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बुधवार, 1 जुलाई 2015

kundalini

दो कवि एक कुण्डलिनी 
नवीन चतुर्वेदी 
दो मनुष्य रस-सिन्धु का, कर न सकें रस-पान 
एक जिसे अनुभव नहीं, दूजा अति-विद्वान
संजीव 
दूजा अति विद्वान नहीं किस्मत में हो यश
खिला करेला नीम चढ़ा दो खा जाए गश
तबियत होगी झक्क भांग भी घोल पिला दो
'सलिल' नवीन प्रयोग करो जड़-मूल हिला दो
***

मंगलवार, 2 अक्टूबर 2012

रविवार, 26 फ़रवरी 2012

होली के रंग : नवीन चतुर्वेदी के संग


कवित्त और सवैया 


होली के रंग : नवीन चतुर्वेदी के संग

                                                                                                                      
*
नायक:-
गोरे गोरे गालन पे मलिहों गुलाल लाल,
कोरन में सजनी अबीर भर डारिहों|
सारी रँग दैहों सारी, मार पिचकारी, प्यारी,
अंग-अंग रँग जाय, ऐसें पिचकारिहों|
अँगिया, चुनर, नीबी, सुपरि भिगोय डारों,
जो तू रूठ जैहै, हौलें-हौलें पुचकारिहों|
अब कें फगुनवा में कहें दैहों छाती ठोक,
राज़ी सों नहीं तौ जोरदारी कर डारिहों||
[कवित्त]

नायिका:-
दुहुँ गालन लाल गुलाल भर्‌यौ, अँगिया में दबी है अबीर की झोरी|
अधरामृत रंग तरंग भरे, पिचकारी बनी यै निगाह निगोरी|
ढप-ढोल-मृदंग उमंगन के, रति के रस गीत करें चित चोरी|
तुम फाग की बाट निहारौ व्रुथा, तुम्हैं बारहों मास खिलावहुँ होरी||
[सुन्दरी सवैया] 
*

गुरुवार, 9 जून 2011

रचना-प्रतिरचना
ग़ज़ल
नवीन चन्द्र चतुर्वेदी
आभार: ठाले-बैठे  
*

 

खौफ़, दिल से निकालिये साहब|
सल्तनत, तब - सँभालिये साहब|१|


आज का काम आज ही करिए|
इस को कल पे न टालिये साहब|२|


वक़्त कब से बता रहा तुमको|
वक़्त को यूँ न घालिए साहब|३|


सब के दिल में जगह मिले तुमको|
इस तरह खुद को ढालिए साहब|४|


शौक़ हर कोई पालता है, य्हाँ|
कुछ 'भला', तुम भी पालिए साहब|५|


इस जहाँ में बहुत अँधेरा है|
दिल जला, दीप -बालिए साहब|६|


गर ज़माने में नाम करना है|
कोई शोशा उछालिए साहब|७|
(लाललाला लला लला लाला)
**************
प्रति-रचना:मुक्तिका:
साहब
संजीव 'सलिल'
*

खौफ दिल में बसाइए साहब.
लट्ठ तब ही चलाइए साहब..
*
गलतियाँ क्यों करें? टालें कल पर.
रस्म अब यह बनाइए साहब..

वक़्त का खौफ  क्यों रहे दिल में?
दोस्त कहकर लुभाइए साहब.

हर दरे-दिल पे न दस्तक दीजे.
एक दिल  में समाइए साहब..

शौक तो शगल है अमीरों का.
फ़र्ज़ अपना निभाइए साहब..

नाम बदनाम का भी होता है.
रह न गुमनाम  जाइए साहब..

