कुल पेज दृश्य

हरिहर झा लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
हरिहर झा लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

रविवार, 29 सितंबर 2024

सितंबर २९, बुंदेली, प्रभा, मुक्तक, राम, समय, भवानी छंद, हरिहर झा, एकाग्रता, ध्यान

सलिल सृजन सितंबर २९ 

विमर्श : एकाग्रता और ध्यान
लोग एकाग्रता (Concentration) को ध्यान (Meditation) समझ लेते हैं, जबकि दोनों अलग है। अधिकांश लोग ध्यान नहीं, एकाग्रता का ही अभ्यास करते हैं। किसी संगीत को सुनना, किसी बिंदु पर मन को केंद्रित करना, किसी प्रकाश पर मन को टिकाना, ये सब एकाग्रता है, ध्यान नहीं है। योग ८ अंगों में छठवाँ अंग होता है धारणा। धारणा के अंतर्गत ही एकाग्रता आता है। उसके बाद योग का सातवाँ अंग है ध्यान।
सब तरफ से मन को हटाकर एक बिंदु पर एकत्र करन एकाग्रता है। ध्यान वह स्थिति है जहाँ मन होता ही नहीं, सिर्फ जागरूकता होती है। ध्यान में आप मन के पार चले जाते हैं। एकाग्रता का अभ्यास भी बुरा नहीं है, जिन्हें अपनी याददाश्त बढ़ानी हैं, जो बहुत ज्यादा सोचते हैं, बहुत जगह जिनका मन भटकता है उनके लिए एकाग्रता ठीक है पर एकाग्रता को ही ध्यान मान लेना गलत है।
त्राटक, मंत्र जप, नाम जप, विशेष ध्वनि, प्रतिमा, चित्र आदि पर मन को एकाग्र कर देना एकाग्रता है। आप एकाग्रता को समझना चाहते हैं तो टॉर्च की रौशनी से समझे। जैसे टॉर्च की रौशनी एक दिशा में जाती है वैसे ही एकाग्रता की एक दिशा होती है। एक दिशा में केंद्रित हो जाना, टॉर्च की लाइट के समान एकाग्रता है। कमरे में लगा बल्ब है ध्यान के समान, सब तरफ प्रकाशित कुछ भी अँधेरा नहीं। उस रोशनी से पूरा कमरा प्रकाशित होता है। जब आप पूरी तरह से प्रकाशित और जागरूक हो जाते हैं, जब आप शुद्ध चेतन परमात्मा से जुड़ जाते हैं, वह हो गया ध्यान। चेतना की अवस्था जहाँ पर मन ना हो, वह है ध्यान। अक्सर लोग एकाग्रता का अभ्यास ध्यान समझ करते रहते हैं और परिणाम न मिलने पर निराश होते रहते हैं। ध्यान और एकाग्रता में भेद है। एकाग्रता को ही ध्यान मानकर लोग ध्यान के लाभ से वंचित रह जाते हैं। जब तक आप वास्तव में ध्यान में नही जाएँगे, आप ध्यान के लाभ कैसे ले सकते हैं?
गहरे ध्यान में क्या होता है...
जब हम गहरे ध्यान में प्रवेश करते हैं तो भीतर की सारी ऊर्जा, सहस्त्रार चक्र पर आकर स्थिर हो जाती है। तब परम शांति और आनंद की वर्षा प्रारंभ हो जाती है। समय का बोध समाप्त हो जाता है और व्यक्ति मन के पार अपने आत्म स्वरूप में स्थित हो जाता है। न तो भूतकाल के विचार आते है, न तो कोई भविष्य की चिंता सताती है। इस स्थिति में व्यक्ति वर्तमान के एक-एक क्षण का आनंद लेता है।
गहरे ध्यान में जैसे ही निर्विचार स्थिति आती है, हमारी ऊर्जा नीचे के चक्रों को शुद्ध करते हुए सहस्त्रार की तरफ गति करती है। लगातार इस स्थिति में बने रहने से चक्रों का असंतुलन भी दूर होने लगता है और चक्रों की शुद्धि भी प्रारंभ हो जाती है। पर कितने दिन में कोई चक्र संतुलन को प्राप्त करेगा या चक्र जाग्रत हो उठेगा ये कहना कठिन है क्योंकि हर किसी के चक्र का असंतुलन और अशुद्धि अलग अलग होती है।
प्राण अनसुने नाद से आपूरित हो उठते हैं। रोआं-रोआं आनंद की पुलक में कांपने लगता है। जगत प्रकाश-पुंज मात्र प्रतीत होता है। इंद्रियों के लिए अनुभूतियों के द्वार खुल जाते हैं। प्रकाश में सुगंध आती है। सुगंध में संगीत सुनाई पड़ता है। संगीत में स्वाद आता है। स्वाद में स्पर्श मालूम होता है। तर्क की सभी कसौटियां टूट जाती हैं। कुछ भी समझ में नहीं आता है और फिर भी सब सदा से जाना हुआ मालूम होता है। कुछ भी कहा नहीं जाता है और फिर भी सब जीभ पर रखा प्रतीत होता है। विगत जन्मों के भेद खुलने लगते हैं, चारों ओर से दिव्यता का प्रकाश आने लगता है। ऐसा व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति की ऊर्जा का स्तर, उसका आभा मंडल उसके मन के विचार भी देख सकता है। इस अवस्था को शब्दों में नहीं व्यक्त किया जा सकता, क्योंकि ये शब्दातीत अवस्था है, जिसने इसे पाया वो इसे शब्दों में ढालने में असमर्थ ही रहा है, ये अनुभव तो इस अवस्था में पहुंच कर ही हो सकते हैं।
ध्यान की पूर्णता समाधि के द्वार खोल देती है। ध्यानी व्यक्ति हजारों में अलग पहचान आ जाता है। उसकी ऊर्जा और आकर्षण अनायास ही लोगों को आकर्षित कर जाते हैं। ऐसे व्यक्ति की वाणी में परम शांति और शब्दों के बीच के मौन को भी सुना जा सकता है। ऐसे व्यक्ति के सान्निध्य मात्र से ही ऊर्जा और दिव्यता का अनुभव होने लगता है। ऐसा व्यक्ति नींद में भी जागृत रहता है और उसकी कार्यक्षमता सामान्य लोगों की अपेक्षा कहीं अधिक बढ़ जाती है। ऐसा व्यक्ति मानव से महामानव की श्रेणी में आ जाता है। ऐसा व्यक्ति स्वयं को तो प्रकाशित कर ही लेता है, दूसरों के जीवन को प्रकाशित करने का सामर्थ्य भी प्राप्त कर लेता है। ऐसा व्यक्ति साधक नहीं रह जाता, सिद्ध हो जाता है।
***
नवगीत
*
बाबूजी!
धीरे चलना
राह विराजी भवानी
तुम्हें रहीं हैं टेर।
भोग लगाकर पुण्य लो,
करो न नाहक देर।।
अनदेखा कर तुम इन्हें
खुद को
मत छलना
मैडम जी!
धीरे चलना
मुझे देखकर जान लो,
कितना हुआ विकास?
हूँ शोषण की गवाही
मुझसे दूर उजास
हाथ बढ़ाकर चाहती
मैं आगे बढ़ना
अफसर जी!
धीरे चलना
मेरा जनक न पूछो
है तुम सा ही सभ्य
जननी भी तुम सी ही
नहीं अप्राप्य-अलभ्य
मूर्ति न; जीवित पूजो
धुला मुझे पलना
नेता जी!
धीरे चलना
२९-९-२०१९
***
कृति चर्चा:
नवगीतीय परिधान में 'फुसफुसाते वृक्ष कान में'
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: फुसफुसाते वृक्ष कान में, नवगीत संग्रह, हरिहर झा, प्रथम संस्करण २०१८, आई एस बी एन ९७८-९३-८७६२२-९०-६, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी सजिल्द जैकेट सहित, पृष्ठ १६५, मूल्य ३५०/-, अयन प्रकाशन, १/२० महरौली नई दिल्ली ११००३०, चलभाष ९८१८९८८६१३]
*
विश्ववाणी हिंदी ने देववाणी संस्कृत से विरासत में प्राप्त व्याकरण व पिंगल को देश-काल-परिस्थितियों और मानवीय आवश्यकताओं के अनुरूप परिवर्तित-संवर्धित करते हुए पुरातन विधाओं को नव रूपाकार देकर ग्राह्य बनाये रखने का जो सारस्वत अनुष्ठान सतत सम्पादित किया है उसकी गीत विधायी प्राप्ति नवगीत है। लोकमांगल्य के गिरि शिखर से सतत प्रवाहित पारंपरिक साहित्यिक गीत, लोकगीत और जनगीत की त्रिवेणी ने विसंगतियों की शिलाओं, विडंबनाओं के गव्हरों और सामाजिक संघर्षों के रेगिस्तानों को पार करते हुए कलकल निनादिनी नर्मदा के निर्मल प्रवाह की तरह जनहितैषिणी होकर नवगीत विशेषण को शिरोधार्य किया जो रूढ़ होकर संज्ञा रूप मे व्यवहृत हो रहा है।
नवगीत के उद्गम और तत्कालीन मान्यताओं को पत्थर की लकीर मानकर परिवर्तनों को नकारने और हेय सिद्ध करने के आदी संकीर्णतावादी इन नवगीतों का छिन्द्रान्वेषण कर स्वीकारने में हिचकें तो भी यह सत्य नकारा नहीं जा सकता कि नवगीत दिनानुदिन नई-नई भावमुद्राएँ धारणकर नव आयामों में खुद को स्थापित करता जा रहा है। हरिहर जी के नवगीत मुखड़ों-अंतरों में युगीन यथार्थ को पिरोते समय पारंपरिक बिंबों, प्रतीकों और मिथकों से मुक्त रहकर अपनी राह आप बनाते हैं। 'आइना दिखाती' शीर्षक नवगीत का मुखड़ा 'तूफान, दे थपकी सुलाये, / डर लगे तो क्या करें? /विष में बुझे सब तीर उर को / भेद दें तो क्या करें?' आम आदमी के सम्मुख पल-पल उपस्थित होती किंकर्तव्यविमूढ़ता को इंगित करता है।
स्वराज्य के संघर्ष और उसके बाद के परिदृश्य में लोकतंत्र में 'लोक' के स्थान पर 'लोभ',प्रजातंत्र में 'प्रजा' के स्थान पर 'सत्ता', गणतंत्र में 'गण' के स्थान पर 'तंत्र' को देखकर दिन-ब-दिन मुश्किल होती जाती जिन्दगी की लड़े में हारता सामान्य नागरिक सोचने के लिए विवश है- 'उलट गीता कैसे हुई, / अर्जुन उधर सठिया रहे / भ्रमित है धृतराष्ट्र क्यों / संजय इधर बतिया रहे / दौड़ते टीआरपी को, / बेचते ईमान।' (सुर्ख़ियों में कहाँ दिखती, खग-मृग की तान।) खग-मृग के माध्यम से जन-जीवन से गुम होती 'तान' अर्थात आनंद को बखूबी संकेतित किया है कवि ने। अर्जुन, धृतराष्ट्र और संजय जैसे पौराणिक चरित्रों को आधुनिक परिवेश में चिन्हित कर सकना हरिहर जी के चिंतन सामर्थ्य का परिचायक है। 'वो बहेलिया' शीर्षक नवगीत में एक और उदाहरण देखें- 'दुर्योधन का अहंकार तू / डींग मारता ऊँची ऊँची, है मखौलिया।' मिथकों के प्रयोग कवि को प्रिय हैं क्योंकि वे 'कम शब्दों में अधिक' कह पाते हैं- 'जीवन जैसे खुद ब्रह्मा ने / दुनिया नई रची / राह नई, गली अंधियारी / मन में कहाँ बची/ तमस भले ही हो ताकतवर, / कभी न दाल गले। / किसने इंद्र वरुण अग्नि को, / आफत में डाला / सौलह हजार ललनाओं पर / संकट का जाला / नरकासुर का दर्प दहाड़ा / शक्ति का आभास / दुर्गति रावण जैसी ही तो / बोलता इतिहास / ज्योत जली, यह देखा / अचरज़ लौ की छाँव तले।'
अपसंस्कृति की शिकार नई पीढ़ी पर व्यंग्य करता कवि अंगरेजी के वर्चस्व को घातक मानता है- 'चोंच कहाँ, / चम्मच से तोते सीख गये खाना। / भूले सब संस्कार, समझ, / फूहड़ता की झोली / गम उल्लास निकलते थे, / बनी गँवारू बोली / गिटपिट अब चाहें, / अँगरेजी, में गाल बजाना।' जन-जीवन में व्यवस्था और शांति का केंद्र नारी अपनी भूमिका के महत्व को भुलाकर घर जोड़ने की जगह तोड़ने की होड़ में सम्मिलित दिखती है- ' रतनारी आँखे मौन, / ज्यों निकले अंगार / कुरूप समझे सबको / किये सोला सिंगार। पल में बुद्ध बन जाती ..... पल में होती क्रुद्ध / आलिंगन अभिसार, / लो तुरत छिड़ गया युद्ध / रूठी फिर तो खैर नहीं, / विकराल रूपा जोगन' स्वाभाविक ही है कि ऐसे दमघोंटू वातावरण में कुछ लिखना दुष्कर हो जाए- ' गलघोटूँ कुछ हवा चली,/ रोये कलि, ऊँघे बगिया / चूम लिया दौड़ फूलों को, / काँटा तो ठहरा ठगिया/ दरार हर छन्द में पाऊँ सुधि न पाये क्यों रचयिता / कैसे लिखूँ मैं कविता।'
पारिस्थितिक विषमताओं के घटाटोप अँधेरे में भे एकवि निराश नहीं होता। वह 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' की विरासत का वाहक है, उजियारे की किरण खोज ही लेता है- 'नन्हा बालक या नन्ही परी / भाये कचोरी या मीठी पुरी / लुभाती बोली में कहे मम्मी / रबड़ी बनी है यम्मी यम्मी / घर में कितना उजाला है / फरिश्ता आने वाला है। अपने कष्टों को भूलकर अन्यों की पीड़ा कम करने को जीवनोद्देश्य मनेवाली भारतीय संस्कृति इन गीतों में यत्र-तत्र झलकती है- 'भूख लगी, / मिले न रोटी / घास हरी चरते हैं / झरते आँसू पी पी कर, दिल हल्का करते हैं। / मिली बिछावट काँटों की / लगी चुभन कुछ ऐसे / फूल बिछाते रहे, दर्द / छूमंतर सब कैसे / भूले पीड़ा , औरों का संकट हर लेते हैं / झरते आँसू पी पी कर, दिल हल्का करते हैं।'
कबीर ने अपने समय का सच बयान करते हुए कहा था- 'यह चादर सुर नर मुनि ओढ़ी / ओढ़ के मैली कीन्ही चदरिया / दास कबीर जतन से ओढ़ी / ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया।' हरिहर जी 'मैली हो गई बहुत चदरिया' कहते हुए कबीर को फिर-फिर जीते हैं। कबीर और लोई के मतभेद जग जाहिर हैं। कवि इसी परंपरा का वाहक है। देखें- घर में भूख नहीं होती, / किस-किस के संग खाते हो?/ / चादर अपनी मैली करके / नाम कबीरा लेते हो?' स्त्री-विमर्श के इस दौर में पुरुष-विमर्श के बिना पुरुषों की दुर्दशा हकीकतबयानी है- 'मैं झाँसी की रानी बन कर/ तुम्हें मजा चखाऊँगी / दुखती रग पर हाथ रखूँ / हँस कर के तुम्हें रुलाऊँगी / पति-परमेश्वर समझ लिया,/ पुरूष-प्रभुता के रोगी! / सारी अकड़ एक मिनिट में / टाँय टाँय यह फिस होगी / तो सुनो किट्टी-पार्टी है कल / तुम बच्चों को नहलाना।' स्त्री-पुरुष जीवन-रथ के दो पहिए हैं। दोनों को पारिवारिक दायित्वों का निर्वहन मिल-जुलकर करना होता है। बच्चों की देखभाल की सहज प्रक्रिया को सबक सिखाने की तरह प्रयोग किया जाना ठीक नहीं प्रतीत होता। 'हँस कर के तुम्हें रुलाऊँगी' में 'के' का प्रयोग अनावश्यक है जो कथ्य को शिथिल करता है।
सामाजिक वैषम्य और दहेज़ की कुरीति पर हरिहर जी ने प्रबल आघात किया है। "खुलने लगी कलाई तो क्या, बना रहेगा पुतला? / तू इतना तो बतला / तृष्णा मिटे कहाँ मृगजल से, माँगी एक पिटारी / टपके लार ससुर, देवर की, दर्द सहे बेचारी / रोती बहना, आँख फेर ली, खून हुआ क्यों पतला तू इतना तो बतला ...... ’धनिया’ आँसू पोछ न पाये, खून पिलाये ’होरी’ / श्वेत वस्त्र में दिखे न काले, धन से भरी तिजोरी / जाला करतूतों का फिर क्यों, दिखे दूर से उजला / तू इतना तो बतला।'
