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रविवार, 28 जुलाई 2019

विमर्श : जाति

विमर्श : जाति 
अनुगूँजा सिन्हाः मैं आपके प्रति पूरे सम्मान के साथ आपको एक बात बताना चाहती हूँ कि मैं जाति में यकीन नही रखती हूँ और मैं कायस्थ नहीं हूँ।

अनुगून्जा जी! 
आपसे सविनय निवेदन है कि- 
'जात' क्रिया (जना/जाया=जन्म दिया, जाया=जगजननी का एक नाम) से आशय 'जन्मना' होता है, जन्म देने की क्रिया को 'जातक कर्म', जन्म लिये बच्चे को 'जातक', जन्म देनेवाली को 'जच्चा' कह्ते हैं. जन्मे बच्चे के गुण-अवगुण उसकी जाति निर्धारित करते हैं. बुद्ध की जातक कथाओं में विविध योनियों में जन्म लिये बुद्ध के ईश्वरत्व की चर्चा है. जाति जन्मना नहीं कर्मणा होती है. जब कोई सज्जन दिखनेवाला व्यक्ति कुछ निम्न हर्कात कर दे तो बुंदेली में एक लोकोक्ति कही जाती है ' जात दिखा गया'. यहाँ भी जात का अर्थ उसकी असलियत या सच्चाई से है.सामान्यतः समान जाति का अर्थ समान गुणों, योग्यता या अभिरुचि से है. 
आप ही नहीं हर जीव कायस्थ है. पुराणकार के अनुसार "कायास्थितः सः कायस्थः"
अर्थात वह (निराकार परम्ब्रम्ह) जब किसी काया का निर्माण कर अपने अन्शरूप (आत्मा) से उसमें स्थित होता है, तब कायस्थ कहा जाता है. व्यावहारिक अर्थ में जो इस सत्य को जानते-मानते हैं वे खुद को कायस्थ कहने लगे, शेष कायस्थ होते हुए भी खुद को अन्य जाति का कहते रहे. दुर्भाग्य से लंबे आपदा काल में कायस्थ भी इस सच को भूल गये या आचरण में नहीं ला सके. कंकर-कंकर में शंकर, कण-कण में भगवान, आत्मा सो परमात्मा आदि इसी सत्य की घोषणा करते हैं. 
अत:, आप कायस्थ हैं। जाती में आपका विसवास है इसीलिए आप जाया (जननी ) का सम्मान करती हैं।   
जातिवाद का वास्तविक अर्थ अपने गुणों-ग्यान आदि अन्यों को सिखाना है ताकि वह भी समान योग्यता या जाति का हो सके. समय और परिस्थितियों ने शब्दों के अर्थ भुला दिये, अर्थ का अनर्थ अज्ञानता के दौर में हुआ. अब ज्ञान सुलभ है, हम शब्दों को सही अर्थ में प्रयोग करें तो समरसता स्थापित करने में सहायक होंगे। दुर्भाग्य से जन प्रतिनिधि इसमें बाधक और दलीय स्वार्थों के साधक है.