सुबह लाता है अँधेरा  ही 'सलिल'.
गीत तम के भी गाइए साहब..
*

शनिवार, 28 मई 2011

हस्ताक्षर: ख्याति प्राप्त अन्तर्राष्ट्रीय शायर श्री तुफ़ैल चतुर्वेदी जी -- नवीन चतुर्वेदी

हस्ताक्षर: 

ख्याति प्राप्त अन्तर्राष्ट्रीय शायर श्री तुफ़ैल चतुर्वेदी जी

-- नवीन चतुर्वेदी 
मैं कोई हरिश्चंद्र तो नहीं हूँ, पर सच बोलने को प्राथमिकता अवश्य देता हूँ| और सच ये है कि चंद हफ़्ते पहले तक मैं नहीं जानता था आदरणीय तुफ़ैल चतुर्वेदी जी को| कुछ मित्रों से सुना उन के बारे में| सुना तो बात करने का दिल हुआ| बात हुई तो मिलने का दिल हुआ| और मिलने के बाद आप सभी से मिलाने का दिल हुआ| हालाँकि मैं जानता हूँ कि आप में से कई सारे उन्हें पहले से भी जानते हैं| फिर भी, जो नहीं जानते उन के लिए और अंतर्जाल के भावी संदर्भों के लिए मुझे ऐसा करना श्रेयस्कर लगा|

पर क्या बताऊँ उन के बारे में, जब कि मैं खुद भी कुछ ज्यादा जानकारी नहीं रखता| तो आइये सबसे पहले पढ़ते हैं उन के प्रिय शिष्य, भाई विकास शर्मा ‘राज़’ के हवाले से प्राप्त उन के कुछ चुनिन्दा शेर:-



उस की गली को छोड़ के ये फ़ायदा हुआ|
ग़ालिब, फ़िराक़, जोश की बस्ती में आ गये||
***
मैं सदियाँ छीन लाया वक़्त तुझसे|
मेरे कब्ज़े में लमहा भी नहीं था||
***
मेरे पैरों में चुभ जाएंगे लेकिन|
इस रस्ते से काँटे कम हो जाएंगे||
***
हम तो समझे थे कि अब अश्क़ों की किश्तें चुक गईं|
रात इक तस्वीर ने फिर से तक़ाज़ा कर दिया||
***
अच्छा दहेज दे न सका मैं, बस इसलिए|
दुनिया में जितने ऐब थे, बेटी में आ गये||
***
तुमने कहा था आओगे – जब आयेगी बहार|
देखो तो कितने फूल चमेली में आ गये||
***
हर एक बौना मेरे क़द को नापता है यहाँ|
मैं सारे शहर से उलझूँ मेरे इलाही क्या||
***
बस अपने ज़ख्म से खिलवाड़ थे हमारे शेर|
हमारे जैसे क़लमकार ने लिखा ही क्या||
***
हम फ़कीरों को ये गठरी, ये चटाई है बहुत|
हम कभी शाहों से मखमल नहीं माँगा करते||
***
लड़ाई कीजिये, लेकिन, जरा सलीक़े से|
शरीफ़ लोगों में जूता नहीं निकलता है||
***
बेटे की अर्थी चुपचाप उठा तो ली|
अंदर अंदर लेकिन बूढ़ा टूट गया||
***
नई बहू से इतनी तबदीली आई|
भाई का भाई से रिश्ता टूट गया||
***
तुम्हारी बात बिलकुल ठीक थी बस|
तुम्हें लहज़ा बदलना चाहिए था||
***
नहीं झोंका कोई भी ताज़गी का|
तो फिर क्या फायदा इस शायरी का||
***
किसी दिन हाथ धो बैठोगे हमसे|
तुम्हें चस्का बहुत है बेरुख़ी का||
***





तो ये हैं तुफ़ैल चतुर्वेदी जी - हिंदुस्तान-पाकिस्तान दोनों मुल्कों के शायरों के अज़ीज़| नोयडा [दिल्ली] में रहते हैं| पेंटिंग्स, रत्न, रेकी और न जाने क्या क्या इन के तज़रूबे में शामिल हैं – ग़ज़ल के सिवाय| उस्ताद शायर के रुतबे को शोभायमान करते तुफ़ैल जी की बातों को अदब के हलक़ों में ख़ासा सम्मान हासिल है|


