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रविवार, 22 अक्टूबर 2017

laghukatha

लघुकथा
कर्तव्य और अधिकार
*
मैं उन्हें 'गुरु' कहता हूँ, कहता ही नहीं मानता भी हूँ। मानूँ क्यों नहीं, उनसे बहुत कुछ सीखा भी है। वे स्वयं को विद्यार्थी मानते हैं। मुझ जैसे कई नौसिखियों का गद्य-पद्य की कई विधाओं में मार्गदर्शन करते हैं, त्रुटि सुधारते हैं और नयी-नयी विधाएँ सिखाते हैं,सामाजिक-पारिवारिक कर्तव्य निभाने की प्रेरणा और नए-नए विचार देते हैं। आधुनिक गुरुओं के आडम्बर से मुक्त सहज-सरल
एक दिन सन्देश मिला कि उनके आवास पर एक साहित्यिक आयोजन है। मैं अनिश्चय में पड़ गया कि मुझे जाना चाहिए या नहीं? सन्देश का निहितार्थ मेरी सहभागिता हो तो न जाना ठीक न होगा, दूसरी ओर बिना आमंत्रण उपस्थिति देना भी ठीक नहीं लग रहा था। मन असमंजस में था।
इसी ऊहापोह में करवटें बदलते-बदलते झपकी लग गयी।
जब आँख खुली तो अचानक दिमाग में एक विचार कौंधा अगर उन्हें गुरु मानता हूँ तो गुरुकुल का हर कार्यक्रम मेरा अपना है, आमंत्रण की अपेक्षा क्यों? आगे बढ़कर जिम्मेदारी से सब कार्य सम्हालूँ। यही है मेरा कर्तव्य और अधिकार भी।
*
salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१८३२४४
http://divyanarmada@blogspot.com
#हिंदी_ब्लोगर

सोमवार, 24 अक्टूबर 2016

laghukatha

लघुकथा 
कर्तव्य और अधिकार
*
मैं उन्हें 'गुरु' कहता हूँ, कहता ही नहीं मानता भी हूँ। मानूँ क्यों नहीं, उनसे बहुत कुछ सीखा भी है। वे स्वयं को विद्यार्थी मानते हैं। मुझ जैसे कई नौसिखियों का गद्य-पद्य की कई विधाओं में मार्गदर्शन करते हैं, त्रुटि सुधारते हैं और नयी-नयी विधाएँ सिखाते हैं,सामाजिक-पारिवारिक कर्तव्य निभाने की प्रेरणा और नए-नए विचार देते हैं। आधुनिक गुरुओं के आडम्बर से मुक्त सहज-सरल 

एक दिन सन्देश मिला कि उनके आवास पर एक साहित्यिक आयोजन है। मैं अनिश्चय में पड़ गया कि मुझे जाना चाहिए या नहीं? सन्देश का निहितार्थ मेरी सहभागिता हो तो न जाना ठीक न होगा, दूसरी ओर बिना आमंत्रण उपस्थिति देना भी ठीक नहीं लग रहा था। मन असमंजस में था। 

इसी ऊहापोह में करवटें बदलते-बदलते झपकी लग गयी। 

जब आँख खुली तो अचानक दिमाग में एक विचार कौंधा अगर उन्हें गुरु मानता हूँ तो गुरुकुल का हर कार्यक्रम मेरा अपना है, आमंत्रण की अपेक्षा क्यों? आगे बढ़कर जिम्मेदारी से सब कार्य सम्हालूँ। यही है मेरा कर्तव्य और अधिकार।
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बुधवार, 14 जुलाई 2010

समस्यापूर्ति: बात बस इतनी सी थी संजीव 'सलिल'

समस्यापूर्ति:

बात बस इतनी सी थी

संजीव 'सलिल'
*
Wagah+-+India-Pakistan+Border.JPG

*
क्यों खड़ा था अँधेरे में
ठण्ड से वह कांपता?
जागकर रातों में
बारिश और अंधड़ झेलता.
तपिश सूरज की न उसको
तनिक विचलित कर रही.
भुलाकर निज दर्द-पीड़ा
मौत से चुप खेलता
नवोढ़ा से दूर
ममता-नेह को भूला हुआ.
पिता-माता, बन्धु-बांधव
बसे दिल में पर भुला
नहीं रागी, ना विरागी
करे पूजा कर्म की.
मानता कर्त्तव्य को ही
साधना वह धर्म की.
नहीं चिता तनिक कल की,
भय न किंचित व्याप्त.
'सलिल' क्यों अनथक पगों से
वह धरा था नापता?
देश की रक्षा ही उसको
साध्य और अभीष्ट थी.

बात बस इतनी सी थी.
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