्रभूत विषयवस्तु समाहित है; किन्तु दुर्भाग्य से परवर्ती किसी भी कवि ने इसको लेकर किसी प्रकार की काव्यरचना नहीं की। सौभाग्य से इस कथानक के साहित्यिक महत्त्व को रेखांकित करते हुये डॉ. श्रीमती इला घोष ने ‘साहित्यवधूकाव्यपुरुषीयम्’ नामक इस लघुकृति में; इसका नाट्यरूपान्तरण हिन्दी और संस्कृत दोनों भाषाओं में प्रस्तुत करने का श्लाघनीय प्रयास किया। उनका यह सारस्वत प्रयास राजशेखर की कभी कर्मभूमि रही संस्कारधानी जबलपुर के वासियों के लिए गौरवपूर्ण है।

             चार अंकों के इस नाट्य का प्रारम्भ आद्यशक्ति वाणी की अधिष्ठात्री देवी वीणापाणि सरस्वती की वन्दना से किया गया है। अन्त में भरतवाक्य द्वारा ब्रह्मा से प्रार्थना की गई है कि साहित्यवधू एवं काव्यपुरुष की यह पवित्र परिणयकथा जगत् को शब्दमय ज्योति से आलोकित करते हुए; कवित्व-बीज को अंकुरित करे। इस नाट्यकृति में प्रायः यायावरीय संस्कृत पद्यों का हिन्दी में पद्यात्मक अनुवाद किया गया है। कथावस्तु को सरस सहज एवं लोकानुरंजक बनाने के लिए कई मौलिक पद्यों की सर्जना भी की गई है। कथानक को जिस प्रकार से दृश्यों के माध्यम से संघटित किया गया है, वह अत्यन्त स्वाभाविक, व्यवस्थित एवं मनोरम है। परिनिष्ठित पदों के चयन से भाषा सर्वत्र सरल, सहज, प्रवाहपूर्ण एवं भावों को अभिव्यक्त करने में समर्थ है। यह श्रेष्‍ठ साहित्यिक प्रसाद लेखिका की दीर्घकालीन पुंजीभूत, तपः पूत सारस्वत साधना एवं उनकी कारयित्री प्रतिभा का सुपरिणाम है।

‘साहित्यवधूकाव्यपुरुषीयम्’ रस और कला का समन्वय
डॉ. राजकुमार ‘सुमित्र’
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             साहित्यवधूकाव्यपुरुषीयम्’ नाटिका में संस्कृत भाषा और साहित्य की मर्मज्ञा शिक्षाविद् विदुषी श्रीमती डॉ. इला घोष ने महाकवि आचार्य राजशेखर के ग्रन्थ ‘काव्यमीमांसा’ का आधार लेकर नवीन उद्भावनाएँ प्रस्तुत की हैं। विशेष यह कि इन्होंने ब्रह्मा और सरस्वती से संदर्भित प्रवादों की छाया भी नहीं पड़ने दी।

             सरस्वती कठोर तप कर ब्रह्मा से वरदान प्राप्त करती हैं। उन्हें पुत्ररूप में सारस्वत की प्राप्ति होती है। अपने साथ ब्रह्मलोक न ले जाने पर सारस्वत माँ सरस्वती से रुष्ट होकर निरुद्देश्य यात्रा पर निकल पड़ता है। देवी गौरी के निर्देश पर काव्यविद्या स्‍नातक सारस्वत की खोज में निकलते हैं। प्रेमभावना के वशीभूत औमेयी भी यात्रा पर निकल पड़ती है। औमेयी सारस्वत को खोजने और उसे आकर्षित करने में सफल रहती है। वे दोनों गान्धर्व विवाह कर लेते हैं। चार अंकों की इस नाटिका की भाषा कवित्वपूर्ण और प्रांजल हैं। कथोपकथन सुगठित हैं। काव्यपुरुष का अनुगमन करते हुए स्‍नातकों और औमेयी के विभिन्न प्रदेशों के भ्रमण में
वहाँ के नर-नारियों के रूपरंग, वस्त्रविन्यास वाग्‍व्‍यवहार आदि का परिचय प्राप्त होता है।

             कवयित्री ने नाट्यशास्त्र में वर्णित रीति, वृत्ति, प्रवृत्ति आदि तत्त्वों को सरलता के साथ संवादों में पिरो दिया है। दो सूक्तियाँ विशेष आकर्षित करती हैं -
१. सृष्टि के कण-कण के प्रति तरल संवेदना ही साहित्य का बीज है।
२. कविगण नश्वर देह नष्ट हो जाने पर अपने यशः शरीर से मर्त्यलोक में तथा दिव्य शरीर से कविलोक में निवास करेंगे। 

             विश्वास है कि डॉ. इला घोष की इस कृति से हिन्दी साहित्य भण्डार की श्रीवृद्धि होगी। सुधीजन तो इसे समादृत करेंगे ही। बधाई। शुभकामना। आशीष ।
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करुणा की स्रोतस्विनी हुये अवतरित क्यों राम ?
राधावल्‍लभ त्रिपाठी
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[कृति विवरण- हुये अवतरित क्यों राम ? (खण्‍डकाव्‍य), डॉ. इला घोष, आईएसबीएन ९७८-९३ -८०७७१-५९-५, प्रथम संस्‍करण २०१९, पृष्‍ठ ८०, मूल्‍य ₹ १६०, आकृति प्रकाशन, दिल्‍ली।] 

लेखक- राधावल्‍लभ त्रिपाठी राष्‍ट्रपति सम्‍मान से सम्‍मानित राष्‍ट्रीय एवं अन्‍तर्राष्‍ट्रीय ख्‍याति प्राप्‍त संस्‍कृत के प्रख्‍यात विद्वान, कवि, समीक्षक, नाट्यकार। 
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             रामकथा करुणा की स्रोतस्विनी है। इस करुणा में मनुष्‍य जीवन के अटूट संघर्ष और संकट के क्षणों की अनुभूतियाँ अन्‍तर्निहित हैं। मनुष्‍य अपने जीवन के घात-प्रतिघात, नियति के थपेड़ों और दूसरों के द्वारा किए जाने वाले उत्‍पीड़न से किस प्रकार जूझता और अन्त में अपने संघर्ष के द्वारा उबरता है, यह कवि की सच्‍ची मानवीय संवेदना के साथ राम की जीवनयात्रा में हम अनुभव करते हैं। रामकथा के विविध प्रसंगों में शोक, चिन्‍ता, अवसाद के भाव करुणा के महासागर पर उर्मियों की भाँति उठते गिरते हैं। प्रतिनायक रावण की मृत्‍यु भी इस काव्‍य में करुणा का उद्रेक ही कराती है। सीता का राम से पुनर्मिलन का जैसा दारुण और हृदय‍द्रावक प्रसंग तो हमारे साहित्‍य में अन्‍यत्र कदाचित् नहीं मिलेगा। 

             प्रस्‍तुत काव्‍य में कवि इला घोष ने राम की जीवनयात्रा के विविध पड़ावों का निरूपण करते हुए रामकथा के कारुण्‍यभाव की रक्षा की है। उन्‍होंने स्‍वयं राम को सम्‍बोधित करते हुए; राम के चरित को आदर्शप्रवण और संवेदनशील दृष्टि के द्वारा प्रस्‍तुत किया है। आरम्‍भ में ही काव्‍य के उपक्रम, उपसंहार, उद्देश्‍य तथा विषय, सम्‍बन्‍ध और प्रयोजन को स्‍पष्‍ट करते हुए कहा गया है-

राम ! हुए अव‍तरित क्‍यों, धरती का बोझ उठाने ?
परदु:खनाशनयज्ञ में आहुति स्‍वंय की देने। (१)

             इस काव्‍य में रामकथा के जिन करुणापूर्ण प्रसंगों का मर्मस्‍पर्शी उद्घात हुआ है, उनमें रामवनगमन, दशरथ का मरण, जटायु का आत्‍मोसर्ग तथा राम और सीता के पुनर्मिलन के प्रसंग विशेष उल्‍लेख्‍य हैं। कवि ने इसके निरूपण में सांकेतिक, व्‍यंजनागर्भ समास शैली का अच्‍छा उपयोग किया है। राम अपनी माताओं का विधवा वेश देख ही अयोध्‍या में घटा दारुण वृत्तांत बूझ जाते हैं।

देख रानियों का विधवा वेश, ज्ञातव्‍य कुछ अन्‍य रहा न शेष।
चिर बिछोह पूज्‍य पिता से,कैसा असह्य जीवन में क्‍लेश। (२.२८)

             इसी प्रकार जटायु के निधन का प्रसंग करुणा की अमंद धारा को प्रवाहित करता है।

इतना कह कर वे पक्षिराज, हुए अंक में शांत तुम्‍हारे।
रोके थे तुमने जो सायास, अब बरस पडे़ वे अश्रु सारे।। (२.७५)

             रामकथा में सार्वाधिक करुणिक प्रसंग राम और सीता के परस्‍पर वियोग का है और यह वियोग भी इस कथा में दो बार घटित होता है। राम और सीता के पुनर्मिलन के जटिल संवेदनशाली प्रसंग को इला जी ने वाल्‍मीकि की दृष्टि से साहसिक रूप में समेटा है।

चाहा मन ने उड़कर जाऊँ, आसूँ पोंछू फिर मुस्‍काऊँ।
दूँ वेणी में वन पुष्‍प गूँथ, माथे पर पुन: मणि सजाऊँ । (५.५७)

             वस्‍तुत: सीता का परित्‍याग करके राम ने सीता को नहीं, अपने आप को दण्‍ड दिया था। राम सीता से अलग हैं ही नहीं, सीता की व्‍यथा उनकी व्‍यथा है। कवि ने इस अनुभव को सुन्‍दर रूप में यहाँ व्‍यक्‍त किया है।

विडम्‍बना यह तुम्‍हारी, बालसखी जो प्राणप्‍यारी।

मर्म पर उसके कर आघात, हुए तुम, स्‍वयं ही रक्‍ताक्‍त।। (५.६३)

             वाल्‍मीकिकृत आदिकाव्‍य रामायण में राम का चरित जितना महनीय है उससे अधिक सीता का चरित महनीय है। कवि इला घोष ने सीता-चरित्र के आधिभौतिक, आधिदैविक तथा आध्‍यात्मिक तीनों रूपों पर इस काव्‍य में प्रकाश डाला है। यथा-

नारी कन्‍या भगिनी गृहिणी, नारी माता वंशवाहिनी। 
मान-नेह-प्रेम अधिकारिणी, आद्या प्रकृति वह शिवा भवानी (३.४४)

             इसके साथ ही सीता के चरित्र को अपने समकाल में प्रतिष्ठित करते हुए कवि ने आज की स्‍त्री विमर्श के सन्‍दर्भ में उसकी प्रासंगिकता को रेखांकित किया है-

अपहरण नारी का छलबल से, नहीं किसी भी संस्‍कृति को मान्‍य।
न ही मानवता देती अनुमति, करने को बलात्‍कार अपमान । (३.४५)

             इस काव्‍य में राम के द्वारा विश्‍वामित्र के यज्ञानुष्‍ठान की रक्षा महाप्राण निराला की कालजयी कविता ''राम की शक्तिपूजा'' के कतिपय छन्‍दों का सहज स्‍मरण करा देती है। इस प्रसंग में कविता अपनी गतिशीलता तथा ओजस्विता के साथ अवतरित हुई है-

चला सत्र सतत दस दिवसों तक, समर्पित बलि सह मन्‍त्रोच्‍चार।
राम खड़े तुम अनिद्र अनालस, निराहार निज कर्तव्‍य विचार ।। (२.८)

             अन्तिम सर्ग में राम के एकाकी जीवन का चित्रण, कारुणिक समापन और फिर नरदेह में लीला कर के स्‍वयं खड्गधार पर चलने के सन्‍देश देने का कथन है। यह काव्‍य रामायण के मूल भाव की प्रतिष्‍ठा करता है, जो वियोग के दृश्‍य से आरम्‍भ होकर चिरवियोग में पर्यवसित होकर भी मानवीयता से ओतप्रोत है। रामकथा की इस नवीन प्रस्‍तुति के लिए कवि इला घोष बधाई की पात्र हैं।
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एक पत्र -
इला दीदी !
             कल आपकी दोनों पुस्‍तकें मिल गईं। रचनाधर्मिता की अनवरत यात्रा के लिये हार्दिक बधाई। दोनों का स्‍वरूप तथा कवरपृष्‍ठ सुन्‍दर है। ‘आञ्जनेयचरितम्’ पुन: धैर्यपूर्वक पढूँगीं। ‘हुये अवतरित क्‍यों राम?’ विहंगम दृष्टि से पूरी पढ़ी। आपने लीक से हटकर अनेक प्रासंगिक तथ्‍यों को सहज ही सुगुम्फित कर काव्‍य को सौन्‍दर्य मय बना दिया है। चतुरानन का दु:खी, विषादयुक्‍त-विष्‍ण्‍ण होना-

‘मेरे ही वर से दर्पित / मानता स्‍वयं को अमृत/ क्रूरकर्मा कदाचारी/ 
बना है विषविटप भारी’/ ‘काटे कैसे वह उसको/ रोपा जिसने पादप को...।’ मन को छू गया। मानस तथा गीता
में उक्‍त रामजन्‍म के हेतु को नवीन दृष्टि देना -

युग- युग में पुरुष पुरातन, विकृतियों का कर शोधन।
वसुधा का हर दु:खभार, करते नित धर्म-प्रसार ।।

             रामकथा के सुदीर्घ प्रसंगों को संक्षेप में प्रस्‍तुत कर देना; इसे विशेष बनाता है। मर्यादा पुरुषोत्तम राम की आज्ञा पा कर सीता को वन ले जाते लक्ष्‍मण जी व्‍यथा तथा धर्मसंकट-

स्‍तब्‍ध-नतशिर हुये लक्ष्‍मण, समाऊ भू में चाहा मन।
सेवाव्रत का यह उपहार, करना ही होगा स्‍वीकार ।।

             और राम को कवयित्री द्वारा दिया गया चुनौती पूर्ण उपालम्‍भ -

अपने ही हाथों स्‍व सुख पर, किया कुठाराघात तुमने
कोमल सी नवमालती को, उष्‍ण जल से सींचा तुमने ।।

             आदि निश्‍चय ही मार्मिक हैं, किन्‍तु अन्‍त में भारतीय काव्‍यशास्‍त्र एवं धर्मशास्‍त्र की परम्‍परा के क्रम में-

नरदेह में कर वे लीला, सुख-दु:ख पाकर जीवन के।
स्‍वयं चलकर खड्ग- धार पर, जय-संदेश हैं दे जाते ।।

ही इस खण्‍ड काव्‍य का समाज को सन्‍देश है। बहुत सरल-सहज किन्‍तु उत्‍कृष्‍ट रचना है। प्रो. राधावल्‍लभ त्रिपाठी जैसे मनीषी के पुरोवाक् ने चार चाँद लगा दिये हैं। मन प्रसन्‍न हो गया। बहुत बहुत बधाई।
८-८-२०१९                                                                                                                                       -नवलता
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भारतराष्‍ट्र का सनातन जीवनादर्श 'आञ्जनेयचरितम्' 
आचार्य रहसविहारी द्विवेदी
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[कृति विवरण- आञ्जनेयचरितम्, संस्‍कृत महाकाव्‍य, डॉ. इला घोष, आईएसबीएन ९७८-८१-९३८-५७९-७-७, प्रथम संस्‍करण २०१९, पृष्‍ठ सं. १६६, मूल्‍य ₹ ५५०, प्रकाशक- ईस्‍टर्न बुक लिंकर्स-दिल्‍ली। ]

लेखक- आचार्य रहसविहारी द्विवेदी, राष्‍ट्रपति सम्‍मान से सम्‍मानित प्राच्‍य विद्या के प्रतिष्ठित विद्वान, पूर्व आचार्य एवं अध्‍यक्ष- संस्‍कृत विभाग, पूर्व कलासंकाय अध्‍यक्ष- रानी दुर्गावती विश्‍वविद्यालय जबलपुर। 
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संस्‍कृत महाकाव्‍यों की सहस्रों वर्षों की सुदीर्घ परम्‍परा में ‘आञ्जनेयचरितम्’ नामक नवीनतम प्रशस्‍त महाकाव्‍य, डॉ. इला घोष द्वारा षोडश सर्गों एवं १२१५ पद्यों में रचा गया हैा अञ्जना-तनय आञ्जनेय (हनुमान्) इसके नायक हैं। इसमें मुख्‍यत: रामायण एवं महाभारत में निबद्ध हनुमत् चरित को आधार बनाकर श्रीराम के परम भक्‍त, पवन-पुत्र के चरित को क्रमबद्ध रूप में प्रस्‍तुत किया गया है।

             प्रारम्‍भ में प्रस्‍तुत ‘नैवेद्य’ में कवयित्री गुरुमहत्त्व-वर्णन पूर्वक यह महाकाव्‍य अपने गुरु आचार्य कृष्‍णकान्‍त चतुर्वेदी को श्रद्धापूर्वक समर्पित करती हैं। महाकाव्‍य के वर्णनीय विषय सर्ग-नामों से स्‍पष्‍ट होते हैं, जैसे कि आञ्जनेय-जन्‍म, आञ्जनेय-शैशव, आञ्जनेय का विद्याग्रहण, आञ्जनेय का बन्‍धुभाव, सचिव्‍य, वानर-उज्‍जीवन, जलधि-लंघन, सीतान्‍वेषण, दौत्‍यकर्म, लङ्का-दहन आदि। गोस्‍वामी तुलसीदास ने कहा है- ‘राम ते अधिक राम कर दासा’, अत: श्री राम केमहान् दास आञ्जनेय के कर्तव्‍यनिष्‍ठ प्रेरक चरित्र को इलाघोष द्वारा सुललित, प्रसादगुणयुक्‍त वैदर्भीरीति में; सहृदय संवेद्य वर्णनों से महाकाव्‍य विधा के माध्‍यम से उद्भावित किया गया है। ‘विद्या विनयेन शोभते’ इस सुभाषित की साक्षात्‍मूर्ति क‍वयित्री रचना के प्रारम्‍भ में कहती हैं-

क्‍व हनुमान्‍सदृशो जगति महावीर:, क्‍व च संसारदु:खभीरुर्जनोऽयं।
स्‍यात्‍क्षमोयदीत्तिवृत्तवर्णनेऽयं, मन्‍ये प्रभोरेव कृपाऽनुग्रहश्‍च।

             (कहाँ तो हनुमान जैसे महावीर और कहाँ यह संसार के दु:खों से भयभीत हो जानेवाला यह व्‍यक्ति। यदि वह कथा वर्णन में समर्थ हुआ है तो इसे प्रभु की कृपा और अनुग्रह ही मानें।)

             ‘आञ्जनेय चरित’ की महिमा को रेखाँकित करते हुये वे काव्‍यात्‍मक भाषा में कहती हैं-

चरितं ही तद्दीपं तमोमयारण्‍ये, स्रोत: स्‍वच्‍छसरसं मरुमये नु भुवने।
प्रवर्षणं सुशीतलं नैदाघदहने, सञ्जीवनमौषधं, ननु मरणासन्‍ने।।

             (यह चरित तमोमय अरण्‍य में प्रकाशमय दीप है, मरुस्‍थल में स्‍वच्‍छ-सरस जल- स्रोत है, ग्रीष्‍म के दाहक ताप में वर्षा की शीतल धारा और मृतप्राय के लिये संजीवनी औषधि है। यह रचना महाकाव्‍य के सभी तत्त्वों रस, भाव, गुण, अलंकार, बिम्‍बविधान आदि के मनोरम निबन्‍धन के साथ ही अर्थगौरव से परिपूर्ण सूक्तियों से भी अलंकृत है, जैसे कि-

                १. सद्गुरु के बिना हृदय संपुट में ज्ञान रूपी मो‍ती को कैसे पाया जा सकता है।
                २. माता का मन संतान के विषय में अनेक अनिष्‍टों की आशंका करता है।
                ३. भलीभाँति छिपाने पर भी, मुखाकृति गूढ मनोभाव को कह देती है।
              ४. ‘मित्र’ वह है जो अपने सखा के गुण-दोषों का सही मापन करने के साथ ही सभी संकटों से उसकी रक्षा (त्राण) करता है। ‘बन्‍धु’ वह जो अपने स्‍नेह-तन्‍तु से बाँध लेता है।

             सम्‍पूर्ण महाकाव्य में भारतीय संस्‍कृति एवं जीवन-मूल्‍यों की सशक्‍त स्‍थापना इस ग्रन्‍थ का वैशिष्‍ट्य है। ‘आञ्जनेय-चरित’ हनुमान के वैदुष्‍य, बुद्धिमत्ता, सत्‍यनिष्‍ठा, कर्तव्‍य परायणता, बल-वीर्य-पराक्रम, वाग्‍वैदग्‍ध्‍य, प्रभुभक्ति एवं प्रबन्‍धन कौशल आदि को काव्‍यमयी ‘अमृता’ भाषा में निबद्ध करता हुआ; चारित्रिक संकट के इस युग में महान चरित्र का प्रतिमान प्रस्‍तुत करता है। विदुषी कवयित्री ने सीता के आशीर्वचनों के माध्‍यम से भारत राष्‍ट्र के सनातन जीवनादर्शों को इस प्रकार प्रस्‍तुत किया है -

अञ्जना श्‍लाघनीया, तव माता सुनिश्चिता।
प्रशंसार्ह: केसरी, यस्‍य महाँस्‍तनयस्‍त्‍वम्।
बलं वीर्यं सत्त्वं च श्रुतं सत्‍यं धैर्यमपि।
श्रद्धा क्षमा दाक्ष्‍यं चैकत्र वसन्ति त्‍वयि हि। (१४.२८-२९)