आप की गज़लों में सादगी के साथ साथ चुटीले कथ्यों की भरमार देखने को मिलती है| उरूज़ के उच्चतम प्रामाणिक पैमानों का सम्मान करते हुए ऐसी गज़लें कहना अपने आप में एक अप्रतिम वैशिष्ट्य है|

अदब को ले कर हिन्दी हल्के में सब से बढ़िया मेगज़ीन निकालते हैं ये, जिसका कि नाम है “लफ्ज”| ये मेगज़ीन अब तक अनेक सुख़नवरों को नुमाया कर चुकी है| ग़ज़ल के विद्यार्थी जिनको कहना चाहिए, ऐसे क़लमकार भी स्थान पाते हैं “लफ़्ज़” में|

मेरा सौभाग्य है कि मैंने कुछ घंटे बिताए आप के साथ में| पूरी सादगी और विनम्रता के साथ आप ने अपना अनुभव और ज्ञान जो मेरे साथ बाँटा, उस के लिए मैं सदैव आप का आभारी रहूँगा|

मुझे यह लिखना ज़रूरी लग रहा है कि हर ज्ञान पिपासु के लिए आप के दरवाज़े हमेशा खुले रहते हैं|

तुफ़ैल जी का ई मेल पता:- tufailchaturvedi@yahoo.com
मोबाइल नंबर :- +91 9810387857
आभार: वातायन 

सोमवार, 2 मई 2011

एक दूरलेखवार्ता (चैट): वार्ताकार: नवीन चतुर्वेदी-संजीव 'सलिल' विषय: भाषा में अन्य भाषाओँ के शब्दों का प्रयोग

एक दूरलेखवार्ता (चैट):
वार्ताकार: नवीन चतुर्वेदी-संजीव 'सलिल'
विषय: हिंदी भाषा में अन्य भाषाओँ के शब्दों का प्रयोग:
 
 
 
 
 
