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सोमवार, 30 नवंबर 2009

लघुकथा ...ब्रांड एम्बेसडर

लघुकथा
ब्रांड एम्बेसडर
विवेक रंजन श्रीवास्तव
c/6 , MPSEB Colony , Rampur , Jabalpur (MP)
mob 9425806252
vivek1959@yahoo.co.in

काला क्रीज किया हुआ फुलपैंट , हल्की नीली शर्ट ,गले में गहरी नीली टाई , कंधे पर लैप टाप का काला बैग , और हाथ में मोबाइल ...जैसे उसकी मोनोटोनस पहचान बन गई है . मोटर साइकिल पर सुबह से देर रात तक वह शहर में ही नही बल्कि आस पास के कस्बों में भी जाकर अपनी कंपनी के लिये संभावित ग्राहक जुटाता रहता ,सातों दिन पूरे महीने , टारगेट के बोझ तले . एटीकेट्स के बंधनो में , लगभग रटे रटाये जुमलों में वह अपना पक्ष रखता हर बार ,बातचीत के दौरान सेलिंग स्त्रेतजी के अंतर्गत देश दुनिया , मौसम की बाते भी करनी पड़ती , यह समझते हुये भी कि सामने वाला गलत कह रहा है , उसे मुस्कराते हुये हाँ में हाँ मिलाना बहुत बुरा लगता पर डील हो जाये इसलिये सब सुनना पड़ता . डील होते तक हर संभावित ग्राहक को वह कंपनी का "ब्रांड एम्बेसडर" कहकर प्रभावित करने का प्रयत्न करता जिसमें वह प्रायः सफल ही होता .डील के बाद वही "ब्रांड एम्बेसडर" कंपनी के रिकार्ड में महज एक आंकड़ा बन कर रह जाता . बाद में कभी जब कोई पुराना ग्राहक मिलता तो वह मन ही मन हँसता ,उस एक दिन के बादशाह पर . उसका सेल्स रिकार्ड बहुत अच्छा है , अनेक मौकों पर उसकी लच्छेदार बातों से कई ग्राहकों को उसने यू तर्न करवा कर कंपनी के पक्ष में डील करवाई है . अपनी ऐसी ही सफलताओ पर नाज से वह हर दिन नये उत्साह से गहरी नीली टाई के फंदे में स्वयं को फंसाकर मोटर साइकिल पर लटकता डोलता रहता है , घर घर .
इयर एंड पर कंपनी ने उसे पुरस्कृत किया है , अब उसे कार एलाउंस की पात्रता है , आज कार खरीदने के लिये उसने एक कंपनी के शोरूम में फोन किया तो उसके घर , झट से आ पहुंचे उसके जैसे ही नौजवान काला क्रीज किया हुआ फुलपैंट , हल्की भूरी शर्ट ,गले में गहरी भूरी टाई लगाये हुये ... वह पहले ही जाँच परख चुका था कार , पर वे लोग उसे अपनी कंपनी का "ब्रांड एम्बेसडर" बताकर टेस्ट ड्राइव लेने का आग्रह करने लगे , तो उसे अनायास स्वयं के और उन सेल्स रिप्रेजेंटेटिव नौजवानो के खोखलेपन पर हँसी आ गई .. पत्नी और बच्चे "ब्रांड एम्बेसडर" बनकर पूरी तरह प्रभावित हो चुके थे ..निर्णय लिया जा चुका था , सब कुछ समझते हुये भी अब उसे वही कार खरीदनी थी . डील फाइनल हो गई . सेल्स रिप्रेजेंटेटिव जा चुके थे .बच्चे और पत्नी बेहद प्रसन्न थे .आज उसने अपनी पसंद का रंगीन पैंट और धारीदार शर्ट पहनी हुई थी बिना टाई लगाये , वह एटीकेत्स का ध्यान रखे बिना धप्प से बैठ गया अपने ही सोफे पर .. आज वह "ब्रांड एम्बेसडर" जो था .