मंगलवार, 23 अप्रैल 2019

लघुकथा जाति

लघुकथा 
जाति
*
_ बाबा! जाति क्या होती है? 
= क्यों पूछ रही हो? 
_ अखबारों और दूरदर्शन पर दलों द्वारा जाति के आधार चुनाव में प्रत्याशी खड़े किए जाने और नेताओं द्वारा जातिवाद को बुरा बताए जाने से भ्रमित पोती ने पूछा।
= बिटिया! तुम्हारे मित्र तुम्हारी तरह पढ़-लिख रहे बच्चे हैं या अनपढ़ और बूढ़े?
_ मैं क्यों अनपढ़ को मित्र बनाऊँगी? पोती तुनककर बोली।
= इसमें क्या बुराई है? किसी अनपढ़ की मित्र बनकर उसे पढ़ने-बढ़ने में मदद करो तो अच्छा ही है लेकिन अभी यह समझ लो कि तुम्हारे मित्रों में एक ही शाला में पढ़ रहे मित्र एक जाति के हुए, तुम्हारे बालमित्र जो अन्यत्र पढ़ रहे हैं अन्य जाति के हुए, तुम्हारे साथ नृत्य सीख रहे मित्र भिन्न जाति के हुए।
_ अरे! यह तो किसी समानता के आधार पर चयनित संवर्ग हुआ। जाति तो जन्म से होती है न?
= एक ही बात है। संस्कृत की 'जा' धातु का अर्थ होता है एक स्थान से अन्य स्थान पर जाना। जो नवजात गर्भ से संसार में जाता है वह जातक, जन्म देनेवाली जच्चा, जन्म देने की क्रिया जातकर्म, जन्म दिया अर्थात जाया....
_ तभी जगजननी दुर्गा का एक नाम जाया है।
= शाबाश! तुम सही समझीं। बुद्ध द्वारा विविध योनियों में जन्म या अवतार लेने की कहानियाँ जातक कथाएँ हैं।
_ यह तो ठीक है लेकिन मैं...
= तुम समान आचार-विचार का पालन कर रहे परिवारों के समूह और उनमें जन्म लेनेवाले बच्चों को जाति कह रही हो। यह भी एक अर्थ है।
_ लेकिन चुनाव के समय ही जाति की बात अधिक क्यों होती है?
= इसलिए कि समान सामाजिक पृष्ठभूमि के लोगों में जुड़ाव होता है तथा वे किसी परिस्थिति में समान व्यवहार करते हैं। चुनाव जीतने के लिए मत संख्या अधिक होना जरूरी है। इसलिए दल अधिक मतदाताओं वाली जाति का उम्मीदवार खड़ा करते हैं।
_ तब तो गुण और योग्यता के कोई अर्थ ही नहीं रहा?
= गुण और योग्यता को जाति का आधार बनाकर प्रत्याशी चुने जाएँ तो?
_ समझ गई, दल धनबल, बाहुबल और संख्याबल को स्थान पर शिक्षा, योग्यता, सच्चरित्रता और सेवा भावना को जाति का आधार बनाकर प्रत्याशी चुनें तो ही अच्छे जनप्रतिनिधि, अच्छी सरकार और अच्छी नीतियाँ बनेंगी।
= तुम तो सयानी हो गईं हो बिटिया! अब यह भी देखना कि तुम्हारे मित्रों की भी हो यही जाति।
***
संवस
२३-४-२०१९

शनिवार, 20 सितंबर 2014

bramhanon ki kutilata:

विमर्श: श्रम और बुद्धि 

ब्राम्हणों ने अपनी श्रेष्ठता स्थापित करने के लिये ग्रंथों में अनेक निराधार, अवैज्ञानिक, समाज के लिए हानिप्रद और सनातन धर्म के प्रतिकूल बातें लिखकर सबका कितना अहित किया? तो पढ़िए व्यास स्मृति विविध जातियों के बारे में क्या कहती है?

जानिए और बताइये क्या हमें व्यास का सम्मान कारण चाहिए???

व्यास स्मृति, अध्याय १

वर्द्धकी नापितो गोपः आशापः कुम्भकारकः
वीवक किरात कायस्थ मालाकर कुटिम्बिनः 
एते चान्ये च वहवः शूद्रा भिन्नः स्वकर्मभिः    -१०
चर्मकारः भटो भिल्लो रजकः पुष्ठकारो नट:
वरटो भेद चाण्डाल दासं स्वपच कोलकाः        -११
एते अन्त्यज समाख्याता ये चान्ये च गवारान:
आशाम सम्भाषणाद स्नानं दशनादरक वीक्षणम् -१२