 
नवीन
नमस्कार
सुप्रभात 
सलिल:  नमन.
पुरा-पुरातन चिर नवीन मैं अधुनातन का हिस्सा हूँ.
बिना कहे जो कहा गया, वह सुना-अनसुना किस्सा हूँ..
- नवीन: वाह वाह 
सलिल: निवेदन आप तक पहुँच गया है.
नवीन: बिलकुल, मैंने भी एक निवेदन किया है आपसे.
सलिल: कौन सा?
नवीन: भाषा-व्याकरण में बंध के रहना मेरे लिए सच में बहुत ही कठिन है. मैंने आपको जी मेल पर मेसेज दिया था कल. नवगीत पर भी ये निवेदन कर चुका हूँ , ओबीओ, ठाले बैठे, समस्या पूर्ति और फेसबुक पर भी.
सलिल: कठिन को सरल करना ही तो नवीन होना है. 
नवीन: मैं खुले गगन का उन्मुक्त विहग हूँ, आचार्य जी!
सलिल: आप जैसा समर्थ रचनाकार भाषिक शब्दों, पिंगलीय लयात्मकता और व्याकरणिक अनुशासन को साध सकता है बशर्ते तीनों को समान महत्त्व दे. कम ही रचनाकार हैं जिनसे यह आशा है.उन्मुक्त तो भाव और विचार होता है, शिल्प के साथ नियम तो होते ही हैं.
नवीन: क्षमा चाहता हूँ आदरणीय. जहाँ तक मैं समझता हूँ, जिनके लिए हम लिख रहे हैं, उन्हें समझ जरुर आना चाहिए और साहित्यिक बंधनों की मूलभूत बातों का सम्मान अवश्य जरूरी होता है. हमें स्तर अलग-अलग कर लेने चाहिए. एक वो स्तर जहाँ आप जैसे विद्वानों से हमें सीखने को मिल सके और एक वो स्तर जहाँ नए लोगों को काव्य में रूचि जगाने का मौका मिल सके, नहीं तो बचे-खुचे भी भाग खड़े होंगे.
सलिल: आप शब्दों का भंडार रखते हुए भी उसमें से चुनते नहीं जो जब हाथ में आया रख देते हैं. गाड़ी के दोनों चकों में बराबर हवा जरूरी है. शिल्प में सख्ती और शब्द चयन में ढील क्यों? अर्थ तो पाद टिप्पणी में दिए जा सकते हैं. इससे शब्द का प्रसार और प्रचलन बढ़ता है और भाषा समृद्ध होती है.
अलग-अलग कर देंगे तो हम बच्चों से कैसे सीखेंगे? बच्चों के पास बदलते समय के अनेक शब्द हैं जो शब्द कोष में सम्मिलित किये जाने हैं. उन्हें अतीत में प्रयोग हुए शब्दों को भी समझना है, नहीं तो अब तक रचा गया सब व्यर्थ होगा.
नवीन: हमें दो अलग-अलग मंच रखने चाहिए. एक विद्वानों वाला मंच, एक नए बच्चों का मंच. दोनों को मिक्स नहीं करना चाहिए.विद्वत्ता की प्रतियोगिता देखने के लिए काफी लोग लालायित हैं.
सलिल: नहीं, विद्वान कोई नहीं है और हर कोई विद्वान् है. यह केवल आदत की बात है. जैसे अभी अपने 'मिक्स' शब्द का प्रयोग किया मैं 'मिलाना' लिखता. लगभग सभी पाठक दोनों शब्दों को जानते हैं. तत्सम और तद्भव शब्द वहीं प्रयोग हों जहाँ वे विशेष प्रभाव उत्पन्न करें अन्यथा वे भाषा को नकली और कमजोर बनाते हैं.
नवीन: मुझे लगता है, हमारे करीब 20 अग्रजों को एक जुट होकर एक अलग प्रतियोगिता [खास कर उनके लिए ही] शुरू करनी चाहिए. हम सब उससे प्रेरणा लेंगे और समझाने का प्रयास भी करेंगे.
सलिल: हम साधक हैं पहलवान नहीं. साधकों में कोई प्रतियोगिता नहीं होती. आप लड़ाने नहीं मिलाने की बात करें. मैं एक विद्यार्थी था, हूँ और सदा विद्यार्थी ही रहूँगा. सबसे कम जानता हूँ... नए रचनाकारों से बहुत कुछ सीखता हूँ. बात भाषा में समुचित शब्द होते हुए और रचनाकार को ज्ञात होते हुए भी अन्य भाषा के शब्द के उपयोग पर है. आरक्षण या जमातें नहीं चाहिए. सब एक हैं. सबको एक दूसरे को सहना, समझना और एक दूसरे से सीखना है.मतभेद हों मनभेद न हों.
नवीन: इसीलिए तो २० अग्रजों को मिलाने की बात कर रहा हूँ आदरणीय. इसकी लम्बे अरसे से ज़रूरत है .
मथुरा का चौबे हूँ, लिपि-पुती बातें करने को वरीयता नहीं देता, जो दिल में आता है- अधिकार के साथ अपने स्नेही अग्रजों से निवेदन कर देता हूँ. मनभेद की नौबत न आये इसीलिए आगे बढ़कर संवाद के मौके तलाश किये हैं.अब ऑफिस की तयारी करता हूँ .
सलिल: मुझे आवश्यक होने पर अन्य भाषा के शब्द लेने से परहेज़ नहीं है पर वह आवश्यक होने पर, जब भाषा में समुचित शब्द न हो तब या कथ्य की माँग पर... मात्र यह निवेदन है. शेष अपनी-अपनी पसंद है. रचनाकार की शैली उसे स्वयं ही तय करना है, समीक्षक मूल्यांकन मानकों के आधार पर ही करते हैं. अस्तु नमन...
नवीन: प्रणाम आदरणीय.
सलिल: सदा प्रसन्न रहिये.
*************
 