रविवार, 29 नवंबर 2009

साइकल ने बना दिया इंजीनियर

साइकल ने बना दिया इंजीनियर



सिवनी। आपने कभी नहीं सुना होगा कि साइकल ने किसी व्यक्ति को मेकेनिकल इंजीनियर बनाया हो लेकिन नगर के काजी चौक में रहने वाले एक व्यक्ति को साइकल ने मेकेनिकल इंजीनियर बना दिया है। पेशे से शिक्षक इस व्यक्ति ने साइकल में इंजन लगाकर उसे पेट्रोल चलित वाहन का रूप दे दिया है। ऐसा करने के लिए उसे मेकेनिकल इंजीनियरिंग का अध्ययन करना पड़ा। हम बात कर रहे हैं समद खान (४५) की जो १२ किमी दूर आमागढ़ के शासकीय स्कूल में शिक्षक हैं। वैसे तो इन्होंने कबाड़ की जुगाड़ से कई सामान बनाए, लेकिन पेट्रोल से चलित और बैटरी से चलने वाली साइकल कुछ खास है।

श्री खान बताते हैं कि जब वे आमागढ़ के शासकीय स्कूल में शिक्षक थे। शहर से रोजाना २४ किमी का सफर करने में उन्हें काफी दिक्कतें होती थी। सन १९८७-८८ में उन्होंने लूना खरीदने की कोशिश की, परंतु उस समय किसी भी गाड़ी खरीदने के लिए नंबर लगाना पड़ता था। नंबर लगाने के कई माह बाद गाड़ी हाथ में आ पाती थी। इन झंझटों में पड़ने की बजाय उन्होंने अपनी साइकल में ही इंजन लगाने की ठान ली और इंजन की तलाश भी शुरू कर दी। इसी दौरान किसी काम से उनका नागपुर जाना हुआ और वहां की एक कबाड़ी की दुकान में इंजन भी मिल गया।

साइकल में इंजन लगाने और उसे गाड़ी का रूप देने में उन्हें इंजीनियरिंग संबंधी विभिन्न पुस्तकों का अध्ययन करना पड़ा। काफी मशक्कत के बाद उन्हें इस कार्य में सफलता मिल गयी। इस कार्य के लिए उन्हें साढ़े छह सौ रूपए खर्च करने पड़े थे। जबकि लूना की कीमत उस समय ८ हजार रुपए थी।

कुछ वर्षों तक वे ७० किमी प्रति लीटर के हिसाब से चलने वाली साइकल से आमागढ़ आते-जाते रहे। इसके बाद उन्होंने बैटरी से चलने वाली साढ़े बारह हजार मूल्य की एक साइकल छिंदवाड़ा से खरीदी। यहां गौर करने वाली बात श्री खान छिंदवाड़ा और सिवनी जिले में सबसे पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने बैटरी से चलने वाली साइकल खरीदी थी।

उन्होंने बताया कि कुछ ही समय बाद साइकल की बैटरी और चार्जर खराब हो गए। इसे सुधारने के लिए कोई मैकेनिक उन्हें नहीं मिला। यहां तक चार्जर सुधरवाने के लिए वे बाम्बे तक गये लेकिन वहां भी नहीं सुधरा और न ही बैटरी मिली।

इस स्थिति में उन्होंने पुनः किताबों का अध्ययन किया और चार्जर को सुधार लिया। साथ ही बैटरी का जुगाड़ उन्होंने कम्प्यूटर में लगने वाली वेकअप बैटरी से कर लिया। आज वे इस बैटरी से अपनी साइकल चलाते हुए रोजाना २४ किमी का सफर तय करते हैं। इतने सफर में उनका रोज ५ रुपए व्यय होता है।

शनिवार, 28 नवंबर 2009

छठी इंद्रिय

मस्तिष्कदृष्टि की क्षमता.. छठी इंद्रिय
विवेक रंजन श्रीवास्तव
ओ बी ११, विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