अर्थ: बढ़ई, नाई, अहीर, आशाप, कुम्हार, वीवक, किरात, कायस्थ, मालाकार कुटुम्बी हैं। ये भिन्न-भिन्न कर्मों के कारण शूद्र हैं. चमार, भाट, भील, धोबी, पुस्तक बांधनेवाले, नट, वरट, चाण्डालों, दास, कोल आदि माँसभक्षियों अन्त्यज (अछूत) हैं. इनसे बात करने के बाद स्नान तथा देख लेने पर सूर्य दर्शन करना चाहिए। 

उल्लेख्य है कि मूलतः ब्राम्हण और कायस्थ दोनों की उत्पत्ति एक ही मूल ब्रम्ह या परब्रम्ह से है। दोनों बुद्धिजीवी रहे हैं. बुद्धि का प्रयोग कर समाज को व्यवस्थित और शासित करनेवाले अर्थात राज-काज को मानव की उन्नति का माध्यम माननेवाले कायस्थ (कार्यः स्थितः सह कायस्थः) तथा बुद्धि के विकास और ज्ञान-दान को मानवोन्नति का मूल माननेवाले ब्राम्हण (ब्रम्हं जानाति सः ब्राम्हणाः) हुए। 

ये दोनों पथ एक-दूसरे के पूरक हैं किन्तु अपनी श्रेष्ठता स्थापित करने के लिए ब्राम्हणों ने वैसे ही निराधार प्रावधान किये जैसे आजकल खाप के फैसले और फतवे कर रहे हैं. उक्त उद्धरण में व्यास ने ब्राम्हणों के समकक्ष कायस्थों को श्रमजीवी वर्ग के समतुल्य बताया और श्रमजीवी कर्ज को हीन कह दिया। फलतः, समाज विघटित हुआ। बल और बुद्धि दोनों में श्रेष्ठ कायस्थों का पराभव केवल भुज बल को प्रमुख माननेवाले क्षत्रियों के प्रभुत्व का कारण बना। श्रमजीवी वर्ग ने अपमानित होकर साथ न दिया तो विदेशी हमलावर जीते, देश गुलाम हुआ। 

इस विमर्श का आशय यह कि अतीत से सबक लें। समाज के उन्नयन में हर वर्ग का महत्त्व समझें, श्रम को सम्मान देना सीखें। धर्म-कर्म पर केवल जन्मना ब्राम्हणों का वर्चस्व न हो। होटल में ५० रु. टिप देनेवाला रिक्शेवाले से ५-१० रु. का मोल-भाव न करे, श्रमजीवी को इतना पारिश्रमिक मिले कि वह सम्मान से परिवार पाल सके। पूंजी पे लाभ की दर से श्रम का मोल अधिक हो। आपके अभिमत की प्रतीक्षा है। 

फ़ोटो: वाल्मीकि रामायण को कोई नहीं पूछता लेकिन आज भी तुलसीदास रचित रामचरितमानस की पारायण सप्ताह बिठाई जाती है, जिस में ओबीसी-शुद्र, एससी-एसटी-अति शुद्रो और महिलाओ के बारे में स्पष्ट लिखा है, -
"पुजिये विप्र शील, गुण हिना, न पुजिये शुद्र गुण ज्ञान प्रवीना."
"ढोल, गंवार, शुद्र अरु पशु, नारी ये सब ताडन के अधिकारी."
"जे वरणाधिम तेली कुम्हारा, कोल, किरात, कलवारा.".अयौद्या कांड "

छत्रपति शिवाजी महाराज कुणबी थे इसी लिए महाराष्ट्र के ब्राह्मणों ने उन को शुद्र बताकर राज्याभिषेक करने से इंकार कर दिया था. ओबीसी समुदाय की जातियों वर्ण में ब्राह्मण, वैश्य और क्षत्रिय नहीं है इसीलिए उन को जनेऊ धारण करने का अधिकार नहीं था. 

इश्वर, कुदरत या प्रकृति ने हाथी, घोडा, गाय और मानव जैसे प्राणियो का विश्व में सर्जन किया है. भारत को छोड़कर विश्व के एक भी देश में मानव के ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र और अवर्ण ऐसा जन्मजात विभाजन नहीं है.