             मुझे पूर्ण विश्‍वास है कि यह काव्‍य सज्‍जनों को आनन्‍द देने के साथ ही जन-गण के लिये प्रेरक भी होगा। इसके हिन्‍दी अनुवाद की आशा एवं शुभकामनाओं के साथ।
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'आञ्जनेयचरितम्' - हनुमान का गाथागान
डॉ. नवलता
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[लेखक- डॉ. नवलता, संस्‍कृत भाषा एवं साहित्‍य की मर्मज्ञ विदुषी, कवयित्री एवं समीक्षक, पूर्व आचार्य एवं अध्‍यक्ष-संस्‍कृत विभाग विक्रमजीत सिंह महाविद्यालय, कानपुर।]  
             धर्म ही मानवजाति के उत्तरोत्तर विकास एवं पुरुषार्थ का मूल है। समग्र संस्‍कृत वाङ्मय में वैदिक वाङ्मय धर्म का सर्वस्‍व है। किन्‍तु वैदिक ऋषियों के वचन वर्तमान तमोगुण प्रधान युग में बोधगम्‍य नहीं रहे हैं।  अत: धर्म के अवबोध के लिये लौकिक साहित्‍य ही आदर्श माना गया है। इस दृष्टि से वाल्‍मीकि कृत रामायण हमारी समग्र साहित्यिक परम्‍परा में प्रमुख स्‍थान प्राप्‍त करता है। रामायण को उपजीव्‍य बनाकर सभी भारतीय भाषाओं में प्रभूत साहित्‍य की सृष्टि हुई है। श्री राम का जीवन-संघर्ष एवं आदर्श चरित्र सभी के लिये प्रेरणा स्रोत रहा है, किन्तु रामकथा अपूर्ण है यदि उसमें उनके आदर्श सेवक, संकटमोचन, महावीर ‘हनुमान’ की कथा अनुस्यूत न हो।

             अंजनासुत हनुमान की इसी अप्रतिम कथा को कविहृदय की संवेदना, भक्‍तहृदय की श्रद्धा, जवीनमूल्‍यों के प्रति गहन आस्‍था और देव वाणी के प्रति अनन्‍य अनुराग के साथ प्रस्‍तुत करता है, डॉ. इला घोष रचित ‘आञ्जनेयचरितम्’ महाकाव्‍य। इस महाकाव्‍य की एक अभिनव विशेषता यह है कि, प्रत्‍येक सर्ग के प्रारम्‍भ में ‘वस्‍तुनिर्देशात्‍मक मंगलाचरण’ दिया गया है जो कवयित्री की कथा-नायक के प्रति‍ श्रद्धा के साथ ही उस सर्ग की विषय वस्‍तु का संकेत देता है। महाकाव्‍य का उपक्रम करते हुये इतिवृत्त, प्रयोजन आदि की सूचना इस प्रकार दी गई है-

अञ्जनातनयो नेत्राऽत्र कथायां, वीरद्भुतौ द्वौ दीप्‍तरसौ मुख्‍यौ।
आख्‍यानं रामायणाभिमतमेव, भक्‍तभ्रमरा रसपायिनो भवन्‍तु ।।

             अञ्जनातनय कथा के नायक हैं, वीर और अद्भुत दो प्रमुख रस हैं, कथावस्‍तु का आधार रामायण है। भक्‍त रूपी भ्रमर इसके रसपायी हैं। सम्‍पूर्ण महाकाव्‍य में जीवन के अनुभवों से उपजे हुये सत्‍य इस कृति को विशेष गरिमा प्रदान करते हैं। एक-दो उदाहरण देखे जा सकते हैं, राज्‍यभ्रष्‍ट सुग्रीव को सान्‍त्वना देते हुये आञ्जनेय कहते हैं-

आतपच्‍छायानिभं जीवनं, सुख-दु:खश्रुहासै: समन्वितम्।
विजानन्‍तो धीवन्‍त एवं, सन्‍तरन्ति सुखेन विपदम्‍बुधिम् ।।

             (यह जीवन धूप-छाँही है, सुख-दु:ख-अश्रु-हास से पूर्ण। ऐसा जानते हुये बुद्धिमान विपत्ति रूपी समुद्र को सहज ही पार कर लेते हैं।)

तमोघोरा निशा याति शेषं, भवत्‍यथ च समुज्‍ज्‍वलं प्रभातम्।
अपसार्य तुहिनावरणं सघनं, रविश्‍चुम्‍बत्‍येवोदयाचलम् ।।

             (अंधकार से भयावह रात्रि का भी अन्‍त होता है। इसके पश्‍चात् है- समुज्‍ज्‍वल प्रभात। कुहासे के घने आवरण को भेद कर सूर्य उदयाचल पर पहुँच ही जाता है।) भारतीय मान्‍यता के अनुसार चरित-वर्णन के प्रसंग में धर्म-अर्थ-काम और मोक्ष इन पुरुषार्थों का निबन्‍धन सत् काव्‍य का प्रमाण है। इस दृष्टि से भी इला महोदया, निश्‍चय ही सत्काव्‍य की कर्त्री हैं। अशोक वाटिका में जब हनुमान् सीता की प्रशंसा करते हुये कहते हैं-

प्रशंसार्हे सीते! तथा प्राणभयेऽपि, त्‍यक्‍ता न मर्यादा धर्मस्‍य कुलस्‍य च।
अद्य संजाता त्‍वं वैधरणीकन्‍ये!, भारतीयासु ललनासु ललामभूता।।

             (उस प्रकार प्राणभय होते हुये भी तुम ने धर्म और कुल-मर्यादा का परित्‍याग नहीं किया अत: हे धरणि कन्‍या ! तुम भारतीय ललनाओं की सिरमौर हो गई हो।) तब सीता बहुत सहजता से उत्तर देती हैं-

नास्‍त्‍यत्र विशेषो कोऽपि, मादृशे जने।
कृतं स्‍वकर्तव्‍यं त्‍वया, मया मम धर्म:सरति संसार: सुष्‍ठ, ननु धर्मेणैव ।।

             (मुझ जैसे व्‍यक्ति में कोई विशेष बात नहीं है। तुमने अपने कर्त्तव्‍य का पालन किया है और मैंने अपने धर्म का। धर्म से ही यह संसार सुष्‍ठ भाव से चलता है।)


             भारवि, माघ, श्रीहर्ष जैसे कवि एक ही महाकाव्‍य लिखकर महाकवि के पद को प्राप्‍त हुये। इला घोष महोदया भी महाकवि के यश को प्राप्‍त करेंगी। अनेक श्रेष्‍ठ ग्रन्‍थों की लेखिका, कवयित्री डॉ. इला घोष ने लोक कल्‍याण और श्रद्धा-भक्ति की भावना से यह महाकाव्‍य रचा है। इसकी फलश्रुति उन्‍हीं के शब्‍दों में- ‘प्रत्‍यक्ष जाग्रत देवता हनुमान का गाथागान’ है।
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सफलता के सूत्र - वैदिक दृष्टि

[कृति विवरण - सफलता के सूत्र - वैदिक दृष्टि,  प्रथम संस्‍करण-२०१५, पृष्‍ठ सं. ८८, मूल्‍य ₹१५०, प्रकाशक-त्रिवेणी परिषद्-जबलपुर। ]
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यह ग्रन्‍थ वस्‍तुत: '';व्‍यक्तित्‍व विकास में वैदिक वाङ्मय का योगदान''; ग्रन्‍थ का अंतिम अध्‍याय है, जिसे छात्र-जगत् के उपयोग एवं व्‍यापक प्रचार-प्रसार की दृष्टि से लेखक की 'भूमिका'  के साथ मूल ग्रन्‍थ से पहले ही स्‍वतन्‍त्र रूप से प्रकाशित कराया गया है।
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चतु:षष्टि कला

[कृति विवरण - चतु:षष्टि कला, सह लेखन, आईएसबीएन ९७८-८१-७८५४-१३० -३, प्रथम संस्‍करण-२००८, पृष्‍ठ ४१६,  मूल्‍य ₹१५००, ईस्‍टर्न बुक लिंकर्स- दिल्‍ली। ]
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कतिपय चिन्‍तन योग्‍य प्रसंग

कतिपय चिन्‍तन योग्‍य प्रसंग - मूल लेखक - शचीन्‍द्रनाथ समाद्दार, हिन्‍दी अनुवाद: डॉ. इला घोष, प्रथम भाग- प्रथम संस्‍करण-२००२, पृष्‍ठ २४४,  मूल्‍य- ₹८०, द्वितीय भाग- प्रथम संस्‍करण-२००२, पृष्‍ठ-२९०,  मूल्‍य ₹९०, म. प्र. बांग्‍ला अकादेमी के मार्गदर्शन  में प्रकाशित।
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प्रकाशनाधीन
१- गणिकापुराण- मूल लेखक- डॉ. प्रार्थना मुखोपाध्‍याय, हिन्‍दी अनुवाद- डॉ. इला घोष, प्रकाशक- ईस्‍टर्न बुक लिंकर्स- दिल्‍ली।
             इनमें से बहुत सी ऐसी भी हैं, जो प्रेम की छलना में भूलवश गृहत्‍याग कर इस पंक में फँस जाती हैं..... इन अभागिनियों के लिये लौटने के सारे रास्‍ते बन्‍द हैं। इन की शोचनीय मृत्‍यु के लिये कोई शोक को लेकर बैठा नहीं रहता.... अरण्‍य के किसी एक वृक्ष से एक पत्ता झड़ जाने जैसी सहज-स्‍वाभाविक है इनकी मृत्‍यु, शोक अथवा दु:ख, स्‍वप्‍न अथवा जीवन, इच्‍छा या अनिच्‍छा सभी यहाँ पद्म-पत्र पर जल की बूँद की तरह हैं।

२- अन्‍वेषी यायावर- आचार्य-कवि राजशेखर पर गवेषणात्‍मक चिन्‍तन।
             ग्रन्‍थ सर्जना और ग्रन्‍थ समीक्षा साहित्‍य रूपी रथ के दो पहिये हैं; जिनके संतुलन एवं सहगामिता से ही साहित्‍य अपने गन्‍तव्‍य तक पहुँच पाता है। कोई भी साहित्‍यकार भले ही स्‍वान्‍त: सुखाय रचना क्‍यों न करे, पाठक या श्रोताओं से प्रशंसा या 'कवियश' की कामना उसके मन में रहती ही है। कवि की सृष्टि को सहृदय सामाजिक तक पहुँचाने तथा उसकी यश: सुरभि को फैलाने का कार्य भावक या समीक्षक करता है।

३- तस्‍यमै  नम: - वाग्‍वदेवी सरस्‍वती की स्‍तुति में संस्‍कृत एवं हिन्‍दी भाषा में रचित शतक काव्‍य।
जगदिदं लीलाकमलं क्रीडसि येन महामाये।
क्रीडावसाने विसृजसि च सर्वं लीलायितन्‍नु ते।।
उन्‍हें नमन-
जगत् लीला-कमल उनका, खेला नित उससे करतीं।
दे विसर्जन अवसान में, क्रीड़ा निज पूरी करतीं।।
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‘इला’.....तुम केवल तुम हो

डॉ. उर्मिला प्रकाश मिश्र

URMILA MISHRA.jpgपूर्व आचार्य एवं अध्यक्ष - इतिहास, शा. महारानी लक्ष्मी बाई महाविद्यालय, भोपाल।
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               कुछ व्यक्तित्व ऐसे होते हैं, जिनके लिए शब्द मूक हो जाते हैं और जब भी उनका स्मरण हो आता है, तब केवल भाव-रस पान ही हो सकता है। ऐसी ही है मेरी प्रिय सखी इला। २०२० हमारी मित्रता का हीरक-जयन्ती-वर्ष है। १९७० में हम दोनों की, सरोजिनी नायडू महाविद्यालय, भोपाल में व्याख्याता पद पर नियुक्ति हुई थी। मुझे सरकारी निवास आवंटित हुआ और उसमें हम दोनों एक साथ निवास करने लगे। लगभग डेढ़ वर्ष के साथ ने हम दोनों को आजीवन मित्रता के सूत्र में बाँध दिया। उन दिनों मैं प्राचीन भारतीय इतिहास और इला संस्कृत में पीएच.डी. कर रहे थे। जिस विषय पर मैं शोध कर रही थी, उसमें पग- पग पर संस्कृत का ज्ञान आवश्यक था और मुझे संस्कृत का अत्यल्प ज्ञान था; अतः ईश्वर ने इला को मेरी संस्कृत गुरु और मार्गदर्शक के रूप में भेजा। युवा इला विदुषी है, इसका भान मुझे हो चुका था। दोनों ही जब किसी विषय पर चर्चा करते, तो समय का पता ही नहीं चलता था।

               सर्वगुणसम्पन्न इला स्वभाव से शालीन, विनम्र तथा श्रेष्ठ शिक्षक रही है। जो कर्तव्य-परायणता, निर्भीकता तथा कर्मठता इला में है, वह महिलाओं में दुर्लभ ही होती है। इला जब पहली बार मेरे साथ रहने आई, तब मैंने कई शर्तें उसके सामने रखीं, जिनका निर्वहन उसने पूरी ईमानदारी से किया। मेरे कहने के पूर्व ही न जाने वह कैसे समझ जाती थी कि मैं उससे क्या अपेक्षा कर रही हूँ? कभी-कभी वह मुझे घोर आश्चर्य में डाल देती थी। एक समय का वाकया है, विवाह के पश्चात् मैं बीमार थी और उसी समय घर पर मेरे ससुराल वाले आये थे। इला ने मुझसे बिना कुछ कहे सुबह उठकर सबके लिये चाय-पानी का इंतज़ाम कर मेरे कार्य को बड़ी सहजता से सम्भाल लिया। उसकी इस कर्तव्य-परायणता की सभी ने प्रशंसा की। इला जिस किसी के भी सम्पर्क में आई, उसे ही अपना बना लिया। मेरा पूरा परिवार इला को अपने ही परिवार का अभिन्‍न सदस्य मानता है। मेरे बच्चों की ‘मौसी’ इला उन्हें अतिप्रिय हैं। विद्वत्ता के साथ ही इतना गुणी विलक्षण व्यक्तित्व दुर्लभ ही है - उपमा न कोई तुम्हारी ‘इला’.... तुम केवल तुम हो।
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मेरी अंतरंग सखी..... ''इला''

प्रो. ललिता बाला वर्मा
पूर्व आचार्य एवं अध्‍यक्ष- दर्शनशास्‍त्र, शा. महाकोशल महाविद्यालय, जबलपुर। 
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               इला से मेरा परिचय सन् १९७२ में हुआ, जब वह भोपाल से स्‍थानान्‍तरित होकर महाकोशल महाविद्यालय में आई। मेरा विषय दर्शन शास्‍त्र और उसका विषय संस्‍कृत होने के कारण शीघ्र ही वह प‍रिचय अंतरंगता में परिणत हो गया। मैं सदा से ही उसकी प्रशंसक रही हूँ। आज, जब उस पर कुछ लिखने बैठी हूँ; तब विचारों के अरण्‍य में से कुछ विचार सूर्य की प्रथम रश्मि से जैसे उद्भासित हो उठते हैं। ''समय ही जीवन का अनमोल रत्‍न है'', इसे इला ने गहराई से समझा और उसका सार्थक उपयोग करते हुये एक-एक पल को सहेजा है।

               यह मूल प्रकृति जैसे त्रि‍गुणात्मिका है- सत्-रज-तमोमयी, वैसी ही इला है और इसी से उसकी ''वाङ्मयी-सृष्टि'' संभव हुई है। मन-बुद्धि‍-विवेक किसी भी व्‍यक्तित्‍व के महत्त्वपूर्ण अंग हैं। इला का मन ''निश्‍छल'' है और ''निश्‍चल'' भी। मन को सर्वाधिक (वायु से भी अधिक) चंचल माना गया है, पर इला के विषय में यह असिद्ध हो जाता है। अनेक प्रलोभनों के मध्‍य भी वह अविचल है। बुद्धि‍ सर्वदा' 'तर्क'' (लौजिक) को प्रश्रय देती है। तर्क द्वन्‍द्व की सृष्टि करता है। इला इन द्वन्‍द्वों-तर्क-वितर्क- कुतर्क से परे है। उसमें हंस का ''नीरक्षीर-विवेक'' है और ''आत्‍मारामत्‍व'' (अपने में ही मगन रहने) का भाव भी। लगता है, ''सखी-मित्र-बन्‍धु'' ये शब्‍द मानों उन जैसों के लिये ही बने हैं।
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स्मृतियों के वातायन से प्रो० इला घोष 
प्रो. मनुलता शर्मा  

MANULATA SHARMA.jpgपरिचय - संस्‍कृत विभाग, काशी हिन्‍दू विश्‍वविद्यालय, वाराणसी, कवि, समीक्षक, विचारक।
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                    प्रो० इला घोष संस्कृत जगत् की विशिष्ट विभूतियों में परिगण्य हैं। संस्कृत साहित्य की वरेण्य विदुषी, अनेक वैदुष्यपूर्ण कृतियों की सर्जिका, संवेदनशील हृदय से परिपूर्ण व्यक्तित्व की स्वामिनी इला जी के जीवन के कई पक्ष उल्लेखनीय हैं। वे एक मौलिक चिन्तिका हैं; शास्त्रीय समालोचिका है; अनुसन्धानात्मिका दृष्टि से सम्पन्न गम्भीर गवेषिका हैं; उत्कृष्ट शिक्षिका हैं तथा प्रशासनिक दायित्वों को बखूबी सम्भाल लेने की क्षमता से युक्त कुशल प्रशासिका हैं। उन्होंने गार्हस्थ्य के सुखदपक्ष का भी अनुभव किया है और उसे बखूबी निभाया भी है। वे एक सुयोग्य पति की सच्ची सहधर्मचारिणी हैं एवं एक सुयोग्य पुत्र-पुत्री की वात्सल्य भावयुता माँ भी हैं। उनकी शैक्षणिक यात्रा सुदीर्घ रही है। इला जी ने मध्यप्रदेश के उच्चशिक्षा विभाग के विभिन्न महाविद्यालयों में ४३ वर्ष पर्यन्त अध्यापन कार्य कर अनेक छात्र-छात्राओं को सुशिक्षित किया है; उन्हें आत्मनिर्भर बनाया है एवं विभिन्न पदों पर आसीन होने में अपनी महती भूमिका का निर्वाह किया है। प्रो० इला जी का वैदुष्य गम्भीर है। अनेक शोधसंगोष्ठियों में गम्भीर शोधपत्रों की प्रस्तुति एवं अध्यक्षीय वक्तव्य आपके गहन चिन्तन-मनन को रेखांकित करते हैं। इस का ही परिणाम है कि उन्हें विभिन्न पुरस्कारों से अलङ्कृत किया गया है। वे कालिदास अकादमी उज्जैन, संस्कृति परिषद् मध्यप्रदेश शासन भोपाल द्वारा ‘भोज पुरस्कार’ से पुरस्कृत, त्रिवेणी परिषद् द्वारा उषादेवी मित्रा अलंकरण से अलंकृत एवं उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान एवं दिल्ली संस्कृत अकादमी से विशेष पुरस्कार से पुरस्कृत हैं।

                    प्रो० इला घोष जी का लेखन बहुविषयी है और यह भी एक सुखद पक्ष है कि उनकी अनेक पुस्तकें जैसे कि ऋग्वैदिक ऋषिकाएँ; जीवन एवं दर्शन, सफलता के सूत्र; वैदिक दृष्टि एवं व्यक्तित्व विकास में वैदिक वाङ्मय का योगदान अपने शीर्षक मात्र से जनमानस को अपना पाठक बना लेने में सक्षम हैं; ऐसा मेरा विश्वास है। अनुसन्धित्सु प्रवृत्ति के लोग उनकी पुस्तकों संस्कृत वाङ्मय में शिल्पकलाएँ, संस्कृतवाङ्मये कृषिविज्ञानम् एवं संस्कृतसाहित्येजलविज्ञानम् को पढ़ना चाहेंगें; यह भी मेरा दृढ़ विश्वास है। तमसा तीरे, महीयसी और हुए अवतरित क्यों राम ये तीन काव्यकृतियाँ उनके संवेदनशील हृदय की अभिव्यक्ति हैं जहाँ उन्होंने बडी़ गहराई से जीवन के विविध पक्षों का अनुभव किया है। सीता निर्वासन एवं भावी सन्तति के वियोग पर रची उनकी काव्य पंक्तियाँ इस भावभरित हृदय का सहज परिचय करा जाती हैं-

गढ़ी जो सपनों के साथ, प्रेम की प्रतिमा जीवन में।
दिया विसर्जन उसको आज, निर्जन से महा-अरण्य में।।
पूर्वतत् ही होगा सब कुछ, प्रातः वही मंगलवादन।
पुरोहितों का स्वस्तिवाचन, राज-सभा-दौत्य-धर्मासन।।

नहीं होगी, केवल सीता,
जीवन कलश जैसे रीता।

                    यह राम के जीवन की कैसी विवशता थी कि पत्नी और पुत्रों के रहने पर भी उनका जीवन अपूर्ण रहा, समग्र ऐश्वर्यों के अधिष्ठाता होने पर भी वे वैयक्तिक रूप में निरैश्वर्य रहे। कवयित्री ने इस पीड़ा को समझा है-

प्रतिशोध यह तो स्वयं से, रहे वंचित संतति सुख से।
अंतहीन वियोग तुम्हारा, मिलने की आशा दुराशा।।
बन पिता भी नहीं मिलेगा, सुत-मुख-अवलोकन सौभाग्य।
अंगुली पकड़, धीरे-धीरे, डगमग चलने का प्रयास।।
जन ही होगा अब आराध्य, एकमात्र, जीवन का साध्य।
करना पडे़ सर्वस्व त्याग, अविचलित तुम आज के बाद।।
प्रजा के सुख में सुख तुम्हारा, दुःख में ही तुम्हारा दुःख।
प्रजा से पृथक् नहीं होते, राजा के अपने सुख-दु:ख।।

                    ऐसे संवेदनशील कोमल हृदय की स्वामिनी इला दी से मेरा परिचय भी शैक्षणिक आदान-प्रदान के क्रम में हुआ। बात सन् १९९४-९५ की होगी। मैं दिल्ली में रिफ्रेशर कोर्स कर रही थी। वहाँ एक वक्ता महोदय ने अपने व्याख्यान क्रम में बतलाया कि प्रत्येक संस्कृतज्ञ को उज्जैन में देव प्रबोधिनी एकादशी से कार्तिक पूर्णिमा तक होने वाले अखिल भारतीय कालिदास महोत्सव में जीवन में एक बार तो अवश्य भाग लेना चाहिए एवं भगवान् महाकाल के दर्शन का पुण्यलाभ प्राप्त कर अपना जीवन धन्य मानना चाहिए। इस व्याख्यान का कुछ ऐसा प्रभाव रहा कि मैंनें इस कार्यक्रम में भाग लेने और शोधपत्र प्रस्‍तुत करने का निश्‍चय किया। इसी क्रम में एक सुदर्शन एवं सुसंस्कृत व्यक्तित्व की स्वामिनी प्रोफेसर साहिबा से मुलाकात हुई। परिचय का आदान प्रदान हुआ। पता चला कि आप प्रो० इला घोष हैं; जो जबलपुर में रानी दुर्गावती यूनिवर्सिटी से सम्बद्ध एक पोस्टग्रेजुएट कॉलेज में संस्कृतविषय की प्राध्‍यापिका हैं। शुरु में तो यूँ ही औपचारिक सा परिचय रहा; पर उनके सुदर्शन व्यक्तित्व, कलात्मक परिधान, सुसंस्कृत सोच एवं सरल स्वभाव से मैं उनसे सहज ही प्रभावित होने लगी। प्रभावित होने पर आत्मीयता का पुट व्यवहार में स्वतः आगया। हठात् उनके लिए मैडम जैसे औपचारिक सम्बोधन से परे इला दी जैसे सम्बोधनों का प्रयोग होने लगा। कालिदास समारोह की शोधसंगोष्ठी में उनके अध्यक्षीय वक्तव्य को सुना; वैदुष्यपूर्ण सुविचारित एवं संतुलित वक्तव्य था। अध्यक्षीय टिप्पणियाँ सटीक एवं मर्यादित थीं। अच्छा लगा। उनके लिए स्नेह व सम्मान का भाव बढ़ गया। इसी प्रकार हमारे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की शोध-संगोष्ठियों में वर्ष २०१५ में उनका आगमन हुआ। उनके वैदुष्यपूर्ण वक्तव्य ने छात्र-छात्राओं का मन मोह लिया। 