हमारी सबसे बड़ी योग्यता क्या है ? जीवन के विहंगम दृश्य को देखने की हमारी दृष्टि ? गीत और भाषा की ध्वनियाँ सुनने की शक्ति ? भौतिक संसार का आनंद अनुभव करने की क्षमता ? या शायद समृद्घ प्रकृति की मधुरता और सौंदर्य का स्वाद व गंध लेने की योग्यता ? दार्शनिको व मनोवैज्ञानिको का मत है कि हमारी सबसे अधिक मूल्यवान अनुभूति है हमारी ‘‘मस्तिष्कदृष्टि’’ (mindsight) . जिसे छठी इंद्रिय के रूप में भी विश्लेषित किया जाता है । यह एक दिव्यदृष्टि है . हमारे जीवन की कार्ययोजना भी यही तय करती है . यह एक सपना है और उस सपने को हक़ीक़त में बदलने की योग्यता भी । यही मस्तिष्क दृष्टि हमारी सोच निर्धारित करती है और सफल सोच से ही हमें व्यावहारिक राह सूझती है , मुश्किल समय में हमारी सोच ही हमें भावनात्मक संबल देती है। अपनी सोच के सहारे ही हम अपने अंदर छुपी शक्तिशाली कथित ‘‘छठी इंद्रिय’’ को सक्रिय कर सकते हैं और जीवन में उसका प्रभावी प्रयोग कर सकते हैं। हममें से बहुत कम लोग जानते हैं कि दरअसल हम अपने आप से चाहते क्या हैं ? यह तय है कि जीवन लक्ष्य निर्धारित कर सही दिशा में चलने पर हमारा जीवन जितना रोमांचक, संतुष्टिदायक और सफल हो सकता है, निरुद्देश्य जीवन वैसा हो ही नहीं सकता। हम ख़ुद को ऐसी राह पर कैसे ले जायें, जिससे हमें स्थाई सुख और संतुष्टि मिले। सफलता व्यक्तिगत सुख की पर्यायवाची है। हम अपने बारे में, अपने काम के बारे में, अपने रिश्तों के बारे में और दुनिया के बारे में कैसा महसूस करते हैं, यही तथ्य हमारी व्यक्तिगत सफलता व संतुष्टि का निर्धारक होता है।
सच्चे सफल लोग हर नये दिन का स्वागत उत्साह, आत्मविश्वास और आशा के साथ करते हैं। उन्हें ख़ुद पर भरोसा होता है और उस जीवन शैली पर भी, जिसे जीने का विकल्प उन्होंने चुना है। वे जानते हैं कि जीवन में कुछ पाने के लिए उन्हें अपनी सारी शक्ति एकाग्र कर लगानी पड़ेगी । वे अपने काम से प्रेम करते हैं। वे लोग दूसरों को प्रेरित करने में कुशल होते हैं और दूसरों की उपलब्धियों पर ख़ुश होते हैं। वे दूसरों का ध्यान रखते हैं, उनके साथ अच्छा व्यवहार करते हैं स्वाभाविक रूप से प्रतिसाद में उन्हें भी अच्छा व्यवहार मिलता है। मस्तिष्कदृष्टि द्वारा हम जानते हैं, कि मेहनत, चुनौती और त्याग जीवन के हिस्से हैं। हम हर दिन को व्यक्तिगत विकास के अवसर में बदल सकते हैं। सफल व्यक्ति डर का सामना करके उसे जीत लेते हैं और दर्द को झेलकर उसे हरा देते हैं। उनमें अपने दैनिक जीवन में सुख पैदा करने की क्षमता होती है, जिससे उनके आसपास रहने वाले लोग भी सुखी हो जाते हैं। उनकी निश्छल मुस्कान , उनकी आंतरिक शक्ति और जीवन की सकारात्मक शैली का प्रमाण होती है।
क्या आप उतने सुखी हैं, जितने आप होना चाहते हैं ? क्या आप अपने सपनों का जीवन जी रहे हैं या फिर आप उतने से ही संतुष्ट होने की कोशिश कर रहे हैं, जो आपके हिसाब से आपको मिल सका है ? क्या आपको हर दिन सुंदर व संतुष्टिदायक अनुभवों से भरे अद्भुत अवसर की तरह दिखता है ? अगर ऐसा नहीं है, तो सच मानिये कि व्यापक संभावनाये आपको निहार रही हैं . किसी को भी संपूर्ण, समृद्ध और सफलता से भरे जीवन से कम पर समझौता नहीं करना चाहिये। आप अपनी मनचाही ज़िंदगी जीने में सफल हो पायेंगे या नहीं, यह पूरी तरह आप पर ही निर्भर है .आप सब कुछ कर सकते हैं, बशर्तें आप ठान लें। अपने जीवन के मालिक बनें और अपने मस्तिष्क में निहित अद्भुत संभावनाओं को पहचानकर उनका दोहन करें। अगर मुश्किलें और समस्याएँ आप पर हावी हो रही हैं तथा आपका आत्मविश्वास डगमगा रहा है, तो जरूरत है कि आप समझें कि आप अपनी समस्या का सामना कर सकते हैं .आप स्वयं को प्रेरित कर , आत्मविश्वास अर्जित कर सकते हैं , आप अपने डर भूल सकते हैं ,असफलता के विचारों से मुक्त हो सकते हैं ,आप में नैसर्गिक क्षमता है कि आप चमत्कार कर सकते हैं , आप अपने प्रकृति प्रदत्त संसाधनों से लाभ उठा कर अपना जीवन बदल सकते हैं ,आप शांति से और हास्य-बोध के साथ खुशहाल जीवन जी सकते हैं , शिखर पर पहुँचकर वहाँ स्थाई रूप से बने रह सकते हैं , और इस सबके लिये आपको अलग से कोई नये यत्न नही करने है केवल अपनी मस्तिष्कदृष्टि की क्षमता को एक दिशा देकर विकसित करते जाना है .