मंगलवार, 26 अप्रैल 2011

हिंदी काव्य का अमर छंद रोला ------ नवीन चतुर्वेदी

हिंदी काव्य का अमर छंद रोला

नवीन चतुर्वेदी
*
रोला छंद की विशेषताएं निम्न हैं:

१. चार पंक्तियों वाला होता है रोला छंद.
२. रोला छन्द की हर पंक्ति दो भागों में विभक्त होती है.
३. रोला छन्द की हर पंक्ति के पहले भाग में ११ मात्राएँ अंत में गुरु-लघु [२१] या लघु-लघु-लघु [१११] अपेक्षित हैं.
४. रोला छन्द की हर पंक्ति के दूसरे भाग में १३ मात्रा अंत में गुरु-गुरु [२२] / लघु-लघु-गुरु [११२] या लघु-लघु-लघु-लघु [११११] अपेक्षित है. कई विद्वानों का मत है क़ि रोला में पंक्ति के अंत में गुरु-गुरु [२२] से ही हो.
५. रोला छन्द की किसी भी पंक्ति की शुरुआत में लघु-गुरु-लघु [१२१] के प्रयोग से बचना चाहिए, इस से लय में व्यवधान उत्पन्न होता है|

रोला छन्द के कुछ उदाहरण:-

हिंद युग्म - दोहा गाथा सनातन से साभार:-:-

नीलाम्बर परिधान, हरित पट पर सुन्दर है.
२२११ ११२१=११ / १११ ११ ११ २११२ = १३
सूर्य-चन्द्र युग-मुकुट, मेखला रत्नाकर है.
२१२१ ११ १११=११ / २१२ २२११२ = १३
नदियाँ प्रेम-प्रवाह, फूल तारा-मंडल हैं
११२ २१ १२१=११ / २१ २२ २११२ = १३
बंदीजन खगवृन्द, शेष-फन सिंहासन है.
२२११ ११२१ =११ / २१११ २२११२ = १३


शिवकाव्य.कोम से साभार:-

अतल शून्य का मौन, तोड़ते - कौन कहाँ तुम.
१११ २१ २ २१ = ११ / २१२ २१ १२ ११ = १३
दया करो कुछ और, न होना मौन यहाँ तुम..
१२ १२ ११ २१ = ११ / १ २२ २१ १२ ११ = १३
नव जीवन संचार, करो , फिर से तो बोलो.
११ २११ २२१ = ११ / १२ ११ २ २ २२ = १३
तृषित युगों से श्रवण, अहा अमरित फिर घोलो..
१११ १२ २ १११ = ११ / १२ १११११ ११ २२ = १३

रूपचंद्र शास्त्री मयंक जी के ब्लॉग उच्चारण से साभार:-

समझो आदि न अंत, खिलेंगे सुमन मनोहर.
११२ २१ १ २१ = ११ / १२२ १११ १२११ = १३
रखना इसे सँभाल, प्यार अनमोल धरोहर..
११२ १२ १२१ = ११ / २१ ११२१ १२११ = १३


कवि श्रेष्ठ श्री मैथिली शरण गुप्त जी द्वारा रचित साकेत का द्वादश सर्ग तो रोला छन्द में ही है और उस की शुरुआती पंक्तियों पर भी एक नज़र डालते हैं:-

ढाल लेखनी सफल, अंत में मसि भी तेरी.
२१ २१२ १११ = ११ / २१ २ ११ २ २२ = १२
तनिक और हो जाय, असित यह निशा अँधेरी..
१११ २१ २ २१ = ११ / १११ ११ १२ १२२ = १३

इसी रोला छंद की तीसरी और चौथी पंक्तियाँ खास ध्यान देने योग्य हैं:-
ठहर तभी, कृष्णाभिसारिके, कण्टक कढ़ जा.
१११ १२ २२१२१२ = १६ / २११ ११ २ = ८
बढ़ संजीवनि आज, मृत्यु के गढ़ पर चढ़ जा..
११ २२११ २१ = ११ / २१ २ ११ ११ ११ २ = १३

