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गुरुवार, 7 फ़रवरी 2019

सामयिक कविता: बूझ पहेली

सामयिक कविता: 
बूझ पहेली
संजीव 'सलिल' 
*
हर चेहरे की अलग कहानी, अलग रंग है. 
अलग तरीका, अलग सलीका, अलग ढंग है... 
*
छोटी दाढ़ीवाला यह नेता तेजस्वी.
कम बोले करता ज्यादा है श्रमी-मनस्वी.
नष्ट प्रांत को पुनः बनाया, जन-मन जीता.
मरू-गुर्जर प्रदेश सिंचित कर दिया सुभीता.
गोली को गोली दे, हिंसा की जड़ खोदी.
कर्मवीर नेता है भैया......................?
*
डर से डरकर बैठना सही न लगती राह.
हिम्मत गजब जवान की, मुँह से निकले वाह.
घूम रहा है प्रांत-प्रांत में नाम कमाता.
गाँधी कुल का दीपक, नव पीढ़ी को भाता.
जन-मत परिवर्तन करने की लाता आँधी.
बूझो-बूझो नाम बताओ ......................
*
चचा-बाप को लगा पटकनी साइकिल पाई
नूरा-कुश्ती पिता पुत्र की जन-मन भाई
थाम विरोधी-हाथ दाँव मारा है जमकर
ठगा रह गया हाथी, चूक न जाए अवसर
संगी रहा न कमल का, इतनी बात विशेष
डिंपल-पति है तिकड़मी, कहो-कहो........
*
गोरी परदेसिन की महिमा कही न जाए.
सास और पति के पथ पर चल सत्ता पाए.
बिखर गया परिवार मगर क्या खूब सम्हाला?
देवरानी से मन न मिला यह गड़बड़ झाला.
इटली में जन्मी, भारत का ढंग ले लिया.
बहू फिरंगन भारत माँ की नाम? .........
*
चेली कांसीराम की,चतुर तेज तर्रार
दलित वर्ग को मोहती, बाकी को फटकार
करे सियासत सिया-सत तज अद्भुत स्फूर्ति
मोहित होती देखकर पार्क और निज मूर्ति
आरक्षण के नाम पर जनगण है बौराया
सत्ता की दावेदारी करती फिर ............
*
मध्य प्रदेशी जनता के मन को था भाया.
दोबारा सत्ता पाकर जो था इतराया.
जिसे लाड़ली बेटी पर आता दुलार था
व्यापम से बदनाम हुआ, आया निखार था
भोजन बाँट, बना है जन-मन का जो तारा.
जल्दी नाम बताओ वह .............  बिचारा।
*
तेजस्वी वाचाल साध्वी पथ भटकी है.
कौन बताये किस मरीचिका में अटकी है?
ढाँचा गिरा अवध में उसने नाम कमाया.
बनी मुख्य मंत्री, सत्ता सुख अधिक न भाया.
बड़बोलापन ले डूबा, अब है गुहारती.
शिव-संगिनी का नाम मिला, है ...............
*
यह नेता भैंसों को, ब्लैक बोर्ड बनवाता.
कुर्सी पड़े छोड़ना, बीबी को बैठाता.
घर में रबड़ी रही, मगर खाता था चारा.
जनता ने ठुकराया, अब तड़पे बेचारा.
मोटा-ताज़ा लगे, अँधेरे में वह भालू.
जल्द पहेली बूझो नाम बताओ........?
*
बूढ़ा शेर बैठ मुम्बई में चीख रहा था .
देश बाँटता, हाय! भतीजा दीख रहा था.
पहलवान था नहीं मुलायम दिल कठोर था.
धनपति नेता डूब गया ले, कटी डोर था.
शुगर किंग मँहगाई अब तक रोक न पाया.
रबर किंग पगड़ी बाँधे, पहचानो भाया.
*
रंग-बिरंगे नेता करते बात चटपटी.
ठगते सबके सब जनता को बात अटपटी.
लोकतंत्र को लोभतंत्र में, बदल हँस रहे.
कभी फाँसते हैं औरों को, कभी फँस रहे.
ढंग कहो, बेढंग कहो, चल रही जंग है.
हर चहरे की अलग कहानी, अलग रंग है.
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७.२.१०१७ 
भगवा कमल चढ़ा, सत्ता पर जिसको लेकर 
गया पाक बस में, आया था असफल होकर. 
भाषण लच्छेदार सुनाए, कविता गाए. 
धोती कुरता गमछा धारे, सबको भाए. 
बरस-बरस उसकी छवि, हमने विहँस निहारी. 
ताली पीटो, नाम बताओ-...........
७.२.२०१० 

बुधवार, 3 अक्टूबर 2012

सामयिक कविता टूट रही हैं मर्यादाएं... संजीव सलिल'

प्रति रचना:
सामयिक कविता 
टूट रही हैं मर्यादाएं...