विवेक रंजन श्रीवास्तव
ओ बी ११, विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

शुक्रवार, 27 नवंबर 2009

हिंदी सबके मन बसी : संजीव 'सलिल'

हिंदी सबके मन बसी




आचार्य संजीव'सलिल', संपादक दिव्य नर्मदा



हिंदी भारत भूमि के, जन-गण को वरदान.

हिंदी से ही हिंद का, संभव है उत्थान..



संस्कृत की पौत्री प्रखर, प्राकृत-पुत्री शिष्ट.

उर्दू की प्रेमिल बहिन, हिंदी परम विशिष्ट..



हिंदी आटा माढिए, उर्दू मोयन डाल.

'सलिल' संस्कृत तेल ले, पूड़ी बने कमाल..



ईंट बने सब बोलियाँ, गारा भाषा नम्य.

भवन भव्य है हिंद का, हिंदी ह्रदय प्रणम्य.



संस्कृत पाली प्राकृत, हिंदी उर्दू संग.

हर भाषा-बोली लगे, भव्य लिए निज रंग..



सब भाषाएँ-बोलियाँ, सरस्वती के रूप.

स्नेह पले, साहित्य हो, सार्थक सरस अनूप..



भाषा-बोली श्रेष्ठ हर, त्याज्य न कोई हेय.

सबसे सबका स्नेह ही, हो लेखन का ध्येय..



उपवन में कलरव करें, पंछी नित्य अनेक.

भाषाएँ अगणित रखें, मन में नेह-विवेक..



भाषा बोले कोई भी. किन्तु बोलिए शुद्ध.

दिल से दिल तक जा सके, बनकर दूत प्रबुद्ध..

हिंदी सबके मन बसी --संजीव'सलिल'

हिंदी सबके मन बसी




आचार्य संजीव'सलिल', संपादक दिव्य नर्मदा



हिंदी भारत भूमि के, जन-गण को वरदान.

हिंदी से ही हिंद का, संभव है उत्थान..



संस्कृत की पौत्री प्रखर, प्राकृत-पुत्री शिष्ट.

उर्दू की प्रेमिल बहिन, हिंदी परम विशिष्ट..



हिंदी आटा माढिए, उर्दू मोयन डाल.

'सलिल' संस्कृत तेल ले, पूड़ी बने कमाल..



ईंट बने सब बोलियाँ, गारा भाषा नम्य.

भवन भव्य है हिंद का, हिंदी ह्रदय प्रणम्य.



संस्कृत पाली प्राकृत, हिंदी उर्दू संग.

हर भाषा-बोली लगे, भव्य लिए निज रंग..



सब भाषाएँ-बोलियाँ, सरस्वती के रूप.

स्नेह पले, साहित्य हो, सार्थक सरस अनूप..



भाषा-बोली श्रेष्ठ हर, त्याज्य न कोई हेय.

सबसे सबका स्नेह ही, हो लेखन का ध्येय..



उपवन में कलरव करें, पंछी नित्य अनेक.

भाषाएँ अगणित रखें, मन में नेह-विवेक..



भाषा बोले कोई भी. किन्तु बोलिए शुद्ध.

दिल से दिल तक जा सके, बनकर दूत प्रबुद्ध..