                    इला दी आत्मीय भावों से भरी हैं। एक बार जबलपुर में राजशेखर समारोह का आयोजन था; मैं वहाँ आमन्त्रित थी; शैक्षणिक कार्यक्रम के बाद इतने स्नेह से उन्होंने मुझ से पुछा मनु! जबलपुर घूमना चाहोगी ? मुझे लगा मेरे मन की बात उन्होंने पढ़ ली हो जैसे; मेरे हाँ कहते ही अपनी कार मँगवाई। वहाँ के नर्मदा तट ग्वारीघाट और काली मन्दिर घूमने का कार्यक्रम बनाया और इस तरह मेरी वह शाम जो सेमिनार के बाद गेस्ट हाउस के कमरे में अकेले कुछ पढ़ते हुए या मोबाइल देखते बीतती; उन्होंने रमणीय एवं स्मरणीय दोनों बना दी।

                    दिल्ली संस्कृत अकादमी की एक शोध संगोष्ठी में हम दोनों का पुनः मिलना हुआ। वर्ष २०१५  था। वहाँ एक कमरे में ८ पलंग थे और सभी प्रतिभागियों को जिनमें प्रोफेसर्स एवं शोधच्छात्राएँ भी थीं; उस एक कमरे में निवास दिया गया। इला दी वरिष्ठ प्रोफेसर होते हुए भी जिस सहज भाव से सबसे घुलमिल गईं; उससे सहज ही उनके प्रति सम्मान का भाव और बढ़ा कि जहाँ वरिष्ठ प्रोफेसर प्रायः एक कक्ष में किसी दूसरे का आना भी पसन्द नहीं करते वहाँ इला दी देश के विभिन्न भागों से आई प्रतिभागियों से सहज भाव से मिलती रहीं। उन्हें कोई असहजता या काठिन्य की अनुभूति नहीं हुई। 

                    एक ताजा तरीन संस्मरण से आपको जरूर परिचित कराना चाहूँगी। इस वर्ष उज्जैन में नवम्बर मास में कालिदास समारोह का आयोजन था। मैंने अपना आरक्षण वाराणसी से जबलपुर तक के लिए कराया। मेरी ट्रेन को जबलपुर सवा छह बजे पहुँचना था। वहाँ से दूसरी ट्रेन ९ बजे के लगभग थी जो मुझे सुबह दूसरे दिन उज्जैन पहुँचाती। शाम २.५ बजे के लगभग यह स्पष्ट हो गया था कि मैं जबलपुर ९ बजे से पहले नहीं पहुँच पाऊँगी ट्रेन का छूटना तय था। मुझे उज्जैन में एक आवश्यक मीटिङ्ग में ११.३० बजे तक भाग लेना था। मैंने इला दी को फोन किया और स्थिति बतलाई। जबलपुर से उज्जैन जाने के लिए बस के बारे में पता किया। इला दी ने मेरी इस परेशानी को अपनी परेशानी जैसा समझा। उन्होंने बस के बारे में पता किया। बतलाया कि बस पकड़ना ठीक नहीं रहेगा। ट्रेन ९-९.३० तक पहुँचेगी वहाँ से बस अड्डे तक पहुँचने में ही एक घण्टा लगेगा। बस छूट जाएगी। दूसरा विकल्प उन्होंने मुझे रात ११.५० पर जबलपुर से इन्दौर तक चलने वाली ओवरनाइट एक्सप्रेस ट्रेन का बतलाया और मेरा ऑनलाइन रिजर्वेशन भी करवा दिया। उनकी आत्मीयता ने वहीं पर विश्राम नहीं लिया; मुझसे यह भी पूछा कि तुम्हारे पास स्लीपर में सोने के लायक गर्म चादर वगैरह तो है? नहीं तो मैं भिजवाऊँ? उनकी इस सदाशयता व आत्मीयता ने सहज ही मेरे अन्तस् में उनके प्रति विद्यमान सम्मान को द्विगुणित कर दिया। उनकी वजह से मैं वह शैक्षणिक यात्रा निर्विध्न सम्पन्न कर सकी और समय से उज्जैन पहुँच गई। लौटते समय जबलपुर में ३-४ घण्टे प्लेटफार्म पर रुकना था। वे मुझसे मिलने सुबह आठ बजे स्कूटी चलाकर स्वयं आईं। अपने साथ मेरे लिए नाश्ता, व दोपहर का खाना लेकर भी आईं। उनकी इस आत्मीयता ने मुझे उनके प्रति आपादमस्तक विनत कर दिया। अपने अन्तस् में भावोर्मियों का सैलाब समेटे इस धीर, गम्भीरमना, मर्यादित एवं सुसंस्कारित साहित्य समुपासिका के............ पत्रिका के विशेषाङ्क की केन्द्र बिन्दु बनने पर मेरा उनके प्रति हार्दिक प्रणति निवेदन।
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अथातो इला जिज्ञासा
श्रीमती सुभद्रा पाण्‍डेय
सेवानिवृत्त सहायक प्राध्‍यापक, बिलासपुर 
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अपनी कृतियों के लिये संस्‍कृत एवं संस्‍कृतेतर जगत् में सुविख्‍यात, अत्‍यन्‍त प्रखर, प्रगल्‍भ, उद्भट एवं विलक्षण वक्‍ता, अनेक संस्‍थाओं से अनेकश: पुरस्‍कृत एवं सम्‍मानित इला घोष के विषय में लिखने का सुअवसर मुझे प्राप्‍त हुआ है। यह मेरा सौभाग्‍य है और कदाचित मेरा सर्वाधिक प्रिय विषय भी। महाकवि कालिदास की ये पंक्तियाँ सहजतया स्‍मरण में आ रही हैं-'क्‍व सूर्य प्रभवो वंश: क्‍व चाल्‍पविषया मति:।' ज्ञान और उपलब्धियों की अत्‍युच्‍च अवस्‍था में अवस्‍थ‍ित उनके विषय में अज्ञ मैं क्‍या लिखूँ और कैसे ? अस्‍तु।
वे मेरी आत्‍मीय, अंतरंग एवं अभिन्‍न हैं। उनके घनिष्‍ठ संसर्ग में रहने के कारण उनके प्रति अपनी भावनाओं को, कुछ संस्‍मरणों को पाठकों के सम्‍मुख रखती हूँ।
आदरणीय मैडम मेरी वरिष्‍ठ हैं। मैडम कहने का मेरा अभ्‍यास होने के कारण मैडम कहकर ही अपनी बात कहती हूँ।
वर्ष १९७८ में शास. महाविद्यालय, बिलासपुर से स्‍थानान्‍तरित होकर मैं महाकोशल कला महाविद्यालय, जबलपुर में पदस्‍थ हुई। उस समय मैडम वहाँ पदस्‍थ थीं। हमारा सहज समीप्‍य हुआ, सम्‍बन्‍ध पारिवारिक हुये और क्रमश: दृढ़तर और सघनतर होते गये। महाविद्यालय में हम दोनों का युगल जाना जाने लगा। स्‍टाफ मेम्‍बर्स हम दोनों को आई. जी. और एस.पी. कहते। इला घोष- आई.जी. और सुभद्रा पाण्‍डेय- एस.पी.। इतिहास विभाग के अध्‍यक्ष डॉ. राजमणि शुक्‍ल जो ज्ञान के कोश ही थे, वे हमारे युगल की 'सौम्‍य युगल' कहकर प्रशंसा करते। हमारी विभागाध्‍यक्ष आदरणीया श्रीमती छाया ठाकुर मैडम हमें देखकर कहतीं- 'चिर जीवौ जोरी जुरै।'
'अथातो इला जिज्ञासा' इस शीर्षक में मैं मैडम के स्‍वभाव की कुछ मूलभूत विशेषताओं को आपके समक्ष्‍ा उद्घटित करती हूँ। मेरी दृष्टि में यही उनका 'इलात्‍व' है। उनमें निहित इला-तत्त्व है। जिज्ञासु पाठकों के लिये वे जिज्ञास्‍य हैं, ज्ञेय हैं।
उनके स्‍वभाव की शीर्षस्‍थ विशेषता है- लक्ष्‍य के प्रति एकाग्रता, अनन्‍यता, तन्‍मयता एवं अव्‍यभिचारित्‍व। ज्ञानार्जन की प्रबल पिपासा की वे अपरिसीम अवधि हैं। किसी विषय पर जब उन्‍हें लिखना या बोलना होता है। तब उस विषय का चिन्‍तन करते हुये वे भाव-दशा में पहुँच जाती हैं; समाधिस्‍थ सी जान पड़ती हैं। उनका चित्त उस विषय के साथ एकाकार, तद्भाव-भावित हो जाता है। अर्जुन और एकलव्‍य की सी ध्‍येयनिष्‍ठा उनमें दीख पड़ती है। 
अवकाश के समय स्‍टाफ मैम्‍बर्स के मध्‍य कभी कुछ गप-शप, हास्‍य विनोद होता रहता। ऐसे अवसरों पर वे प्राय: मौन ही रहतीं, यह उनका सहज स्‍वभाव था एवं नीरक्षीर विवेकित्‍व भी। कुछ समय पश्‍चात् वे चुपचाप उठकर लायब्रेरी चल देतीं। लायबेरी जाकर पढ़ना उनका नित्‍य-नियम था। उसमें व्‍यतिक्रम कभी नहीं होता था। 'क्षणश: कणशश्‍चैव विद्यामर्थं च साधयेत्' तथा 'विद्यामभ्‍यसनेनैव प्रसादयितुमर्हसि' आदि आदि सदुक्तियों को वे चरितार्थ करती थीं।
अध्‍यापन के साथ-साथ विद्यार्थियों को शोध, अन्‍वेषण, अनुसंधान के लिये प्रेरित करतीं। शोधार्थी छात्र उनसे मार्गदर्शन प्राप्‍त करते। किसी छात्र की अस्‍वस्‍थावस्‍था में उनकी किसी भी कठिनाई में वे उनके घर जातीं। निर्धन छात्रों को वित्तीय सहायता देतीं। उनके योगक्षेम का यथासंभव निर्वाह वे अवश्‍य करतीं। हमारे महाविद्यालय में प्रज्ञाचक्षु छात्र संस्‍कृत विषय की पढ़ाई करते थे, उनके लिये लेक्‍चर का औडियो कैसेट वे तैयार करतीं। इन कार्यों में कुछ मेरा भी सहयोग होता, कि‍ञ्च‍िनमात्र।
अनेक रिफ्रेशर कोर्स, सैमिनार, व्‍याख्‍यान, वर्कशॉप आदि में हम साथ ही शामिल होते थे। प्रतिभागियों में वे सर्वाधिक एकाग्रता से वक्‍ता को सुनती थीं- शान्‍त, मौन, प्रपन्‍न भाव। उस समय वे 'शिष्‍यस्‍तेऽहं शाधि मां त्‍वां प्रपन्‍नम्' को ही मूर्तिमान करती थीं। व्‍याख्‍यान के अन्‍त में अत्‍यंन्त विनम्र भाव से अपनी शंकाओं का समाधान पूछतीं। 'तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्‍नेन सेवया' का भाव उनके मुख पर होता।
प्रकृति मौन भाव से जिस प्रकार अखिल सृष्टि का संचालन करती है, मैडम भी मौन एवं अनन्‍यासक्‍त भाव से विभिन्‍न कार्यों को सम्‍पादित करती थीं। उनका गृहिणीत्‍व भी मैंने बड़े निकट से देखा है। शील संस्‍कार सम्‍पन्‍न गृहिणी की भांति वे गृहकार्यों को करतीं। शान्‍त और मौन। मेरी दृष्टि में उनमें विद्यमान स्‍थायी भाव हैं- शान्ति और मौन।
उनके माता पिता जबलपुर में ही रहते थे। उनकी देखरेख व साज-संभाल का दायित्‍व प्राय: उन पर ही होता था। माताजी कभी अस्‍वस्‍थ होतीं, तो वे उन्‍हें अपने निवास गंगा-नगर में ले जातीं। उनकी श्‍वश्रू भी वहाँ होती थीं। ऐसे अवसर पर पारिवारिक सामंजस्‍य में घोष सा‍हब का सहयोग अत्‍यंन्‍त सराहनीय होता।
एक बार पुणे विद्यापीठ में आयोजित रिफ्रेशर कोर्स में भाग लेने के लिये हम दोनों साथ जा रहे थे। हमारी बर्थ आरक्षित थी। रात्रि में एक वृद्धा कहीं से आकर उनके बर्थ पर सो गईं। मैंने उसे जब उठाना चाहा तब उन्‍होंने उसे न उठाने के लिये कहा। रात्रि हमनें एक ही बर्थ पर किसी प्रकार व्‍यतीत की। प्रात: उस वृद्धा के मुख का कृतज्ञभाव व सन्‍तोष दर्शनीय था। उस समय मैडम की उदारहृदयता, वात्‍सल्‍य एवं स्‍नेहाचरण मुझे अभिभूत कर गया। रिफ्रेशर कोर्स के प्रतिभागी दुरूह विषय को समझने के लिये उन्‍हें घेर लेते थे। वे सबका समाधान करतीं। कुलाधिपति द्वारा दिये गये प्रमाण पत्र में उन्‍हें 'O' ग्रेड प्राप्‍त हुआ। 
राष्‍ट्रपति सम्‍मान से सम्‍मानित डॉ. पुष्‍पा दीक्षित मैडम ने स्‍वयं के द्वारा चलाये जा रहे पाणिनीय शोध संस्‍थान में छात्रों को साहित्‍य विषय पढ़ाने के लिये उन्‍हें बिलासपुर बुलाया। यह दो तीन वर्ष पहले की बात हैं। वे बिलासपुर आईं, पन्‍द्रह दिन उनके शोध संस्‍थान में रहकर छात्रों को पढ़ाया। संस्‍था को पचास हजार रुपये की दानराशि दी। उनका निस्‍पृह नि:स्‍वार्थ, एवं उदार स्‍वभाव सर्वत्र ऐसा ही है। प्रत्‍येक कार्य वे यज्ञभाव से करती हैं।
उनके स्‍वभाव की दुर्लभ विशेषताओं की इयत्ता नहीं है। गीता के १०वें अध्‍याय विभूतियोग में भगवान् श्रीकृष्‍ण कहते हैं- 'कीर्ति: श्री: स्‍म‍ृतिर्मेधा धृति: क्षमा' - ये सभी विभूतियाँ अपनी समग्रता के साथ उनमें विद्यमान हैं, जिनका वर्णन करना वाणी की सामर्थ्‍य से परे है। गोस्‍वामी तुलसीदास जी के शब्‍दों में-
'गिरा अनयन नयन बिनु बानी।'
गीता के १०वें अध्‍याय विभूति योग में भगवान् श्रीकृष्‍ण कहते हैं-
यद्यद्विभूतिमत्‍सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा।
तत्तदेवावगच्‍छ त्‍वं मम तेजोंऽशसम्‍भवम् ।।
निश्‍चय ही मैडम घोष ईश्‍वरीय तेज के अंश से समुत्‍पन्‍न हुई हैं। आचार्य मम्‍मट के काव्‍यप्रकाश के दशम उल्‍लास में एक श्‍लोक का उत्तरार्द्ध है- श्‍यामा सामान्‍य प्रजापते: रेखैव च न भवति। इसे थोड़ा बदलकर मैं कहती हूँ- इला सामान्‍यप्रजापते: रेखैव च न भवति।
वे एकमेवाद्वितीयम् हैं, वरेण्‍य हैं, अनुकरणीय हैं। मुझ निष्किञ्चन के प्रति उनका बड़ा स्‍नेह रहा है। यह मेरा सौभाग्‍य है।
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विद्वत्ता की पर्याय

श्रीमती साधना उपाध्याय

SADHNA UPADHYAY.jpgसंस्थापक - ‘त्रिवेणी परिषद’, अध्यक्ष - ‘संगीत संकल्प’ कवि, कथाकार, व्यंग्यकार, संगीतज्ञ, समाजसेवी।
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               डॉ. इला घोष को मैंने पहली बार डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव के शोधग्रन्थ-उत्सव में देखा व सुना था और उसी समय उनके ज्ञान की विस्तृत परिधि का बोध हो गया था। उसके बाद हृदयशाह समारोह की योजना में कई बार उनके साथ मंडला का प्रवास किया। बस, फिर क्या था ? वही स्थिति होती गई कि ज्यों ज्यों भीगे कांवरि ....... विषयान्तर के रूप में यह सत्य स्वीकार कर रही हूँ कि संस्कृत भाषा से मैं बिलकुल अपरिचित हूँ। जो थोड़ा-बहुत विद्यालय के कालिदास-समारोह के लिये काम किया, वह हिन्दी अनुवाद पढ़कर; इसलिये संस्कृतज्ञाता मेरे लिये एक उच्च विशिष्ट स्थान रखते हैं। इला जी भी मानस-पटल पर वहीं स्थापित हैं।

               इला जी अद्भुत वक्ता हैं। किसी भी सामाजिक, साहित्यिक, शैक्षणिक समारोह में चाहे वे पूर्व आमंत्रित पद पर हों अथवा अनायास रूप से प्रतिष्ठित कर दी जाएँ, उनका वक्तव्य विषय के अनुरूप पूर्ण निष्ठामय होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि आयोजक के आकस्मिक आह्वान को वे उसी गरिमा से निभाती हैं, जो उस पद के अनुकूल होती हो। इला जी में गज़ब की स्मरणशक्ति है। अपने व्याख्यानों में वे इतने पौराणिक-ऐतिहासिक उदाहरण देती हैं कि सुन कर आश्चर्य होता है। बंगभाषी इला जी देवभाषा के बाद राष्ट्रभाषा की भी साधिका हैं। हिन्दी में उनकी कृतियाँ सिर्फ़ प्रकाशित ही नहीं हुईं, नगर और नगर से बाहर पुरस्कृत भी हुई हैं।

               एक शासकीय उच्च प्रशासनिक पद का निर्वहन करने पर भी इला जी में अहं का नाम मात्र भी नहीं है। उनके सहज, सरल, निरभिमानी व्यक्तित्व का एक उदाहरण पर्याप्त है। जब वे मुझ पर एक कविता लिख कर लाईं, एक कार्यक्रम में उसे पढ़ना चाहा और मेरी धृष्टता कि मैंने मना कर दिया, जिसे उन्होंने हँस कर स्वीकार भी कर लिया। उम्र में इला जी मुझसे छोटी हैं, फिर भी मैं उनकी विद्वत्ता को नमन करते हुए उनकी उत्तरोत्तर प्रगति की कामना करती हूँ।
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ऋषिका कल्‍प आचार्या डॉ. इला घोष

डॉ. संतोष पण्‍ड्या 

ae42c229-4c2d-4660-bf5c-0a0cb6f024b7.jpgसहायक निदेशक, कालिदास अकादेमी, उज्‍जैन।
               समग्र भारतीय चिन्‍तन और जीवन पद्धति अपनी मूल प्रेरणा वेदों से ही प्राप्‍त करती है। परम सम्‍मान्‍या वेद ऋषिका जैसी आचार्या डॉ. इला घोष का विदग्ध वैदुष्‍य वैदिक वाङ्मय से प्रारम्‍भ होकर लोक तक अविच्छिन्‍न भाव से प्रकाशित हो रहा है, धाराप्रवाह वाग्मि‍ता, प्रसन्‍नवदना वाणी एवं श्रेष्‍ठ व्‍यक्तित्त्व से विभूषित आपकी ऐहिक जीवन यात्रा है। आपका वैदुष्‍य, चिन्‍तन एवं लेखन उत्तरजों के लिये आदर्श तथा अनुकरणीय है। आप वेद एवं संस्‍कृत की समाराधना से हमारी महनीय संस्‍कृति की ही अप्रत्यक्ष रूप से समाराधना कर रही हैं। आपने वैदिक साहित्‍य पर केन्द्रित अनेक ग्रन्‍थों का लेखन किया है जो विद्वद्वर्ग में अभिनन्दित हुए हैं।

               व्‍यक्तित्‍व निर्माण द्वारा राष्‍ट्रनिर्माण सदा से ही उन्‍नत राष्‍ट्रों का लक्ष्‍य रहा है। व्‍यक्तित्‍व विकास की सर्वाङ्गपूर्ण वैदिक दृष्टि ही एक उत्‍कृष्‍ट मानव और उत्‍कृष्‍ट राज्‍य का निर्माण कर सकती है। ''व्‍यक्तित्‍व विकास में वैदिक वाङ्मय का योगदान'' शीर्षक ग्रन्‍थ में डॉ. इला घोष ने समग्र दृष्टि से वैदिक वाङ्मय के उन समस्‍त आयामों का संग्रह किया है जो सहजता से सुलभ नहीं थे। आप इस ग्रन्‍थ में लिखती हैं कि- गर्भ में भ्रूणवस्‍था से लेकर मृत्‍यु पर्यन्‍त व्‍यक्तित्‍व निर्माण की एक लम्‍बी एवं परिवर्तनशील प्रक्रिया है। भारतीय दृष्टि इसे ''अन्‍नमय कोश, आनन्‍दमय कोश'' तक की बहुआयामी सुदीर्घ यात्रा मानती है। वेद कहता है-

अविद्यया मृत्‍युं तीर्त्‍वा विद्ययाऽमृतमश्‍नुते।

               अर्थात् अविद्यारूपी मृत्‍यु को पार कर विद्या अथवा व्‍यक्तित्व विकास का अमृत पान करें।