'समय का फेर' सब कुछ बदल देता है। 'हरि'-'हर' से बढ़कर समय के परिवर्तन का साक्षी और कौन हो सकता है? 'पोथियाँ बहुत पढ़ ली / जग मुआ, आ गई कंप्यूटरी आभा। / ज्ञान सरिता प्रवाह खलखल, जरूरी होता उसे बहना / लौ दिये की, / चाहे कभी ना, बंद तालों में जकड़ रहना / वेद ऋषियों के हुये प्राचीन / दौर अणु का कर गये ‘भाभा’। / पूर्वजों ने, / तीक्ष्ण बुद्धि से, / कैसे किया, समुद्र का मंथन / जाना पार सागर, / पाप क्यों? क्यों चाहिये किसका समर्थन / चाँद, मंगल जा रही दुनिया / राह में क्यों बन रहे खंभा।'
निरानान्दित होते जाते जीवन में आनद की खोज कवि की काव्य-रचना का उद्देश्य है। वह कहता है- 'पंडिताई में नहीं अध्यात्म, झांके ह्रदय में, फकीर /“चोंचले तो चोंचले, नहीं धर्म”, माथा फोड़ता कबीर / मूर्ख ना समझे, ईश तक पहुँचे, चाहे यज्ञ या अजान / भगवत्कृपा जिसे मिली बस, खुल गई अंदरूनी आँख / चक्र की जीवन्त ऊर्जा तक पहुँचने मिल गई लो पाँख / नाद अनहद सुन सके, तैयार हैं, भीतर खड़े जो कान।'
इन गीति रचनाओं में विचार तत्व की प्रबलता ने गीत के लालित्य को पराभूत सा कर दिया है, फलत: गीतों की गेयता क्षीण हुई है। गीत और छंद का चोली-दामन का साथ है। भारत में नवगीतों में पारंपरिक छंदों और लोकगीतों की लय के प्रयोग का चलन बढ़ा है। 'काल है संक्रांति का' में पारंपरिक छंदों के यथेष्ट प्रयोग के बाद कई नए-पुराने नवगीतकार छंदों के प्रति आकर्षित हुए हैं। नवगीतों में नए छंदों का प्रयोग और कई छंदों को एक साथ मिलकर उपयोग किया जाना भी सर्व मान्य है। हरिहर जी ने शिल्प पर कथ्य को वरीयता देते हुए छंद को अपनी भूमिका आप तय करने दी है। मात्रिक या वर्णिक छंद के बंधनों को गौड़ मानते हुए, कथ्य को प्रस्तुत करने के प्रति अधिक संवेदनशील रहे हैं। समतुकांती पंक्तियों से लयबद्धता में सहायता मिली है। कवि की कुशलता यह है कि वह छंद को यथावत रखने के स्थान पर कथ्य की आवश्यकता के अनुसार ढालता है। इन नवगीतों की रचना किसी एक छंद के विधानानुसार न होकर मुखड़े और अंतरे में भिन्न-भिन्न और कहीं-कहीं मुखड़े में भी एकाधिक छन्दों के संविलयन से हुई है।
नवगीत की नवता कथ्य और शिल्प दोनों के स्तर पर होती है। हरिहर जी ने दोनों पैमानों पर अपनी निजता स्थापित की है। प्रसाद गुण संपन्न भाषा, सरल-सहज बोधगम्य शब्दावली, मुहावरेदार कहन और सांकेतिक शैली हरिहर जी के इन नवगीतों का वैशिष्ट्य है। सुदूर आस्ट्रेलिया में रहकर भी देश के अंदरूनी हालात से पूरी तरह अवगत रहकर उन पर सकारात्मक तरीके से सोचना और संतुलित वैचारिक अभिव्यक्ति इन नवगीतों को पठनीयता और प्रासंगिकता से संपन्न करती है। सोने की चिड़िया भारत हो जाए, जय हो हिंदी भाषा की, इंद्रधनुषी रंग मचलते, दो इन्हें सम्मान, कच्ची कोंपल की लाचारी, दर्द भारी सिसकी है, मन स्वयं बारात हुआ, निहारिकाओं ने खेल ली होली, कौन जाने शाप किसका, शहर में दीवाली, साथ नीम का, उपलब्धि, दुल्हन का सपना, बदरी डोल रही वायदों की पतंग आदि रचनाएँ समय साक्षी हैं।
इंग्लैंड निवासी विदुषी उषा राजे सक्सेना जी ने कुछ नवगीतों की पृष्ठभूमि में पुरुष की शोषक, लोभी, कामी प्रवृत्ति और स्त्री-अपराधों की उपस्थिति अनुभव की है किन्तु मुझे ऐसा अनुभव हुआ कि रचनाकार ने दैनंदिन जीवन में होती कहा-सुनी को सहज रूप में प्रस्तुत किया है। इन रचनाओं में स्त्री-पुरुष एक-दूसरे के प्रतिद्वंदी नहीं परिपूरक के रूप में शब्दित हैं।
कृत्या पत्रिका की संपादिका रति सक्सेना जी ने हरिहर जी का मूल स्वर वैचारिकता मानते हुए, अतीत की उपस्थिति को वर्तमान पर भरी पड़ते पाया है। सुरीलेपन और कठोरता की मिश्रित अभिव्यक्ति इन रचनाओं में होना सहज स्वाभाविक है चूँकि जीवन धूप-छाँव दोनों को पग-पग पर अपने साथ पाता है। लन्दन निवासी तेजेंद्र शर्मा जी अपने चतुर्दिक घटती, कही-सुनी जाती बातों को इन गीतों में पाकर अनुभव करते हैं कि जैसे यह तो हमारे ही जीवन पर लिखी गयी है। स्वयं गीतकार अपनी रचनाओं में वामपंथी रुझान की अनुपस्थिति से भीगी है तथा इस कसौटी पर की जाने वाली आलोचना के प्रति सजग रहते हुए भी उसे व्यर्थ मानता है। वह पूरी ईमानदारी से कहता है "प्रवासी साहित्य पर जो आक्षेप लगाये जाते हैं, उन पर टिप्पणी करने की अपेक्षा अर्धसत्य से भी सत्य को निकाल कर उससे मार्गदर्शन लेना मैं अधिक उचित समझता हूँ।" मैंने इन गीतों में शैल्पिकता पर कथ्य की भैव्यक्ति को वरीयता दी जाना अनुभव किया है। वैचारिक प्रतिबद्धता किसी विधागत रचना को कुंद करती है। हरिहर जी अपने नाम के अनुरूप बंधनों की जड़ता को तोड़ते हुए सहज प्रवाहित सलिला की तरह इन रचनाओं में अपने आप को प्रवाहित होने देते हैं।
प्रवासी भारतीयों द्वारा रचे जा रहे साहित्य विशेषत: गद्य साहित्त्य में विदेशी परिवेश प्राय: मिलता है। हरिहर जी पूरी तरह भारत में ही केन्द्रित रहे हैं। आशा है उनका अगला काव्य संग्रह रचनाओं में आस्ट्रेलिया को भी भारतीय पाठकों तक पहुँचेगा। वैश्विक समरसता के लिए अपनी जड़ों से जुड़े रहने के साथ-साथ पड़ोसी के आँगन की हवा लेते रहना भी आवश्यक है। इससे हरिहर जी के नवगीतों में शेष से भिन्नता तथा ताज़गी मिलेगी। लयबद्धता और गेयता के लिए छांदस लघु पंक्तियाँ लम्बी पंक्तियों की तुलना में अधिक सहज होती हैं।
***
हिंदी में नए छंद : १.
पाँच मात्रिक याज्ञिक जातीय भवानी छंद
*
प्रात: स्मरणीय जगन्नाथ प्रसाद भानु रचित छंद प्रभाकर के पश्चात हिंदी में नए छंदों का आविष्कार लगभग नहीं हुआ। पश्चातवर्ती रचनाकार भानु जी के ग्रन्थ को भी आद्योपांत कम ही कवि पढ़-समझ सके। २-३ प्रयास भानु रचित उदाहरणों को अपने उदाहरणों से बदलने तक सीमित रह गए। कुछ कवियों ने पूर्व प्रचलित छंदों के चरणों में यत्किंचित परिवर्तन कर कालजयी होने की तुष्टि कर ली। संभवत: पहली बार हिंदी पिंगल की आधार शिला गणों को पदांत में रखकर छंद निर्माण का प्रयास किया गया है। माँ सरस्वती की कृपा से अब तक ३ मात्रा से दस मात्रा तक में २०० से अधिक नए छंद अस्तित्व में आ चुके हैं। इन्हें सारस्वत सभा में प्रस्तुत किया जा रहा है। आप भी इन छंदों के आधार पर रचना करें तो स्वागत है। शीघ्र ही हिंदी छंद कोष प्रकाशित करने का प्रयास है जिसमें सभी पूर्व प्रचलित छंद और नए छंद एक साथ रचनाविधान सहित उपलब्ध होंगे।
भवानी छंद
*
विधान:
प्रति पद ५ मात्राएँ।
पदादि या पदांत: यगण।
सूत्र: य, यगण, यमाता, १२२।
उदाहरण:
सुनो माँ!
गुहारा।
निहारा,
पुकारा।
*
न देखा
न लेखा
कहीं है
न रेखा
कहाँ हो
तुम्हीं ने
किया है
इशारा
*
न पाया
न खोया
न फेंका
सँजोया
तुम्हीं ने
दिया है
हमेशा
सहारा
*
न भोगा
न भागा
न जोड़ा
न त्यागा
तुम्हीं से
मिला है
सदा ही
किनारा
***
दोहा सलिला
*
श्याम-गौर में भेद क्या, हैं दोनों ही एक
बुद्धि-ज्ञान के द्वैत को, मिथ्या कहे विवेक
*
राम-श्याम हैं एक ही, अंतर तनिक न मान
परमतत्व गुणवान है, आदिशक्ति रसखान
*
कृष्ण कर्म की प्रेरणा, राधा निर्मल नेह
सँग अनुराग-विराग हो, साधन है जग-देह
*
कण-कण में श्री कृष्ण हैं, देख सके तो देख
करना काम अकाम रह, खींच भाग्य की रेख
*
मुरलीधर ने कर दिया, नागराज को धन्य
फण पर पगरज तापसी, पाई कृपा अनन्य
*
आत्म शक्ति राधा अजर, श्याम सुदृढ़ संकल्प
संग रहें या विलग हों, कोई नहीं विकल्प
*
हर घर में गोपाल हो, मातु यशोदा साथ
सदाचार बढ़ता रहे, उन्नत हो हर माथ
*
मातु यशोदा चकित चित, देखें माखनचोर
दधि का भोग लगा रहा, होकर भाव विभोर
*
***
एकाक्षरी दोहा:
आनन्दित हों, अर्थ बताएँ
*
की की काकी कूक के, की को काका कूक.
काका-काकी कूक के, का के काके कूक.
*​
एक द्विपदी
*
भूल भुलाई, भूल न भूली, भूलभुलैयां भूली भूल.
भुला न भूले भूली भूलें, भूल न भूली भाती भूल.
*
यह द्विपदी अश्वावतारी जातीय बीर छंद में है
***
नवगीत:
समय पर अहसान अपना...
*
समय पर अहसान अपना
कर रहे पहचान,
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*
हम समय का मान करते,
युगों पल का ध्यान धरते.
नहीं असमय कुछ करें हम-
समय को भगवान करते..
अमिय हो या गरल-
पीकर जिए मर म्रियमाण.
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*
हमीं जड़, चेतन हमीं हैं.
सुर-असुर केतन यहीं हैं..
कंत वह है, तंत हम हैं-
नियति की रेतन नहीं हैं.
गह न गहते, रह न रहते-
समय-सुत इंसान.
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*
पीर हैं, बेपीर हैं हम,
हमीं चंचल-धीर हैं हम.
हम शिला-पग, तरें-तारें-
द्रौपदी के चीर हैं हम..
समय दीपक की शिखा हम
करें तम का पान.
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
***
राम दोहावली
*
मिलते हैं जगदीश यदि, मन में हो विश्वास
सिया-राम-जय गुंजाती, जीवन की हर श्वास
*
आस लखन शत्रुघ्न फल, भरत विनम्र प्रयास
पूर्ण समर्पण पवनसुत, दशकंधर संत्रास
*
त्याग-ओज कैकेई माँ, कौसल्या वनवास
दशरथ इन्द्रिय, सुमित्रा है कर्तव्य-उजास
*
संयम-नियम समर्पिता, सीता-तनया हास
नेह-नर्मदा-सलिल है, सरयू प्रभु की ख़ास
*
वध न अवध में सत्य का, होगा मानें आप
रामालय हित कीजिए, राम-नाम का जाप
२९-९-२०१८
***
मुक्तक
सम्मिलन साहित्यकारों का सुफलदायी रहे
सत्य-शिव-सुन्दर सुपथ हर कलम आगे बढ़ गहे
द्वन्द भाषा-बोलिओं में, सियासत का इष्ट है-
शारदा-सुत हिंद-हिंदी की सतत जय-जय कहे
*
नेह नर्मदा तीर पधारे शब्ददूत हिंदी माँ के
अतिथिदेव सम मन भाते हैं शब्ददूत हिंदी माँ के
भाषा, पिंगल शास्त्र, व्याकरण हैं त्रिदेवियाँ सच मानो
कथ्य, भाव, रस देव तीन हैं शब्ददूत हिंदी माँ के
*
अक्षर सुमन, शब्द-हारों से, पूजन भारत माँ का हो
गीतों के बन्दनवारों से, पूजन शारद माँ का हो
बम्बुलियाँ दस दिश में गूँजें, मातु नर्मदा की जय-जय
जस, आल्हा, राई, कजरी से, वंदन हिंदी माँ का हो
*
क्रांति का अभियान हिंदी विश्ववाणी बन सजे
हिंद-हिंदी पर हमें अभिमान, हिंदी जग पुजे
बोलियाँ-भाषाएँ सब हैं सहोदर, मिलकर गले -
दुन्दुभी दस दिशा में अब सतत हिन्दी की बजे
*
कोमल वाणी निकल ह्रदय से, पहुँच ह्रदय तक जाती है
पुलक अधर मुस्कान सजाती, सिसक नीर बरसाती है
वक्ष चीर दे चट्टानों का, जीत वज्र भी नहीं सके-
'सलिल' धार बन नेह-नर्मदा, जग की प्यास बुझाती है
२९-९-२०१८
***
कार्य शाला
कुंडलिया = दोहा + रोला
*
दर्शन लाभ न हो रहे, कहाँ लापता हूर? १.
नज़र झुकाकर देखते, नहीं आपसे दूर। २.
नहीं आपसे दूर, न लेकिन निकट समझिए १.
उलझ गयी है आज पहेली विकट सुलझिए
'सलिल' नहीं मिथलेश कृपा का होता वर्षण
तो कैसे श्री राम सिया का करते दर्शन?
२९-९-२०१६
***
गीत
*
प्रभा साथ हो तो मिटेगा अँधेरा
उगेगा, उगेगा, उगेगा सवेरा
*
तिमिर का नहीं भय, रवि-रश्मि अक्षय
शशि पूर्णिमा का, आभामयी- जय!
करो कल्पना की किरण का कलेवा
उगेगा, उगेगा, उगेगा सवेरा
प्रभा साथ हो तो मिटेगा अँधेरा
*
बजा श्वास वीणा, आशा की सरगम
सफल साधना हो, अंतर हो पुरनम
पुष्पा कुसुम ले, करूँ वंदना नित
सुषमा सुमन की, उठाये न डेरा
उगेगा, उगेगा, उगेगा सवेरा
प्रभा साथ हो तो मिटेगा अँधेरा
*
प्रणव नाद गूँजे, मन में निरंतर
करे प्रार्थना मन, संध्या सुमिरकर
'सलिल' भारती की सृजन आरती हो
जग में, यही कल प्रभु ने उकेरा
उगेगा, उगेगा, उगेगा सवेरा
प्रभा साथ हो तो मिटेगा अँधेरा
२९-९-२०१५
***
बुंदेली गीत:
पोछो हमारी कार.....
*
ड्राइव पे तोहे लै जाऊँ,
ओ सैयां! पोछो हमारी कार.
पोछो हमारी कार,
ओ बलमा! पोछो हमारी कार.....
*
नाज़ुक-नाज़ुक मोरी कलाई,
गोरी काया मक्खन-मलाई.
तुम कागा से सुघड़,
कहे जग
-
'बिजुरी-मेघ' पुकार..
ओ सैयां! पोछो हमारी कार.
पोछो हमारी कार,
ओ बलमा! पोछो हमारी कार..... *
संग चलेंगी मोरी गुइयां,
तनक न हेरो बिनको सैयां.
भरमाये तो कहूँ राम सौं-
गलन ना दइहों दार..
ओ सैयां! पोछो हमारी कार.
पोछो हमारी कार,
ओ बलमा! पोछो हमारी कार.....
*
बनो डिरेवर, हाँको गाड़ी.
कैहों सबसे बलमा अनाड़ी'.
'सलिल' संग केसरिया कुल्फी-
खैहों, करो न रार..
ओ सैयां! पोछो हमारी कार.
पोछो हमारी कार,
ओ बलमा! पोछो हमारी कार.....
२९-९-२०१०
*