इश्वर, कुदरत या प्रकृति ने हाथी, घोडा, गाय और मानव जैसे प्राणियो का विश्व में सर्जन किया है. जन्मजात वर्ण इश्वर या प्रकृति का सर्जन नहीं है. अगर ऐसा होता तो इश्वर ने मानव की तरह ही गध्धे में भी ब्राह्मण गध्धा,क्षत्रिय गध्धा, वैश्य गध्धा, शुद्र गध्धा और अवर्ण गध्धा का सर्जन किया होता.

पौराणिक ब्राह्मण धर्म के माध्यम से कुछ चालाक और धूर्त लोगो ने खुद को श्रेष्ठ, सर्वोच्च और पृथ्वी पर के भूदेव के तौर पर घोषित कर के सदियों से बिन ब्राह्मणों को उच्च नीच के भेदभाव में बांट के रख दिया है, जिन के शिकार आज का ओबीसी समुदाय, एससी समुदाय और एसटी समुदाय बना हुवा है.



रविवार, 11 नवंबर 2012

कायस्थ सिर्फ जाति नहीं बल्कि पांचवा वर्ण

कायस्थ सिर्फ जाति नहीं बल्कि पांचवा वर्ण है!

कायस्थ समाज की जाति व्यवस्था पर एस ए अस्थाना ने एक अध्ययन किया है. अपने अध्ययन की भूमिका में वे लिखते हैं कि “स्मरण करो एक समय था जब आधे से अधिक भारत पर कायस्थों का शासन था। कश्मीर में दुर्लभ बर्धन कायस्थ वंश, काबुल और पंजाब में जयपाल कायस्थ वंश, गुजरात में बल्लभी कायस्थ राजवंश, दक्षिण में चालुक्य कायस्थ राजवंश, उत्तर भारत में देवपाल गौड़ कायस्थ राजवंश

तथा मध्य भारत में सतवाहन और परिहार कायस्थ राजवंश सत्ता में रहे हैं। अतः हम सब उन राजवंशों की संतानें हैं, हम बाबू नने के लिए नहीं, हिन्दुस्तान पर प्रेम, ज्ञान और शौर्य से परिपूर्ण उस हिन्दू संस्कृति की स्थापना के लिए पैदा हुए हैं जिन्होंने हमें जन्म दिया है।”
एक घटना का जिक्र करते हुए अस्थाना अपनी पुस्तक में लिखते हैं कि एक बार स्वामी विवेकानन्द से भी एक सभा में उनसे उनकी जाति पूछी गयी थी. अपनी जाति अथवा वर्ण के बारे में बोलते हुए विवेकानंद ने कहा था “मैं उस महापुरुष का वंशधर हूँ, जिनके चरण कमलों पर प्रत्येक ब्राह्मण ‘‘यमाय धर्मराजाय चित्रगुप्ताय वै नमः’’ का उच्चारण करते हुए पुष्पांजलि प्रदान करता है और जिनके वंशज विशुद्ध रूप से क्षत्रिय हैं। यदि अपनें पुराणों पर विश्वास हो तो, इन समाज सुधारको को जान लेना चाहिए कि मेरी जाति ने पुराने जमानें में अन्य सेवाओं के अतिरिक्त कई शताब्दियों तक आधे भारत पर शासन किया था। यदि मेरी जाति की गणना छोड़ दी जाये, तो भारत की वर्तमान सभ्यता का शेष क्या रहेगा ? अकेले बंगाल में ही मेरी जाति में सबसे बड़े कवि, सबसे बड़े इतिहास वेत्ता, सबसे बड़े दार्शनिक, सबसे बड़े लेखक और सबसे बड़े धर्म प्रचारक हुए हैं। मेरी ही जाति ने वर्तमान समय के सबसे बड़े वैज्ञानिक से भारत वर्ष को विभूषित किया है।’’
वर्ण व्यवस्था में कायस्थों के स्थान के बारे में विवरण देते हुए वे खुद स्पष्टीकरण देते हुए लिखते हैं कि “अक्सर यह प्रश्न उठता रहता है कि चार वर्णों में क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र में कायस्थ किस वर्ण से संबंधित है। स्पष्ट है कि उपरोक्त चारों वर्णों के खाँचे में, कायस्थ कहीं भी फिट नहीं बैठता है। अतः इस पर तरह-तरह की किंवदंतियां उछलती चली आ रही है। उपरोक्त यक्ष प्रश्न “किस वर्ण के कायस्थ” का माकूल जबाब देने का आज समय आ गया है कि सभी चित्रांश बन्धुओं को अपने समाज के बारे में सोचने का अपनी वास्तविक पहचान का ज्ञान होना परम आवश्यक है।”
शिव आसरे अस्थाना ने इस संबंध में जो तथ्य जुटाएं है और अध्ययन किया है वे महत्वपूर्ण हैं. अहिल्या कामधेनु संहिता और पद्मपुराण पाताल खण्ड के श्लोकों और साक्ष्यों से वे साबित करते हैं कि कायस्थ सिर्फ जाति नहीं बल्कि पांचवा वर्ण है. नीचे दिये गये उदाहरण देखिए-