तीसरी पंक्ति में यति को प्रधान्यता दी जाए तो यति आ रही है १६ मात्रा के बाद| कुल मात्रा १६+८=२४ ही हैं| परंतु यदि हम 'कृष्णाभिसारिके' शब्द का संधि विच्छेद करते हुए पढ़ें तो यूँ पाते हैं:-

ठहर तभी कृष्णाभि+सारिके कण्टक कढ़ जा
१११ १२ २२१ = ११ / २१२ २११ ११ २ = १३

अब कुछ अपने मन से : छंद रचना को ले कर लोगों में फिर से जागरूकता बढ़ान हमारा उद्देश्य है | हम में से कई बहुत सफलता से ग़ज़ल कह रहे हैं, उनकी तख्तियों को आसानी से समझ रहे हैं|  नीचे दिए गये पदभार (वज्न) भी रोला छंद लिखने में मदद कर सकते है, यथा:-

अपना तो है काम, छंद की बातें करना
फइलातुन फइलात फाइलातुन फइलातुन
२२२ २२१ = ११ / २१२२ २२२ = १३

भाषा का सौंदर्य, सदा सर चढ़ के बोले
फाईलुन मफऊलु / फईलुन फइलुन फइलुन
२२२ २२१ = ११ / १२२ २२ २२ = १३

रोला छन्द संबन्धित कुछ अन्य उदाहरण :- 
१.  पाक दिल जीत घर गया
तेंदुलकर, सहवाग, कोहली, गौतम, माही|
रैना सँग युवराज, कामयाबी के राही|
नहरा और मुनाफ़, इक दफ़ा फिर से चमके|
भज्जी संग जहीर, खेल दिखलाया जम के|१|

हारा मेच परन्तु, पाक दिल जीत घर गया|
एक अनोखा काम, इस दफ़ा पाक कर गया|
नफ़रत का हो अंत, प्यार वाली हो बिगिनिंग|
शाहिद ने ये बोल, बिगिन कर दी न्यू ईनिंग|२|

अब अंतिम है मेच, दिल धड़कता है पल छिन|
सब के सब बेताब, हो रहे घड़ियाँ गिन गिन|
कैसा होगा मेच, सोचते हैं ये ही सब|
बोल रहे कुछ लोग, जो नहीं अब, तो फिर कब|३|

तेंदुलकर तुम श्रेष्ठ, मानता है जग सारा|
आशा तुमसे चूँकि, खास अंदाज तुम्हारा|
तुम हो क्यूँ जग-श्रेष्ठ, आज फिर से बतला दो|
मारो सौवाँ शतक, झूमने का मौका दो|४|

भारत में किरकेट, बोलता है सर चढ़ के|
सब ने किया क़ुबूल, प्रशंसा भी की बढ़ के|
अपनी तो ये राय, हार हो या फिर विक्ट्री|
खेलें ऐसा खेल, जो क़ि बन जाए हिस्ट्री|५|

छन्द : रोला
विधान ११+१३=२४ मात्रा
२. भद्रजनों की रीत नहीं ये संगाकारा
हार गए जो टॉस, किसलिए उसे नकारा|
भद्रजनों की रीत, नहीं ये संगाकारा|
देखी जब ये तुच्छ, आपकी आँख मिचौनी|
चौंक हुए स्तब्ध, जेफ क्रो, शास्त्री, धोनी|१|

तेंदुलकर, सहवाग, ना चले, फर्क पड़ा ना|
गौतम और विराट, खेल खेले मर्दाना|
धोनी लंगर डाल, क्रीज़ से चिपके डट के|
समय समय पर दर्शनीय, फटकारे फटके|२|

जब सर चढ़े जुनून, ख्वाब पूरे होते हैं|
सब के सम्मुख वीर, बालकों से रोते हैं|
दिल से लें जो ठान, फिर किसी की ना मानें|
हार मिले या जीत, धुरंधर लड़ना जानें|३|