मंगलवार, 1 अगस्त 2023

पुरोवाक्, प्रश्न खुद बैताल था, हरिहर झा, नवगीत

पुरोवाक्
प्रश्न खुद बैताल था : सत्य की पड़ताल था
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
विश्ववाणी हिंदी के सम-सामयिक साहित्य में को इस संक्रमण काल में घट रही घटनाओं का साक्षी होना पड़ रहा है। यह सुयोग और दुर्योग दोनों है। सुयोग इसलिए कि साहित्य को लगभग हर दिन या अधिक सटीक हो कहें हर पल अपनी सामर्थ्य और जिजीविषा को श्रवहित के निकष पर कसना पड़ रहा है, दुर्योग इसलिए कि जितनी अधिक और जैसी विकराल घटनाएँ इस दौर में घट रही हैं वैसी पूर्व काल में कभी नहीं घटीं। साहित्य का की कसौटी और लक्ष्य 'सर्वजन हिताय,सर्व जन सुखाय' न होकर 'सत्ता हिताय' और 'समर्थ सुखाय' हो गया है। चारण-भाटों की विरासत वाले देश में जब जो सत्ता पर हो उसकी प्रशस्ति करने को ही सारस्वत अनुष्ठान मान लिया जाता रहा है। पिछले दो दशकों में नव धनाढ्य और साक्षर वर्ग की संख्या और मुद्रण तकनीक की सुलभता-सरलता ने पुस्तक क्रांति को जन्म दे दिया है। पुस्तक-प्लावन, प्रशस्ति प्लावन और पुरस्कार प्लावन में तन और धन ने ले-दे का बाजारवाद इतना विकसित कर दिया है की सद्विचार और सत्साहित्य की खोज खुर्दबीन लेकर करनी पड़ रही है। इस विषमता को देखकर विधि ने तो अपना चित्र गुप्त ही कर लिया है। हरि-हर ने हिम्मत नहीं हरि है और 'प्रश्न खुद बैताल था' लेकर पाठक-पंचायत में उपस्थित हैं।

'गीत' आदिम नादात्मक चेतना की लयात्मक अनुभूति की अभिव्यक्ति है। सृष्टि का जन्म ही 'नाद' से हुआ है। अनहद नाद ही हर परमाणु की संरचना का केंद्र और जीव का संस्कार है। संस्कार प्रबल हो तो वह आत्मा के माध्यम से देह का गुण-धर्म बनकर विश्व को आलोकित करता है। कवि वस्तुत: होता है बंता नहीं है, बनाया ही नहीं जा सकता। हरिहर झा मूलत: संवेदनशील भद्र इंसान हैं। वे अपने चतुर्दिक जो घटते देखते हैं उसकी प्रतिक्रियाप्रश्न के रूप में उनके मनस में होती है। ये प्रश्न ज्ञान, विज्ञान, कला, धर्म, समाज (संसद-बाजार) ही नहीं व्यक्ति और समष्टि तथा कल-आज और कल से भी जुड़े हैं। इस प्रश्नों के व्याल-जाल में उलझ मकड़ी-मन तर्कों का जाल बुनता रहता है। अहं का वहम 'सोsहं' की प्रतीति में बाधक बनता है।  

थे सवाल चिंतन के
अहम आया बीच में
गंदगी बहस में थी
फँस गए लो कीच में
झड़पें, बौछार चली मित्र से पंगा हुआ।

'पंगा' होने तक तो ठीक है किंतु जब' दंगा' होने लगे तो आदमी की बिसात क्या, चाँद-तारे तक रोने लगते हैं-

झकझोरते प्रश्न करते, चाँद तारे
रात भर रोते रहे
पूछती हैं, हवाएँ क्यों मुक्त नभ को
बेच कर यों बेड़ियाँ सहते रहे?

और अंतत: प्राण-शक्ति माधुरी बिसारकर फटे बाँस की बाँसुरी बन जाती है-  

दिल की धकधक, फटते सुर में
वाद्य यंत्र हैं ढीले
वाणी भटके, भय भरमाए,
मुखड़े होते पीले
प्राणशक्ति कर्कश रागों में
तीखे स्वर से गाती

ईश्वर करुणावतार है या निष्पक्ष-निर्मम न्यायाधीश? संसार में हर एक को अपना पक्ष ही न्याय का पक्ष प्रतीत होता है।  

न्याय वही जो मेरे मन में
स्नेह सभी कुछ देना चाहे
हृदय तराजू तोल न पाए
धड़कन कोई सुनता काहे
न्याय, प्रेम में युद्ध हुआ तो, झगड़े में क्या करता काजी।

न्यायान्याय का द्वन्द ही माया है। माया इतनी प्रबल कि मायापति को भी नहीं छोड़ती तो शेष की क्या बिसात?

बरगलाती रिसती गीरती
मदमस्ती दामन में छाई
रूप छटा आकर्षित करती
जिस्म अप्सरा का ले आई
रूह के बुलंद स्वर तेरे , मादक धुन, संगीत सुनाते।

प्रकृति का मानवीकरण हरिहर जी को प्रिय है-

झाँके चाँद रसोई सूंघे
चंद्र प्रभा खूब लजाई
तारे बैठ गगन में देखें
आती थाल सजी सजाई
नारीवेश में गुझिया आई, गुझिया बन कर आई नार

इन नवगीतों की नवता यह है की इनमें अतिरेक नहीं यथार्थ है। ये गीति रचनाएँ यथार्थ परक हैं।


गंदगी बहती चली तो
क्रुद्ध नथुने, नाक फैली
चल पड़े नाले नदी में,
क्षुब्ध गंगा आज मैली

विष बहा, भट्टी-जहाँ में,
मादक नशीले जाम
प्रकृति देखो सिसकती।

हरिहर जी का संवेदनशील मन 'श्रम' के महत्ता जानता और यह मानता है की जो श्रम नहीं करता वह विलासी बनकर जग-जीवन पर भार हो जाता है। 

उँगली श्रम में व्यस्त नहीं तो
हाथ उठाये देती गाली
विलास में डूबा जीवन बस
तैर रहा खोखला खाली
सुविधाभोगी, दर्द डराये, खण्डित हो जाना ही भाया।

कृष्ण का बहुआयामी चरित्र विविध गीतों में विविध प्रसंगों में प्रयुक्त हुआ है किंतु कहीं भी पिष्टपेषण या पुनरावृत्ति दोष नहीं है। पौराणिक चरित्रों और मिथकों के माध्यम से प्रवृत्तिगत विशेषण विस्तार में जाए बिना हो जाता है। गीतकार केवल विसंगति-वर्णन तक सीमित नहीं है, वह सकारात्मक प्रवृत्तियों को भी केंद्र में रखता है। गेटकार के शब्दों में -

''बीच-बीच में रस का जायका देती हुई ’गुझिया बन कर है तैयार’, ’मोहित हूँ, तुझ में देख रहा’, ’पतंग एक प्यार है’ जैसी कविताएँ भी हैं।’ 'कंदील बालो’ कुछ वैसे ही भाव से शांतिमय क्रांति का आह्वान करती है। फ्रायड मनुष्य के अंदर जानवर को ढूँढ कर प्रेम के रहस्य की आधी सच्चाई देखता है पर ’ धनुष-बाण तेरे घुस आते’ स्वयं अज्ञानी ग्वाला होते हुए भी अपने प्रेम में राधा के दर्शन करता हुआ स्वयं को धन्य महसूस करता है। हमारे शास्त्रों में सामाजिक अवचेतन मन के ऐसे ही बिम्ब हैं जो हजारों वर्षों तक युग के अनुरूप नये नये अर्थ से समाज को पुनर्जीवित रखने की सामर्थ्य रखते हैं।''

दीप जलता, गुझिया बनकर है तैयार, ग्रीष्म बाला, मोहित हूँ, शंखनाद क्रांति का, तमन्ना तलवार की, कंदील बालो आदि गीत नवता का जयघोष करते हैं। नवगीतों को नकारात्मकता के विकराल पंजे से निकाल कर सकारात्मकता के संसार में जाना अब आवश्यक हो गया है। हरिहर जी ने जहाँ-तहाँ हास्य, श्रंगार, वीर आदि रसों की झलक गीतों में समेटी है, उसे और विस्तार मिलना चाहिए। सभी ९ रसों को नवगीतों में सँजोया जाए तो नवगीत नवजीवन पा सकेगा। हरिहर जी इस दिशा में सचेष्ट हैं, यह संतोष का विषय है। मैंने अपनी नवगीत संकलनों ''काल है संक्रांति का'' तथा ''सड़क पर'' में यह प्रयास किया है। 

'प्रश्न खुद बैताल था' शीर्षक सार्थक है। बैताल की कहानियों का बैताल जिस तरह बार-बार राजा के कंधे पर सवार हो जाता है, वैसे ही सामयिक प्रश्न गीतकार के मनस को झिंझोड़ते हैं। प्रश्नों से उआलझट-सुलझते मन की ऊहा-पोह ही इन गीतों का कलेवर है। हरिहर जी प्रसंगानुकूल सहज-सरल भाषा का प्रयोग करते हैं। उनका शब्द चयन सटीक है। मुझे पूरा विश्वास है कि हरिहर जी के ये नवगीत पाठक- दरबार में सराहा जाएगा।    
   

गुरुवार, 29 सितंबर 2022

लोकगीत, गीत, नवगीत, एकाग्रता, ध्यान, हरिहर झा, छंद भवानी, दोहा कुण्डलिया

विमर्श : एकाग्रता और ध्यान
लोग एकाग्रता (Concentration) को ध्यान (Meditation) समझ लेते हैं, जबकि दोनों अलग है। अधिकांश लोग ध्यान नहीं, एकाग्रता का ही अभ्यास करते हैं। किसी संगीत को सुनना, किसी बिंदु पर मन को केंद्रित करना, किसी प्रकाश पर मन को टिकाना, ये सब एकाग्रता है, ध्यान नहीं है। योग ८ अंगों में छठवाँ अंग होता है धारणा। धारणा के अंतर्गत ही एकाग्रता आता है। उसके बाद योग का सातवाँ अंग है ध्यान।

सब तरफ से मन को हटाकर एक बिंदु पर एकत्र करन एकाग्रता है। ध्यान वह स्थिति है जहाँ मन होता ही नहीं, सिर्फ जागरूकता होती है। ध्यान में आप मन के पार चले जाते हैं। एकाग्रता का अभ्यास भी बुरा नहीं है, जिन्हें अपनी याददाश्त बढ़ानी हैं, जो बहुत ज्यादा सोचते हैं, बहुत जगह जिनका मन भटकता है उनके लिए एकाग्रता ठीक है पर एकाग्रता को ही ध्यान मान लेना गलत है।
त्राटक, मंत्र जप, नाम जप, विशेष ध्वनि, प्रतिमा, चित्र आदि पर मन को एकाग्र कर देना एकाग्रता है। आप एकाग्रता को समझना चाहते हैं तो टॉर्च की रौशनी से समझे। जैसे टॉर्च की रौशनी एक दिशा में जाती है वैसे ही एकाग्रता की एक दिशा होती है। एक दिशा में केंद्रित हो जाना, टॉर्च की लाइट के समान एकाग्रता है। कमरे में लगा बल्ब है ध्यान के समान, सब तरफ प्रकाशित कुछ भी अँधेरा नहीं। उस रोशनी से पूरा कमरा प्रकाशित होता है। जब आप पूरी तरह से प्रकाशित और जागरूक हो जाते हैं, जब आप शुद्ध चेतन परमात्मा से जुड़ जाते हैं, वह हो गया ध्यान। चेतना की अवस्था जहाँ पर मन ना हो, वह है ध्यान। अक्सर लोग एकाग्रता का अभ्यास ध्यान समझ करते रहते हैं और परिणाम न मिलने पर निराश होते रहते हैं। ध्यान और एकाग्रता में भेद है। एकाग्रता को ही ध्यान मानकर लोग ध्यान के लाभ से वंचित रह जाते हैं। जब तक आप वास्तव में ध्यान में नही जाएँगे, आप ध्यान के लाभ कैसे ले सकते हैं?