गुरुवार, 26 नवंबर 2009

गीतिका: अपने मन से हार रहे हैं -संजीव 'सलिल'

गीतिका

आचार्य संजीव 'सलिल'

अपने मन से हार रहे हैं.
छुरा पीठ में मार रहे हैं॥

गुलदस्ते हैं मृग मरीचिका।
छिपे नुकीले खार रहे हैं॥

जनसेवक आखेटक निकले।
जन-गण महज शिकार रहे हैं॥

दुःख के सौदे नगद हो रहे।
सुख-शुभ-सत्य उधार रहे हैं॥

शिशु-बच्चों को यौन-प्रशिक्षण?
पाँव कुल्हाडी मार रहे हैं॥

राष्ट्र गौड़, क्यों प्रान्त प्रमुख हो?
कलुषित क्षुद्र विचार रहे हैं॥

हुए अजनबी धन-पद पाकर।
कभी ह्रदय के हार रहे हैं॥

नेह नर्मदा की नीलामी।
'सलिल' हाथ अंगार रहे हैं॥

*********************

सड़क पर...ओवरटेकिंग और टर्निंग इंडीकेटर्स अलग अलग हों....!!!!

सड़क पर...ओवरटेकिंग और टर्निंग इंडीकेटर्स अलग अलग हों....!!!!
vivek ranjan shrivastava , jabalpur
सड़क पर , लेफ्ट या राइट टर्न के लिये , या लेन परिवर्तन के लिये चार पहिये वाले वाहन में बैठा ड्राइवर जिस दिशा में उसे मुड़ना होता है , उस दिशा का पीला इंडीकेटर जला कर पीछे से आने वाले वाहन को अपने अगले कदम का सिग्नल देता है . स्टीयरिंग के साथ जुड़े हुये लीवर के उस दिशा में टर्न करने से से वाहन की बाडी में लगे अगले व पिछले उस दिशा के पीले इंडीकेटर ब्लिंकिंग करने लगते हैं , वाहन के वापस सीधे होते ही स्वयं ही स्टीयरिंग के नीचे लगा लीवर अपने स्थान पर वापस आ जाता है , व इंडीकेटर लाइट बंद हो जाती है . जब आगे चल रही गाड़ी का ड्राइवर दाहिने ओर से पीछे से आते हुये वाहन को ओवर टेक करने की अनुमति देता है तब भी वह इन्ही इंडीकेटर के जरिये पीछे वाली गाड़ी को संकेत देता है . इसी तरह डिवाइडर वाली सड़को पर , बाई ओर से पीछे से आ रहे वाहन को भी ओवरटेक करने की अनुमति इसी तरह वाहन के बाई ओर लगे इंडीकेटर जलाकर दी जाती है .

इस तरह पीछे से आ रहे वाहन के चालक को स्व विवेक से समझना पड़ता है कि इंडीकेटर ओवरटेक की अनुमति है या आगे चल रहे वाहन के मुड़ने का संकेत है , जिसे समझने में हुई छोटी सी गलती भी एक्सीडेंट का कारण बन जाती है .
मेरा सुझाव है कि यदि वाहन निर्माता ओवर टेकिंग हेतु हरे रंग की लाइट , साइड बाडी पर और लगाने लगें तो यह दुविधा की स्थिति समाप्त हो सके व पीछे चल रहा चालक स्पष्ट रूप से आगे के वाहन के संकेत को समझ सके ...
क्या मेरे इस सुझाव पर आर टी ओ व वाहन निर्माता ध्यान देंगे ?

बुधवार, 25 नवंबर 2009

स्मृति गीत: तुम जाकर भी / गयी नहीं हो... संजीव 'सलिल'

स्मृति गीत:

पूज्य मातुश्री स्व. शांतिदेवी की प्रथम बरसी पर-


संजीव 'सलिल'

तुम जाकर भी
गयी नहीं हो...
*
बरस हो गया
तुम्हें न देखा.
मिति न किंचित
स्मृति रेखा.
प्रतिदिन लगता
टेर रही हो.
देर हुई, पथ
हेर रही हो.
गोदी ले
मुझको दुलरातीं.
मैया मेरी
बसी यहीं हो.
तुम जाकर भी
गयी नहीं हो...
*
सच घुटने में
पीर बहुत थी.
लेकिन तुममें
धीर बहुत थी.
डगर-मगर उस
भोर नहाया.
प्रभु को जी भर
भोग लगाया.
खाई न औषधि
धरे कहीं हो.
तुम जाकर भी
गयी नहीं हो...
*
गिरी, कँपा
सारा भू मंडल.
युग सम बीता
पखवाडा-पल.
आँख बोलती
जिव्हा चुप्प थी.
जीवन आशा
हुई गुप्प थी.
नहीं रहीं पर
रहीं यहीं हो
तुम जाकर भी
गयी नहीं हो...
*