               डॉ. घोष भारतीय विद्वत्‍परम्‍परा की सारस्‍वत श्रृङ्खला में अधिष्ठित हैं। वै‍दुष्‍य के साथ सरलता, माधुरवाणी और अहङ्कारराहित्‍य आपके सम्‍पर्क में आने वाले किसी भी व्‍यक्ति को प्रभावित करता है, प्रेरणा देता है। हमारी वैदिक परम्‍परा ने ऐसे प्रातिभ व्‍यक्तित्व को ''शतं जीव शरदो वर्धमान:'' से अभिषिंचित किया है। कालिदास संस्‍कृत अकादमी, उज्‍जैन एवं विक्रम विश्‍वविद्यालय, उज्‍जैन से डॉ. घोष का आत्‍मीय सम्‍बन्‍ध रहा है। वे अनेक वर्षों से विविध अवसरों पर अकादमी एवं विश्‍वविद्यालय का आतिथ्‍य स्‍वीकार करते हुए उज्‍जैन तथा अन्‍य स्‍थानों पर अपनी सारस्‍वत उपस्थिति अङ्कि‍त करती रही हैं। मध्‍यप्रदेश शासन के संस्कृति विभाग द्वारा संस्कृत के श्रेष्‍ठ लेखन के क्षेत्र में दिये जाने वाले सम्‍मान के लिये सन् २०११-२०१२ की अवधि में प्रकाशित आपके ग्रन्‍थ ''वैदिक संस्‍कृति संरचना'' को भोज पुरस्‍कार से पुरस्‍कृत करते हुये आपको सम्‍मानित किया गया है। यह मध्‍यप्रदेश के संस्‍कृत जगत् की विशिष्‍ट उपलब्धि है।

               वेद के साथ साथ साहित्‍य, दर्शन आदि समस्‍त विधाओं में आपकी लेखनी अविरल चलती रही है। नाट्यलेखन कल्‍पनाशक्ति का यत्‍नसाध्‍य उपक्रम है। विगत वर्ष कविराज राजशेखर के साहित्‍य पर केन्द्रित नाटक का लेखन आपने किया है जो काव्‍यशास्‍त्राचार्य राजशेखर के प्रति एक श्रद्धांजलि है। डॉ. इला घोष का सारस्‍वत अवदान यावज्‍जीवन अप्रतिहत गति से प्रवहमान रहे, वे संस्‍कृत और संस्‍कृति के संरक्षण संवर्धन याग में ज्ञानरूपी समिधाओं की आहुति देते रहें जिससे भविष्‍य की शताब्दियों तक अध्‍यवसायियों के लिये मार्गदर्शन हो सके, ऐसी प्रार्थना भगवान् महाकालेश्‍वर से करते हुए कविकुलगुरु कालिदास के शब्‍दों में शुभाशंसा करता हूँ-

प्रवर्ततां प्रकृतिहिताय पार्थिव: सरस्‍वती श्रुतिमहती महीयताम्।
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आदर्श प्राचार्य: डॉ. इला घोष
डॉ. कृष्णचन्द्र पाण्डेय

KRISHNA CHANDRA PANDEY.jpgसेवानिवृत्त प्राचार्य, शासकीय कन्या महाविद्यालय, सिवनी, (म. प्र.)।
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               राष्ट्रीय राजमार्ग क्रमांक ०७ पर जबलपुर-नागपुर के मध्य, पावन वेणुगंगा (वर्तमान बैनगंगा) नदी के तट पर बसे हुए सिवनी ज़िले में, सिवनी नगर से लगभग ०६ किलोमीटर दूर, निसर्ग की सुरम्य गोद में, १४ एकड़ के विशाल परिसर में अवस्थित शासकीय कन्या महाविद्यालय की वर्तमान प्राचार्या हैं - डॉ. श्रीमती इला घोष। भीड़ में खो जाने वाला एक साधारण-सा चेहरा किन्तु भीड़ से सर्वथा अलग एक व्यक्तित्व। उनसे मेरा प्रथम परिचय एक दूरभाष के माध्यम से सितम्बर २००१ में हुआ, ''आदरणीय सर! शिक्षक दिवस के अवसर पर हमने महाविद्यालय के सेवानिवृत्त प्राचार्यों के सम्मान का निश्चय किया है। हमें और हमारी छात्राओं को गुरुजनों का आशीर्वाद और मार्गदर्शन चाहिए।'' स्वर में इतनी विनम्रता और आत्मीयता थी कि मैं उनके इस अन्तरंग आमंत्रण की उपेक्षा न कर सका। और उनसे अपरिचित होता हुआ भी ५ सितम्बर को महाविद्यालय में उपस्थित हुआ।

               धूप-धूम की पावन गंध और आम्रपत्रों के हरित वन्दनवारों ने मुझे दूर से ही अभिभूत किया और जब मैं महाविद्यालय भवन में प्रविष्ट हुआ, तब मुझे लगा कि मैं एक पवित्र विद्या- मन्दिर में प्रवेश कर रहा हूँ। प्राचार्य कक्ष में, प्राचार्य के आसन पर विद्यमान था एक सीधा-सरल विनम्र व्यक्ति, छल-कपट और दाँव-पेंचों से दूर, जिसके पास था न तो कोई राजनैतिक संरक्षण और न ही धन-सम्पत्ति का बल। था केवल मानवीय गुणों और वेद-विद्या का सम्बल और ईश्वर पर अटूट विश्वास ....। मन में संदेह हुआ, क्या ये जटिल प्रशासनिक दायित्वों का निर्वाह कर पायेंगीं ? किन्तु जैसे-जैसे समय बीता, मैंने अनुभव किया कि वे एक आदर्श प्राचार्य हैं..... मनसा-वाचा- कर्मणा सर्वदा एक; अहर्निश संस्था के हित और प्रगति के लिये प्रयत्नशील; अहं की कहीं कोई ग्रंथि नहीं; अपने प्रयत्नों का श्रेय सर्वथा गुरुजनों और सहयोगियों को देने वाली; अति मितव्ययी और विनम्र; अभिप्रेरक और संवेदनशील ....।

               ‘विद्या विनयेन शोभते’ को मैंने उन्हीं में मूर्त होते हुए देखा था, जब जनवरी २००३ में उन्हें ‘दिल्ली संस्कृत अकादमी’ द्वारा ‘संस्कृत साहित्य में जलविज्ञान’ विषय पर अखिल भारतीय संस्कृत शोध-निबंध प्रतियोगिता में बीस हज़ार रुपये के द्वितीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया, तब उन्होंने हम लोगों के चरण-स्पर्श करते हुए कहा था, “ईश्वर की असीम कृपा, गुरुजनों के आशीर्वाद और बंधुजनों की सद्भावना से ही यह संभव हो पाया है।“ इस सबका परिणाम यह है कि ज़िला प्रशासन और मुझ जैसे सेवानिवृत्त प्राचार्य का पूर्ण सहयोग उन्हें प्राप्त हुआ है। हम सब मिल-जुलकर महाविद्यालय की प्रगति के लिये कार्य करते हैं। सिवनी ज़िले के कर्तव्यनिष्ठ ज़िलाधीश डॉ. विजय सिंह निरंजन के सहयोग से आज महाविद्यालय के पास सर्वसुविधा सम्पन्न निजी भवन, विशाल छात्रावास और अपनी बस है।

               सन १९७० में लोकसेवा आयोग की चयन सूची में प्रथम स्थान प्राप्त कर वे शासकीय नूतन कन्या महाविद्यालय, भोपाल में संस्कृत व्याख्याता के पद पर पदस्थ हुईं थीं। अपनी कर्तव्यनिष्ठा और विद्या-बुद्धि के बल पर उन्होंने तत्कालीन प्राचार्य श्रीमती राजू को ही प्रसन्न नहीं किया था, अपितु अपनी प्रतिभाशालिनी छात्राओं, सचिव-तनयाओं और मंत्री-कन्याओं को भी मुग्ध किया था। नलिनी पाठक (वर्तमान में शासकीय महाविद्यालय, इन्दौर में प्राध्यापक) कहती हैं -“दो वर्ष बाद जब मैडम घोष का स्थानान्तरण शासकीय महाकोशल महाविद्यालय, जबलपुर में हुआ, तब बिदाई के अवसर पर गुरु-शिष्य की आँखों से आँसुओं की झड़ी रुकती ही न थी .... जबलपुर जाने के बाद भी वे अपने पत्रों के माध्यम से हमें मार्गदर्शन देती रहीं। वह उनकी ही अभिप्रेरणा थी कि मैंने बी.ए. में टॉप किया था।“

               जबलपुर महाकोशल महाविद्यालय में उनके अध्यापन-कौशल से प्रभावित होकर कई छात्र नेताओं ने अपना विषय बदलकर संस्कृत विषय ले लिया था। अध्यापन के प्रति अभिरुचि और लगन इतनी अधिक थी कि उनके विनोदप्रिय प्राचार्य श्री एम.एम. भल्ला प्रायः कहा करते थे -“इला को यदि पढ़ाने न मिले, तो यह बीमार पड़ जाये। इसका वश चले तो रविवार को भी कॉलेज लगाए।“

               मैंने मैडम घोष में देखा था, शिष्य के योग-क्षेम के प्रति चिन्ता, कर्तव्य के प्रति निष्ठा, वाग्देवी की सतत साधना, शिष्यों के प्रति अपनी संतान से भी अधिक प्रेम .... क्योंकि वे मानती थीं कि गुरु का वंश और नाम अपने रक्त-संबंध से, अपनी संतान से नहीं चलता; अपितु विद्या और शिष्यों से चलता है।

(साभार ‘रचना’, (शिक्षक दिवस विशेषांक) २००३  म.प्र. हिन्दी ग्रंथ अकादमी, भोपाल)
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आप जैसे उदार व्‍यक्तियों से यह इला (धरती) रहने योग्‍य है

श्रीमती अन्नपूर्णा पुरोहित

IMG-20191206-WA0028.jpgसी-१४, रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय परिसर, जबलपुर (म०प्र०)
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               मेरे वैवाहिक जीवन के प्रारम्भ होने के पश्चात्, सन् १९७८ से जब मैंने जबलपुर में रहना प्रारम्भ किया, प्रो० इला घोष मेरे लिये सदैव एक सुपरिचित नाम था। कारण यह कि मेरे पूज्य पति प्रज्ञाचक्षु स्व० डॉ. मोतीलाल पुरोहित, जो कि  रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, जबलपुर के संस्कृत, पालि एवं प्राकृत विभाग में प्रवाचक थे, मैडम घोष की विद्वत्ता, संस्कृत साहित्य को उनके द्वारा प्रदत्त योगदान तथा उनकी निष्ठापूर्ण कर्तव्‍यपरायणता की चर्चा मुझसे प्रायः किया करते थे, इसलिये मैडम को मैं विशिष्ट सम्मान की दृष्टि से देखती थी। विभाग द्वारा आयोजित होने वाले कार्यक्रमों में यदा-कदा उनसे भेंट भी हो जाती थी। मैं उनके अकादमिक व्यक्तित्व से भी प्रभावित थी।

               '८० के दशक के उत्तरार्द्ध में पंचमलाल झारिया नामक एक छात्र संस्कृत में एम०ए० करने पुरोहित जी के सानिध्य में आया, जिसने अपने विनम्र स्वभाव एवं अनन्य गुरुभक्ति के द्वारा कुछ ही समय मे हमारे परिवार में एक विशेष स्थान बना लिया। पंचम ने बताया कि आर्थिक तंगी होने के कारण उसके पास कॉलेज का शुल्क जमा करने तथा जीवन-यापन के लिये पैसे नहीं थे, इसलिए माह के कुछ दिनों में श्रमिक का कार्य करना पड़ता था। जब यह बात मैडम को पता चली तो उन्होंने पंचम को कार्य करने के लिये बिल्कुल मना कर दिया और अपना ध्यान केवल अध्ययन पर केंद्रित करने कहा। उन्होंने कहा कि कॉलेज की फीस और अन्य आवश्यक व्यय वे स्वयं अपने वेतन से वहन करेंगी और उन्होंने किया भी। परिणामस्वरूप पंचम ने बी०ए० प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण किया और बाद एम०ए०, पीएच०डी० भी की। वही पंचम, आज डॉ० पी० एल० झारिया के रूप में शासकीय रानी दुर्गावती स्नातकोत्तर महाविद्यालय, मण्डला के संस्कृत विभाग के विभागाध्यक्ष के दायित्वों का निर्वहन कर रहे हैं और अपने जीवन-निर्माण का श्रेय मैडम को देते हैं।  मैडम के इस परोपकारी स्वरूप से मैं पूर्ण रूप से अनभिज्ञ थी, जिसे जानने के पश्चात् मेरी दृष्टि में उनका स्थान और भी ऊँचा हो गया।

               वर्ष १९९७, मेरे जीवन का सबसे कष्टप्रद समय लेकर आया, जब मेरे पति डॉ. पुरोहित, अन्तिम स्टेज के प्रॉस्टेट कैन्सर से ग्रसित हो गये। मेरे जीवन में अंधकार छा गया। परिस्थिति अत्यंत विकट थी। ऐसी परिस्थिति में मैडम एक बड़ी बहिन के रूप में मेरा साथ देने के लिये आगे आईं। पुरोहित जी को आवश्यकतानुसार उपचार हेतु डॉक्टर, हकीम, वैद्य के पास लाना-ले जाना और उससे भी बढ़कर उस परिस्थिति में मैडम ने करुणा और दृढ़ता
दोनों का परिचय देते हुए मुझे मानसिक संबल प्रदान किया, जिसे विस्मृत करना मेरी कृतघ्नता होगी। मैडम तथा हमारे अन्य शुभचिंतकों के अथक प्रयास के बाद भी दिनांक २९ मार्च १९९९ को पुरोहित जी का गोलोक गमन हो गया। मात्र ३८ वर्ष की आयु में वैधव्य को प्राप्त करने के बाद, मैं अपने चार बच्चों, जिसमें से तीन बाल्यावस्था में थे और एक किशोर, उनके साथ अपने गृहनगर फलौदी जिला जोधपुर राजस्थान से १५०० किमी दूर परदेश में रहना, यह मेरे माता-पिता तथा ससुराल के अन्य परिजनों के लिये अत्यंत चिंतनीय विषय था और मेरे लिये अत्यंत चुनौतीपूर्ण। ऐसी विकट स्थिति में एक बार फिर मैडम ने मेरा हाथ थामा और मुझे समझाया कि क्यों मेरा जबलपुर में रहना बच्चों की शिक्षा तथा उज्जवल भविष्य के लिये आवश्यक है। मुझे संबल प्रदान करते हुए कहा कि मुझे किसी बात की चिंता करने की आवश्यकता नहीं है, “मैं हूँ न, आपके साथ”। यही कारण है कि मैंने जबलपुर में ही रहने का निर्णय लिया।

               मैडम अपनी व्यस्ततम दिनचर्या में पारिवारिक दायित्त्वों और महाकोशल कॉलेज के अकादमिक और शिक्षकीय दायित्त्वों का निर्वहन करने के बाद, लगभग प्रतिदिन मेरी कुशलक्षेम पूछने आतीं। आप हमेशा यह सुनिश्चित करतीं कि मुझे या बच्चों को कोई कष्ट तो नहीं अथवा किसी भी वस्तु की आवश्यकता तो नहीं। और यदि होती तो उसे तत्काल पूरा कर देतीं। किसी ने सच ही कहा है कि समय कैसा भी हो, वह रुकता नहीं है और मेरा कष्टप्रद समय भी शनैः-शनैः व्यतीत हो ही गया।

               मैं ईश्वर की आभारी हूँ कि २० वर्ष पश्चात् आज परिस्थिति भिन्न है। मेरे चारों बच्चे अपने पारिवारिक दायित्त्वों का कुशलतापूर्वक निर्वहन करते हुए अपने-अपने कार्यक्षेत्र में सम्मानजनक जीवन-यापन कर रहे हैं। मैं ७ बच्चों की दादी-नानी बन चुकी हूँ। जब मैं पीछे मुड़कर देखती हूँ तो सब कुछ एक कहानी जैसा लगता है और यदि मैं ये कहूँ कि इस कहानी की वास्तविक नायिका मैडम घोष हैं, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होनी चाहिए। वस्तुतः किसी भी व्यक्ति के लिये उपदेशपूर्वक परहित, परमार्थ और परोपकार की बात करना अत्यंत आसान होता है, किन्तु जब धरातल पर इनका वास्तविक क्रियान्वयन करने की बात आती है तो जिस साधना, तप और त्याग की आवश्यकता होती है, वो मैडम घोष जैसे बिरले, करुणामय और उदार व्यक्तित्व के धनी लोग ही कर सकते हैं। मैडम ने अपने जीवन में पंचम, मेरी और हम जैसे न जाने कितने निरीह लोगों की निःस्वार्थ भाव से सहायता की है। परोपकार करना आपकी जीवन शैली है जो कि प्रणम्य, वंदनीय और सर्वथा अनुकरणीय है। आपसे प्राप्त संबल और सहयोग ने मुझे सदैव समाज के अन्य ज़रूरतमंदों की यथाशक्ति सहायता हेतु प्रेरित किया है ।

               मैं तो मात्र प्राथमिक शिक्षित हूँ। भला मुझमें इतनी सामर्थ्‍य कहाँ कि मैं आप जैसी संस्कृत साहित्य की उच्चस्तरीय  विदुषी की विद्वत्ता तथा अकादमिक ज्ञान का आकलन कर सकूँ अथवा उस पर कोई टिप्पणी कर सकूँ किन्तु इतना अवश्य कहूँगी कि आज के सामाजिक परिवेश में मात्र आप जैसे उदार एवं परोपकारी व्यक्तियों के होने से यह इला (धरती) रहने योग्य है।
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श्रम और लगन का सुन्दर समन्वय इला दीदी

डॉ. जयश्री जोशी

JOSHI - Copy.jpgपूर्व प्राध्यापक - विभागाध्यक्ष - अर्थशास्त्र, शा. महाकोशल महाविद्यालय, जबलपुर।
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               आदरणीय इला दीदी से मेरे परिचय का माध्यम ‘संस्कृत’ विषय ही रहा है। आज से लगभग पाँच दशकों से अधिक पुरानी बात है, जब मैं स्थानीय गृहविज्ञान महाविद्यालय में बी.ए. प्रथम वर्ष की छात्रा थी और दीदी मेरी ‘सीनियर’। संस्कृत मेरा चयनित विषय था और दीदी मेरे लिए संस्कृत का ‘चलित शब्दकोश’। संस्कृत विषय से संबंधित, मेरी समस्याओं के समाधान हेतु वे सदैव, सहर्ष और सहजता से उपलब्ध होतीं। दीदी के प्रति लगाव का यही प्रमुख कारण रहा है।

               यह एक सुखद संयोग ही था कि १९७६ में जब मैं दुर्ग महाविद्यालय से स्थानान्तरित होकर महाकोशल महाविद्यालय, जबलपुर आई, तो इस महाविद्यालय में उन्हें पाया। मेरे अध्यापन का विषय अर्थशास्त्र रहा है; किन्तु मेरे मन में संस्कृत के अध्ययन की लालसा सदैव रही है। इला दीदी की भाषागत सामर्थ्‍य, मर्मज्ञता और सृजनशीलता ने मुझे बहुत प्रभावित किया। मेरे शोधकार्य की पूर्णता पर मैंने प्राक्कथन लिखा और उनसे आग्रह किया कि वे उसे एक बार देख लें। मुझे मालूम था कि उनके शब्दों से मेरी भाषा अलंकृत हो जायेगी और उन्होंने ऐसा किया भी।
आपका व्यक्तित्‍व सौम्य-सहज और प्रवृत्ति सहयोगी है। प्रखर बुद्धि और प्रतिभा की धनी उनके शोधपरक अनेक प्रकाशित ग्रंथों के सन्दर्भ में मैं क्या लिखूँ ? यह तो हाथ कंगन को आइने में देखने जैसा होगा। शिक्षा में गुणवत्ता हेतु आप सदैव प्रयत्नशील रही हैं। व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास और शाश्वत जीवन-मूल्यों पर केन्द्रित आपकी पुस्तक ‘सफलता के सूत्र’ वैदिक वाङ्मय का सुलभ और बोधगम्य विश्लेषण है। आप कर्मयोगी हैं। मैंने आपमें श्रम और लगन का सुन्दर समन्वय पाया है। आप निरन्तर ज्ञानार्जन और ज्ञान-वितरण में संलग्न रहती हैं और दूसरों को भी कर्म करने के लिए निरन्तर प्रेरित और प्रोत्साहित करती हैं।

               आप एक सफल और ओजस्वी वक्ता हैं। आपकी वाणी आपके सामर्थ्‍य की अभिव्यक्ति है। मैंने आपका औदार्य भी देखा है, जब आपने एक कन्या विद्यालय के लिए सहर्ष दान दिया। बहुमुखी प्रतिभा की धनी, लोकप्रिय, कर्तव्यनिष्ठ एवं विद्वान प्राध्यापक के रूप में आपने सुदीर्घ शासकीय सेवाएँ प्रदान कीं। आत्मप्रकाशन के इस युग में निर्लिप्त भाव से विद्यार्थियों की प्रगति एवं कल्याण के प्रति सदैव समर्पित रही हैं। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में प्रतिष्ठित आपके यशस्वी शिष्य आपकी विद्वत्ता और अध्यापकीय गरिमा के प्रतीक हैं। आपके यशस्वी व्यक्तित्व पर अपनी भावनात्मक अभिव्यक्ति प्रेषित कर रही हूँ -

जिस पथ पर बढ़े आज तक, वह पथ-ज्ञान तुम्हारा ही है,
जो भी ऊपर चढ़े आज तक, यह सोपान तुम्हारा ही है।
ज्ञान-शोध के तूफ़ानों में, हाथ पकड़कर दिया सहारा,
संघर्षों के कठिन दिनों में, याद रहेगा साथ तुम्हारा।
इन विपुल सफलताओं पर, हर बलिदान तुम्हारा ही है
जीवन की हर उपलब्घियों का, यह सम्मान तुम्हारा ही है।
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भावांजलि
बहुमुखी प्रतिभा की धनी डॉक्टर इला घोष
डॉ. साधना वर्मा
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[लेखक: डॉ. साधना वर्मा, प्राध्यापक अर्थशास्त्र विभाग, शासकीय मानकुँवर बाई कला वाणिज्य स्वशासी महिला महाविद्यालय जबलपुर। ]
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                    मस्तिष्क में सहेजी पुरानी यादें किताब के पृष्ठों पर टंकित कहानियों की तरह होती हैं। एक बार खोलकर पढ़ना-जुड़ना आरंभ करते ही घटनाओं का अटूट सिलसिला और स्मरणीय व्यक्तित्वों की छवियाँ उभरती चली आती हैं। तीन दशक से अधिक के अपने प्राध्यापकीय जीवन पर दृष्टिपात करती हूँ तो जिन व्यक्तित्वों की छवि अपने मन पर अंकित पाती हूँ उनमें उल्लेखनीय नाम है असाधारण व्यक्तित्व-कृतित्व की धनी डॉक्टर इला घोष जी का। वर्ष १९८५ में विवाह के पूर्व मैंने भिलाई, रायपुर तथा बिलासपुर के विविध महाविद्यालयों में अध्यापन कार्य किया था। विवाह के पश्चात पहले १९८६ में शासकीय तिलक महाविद्यालय कटनी और फिर १९८७ में शासकीय महाकौशल महाविद्यालय जबलपुर में मेरी पदस्थापना हुई। शासकीय महाकौशल महाविद्यालय जबलपुर में पदभार ग्रहण करते समय मेरे मन में बहुत उथल-पुथल थी। बिलासपुर और कटनी के महाविद्यालय अपेक्षाकृत छोटे और कम विद्यार्थियों की कक्षाओं वाले थे। शासकीय महाकौशल महाविद्यालय में प्रथम प्रवेश करते समय यही सोच रही थी कि मैं यहाँ शिक्षण विभाग में पदस्थ वरिष्ठ और विद्वान प्राध्यापकों के मध्य तालमेल बैठा सकूँगी या नहीं? 