गहरे ध्यान में क्या होता है...
जब हम गहरे ध्यान में प्रवेश करते हैं तो भीतर की सारी ऊर्जा, सहस्त्रार चक्र पर आकर स्थिर हो जाती है। तब परम शांति और आनंद की वर्षा प्रारंभ हो जाती है। समय का बोध समाप्त हो जाता है और व्यक्ति मन के पार अपने आत्म स्वरूप में स्थित हो जाता है। न तो भूतकाल के विचार आते है, न तो कोई भविष्य की चिंता सताती है। इस स्थिति में व्यक्ति वर्तमान के एक-एक क्षण का आनंद लेता है।
गहरे ध्यान में जैसे ही निर्विचार स्थिति आती है, हमारी ऊर्जा नीचे के चक्रों को शुद्ध करते हुए सहस्त्रार की तरफ गति करती है। लगातार इस स्थिति में बने रहने से चक्रों का असंतुलन भी दूर होने लगता है और चक्रों की शुद्धि भी प्रारंभ हो जाती है। पर कितने दिन में कोई चक्र संतुलन को प्राप्त करेगा या चक्र जाग्रत हो उठेगा ये कहना कठिन है क्योंकि हर किसी के चक्र का असंतुलन और अशुद्धि अलग अलग होती है।
प्राण अनसुने नाद से आपूरित हो उठते हैं। रोआं-रोआं आनंद की पुलक में कांपने लगता है। जगत प्रकाश-पुंज मात्र प्रतीत होता है। इंद्रियों के लिए अनुभूतियों के द्वार खुल जाते हैं। प्रकाश में सुगंध आती है। सुगंध में संगीत सुनाई पड़ता है। संगीत में स्वाद आता है। स्वाद में स्पर्श मालूम होता है। तर्क की सभी कसौटियां टूट जाती हैं। कुछ भी समझ में नहीं आता है और फिर भी सब सदा से जाना हुआ मालूम होता है। कुछ भी कहा नहीं जाता है और फिर भी सब जीभ पर रखा प्रतीत होता है। विगत जन्मों के भेद खुलने लगते हैं, चारों ओर से दिव्यता का प्रकाश आने लगता है। ऐसा व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति की ऊर्जा का स्तर, उसका आभा मंडल उसके मन के विचार भी देख सकता है। इस अवस्था को शब्दों में नहीं व्यक्त किया जा सकता, क्योंकि ये शब्दातीत अवस्था है, जिसने इसे पाया वो इसे शब्दों में ढालने में असमर्थ ही रहा है, ये अनुभव तो इस अवस्था में पहुंच कर ही हो सकते हैं।
ध्यान की पूर्णता समाधि के द्वार खोल देती है। ध्यानी व्यक्ति हजारों में अलग पहचान आ जाता है। उसकी ऊर्जा और आकर्षण अनायास ही लोगों को आकर्षित कर जाते हैं। ऐसे व्यक्ति की वाणी में परम शांति और शब्दों के बीच के मौन को भी सुना जा सकता है। ऐसे व्यक्ति के सान्निध्य मात्र से ही ऊर्जा और दिव्यता का अनुभव होने लगता है। ऐसा व्यक्ति नींद में भी जागृत रहता है और उसकी कार्यक्षमता सामान्य लोगों की अपेक्षा कहीं अधिक बढ़ जाती है। ऐसा व्यक्ति मानव से महामानव की श्रेणी में आ जाता है। ऐसा व्यक्ति स्वयं को तो प्रकाशित कर ही लेता है, दूसरों के जीवन को प्रकाशित करने का सामर्थ्य भी प्राप्त कर लेता है। ऐसा व्यक्ति साधक नहीं रह जाता, सिद्ध हो जाता है।
***
नवगीत
*
बाबूजी!
धीरे चलना
राह विराजी भवानी
तुम्हें रहीं हैं टेर।
भोग लगाकर पुण्य लो,
करो न नाहक देर।।
अनदेखा कर तुम इन्हें
खुद को
मत छलना
मैडम जी!
धीरे चलना
मुझे देखकर जान लो,
कितना हुआ विकास?
हूँ शोषण की गवाही
मुझसे दूर उजास
हाथ बढ़ाकर चाहती
मैं आगे बढ़ना
अफसर जी!
धीरे चलना
मेरा जनक न पूछो
है तुम सा ही सभ्य
जननी भी तुम सी ही
नहीं अप्राप्य-अलभ्य
मूर्ति न; जीवित पूजो
धुला मुझे पलना
नेता जी!
धीरे चलना
२९-९-२०१९
***
कृति चर्चा:
नवगीतीय परिधान में 'फुसफुसाते वृक्ष कान में'
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: फुसफुसाते वृक्ष कान में, नवगीत संग्रह, हरिहर झा, प्रथम संस्करण २०१८, आई एस बी एन ९७८-९३-८७६२२-९०-६, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी सजिल्द जैकेट सहित, पृष्ठ १६५, मूल्य ३५०/-, अयन प्रकाशन, १/२० महरौली नई दिल्ली ११००३०, चलभाष ९८१८९८८६१३]
*
विश्ववाणी हिंदी ने देववाणी संस्कृत से विरासत में प्राप्त व्याकरण व पिंगल को देश-काल-परिस्थितियों और मानवीय आवश्यकताओं के अनुरूप परिवर्तित-संवर्धित करते हुए पुरातन विधाओं को नव रूपाकार देकर ग्राह्य बनाये रखने का जो सारस्वत अनुष्ठान सतत सम्पादित किया है उसकी गीत विधायी प्राप्ति नवगीत है। लोकमांगल्य के गिरि शिखर से सतत प्रवाहित पारंपरिक साहित्यिक गीत, लोकगीत और जनगीत की त्रिवेणी ने विसंगतियों की शिलाओं, विडंबनाओं के गव्हरों और सामाजिक संघर्षों के रेगिस्तानों को पार करते हुए कलकल निनादिनी नर्मदा के निर्मल प्रवाह की तरह जनहितैषिणी होकर नवगीत विशेषण को शिरोधार्य किया जो रूढ़ होकर संज्ञा रूप मे व्यवहृत हो रहा है।
नवगीत के उद्गम और तत्कालीन मान्यताओं को पत्थर की लकीर मानकर परिवर्तनों को नकारने और हेय सिद्ध करने के आदी संकीर्णतावादी इन नवगीतों का छिन्द्रान्वेषण कर स्वीकारने में हिचकें तो भी यह सत्य नकारा नहीं जा सकता कि नवगीत दिनानुदिन नई-नई भावमुद्राएँ धारणकर नव आयामों में खुद को स्थापित करता जा रहा है। हरिहर जी के नवगीत मुखड़ों-अंतरों में युगीन यथार्थ को पिरोते समय पारंपरिक बिंबों, प्रतीकों और मिथकों से मुक्त रहकर अपनी राह आप बनाते हैं। 'आइना दिखाती' शीर्षक नवगीत का मुखड़ा 'तूफान, दे थपकी सुलाये, / डर लगे तो क्या करें? /विष में बुझे सब तीर उर को / भेद दें तो क्या करें?' आम आदमी के सम्मुख पल-पल उपस्थित होती किंकर्तव्यविमूढ़ता को इंगित करता है।
स्वराज्य के संघर्ष और उसके बाद के परिदृश्य में लोकतंत्र में 'लोक' के स्थान पर 'लोभ',प्रजातंत्र में 'प्रजा' के स्थान पर 'सत्ता', गणतंत्र में 'गण' के स्थान पर 'तंत्र' को देखकर दिन-ब-दिन मुश्किल होती जाती जिन्दगी की लड़े में हारता सामान्य नागरिक सोचने के लिए विवश है- 'उलट गीता कैसे हुई, / अर्जुन उधर सठिया रहे / भ्रमित है धृतराष्ट्र क्यों / संजय इधर बतिया रहे / दौड़ते टीआरपी को, / बेचते ईमान।' (सुर्ख़ियों में कहाँ दिखती, खग-मृग की तान।) खग-मृग के माध्यम से जन-जीवन से गुम होती 'तान' अर्थात आनंद को बखूबी संकेतित किया है कवि ने। अर्जुन, धृतराष्ट्र और संजय जैसे पौराणिक चरित्रों को आधुनिक परिवेश में चिन्हित कर सकना हरिहर जी के चिंतन सामर्थ्य का परिचायक है। 'वो बहेलिया' शीर्षक नवगीत में एक और उदाहरण देखें- 'दुर्योधन का अहंकार तू / डींग मारता ऊँची ऊँची, है मखौलिया।' मिथकों के प्रयोग कवि को प्रिय हैं क्योंकि वे 'कम शब्दों में अधिक' कह पाते हैं- 'जीवन जैसे खुद ब्रह्मा ने / दुनिया नई रची / राह नई, गली अंधियारी / मन में कहाँ बची/ तमस भले ही हो ताकतवर, / कभी न दाल गले। / किसने इंद्र वरुण अग्नि को, / आफत में डाला / सौलह हजार ललनाओं पर / संकट का जाला / नरकासुर का दर्प दहाड़ा / शक्ति का आभास / दुर्गति रावण जैसी ही तो / बोलता इतिहास / ज्योत जली, यह देखा / अचरज़ लौ की छाँव तले।'
अपसंस्कृति की शिकार नई पीढ़ी पर व्यंग्य करता कवि अंगरेजी के वर्चस्व को घातक मानता है- 'चोंच कहाँ, / चम्मच से तोते सीख गये खाना। / भूले सब संस्कार, समझ, / फूहड़ता की झोली / गम उल्लास निकलते थे, / बनी गँवारू बोली / गिटपिट अब चाहें, / अँगरेजी, में गाल बजाना।' जन-जीवन में व्यवस्था और शांति का केंद्र नारी अपनी भूमिका के महत्व को भुलाकर घर जोड़ने की जगह तोड़ने की होड़ में सम्मिलित दिखती है- ' रतनारी आँखे मौन, / ज्यों निकले अंगार / कुरूप समझे सबको / किये सोला सिंगार। पल में बुद्ध बन जाती ..... पल में होती क्रुद्ध / आलिंगन अभिसार, / लो तुरत छिड़ गया युद्ध / रूठी फिर तो खैर नहीं, / विकराल रूपा जोगन' स्वाभाविक ही है कि ऐसे दमघोंटू वातावरण में कुछ लिखना दुष्कर हो जाए- ' गलघोटूँ कुछ हवा चली,/ रोये कलि, ऊँघे बगिया / चूम लिया दौड़ फूलों को, / काँटा तो ठहरा ठगिया/ दरार हर छन्द में पाऊँ सुधि न पाये क्यों रचयिता / कैसे लिखूँ मैं कविता।'
पारिस्थितिक विषमताओं के घटाटोप अँधेरे में भे एकवि निराश नहीं होता। वह 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' की विरासत का वाहक है, उजियारे की किरण खोज ही लेता है- 'नन्हा बालक या नन्ही परी / भाये कचोरी या मीठी पुरी / लुभाती बोली में कहे मम्मी / रबड़ी बनी है यम्मी यम्मी / घर में कितना उजाला है / फरिश्ता आने वाला है। अपने कष्टों को भूलकर अन्यों की पीड़ा कम करने को जीवनोद्देश्य मनेवाली भारतीय संस्कृति इन गीतों में यत्र-तत्र झलकती है- 'भूख लगी, / मिले न रोटी / घास हरी चरते हैं / झरते आँसू पी पी कर, दिल हल्का करते हैं। / मिली बिछावट काँटों की / लगी चुभन कुछ ऐसे / फूल बिछाते रहे, दर्द / छूमंतर सब कैसे / भूले पीड़ा , औरों का संकट हर लेते हैं / झरते आँसू पी पी कर, दिल हल्का करते हैं।'
कबीर ने अपने समय का सच बयान करते हुए कहा था- 'यह चादर सुर नर मुनि ओढ़ी / ओढ़ के मैली कीन्ही चदरिया / दास कबीर जतन से ओढ़ी / ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया।' हरिहर जी 'मैली हो गई बहुत चदरिया' कहते हुए कबीर को फिर-फिर जीते हैं। कबीर और लोई के मतभेद जग जाहिर हैं। कवि इसी परंपरा का वाहक है। देखें- घर में भूख नहीं होती, / किस-किस के संग खाते हो?/ / चादर अपनी मैली करके / नाम कबीरा लेते हो?' स्त्री-विमर्श के इस दौर में पुरुष-विमर्श के बिना पुरुषों की दुर्दशा हकीकतबयानी है- 'मैं झाँसी की रानी बन कर/ तुम्हें मजा चखाऊँगी / दुखती रग पर हाथ रखूँ / हँस कर के तुम्हें रुलाऊँगी / पति-परमेश्वर समझ लिया,/ पुरूष-प्रभुता के रोगी! / सारी अकड़ एक मिनिट में / टाँय टाँय यह फिस होगी / तो सुनो किट्टी-पार्टी है कल / तुम बच्चों को नहलाना।' स्त्री-पुरुष जीवन-रथ के दो पहिए हैं। दोनों को पारिवारिक दायित्वों का निर्वहन मिल-जुलकर करना होता है। बच्चों की देखभाल की सहज प्रक्रिया को सबक सिखाने की तरह प्रयोग किया जाना ठीक नहीं प्रतीत होता। 'हँस कर के तुम्हें रुलाऊँगी' में 'के' का प्रयोग अनावश्यक है जो कथ्य को शिथिल करता है।
सामाजिक वैषम्य और दहेज़ की कुरीति पर हरिहर जी ने प्रबल आघात किया है। "खुलने लगी कलाई तो क्या, बना रहेगा पुतला? / तू इतना तो बतला / तृष्णा मिटे कहाँ मृगजल से, माँगी एक पिटारी / टपके लार ससुर, देवर की, दर्द सहे बेचारी / रोती बहना, आँख फेर ली, खून हुआ क्यों पतला तू इतना तो बतला ...... ’धनिया’ आँसू पोछ न पाये, खून पिलाये ’होरी’ / श्वेत वस्त्र में दिखे न काले, धन से भरी तिजोरी / जाला करतूतों का फिर क्यों, दिखे दूर से उजला / तू इतना तो बतला।'
'समय का फेर' सब कुछ बदल देता है। 'हरि'-'हर' से बढ़कर समय के परिवर्तन का साक्षी और कौन हो सकता है? 'पोथियाँ बहुत पढ़ ली / जग मुआ, आ गई कंप्यूटरी आभा। / ज्ञान सरिता प्रवाह खलखल, जरूरी होता उसे बहना / लौ दिये की, / चाहे कभी ना, बंद तालों में जकड़ रहना / वेद ऋषियों के हुये प्राचीन / दौर अणु का कर गये ‘भाभा’। / पूर्वजों ने, / तीक्ष्ण बुद्धि से, / कैसे किया, समुद्र का मंथन / जाना पार सागर, / पाप क्यों? क्यों चाहिये किसका समर्थन / चाँद, मंगल जा रही दुनिया / राह में क्यों बन रहे खंभा।'
निरानान्दित होते जाते जीवन में आनद की खोज कवि की काव्य-रचना का उद्देश्य है। वह कहता है- 'पंडिताई में नहीं अध्यात्म, झांके ह्रदय में, फकीर /“चोंचले तो चोंचले, नहीं धर्म”, माथा फोड़ता कबीर / मूर्ख ना समझे, ईश तक पहुँचे, चाहे यज्ञ या अजान / भगवत्कृपा जिसे मिली बस, खुल गई अंदरूनी आँख / चक्र की जीवन्त ऊर्जा तक पहुँचने मिल गई लो पाँख / नाद अनहद सुन सके, तैयार हैं, भीतर खड़े जो कान।'
इन गीति रचनाओं में विचार तत्व की प्रबलता ने गीत के लालित्य को पराभूत सा कर दिया है, फलत: गीतों की गेयता क्षीण हुई है। गीत और छंद का चोली-दामन का साथ है। भारत में नवगीतों में पारंपरिक छंदों और लोकगीतों की लय के प्रयोग का चलन बढ़ा है। 'काल है संक्रांति का' में पारंपरिक छंदों के यथेष्ट प्रयोग के बाद कई नए-पुराने नवगीतकार छंदों के प्रति आकर्षित हुए हैं। नवगीतों में नए छंदों का प्रयोग और कई छंदों को एक साथ मिलकर उपयोग किया जाना भी सर्व मान्य है। हरिहर जी ने शिल्प पर कथ्य को वरीयता देते हुए छंद को अपनी भूमिका आप तय करने दी है। मात्रिक या वर्णिक छंद के बंधनों को गौड़ मानते हुए, कथ्य को प्रस्तुत करने के प्रति अधिक संवेदनशील रहे हैं। समतुकांती पंक्तियों से लयबद्धता में सहायता मिली है। कवि की कुशलता यह है कि वह छंद को यथावत रखने के स्थान पर कथ्य की आवश्यकता के अनुसार ढालता है। इन नवगीतों की रचना किसी एक छंद के विधानानुसार न होकर मुखड़े और अंतरे में भिन्न-भिन्न और कहीं-कहीं मुखड़े में भी एकाधिक छन्दों के संविलयन से हुई है।
नवगीत की नवता कथ्य और शिल्प दोनों के स्तर पर होती है। हरिहर जी ने दोनों पैमानों पर अपनी निजता स्थापित की है। प्रसाद गुण संपन्न भाषा, सरल-सहज बोधगम्य शब्दावली, मुहावरेदार कहन और सांकेतिक शैली हरिहर जी के इन नवगीतों का वैशिष्ट्य है। सुदूर आस्ट्रेलिया में रहकर भी देश के अंदरूनी हालात से पूरी तरह अवगत रहकर उन पर सकारात्मक तरीके से सोचना और संतुलित वैचारिक अभिव्यक्ति इन नवगीतों को पठनीयता और प्रासंगिकता से संपन्न करती है। सोने की चिड़िया भारत हो जाए, जय हो हिंदी भाषा की, इंद्रधनुषी रंग मचलते, दो इन्हें सम्मान, कच्ची कोंपल की लाचारी, दर्द भारी सिसकी है, मन स्वयं बारात हुआ, निहारिकाओं ने खेल ली होली, कौन जाने शाप किसका, शहर में दीवाली, साथ नीम का, उपलब्धि, दुल्हन का सपना, बदरी डोल रही वायदों की पतंग आदि रचनाएँ समय साक्षी हैं।
इंग्लैंड निवासी विदुषी उषा राजे सक्सेना जी ने कुछ नवगीतों की पृष्ठभूमि में पुरुष की शोषक, लोभी, कामी प्रवृत्ति और स्त्री-अपराधों की उपस्थिति अनुभव की है किन्तु मुझे ऐसा अनुभव हुआ कि रचनाकार ने दैनंदिन जीवन में होती कहा-सुनी को सहज रूप में प्रस्तुत किया है। इन रचनाओं में स्त्री-पुरुष एक-दूसरे के प्रतिद्वंदी नहीं परिपूरक के रूप में शब्दित हैं।
कृत्या पत्रिका की संपादिका रति सक्सेना जी ने हरिहर जी का मूल स्वर वैचारिकता मानते हुए, अतीत की उपस्थिति को वर्तमान पर भरी पड़ते पाया है। सुरीलेपन और कठोरता की मिश्रित अभिव्यक्ति इन रचनाओं में होना सहज स्वाभाविक है चूँकि जीवन धूप-छाँव दोनों को पग-पग पर अपने साथ पाता है। लन्दन निवासी तेजेंद्र शर्मा जी अपने चतुर्दिक घटती, कही-सुनी जाती बातों को इन गीतों में पाकर अनुभव करते हैं कि जैसे यह तो हमारे ही जीवन पर लिखी गयी है। स्वयं गीतकार अपनी रचनाओं में वामपंथी रुझान की अनुपस्थिति से भीगी है तथा इस कसौटी पर की जाने वाली आलोचना के प्रति सजग रहते हुए भी उसे व्यर्थ मानता है। वह पूरी ईमानदारी से कहता है "प्रवासी साहित्य पर जो आक्षेप लगाये जाते हैं, उन पर टिप्पणी करने की अपेक्षा अर्धसत्य से भी सत्य को निकाल कर उससे मार्गदर्शन लेना मैं अधिक उचित समझता हूँ।" मैंने इन गीतों में शैल्पिकता पर कथ्य की भैव्यक्ति को वरीयता दी जाना अनुभव किया है। वैचारिक प्रतिबद्धता किसी विधागत रचना को कुंद करती है। हरिहर जी अपने नाम के अनुरूप बंधनों की जड़ता को तोड़ते हुए सहज प्रवाहित सलिला की तरह इन रचनाओं में अपने आप को प्रवाहित होने देते हैं।
प्रवासी भारतीयों द्वारा रचे जा रहे साहित्य विशेषत: गद्य साहित्त्य में विदेशी परिवेश प्राय: मिलता है। हरिहर जी पूरी तरह भारत में ही केन्द्रित रहे हैं। आशा है उनका अगला काव्य संग्रह रचनाओं में आस्ट्रेलिया को भी भारतीय पाठकों तक पहुँचेगा। वैश्विक समरसता के लिए अपनी जड़ों से जुड़े रहने के साथ-साथ पड़ोसी के आँगन की हवा लेते रहना भी आवश्यक है। इससे हरिहर जी के नवगीतों में शेष से भिन्नता तथा ताज़गी मिलेगी। लयबद्धता और गेयता के लिए छांदस लघु पंक्तियाँ लम्बी पंक्तियों की तुलना में अधिक सहज होती हैं।
***
हिंदी में नए छंद : १.
पाँच मात्रिक याज्ञिक जातीय भवानी छंद
*
प्रात: स्मरणीय जगन्नाथ प्रसाद भानु रचित छंद प्रभाकर के पश्चात हिंदी में नए छंदों का आविष्कार लगभग नहीं हुआ। पश्चातवर्ती रचनाकार भानु जी के ग्रन्थ को भी आद्योपांत कम ही कवि पढ़-समझ सके। २-३ प्रयास भानु रचित उदाहरणों को अपने उदाहरणों से बदलने तक सीमित रह गए। कुछ कवियों ने पूर्व प्रचलित छंदों के चरणों में यत्किंचित परिवर्तन कर कालजयी होने की तुष्टि कर ली। संभवत: पहली बार हिंदी पिंगल की आधार शिला गणों को पदांत में रखकर छंद निर्माण का प्रयास किया गया है। माँ सरस्वती की कृपा से अब तक ३ मात्रा से दस मात्रा तक में २०० से अधिक नए छंद अस्तित्व में आ चुके हैं। इन्हें सारस्वत सभा में प्रस्तुत किया जा रहा है। आप भी इन छंदों के आधार पर रचना करें तो स्वागत है। शीघ्र ही हिंदी छंद कोष प्रकाशित करने का प्रयास है जिसमें सभी पूर्व प्रचलित छंद और नए छंद एक साथ रचनाविधान सहित उपलब्ध होंगे।
भवानी छंद
*
विधान:
प्रति पद ५ मात्राएँ।
पदादि या पदांत: यगण।
सूत्र: य, यगण, यमाता, १२२।
उदाहरण:
सुनो माँ!
गुहारा।
निहारा,
पुकारा।
*
न देखा
न लेखा
कहीं है
न रेखा
कहाँ हो
तुम्हीं ने
किया है
इशारा
*
न पाया
न खोया
न फेंका
सँजोया
तुम्हीं ने
दिया है
हमेशा
सहारा
*
न भोगा
न भागा
न जोड़ा
न त्यागा
तुम्हीं से
मिला है
सदा ही
किनारा
***
दोहा सलिला
*
श्याम-गौर में भेद क्या, हैं दोनों ही एक
बुद्धि-ज्ञान के द्वैत को, मिथ्या कहे विवेक
*
राम-श्याम हैं एक ही, अंतर तनिक न मान
परमतत्व गुणवान है, आदिशक्ति रसखान
*
कृष्ण कर्म की प्रेरणा, राधा निर्मल नेह
सँग अनुराग-विराग हो, साधन है जग-देह
*
कण-कण में श्री कृष्ण हैं, देख सके तो देख
करना काम अकाम रह, खींच भाग्य की रेख
*
मुरलीधर ने कर दिया, नागराज को धन्य
फण पर पगरज तापसी, पाई कृपा अनन्य
*
आत्म शक्ति राधा अजर, श्याम सुदृढ़ संकल्प
संग रहें या विलग हों, कोई नहीं विकल्प
*
हर घर में गोपाल हो, मातु यशोदा साथ
सदाचार बढ़ता रहे, उन्नत हो हर माथ
*
मातु यशोदा चकित चित, देखें माखनचोर
दधि का भोग लगा रहा, होकर भाव विभोर
*
***
एकाक्षरी दोहा:
आनन्दित हों, अर्थ बताएँ
*
की की काकी कूक के, की को काका कूक.
काका-काकी कूक के, का के काके कूक.
*​
एक द्विपदी
*
भूल भुलाई, भूल न भूली, भूलभुलैयां भूली भूल.
भुला न भूले भूली भूलें, भूल न भूली भाती भूल.
*
यह द्विपदी अश्वावतारी जातीय बीर छंद में है
***
नवगीत:
समय पर अहसान अपना...
*
समय पर अहसान अपना
कर रहे पहचान,
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*
हम समय का मान करते,
युगों पल का ध्यान धरते.
नहीं असमय कुछ करें हम-
समय को भगवान करते..
अमिय हो या गरल-
पीकर जिए मर म्रियमाण.
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*
हमीं जड़, चेतन हमीं हैं.
सुर-असुर केतन यहीं हैं..
कंत वह है, तंत हम हैं-
नियति की रेतन नहीं हैं.
गह न गहते, रह न रहते-
समय-सुत इंसान.
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*
पीर हैं, बेपीर हैं हम,
हमीं चंचल-धीर हैं हम.
हम शिला-पग, तरें-तारें-
द्रौपदी के चीर हैं हम..
समय दीपक की शिखा हम
करें तम का पान.
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
***
पंचक
*
मिलते हैं जगदीश यदि, मन में हो विश्वास
सिया-राम-जय गुंजाती, जीवन की हर श्वास
*
आस लखन शत्रुघ्न फल, भरत विनम्र प्रयास
पूर्ण समर्पण पवनसुत, दशकंधर संत्रास
*
त्याग-ओज कैकेई माँ, कौसल्या वनवास
दशरथ इन्द्रिय, सुमित्रा है कर्तव्य-उजास
*
संयम-नियम समर्पिता, सीता-तनया हास
नेह-नर्मदा-सलिल है, सरयू प्रभु की ख़ास
*
वध न अवध में सत्य का, होगा मानें आप
रामालय हित कीजिए, राम-नाम का जाप
२९-९-२०१८
***
मुक्तक
सम्मिलन साहित्यकारों का सुफलदायी रहे
सत्य-शिव-सुन्दर सुपथ हर कलम आगे बढ़ गहे
द्वन्द भाषा-बोलिओं में, सियासत का इष्ट है-
शारदा-सुत हिंद-हिंदी की सतत जय-जय कहे
*
नेह नर्मदा तीर पधारे शब्ददूत हिंदी माँ के
अतिथिदेव सम मन भाते हैं शब्ददूत हिंदी माँ के
भाषा, पिंगल शास्त्र, व्याकरण हैं त्रिदेवियाँ सच मानो
कथ्य, भाव, रस देव तीन हैं शब्ददूत हिंदी माँ के
*
अक्षर सुमन, शब्द-हारों से, पूजन भारत माँ का हो
गीतों के बन्दनवारों से, पूजन शारद माँ का हो
बम्बुलियाँ दस दिश में गूँजें, मातु नर्मदा की जय-जय
जस, आल्हा, राई, कजरी से, वंदन हिंदी माँ का हो
*
क्रांति का अभियान हिंदी विश्ववाणी बन सजे
हिंद-हिंदी पर हमें अभिमान, हिंदी जग पुजे
बोलियाँ-भाषाएँ सब हैं सहोदर, मिलकर गले -
दुन्दुभी दस दिशा में अब सतत हिन्दी की बजे
*
कोमल वाणी निकल ह्रदय से, पहुँच ह्रदय तक जाती है
पुलक अधर मुस्कान सजाती, सिसक नीर बरसाती है
वक्ष चीर दे चट्टानों का, जीत वज्र भी नहीं सके-
'सलिल' धार बन नेह-नर्मदा, जग की प्यास बुझाती है
२९-९-२०१८
***
कार्य शाला
कुंडलिया = दोहा + रोला
*
दर्शन लाभ न हो रहे, कहाँ लापता हूर? १.
नज़र झुकाकर देखते, नहीं आपसे दूर। २.
नहीं आपसे दूर, न लेकिन निकट समझिए १.
उलझ गयी है आज पहेली विकट सुलझिए
'सलिल' नहीं मिथलेश कृपा का होता वर्षण
तो कैसे श्री राम सिया का करते दर्शन?
२९-९-२०१६
***
गीत
*
प्रभा साथ हो तो मिटेगा अँधेरा
उगेगा, उगेगा, उगेगा सवेरा
*
तिमिर का नहीं भय, रवि-रश्मि अक्षय
शशि पूर्णिमा का, आभामयी- जय!
करो कल्पना की किरण का कलेवा
उगेगा, उगेगा, उगेगा सवेरा
प्रभा साथ हो तो मिटेगा अँधेरा
*
बजा श्वास वीणा, आशा की सरगम
सफल साधना हो, अंतर हो पुरनम
पुष्पा कुसुम ले, करूँ वंदना नित
सुषमा सुमन की, उठाये न डेरा
उगेगा, उगेगा, उगेगा सवेरा
प्रभा साथ हो तो मिटेगा अँधेरा
*
प्रणव नाद गूँजे, मन में निरंतर
करे प्रार्थना मन, संध्या सुमिरकर
'सलिल' भारती की सृजन आरती हो
जग में, यही कल प्रभु ने उकेरा
उगेगा, उगेगा, उगेगा सवेरा
प्रभा साथ हो तो मिटेगा अँधेरा
२९-९-२०१५