मंगलवार, 24 नवंबर 2009

मैथिली गीत सब एलय फगुआ में सजना लल्लन प्रसाद ठाकुर

मैथिली गीत

- लल्लन प्रसाद ठाकुर -

सब एलय फगुआ में सजना ,
अहाँ बिना मोर आँगन सूना ।
सब एलय ....................।

चतुर्थिक राति अहाँ पढिते रहलहुँ,
भोरे उठि कs अहाँ चलि देलहुँ ।
चिट्ठियो नहि देलहुँ खबरियो नहि लेलहुँ,
जाइत काल एकोटा फोटुओ देलहुँ ।
इहो नहि बुझलियय हम जीबय कोना ।
सब एलय .................... ।

खूब पढू खूब पढू खूब पढू यौ,
कखनो कs हमरो बिचारि करू यौ,
लाल काकी के जोड़ा बेटा भेलैंह,
सौंसे गामे के ओ भोज केलैन्ह,
अपन कर्मक लिखल के मेटत के,
ककरो एकोटा नहि ककरो भेंटय दूना ।
सब एलय .................... ।

*******************************

सोमवार, 23 नवंबर 2009

शोकगीत: नाथ मुझे क्यों / किया अनाथ? संजीव 'सलिल'

पूज्य मातुश्री स्व. शांति देवि जी की प्रथम बरसी पर शोकगीत:

नाथ मुझे क्यों / किया अनाथ?

संजीव 'सलिल'

नाथ ! मुझे क्यों
किया अनाथ?...
*
छीन लिया क्यों
माँ को तुमने?
कितना तुम्हें
मनाया हमने?
रोग मिटा कर दो
निरोग पर-
निर्मम उन्हें
उठाया तुमने.
करुणासागर!
दिया न साथ.
नाथ ! मुझे क्यों
किया अनाथ?...
*
मैया तो थीं
दिव्य-पुनीता.
मन रामायण,
तन से गीता.
कर्तव्यों को
निश-दिन पूजा.
अग्नि-परीक्षा
देती सीता.
तुम्हें नवाया
निश-दिन माथ.
नाथ ! मुझे क्यों
किया अनाथ?...
*
हरी! तुमने क्यों
चाही मैया?
क्या अब भी
खेलोगे कैया?
दो-दो मैया
साथ तुम्हारे-
हाय! डुबा दी
क्यों फिर नैया?
उत्तर दो मैं
जोडूँ हाथ.
नाथ ! मुझे क्यों
किया अनाथ?...
*

मेघदूत ..३६ से ४०

मेघदूत ..३६ से ४०


Hindi translation ..by Prof. C.B. Shrivastava" vidagdh"..JABALPUR


मूल संस्कृत
भर्तुः कण्ठच्चविर इति गणैः सादरं वीक्ष्यमाणः
पुण्यं यायास त्रिभुवनगुरोर धाम चण्डीश्वरस्य
धूतोद्यानं कुवलयरजोगन्धिभिर गन्धवत्यास
तोयक्रीडानिरतयुवतिस्नानतिक्तैर मरुद्भिः॥१.३६॥
हिन्दी पद्यानुवाद
वहां केशगंधी अगरु धूम्र से हृष्ट
पा गृहशिखी से मिलन नृत्य उपहार
सुमन गंधसज्जित चरमराग रंजित
भवन श्री निरख , भूल श्रम , मार्ग कर पार


मूल संस्कृत
अप्य अन्यस्मिञ जलधर महाकालम आसाद्य काले
स्थातव्यं ते नयनविषयं यावद अत्येति भानुः
कुर्वन सन्ध्यावलिपटहतां शूलिनः श्लाघनीयाम
आमन्द्राणां फलम अविकलं लप्स्यसे गर्जितानाम॥१.३७॥
हिन्दी पद्यानुवाद
स्वामी सदृश कंठ , छबिवान तुम
गण समावृत महाकाल के धाम जाना
नदी स्नान क्रीड़ा निरत युवतिजन की
कमल धूलि मिस्रित पवन गंध पाना


मूल संस्कृत
पादन्यासैः क्वणितरशनास तत्र लीलावधूतै
रत्नच्चायाखचितवलिभिश चामरैः क्लान्तहस्ताः
वेश्यास त्वत्तो नखपदसुखान प्राप्य वर्षाग्रबिन्दून
आमोक्ष्यन्ते त्वयि मधुकरश्रेणिदीर्घान कटक्षान॥१.३८॥
हिन्दी पद्यानुवाद
कहीं शाम के पूर्व जो मेघ पहुंचो
वहां सूर्य के अस्त तक विरम जाना
त्रिशूली महाकाल के सांध्यवंदन
समय गर्ज दुन्दुभि बजा पुण्य पाना