                    सौभाग्य से महाविद्यालय में प्रवेश करते ही कुछ सहज-सरल और आत्मीय व्यक्तित्वों से साक्षात हुआ। डॉ. इला घोष, डॉ. सुभद्रा पांडे, डॉ. गीता श्रीवास्तव, डॉ. चित्रा चतुर्वेदी आदि ने बहुत आत्मीयता के साथ मुझ नवागंतुक का स्वागत किया। कुछ ही समय में अपरिचय की खाई पट गई और हम अदृश्य मैत्री सूत्र में बँधकर एक दूसरे के सुख-दुख के साथी बन गए। महाविद्यालय में विविध दायित्वों का निर्वहन करते समय एक-दूसरे के परामर्श और सहयोग की आवश्यकता होती ही है। इला जी अपने आकर्षक व्यक्तित्व, मंद मुस्कान, मधुर वाणी, सात्विक खान-पान, सादगीपूर्ण रहन-सहन तथा अपनत्व से पूरे वातावरण को सुवासित बनाए रखती थी। संस्कृत भाषा व साहित्य की गंभीर अध्येता, विदुषी व वरिष्ठ प्राध्यापक तथा नवोन्मेषी शोधकर्त्री होते हुए भी उनके व्यवहार में कहीं भी घमंड नहीं झलकता था। वे अपने से कनिष्ठों के साथ बहुत सहज, सरल, मधुर एवं आत्मीयतापूर्ण व्यवहार करती थीं। 

                    कुशल प्रशासक, अनुशासित प्राध्यापक एवं दक्ष विभागाध्यक्ष के रूप से कार्य करने में उनका सानी नहीं है। महाविद्यालय में विद्यार्थियों को प्रवेश देते समय, छात्रसंघ के चुनावों के समय, स्नेह सम्मेलन अथवा अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रमों, मासिक, षडमात्रिक व वार्षिक परीक्षाओं के कार्य संपादित कराते समय कनिष्ठ प्राध्यापक कभी-कभी असहजता या उलझन अनुभव करते थे किंतु इला जी ऐसे अवसरों पर हर एक के साथ तालमेल बैठते हुए, सबको शांत रखते हुए व्यवस्थित तरीके से काम करने में सहायक होती थीं। मैंने उनका यह गुण आत्मसात करने की कोशिश की और क्रमश: वरिष्ठ होने पर अपने कनिष्ठों के साथ सहयोग करने का प्रयास करती रही हूँ। 

                    महाविद्यालयों में समाज के विभिन्न वर्गों से विद्यार्थी प्रवेश लेते हैं। संपन्न या प्रभावशाली परिवारों के छात्र वैभव प्रदर्शन कर गर्वित होते, राजनैतिक पृष्ठभूमि के विद्यार्थी नियमों की अवहेलना  कर अन्य छात्रों को प्रभवित करने की कुचेष्टा करते जबकि ग्रामीण तथा कमजोर आर्थिक परिवेश से आये छात्र अपने में सिमटे-सँकुचे रहते। प्राध्यापक सबके साथ समानता का व्यवहार करें, बाह्य तत्वों का अवांछित हस्तक्षेप रोकें तो कठिनाइयों और जटिलताओं से सामना करना होता है। ऐसी दुरूह परिस्थितियों में इलाजी मातृत्व भाव से पूरी तरह शांत रहकर, सभी को शांत रहने की प्रेरणा देती। उनका सुरुचिपूर्ण पहनावा, गरिमामय व्यवहार, संतुलित-संयमित वार्तालाप उच्छृंखल तत्वों को बिना कुछ कहे हतोत्साहित करता। अन्य प्राध्यापक भी तदनुसार स्थिति को नियंत्रित करने का प्रयास करते और महाविद्यालय का वातावरण सौहार्द्रपूर्ण बना रहता। 
     
                    अपनी कुशलता और निपुणता के बल पर यथासमय पदोन्नत होकर इलाजी ने शासकीय महाविद्यालय कटनी, स्लीमनाबाद, दमोह, जुन्नारदेव आदि में प्राचार्य के पद पर कुशलतापूर्वक कार्य करते हुए मापदंड इतने ऊपर उठा दिए जिनका पालन करना उनके पश्चातवर्तियों के लिए कठिन हो गया। आज भी उन सब महाविद्यालयों में इला जी को सादर स्मरण किया जाता है। उनके कार्यकाल में महाविद्यालयों में निरन्तर नई परियोजनाएँ बनीं, भवनों का निर्माण हुआ, नए विभाग खुले और परीक्षा परिणामों में सुधार हुआ। संयोगवश मेरे पति इंजी. संजीव वर्मा, संभागीय परियोजना अभियंता के पद पर छिंदवाड़ा में पदस्थ हुए। उनके कार्यक्षेत्र में जुन्नारदेव महाविद्यालय भी था जहाँ उन्होंने छात्रावास भवन निर्माण का कार्य आरंभ कराया था। कार्य संपादन के समय उनके संपर्क में आये तत्कालीन प्राध्यापकों और प्राचार्य ने इलाजी को सम्मान सहित स्मरण करते हुए उनके कार्य की प्रशंसा की जबकि इलाजी तब सेवा निवृत्त हो चुकी थीं। यही अनुभव मुझे जुन्नारदेव में बाह्य परीक्षक के रूप में कार्य करते समय हुआ।    

                    किसी कार्यक्रम की पूर्व तैयारी करने में इला जी जिस कुशलता, गहन चिंतन के साथ सहभागिता करती हैं, वह अपनी मसाल आप है। हरि अनंत हरि कथा अनंता....  इला जी के समस्त गुणों और प्रसंगों की चर्चा करने में स्थानाभाव बाधक है। ऐसी बहुमुखी प्रतिभा, इतना ज्ञान, इतनी विनम्रता, संस्कृत हिंदी बांग्ला और अंग्रेजी की जानकारी, प्राचीन साहित्य का गहन अध्ययन और उसे वर्तमान परिवेश व परिस्थितियों के अनुकूल ढालकर नवीन रचनाओं की रचना करना सहज कार्य नहीं है। इला जी एक साथ बहुत सी दिशाओं में जितनी सहजता, सरलता और कर्मठता के साथ गतिशील रहती हैं वह आज के समय में दुर्लभ है। सेवा निवृत्ति के पश्चात् जहाँ अधिकांश जन अपन में सिमटकर शिकायत पुस्तिका बन जाते हैं वहाँ इला जी समाजोपयोगी गतिविधियों में निरंतर संलग्न हैं। उनकी कृतियाँ उनके परिश्रम और प्रतिभा की साक्षी है। मैं ईश्वर से प्रार्थना करती हूँ कि इलाजी शतायु हों और हिंदी साहित्य को अपनी अनमोल रत्नों से समृद्ध और संपन्न करती रहें।



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सरस्वती-तनया: इला घोष
प्रो. डॉ. अनामिका तिवारी
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DR ANAMIKA TIWARI.jpgपौधरोग शास्त्री, कविता, गीत, नाट्य, कथा, ग़ज़ल, व्यंग्य आदि विधाओं की चर्चित साहित्यकार, संगीतज्ञ, आकाशवाणी कलाकार।

               मैंने इलाजी को २०१४ में सर्वप्रथम ‘त्रिवेणी परिषद’ के किसी कार्यक्रम में देखा और सुना। प्रथम बार ही में मुझे उनकी बोली, शैली, भाषा, विषयवस्तु सभी ने आकर्षित किया। मैंने देखा सांस्कृतिक, साहित्यिक, सामाजिक कार्यक्रमों में अतिथि की आसंदी से अपने उद्बोधनों में प्रायः वेद-पुराण के रोचक प्रसंगों के साथ ही स्त्री-महिमा का उल्लेख करतीं। क्रौंच वध पर वाल्मीकि प्रसंग और मुनि विश्वामित्र का व्यास नदी से आग्रह करना कि ‘तुम थोड़ा नीचे हो जाओ, मुझे उस पार जाना है,’ जैसे भावों को लेकर संस्कृत श्लोकों के बीच उनकी व्याख्या अद्भुत लगती। विशेषकर वैदिककाल की स्त्रियों की सहनशीलता, त्याग, तपस्या और धैर्य के साथ कर्तव्यरत रहने, उन विषम परिस्थितियों में भी अपने स्वाभिमान के साथ गरिमापूर्ण उपस्थिति बनाए रखने आदि के उल्लेख से उन स्त्रियों के प्रति न केवल आदर- सम्मान का भाव जागृत करातीं, अपितु उनके बारे में और-और जानने-पढ़ने की उत्कंठा भर देतीं।

               माता पार्वती की कठिन तपस्या और शकुन्तला की करुण गाथा से तो परिचय था, लेकिन रोमशा, लोपामुद्रा, वासवदत्ता के बारे में कुछ उनसे सुनकर और कुछ उनका खण्डकाव्य ‘महीयसी’ पढ़कर जाना। स्त्री की आंतरिक पीड़ा को बाह्य जगत् तक लाने का गुरुतर भार उनकी लेखनी ने पद्य के बंधनों के बीच सहजता से साधा है। विरोधाभास कितना ! रोमशा, जो ऋषिपुत्री है, उसका विवाह एक राजा से और लोपामुद्रा, जो राजपुत्री है, उसका विवाह एक ऋषि से होता है। रोमशा को अपने आश्रम की न्यूनतम सुख-सुविधा, रहन-सहन उपरान्त राजसी ठाठ-बाट की ऊँचाइयों को अपनी अस्मिता के साथ चढ़ना है। वहीं लोपामुद्रा को राजसी ठाठ-बाट उपरांत आश्रम की साफ- सफाई और कन्द-मूल भोजन की ओर उतरना है। ऋषि पति का सतत तपस्या में लीन रहना;
एक एकाकी जीवन ही जीना! वहीं वासवदत्ता का अपने पति के पुनः साम्राज्य प्राप्ति के लिए अपने को जीते-जी मृत घोषित करवाना और अपनी सौतन की दासी बनकर जीना! आज सा स्त्री विमर्श कहीं मुखर नहीं। त्याग और समर्पण का जो आदर्श इन नारियों ने स्थापित किया, उससे वे युगों-युगों के लिये हमारी आदरणीय बन गई हैं। ‘तमसा तीरे’ काव्यसंग्रह में भी अन्यान्य विषयों के साथ स्त्रीपीड़ा मुखर है। वर्तमान में बहुत ही प्रासंगिक पंक्तियाँ - ‘सत्य सनातन’ कविता से -

बनी दादी-नानी वह
बलात्कार फिर भी
इसलिए कि वह स्त्री है ?

               इसके अलावा इस संग्रह में और भी अनेक रचनाएँ हैं, जो स्त्री पीड़ा को व्यक्त करती हैं। एक किताब और ‘साहित्यवधूकाव्यपुरुषीयम्’! ये भारी-भरकम शीर्षक देखकर मुझे लगा कि पता नहीं, इसे मैं कुछ समझ भी पाऊँगी या नहीं, लेकिन, पढ़ा तो लगा साहित्य की दुविधाजनक स्थिति दूर करने, साहित्य का, साहित्यकार द्वारा, साहित्यकारों के लिये, दिशा- दर्शन ऐसा भी हुआ है। संस्कृत साहित्य के काव्य और गद्य को लेकर मतभेद की स्थिति रही। कहीं इसे एक माना गया, तो कहीं अलग-अलग रूप में देखा गया। इस असमंजसपूर्ण स्थिति को संस्कृत के प्रकांड पण्डित कविराज राजशेखर ने अपने ग्रन्थ ‘काव्य मीमांसा’ में बड़ी अद्भुत युक्ति से दूर कर दिया। उन्होंने साहित्य विद्या का ‘वधू’ और काव्य विद्या को ‘वर’ का रूप देकर दोनों विद्याओं का गंधर्व विवाह द्वारा एकीकरण किया और काव्य (पद्य) और साहित्य (गद्य) के अन्तर्भेद को समाप्त किया।

               कविराज राजशेखर के इस कथ्य को संस्कृत के साथ ही हिन्दी में भी नाट्यरूप में प्रस्तुत करते हुये आपने संस्कृत कथानकों के हिन्दी जगत् में प्रचार-प्रसार का सराहनीय कार्य किया है। इस नाटिका में रोचक प्रसंगों के साथ नायक सारस्वत की खोज में नायिका औमेयी और स्नातकों का विभिन्न प्रदेशों में भ्रमण में वहाँ के नर-नारियों के जीवन, रूप-रंग, वस्त्र विन्यास, श्रृंगार, गान का भी बखूबी वर्णन उन्होंने किया है। वैसे इला जी के लेखन पर मैं कुछ कहूँ , इतना ज्ञान मुझे नहीं। हाँ, यदि मैं यहाँ पर इला जी के साथ की गई नाथद्वारा की रोमांचक यात्रा का उल्लेख न करूँ, तो उन पर मेरा ये आलेख कुछ अधूरा सा रह जाएगा।

               कुछ स्व-प्रशंसा से ही आरम्भ करती हूँ। सन २०१५ में इन्दौर से प्रकाशित पत्रिका ‘साहित्य गुंजन’ में मेरे काव्य-संग्रह ‘बूँद’ को ‘श्रीकृष्ण सरल पुरस्कार’ से सम्मानित होने का समाचार छपा था, जिसको पढ़कर नाथद्वारा से श्री श्यामप्रकाश देवपुरा जी का फोन आया कि “पत्रिका में आपके बारे में पढा़, आपका सम्मान करना चाहते हैं।“ जबलपुर से कई वरिष्ठ और कनिष्ठ साहित्यकार नाथद्वारा होकर आए थे और उनसे वहाँ के भव्य आयोजन की बहुत तारीफ़ सुन रही थी। सवाल ये था कि कोई साथ मिले तो मैं जाऊँ। सन २०१५ गया, २०१६ गया, २०१७  भी। देवपुरा जी के बराबर फोन आ रहे थे। एकाएक मुझे लगा यदि इला जी का साथ हो जाए, तो ? वो तो ज्ञान का पुलिन्दा हैं। सत्संग हो जाएगा और २०१८ में जैसे ही देवपुरा जी का फोन आया - “आप आ रही हैं ? आमंत्रणपत्र छप रहे हैं।“ मैंने कहा - "देवपुरा जी, हमारे शहर की एक परम विदुषी महिला हैं, डॉ. इला घोष। आप उन्हें भी आमंत्रित कीजिये। हम साथ में आ जाएंगे।" 

               यात्रा में इला जी के साथ मैं तो बड़ी प्रसन्न थी। कुछ प्रासंगिक और अप्रासंगिक चर्चाओंके साथ जयपुर तक का सफर पता ही नहीं चला। इला जी खाने-पीने का बहुत-सा सामान लेकर आई थीं। विशेषकर भुने मखाने भी, जो उनसे ज्यादा मैंने खाए। सफर के लिए बनाई गई मेरी करेला की पसंदीदा सब्जी उन्हें भी अच्छी लगी। जयपुर स्टेशन से हम बसस्टैण्ड गए। बस से हमें नाथद्वारा जाना था। सामान लगेज-बॉक्स में रखाकर हम बस के अन्दर घुसे। ए. सी. बस के अन्दर दोनों तरफ़ कबूतरखाने से दड़बे थे, जिसमें बैठकर सब यात्रियों ने अपने-अपने दरवाजे बंद कर लिये थे। सबसे आखिर में हमारी सीट। दिन में भी अँधेरा सा। न कोई खिड़की, न हवा। हमारा दड़बा लगेज-बॉक्स के ऊपर होने से दो सीढ़ी चढ़कर हमें उसमें प्रवेश करना था। शरीर को तोड़-मरोड़कर जब दो फुट के प्रवेशद्वार से अन्दर घुसे, तो छत इतने नीचे थी कि बैठने का सवाल ही न था। सीधे लेट जाना था।

               ओह! मेरा दम घुटने लगा। ऐसा लगा, बस रोक कर उतर जाऊँ। घबराहट में मैंने इला जी की ओर देखा। वे अपने बैग से एक किताब निकालते बड़े सामान्य भाव से बोलीं -"इसको पढ़ लेती हूँ। जबलपुर लौटकर दूसरे ही दिन इसके समीक्षा-कार्यक्रम में जाना है।" मैं उनका मुख देखती रही। मुझे वे ज्ञान का पुलिन्दा ही नहीं, शक्ति का पुलिन्दा भी लगीं। चलते-चलते गोधूलि बेला में बस एक विश्राम-स्थल पर रुकी। मुझे लगा, इला जी का एक फोटो यात्रा यादगार बतौर ले लूँ। उस समय उनके हाव-भाव और जिस हल्की मुस्कान के साथ वो कैमरे की ओर देख रही थीं, मुझे उनका सम्पूर्ण व्यक्तित्व उस समय ‘साहित्यवधूकाव्यपुरुषीयम्’ में वर्णित बंग वनिताओं का ही लग रहा था, जो एक मानव ही समझ सकता है, कैमरा नहीं।

               नाथद्वारा के भव्य साहित्यिक आयोजन, स्वागत, सम्मान उपरांत लौटते समय भी बस की कमोबेश उसी दड़बे वाली स्थिति से दो-चार होते हम नाथद्वारा से जयपुर आये। सौ- सौ बार इला जी को धन्यवाद दिया। उनके कारण ही यह यात्रा होशो-हवास में निर्विघ्न सम्पन्न हो सकी। श्री श्रीनाथ जी के दर्शन भी उन्हीं के शक्तिसंग से प्राप्त हुए; क्योंकि इसके पहले २००५ में भी उदयपुर की एक साइन्टिफ़िक कॉन्फ़ेरेन्स के दौरान नाथद्वारा जाना हुआ था, पर भीड़-भाड़ और धक्का-मुक्की देखकर मैं बाहर से ही हाथ जोड़कर लौट आई थी। इस यात्रा के कुछ समय उपरांत १६ नवम्बर २०१८ को इला जी को बतौर विशिष्ट अतिथि मैंने अपनी नाट्यपुस्तक ‘शूर्पणखा’ के विमोचन कार्यक्रम में आमंत्रित किया। उन्होंने ‘शूर्पणखा’ की आद्योपांत बड़ी सूक्ष्मता से समीक्षा की। मात्र मेरी पुस्तक या मेरे कार्यक्रम में ही नहीं, विगत छः वर्षों से मैं उनको सुनती आ रही हूँ , तो पाती हूँ , एक उद्बोधक के रूप में, एक समीक्षक के रूप में, उनका दीर्घकालीन अध्ययन, चिंतन-मनन, उनके अनुभवों का संकलन, विषयवस्तु की परख और उस सबका निचोड़ मधुरस सा छलकता है। वास्तव में वे अपने नाम अनुरूप इला याने सरस्वती ही हैं। ये हमारा सौभाग्य है कि हमें उनका सान्निध्य प्राप्त हुआ है। इला जी के सम्पूर्ण व्यक्तित्व और कृतित्व को पत्रिका के माध्यम से स्मरणीय बनाने तथा इस में आलेख के माध्यम से मुझे भी शामिल करने के लिये भाई संजीव ‘सलिल’ के प्रति साधुवाद एवं आभार!! इलाजी के निरंतर साहित्यकर्मरत शान्त, सुखी ,दीर्घ जीवन के लिये शुभकामनाएँ।
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चाँदनी 
डॉ. अपरा तिवारी 
प्राध्यापक अंग्रेजी 
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               मुझे इला घोष मैम के बारे में लिखने को कहा गया तो क्षण भर मैं समझ नहीं पायी कि उनके व्यक्तित्व को कुछ शब्दों में कैसे समेटा जा सकता है. फिर मैंने अपनी आँखें बंद कर लीं। याद आने लगे वो अनमोल पल जो उनके साथ बीते थे। जिस प्रकार मंद शीतल बयार देह को छूकर आनंदित कर जाती है उसी तरह एक एक करके वो सुहाने पल मेरे मस्तिष्क को प्रसन्नता कि अनुभूति करा गए।  बस यही तो वो अनुभूति है जिसे मुझे व्यक्त करना है, मैंने सोचा। मुझे उनके संपूर्ण व्यक्तित्व की फिक्र नहीं करनी है।  साथ में मुझे ये भी लगा कि सबकी अनुभूति अलग होती है। फिर सब मिलकर एक विशाल व्यक्तित्व को रच सकते हैं। इस एहसास के साथ मैं मैम के साथ बीते पलों को संजोने बैठ गयी। ऐसे में मुझे बड़ा सुन्दर एवं लोकप्रिय कथन अपने सामने परिलक्षित होता दिखा। वृक्ष जब फलों से लद जाता है तो उसके बोझ से स्वयं झुक जाता है। इस कथन का आशय इला घोष मैम के व्यक्तित्व का केवल पर्याय ही नहीं, वरन उन पर एकदम सटीक बैठता है। 