***

लोकगीत:

पोछो हमारी कार.....

*

ड्राइव पे तोहे लै जाऊँ,

ओ सैयां! पोछो हमारी कार.



पोछो हमारी कार,

ओ बलमा! पोछो हमारी कार.....

*

नाज़ुक-नाज़ुक मोरी कलाई,

गोरी काया मक्खन-मलाई.



तुम कागा से सुघड़,

कहे जग

-

'बिजुरी-मेघ' पुकार..





ओ सैयां! पोछो हमारी कार.



पोछो हमारी कार,



ओ बलमा! पोछो हमारी कार..... *

संग चलेंगी मोरी गुइयां,

तनक न हेरो बिनको सैयां.

भरमाये तो कहूँ राम सौं-

गलन ना दइहों दार..

ओ सैयां! पोछो हमारी कार.

पोछो हमारी कार,



ओ बलमा! पोछो हमारी कार.....

*

बनो डिरेवर, हाँको गाड़ी.

कैहों सबसे बलमा अनाड़ी'.

'सलिल' संग केसरिया कुल्फी-

खैहों, करो न रार..

ओ सैयां! पोछो हमारी कार.

पोछो हमारी कार,

ओ बलमा! पोछो हमारी कार.....

२९-९-२०१०

*

शुक्रवार, 16 नवंबर 2018

समीक्षा: शब्द वर्तमान जयप्रकाश श्रीवास्तव, चुप्पियों के गाँव में विजय बागरी, फुसफुसाते वृक्ष कान में हरिहर झा

                     -: विश्व वाणी हिंदी संस्थान - समन्वय प्रकाशन अभियान जबलपुर :- 
               ll हिंदी आटा माढ़िए, उर्दू मोयन डाल l 'सलिल' संस्कृत सान दे, पूड़ी बने कमाल ll  
        ll जन्म ब्याह राखी तिलक, गृह प्रवेश त्यौहार  'सलिल' बचा पौधे लगा, दें पुस्तक उपहार ll
**

समीक्षा:



कृति चर्चा:
"शब्द वर्तमान" भाव विद्यमान
- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
[कृति विवरण: शब्द वर्तमान, नवगीत संग्रह, जयप्रकाश श्रीवास्तव, प्रथम संस्करण २०१८, आकार २०.५ से. x १४ से., आवरण पेपरबैक बहुरंगी, पृष्ठ १२८, मूल्य १२०/- , बोधि प्रकाशन, सी ७६ सुदर्शनपुरा औद्योगिक क्षेत्र विस्तार, नाला रोड, २२ गोदाम, जयपुर ३०२००६ चलभाष ९८२९०१८०८७ bodhiprakashan@gmail. com, रचनाकार संपर्क आई.सी.५ सैनिक सोसायटी, शक्ति नगर, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९१ ७८६९१९३९२७, ९७१३५४४६४२, समीक्षक संपर्क: विश्व वाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, salil.sanjiv@gmail.com, चलभाष: ७९९९५५९६१८ ]
*


विश्ववाणी हिंदी ने वाचिक परंपरा से विरासत में प्राप्त जिन रचना विधाओं मे सर्वाधिक लाड़ जिस रचना विधा को दिया है, वह गीति विधा है। देश-काल-परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में गीत विधा सतत परिवर्तित होती रही है। गीत का कथ्य, भाव, भंगिमाएँ, शब्दावली, शैली आदि हे इन्हीं बिंब, प्रतीक और अलंकार भी परिवार्तित होते रहे हैं. यह परिवर्तन इतनी तीव्र गति से हुआ है कि गीत कविता और गद्य की तरह होकर अगीत और गद्यगीत की संज्ञा से भी अभिषिक्त किया गया। विविध बदलावों के बाद भी गीत की लय या गेयता बरक़रार रही किंतु अगीत और गद्य गीत ने इससे भी मुक्त होने का प्रयास किया और तथाकथित प्रगतिवादी कविता ने गीत-किले में सेंध लगाकर उसे समाप्त करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। यह गीत की जिजीविषा ही है कि सकल उठा-पाठक के बाद भी गीत अमरबेल की तरह फिर-फिर उठ खड़ा हुआ और पूर्वपेक्षा अधिकाधिक आगे बढ़ता गया।

भारत के ह्रदय प्रदेश नर्मदांचल में आधुनिक हिंदी (खड़ी बोली) अपने शुद्धतम रूप में बोली-लिखी जाती है। इस अंचल के रचनाकार प्रचार-प्रसार को महत्व न दे, रचनाकर्म को स्वांत: सुखाय अपनाते रहे हैं। फलत:, वे चर्चा में भले ही न बने रहते हों किंतु रचनाधर्मिता में हमेशा आगे रहे हैं। जयप्रकाश श्रीवास्तव इसी परंपरा के रचनाकार हैं जो कहने से अधिक करने में विश्वास करते हैं। मन का साकेत गीत संग्रह (२०१२) तथा परिंदे संवेदना के गीत-नवगीत संग्रह (२०१५) के बाद अब जयप्रकाश जी शब्द वर्तमान नवगीत संग्रह के साथ गीत संसद में दमदार उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं। वे नरसिंहपुर जिले की लोक परंपरा और शिक्षकीय भाषिक संस्कार की नीव पर आम आदमी की व्यथ-कथा की ईटों में आशा निराशा का सीमेंट-पानी मिश्रित मसाला मिलते हुए जिजीविषा की कन्नी से नवगीत की इमारत खड़ी करते हैं। जय प्रकाश जी के नवगीतों में समसामयिक समस्याओं से आँखें चार करते हुए दर्द से जूझने, विसंगतियों ले लड़ने और अभाव रहते हुए भी हार न मानने की प्रवृत्ति दिखाई पड़ती है। इन नवगीतों में मानव मन की जटिलता है, संबंधों में उपजता-पलता परायापन है, स्मृतियों में जीता गाँव, स्वार्थ के काँटों से घायल होता समरसता का पाँव, गाँव की भौजाई बनने को विवश गरीब की आकांक्षा है, विश्वासों को नीलम कर सत्ता का समीकरण साधती राजनीति है, गाँवों को मुग्ध कर उनकी आत्मनिर्भरता को मिटाकर आतंकियों की तरह घुसपैठ करता शहर है। जयप्रकाश जी शब्दों को शब्दकोशीय अर्थों से मिली सीमा की कैद में रखकर प्रयोग नहीं करते, वे शब्दों को वृहत्तर भंगोमाओं का पर्याय बना पाते हैं। उनके गीत आत्मलीनता के दस्तावेज नहीं, सार्वजनीन चेतना की प्रतीति के कथोकथन हैं। इनकी भाषा लाक्षणिकता, व्यंजनात्मकता तथा उक्ति वैचित्र्य से समृद्ध है।

''कल मिला था
शहर में इक गाँव
सपनों की लिए गठरी''
सपनों को खुला आकाश न मिलकर गठरी मिलना ही इंगित करता है कि सपनों को देखनेवाले गाँव हालत चिंतनीय ही हो सकती है-
"आँखों में नमी ठहरी.....
सत्ता हो गई बहरी.....
और अंतत: लांघता झूठ की देहरी।"
बुभुक्षति किं न करोति पापं.... विडम्बना यह कि शहर के हाल भी बेहाल हैं-
"तुम्हीं बताओ
शहर कहाँ है?
अभी यही था
गया कहाँ है?
घर सारे बन गए दुकानें......
कुछ तो बोलो
आम आदमी
आखिर क्यों
लाचार यहाँ है?....
चौपट सारी हुई व्यवस्था
मूक-बधिर
कानून जहाँ है।"
इतना ही होता तो गनीमत होती।
हद तो यह कि जंगल की भी खैर नहीं है-
"लिख रहा मौसम कहानी
दहकते अंगार वन की
धरा बेबस
जन्मती हर और बंजर
हवाओं के
हाथ में बुझे खंजर"
और अंतत:
"यह चराचर जगत फानी
बन गया समिधा हवन की।"