ब्राहस्य मुख मसीद बाहु राजन्यः कृतः।
उरुतदस्य वैश्य, पद्यायागू शूद्रो अजायतः।। (अहिल्या कामधेनु संहिता)
अर्थात् नव निर्मित सृष्टि के उचित प्रबन्ध तथा समाज की सुव्यवस्था के लिए श्री ब्रह्मा जी ने अपनें मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, उदर से वैश्य तथा चरणों से शूद्र उत्पन्न कर वर्ण ‘‘चतुष्टय’’ (चार वर्णों) की स्थापना की। सम्पूर्ण प्राणियों के शुभ-अशुभ कार्यों का लेखा-जोखा रखनें व पाप-पुण्य के अनुसार उनके लिये दण्ड या पुरस्कार निश्चित करने का दायित्ंव श्री ब्रह्मा जी ने श्री धर्मराज को सौंपा। कुछ समय उपरान्त श्री धर्मराज जी ने देखा कि प्रजापति के द्वारा निर्मित विश्व के समस्त प्राणियों का लेखा-जोखा रखना अकेले उनके द्वारा सम्भव नहीं है। अतः धर्मराज जी ने श्री ब्रह्मा जी से निवेदन किया कि ‘हे देव! आपके द्वारा उत्पन्न प्राणियों का विस्तार दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। अतः मुझे एक सहायक की आवश्यकता है। जिसे प्रदान करनें की कृपा करें।

‘‘अधिकारेषु लोका नां, नियुक्तोहत्व प्रभो।
सहयेन बिना तंत्र स्याम, शक्तः कथत्वहम्।।’’ (अहिल्या कामधेनु संहिता)
श्री धर्मराज जी के निवेदन पर विचार हेतु श्री ब्रह्मा जी पुनः ध्यानस्त हो गये। श्री ब्रह्मा जी एक कल्प तक ध्यान मुद्रा में रहे, योगनिद्रा के अवसान पर कार्तिक शुल्क द्वितीया के शुभ क्षणों में श्री ब्रह्मा जी ने अपने सन्मुख एक श्याम वर्ण, कमल नयन एक पुरूष को देखा, जिसके दाहिने हाथ में लेखनी व पट्टिका तथा बायें हाथ में दवात थी। यही था श्री चित्रगुप्त जी का अवतरण।