               मुझे याद आता है १९८३ का वो दिन जब मेरा स्थानांतरण सागर जिले के एक शासकीय महाविद्यालय से शासकीय महाकोशल महाविद्यालय, जबलपुर हुआ था। विद्वानों का महाविद्यालय था वो। हर विषय के एक से एक विद्वान प्राध्यापक मेरे वरिष्ठ थे। उनके सानिध्य का सौभाग्य मुझे मिला था। सभी से कुछ न कुछ और कइयों से बहुत कुछ सीखने को भी मिला था मुझे।  लगभग पाँच वर्ष पढ़ाने का अनुभव था मुझे, पर यहाँ आकर ऐसा लगा, अभी तो शिक्षा की जैसे शुरुआत हुई हो। चाहे स्नातकोत्तर की कक्षा हो अथवा स्नातक की, किसी भी विषय से सम्बंधित दुविधा का हल कोई न कोई विद्वान तो कर ही देता था। साथ में था पुस्तकालय का गहरा सागर। प्रसिद्ध था यह ज्ञान का भण्डार, जिसमे डुबकी लगाना ही कठिन था, तैरने की तो छोड़िये। तो बात हो रही थी इला घोष मैम की। हुआ यूँ कि जंग छिड़ी हुई थी महाविद्यालय में, जी हाँ जंग। स्नातक पाठ्यक्रम का अभिन्न अंग है आधार पाठ्यक्रम, जिसमें तीन पर्चे होते हैं। हिंदी एवं अंग्रेजी भाषावाले तो साहित्य के अलावा अपने आधार पाठ्यक्रम भाषावाले दो पर्चे पढ़ाते ही थे।  तीसरा परचा संस्कृत वालों को दिया हुआ था, या यों कहिए, उनके मुताबिक उन पर जबरन जड़ दिया गया था। जानकारों का मानना था, क्योंकि उस पर्चे में तीन वर्षों के अंदर विद्यार्थी को, भारत कि समृद्ध संस्कृति से परिचय कराना, उसकी वैज्ञानिक मानसिकता को विकसित करना, एवं अर्थव्यवस्था एवं प्रबंधन आदि से प्रवृत्त कर उसका अनुकूल आधार बनाना था, जिस लक्ष्य की पूर्ति हेतु संस्कृत के प्राध्यापक ही उचित माध्यम एवं सहजता से उपलब्ध पाए गए, इसलिए उन्हें ही इसकी जिम्मेदारी दी गयी थी, छूटे हुए थे उर्दू एवं फारसी विभाग। कारण ! वे दो ही थे. अतः बोझ लादा नहीं जा सकता थे उन पर। संस्कृत में थे अपार, सो पढ़ा भी रहे थे वर्षों से, बड़े मनोयोग से। 

               अब किसी बहस के तहत संस्कृत विभाग की प्रशासन से गयी ठन। नहीं पढ़ाएंगे हम आधार पाठ्यक्रम का तीसरा परचा। हिंदी में भी हैं अपार, और अंग्रेज़ी में भी। क्यों सहें हम ये अन्याय? पढ़ाएं वो भी, सभी हैं विद्वान्, कहा उन्होंने ताल ठोंक कर बैठक में, और सर्व सम्मति से माना भी गया।  जब मेरे सिर पर यह 'भारी बोझ' आया, चकरा गयी मैं, ये क्या है? मैं अंग्रेजी की प्राध्यापक, क्यों पढ़ाऊँ मैं प्राचीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति? सूझ नहीं रहा था कुछ, देखा था मैंने इला घोष मैम को एक किनारे अध्ययन करते।  अन्य किसी प्रकार की समय की बर्बादी में नहीं उलझीं।  देखा था उन्हें पुस्तकालय में पुस्तकों को टटोलते, कुछ गहराई से लिखते, कुछ पढ़ते हुए। समझ में आया अपनी उलझन को सुलझाने का रास्ता।  जाना चाहिए मुझे चाँदनी के पास। पानी थी मुझे विशाल वृक्ष की छाँव. संस्कृत में इला का अर्थ पृथ्वी है.,तुर्की में इला को चाँदनी कहते हैं, हिब्रू में ओक ट्री, इसी की थी मुझे आस।  गयी मैं मैम के पास, ऐसी सहजता से मुझे पाठ्य-क्रम  का महत्व बताया, जैसे भीषण गर्मी में निर्मल शीतल जल, सूखे कंठ को तृप्त कर गया हो। पहले दिन ही सारा बोझ हो गया हल्का।  फिर क्या बात थी, जहाँ हो समस्या, वहाँ थीं मैम। अब तो आनंद आने लगा था उनसे समझने में। 

               कुछ वर्षों में मुझे उनसे और भी अधिक गहराई से विषयों को समझने का मौका मिला। मैम थीं संस्कृत साहित्य की गुणी विदुषी, थे तो हम भी साहित्य के ही पुजारी, अंतर केवल भाषा का था, जो चर्चाओं में लुप्त हो जाता था। साहित्य के मर्म में है दर्शन, भाव, रस, संस्कृति, प्रकृति, योग, इतिहास, भूगोल, प्रशासन, विज्ञान, धर्म, अर्थ, मनोविज्ञान, विधि, विभिन्न आधुनिक आलोचनाओं से उपजे वाद, और न जाने क्या क्या? इसी साहित्य की विशालता में हम कभी इसको टटोलते कभी उसको; और बह जाते इला मैम के साथ उनके द्वारा रखे हुए विचारों में या फिर समझने के प्रयास में, उनकी व्याख्या में। 

               इस सफर के उपरान्त हमारा पथ हुआ अलग।  उनके प्राचार्य बन जाने पर और अलग अलग स्थानांतरण होने पर भी हम अनेकों बार दोराहों पर मिलते रहे। वजह थी, उनका साहित्य से जुड़ाव। उनके शोध एवं रचना कार्यों के बहाने पुस्तकालय के दर्शन वे करती रहतीं और हम भी उनसे यहीं टकरा जाते। मेरे स्थानांतरण के बाद भी वे हमें हमेशा लेखन और शोध में सक्रिय रहने के लिए प्रोत्साहित करतीं। जब कभी अतिथि वक्ता के तौर से आमंत्रित किया तो अपने इसी ज्ञान के भण्डार के साथ, पूरी तैयारी से उपस्थित हो जातीं। उनके एक एक शब्द उनके गहन अध्ययन के परिचायक होते।  प्रशासक भी थीं वो बहुत अच्छी. महाविद्यालय के परीक्षा प्रकोष्ठ के कार्यों में मैंने इस बात का अनुभव किया था, अनुशासित एवं संतुलित। प्राचार्य के उनके कार्यकाल में जब पहली बार उन्होंने मुझे अपने महाविद्यालय में स्नातकोत्तर अंग्रेजी की मौखिक परीक्षक के रूप में निमंत्रित किया तो देखती क्या हूँ, मैम प्राचार्य कक्ष में ही संस्कृत के विद्यार्थियों को भी पढ़ा रही हैं और अपने प्राचार्य के उत्तरदायित्वों का भी पूरे मनोयोग से निर्वहन कर रही हैं। हैरान थी मैं, यही है उनकी प्रेरणादायी छवि। देर रात एक दिन, परीक्षा ड्यूटी के बाद जब मैं बोझिल मन से घर को प्रस्थान कर रही थी, तब स्टेशन पर हम मिले। अपनी ओर इशारा करके कहा उन्होंने, “देखो मुझे. मैं भी तो इतने वर्षों से यही कर रही हूँ, सब ठीक हो जायेगा।” कितना सहारा मिला था मुझे तब। मेरे नित्य अप-डाउन के कष्ट को भी उन्होंने सहजता से आत्मसात करने को कहा। 

               मेरी पहली पुस्तक को छपकर होने आया है एक वर्ष और दूसरी, (जो अनुवाद है) को छः माह। पर इसके विमोचन की चिंता मुझे न हो कर उन्हें थी। मैं अचंभित थी, अभी भी हूँ।  संसार में इला घोष मैम जैसे निस्वार्थ भाव से स्नेह करने वाले, हैं तो बहुत से अच्छे लोग, पर मेरे इर्द गिर्द, मेरी टोह रखने वाले जो गिनती के हैं, उनमे इला मैम भी हैं।  इस बात का एहसास था तो मुझे। आज उस एहसास को मजबूती मिली है। उसके लिए मैं केवल उनको ही नहीं वरन ईश्वर को कोटि कोटि धन्यवाद अवश्य अर्पित करना चाहूँगी।
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आत्‍मशक्ति-समन्वित प्रेरक व्‍यक्तित्‍व

डॉ. माधुरी गर्ग

MADHURI - Copy.jpgप्राध्‍यापक हिन्‍दी, शा. तिलक स्‍नातकोत्तर अग्रणी महाविद्यालय, कटनी। 
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               डॉ. इला घोष दिसम्‍बर २००५ से अप्रैल २०१३ तक हमारे महाविद्यालय में प्राचार्य पद पर सुशोभित रहीं और यहीं से सेवानिवृत्त भी हुईं। उनका कार्यकाल हम सभी के लिये एक स्‍वर्णिम काल रहा, क्‍योंकि जिस प्रकार की आत्‍मीयता, सौहार्द, अभिप्रेरण और कार्य करने के लिये तनाव-मुक्‍त वातावरण हमने, उनके समय में पाया वैसा न तो पहले कभी मिला था और न हीं उनके पश्‍चात्। उत्तम व्‍यक्तित्‍व किसी भी व्‍यक्ति का वह आभूषण है, जिससे जीवन को सजाया-सँवारा जा सकता है। व्‍यक्तित्‍व के विभिन्‍न मानकों की दृष्टियों से यदि विचार किया जाये तो डॉ. घोष का व्‍यक्तित्‍व सभी कसौटियों पर खरा उतरता है। साहित्‍य की विद्यार्थी होने के कारण उनमें सहज संवेदनशीलता और मानवीयता है। दया-माया-ममता-मधुरिमा के साथ ही कर्म के प्रति निष्‍ठा एवं समर्पण उनके व्‍यक्तित्‍व की प्रमुख विशेषता है। उनका दृढ़ विश्‍वास है कि जीवन एक  कर्म-स्‍थली है और सत्‍कर्मों से ही मनुष्‍य की पहचान होती है। ''पर दु:ख द्रवहिं संत पुनीता'' का भाव तो उनमें जैसे अन्‍त: सलिला के रूप में सतत प्रवहमान है, जो अनेक लोगों के दु:खों-कष्‍टों को दूर करने में सहायक हुआ है।

               इस संसार में सर्वत्र शक्ति का ही वर्चस्‍व है। सामान्‍यत: लोग बाह्य शक्ति के अर्जन में ही जुटे रहते हैं, किन्‍तु डॉ. घोष आंतरिक शक्तियों-मानसिक एवं आध्‍यात्मिक के संवर्धन-संरक्षण में सदैव संलग्‍न रही हैं। अपनी इन्‍हीं शक्तियों के कारण वे अपने जीवन में आने वाले संकटों एवं झंझावातों से न तो घबराती हैं और न ही विचलित होती हैं। वे कठिन से कठिन परिस्थितियों का भी डट कर सामना करती हैं, उनकी यह आत्‍मशक्ति उनके व्‍यक्तित्‍व को और भी गरिमामय बना देती है। उन्‍होंने सर्वदा सच्‍चाई का साथ दिया है, कर्तव्‍यों के प्रति ईमानदार रही हैं, अध्‍ययन-अध्‍यापन का कार्य बड़ी ही निष्‍ठा से किया है और वर्तमान समय में भी इस कार्य में समर्पित भाव से संलग्‍न हैं। अध्‍यापन उनका शौक है और इसके कारण उनकी वक्‍तृत्‍व शक्ति एवं व्‍यक्तित्‍व में निरन्‍तर निखार आया है। उनका सकारात्‍मक चिन्‍तन सर्वदा दूसरों को ऊपर उठानेवाला, उनमें ऊर्जा, आशा और उत्‍साह भरने वाला रहा है। मेरे जीवन के अत्‍यन्‍त सुखद एवं महत्त्वपूर्ण क्षण उन्‍हीं के सान्निध्‍य में व्‍यतीत हुये हैं। मैं हिन्‍दी विभाग में सामान्‍य रूप से ही अध्‍ययन-अध्‍यापन कर रही थी। उन्‍होंने मुझ में कुछ अच्‍छा करने की क्षमता देखी, मेरे अन्‍तर्निहित गुणों को पहचाना, मुझे शोधनिर्देशक बनने के लिये प्रेरित किया।

               उनकी प्रेरणा और प्रोत्‍साहन से मेरे निर्देशन में ०४ शोध छात्र पीएच.डी. की उपाधि प्राप्‍त कर चुके हैं, तथा वर्तमान में ०७ छात्र इस के लिये पंजीकृत हैं। वे प्राय: कहा करती थीं कि एक अध्‍यापक को हमेशा अध्‍ययन शील, जिज्ञासु और ज्ञान के प्रति अन्‍वेषी दृष्टि रखनी चाहिये, फलत: मैंने यू.जी.सी. की शोध परियोजना सम्‍पन्‍न की, राष्‍ट्रीय संगोष्‍ठी का आयोजन एवं ग्रन्‍थ का प्रकाशन किया। सूर्य उदय-काल में भी ताम्र वर्णी होता है और अस्‍त-काल में भी, मैंने उनमें सर्वदा यह समभाव देखा। भले ही वे आज सेवानिवृत्त हो चुकी हैं; पर उनकी अध्‍ययनशीलता, अध्‍यवसाय, सजगता और प्रभाव में कहीं कोई कमी नहीं आई है। उनकी दृढ़ इच्‍छा शक्ति से प्रेरित ''होगी जय, जय होगी ही'' ये शब्‍द हमेशा मेरे मस्तिष्‍क में गूँजते रहते हैं वे आज भी हम सब के हृदय में विराजमान हैं, अन्‍त में कहना चाहूँगी-
साथ तुम्‍हारा पाया हरदम,स्‍नेह तुम्‍हारा पाया है।
मानस की लहरों पर हरपल, तुम्‍हें उपस्थित पाया है।।
क्‍लेश-द्वेष-पीड़ा में प्रति पल,तुमने ही समझाया है।
जीवन, कर्म, धर्म का वैभव हमने तुममें पाया है।।
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आसमान पर चमकता वैदुष्‍य का नक्षत्र

प्रो. स्‍मृति शुक्‍ल,
समीक्षक, चिन्‍तक, साहित्‍य मर्मज्ञ।
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               प्रो. इला घोष संस्कृत साहित्य की मर्मज्ञ, ज्ञानराशि और वैदुष्‍य की आभा से मंडित गरिमामय व्यक्तित्व की धनी हैं। मेरा उनसे प्रथम परिचय आज से बीस बरस पूर्व किसी साहित्यिक कार्यक्रम में हुआ था। मंच पर बैठी हुई ज्ञानदीप्ति से मंडित डॉ. इला घोष के व्यक्तित्व ने मुझे प्रभावित किया और जब उनका पांडित्य से परिपूर्ण, सुन्दर, सधा हुआ वक्तव्य सुना; तब उनके प्रति आदर भाव जाग्रत हुआ; जो अब एक आत्मीय स्नेह सूत्र में बँधकर हृदय में स्थायित्व पा चुका है । डॉ. इला घोष की मनोभूमिका का निर्माण और संस्कार भारतीय संस्कृति से हुआ है। वे तैतालीस वर्षों तक उच्च शिक्षा विभाग में अपने सेवा काल में संस्कृत विभाग की प्राध्यापक फिर प्राचार्य रही हैं। अपने जीवन में डॉ. इला घोष अध्यापन के अतिरिक्त निरंतर स्वाध्याय और सृजन कर्म में रत रहीं हैं । अब तक आप संस्कृत भाषा में विपुल मात्रा में साहित्य सृजन कर चुकी हैं।

               उनकी महीयसी स्त्री केन्द्रित पाँच लम्बी कविताओं का संग्रह है जिसमें क्रमश: रोमशा, लोपामुद्रा, पार्वती, शकुन्तला और वासवदत्ता जैसी पाँच महीयसी स्त्रियों के माध्यम से संसार की सभी स्त्रियों की स्थिति, उनकी व्यथा-वेदना के साथ उनके साहस, आत्मसम्मान और विजय की कथा कही गई है। वैदिक युग की रोमशा को इला जी ने नारी-अस्मिता की प्रथम प्रवक्ता के रूप में प्रस्तुत किया है।

               मर्यादा पुरुषोत्तम राम के चरित्र को आधार बनाकर इला घोष ने ‘हुये अवतरित क्यों राम? शीर्षक से खंडकाव्य की रचना की है। नानापुराण, निगम और आगम में वर्णित रामकथा को वर्तमान संदर्भों में आधुनिक भावबोध से संपृक्त करके काव्य के समस्त उपादनों से सुसज्जित कर तत्सम शब्दों से युक्त जिस संप्रेषणीय और प्रांजल भाषा में प्रस्तुत किया है वह अद्वितीय है। राम के अवतरण का प्रयोजन स्पष्‍ट करते हुए इला घोष ने लिखा है-
राम ! हुए अवतरित क्‍यों, धरती का बोझ उठाने?
पर दु:ख-नाशन यज्ञ में, आहुति स्वयं की देने।

               इस काव्य में रावण के माध्यम से आज के भौतिकतावादी और भोगवादी जीवन की बिडम्बनाओं को प्रस्तुत किया गया है। अंत में उन्होंने प्रजापालक राम के आदर्श को प्रस्तुत करते हुए लिखा है -

आदर्श यह शासक का रखने, अवतरित हुए धरा पर राम।
बने हुतात्‍मा होकर ही, मर्यादा-पुरुषोत्‍तम राम।

               वस्तुतः डॉ. इला घोष का रचना संसार अत्यंत विस्तृत है, यह तो एक झलक है कि वे किस प्रकार समाज और राष्‍ट्र के लिये अत्यंत मूल्यपरक और प्रेरणास्पद साहित्य का सृजन कर रही हैं। वैदिक वाङ्मय के अथाह समुद्र में गहरे पैठकर उन्होंने वे बहुमूल्य रत्न निकाले हैं जो वर्तमान पीढ़ी के ज्ञानकोष को समृद्ध करते हैं । अपनी तलस्पर्शी मेधा और संवेदनात्मक ज्ञान से इला घोष ने अपने अतीत की समृद्धिशाली सांस्कृतिक विरासत को वर्तमान संदर्भों से जोड़ा है। उन के लेखन में विचार और चिंतन के वे सूत्र हैं जिनसे आज के व्यक्ति का संबंध है इसलिए उनका लेखन महज किताबी नहीं है वरन जीवन से सीधे जुड़ता है। उनकी संवेदना जितनी विस्तृत और समावेशी है उतनी ही उनकी भाषा भी। सजग, आत्मचेता, क्रियाशील, सृजनधर्मी और बुद्धिजीवी डॉ. इला घोष सदैव स्वस्थ और आनंदित रहें। जयशंकर प्रसाद की ये पंक्तियाँ उनको समर्पित हैं -

तुमुल कोलाहल कलह में
मैं हृदय की बात रे मन !
जहाँ मरु ज्वाला धधकती
चातकी कन को तरसती
उन्हीं जीवन-घाटियों की,
मैं सरस बरसात रे मन !
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वाङ्मय-शिल्पिनी- एक भाव चित्र
लेखनी के मुख से ही लेखनी की अभिव्‍यक्ति

डॉ. पूर्णिमा केलकर 
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सहा. प्रा. इ. कला संगीत विश्‍वविद्यालय खैरागढ़।

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               ''अपारे काव्‍य-संसारे कविरेक: प्रजापति:'' सर्जना-शक्ति समग्र ब्रह्माण्‍ड के कण-कण में तरङ्ग‍िणीप्रवाहवत् अनुस्‍यूत है। कृति ही सर्जक के अस्तित्‍व एवं व्‍यक्तित्‍व का अनुभव कराती है। रचना के प्रतिपद में रचनाकार प्रतिबिम्‍बत होता है। सर्जक एवं कृति का समवाय सम्‍बन्‍ध ही वाङ्मयी कीर्ति को वैश्‍व‍िक स्‍तर पर प्रसारित करता है। ऐसी कीर्ति-ज्‍योत्‍सना से अलङ्कृत, वाग्‍देवी के कृपा-प्रसाद से अभिरञ्जि‍त, काव्‍य- सुमनों से प्रफुल्लित, साक्षात् ब्रह्म-विद्यारूपिणी आचार्या इला-घोष जी की लेखनी मुक्‍त भाव से इस प्रकार स्‍वाभिव्‍यक्ति करती है- ''मैं ऐसी लेखनी हूँ, जिसे वाग्‍देवी की अधिकारिणी, बुद्धि स्‍वरूपिणी- आचार्या इला ने हस्‍तगत किया है। मैं एक ऐसी तूलिका हूँ जिसके माध्‍यम से अधिकारिणी ने कागज़-कैनवास पर शब्‍द एवं भाव-चित्र अङ्कित किये हैं। यह चित्राङ्कन एक ओर पञ्च महाभूतों के वैज्ञानिक दृष्टिकोण को ''जल-विज्ञान'' के रूप में प्रदर्शित करता है, कृषिप्रधान राष्‍ट्र की सार्थकता को सिद्ध करते हुए हरितिमा को बिखेरता हुआ ''कृषि-विज्ञान'' का परिदृश्‍य उपस्‍थि‍त करता है, वहीं अन्‍यत्र ''वैदिक ऋषिकायें'' तथा ''महीयसी'' के रूप में नारी-शक्ति की आन्‍तरिक दीप्ति को प्रकट करता हुआ एक ज्‍वलन्‍त-भावचित्र प्रस्‍तुत करता है। गार्गी, मैत्रेयी, लोपामुद्रा, विश्‍ववारा जैसी वैदिक ऋषिकाओं के चित्रण में बुद्धि, ज्ञान तथा आत्‍मविश्‍वास की त्रिवेणी दृष्टिगत होती है। ''ऋषयो मन्‍त्रद्रष्‍टार:'' यह आप्‍त-वाक्‍य आपकी लेखनी के सन्‍दर्भ में ''ऋषिका मन्‍त्रद्रष्‍ट्रय:'' के रूप में सप्रमाण सिद्ध होता है।''