त्र्यासी वाली बात, अब न कोई बोलेगा|
सोचेगा सौ बार, शब्द अपने तोलेगा|
अफ्रीका, इंगलेंड, पाक, औसी या लंका|
सब को दे के मात, बजाया हमने डंका|४|

तख्तियों के जानकार इस बारे में और भी बहुत कुछ हम लोगों से साझा कर सकते हैं|
 आभार: http://thalebaithe.blogspot.com/2011/04/blog-post_04.html
**************

शनिवार, 19 मार्च 2011

ब्रजभाषा - होली के छन्‍द - नायक नायिका सम्‍वाद नवीन चतुर्वेदी

ब्रजभाषा - होली के छन्‍द - नायक नायिका सम्‍वाद
 
नवीन चतुर्वेदी 
 
नायक:-

गोरे गोरे गालन पे मलिहौँ गुलाल लाल,
क़ोरन में सजनी अबीर भर डारिहौँ|
सारी रँग दैहौँ सारी, मार पिचकारी प्यारी,
अंग-अंग रँग जाय, ऐसें पिचकारिहौँ|
अँगिया-चुनर-नीबी-सुपरि भिगोय डारौँ,
जो तू रूठ जैहै, हौलें-हौलें पुचकारिहौँ|
अब कें फगुनवा में कहें दैहौँ 'कविदास',
राज़ी सौं नहीं, तो जोरदारी कर डारिहौँ||
[घनाक्षरी कवित्त]

नायिका:-

दुहुँ गालन लाल गुलाल भर्यौ, अँगिया में दबी हैं अबीर की झोरी|
अधरामृत रंग तरंग भरे, पिचकारी बनीं ये निगाह निगोरी|
ढप-ढोल-मृदंग उमंगन के, रति के रसगीत करें चितचोरी|
तुम फाग की बाट निहारौ व्रुथा, तुम्हें बारहों माज़ खिलावहुँ होरी||
[सवैया]


बरसाने की लट्ठमार होली : नवीन चतुर्वेदी

बरसाने की लट्ठमार होली :

 

 

नवीन चतुर्वेदी 
 
होरी खेलिवे कों हुरियार चले बरसाने, 
संग लिएं ग्वाल-बाल हुल्लड़ मचामें हैं|
 
टेसू के फूलन कों पानी में भिगोय कें फिर,
 
भर भर पिचकारी रंगन उडामें हैं|

संगत के सरारती संगी सहोदर कछू, 
गोपिन कों घेर गोबर में हू डुबामें हैं|
 
कूद कूद जामें और बरसाने पौंचते ही,
 
लट्ठ खाय गोरिन सों घर लौट आमें हैं||


महीना पच्चीस दिन दूध पिएं घी हू खामें, 
जाय कें अखाडें डंड बैठक लगामें हैं|
 
इहाँ-उहाँ जहाँ जायँ, इतरायँ, भाव खायँ,
 
नुक्कड़-अथाँइन
 पे गाल हू बजामें हैं| 
पिछले बरस कौ यों बदलौ लेंगे अचूक,
 
यों
-त्यों कर दंगे ऐसी योजना बनामें हैं| 
कूद कूद जामें और बरसाने पौंचते ही,
 
लट्ठ खाय गोरिन सों घर लौट आमें हैं||

रविवार, 10 अक्टूबर 2010

तेवरी : किसलिए? नवीन चतुर्वेदी

तेवरी ::

किसलिए?

नवीन चतुर्वेदी
*
*
बेबात ही बन जाते हैं इतने फसाने किसलिए?
दुनिया हमें बुद्धू समझती है न जाने किसलिए?

ख़ुदग़र्ज़ हैं हम सब, सभी अच्छी तरह से जानते!
हर एक मसले पे तो फिर मुद्दे बनाने किसलिए?

सब में कमी और खोट ही दिखता उन्हें क्यूँ हर घड़ी?
पूर्वाग्रहों के जिंदगी में शामियाने किसलिए?

हर बात पे तकरार करना शौक जैसे हो गया!
भाते उन्हें हर वक्त ही शक्की तराने किसलिए?
*