‘‘सन्निधौ पुरुषं दृष्टवा, श्याम कमल लोचनम्।
लेखनी पट्टिका हस्त, मसी भाजन संयुक्तम्।।’’ (पद्मपुराण-पाताल खण्ड)
इस दिव्य पुरूष का श्याम वर्णी काया, रत्न जटित मुकुटधारी, चमकीले कमल नयन, तीखी भृकुटी, सिर के पीछे तेजोमय प्रभामंडल, घुघराले बाल, प्रशस्त भाल, चन्द्रमा सदृश्य आभा, शंखाकार ग्रीवा, विशाल भुजाएं व उभरी जांघे तथा व्यक्तित्व में अदम्य साहस व पौरूष झलक रहा था। इस तेजस्वी पुरूष को अपने सन्मुख देख ब्रह्मा जी ने पूछा कि आप कौन है? दिव्य पुरूष ने विनम्रतापूर्वक करबद्ध प्रणाम कर कहा कि आपने समाधि में ध्यानस्त होकर मेरा आह्नवान चिन्तन किया, अतः मैं प्रकट हो गया हूँ। मैं आपका ही मानस पुत्र हूँ। आप स्वयं ही बताये कि मैं कौन हूँ ? कृपया मेरा वर्ण- निरूपण करें तथा स्पष्ट करें कि किस कार्य हेतु आपने मेरा स्मरण किया। इस प्रकार ब्रह्माजी अपने मानस पुत्र को देख कर बहुत हर्षित हुये और कहा कि हे तात! मानव समाज के चारों वर्णों की उत्पत्ति मेरे शरीर के पृथक-पृथक भागों से हुई है, परन्तु तुम्हारी उत्पत्ति मेरी समस्त काया से हुई है इस कारण तुम्हारी जाति ‘‘कायस्थ’’ होगी।

मम् कायात्स मुत्पन्न, स्थितौ कायोऽभवत्त।
कायस्थ इति तस्याथ, नाम चक्रे पितामहा।। (पद्म पुराण पाताल खण्ड)

काया से प्रकट होनें का तात्पर्य यह है कि समस्त ब्रह्म-सृष्टि में श्री चित्रगुप्त जी की अभिव्यक्ति। अपनें कुशल दिव्य कर्मों से तुम ‘‘कायस्थ वंश’’ के संस्थापक होंगे। तुम्हें समस्त प्राणि मात्र की देह में अर्न्तयामी रूप से स्थित रहना होगा। जिससे उनकी आंतरिक मनोभावनाएं, विचार व कर्म को समझने में सुविधा हो।
‘‘कायेषु तिष्ठतति-कायेषु सर्वभूत शरीरेषु।
अन्तर्यामी यथा निष्ठतीत।।’’ (पद्य पुराण पाताल खण्ड)

ब्रह्माजी ने नवजात पुत्र को यह भी स्पष्ट किया कि ‘‘आप की उत्पत्ति हेतु मैने अपने चित्त को एकाग्र कर पूर्ण ध्यान में गुप्त किया था अतः आपका नाम ‘‘चित्रगुप्त’’ ही उपयुक्त होगा। आपका वास नगर कोट में रहेगा और आप चण्डी के उपासक होंगे।
‘‘चित्रं वचो मायागत्यं, चित्रगुप्त स्मृतो गुरूवेः।
सगत्वा कोट नगर, चण्डी भजन तत्परः।।’’ (पद्य पुराण पाताल खण्ड)
अपने इन उदाहरणों के जरिए वे साबित करते हैं कि कायस्थ पांचवा वर्ण है. अगर यह सच है तो कम से कम यह किताब भारत की वर्ण व्यवस्था को बड़ी चुनौती देती है. अभी तक की स्थापित मान्यताओं के उलट यह एक पांचवे वर्ण को सामने लाती है जिसका उल्लेख खुद स्वामी विवेकानन्द ने भी किया है. शिव आसरे अस्थाना मानते हैं कि वे खुद जाति व्यवस्था में विश्वास नहीं करते हैं लेकिन इसकी उपस्थिति और प्रभाव को खारिज नहीं किया जा सकता.
लेकिन उनके इस अध्ययन से वह सवाल और जटिल हो जाता है जो वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था में घालमेल करता है. कायस्थ वर्ण का अस्तित्व कोई आज का नहीं है. यह हजारों साल पुराना है. उत्तर प्रदेश, बंगाल, बिहार से लेकर कश्मीर तक किसी न किसी काल में कायस्थ राजा रहे हैं. ऐसा भी कहा जाता है कि अयोध्या में रघुवंश से पहले कायस्थों का ही शासन था. अगर पुरातन भारत में इस जाति/वर्ण का स्वर्णिम इतिहास रहा है तो आधुनिक भारत में डॉ राजेन्द्र प्रसाद, लाल बहादुर शास्त्री, सुभाष चंद्र बोस और विवेकानंद इसी वर्ण या जाति व्यवस्था से आते हैं. लेकिन यहां सवाल इन महापुरुषों का जाति निर्धारण करना नहीं है बल्कि उस चुनौती को समझना है जो जाति और वर्ण का घालमेल करता है. जाति के नाम पर नाक भौं सिकोड़नेवाले लोग भले ही तात्विक विवेचन से पहले ही अपना निर्णय कर लें लेकिन शिव आसरे अस्थाना का यह काम निश्चित रूप से भारतीय जाति व्यवस्था को समझने के लिए लिहाज से एक बेहतरीन प्रयास है....

