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सोमवार, 27 अप्रैल 2009

एक ग़ज़ल : मनु बेतखल्लुस

आग में डूबा समंदर, नहीं तो फ़िर क्या है,
ज़ीस्त आहों का बवंडर, नहीं तो फ़िर क्या है

तू भी खोया है सनम, माज़ी की रानाईयों में,
आँख में तेरी, वो मंज़र, नहीं तो फ़िर क्या है

मौत की हर अदा, तकलीफ़-ज़दा हो शायद
ज़िन्दगी भी गमे-महशर, नहीं तो फ़िर क्या है

आज आमादा है तू क्यूँ, इसे ढहाने पे
अब मेरा दिल तेरा मन्दिर, नहीं तो फ़िर क्या है

न उजाडो, के हजारों निगाहें रो देंगी,
शज़र, परिंदों का इक घर, नहीं तो फ़िर क्या है

हर शै अरजां है, उस आतिश-निगाह के आगे
हर अदा गोया इक शरर, नहीं तो फ़िर क्या है

रविवार, 26 अप्रैल 2009

ग़ज़ल : मनु बेतखल्लुस, दिल्ली.

बेखुदी, और इंतज़ार नहीं,
छोड़ आई नज़र क़रार कहीं

तेरी रहमत है, बेपनाह मगर
अपनी किस्मत पे ऐतबार नहीं

निभे अस्सी बरस, कि चार घड़ी
रूह का जिस्म से, क़रार नहीं

सख्त दो-इक, मुकाम और गुजरें,
फ़िर तो मुश्किल, ये रह्गुजार नहीं

काश! पहले से ये गुमाँ होता,
यूँ खिजाँ आती है, बहार नहीं

अपने टोटे-नफे के राग न गा,
उनकी महफिल, तेरा बाज़ार नहीं

जांनिसारी, कहो करें कैसे,
जां कहीं, और जांनिसार कहीं