 

संजीव सलिल'
*

टूट रही हैं मर्यादाएं, काल-पात्र में पात्र पड़े हैं,
वर्तमान के अभिशापों में, काल-पुरुष के पाँव गड़े हैं.

*
महाकाल के पूजक हम, भगवान भरोसे जीते आये.
धृतराष्ट्रों का करें अनुकरण, आँखोंवाले हुए पराये.
 
सत्य वही जो प्रिय लगता है, प्रिय वह जिससे हित सधता है-
अप्रिय सत्य जो कह दे, ऐसे अपने भी हो गये पराये.
द्रोण बने आदर्श, लिये जो द्रोण, चाहते स्वार्थ साधना-
एकलव्य-जनमत के पथ में बनकर बाधा सतत अड़े हैं.
टूट रही हैं मर्यादाएं, काल-पात्र में पात्र पड़े हैं,
वर्तमान के अभिशापों में, काल-पुरुष के पाँव गड़े हैं.

*

कथनी-करनी के अंतर को, अंतर्मन ने अपनाया है.
सीताओं को शूर्पणखा ने, कुटिल चाल चल भरमाया है.
श्रेष्ठों-ज्येष्ठों की करनी- नाजायज कर्म करे नारायण-
पाँव कब्र में लटके फिर भी, भोग हेतु मन ललचाया है.
हरि-पत्नी पुजतीं गणेश सँग, ऋद्धि-सिद्धि-हरि हुए अनसुने-
पर्व वसंतोत्सव भूले हम, वैलेंटाइन हेतु लड़े हैं.
टूट रही हैं मर्यादाएं, काल-पात्र में पात्र पड़े हैं,
वर्तमान के अभिशापों में, काल-पुरुष के पाँव गड़े हैं.

*
प्रकृति-पुत्र शोषण प्रकृति का करते, भोग्या माँ को मानें.
एकेश्वरवादी बहुदेवी-भक्तों का परिवर्तन ठानें?
करुणा-दया इष्ट है जिनका, वे ही निर्मम-क्रूर हो रहे-
जनगण के जनमत को जनप्रतिनिधि ही 'सलिल' उपेक्षित जानें.
 
परदेशी पूँजी चाहें अब, राशि स्वदेशी रख विदेश में-
दस प्रतिशत खुश नब्बे प्रतिशत दुखी फैसले व्यर्थ कड़े हैं.
टूट रही हैं मर्यादाएं, काल-पात्र में पात्र पड़े हैं,
वर्तमान के अभिशापों में, काल-पुरुष के पाँव गड़े हैं.

*

सामयिक कविता : कालचक्र -महेंद्र शर्मा.

सामयिक कविता :
कालचक्र
महेंद्र शर्मा.
*
टूट रही हैं मर्यादाएं, खंडित होते पात्र खड़े हैं,
फिर अतीत के अभिशापों में,कालपुरुष के पांव गड़े हैं...
 
राजनीति के रंगमंच पर,षड्यंत्रों के अनुष्ठान हैं,
फिर भविष्य के उद्घोषक ने, कूटनीति के मंत्र पढ़े हैं.
दशरथ के आसक्ति-जाल से,कैकयी के कोपभवन तक,
कुटिल मंथरा, के मंथन से, रामराज्य के सिंहासन तक,
लक्ष्मण-रेखा की टूटन पर, स्वर्ण-मृगी आखेट हो रहे,
उधर उर्मिला के यौवन के ,विरह-तप्त,अध्याय पड़े हैं.
टूट रही हैं मर्यादाएं, खंडित होते पात्र खड़े है...
*
प्रतिभाओं के कर्ण कैद हैं, दुर्योधन के दुराग्रहों में,
धर्मराज हो रहे पराजित,शकुनियों के द्यूत-ग्रहों में,
चीर-हरण की चर्चाओं में, भीष्म-प्रतिज्ञा बनी विवशता,
पांचाली के अधोवस्त्र तक, दुशाशन के हाथ बढ़े हैं.
टूट रही हैं मर्यादाएं, खंडित होते पात्र खड़े हैं...
*
सतयुग, द्वापर या त्रेता हो, हर युग में पाखंड रहा है,
किस अतीत पर नतमस्तक हों, हर युग में आतंक रहा है,
पृथ्वी-राजों,के प्रांगण में जयचंदों, के जयकारे हैं,
गौतम-गाँधी की गलियों में, कितने अंगुलिमाल खड़े है.
टूट रही है,मर्यादाएं,खंडित होते पात्र खड़े हैं...
*
जयद्रथों  के वंशज देते शिशुपाली शैली में भाषण,
पांडव हैं अज्ञातवास में, कौरव करते कुटिल आचरण,
सिंहासन के षड्यंत्रों से, विदुर-व्यथा,बन गयी विवशता,
कुरुक्षेत्र में केशव मानो, किकर्तव्य-विमूढ़ खड़े हैं.
टूट रही हैं मर्यादाएं,खंडित होते पात्र खड़े है...
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mahendra sharma <mks_141@yahoo.co.in>