क्या बात कही है........
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जिन साथियों ने अभी तक मंच के पेज को लाइक नहीं किया है वो कृपा करके निम्न लिंक को क्लिक करे ओर पेज खुलने पर लाइक करके मंच से जुड़े – ये मेरा विनम्र अनुरोध है@!
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रविवार, 21 फ़रवरी 2010

सामाजिक प्रश्न: एक चिंतन ---आचार्य संजीव 'सलिल'

'गोत्र' तथा 'अल्ल' 


'गोत्र' तथा 'अल्ल' के अर्थ तथा महत्व संबंधी प्रश्न राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद् का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष होने के नाते मुझसे पूछे जाते हैं.

स्कन्दपुराण में वर्णित श्री चित्रगुप्त प्रसंग के अनुसार उनके बारह पुत्रों
को बारह ऋषियों के पास विविध विषयों की शिक्षा हेतु भेजा गया था. इन से ही कायस्थों की बारह उपजातियों का श्री गणेश हुआ. ऋषियों के नाम ही उनके शिष्यों के गोत्र हुए. इसी कारण विभिन्न जातियों में एक ही गोत्र मिलता है चूंकि ऋषि के पास विविध जाती के शिष्य अध्ययन करते थे. आज कल जिस तरह मॉडल स्कूल में पढ़े विद्यार्थी 'मोडेलियन' रोबेर्त्सों कोलेज में पढ़े विद्यार्थी 'रोबर्टसोनियन' आदि कहलाते हैं, वैसे ही ऋषियों के शिष्यों के गोत्र गुरु के नाम पर हुए. आश्रमों में शुचिता बनाये रखने के लिए सभी शिष्य आपस में गुरु भाई तथा गुरु बहिनें मानी जाती थीं. शिष्य गुरु के आत्मज (संततिवत) मान्य थे. अतः, उनमें आपस में विवाह वर्जित होना उचित ही था.

एक 'गोत्र' के अंतर्गत कई 'अल्ल' होती हैं. 'अल्ल' कूट शब्द (कोड) या पहचान चिन्ह है जो कुल के किसी प्रतापी पुरुष, मूल स्थान, आजीविका, विशेष योग्यता, मानद उपाधि या अन्य से सम्बंधित होता है. एक 'अल्ल' में विवाह सम्बन्ध सामान्यतया वर्जित मन जाता है किन्तु आजकल अधिकांश लोग अपने 'अल्ल' की जानकारी नहीं रखते. 


हमारा गोत्र 'कश्यप' है जो अधिकांश कायस्थों का है तथा उनमें आपस में विवाह सम्बन्ध होते हैं. हमारी अल्ल 'उमरे' है. मुझे इस अल्ल का अब तक केवल एक अन्य व्यक्ति मिला है. मेरे फूफा जी की अल्ल 'बैरकपुर के भले' है. उनके पूर्वज बैरकपुर से नागपुर जा बसे थे .
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