               ''ऋषिकाओं की ज्ञान-वीथी से निकाल कर मुझे (लेखनी को) आचार्या ने महती नारियों के कल्‍प-वन में ''महीयसी'' के रूप में स्‍थान दिया है। मैं (लेखनी) यहाँ एक कुशल नर्तकी की भाँति नाना भावों को व्‍यक्‍त करती हूँ। जिस प्रकार नन्दिकेश्‍वर रचित ''अभिनय-दर्पण'' में रोमा‍ञ्च‍ आदि अनेक सात्विक भावों का सङ्केत प्राप्‍त होता है, उसी प्रकार मैं रोमशा के आत्‍मविश्‍वास का भाव प्रकट करती हूँ। शकुन्‍तला के स्‍वाभिमान का भाव व्‍यक्‍त करती हुई संघर्ष करती हूँ। अनुराग का भाव-चित्र उपस्‍थि‍त करती हुई वासवदत्ता के रति स्‍थायी-भाव को विभावानुभाव व्‍यभिचारी-भावों से संयुक्‍त कर शृङ्गार रस को अभिव्‍यक्‍त करती हूँ। जिस काम को शिवजी ने भस्‍म कर दिया था, उसी काम पर विजयप्राप्‍त करती हुई, विजयिनी पार्वती के उत्‍साह-स्‍थायी भाव को वीर रस में परिणत करती हूँ। मैं महीयसी की प्रत्‍येक नारी को वर्तमान सन्‍दर्भों में उपस्‍थ‍ित करती हूँ। नारी एक रूप अनेक। एक गृहिणी कान्‍तासम्मित उपदेशवत् उचित अनुचित का ध्‍यान रखती हुई वासवदत्ता के समान अनुरागिणी होकर प्रेम एवं शृङ्गार का प्रसार करती है। वही नारी अपने शिक्षकीय कार्यक्षेत्र में रोमशा वत् ज्ञानाधिकारिणी की भूमिका का निवर्हण करती है। शकुन्‍तला की तरह स्‍वाभिमानिनी हो कर अपने आत्‍मसम्‍मान को बनाये रखती है। वही नारी परिवार तथा समाज में स्‍वयं को स्‍थापित करती हुई पार्वतीवत् विजयिनी की भूमिका निभाती है। नारी जीवन के उक्‍त सोपान त्रिकालाबाधित सत्‍य को उद्घाटित करते हैं।''

               ''जब मैं (लेखनी) आचार्या इलाजी के सानिध्‍य में आयी, तब आपके सरल स्‍वभाव ने मुझे अत्‍यन्‍त प्रभावित किया। इसी सात्विकता एवं सरलता को मैंने आचार्या के लेखन (प्रतिपद) में प्रतिबिम्बित किया है। उनका यही निरागस-भाव अनायास मुझे (लेखनी को) लिखने हेतु प्रेरित करता है। .....इस वाङ्मयी-यात्रा को अब मैं (लेखनी) विराम देती हूँ।''  ऐसी अबाधित लेखनी एवं वाग्‍देवी की इस सौम्‍य लेखिका के प्रति मेरा शत-शत नमन। मेरा कवि-हृदय भी जागते हुए कहता है-

'';इयं वागर्थयोर्विद्या, सर्वत्र प्रतिभासते।
बुद्धि: स्‍थ‍िरा भवेद्यस्‍या, इला सौम्‍याभिधीयते।।''
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तपती धूप में बरगद की छाँव

डॉ. उषा भारती

34a40087-ed7e-4bc7-8a20-0afc74c28c78.jpgप्राध्‍यापक-संस्‍कृत, शा. राजमाता सिंधिया महिला महा. छिन्‍दवाड़ा।
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               सन २००१, संस्‍कृत वाक् व्‍यवहार की मौखिकी (मौ.परीक्षा) में बाह्य परीक्षक बनकर आई थीं- डॉ. इला घोष। दर्शन होते ही लगा ''यथा नाम तथा गुण'' गम्‍भीर, ममतामयी, आनन्‍दमयी, सौन्‍दर्यमयी, सहज सुलभ, और आत्‍मीयता से ओत प्रोत। मिलकर मन प्रफुल्लित हो उठा। उन्‍होंने बड़े स्‍नेह से छात्राओं से प्रश्‍न पूछे, न बोल पाने पर उत्तर बताये, भाषा की कुछ बारीकियाँ समझाईं। एक छात्रा ''खान'' आयी तो कहा ''अच्‍छा, तुम संस्‍कृत पढ़ रही हो, 'वाह! उषा! इस पर ध्‍यान देना। बहुत बड़ी बात है, इस्‍लाम को माननेवाले संस्‍कृत पढ़ रहे हैं।'' मैं उनके व्‍यक्तित्‍व से प्रभावित हुई। समय बीतता गया और आ गया २०१२ जब मैं महाकोशल कला एवं वाणिज्‍य महाविद्यालय, जबलपुर में प्राध्‍यापक पद पर नियुक्‍त हुई। संस्कृत अध्‍ययन मण्‍डल की बैठक में वे सरस्‍वती सी अवतरित हुईं और पुन: दर्शन सुलभ हुए।

               ऋग्‍वेद के अग्नि सूक्‍त में कहा गया है- ''स न: पितेव सूनवे..... हे अग्नि देवता, आप पुत्र के लिये पिता की भाँति हों।''  सच में अग्नि सूक्‍त की अग्नि जैसी, जिसमें यज्ञ भी होता है, भोजन भी पकता है, गर्मी भी मिलती है और प्रकाश भी, बिल्‍कुल वैसी ही हैं वे। इस प्रकार प्रारम्‍भ हुआ एक अविस्‍मरणीय सिलसिला; जब भी फोन करो और मैडम को आमंत्रित करो अपने ज्ञान की गंगा में अवगाहन कराने.... बिना किस भेदभाव, न नुकर के तत्‍पर।

               अन्‍तर्राष्ट्रीय सम्‍मेलन वाराणसी में मैडम के साथ जाने का सौभाग्य प्राप्‍त हुआ। बनारस हिन्‍दु विश्‍वविद्यालय में अनेक विद्वानों के दर्शन लाभ प्राप्‍त हुए। वहीं दिल्‍ली में विश्‍व वेद सम्‍मेलन में वेद किसान, कृषि, राष्‍ट्र, पर्यावरण आदि पर विचार करनेवाले अनेक विद्वानों प्राध्‍यापकों शोधार्थी छात्रों से मुलाकात हुई। दिल्‍ली के आर्य समाज- आश्रम में खीर का प्रसाद पाना, अविस्‍मरणीय है वह सब। मैडम की आत्‍मीयता, और प्रोत्‍साहन से
भरा स्‍नेह; सूखे पौधे को भी लहलहाने में सक्षम है। वे तपती धूप में बरगद की छाँव जैसी हैं। ग्‍वारीघाट,.... पुण्‍य सलिला नर्मदा की स्‍तुति- सबिन्‍दु सिन्‍धु .......... त्‍वदीय पाद पंकजं नमामि देवि नर्मदे। मुझे सर्वदा आकर्षित करती रही हैं- अभिभूत मैं.... लगा माँ द्वय से स्‍नेहसिक्‍त हूँ, माँ नर्मदा और माँ इला से।

               जबलपुर जाऊँ, राजशेखर समारोह में जाऊँ और दोनों माँओं से न मिलूँ ? असम्‍भव। एक बार पुन: मैम के साथ ग्‍वारीघाट गये। वहाँ माँ काली का विसर्जन हो रहा था और हम पहुँच गये, माँ बचपन में ही गुजर गई थीं.... लगा आज मातृहीन बालिका माँ त्रयी से मिल रही है- इन माताओं का आशीर्वाद यूँ ही आजीवन मिलता रहे इसी आशा और विश्‍वास के साथ उनके दीर्घ जीवन की कामना करती हूँ।
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सफलता का प्रतिमान
श्रीमती उमा पिल्लई


UMA PILLAI.jpgमनोवैज्ञानिक एवं परामर्शदाता, सेवानिवृत्त व्याख्याता, शा. शिक्षा मनोविज्ञान एवं संदर्शन महाविद्यालय जबलपुर।  
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                    जीवन में यदि सफल होना चाहते हैं, तो श्रीमती डॉ. इला घोष का अनुकरण करें। मैं श्रीमती घोष से बहुत प्रभावित हूँ; क्योंकि वे संस्कृत की प्रगाढ़ विदुषी हैं। मुझे संस्कृत विषय बहुत कठिन लगता है और घोष दीदी ने संस्कृत विषय में इतनी लम्बी यात्रा तय की है। हालांकि यह यात्रा अभी अधूरी है; उन्हें अभी इस मार्ग पर बहुत दूर तक जाना है। अभी स्टेशन नहीं आया है। घोष दीदी के पास जो सम्मानों और पुरस्कारों का अम्बार लगा है, उनकी योग्यताओं को देखते हुए पर्याप्त नहीं है। उन्हें और हासिल करना है। घोष दीदी का सौम्य व्यक्तित्व, मुख पर विनम्र भाव मुझे बहुत प्रभावित करता है। उनकी व्यवस्थित, शालीन, गरिमामयी वेशभूषा, भारतीय संस्कृति के रंगों के मेल का परिधान उनके व्यक्तित्व में चार चाँद लगा देता है। दीदी के सफल व्यक्तित्व में एक आकर्षण है, एक सम्मोहन है; जिसके आगे सभी नतमस्तक हैं। विशाल सभागृह में जब वे अपने वक्तव्य प्रस्तुत करती हैं, तब श्रोतासमूह अपलक उन्हें निहारते हुए मंत्रमुग्ध हो जाता हैं। यदि हम अंकुरित होना चाहते हैं, तो उनके व्यक्तित्व एवं गुणों को निहारते रहें, जैसे पौधा सूर्य की ओर निहारता है।

                    दीदी सूरज की पहली किरण से लेकर सांझ होने तक अथक परिश्रम करती हैं। सबसे बड़ी बात तो यह है कि परिवार के दायित्व को निभाते हुए परिवार के सदस्यों को कोई कमी महसूस नहीं होने देतीं; उसी तरह जैसे पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करते हुए अपनी धुरी पर घूमती है। घोष दीदी एक गोताखोर के समान हैं; जिन्होंने संस्‍कृत जैसे दुर्गम विषय रूपी समुद्र की गहराई में उतर कर न केवल अनेक रत्न खोजे हैं, अपितु मानव हृदय की अतल गहराइयों को भी जान लिया है। हम सभी सफल होना चाहते हैं। यह तभी संभव है, जब हम श्रीमती घोष दीदी के समान तप, संघर्ष और त्याग करें; दीदी के समान आत्मविश्वास से भरें; साहसी, श्रमशील, संघर्षशील, आशावादी तथा दृढ़-संकल्पित बनें। वे भारतीय जीवनमूल्यों की प्रतिमूर्ति हैं।

                    उन्होंने अपने अलौकिक चरित्र, आध्यात्मिक प्रकृति तथा अनासक्त भाव से कितने ही विद्यार्थियों को अनुशासित- सात्‍विक जीवन जीने के लिए प्रेरित किया है। मेरी आकांक्षा है कि मैं उनको महान् विभूतियों के रूप में याद रखूँ। उन्होंने सिखाया है कि लक्ष्यप्राप्ति तक रुकना नहीं है, चलते रहना है। मार्ग छुरे की धार की भाँति पैना, तीक्ष्ण और दुर्गम है। कांटों की राह पर चलकर ही हम फूलों तक पहुँच सकते हैं। ‘सफलता के सूत्र’ पुस्तक में उन्होंने कहा है -

                    ''बैठने वालों का भाग्य बैठ जाता है, खड़े रहने वालों का भाग्य खड़ा रहता है, सोने वाले का भाग्य सो जाता है, चलने वालों का भाग्य चल पड़ता है; इसलिए सफलता प्राप्त करना है, तो चलते रहना है।''

                    वस्तुतः वे एक वट-वृक्ष की भाँति हैं, जिसकी डाल पर घोंसला बनाने वाला पंछी स्वयं को सुरक्षित महसूस करता है। इस वटवृक्ष की मज़बूती और ठंडी छाया में विश्राम का सुख अकथनीय है। घोष दीदी के लिये कितना ही लिखें, कम है। ये विवरण सूर्य को दीपक दिखाने के समान है। मैं दीदी को शुभकामनाएँ देती हूँ कि वे और सम्मानों-पुरस्कारों से लादी जाएँ और मैं स्वयं को गौरवान्वित समझूँ कि मैं इतनी बड़ी हस्ती के सम्पर्क में हूँ और मुझे उनका वरद हस्त प्राप्त है।
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डॉ. इला घोष-कर्तव्यनिष्ठ सरल व्यक्तित्व

डॉ. अरुणा पाण्‍डेय


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ARUNA PANDEY.jpgसचिव- शक्ति महाकौशल, प्राचार्य- शा. महाविद्यालय मझौली, जबलपुर।

               डॉ. इला घोष से मेरा परिचय रानी दुर्गावती विश्‍वविद्यालय जबलपुर में हुआ था। तब आप शासकीय महाकोशल कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय जबलुपर में संस्कृत की प्राध्यापक थीं। मैं शासकीय श्यामसुन्दर अग्रवाल महाविद्यालय सिहोरा में प्राणी शास्त्र की सहायक प्राध्यापक थी। उनके प्रथम दर्शन से ही मेरा मन उनके प्रति श्रध्दाभाव से भर गया था। एक सौम्य शांत सरल व्यक्तित्व के साथ साथ प्रखरता और विद्वत्ता उनकी मुखाकृति में स्पष्ट दिखी थी। ऐसे व्यक्तित्व का आकर्षण ही था कि उनके बारे में जानकारी प्राप्ति की जिज्ञासा रहती थी और वह पूरी भी होती थी। इसी क्रम में यह जानकारी कि घोष मैडम अब शासकीय तिलक महाविद्यालय कटनी की प्राचार्य हैं, अब शासकीय महाविद्यालय राँझी की कमान सँभाल रही हैं, घोष मैडम सेवा निवृत्त होने वाली हैं आदि आदि। मैं प्रत्येक जानकारी इस तरही ग्रहण करती जैसे किसी बहुत घनिष्ठ की जानकारी हो। शायद चेतना की यह ऊर्जा डॉ. इला घोष तक भी पहुँची थी। तभी तो जब जब किसी भी अवसर पर उनके सामने होती तो मेरे नमस्ते कहने के पहले ही उनकी आँखों में अपनत्व और स्नेह पढ़ लेती थी। उनका यही भाव शायद सभी ने महसूस किया है।

               राष्ट्रीय संस्था शक्ति की महाकौशल इकाई से जुड़ने के बाद डॉ.घोष से मिलना अक्सर होने लगा। इसी बीच आपकी अनेकों पुस्तकें भी पढ़ीं। ''महीयसी'' पढ़ते वक्त लगा कि स्त्रियों की विशेष परिस्थितियों में; उनके अंतःतक प्रविष्ट हो उनकी पीड़ा को आपने सहोदरा सी होकर ही जाना है। आप २०१५ से २०१७ तक शक्ति महाकौशल की उपाध्यक्ष रही हैं। तब अनेकों अवसरों पर जब भी स्‍त्र‍ियों की समस्याओं एवं स्थितियों पर विचार होता, आपके उदात्त विचार कार्यक्रमों के निर्धारण में सहायक होते। २०१७ में भगिनी निवेदिता को समर्पित ''प्रमा'' के अंक में आपका आलेख ''नारी शिक्षा एवं नारी उत्थान में भगिनी निवेदिता का अवदान'' पर प्रकाशित हुआ है जिसने नारी उत्थान से जुड़ी आपकी सोच को प्रकट किया है। इस बीच आप व्यक्तित्व विकास प्रकोष्ठ के अंतर्गत आयोजित व्याख्यानों के लिए कई बार शासकीय श्यामसुन्दर अग्रवाल महाविद्यालय सिहोरा आमंत्रित की गई। आपके विचारों नें वहाँ भी छात्र-छात्राओं को लाभांवित किया।

               २०१८ से आप महाकौशल शक्ति की अध्यक्ष के रूप में कार्यरत हैं। इस कार्यकाल के दौरान आपने वृन्‍दावन में आयोजित ''नारी कुम्‍भ'' में महाकौशल शक्ति की ओर से भाग लिया। आपने मुम्बई में भगिनी निवेदिता पर आयोजित सेमीनार में पूरे भारत की शक्ति इकाईयों से उपस्थित सदस्यों को सम्बोधित किया। किसी भी व्यक्ति के विचार उसकी क्रियाओं मे परिलक्षित होते हैं। हमें उनके सरल सहज व्यक्तित्व के साथ उनकी कर्तव्यनिष्ठा को समझने का अवसर मिला है। उनके परामर्श और विचारों का लाभ लेकर नारी उन्नयन की दिशा में कदम बढ़ाने की प्रेरणा हमेशा मिलती रहे; यही कामना शक्ति महाकौशल के सदस्यों की है।
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गुरूवे नम:

ऐसी हैं मेरी शोध निर्देशक....
डॉ. माला प्‍यासी

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संप्रति - प्राध्‍यापक संस्‍कृत, शास. महाकोशल कला एवं वाणिज्‍य महाविद्यालय जबलपुर।

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               जी हाँ, मैं बात कर रही हूँ संस्‍कृत वाङ्मय की मर्मज्ञ, शोधोन्‍मुखी प्रतिभा सम्‍पन्‍न, अपने सारगर्भित व्‍याख्‍यानों की निर्झरिणी से श्रोताओं को आप्‍यायित करने वाली, पुरातन एवं नवीन काव्‍यधारा की सुधी समीक्षक, सन् १९९४, में शास. महाकोशल कला एवं वाणिज्‍य महाविद्यालय में कार्यरत संस्‍कृत की प्राध्‍यापक डॉ. इला घोष की। विभिन्‍न राष्‍ट्रीय संगोष्ठियों में नवीन उद्भावनाओं से सम्‍पन्‍न शोध पत्रों का वाचन करने वाली घोष मैडम का मैने बहुत नाम सुना था। वैसे अपने विद्यार्थी जीवन में उनके दर्शन भी किये थे परन्‍तु, उनका सान्निध्‍य नहीं मिला था। लिखने-पढ़ने की अभिरुचि मुझे अपने विद्यार्थी जीवन से ही थी परन्‍तु शोध का क ख ग भी नहीं जानती थी। सन् १९९४ में जब मैं शहडोल से स्‍थाना‍न्‍तरित होकर शास. महाकोशल महाविद्यालय आई तो बहुत प्रसन्‍न थी कि अब मुझे संस्‍कृत के अन्‍य विद्वानों के साथ-साथ मैडम घोष का भी साथ मिलेगा। कुछ समय पश्‍चात् मैंने मैडम से अपनी मंशा व्‍यक्‍त की, कि मुझे आपके निर्देशन में ही पीएच.डी. करना है। धीर-गम्‍भीर व्‍यक्तित्‍व वाली मैडम ने मना तो नहीं किया परन्‍तु स्‍वीकृति भी नहीं दी।

               अपनी धूमिल छवि से धूल की पर्त हटाने के लिये मैं अवसर मिलते ही दो-चार किताबें लेकर मैडम के पास बैठने लगी, कहते हैं कि सज्‍जन वज्र के समान कठोर और पुष्‍प के समान कोमल होते हैं। मुझे मैडम के कठोर रूप के दर्शन तो नहीं हुए (क्‍योंकि वो कठोर हैं ही नहीं) परन्‍तु सुकुमार रूप के दर्शन अवश्‍य हुए। एक दिन बड़े ही सरल और सहज ढंग से मैडम ने मेरी परीक्षा ले ही ली। राजशेखर समारोह में होने वाली शोध संगोष्‍ठी में एक शोध-पत्र लिखने के लिये उन्‍होंने मुझसे कहा। मैडम के इस छोटे से निर्देश ने जहाँ मुझे अपार खुशियाँ दीं वहीं मेरी विषय की अज्ञानता और शोध कार्य की अनुभवहीनता ने मन के एक कोने में भय भी बैठा दिया कि किस विषय पर लिखेंगे ? पर आगे क्‍या कहना, गुरु की गुरुता तो उनके साथ होती है। एक विषय देकर कुछ सहायक पुस्‍तकें पढ़ने का उन्‍होंने निर्देश दिया और कहा कि समझ कर कुछ लिखो। शास्‍त्रीय सन्‍दर्भों के साथ भिन्‍न दृष्‍टीय
व्‍याख्‍याओं से शोधपत्र तैयार हुआ। परन्‍तु समस्‍या थी कि शोधपत्र का समापन कैसे करें ?