जय प्रकाश जी के नवगीतों का मुखड़ा और सम वजनी पंक्तियाँ सार कह देती हैं, अंतरा तो उनका विस्तार जैसा होता है-
"उड़ मत पंछी
कटे परों से
बड़े बेरहम गिद्ध यहाँ के
(अंतरा)
तन से उजले
मन के काले
बन बैठे हैं सिद्ध यहाँ के
(अंतरा)
सत्ता के
हाथों बिकते हैं
धर्मभ्रष्ट हो बुद्ध यहाँ के
(अंतरा)
खींच विभाजन
रेखा करते
मार्ग सभी अवरुद्ध यहाँ के।
अब अंतरे देखें तो बात स्पष्ट हो जायेगी।
१. नोंच-नोंच कर
खा जायेंगे
सारी बगिया
पानी तक को
तरस जायेगी
उम्र गुजरिया,
२. हकदारी का
बैठा पहरा
साँस-साँस पर
करुणा रोती
कटता जीवन
बस उसाँस पर,
३. तकदीरों के
अजब-गजब से
खेल निराले
तदबीरों पर
डाल रहे हैं
हक के ताले।
नवगीत लेखन में पदार्पण कर रही कलमों के लिए मुखड़े अंतरे तथा स्थाई पंक्तियों का अंतर्संबंध समझना जरूरी है।

विदेश प्रवास के बीच बोस्टन में लिखा गया नवगीत परिवेश के प्रति जयप्रकाश जी की सजगता की बानगी देता है-
तड़क-भक है
खुली सड़क है
मीलों लंबी खामोशी है।

जंगल सारा
ऊँघ रहा है
चिड़िया गाती नहीं सवेरे
नभ के नीचे
मेघ उदासी
पहने बैठे घोर अँधेरे
हवा बाँटती
घूम रही है
ठिठुरन वाली मदहोशी है।

जयप्रकाश जी ने मुहावरों, लोकोक्तियों का प्रयोग कम किंतु कुशलता से किया है-
"मन का क्या है
रमता जोगी, बहता पानी
कभी हिरण सा भरें कुलाँचें
कभी मचलता निर्मल झरना",
या "मुर्दों की बस्ती में
जाग रहे मरघट हैं",
"सुविधा के खाली
पीट रहे ढोल हैं
मंदी में प्रजातंत्र
बिकता बिन मोल है",
"अंधों के हाथ
लग गई बटेर
देर कहें या इसको
कह दें अंधेर" आदि

उक्ति वैचित्र्य के माध्यम से इंगितों में बिन कहे कह जाने की कला इन नवगीतों में सहज दृष्टव्य है- सपनों की गठरी, झूठ की देहरी, अक्षर की पगथली, शब्दों के जंगल, अर्थों के बियाबान, यग का संत्रास, सभ्यता के दोराहे, संस्कार मीठे से, अंधेरों की लम्बी उम्र, सूर्य के वंशज, हौसलों के सहारे, चल की महफिल, मँहगाई की मार, संबंधों का बौनापन, अपनेपन के वातायन, हरकतों का खामियाजा, साँसों का व्यापार, चाँद की हँसुली, देह के आल्हाद, शब्द के शहतीर, वन के कारोबार, मस्तियों की गुलाल, चाँदनी के गाँव आदि दृष्टव्य हैं।

भूमिका में ख्यात नवगीतकार और समीक्षक डॉ. रामसनेही लाल शर्मा 'यायावर' ने ठीक ही आकलन किया है- "यहाँ समूचा युग प्रतिबिंबित है।" नवगीत का कथ्य समसामयिक आदमी के दर्द और पीड़ा, समाज में व्याप्त विसंगतियों और पारिस्थितिक विडंबनाओं, न जीने न मरने देने वाली मारक परिस्थितियों आदि के बीच से उठाया जाता है। जीवन संघर्ष, आशा-निराशा, भटकाव-अटकाव आदि नवगीत को सचाई का आईना बना देती हैं।

नवगीत आधुनिक युग बोध और पारंपरिक लोक चेतना के सम्मिलन से उपजे क्रिया व्यापार और उसके परिणाम पर संवेदनशील मन की प्रतिक्रिया है। नवगीत व्यक्ति में उपजा समष्टि बोध है, जय प्रकाश जी के नवगीत इसकी पुष्टि करते हैं-
"उठ रहा है
धुआँ चारों ओर से
आग ये कैसी लगी है?"

नवगीत वैयक्तिक पीड़ा का सामान्यीकरण है-
"रात चटकी
चूड़ियों सी
धुला काजल
नहीं लौटा
गया जबसे /
दूत बादल
पिया के
जाने कहाँ है ठाँव
बेबस मन हुए हैं।

साधारण दृश्य को असाधारण संवेदना के साथ अभिव्यक्त करने में जय्प्रक्ष जी का सानी नहीं है। डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी के अनुसार "अनुभव का अनुभव होना अनुभूति है।" लघुकाय, खंडित, अमूर्त और देखकर अदेखे किये गए बिंब के माध्यम से संवेदना को अधिक मार्मिक और तीक्ष्ण बनाते हैं ये नवगीत-
"सर्द तन्हाई
बुझाने बर्फ कूदी
धूप पोखर में
लिपटकर सपने
आँखों से झरे
पात पीपल के
खदकने से डरे
देख धुंधलापन
सड़क ने आँख मूँदी
शहर ठोकर में।"

नवगीतों में अल्प विराम, अर्ध विराम, विस्मय बोधक चिन्ह आदि की अपनी उपादेयता होती है किन्तु जयप्रकाश जी पदांत में पूर्णविराम के अतिरिक्त अन्य किसी विराम चिन्ह का प्रयोग नहीं करते। भँवरे के स्थान पर भंवरे का प्रयोग त्रुटि पूर्ण है।

प्राकृतिक आपदाओं के समय से गगन विहारियों द्वारा आसमान से जन-विपदा का जायजा लेना जले पर नमक छिड़कने की तरह प्रतीत होता है-
"दुखती रग पर
हाथ धरकर
पूछते हैं हाल
पीठ पर चढ़
हँस रहा है
आज भी बैताल
आँसुओं से
लड़ रहे हैं जंग
सपने आँख में ठहरे।

'शब्द वर्तमान" के नवगीत केवल व्यथा-कथा नहीं है, उनमें लोक मंगल भी परिव्याप्त है। इस दृष्टि से ये गीत अधिक पूर्ण हैं-
अनगिनत किरणें सजा
थाल में लाई उषा
धरा का मंगल हुई।
लिपे आँगन धूप से
पक्षियों के मधुर गान
हो गया तम निर्वासन
दिशाएँ सब दीप्तिमान
अर्ध्य सूरज को चढ़ा
प्रकृति उज्जवल हुई।

तुम कहाँ हो शीर्षक गीत श्रृंगार समेटे हैं-
गीत मन के द्वार
देने लगे दस्तक
तुम कहाँ हो?
शब्द आँखों से
चुराकर ले गये सपने
अक्षरों की अँगुलियाँ
मंगल लगी लिखने
उचारे हैं साँसों ने
स्वस्तिक के अष्टक
तुम कहाँ हो?

संकीर्णतावादी समीक्षक ऐसे प्रयोगों को नवगीत न माने तो भी कोई अंतर नहीं होता। नवगीत सतत नयी भाव-भंगिमाओं को आत्मसात करता रहेगा। जय प्रकाश जी के ये नवगीत परिवर्तन की आहट सुना रहे हैं। 
***
 कृति चर्चा-

