कुल पेज दृश्य

akhbar लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
akhbar लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

बुधवार, 14 जून 2017

muktak

चंद मुक्तक
*
कलम तलवार से ज्यादा, कहा सच वार करती है.
जुबां नारी की लेकिन सबसे ज्यादा धार धरती है.
महाभारत कराया द्रौपदी के व्यंग बाणों ने-
नयन के तीर छेदें तो न दिल की हार खलती है..
*
कलम नीलाम होती रोज ही अखबार में देखो.
खबर बेची-खरीदी जा रही बाज़ार में लेखो.
न  माखनलाल जी ही हैं, नहीं विद्यार्थी जी हैं-
रखे अख़बार सब गिरवी  स्वयं सरकार ने देखो.
*
बहाते हैं वो आँसू छद्म, छलते जो रहे अब तक.
हजारों मर गए पर शर्म इनको आयी ना अब तक.
करो जूतों से पूजा देश के नेताओं की मिलकर-
करें गद्दारियाँ जो 'सलिल' पायें एक भी ना मत..
*
वसन हैं श्वेत-भगवा किन्तु मन काले लिये नेता.
सभी को सत्य मालुम, पर अधर अब तक सिये नेता.
सभी दोषी हैं इनको दंड दो, मत माफ़ तुम करना-
'सलिल' पी स्वार्थ की मदिरा सतत, अब तक जिए नेता..
*
जो सत्ता पा गए हैं बस चला तो देश बेचेंगे.
ये अपनी माँ के फाड़ें वस्त्र, तन का चीर खीचेंगे.
यही तो हैं असुर जो देश से गद्दारियाँ करते-
कहो कब हम जागेंगे और इनको दूर फेंकेंगे?
*
तराजू न्याय की थामे हुए हो जब कोई अंधा.
तो काले कोट क्यों करने से चूकें सत्य का धंधा.
खरीदी और बेची जा रही है न्याय की मूरत-
'सलिल' कोई न सूरत है न हो वातावरण गन्दा.
*
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

रविवार, 3 मई 2015

doha salila: sanjiv

दोहा सलिला,
अखबारी दोहे
संजीव
.
कॉफी नाकाफी हुई, माफी दो सरकार
ऊषा हाज़िर हो गयी, ले ताज़ा अखबार
.
चाय-पिलाऊँ प्रेम से, अपनेपन के साथ
प्रिय मांगे अखबार तो, लगे ठोंक लूँ माथ
.  
बैरन है अखबार यह, प्रिय को करता दूर
बैन लगा दूँ वश चले, मेरा अगर हुज़ूर
.
चाह चाय की अधिक या, रुचे अधिक अखबार
केर-बेर के संग सी, दोनों की दरकार
.
नज़र प्यार के प्यार पर, रखे प्यार से यार
नैन न मिलते नैन से, बाधक है अखबार
.  

शुक्रवार, 3 जून 2011

नवगीत : बिना पढ़े ही... --- संजीव 'सलिल'

नवगीत :
बिना पढ़े ही...
संजीव 'सलिल'
*
बिना पढ़े ही जान, बता दें
क्या लाया अख़बार है?
पूरक है शुभ, अशुभ शीर्षक,
समाचार-भरमार है.....
*
सत्ता खातिर देश दाँव पर
लगा रही सरकार है.
इंसानियत सिमटती जाती
फैला हाहाकार है..
देह-देह को भोग, 
करे उद्घोष, कहे त्यौहार है.
नारी विज्ञापन का जरिया
देश बना बाज़ार है.....
*
ज्ञान-ध्यान में भेद कई पर
चोरी में सहकार है.
सत-शिव त्याज्य हुआ 
श्री-सुन्दर की ही अब दरकार है..
मौज मज़ा मस्ती पल भर की
पालो, भले उधार है.
कली-फूल माली के हाथों
होता नित्य शिकार है.....
*
वन पर्वत तालाब लीलकर
कहें प्रकृति से प्यार है.
पनघट चौपालों खलिहानों 
पर काबिज बटमार है.
पगडन्डी को राजमार्ग ने 
बेच किया व्यापार है.
दिशाहीनता का करता खुद 
जनगण अब सत्कार है...
*


 

शुक्रवार, 8 अप्रैल 2011

नवगीत: समाचार है... संजीव 'सलिल'

नवगीत:                                                                                          
समाचार है...                                                                     
संजीव 'सलिल'
*
बैठ मुड़ेरे चिड़िया चहके'
समाचार है.
सोप-क्रीम से जवां दिख रही
दुष्प्रचार है...
*
बिन खोले- अख़बार जान लो,
कुछ अच्छा, कुछ बुरा मान लो.
फर्ज़ भुला, अधिकार माँगना-
यदि न मिले तो जिद्द ठान लो..