               बस क्‍या था ! मैडम ने पूरा शोध पत्र पढ़ा और उनके द्वारा ही बोले गये चार-छह वाक्‍यों से शोध पत्र का समापन हो गया। निश्चित दिन संगोष्‍ठी में पत्र का वाचन करना था। एक अनुभवी विद्वान का भी उसी विषय पर लेख था जिस पर मैंने लिखा था। ऐसी स्थिति में मेरी घबराहट को स्‍पष्‍ट देखा जा सकता था। विघ्‍नहर्ता के समान, मैडम के वाक्‍यों ने उस दिन जो शक्ति दी तथा प्रस्‍तुति पर जो प्रशंसा मुझे मिली; संभवत: वही आज तक मुझसे लेखन का कार्य करवा रही है। उसी दिन से मेरी शोध यात्रा जो आरम्‍भ हुई वो निरन्‍तर गतिमान है। मैडम के साथ अनेकों शोध संगोष्ठियों में मैंने भारत का भ्रमण किया है। इसी बीच मैने पीएच. डी. की डिग्री भी प्राप्‍त कर ली। लगता है कि मेरे पूर्व जन्‍मों के कुछ पुण्यों का ही प्रताप है जो मुझे एक अध्‍ययनशील-मननशील एवं सृजनशील गुरु के साथ साथ एक सहज-सरल इंसान के रूप में मैडम घोष का आशीर्वाद मिला।
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गुरवे नम:
ज्ञान, कर्म और तप की त्रिवेणी: डॉ. इला घोष
डॉ. हरीराम रैदास

uncal photo.jpgप्राध्यापक एवं विभागाध्यक्ष, संस्कृत शास. हमीदिया कला एवं वा.महाविद्यालय, भोपाल।  
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''वाग्देवीं तामुपास्महे''

               मेरे जीवन के बिरवे को जिन महानुभावों नें अपनी पीयूष-पवित्र वाणी से अभिषिंचित किया है उन विभूतियों में प्रातः स्मरणीया आचार्या डॉ. इला घोष अग्रगण्य हैं। आप मेरे लिए सदैव आदर्श और प्रेरणापुंज रही हैं। आपके निश्‍छल व्यक्तित्व, मृदुल व्यवहार और करुणामयी वाणी से मैं सदैव आप्लावित व उपकृत होता रहा हूँ। महर्षि यास्क ने आचार्य शब्द के निर्वचन में लिखा है कि ''आचार्यः आचारं ग्राहयति, आचिनोति अर्थान्, आचिनोति बुद्धिम् इति वा''। अर्थात् आचार्य वह है जो अपने छात्रों को श्रेष्ठ आचरण या व्यवहार की शिक्षा देता है अथवा आचार्य उसे कहते हैं जो अपने विद्यार्थियों को शास्त्रों के श्रेष्ठ अर्थों का ज्ञान कराता है या फिर आचार्यत्व उसमें है, जो अपने छात्रों में श्रेष्ठ बुद्धि का विकास करता है। उपर्युक्त तीनों विषेशताएँ एकत्र रुप में मैंने आचार्या डॉ.इला घोष के व्यक्तित्व में सदैव देखी और अनुभव की हैं। आपने असंख्य शास्त्रों और ग्रन्थों का अध्ययन तथा पारणा की है। आपकी सूक्ष्मेक्षिका ने अनेक अन्वेषण एवं सर्जनाएँ की हैं, फिर भी आप आज भी एक अबोध शिशु की भाँति - ''जिज्ञासु'' बनी हुई हैं। इसका परिपुष्ट प्रमाण यह है कि जब भी दूरभाष पर आप चर्चा करती हैं तो केवल और केवल संस्कृत विषय के ज्ञान की ही वार्ता करती हैं। अपने भोपाल आगमन पर वे यदि पुस्तक-रूपी पाथेय लाना भूल जाती हैं; तो अपनी ज्ञान पिपासा को शांत करने के लिए हम लोगों से ''शतपथब्राह्मण'' आदि ग्रन्थ लेकर मात्र तीन दिन और रात में उसकी पारणा कर डालती हैं। 

               आपकी सरलता, सहजता तथा मितभाषिता का सुफल विद्यार्थियों में आपकी लोकप्रियता है। जिस छात्र ने भी आपकी प्रतिभा की परछाईं का स्पर्श किया है उसके लिए आप अविस्मरणीय बन गयी हैं और आपके आशीर्वाद व कृपा से अनेक छात्र अपने लक्ष्य तक पहुँचे भी हैं। आप मृदु किन्तु अनुशासित कठोर प्रशासिका भी रही हैं। जीवट और कर्मठता आपका व्रत प्रतीत होता है। संघर्षों, वेदनाओं और व्याधियों को आपने कभी अपने जीवन की बाधा नहीं बनने दिया। यही आपकी नित नूतन सफलताओं, उपलब्धियों तथा यश अर्जन का मूल हेतु प्रतीत होता है। प्रत्येक अनुरागी छात्र गुरु का अनुकरण और अनुसरण करना चाहता है, किन्तु उन्‍हें; उन जैसा सामर्थ्‍य, त्याग और समर्पण छू भी नहीं सका है। आपके व्यक्तित्व का दूसरा पहलू यह है कि आपकी प्रतिभा से समाज भी सदैव लाभान्वित होता रहता है। आपके शोधनिबन्धों और लेखो में भारतीय संस्कृति, प्राचीन ज्ञान की धरोहर तथा राष्ट्रीय चिन्तन की झलक निहित रहती है। वर्तमान शिक्षानीति और राष्ट्रीय समस्याओं की चिन्ता आपकी चिन्तनधारा में परिलक्षित होती है। 

               संस्कृत भाषा के प्रति आपका समर्पण सदैव रहा है। इस विषय का सांगोपांग अध्ययन, मनन, चिन्तन, अवधारण, आचरण और छात्रों तथा समाज में प्रचार प्रसार आपके जीवन का लक्ष्य रहा है। श्री हर्ष ने नैषध महाकाव्य में अभिव्यक्त किया है कि किस प्रकार व्यक्ति का समग्र व्यक्तित्व पूरिपूर्ण होता है। वे लिखते हैं - ''अधीतिबोधाचरणप्रचारणैः'' अर्थात् समस्त शास्त्रों का अध्ययन करने से, उसकी सम्यक् पारणा और अर्थ ज्ञान प्राप्त करने से, शास्‍त्रनिहित उपदेशों को अपने जीवन में आचरण (व्यवहार) में स्वयं लाने से और उस अधीत शास्त्रज्ञान के प्रचार प्रसार से व्यक्ति का व्यक्तित्व सम्पूर्ण कहलाता है। उक्त सभी विशेषताएँ डॉ.इला घोष मैडम के व्यक्तित्व में; हम छात्रों ने पायी हैं। मैं सभी छात्रों की ओर से उनके स्वस्थ, दीर्घ, सुखद, मंगलमय और यशस्वी जीवन की कामना करता हुआ उनके चरणों में प्रणति निवेदन करता हूँ।
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व्यक्तित्व: गुरवे नमः

‘कर्मण्येवाधिकारस्ते’ का साक्षात् निदर्शन

डॉ. पंचमलाल झारिया

PANCHAMLAL JHARIYA.jpgआचार्य एवं अध्यक्ष, संस्‍कृत पी.जी. महाविद्यालय, मण्डला (म.प्र.)।
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               बात उन दिनों की है, जब शासकीय महाकोशल महाविद्यालय, जबलपुर में अध्ययन करते हुए शिक्षा-प्राप्ति की ललक में; आने वाले व्यवधानों से हताश होकर मैं सोचने लगा था कि शायद किस्मत को यह मंजूर नहीं कि मेरे जैसा नि:स्‍व ग्रामीण बालक उच्च शिक्षा प्राप्त करे। अन्ततः आर्थिक चुनौतियों का सामना करने के लिये मैंने महीने में कुछ दिन श्रमिक का काम करना प्रारम्भ किया, जिसके कारण प्रायः कक्षा में अनुपस्थित रहने लगा।
एक दिन मैडम घोष द्वारा कड़ाई से अनुपस्थिति का कारण पूछे जाने पर मैंने उन्हें बेझिझक सत्य बात बता दी। तुरन्त उन्होंने दयार्द्र भाव से साधिकार हिदायत दी कि अब मज़दूरी का काम नहीं करना है। तब से मेरी कॉलेज-फ़ीस, किताबों आदि आवश्यकताओं की परिपूर्ति वे स्वयं करने लगीं। परिणामतः ‘स्नातक’ उपाधि, गोल्ड मैडल के साथ, मैरिट में उत्तीर्ण करते ही, शिक्षक के पद पर मेरी नौकरी भी लग गई; किन्तु मैडम को यह रास नहीं आया। उन्होंने मुझे रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग के परमवन्द्य आचार्य डॉ. पुरोहित जी (प्रज्ञाचक्षु ) को सौंपते हुए मेरा प्रवेश एम.ए. में करा दिया। कृपाल, दीनदयाल डॉ. पुरोहित जी के परिवार में मुझे ज्येष्ठ पुत्र का स्थान मिला, तो लगा कि शास्त्रों में गुरु की अनन्त महिमा का वर्णन यूँ ही नहीं किया गया है।

               ज्ञानपिपासा क्या होती है, ऋषिचर्या क्या होती है, प्रकृति की उदारता क्या होती है, यह मैंने पूज्य मैडम में साक्षात् देखा। ‘सहस्रगुणमुत्स्रष्टुमादत्ते हि रसं रविः’ (हज़ार गुना बनाकर लौटाने के लिए ही सूर्य धरती से रस अथवा जल लेता है।) की भाँति जितना उन्हें मिलता, उससे कई गुना वे वितरित करतीं। अध्यापन कार्य के अनन्तर डॉ. आर. आर. हजारी जी से व्याकरण की गुत्थियों को सुलझातीं अथवा पुस्तकालय में स्वाध्याय कर ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’ को चरितार्थ करते हुए संस्कृत सेवा में संलग्न रहतीं।

               अभावग्रस्तों की सहायता में उनकी सहचरी माननीया प्रो. सुभद्रा पाण्डेय भी कम दयालु नहीं थीं। उनके घर जाने पर वे चरण-स्पर्श को मना करतीं और स्वयं ही ख़ातिरदारी करने लगतीं। जिस प्रकार वैदिक वाङ्मय में ज्ञान का ऐतिहासिक संदर्भ सुरक्षित है, वैसे ही मेरा सम्पूर्ण अकादमिक जीवन एवं शोभन तत्त्व प्रो. घोष के कृपा-प्रसाद से सुरक्षित है। यह उन्हीं के तप का फल है कि आज मध्यप्रदेश के महाविद्यालयों में संस्कृत उपासकों की फौज ही खड़ी हो गई है। वे भारतीय विद्या की गहन-गम्भीर अध्येता, वाचिक परम्परा की परिपक्व प्रस्तोता, छात्रों और प्राध्यापकों के मध्य सदा समादरणीया रही हैं। अखिल भारतीय संगोष्ठियों एवं कार्यक्रमों में उनके प्रज्ञाप्रकर्ष शोध-आलेखों एवं उद्बोधनों से संस्कृत जगत समृद्ध एवं गौरवान्वित हो रहा है।
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गुरवे नमः

मन पर अंकित अमिट छबि
श्री राधाकृष्ण पाण्डेय

CCI12122019 - Copy - Copy (3).jpgसीनियर व्याख्याता, लिटिल वर्ल्ड हायर सेकंडरी स्कूल, जबलपुर।
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               मेरे जीवन को जिन्होंने विशेष रूप से प्रभावित किया है, उनमें प्रमुख हैं - मैडम घोष। वे शिक्षा के साथ ही संस्कारों और चरित्र-निर्माण पर विशेष बल देती थीं। वे कहती थीं - “ओजस्विनाव धीतमस्तु“ अर्थात् हमारा अध्ययन ओजस्वी होना चाहिए। प्रथम बार प्रवेश लेने वाले छात्रों को ‘सत्यकाम जाबाल’ की कथा अवश्य सुनाती थीं, जिसमें सत्यनिष्ठा, गुरु के प्रति श्रद्धा, अध्यवसाय, प्रकृति निरीक्षण और निसर्ग के सान्निध्य से शिक्षा पर ज़ोर दिया गया है। जब उन्हें विदित हुआ बाल्यावस्था में ही मेरे पिता का निधन हो गया है, तब मुझे उनसे माता का वात्सल्य और पिता का संरक्षण दोनों प्राप्त हुआ था। वे मेरे व्यक्तित्व निर्माण में उसी प्रकार जुट गई थीं, जैसे एक शिल्पकार सुन्दर मूर्ति के निर्माण में। उनका स्वप्न था कि मैं महाविद्यालय के सर्वश्रेष्ठ विद्यार्थी का पुरस्कार प्राप्त करूँ। उनकी अभिप्रेरणा और मेरे प्रयासों से वह स्वप्न साकार भी हुआ था। पाँच वर्ष बाद जब हमारा अध्ययन पूर्ण हुआ, हमें विभाग की ओर से बिदाई दी जा रही थी। हम और हमारे प्राध्यापक सभी रो रहे थे। हम विकल थे, अभी तक तो जीवन की हर छोटी-बड़ी समस्या में अपने प्राध्यापकों का मार्गदर्शन प्राप्त करते थे; अब क्या होगा ? तब मैडम ने कहा था - ''हमारे संस्कृत-पालि वाङ्मय में विदाई के दो प्रसंग बड़े ही मार्मिक हैं- एक शकुन्तला की विदाई का प्रसंग और दूसरा भगवान बुद्ध के महाप्रयाण का। भगवान बुद्ध का निर्वाण आसन्न था। उनके प्रिय शिष्य आनन्द, चरणों के समीप बैठे हुए बिलख-बिलख कर रो रहे थे, शास्ता के बिना अब कौन हमारा मार्गदर्शन करेगा ? तब तथागत ने कहा था ''आत्मदीपो भव, अपने दीपक आप बनो। आप सबको भी अपना दीपक आप बनना है।''

               उन्होंने हमें पुस्तकों से प्रेम करना सिखाया, भागते हुए समय को पकड़ना सिखाया। वे कहती थीं-''पुस्तकें ही हमारी सच्ची मित्र हैं। कोई भी ज्ञान व्यर्थ नहीं जाता। जब हम सोते हैं, तब भी काल जागता रहाता है। बीता हुआ समय कभी लौटकर नहीं आता। ज्ञान अनन्त है और जीवन क्षणिक। आपको हंस की भाँति नीर-क्षीर विवेकी बनना है। आपका अध्ययन रक्त बनकर धमनियों में प्रवाहित होना चाहिए, प्रकाश-स्तम्भ बनकर जीवन को आलोकित करना चाहिए।''
उनके श्रीचरणों में सश्रद्ध नमन।
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गुरवे नमः

अनुकरणीय जीवन
सूर्यलाल गुप्ता
वरिष्ठ व्याख्याता, सेण्ट गेब्रियल स्कूल, जबलपुर।
               ‘सादा जीवन, उच्च विचार’ को डॉ. इला घोष ने अपने जीवन में जिया है। शास्त्रों में जिस त्यागपूर्वक भोग ''तेन त्यक्तेन भुंजीथाः'' की बात की जाती है, उसे हमने घोष मैडम में मूर्त होते हुए देखा है। वे हमेशा कहती थीं - “हो सकता है, इस विद्या से तुम्हें सांसारिक वैभव और सुख-समृद्धि न मिले, जीवन की तड़क-भड़क और चमक-दमक तुम्हारे जीवन में न आ पाए; किन्तु एक अच्छे और सच्चे मनुष्य बनने का जो संतोष और परम तृप्ति है, वह तुम्हें अवश्य मिलेगी। तुम लोग अच्छे मनुष्य बनो - सहृदय, संवेदनशील, परदुःखकातर, सत्यनिष्ठ, धर्मप्राण, सत्त्वसम्पन्न मानव, इस धरती की सच्ची सन्तान ....... , और ऐसा कहते हुए वे अथर्ववेद के ‘पृथिवी सूक्त’ के मंत्र उद्धृत करने लगती थीं, जिसमें वैदिक ऋषि ने कहा है - ''माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः।'' वे कहती थीं कि यह धरती ही हमें एकता का सबसे बड़ा पाठ पढ़ाती है। भाषा और धर्म का भेद किये बिना सबका पोषण करती है -

जनं बिभ्रती बहुधा विवाचसं, नानाधर्माणं पृथिवी यथौकसम्।

               यह विश्वम्भरा है। हम ही उसे खण्ड-खण्ड में बाँटते हैं। हमारे महाविद्यालय में प्रायः छात्र-आन्दोलनों के कारण कक्षाएँ नहीं हो पाती थीं। कई छात्र बहुत दूर से आते थे। घोष मैडम उनके विषय में सोचकर अत्यंत दुःखी होती थीं। फिर वे छात्रों को लेकर समीपवर्ती किसी छात्र के घर या किसी पेड़ के नीचे अपनी कक्षा लगा लिया करती थीं। हमारे यहाँ सभी वर्गों के लड़के पढ़ते थे। कुछ इतने गरीब थे कि छुट्टियों में मजदूरी कर शिक्षा के लिये पैसे जुटाते थे। ऐसे कितने ही विद्यार्थियों की प्रवेश फीस, परीक्षा शुल्क, किताबों, गरम कपड़ों आदि की व्यवस्था मैडम स्वयं करती थीं। कौन बीमार है ? किसे दवाइयों के लिए पैसे चाहिये? कौन अस्पताल में भर्ती है ? कौन परीक्षा की तैयारी नहीं कर पाया है ? उनकी पूरी खोज-खबर रखती हुई मैडम उनके घर जाकर न केवल उनकी आर्थिक सहायता करती थीं; अपितु उन्हें परीक्षा के लिये तैयार भी करती थीं।

               एम.ए. में चालीस अंकों का सेमिनार (शोधपत्र) हुआ करता था। हम सभी विद्यार्थी चाहते थे कि मैडम घोष के निर्देशन में ही शोधपत्र तैयार करें; किंतु विभाग में छः प्राध्यापक होने के कारण संख्यात्मक दृष्टि से यह संभव नहीं था, फिर भी होता यह था कि पुस्तकालय बंद होने के बाद भी गैलरी की बेंच पर बैठी हुई मैडम घण्टों सभी के शोधपत्रों को जाँचती रहती थीं और बहुमूल्य बिन्दु सुझाती थीं। वे व्यक्तिगत रूप से प्रत्येक छात्र से शोधपत्र को प्रस्तुत करने की शैली, संस्कृत उद्धरणों के उच्चारण की पद्धति, संभावित प्रश्नों के उत्तर आदि का सतत अभ्यास करवाती थीं। श्रीमती घोष हमारा आदर्श रही हैं। आत्मश्लाघा, प्रचार-प्रसार और दिखावे से सर्वथा दूर एक सरल-सहज प्रेरक व्यक्तित्व, एक सच्ची आचार्य, जिनका जीवन हमारे लिये सचमुच ही आचरण-योग्य और अनुकरणीय रहा है।
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Ila Didi...... more than a sister

Dr. Abha Kulshreshtha

ABHA KULSHRESTAH.jpgSenior Advocate, Tees hazari Court, Delhi

               I know Ila didi for the last about 20 years. Initially she was known to my elder sister Prof. Sushma Kulshreshtha. My sister always told me that Ila ji is one of the best academicians well versed with Shastras and has deep insight and vision. Many times Ila didi came to our house and apart from academic discussions,  we used to enjoy time in various ways as food , music and other discussions.

               My father was very fond of baigan bhaja and the moment pitaji learnt that Ila didi is coming to Delhi , he would bring a big fat baigan and put it on the  dining table before Ila didi came. Ila didi is down to earth inspite of the fact that she has been awarded various prestigious honours by various Governmental Institutions.  Ila didi is so simple that she will never accept any praise though she is worthy of the same. She is the President of Kalidasa Academy of Sanskrit Music and Fine Arts, Delhi. When didi delivers keynote address on Kalidasa or any other theme, the audience is spellbound. Scholars have great regard for didi.

               After pitajis and my sister's demise , didi and jijaji have given me comfort of my family. I never feel alone. Every Sunday didi will call me to find out my well being and I always feel that Ila didi is more than a sister to me who has always showered her love , affection and blessings on me. I had been to didis house at Jabalpur for few days and didi did not allow me to do any work and did everything on her own and i enjoyed variety of food prepared by didi.

               I pray to Almighty tobless didi and jijaji  with good health. I salute such adear sister.
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A Tireless Culture of research

- Dr. Chitra Prabhat

7db80b5e-639e-41e1-b123-cae6daf0b039 - Copy.jpgProfessor, Political Science, P.G. College Katni
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               Dr. Ila Ghosh the retired PG Principal of Govt. Tilak P.G. college Katni is a renowned Professor in Sanskrit Literature. She has rich experiences in publication of Authored books research papers and Articles. I had the fortune of being associated with her..I got the opportunity of learning from her in almost every sphere of my activity like administration Academic and research field. As an administrator there were a lots of turning points. She used not only her great knowledge but her extrem patience in resolving the problems which came across during her administration. Her deep knowledge in Sanskrit and her ability to bring out the value education through Vedas and Upnishad is a remarkable contribution not only to in Higher education but personality development as well. At present Dr. Ila Ghosh is evolving a tireless culture of research and academics through her journey through the self. I wish all the bests. 

उल्टी पड़ी है कश्तियाँ रेत पर मेरी,
कोई ले गया है दिल से समंदर निकाल कर..

               I felt it during her posting when she was transfered to OFK khamaria college Jabalpur.
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My Didun

Ananya Dutta

ANANYA.jpg               My Grandmother, my Nani is my Didun. She is intelligent. She is generous, caring and loving. When we lived in Kota, (now in Kolkata), we used to collect pictures of animals, fishes, houses etc out of my old books, cut them slowly slowly and stick them on cereal boxes. We made an ocean with different types of fishes and mammals. We made a beach forest and a house with terrace garden etc. She does not leave a job till it is complete.

               When I was seven years old, I went to Jabalpur to spend my summer vacation in my Didun's house. We collected raw mangoes and different types of leaves which I used to dip in paint and creat paintings. We also plucked guavas and flowers from her garden. She makes delicious food and whenever I go to her house, she makes my favourite food, not my mother's. I like spending time with her. She is the most favourite person of mine.
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Glimpses of my mother

Ishan Ghose

ISHAN BHAIYA.jpg               My earliest memory of my mother’s working-life was to see her riding amoped over 20 kms. every day; to and back from Mahakoshal college from our house in Ganganagar, Garha.

               The first idea of her literary prowess came to my attention when we travelled across Madhya Pradesh, as a family to attend her various seminars, as part of the ‘Sanskrit academy samaroh’, wherein she and many other literary figures from across the state would present their papers. I found it quite interesting, even entertaining at times, even if I was too young to understand the themes in depth. As a family, we did travel quite a bit. I remember us going to Pune to visit her, where she was doing a refresher course. And I distinctly remember us all going to Goa when I was 4-5 years old and having an absolute whale of a time. I also clearly remember her own personal tragedies with the passing of both her parents (my grandparents) in the same year – 1993. She had been a devoted daughter. Taking care of both her parents single-handedly, while their health deteriorated drastically.

               As a child, I found her to be a bit of a disciplinarian. Growing older, I realized that she seldom smiled and did not take too kindly to ideas and opinions that were substantially different to hers. She also seemed a bit reticent towards my seemingly more Western attitudes towards life. But in her youth, she had an acoustic guitar (which was intact till 10-12 years ago!) and had fired rifles when she was in the National Cadet Corp. Suffice to say, she couldn’t have been completely joyless!

               As I grew older still and started to attain an understanding of the world at large, I started to appreciate her as a strong willed and learned person, and ultimately as someone who never discouraged me from learning about the world in all its abstractness. I also read a few poems written by her which were remarkably touching. They beautifully captured the pain, sufferings and hope of the truly downtrodden and the disenfranchised. An upright, kind and independent woman who has done the right thing and has never asked for a quarter or a favour. Generous towards those who deserved her generosity. Strong in virtue and honest in her integrity and an unmatched work ethic. She would travel nearly 200 kms per day to go to work in her College in Katni, from Jabalpur by train, and back, while she was well into her 60s. A truly empowered woman, whom we can all learn from, and who herself never stopped learning.

               I feel very proud of being her son.
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My Super Mom

Ishita Dutta 
ISHITA DUTTA.jpg
               A small dedication to my pillar of strength, to the wind beneath my wings, .....that is my mother. Words fall short to describe the monumental woman she is. Your invaluable wisdom and advice, when we needed the most, even if we don't realize that we do. Pushing me and my brother to always try harder, to want the best of our lives and to always be strong. You are, by far, the greatest personal
influence in my life, always encouraging us to chase our dreams, always believing in me even when I have doubts.

               Your leadership attributes, I love the most. No matter, how grave the situation was, you always handled with poise and grace and overcome it holding your head high. You are the most hardworking person I have known, never giving up until the job is done right. I am inspired by the dedication and passion you put in work day in and day out, always for the betterment of the people surrounding you, sacrificing so much for us without any complaints. Your wisdom, intellect and generosity has changed the lives of so many people. You are always full of ideas, inspiring us to be creative. A magnificent poet, writer and an awesome artist you are!

               Words don't express how much of an amazing mother I think you are! You had been my best friend, my teacher and my comforter. I feel so much blessed to have a mother like you ... my strength, my inspiration and my super woman! That is my Super Mom!!!
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