'चुप्पियों के गाँव में' सरस नवगीतों की छाँव 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
[कृति विवरण: ओझल रहे उजाले, नवगीत, विजय बागरी, प्रथम संस्करण २०१८, पृष्ठ १५१, आकार १४ से. x २१ से., आवरण बहुरंगी सजिल्द जैकेट सहित, मूल्य २५०/-, उद्भावना प्रकाशन एच ५५, सेक्टर २३, राजनगर, गाजियाचलभाष ९८११५८२९०२, रचनाकार संपर्क: कछारगाँव बड़ा, कटनी, ४८३३३४, चलभाष ०९६६९२५१३१९, समीक्षक संपर्क: ४०१, विजय अपार्टमेंट, सुभद्रा वार्ड, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, salil.sanjiv@gmail.com, चलभाष: ९४२५१८३२४४ / ७९९५५५९६१८]
*
नवगीत हिंदी गीतिकाव्य ही नहीं सकल हिंदी साहित्य की वह विधा है जो जन-मन से और जिससे जन-मन अभिन्न है। नवगीती कचनार की गझिन शाखाओं में दिन-ब-दिन गहरे सुर्ख फूलों को खिलते देखना सगोत्री विस्तार से मिलनेवाले सुख या 'गूँगे के गुड़' की तरह है। नर्मदांचल के बुंदेलखंड क्षेत्र में नवगीत की क्यारी में सृजन के पौधे रोपने निरंतर रोपने में सर्व श्री विनोद निगम, राम सेंगर, भोलानाथ, आचार्य भगवत दुबे, गिरिमोहन गुरु, जंगबहादुर श्रीवास्तव, जयप्रकाश श्रीवास्तव, राजा अवस्थी, आनंद तिवारी, रामकिशोर दाहिया आदि उल्लेखनीय हैं। यत्किंचित योगदान मुझ अकिंचन का भी रहा है। इस क्रम में अनुजवत विजय बागरी का जुड़ाव स्वागतेय है। शीघ्र ही सर्वश्री बसंत शर्मा, अरुण अर्णव खरे, सुरेश तन्मय, राजकुमार महोबिया तथा अविनाश ब्योहार की उपस्थिति दर्ज होनी है। नवगीत उद्यान में निरंतर नए पुष्प खिलते रहें और अपनी सुवास बिखेरते रहें इस हेतु विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर सतत प्रयासरत है।
यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि स्व. जवाहर लाल चौरसिया 'तरुण', स्व. श्याम श्रीवास्तव, श्री यतीन्द्र नाथ 'राही', श्री कृष्णकुमार 'पथिक', श्री शिव कुमार 'अर्चन' तथा कुछ अन्य गीतकारों के रचना संसार में कई रचनाएँ नवगीत और गीत की परिधि पर हैं किंतु नवगीतों में विशिष्ट विचारधारा और शब्दावली के प्रति आग्रह से असहमति ने इन्हें नवगीत से दूर ही रखा। इस कारण इन श्रेष्ठ रचनाकारों को नवगीत के आँगन में अपनी वाणी सुनाने का अवसर न मिला तो नवगीत भी इनकी उपस्थिति से गौरवान्वित होने के क्षण न पा सका। गीत और नवगीत को पिता-पुत्र की तरह परिभाषित किये जाने और पिता का प्रवेश पुत्र के आँगन में वर्जित बतानेवालों ने अपनी अहं तुष्टि भले ही कर ली हो, नवगीत की हानि होने को नहीं रोक सके। गीत के मरने का मिथ्यानुमान कर गर्व के हिमालय पर जा खड़ी हुई प्रगतिवादी कविता को फिसलने में देर न लगी। 'नानक नन्हें यों रही जैसी नन्हीं दूब' और 'प्रभुता से लघुता भली, प्रभुता से प्रभु दूर' को जी रहा गीत नव वस्त्र धारण कर 'नव' विशेषण से अभिषिक्त होकर पुन: लहलहा रहा है। अब नवगीत के वैचारिक पक्ष को प्रगतिवादी कविता से व्युत्पन्न, छांदसिकता को उर्दू ग़ज़ल से आयातित, गेयता को पारंपरिक गीत की देन और लोकगीतों को प्रतिरोधी बताने की दुरभिसंधि नवगीत को उसकी अपनी जमीन से दूर कर उसके प्रासाद में सेंध लगाने का तथाकथित प्रगतिवादी विचारधारा प्रणीत कुत्सित प्रयास है। वरिष्ठ नवगीतकार हर खेमे में अपनी पूछ-परख का ध्यान रखते हुए भले ही मौन रहें किंतु विजय बागरी जैसे कलमकार जो नवगीत को गीत का वारिस मानते हुए दोनों को अभिन्न देखते, मानते और साँस-साँस में जीते हैं, अपनी रचनाओं से प्रमाणित करते हैं कि नवगीत वैचारिकता अपने समय को जीते हुए गीत से, गेयता पग-पग, डग-डग हर दिन गुनगुन करते लोकगीत से ग्रहण करता है। नवगीत छंद को कथ्य, लय और शैली के समायोजन से आवश्यकतानुसार बनाता-अपनाता है। इसीलिये नवगीत पारंपरिक छंदों के समान्तर विविध छंदों का सम्मिश्रण भी मुखड़े और अंतरे में स्वाभाविकता, सहजता और अधिकारपूर्वक कर पाता है। 
विजय बागरी का वैशिष्ट्य अपने परिवेश, प्रकृति और पर्यावरण के प्रति सजग और संवेदनशील होना है। उनकी गीति रचनाएँ कपोल कल्पना से दूर स्वभोगे अथवा अन्यों द्वारा भोगे हुए को साक्षी भाव से ग्रहण किये गए अनुभवों से नि:सृत हैं। विजय ग्राम्य और नागर दोनों अंचलों से जुड़े हैं इसलिए उनकी दृष्टि के सामने सृष्टि का व्यापक रूप अपनी छटा बिखेरता है। वे पूंजी द्वारा श्रम का शोषण होते देखकर चुप न रहकर अपनी कलम से शब्द-वार करते हैं-
आँखों में घड़ियाली आँसू
बगुले करते जाप।
रंग बदलते-
गिरगिट देखे ,
आसमान में साँप।
चमक-दमक,
कीकर की लगती,
जैसे हो सागौन।
.
मौसम गुंडा-
गर्दी करता
आदमखोर हवाएँ।
संवेदन की लाशें ढोतीं
कपटी शोकसभाएँ।
श्रम सीकर के
हरे घाव पर
लेपन करते लौन।
विजय का युवा मन समस्याओं को सुलझाने की प्रयास करता है और समाधान के रास्तों पर अवरोधों को देखकर कुंठित नहीं होता, वह व्यवस्था परिवर्तन का उद्देश्य लेकर कमियों को निडरता से इंगित करता है-
समाधान के दरवाज़े पर
लटक रहे हैं ताले।
.
जिरह पेशियाँ, कूट दलीलें
ढोती रोज कचहरी।
कैद फाइलों की कारा में,
अर्जी गूँगी-बहरी।
छद्म गवाही देनेवाले
गुंडे डेरा डाले।
.
सजी वकीलों की दूकानें
प्रतिष्ठान पंडों के।
बड़े-बड़े दफ्तर फरेब के
लहराते झंडों के।
मुंशी चपरासी लगते हैं
जैसे जीजा-साले।
जीवन के दरवाजे पर ताले लटकने के साथ-साथ दफ्तर की खिड़की भी बंद हो तो स्थिति बद से बदतर और गंभीर हो जाती है-
जीवन के
दफ़्तर की खिड़की
कब से नहीं खुली।
हठधर्मी के
ताले लटके,
सदियाँ बीत गईं।
मनुहारें करतीं
आँखों की
झीलें रीत गईं।
खुसुर-फुसुर
कर रहीं कुर्सियाँ,
मेजें मिलीं-जुलीं।
.
दीवारों पर
शीश पटकती,
मन की उथल-पुथल।
संदूकों में
बंद अपीलें,
कुंठित अगल-बगल।
टूट रही
बूढ़ी साँसों की,
हिम्मत नपी-तुली।
तमाम विसंगतियों और विडंबनाओं के बावजूद ज़िंदगी दर्द का दस्तावेज मात्र नहीं है, उसमें अन्तर्निहित आनंद की अनुभूतियाँ उसे जीने योग्य बनाये रखती हैं। विजय इस जीवनानंद को नवगीत का अलंकार बनाते हैं-
एक बदरिया
अँगना उतरी
छानी मार रही किलकारी।
.
कोयल मंगल-
गान सुनाती,
अमराई में रास रचाती।
चौमासे की-
शगुन पत्रिका
बाँच रही पुरवा लहराती।
बट-पीपर
आलिंगन करते,
पाँव-पखार रही फुलवारी।
.
भींज रही
पनघट पे गोरी,
उर अनुरागी चाँद-चकोरी।
ताँक-झाँक
कर रही बिजुरिया,
नैन मटक्का चोरा-चोरी।
बहुत दिनों के-
बाद दिखी हैं,
धरती की आँखें कजरारी।
रस को नवगीत का प्राणतत्व माननेवाले विजय नीरसता को किनारे कर सरसता की गगरी नवगीतों की पंक्ति-पंक्ति में उड़ेलने की सामर्थ्य रखते हैं-
मेरे गीत,
तुम्हारे मन की-
गलियों से जब गुजर रहे थे।
कर सोलह-
श्रृंगार सुहाने,
सपन सलोने सँवर रहे थे।
अधर-अधर-
दोहा चौपाई,
नज़र-नज़र कुण्डलिया रागी।
धड़कन-धड़कन
राग बसंती,
कल्याणी कविता अनुरागी।
.
कंठ-कंठ से
कलकंठी के,
सरगम के स्वर उतर रहे थे।
विजय के नवगीतों में मौलिक बिंबों की छटा देखते ही बनती है-
सूरज की
बूढ़ी आँखों में,
गहन मोतियाबिंद हुआ.
खेल रही है
धवल चाँदनी,
अँधियारे के साथ जुआ।
भिनसारे का
कुटिल कुहासा,
धुआँधार तेजाबी है।
मलय पवन
के, नैंन नशीले,
अटपट चाल शराबी है।
मौसम की
मादक नीयत से,
टपक रहा जैसे महुआ।
आधुनिक समाज में छद्म मुखौटा लगाने का प्रचलन इतना बढ़ गया है कि खाने से अधिक फेंकनेवाले भुखमरी पर पोथियाँ भरे जा रहे हैं जबकि भुखमरी की कगार पर खड़ा कर दिया गया आम जन तमाम अभावों से घिरा हुआ होकर भी पर्व-त्यौहार का आनंद ले-दे पाता है। विजय 'आजकल / कितनी विकल है / सभ्यता की नव सदी' 'लिख रहा / इतिहास गोया / रुग्णता की नव सदी' और 'हो रही / पत्थर ह्रदय / स्वच्छंदता की नव सदी' लिखकर विसंगतियाँ मात्र उद्घाटित नहीं करते अपितु 'कब पुजेगी / उल्लसित / उत्कृष्टता की नव सदी' लिखकर मुखौटों को उतारकर अकृत्रिमता की प्रतिष्ठा किये जाने का आव्हान भी करते हैं 
नवगीत में मैंने अपने नाम या उपनाम का प्रयोग उनके शब्दकोशीय अर्थ में किया है। 'चुप्पियों के गाँव में' शीर्षक नवगीत में विसंगतियों को उद्घाटित करने के साथ विजय ने भी अपने नाम / उपनाम का प्रयोग अंतिम पंक्ति में किया है। कवि के नाम या उपनाम को रचना में प्रयोग करने की यह परंपरा लोकगीतों तथा भक्ति काव्य से होते हुए उर्दू ग़ज़ल में 'तखल्लुस' के रूप में अपनी गयी।
थरथराते
मौसमी मनुहार के,
गीत घायल
चुप्पियों के गाँव में।
चूम रहे काँटे,
अंधेरों के कुटिल,
दिन दहाड़े, रौशनी के पाँव में।
ऋतुमती पछुआ
हवा-आसक्त उर,
सिद्धपीठों के पुजारी हो गए....
.... सभ्यता के
आचरण बगुलामुखी,
संस्कारों के शिकारी हो गए।
राजमहलों के
उजाले भी 'विजय'
आजकल षड्यंत्रकारी हो गए।
विजय के इन नवगीतों की भाषा बुंदेलखंड के कस्बों में प्रयुक्त हो रही आम बोलचाल की भाषा है। आधुनिक हिंदी का शुद्ध स्वरूप इनमें दृष्टव्य है। यह भाषा खड़ी हिंदी, बुंदेली, संस्कृत, देशज, उर्दू तथा अंगरेजी शब्दों के यथावश्यक शब्दों के मेल-जोल से बनाती है जिसमें व्याकरणिक नियम हिंदी के प्रयोग किये जाते हैं। विजय ने अंगरेजी शब्दों का प्रयोग (अपवाद नैट-चैट, टी. वी., मोबाइल) नहीं किया है। यह उनका वैशिष्ट्य है। संस्कृत निष्ठ शब्दों में स्वच्छंद, उद्घोष, निर्वासन, उल्लसित, कुम्भज, उदधि, गन्तव्य, मर्माहत, अहर्निश, विहंगम, अगोचर, अविरल, अभ्युत्थान, प्रहर्षित, हेमवर्णी, अंतर्व्यथा, निदाघ, नयनोदक, स्वस्तिवाचन, अंतर्तिमिर, शब्दातीत, तमासावृत्त, संसृति, प्रभंजन, संकल्पनाएं, प्रक्षालित, प्रनिपतों, पुलकावली, वल्लरियाँ आदि से देशज बुन्देली शब्द अवां, होरा, चौमासा, खुसुर-फुसुर, भिनसारा, बतकहाव, बदरिया, भींज, बिजुरिया, बखर, माटी, नेंगचार, बूंदाबारी, चिरैया, बिलोना, कुठारी, भिनसारे, पहरुए, बिछुआ, दुपहरिया, टकोरे, छतनारी, परपंच, लगैया, को है, समुहानी, सपन, बौराने, ठकुरसुहाती, कमरिया, ओसारे, गठरिया, धुंधुवाती, नदिया, राम रसोई, चौंतरा, रामजुहारें आदि गले मिलते हुए कथ्य को सरस और ह्रदयग्राही बनाते हैं। उर्दू शब्द इम्तिहान, दफ्तर, नजरें, ज़हर, दुआ-सलाम, वक्त, सैलाब, परवाज़, रौशनी, ज़िंदगी, गर्द-गुबार, तेजाबी, नुक्ताचीनी, सरेआम, मशहूर, पनाह, नागवार, दस्तूर, सबक, मगरूर, गुस्ताखी, बगावत, अदावत, मासूम, निशाना, दिल, अरमानों, नासूर, जिगर, गाफिल, सिरफिरे, मातमपुरसी, नफरत, फ़कीर, तस्वीर, दागी, महबूब, बड़ा, मुनादी, अहसासों, हुकूमत, पर्दाफाश, फरेबी, हलाकान, मगरूर, तहकीकातों, तबाही, सवालों, बाज़ार, आबरू, तनहाइयों, शोखियाँ वगैरह हमारी गंगो-जमुनी विरासत को आगे बढ़ाते हैं।
इस कृति के गीतों-नवगीतों में हिंदी के व्याकरण नियमों का पालन उचित ही किया गया है। उर्दू शब्दों के बहुवचन हिंदी व्याकरण के अनुसार हैं। जैसे- नजरें, अरमानों, अहसासों, तहकीकातों, सवालों, शोखियाँ आदि। कथ्य की सरसता में जन की जुबान पर चढ़े मुहावरों यथा- छाती पर होरा भूंजना, नैन मटक्का, घर का भेदी लंका ढाए, ठिकाने लगाना, जंगल में मंगल आदि वृद्धि की है।
इस दशक के नवगीतकारों की भाषा शैली में में पूर्ववर्तियों की तुलना में दो नए रुझान बहुलता से शब्द-युग्मों का प्रयोग तथा शब्दावृत्तियों का प्रयोग देखने में आ रहे हैं। अपने नवगीत संग्रह 'काल है संक्रांति का' में मैंने शब्द-युग्मों तथा शब्दवृत्ति के प्रयोग किए हैं। इससे कथ्य के भाषिक-प्रवाह, लयात्मकता, सरसता तथा लोकरंजकता में वृद्धि होती है। विजय के नवगीत भी इन रुझानों से युक्त हैं। इस कृति में प्रयोग किये गए शब्द युग्मों में कुछ पारंपरिक किंतु अनेक सर्वथा नवीन हैं। मन-मतंग, हरा-भरा, धूल-धूसरित, सावन-भादों, दीन-हीन, खेतों-खलिहानों, राग-द्वेष, मान-मनौती, बाहर-भीतर, उथल-पुथल, सज-धज, पल-छिन, साँझ-सकारे, मेल-मुलाकातें, व्यथा-कथा, खेत-खलिहान, घाट-प्रतिघात, नेट-चैट, राम-रसोई, सुचिता-सच्चाई, रात-दिन, देह-पिंजरे, प्राण-पंछी, सुर-टाल, उमड़-घुमड़, दादुर-चातक, लपक-झपक, शब्द-अर्थ, लोक-लाज, हेल-मेल, रंग-बिरंगी, माया-मृग, मन-गन, तर्क-वितर्क, खंडन-मंडन, खेल-खिलौने, धरती-अम्बर, चाँद-सितारों, नदिया, पनघट, भूख-प्यास, चाँद-चकोरी, ताक-झाँक, चोरा-चोरी, मेघ-मल्हार, काल-कवलित, संगी-साथी, कुटुम-कबीले, पल-छिन, हरी-भारी, कोर-किनारे, हँसी-ठहाके, ठौर-ठिकाने, मन-मधुबन, सोलह-श्रृंगार, सपन-सलोने, दोहा-चौपाई, दुखी-निराश, सरित-सरोवर, उमड़-घुमड़, दर्द-पीर, वयः-कथा, गुना-भाग, रिश्ते-नातों, हर्ष-उल्लास, गर्द-गुबार, पुष्कर-पुण्डरीक, तुलसी-चौरे, विषय-वासना, नून-तेल, माखन-मिसरी, धक्का-मुक्की, भीड़-भाद, हाथा-पाई, ताना-बना, लुटे-पिटे, सृष्टि-दृष्टि, संत-कंत, गीत-प्रीत, नेह-गह, हेल-मेल, भूखी-प्यासी, हेरा-फेरी, जोड़-घटना, ज्ञान-ध्यान, पूजा निष्ठा, मन-मंदिर, रंग-भंग, छल-छंद, कुआँ-बावली, लू-लपट, भूखी-प्यासी, तट-तरुवर, मथुरा-काशी, माघ-पूस, जोगन-बैरागन, नाप-तौल, हँसी-खुशी, चाल-चलन, सुख-शांति, चाँद-तारे, घात-प्रतिघात, महकी-चहकी, कपट-कौशल, माघ-पूस, खात-बिछौना, छल-बल, संझा-बाती, गाँव-शहर, दावानल-पतझर, हानि-लाभ, सुख-दुःख, चहल-पहल, भूल-भूलैंया, नोंक-झोंक, रुदन-मुस्कान, छल-छंद-चतुरी, वर्ष-मास-दिन, सत्यं-शिवं-सुन्दरं आदि-आदि शब्द युग्म कथ्य की अर्थवत्ता तथा वाचिक सौन्दर्य की वृद्धि कर रहे हैं।
यह कृति शब्दावृत्तियों के प्रयोग की दृष्टि से भी समृद्ध है। शब्दावृत्ति से आशय किसी शब्द के दो बार प्रयोग करने से है। ऐसा कथ्य पर अतिरिक्त जोर देने के लिए किया जाता है। इससे उत्पन्न पुनरावृत्ति अलंकार भाषिक तथा वाचिक सौन्दर्य वर्धक होता है। विजय ने अधर-अधर, नज़र-नज़र, धड़कन-धड़कन, कंठ-कंठ, लहर-लहर, अंग-अंग, छंद-छंद, रोम-रोम, किरण-किरण, अंग-अंग, गात-गात, कण-कण, पात-पात, पोर-पोर, पनघट-पनघट, धड़कन-धड़कन, पोर-पोर, फूंक-फूंक, लहर-लहर, घाट-घाट, कली-कली, दर-दर, धार-धार, लौट-लौट, पल-पल, चुपके-चुपके, रात-रात, करवट-करवट, शब्द-शब्द, उलट-उलट, अभी-अभी, जनम-जनम, सहते-सहते, कदम-कदम, कहीं-कहीं, किराचा-किराचा, सर-सर, पोर-पोर, जन-जन, चेहरे-चेहरे, तौबा-तौबा, प्रश्न-प्रशन, अक्षर-अक्षर, क्रंदन-क्रंदन, सींच-सींच, कुहू-कुहू, चुपके-चुपके, बूँद-बूँद, घाट-घाट, तिनका-तिनका, गली-गली, घर-घर, ऊँचे-ऊँचे, रिमझिम-रिमझिम, पोर-पोर, मंद-मंद, पट्टा-पट्टा, क्या-क्या, कभी-कभी, चूर-चूर, कण-कण, सांय-सांय, माखन-मिसरी, चाल-चरित्र आदि शब्दावृत्तियों का सार्थक-सटीक प्रयोग कर गीति रचनाओं को अर्थवत्ता प्रदान की है। 
युवा नवगीतकार अपने परिवेश और पर्यावरण के प्रति सचेत है। नवगीतों में वट, पीपल, अमराई, कचनार, केतकी, सरसों, हरसिंगार, पलाश, मोगरा, मंजरियाँ, फुलवारी आदि अपनी सुषमा यथास्थान बिखेर रहे हैं। कोयल, चिरैया, मैना, दादुर, चातक, बैल आदि पात्र ग्राम्यांचली परिवेश को जीवंत कर रहे हैं। यह नवगीतकार अपनी अभिव्यक्ति सामर्थ्य के बाल पर कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक कहने की पारंपरिक विरासत को सम्हाल सका है। पंख थकावट ओढ़े / बैठे, परवाजें संकट में पारिस्थिक विवशता, धूप पसीना पोंछ रही में विरोधाभास, चटनी-रोटी / खाते-खाते गयी ज़िंदगी ऊब में निराशा, बीजों से / जब अंकुर फूटे /खेतों ने श्रृंगार किया तथा उम्मीदों की / खोल खिड़कियाँ / मुखरित हुईं मचाने में आशावाद, उठ भिनसारे / विहग-स्वरों ने / गीतों का गुंजार किया तथा छलक उठे प्यासे अधरों से / प्रीति पेय, नवगीत तुम्हारे में श्रृंगार, रौशनी के तामसी / बरताव पर, मैं चुप रहूँ में दुविधा, नेताओं के / बतकहाव से / झरने लगे बताशे में राजनैतिक हलचल, हेरा-फेरी / के चक्कर में / चोरों के सरदार में सामाजिक वातावरण, खोटे सिक्के / चाल-चलन से / हुए बहुत मगरूर में सटीक बिम्बात्मकता, बेशर्मी की / मोटी खालें / सत्ता का दस्तूर में शासन के प्रति घटती जनास्था, वक्त छोड़कर / चला गया कुछ / तहकीकातें नयी-नयी में राजनैतिक भ्रष्टाचार, रात काटती / जलती बीडी / टूटा छप्पर, टाट-बिछौना में ग्रामीण विपन्नता, रोज दिहाड़ी / मारी जाती / सरे-आम छल-बल से में श्रमिक शोषण, चले शहर की / ओर गाँव की / पगडंडी के पाँव में ग्रामीण पलायन, कहीं-कहीं / छल-छंद-चातुरी / भला करे भगवान् में पारंपरिक भाग्यवादिता, दहक रही है / अंगारों में / मधुमासी तरुणाई में युवाओं के समक्ष उपस्थित विषम परिस्थितियाँ, बदल रही / चिन्तन की भाषा / मूल्यों का अनुवाद में सतत बदलते मूल्य, कितनी बरसातों / ने आकर / पूछा कभी हिसाब में प्रकृति की उदारता, नैट-चैट / टी. वी., मोबाइल / का जूनून, लादे सर पर / राम-रसोई / अंतर्पुर तक / विज्ञापन की गिद्ध नज़र में हावी होता बाजारवाद, उमड़-घुमड़ / कर बदरा छाए / नाचन लागे मोर में ऋतु-परिवर्तन, बंदनवार / सजें गीतों के / आभूषित अनुप्रास से में लोक की उत्सवधर्मिता, ज़िंदगी ही/ जिंदगी का / आखिरी पैगाम में जिजीविषा शब्दित होकर पाठक को रचनाओं से एकात्मकता स्थापित करने में सहायक है।
'चुप्पियों के गाँव में' समय-साक्षी गीति-रचनाओं (गीत-नवगीत) का गुलदस्ता है जिसमें नाना प्रकार के पुष्प अपने रूप, रंग, सुरभि की नैसर्गिक छटा से पाठक को मंत्र-मुग्ध कर जीवन की विषमताओं के चक्रव्यूह से उपजी पीड़ा और दर्द के संत्रास को सहने, उससे बाहर निकलने के आस्था-दीप को जलाये रखने तथा अभिमन्यु की तरह जूझने की प्रेरणा देता है। नर्मदांचली लोक जीवन की सहज-सरस बानगी समेटे गीत-पंक्तियों से स्वस्थ्य जन-मन-रंजन करने की दिशा में कलम चलाता युवा रचनाकार अपनी भाषिक सामर्थ्य, शैल्पिक कौशल, छान्दस नैपुण्य तथा अभिव्यक्ति क्षमता से अपने उज्जवल भविष्य के प्रति आश्वस्त करता है। मुझे भरोसा है कि यह कृति वरिष्ठों से शुभाशीष, हमउम्रों से समर्थन और कनिष्ठों से सम्मान पाकर विजय की कलम से नयी नवगीत संकलनों के प्रागट्य की आधार शिला बनेगी।
*

