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सोमवार, 27 अप्रैल 2009

लघुकथा : असली तीर्थ -मो. मोइनुद्दीन 'अतहर'

क्यों भैया! क्या तीरथ करने गए थे? बहुत दिनों बाद दिखाई दिए हो.

पुराने जूतों की मरम्मत करते हुए वह शांत भाव से बोला: 'नईं तो, बऊ!मोरी तकदीर मन कहाँ धरो तीरथ-बरत. बो तो पैसेवालों को काम आय.'

फिर जूते की एडी में कील ठोंकते हुए बोला- 'मोरो तो जेई तीरथ है. '

उसकी आँखों में आँसू छलछला आये थे.

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