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शनिवार, 16 मई 2009

लघु कथा: डॉ. किशोर काबरा,अहमदाबाद -कोयले सा तन, कोयले सा मन

रात की मटमैली रजाई अपने मुँह पर से दूर हटाकर ऊषा ने एक बात उछाली- 'ओ पापा! तन तुम्हारा कोयले से भी अधिक काला है।'
मैं जल उठ कोयले सा। कसकर एक तमाचा ऊषा के गाल पर जमा दिया। एक लाल-लाल फफोला उभर आया ऊषा के गाल पर।
वह चुप रही, पर उसकी आँखों से गिरे आँसू चीख-चीखकर कह रहे थे- 'अरे पापी! मन तुम्हारा कोयले से भी अधिक काला है।'
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1 टिप्पणी:

tuhina ने कहा…

जीवन दर्शन समेटे सशक्त लघुकथा.