कृति चर्चा:
नवगीतीय परिधान में 'फुसफुसाते वृक्ष कान में'    
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: फुसफुसाते वृक्ष कान में, नवगीत संग्रह, हरिहर झा, प्रथम संस्करण २०१८, आई एस बी एन ९७८-९३-८७६२२-९०-६, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी सजिल्द जैकेट सहित, पृष्ठ १६५, मूल्य ३५०/-, अयन प्रकाशन, १/२० महरौली नई दिल्ली ११००३०, चलभाष ९८१८९८८६१३]
                                                     *
विश्ववाणी हिंदी ने देववाणी  संस्कृत से विरासत में प्राप्त व्याकरण व पिंगल  को देश-काल-परिस्थितियों और मानवीय आवश्यकताओं के अनुरूप परिवर्तित-संवर्धित करते हुए पुरातन विधाओं को नव रूपाकार देकर ग्राह्य बनाये रखने का जो सारस्वत अनुष्ठान सतत सम्पादित किया है उसकी गीत विधायी प्राप्ति नवगीत है। लोकमांगल्य के गिरि शिखर से  सतत प्रवाहित पारंपरिक साहित्यिक गीत, लोकगीत और जनगीत की त्रिवेणी ने विसंगतियों की शिलाओं, विडंबनाओं के गव्हरों और सामाजिक संघर्षों के रेगिस्तानों को पार करते हुए कलकल निनादिनी नर्मदा के निर्मल प्रवाह की तरह जनहितैषिणी होकर नवगीत विशेषण को शिरोधार्य किया जो रूढ़ होकर संज्ञा रूप मे व्यवहृत हो रहा है। लोक-पालक 'हरि' और शंका-विनाशक 'हर' का सुखद सम्मिलन जिनके नाम में है वे हरिहर झा अपनी सृजन-थाल में ८३ नवगीत दीप प्रज्वलित कर माँ भारती की आरती उतार रहे हैं। कोई आरती पूर्ण तभी होती है जब उसके चतुर्दिक सलिल बिन्दुओं को घुमा दिया जाए। इन नवगीत-दीपों के चतुर्दिक सनातन भारतीय मूल्यों-मान्यताओं का सलिल को घुमाया गया है।  
                           नवगीत के उद्गम और तत्कालीन मान्यताओं को पत्थर की लकीर मानकर परिवर्तनों को नकारने और हेय सिद्ध करने के आदी संकीर्णतावादी इन नवगीतों का छिन्द्रान्वेषण कर स्वीकारने में हिचकें तो भी यह सत्य नकारा नहीं जा सकता कि नवगीत दिनानुदिन नई-नई भावमुद्राएँ धारणकर नव आयामों में खुद को स्थापित करता जा रहा है। हरिहर जी के नवगीत मुखड़ों-अंतरों में युगीन यथार्थ को पिरोते समय पारंपरिक बिंबों, प्रतीकों और मिथकों से मुक्त रहकर अपनी राह आप बनाते हैं। 'आइना दिखाती' शीर्षक नवगीत का मुखड़ा 'तूफान, दे थपकी सुलाये, / डर लगे तो क्या करें? /विष में बुझे सब तीर उर को / भेद दें तो क्या करें?' आम आदमी के सम्मुख पल-पल उपस्थित होती किंकर्तव्यविमूढ़ता को इंगित करता है। 
                           स्वराज्य के संघर्ष और उसके बाद के परिदृश्य में लोकतंत्र में  'लोक' के स्थान पर 'लोभ',
प्रजातंत्र में 'प्रजा' के स्थान पर 'सत्ता', गणतंत्र में 'गण' के स्थान पर 'तंत्र' को देखकर दिन-ब-दिन मुश्किल होती जाती जिन्दगी की लड़े में हारता सामान्य नागरिक सोचने के लिए विवश है- 'उलट गीता कैसे हुई, / अर्जुन उधर सठिया रहे / भ्रमित है धृतराष्ट्र क्यों / संजय इधर बतिया रहे / दौड़ते टीआरपी को, / बेचते ईमान।' (सुर्ख़ियों में कहाँ दिखती, खग-मृग की तान।) खग-मृग के माध्यम से जन-जीवन से गुम होती 'तान' अर्थात आनंद को बखूबी संकेतित किया है कवि ने। अर्जुन, धृतराष्ट्र और संजय जैसे पौराणिक चरित्रों को आधुनिक परिवेश में चिन्हित कर सकना हरिहर जी के चिंतन सामर्थ्य का परिचायक है। 'वो बहेलिया' शीर्षक नवगीत में एक और उदाहरण देखें- 'दुर्योधन का अहंकार तू / डींग मारता ऊँची ऊँची, है मखौलिया।' मिथकों के प्रयोग कवि को प्रिय हैं क्योंकि वे 'कम शब्दों में अधिक' कह पाते हैं- 'जीवन जैसे खुद ब्रह्मा ने / दुनिया नई रची / राह नई, गली अंधियारी / मन में कहाँ बची/ तमस भले ही हो ताकतवर, / कभी न दाल गले। / किसने इंद्र वरुण अग्नि को, / आफत में डाला / सौलह हजार ललनाओं पर / संकट का जाला / नरकासुर का दर्प दहाड़ा / शक्ति का आभास / दुर्गति रावण जैसी ही तो / बोलता इतिहास / ज्योत जली, यह देखा / अचरज़ लौ की छाँव तले।'
                           अपसंस्कृति की शिकार नई पीढ़ी पर व्यंग्य करता कवि अंगरेजी के वर्चस्व को घातक मानता है- 'चोंच कहाँ, / चम्मच से तोते सीख गये खाना। / भूले सब संस्कार, समझ, / फूहड़ता की झोली / गम उल्लास  निकलते थे, / बनी गँवारू बोली / गिटपिट अब चाहें, / अँगरेजी, में गाल बजाना।' जन-जीवन में व्यवस्था और शांति का केंद्र नारी अपनी भूमिका के महत्व को भुलाकर घर जोड़ने की जगह तोड़ने की होड़ में सम्मिलित दिखती है- ' रतनारी आँखे मौन, / ज्यों निकले अंगार / कुरूप समझे सबको / किये सोला सिंगार।  पल में बुद्ध बन जाती ..... पल में होती क्रुद्ध / आलिंगन अभिसार, / लो तुरत छिड़ गया युद्ध / रूठी फिर तो खैर नहीं, / विकराल रूपा जोगन' स्वाभाविक ही है कि ऐसे दमघोंटू वातावरण में कुछ लिखना दुष्कर हो जाए- ' गलघोटूँ कुछ हवा चली,/ रोये कलि, ऊँघे बगिया / चूम लिया दौड़ फूलों को, / काँटा तो ठहरा ठगिया/ दरार हर छन्द में पाऊँ सुधि न पाये क्यों रचयिता / कैसे लिखूँ मैं कविता।'
                           पारिस्थितिक विषमताओं के घटाटोप अँधेरे में भे एकवि निराश नहीं होता। वह 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' की विरासत का वाहक है,  उजियारे की किरण खोज ही लेता है- 'नन्हा बालक या नन्ही परी / भाये कचोरी या मीठी पुरी / लुभाती बोली में कहे मम्मी / रबड़ी बनी है यम्मी यम्मी / घर में कितना उजाला है / फरिश्ता आने वाला है। अपने कष्टों को भूलकर अन्यों की पीड़ा कम करने को जीवनोद्देश्य मनेवाली भारतीय संस्कृति इन गीतों में यत्र-तत्र झलकती है- 'भूख लगी, / मिले न रोटी / घास हरी चरते हैं / झरते आँसू पी पी कर, दिल हल्का करते हैं। / मिली बिछावट काँटों की / लगी चुभन कुछ ऐसे / फूल बिछाते रहे, दर्द / छूमंतर सब कैसे / भूले पीड़ा , औरों का संकट हर लेते हैं / झरते आँसू पी पी कर, दिल हल्का करते हैं।'
                           कबीर ने अपने समय का सच बयान करते हुए कहा था- 'यह चादर सुर नर मुनि ओढ़ी / ओढ़ के मैली कीन्ही चदरिया / दास कबीर जतन से ओढ़ी / ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया।' हरिहर जी  'मैली हो गई बहुत चदरिया' कहते हुए  कबीर को फिर-फिर जीते हैं। कबीर और लोई के मतभेद जग जाहिर हैं।  कवि इसी परंपरा का वाहक है। देखें- घर में भूख नहीं होती, / किस-किस के संग खाते हो?/ / चादर अपनी मैली करके / नाम कबीरा लेते हो?' स्त्री-विमर्श के इस दौर में पुरुष-विमर्श के बिना पुरुषों की दुर्दशा हकीकतबयानी है- 'मैं झाँसी की रानी बन कर/ तुम्हें मजा चखाऊँगी / दुखती रग पर हाथ रखूँ / हँस कर के तुम्हें रुलाऊँगी / पति-परमेश्वर समझ लिया,/ पुरूष-प्रभुता के रोगी! / सारी अकड़ एक मिनिट में / टाँय टाँय यह फिस होगी / तो सुनो किट्टी-पार्टी है कल / तुम बच्चों को नहलाना।' स्त्री-पुरुष जीवन-रथ के दो पहिए हैं। दोनों को पारिवारिक दायित्वों का निर्वहन मिल-जुलकर करना होता है। बच्चों की देखभाल की सहज प्रक्रिया को सबक सिखाने की तरह प्रयोग किया जाना ठीक नहीं प्रतीत होता। 'हँस कर के तुम्हें रुलाऊँगी' में 'के' का प्रयोग अनावश्यक है जो कथ्य को शिथिल करता है। 
                           सामाजिक वैषम्य और दहेज़ की कुरीति पर हरिहर जी ने प्रबल आघात किया है। "खुलने लगी कलाई तो क्या, बना रहेगा पुतला? / तू इतना तो बतला / तृष्णा मिटे कहाँ मृगजल से, माँगी एक पिटारी / टपके लार ससुर, देवर की, दर्द सहे बेचारी / रोती बहना, आँख फेर ली, खून हुआ क्यों पतला तू इतना तो बतला ...... ’धनिया’ आँसू पोछ न पाये, खून पिलाये ’होरी’ / श्वेत वस्त्र में दिखे न काले, धन से भरी तिजोरी / जाला करतूतों का फिर क्यों, दिखे दूर से उजला / तू इतना तो बतला।'
                           'समय का फेर' सब कुछ बदल देता है। 'हरि'-'हर'  से बढ़कर समय के परिवर्तन का साक्षी और कौन हो सकता है? 'पोथियाँ बहुत पढ़ ली / जग मुआ, आ गई कंप्यूटरी आभा। / ज्ञान सरिता प्रवाह खलखल, जरूरी होता उसे बहना / लौ दिये की, / चाहे कभी ना, बंद तालों में जकड़ रहना / वेद ऋषियों के हुये प्राचीन / दौर अणु का कर गये ‘भाभा’। / पूर्वजों ने, / तीक्ष्ण बुद्धि से, / कैसे किया, समुद्र का मंथन / जाना पार सागर, / पाप क्यों? क्यों चाहिये किसका समर्थन / चाँद, मंगल जा रही दुनिया / राह में क्यों बन रहे खंभा।'
                            निरानान्दित होते जाते जीवन में आनद की खोज कवि की काव्य-रचना का उद्देश्य है। वह कहता है- 'पंडिताई में नहीं अध्यात्म, झांके ह्रदय में, फकीर /“चोंचले तो चोंचले, नहीं धर्म”, माथा फोड़ता कबीर / मूर्ख ना समझे, ईश तक पहुँचे, चाहे यज्ञ या अजान / भगवत्कृपा जिसे मिली बस, खुल गई अंदरूनी आँख / चक्र की जीवन्त ऊर्जा तक पहुँचने मिल गई लो पाँख / नाद अनहद सुन सके, तैयार हैं, भीतर खड़े जो कान।'
                            इन गीति रचनाओं में विचार तत्व की प्रबलता ने गीत के लालित्य को पराभूत सा कर दिया है, फलत: गीतों की गेयता क्षीण हुई है। गीत और छंद का चोली-दामन का साथ है। भारत में नवगीतों में पारंपरिक छंदों और लोकगीतों की लय के प्रयोग का चलन बढ़ा है।  'काल है संक्रांति का' में पारंपरिक छंदों के यथेष्ट प्रयोग के बाद कई नए-पुराने नवगीतकार छंदों के प्रति आकर्षित हुए हैं। नवगीतों में नए छंदों का प्रयोग और कई छंदों को एक साथ मिलकर उपयोग किया जाना भी सर्व मान्य है। हरिहर जी ने शिल्प पर कथ्य को वरीयता देते हुए छंद को अपनी भूमिका आप तय करने दी है। मात्रिक या वर्णिक छंद के बंधनों को गौड़ मानते हुए, कथ्य को प्रस्तुत करने के प्रति अधिक संवेदनशील रहे हैं।  समतुकांती पंक्तियों से लयबद्धता में सहायता मिली है। कवि की कुशलता यह है कि वह छंद को यथावत रखने के स्थान पर कथ्य की आवश्यकता के अनुसार ढालता है। इन नवगीतों की रचना किसी एक छंद के विधानानुसार न होकर मुखड़े और अंतरे में भिन्न-भिन्न और कहीं-कहीं मुखड़े में भी एकाधिक छन्दों के संविलयन से हुई है।
                            नवगीत की नवता कथ्य और शिल्प दोनों के स्तर पर होती है। हरिहर जी ने दोनों पैमानों पर अपनी निजता स्थापित की है। प्रसाद गुण संपन्न भाषा, सरल-सहज बोधगम्य शब्दावली, मुहावरेदार कहन और सांकेतिक शैली हरिहर जी के इन नवगीतों का वैशिष्ट्य है। सुदूर आस्ट्रेलिया में रहकर भी देश के अंदरूनी हालात से पूरी तरह अवगत रहकर उन पर सकारात्मक तरीके से सोचना और संतुलित वैचारिक अभिव्यक्ति इन नवगीतों को पठनीयता और प्रासंगिकता से संपन्न करती है। सोने की चिड़िया भारत हो जाए, जय हो हिंदी भाषा की, इंद्रधनुषी रंग मचलते, दो इन्हें सम्मान, कच्ची कोंपल की लाचारी, दर्द भारी सिसकी है, मन स्वयं बारात हुआ, निहारिकाओं ने खेल ली होली, कौन जाने शाप किसका, शहर में दीवाली, साथ नीम का, उपलब्धि, दुल्हन का सपना, बदरी डोल रही वायदों की पतंग आदि रचनाएँ समय साक्षी हैं। 
                             इंग्लैंड निवासी विदुषी उषा राजे सक्सेना जी ने कुछ नवगीतों की पृष्ठभूमि में पुरुष की शोषक, लोभी, कामी प्रवृत्ति और स्त्री-अपराधों की उपस्थिति अनुभव की है किन्तु मुझे ऐसा अनुभव हुआ कि रचनाकार ने दैनंदिन जीवन में होती कहा-सुनी को सहज रूप में प्रस्तुत किया है। इन रचनाओं में स्त्री-पुरुष एक-दूसरे के प्रतिद्वंदी नहीं परिपूरक के रूप में शब्दित हैं। 
                                कृत्या पत्रिका की संपादिका रति सक्सेना जी ने हरिहर जी का मूल स्वर वैचारिकता मानते हुए, अतीत की उपस्थिति को वर्तमान पर भरी पड़ते पाया है। सुरीलेपन और कठोरता की मिश्रित अभिव्यक्ति इन रचनाओं में होना सहज स्वाभाविक है चूँकि जीवन धूप-छाँव दोनों को पग-पग पर अपने साथ पाता है। लन्दन निवासी तेजेंद्र शर्मा जी अपने चतुर्दिक घटती, कही-सुनी जाती बातों को इन गीतों में पाकर अनुभव करते हैं कि जैसे यह तो हमारे ही जीवन पर लिखी गयी है। स्वयं गीतकार अपनी रचनाओं में वामपंथी रुझान की अनुपस्थिति से भीगी है तथा इस कसौटी पर की जाने वाली आलोचना के प्रति सजग रहते हुए भी उसे व्यर्थ मानता है। वह पूरी ईमानदारी से कहता है "प्रवासी साहित्य पर जो आक्षेप लगाये जाते हैं, उन पर टिप्पणी करने की अपेक्षा अर्धसत्य से भी सत्य को निकाल कर उससे मार्गदर्शन लेना मैं अधिक उचित समझता हूँ।" मैंने इन गीतों में शैल्पिकता पर कथ्य की भैव्यक्ति को वरीयता दी जाना अनुभव किया है। वैचारिक प्रतिबद्धता किसी विधागत रचना को कुंद करती है। हरिहर जी अपने नाम के अनुरूप बंधनों की जड़ता को तोड़ते हुए सहज प्रवाहित सलिला की तरह इन रचनाओं में अपने आप को प्रवाहित होने देते हैं।  
                           प्रवासी भारतीयों द्वारा रचे जा रहे साहित्य विशेषत: गद्य साहित्त्य में विदेशी परिवेश प्राय: मिलता है। हरिहर जी पूरी तरह भारत में ही केन्द्रित रहे हैं। आशा है उनका अगला काव्य संग्रह रचनाओं में आस्ट्रेलिया को भी भारतीय पाठकों तक पहुँचेगा। वैश्विक समरसता के लिए अपनी जड़ों से जुड़े रहने के साथ-साथ पड़ोसी के आँगन की हवा लेते रहना भी आवश्यक है। इससे हरिहर जी के नवगीतों में शेष से भिन्नता तथा ताज़गी मिलेगी। लयबद्धता और गेयता के लिए छांदस लघु पंक्तियाँ लम्बी पंक्तियों की तुलना में अधिक सहज होती हैं। 
-------------------
संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान,  ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, 
ईमेल: salil.sanjiv @gmail.com, चलभाष: ७९९९५५९६१८, ९४२५१८३२४४ 
****