मुख्य शीर्षक अनाचार है.
और दूसरा दुराचार है.
सफे-सफे पर कदाचार है-
बना हाशिया सदाचार है....

पैठ घरों में टी. वी. दहके
मन निसार है...
*
अब भी धूप खिल रही उज्जवल.
श्यामल बादल, बरखा निर्मल.
वनचर-नभचर करते क्रंदन-
रोते पर्वत, सिसके जंगल..

घर-घर में फैला बजार है.
अवगुन का गाहक हजार है.
नहीं सत्य का चाहक कोई-
श्रम सिक्के का बिका चार है..

मस्ती, मौज-मजे का वाहक
असरदार है...
*
लाज-हया अब तलक लेश है.
चुका नहीं सब, बहुत शेष है.
मत निराश हो बढ़े चलो रे-
कोशिश अब करनी विशेष है..

अलस्सुबह शीतल बयार है.
खिलता मनहर हरसिंगार है.
मन दर्पण की धूल हटायें-
चेहरे-चेहरे पर निखार है..

एक साथ मिल मुष्टि बाँधकर
संकल्पित करना प्रहार है...
*

गुरुवार, 14 अक्टूबर 2010

खबरदार कविता: सत्ता का संकट --संजीव 'सलिल'

खबरदार कविता:

सत्ता का संकट
(एक अकल्पित राजनीतिक ड्रामा)
संजीव 'सलिल'
*
एक यथार्थ की बात
बंधुओं! तुम्हें सुनाता हूँ.
भूल-चूक के लिए न दोषी,
प्रथम बताता  हूँ..

नेताओं  की समझ में
आ गई है यह बात
करना है कैसे
सत्ता सुंदरी से साक्षात्?

बड़ी आसान है यह बात-
सेवा का भ्रम  को छोड़ दो
स्वार्थ से नाता जोड़ लो
रिश्वत लेने में होड़ लो.

एक बार हो सत्ता-से भेंट
येन-केन-प्रकारेण बाँहों में लो समेट.
चीन्ह-चीन्हकर भीख में बाँटो विज्ञापन.
अख़बारों में छपाओ: 'आ गया सुशासन..

लक्ष्मी को छोड़ कर
व्यर्थ हैं सारे पुरुषार्थ.
सत्ताहीनों को ही
शोभा देता है परमार्थ.

धर्म और मोक्ष का
विरोधी करते रहें जाप.
अर्थ और काम से
मतलब रखें आप.

विरोधियों की हालत खस्ता हो जाए.
आपकी खरीद-फरोख्त उनमें फूट बो जाए.
मुख्यमंत्री और मंत्री हों न अब बोर.
सचिवों / विभागाध्यक्षों की किस्मत मारे जोर.

बैंक-खाते, शानदार बंगले, करोड़ों के शेयर.
जमीनें, गड्डियाँ और जेवर.
सेक्स और वहशत की कोई कमी नहीं.
लोकायुक्त की दहशत  जमी नहीं.

मुख्यमंत्री ने सोचा
अगले चुनाव में क्या होगा?
छीन तो न जाएगा
सत्ता-सुख जो अब तक भोगा.

विभागाध्यक्ष का सेवा-विस्तार,
कलेक्टरों बिन कौन चलाये सत्ता -संसार?
सत्ता यों ही समाप्त कैसे हो जाएगी?
खरीदो-बेचो की नीति व्यर्थ नहीं जाएगी.

विपक्ष में बैठे दानव और असुर.
पहुँचे केंद्र में शक्तिमान और शक्ति के घर.  
कुटिल दूतों को बनाया गया राज्यपाल.
मचाकर बवाल, देते रहें हाल-चाल.

प्रभु मनमोहन हैं अन्तर्यामी
चमकदार समारोह से छिपाई खामी.
कौड़ी का सामान करोड़ों के दाम.
खिलाड़ी की मेहनत, नेता का नाम.

'मन' से 'लाल' के मिलन की 'सुषमा'.
नकली मुस्कान... सूझे न उपमा.
दोनों एक-दूजे पर सदय-
यहाँ हमारी, वहाँ तुम्हारी जय-जय.

विधायकों की मनमानी बोली.
खाली न रहे किसी की झोली.
विधानसभा में दोबारा मतदान.
काटो सत्ता का खेत, भरो खलिहान.

मनाते मनौती मौन येदुरप्पा.
अचल रहे सत्ता, गाऊँ ला-रा-लप्पा.
भारत की सारी ज़मीन...
नेता रहे जनता से छीन.

जल रहा रोम, नीरो बजाता बीन.
कौन पूछे?, कौन बताये? हालत संगीन.
सनातन संस्कृति को, बनाकर बाज़ार.
कर रहे हैं रातें रंगीन.


***************