मूल संस्कृत
पश्चाद उच्चैर्भुजतरुवनं मण्डलेनाभ्लीनः
सांध्यं तेजः प्रतिनवजपापुष्परक्तं दधानः
नृत्तारम्भे हर पशुपतेर आर्द्रनागाजिनेच्चां
शान्तोद्वेगस्तिमितनयनं दृष्टभक्तिर भवान्या॥१.३९॥
हिन्दी पद्यानुवाद
वहां चरण निक्षेप से क्वणित रसना
जड़ित चँवरधारे , थके हाथ वाली
नखक्षत सुखद मेहकण पा लखेंगी
भ्रमर पंक्ति नयना तुम्हें देवदासी


मूल संस्कृत
गच्चन्तीनां रमाणवसतिं योषितां तत्र नक्तं
रुद्धालोके नरपतिपथे सूचिभेद्यैस तमोभिः
सौदामन्या कनकनिकषस्निग्धया दर्शयोर्वीं
तोयोत्सर्गस्तनितमुहरो मा च भूर्विक्लवास्ताः॥१.४०॥

हिन्दी पद्यानुवाद
फिर नृत्य में उठे भुजतरु शिखर लिप्त
हो , शंभु के धर जुही सांध्य लाली
हर गज अजिन आद्र परिधान इच्छा
लखें भक्ति , सस्मितवदन तव , भवानी

नव गीत: घर को 'सलिल' मकान मत कहो... --संजीव 'सलिल'

नव गीत

संजीव 'सलिल'

घर को 'सलिल'
मकान मत कहो...
*
कंकर में
शंकर बसता है
देख सको तो देखो.

कण-कण में
ब्रम्हांड समाया
सोच-समझ कर लेखो.

जो अजान है
उसको तुम
बेजान मत कहो.

घर को 'सलिल'
मकान मत कहो...
*
*
भवन, भावना से
सम्प्राणित
होते जानो.

हर कमरे-
कोने को
देख-भाल पहचानो.

जो आश्रय देता
है देव-स्थान
नत रहो.

घर को 'सलिल'
मकान मत कहो...
*
घर के प्रति
श्रद्धानत हो
तब खेलो-डोलो.

घर के
कानों में स्वर
प्रीति-प्यार के घोलो.

घर को
गर्व कहो लेकिन
अभिमान मत कहो.

घर को 'सलिल'
मकान मत कहो...
*
स्वार्थों का
टकराव देखकर
घर रोता है.

संतति का
भटकाव देख
धीरज खोता है.

नवता का
आगमन, पुरा-प्रस्थान
मत कहो.

घर को 'सलिल'
मकान मत कहो...
*
घर भी
श्वासें लेता
आसों को जीता है.

तुम हारे तो
घर दुःख के
आँसू पीता है.

जयी देख घर
हँसता, मैं अनजान
मत कहो.

घर को 'सलिल'
मकान मत कहो...

शनिवार, 21 नवंबर 2009

हिंदी सबके मन बसी -आचार्य संजीव 'सलिल'

हिंदी सबके मन बसी

आचार्य संजीव 'सलिल'

हिंदी भारत भूमि के, जन-गण को वरदान.
हिंदी से ही हिंद का, संभव है उत्थान..

संस्कृत की पौत्री प्रखर, प्राकृत-पुत्री शिष्ट.
उर्दू की प्रेमिल बहिन, हिंदी परम विशिष्ट..

हिंदी आटा माढिए, उर्दू मोयन डाल.
'सलिल' संस्कृत तेल ले, पूड़ी बने कमाल..

ईंट बने सब बोलियाँ, गारा भाषा नम्य.
भवन भव्य है हिंद का, हिंदी ह्रदय प्रणम्य.

संस्कृत पाली प्राकृत, हिंदी उर्दू संग.
हर भाषा-बोली लगे, भव्य लिए निज रंग..

सब भाषाएँ-बोलियाँ, सरस्वती के रूप.
स्नेह पले, साहित्य हो, सार्थक सरस अनूप..

भाषा-बोली श्रेष्ठ हर, त्याज्य न कोई हेय.
सबसे सबका स्नेह ही, हो लेखन का ध्येय..

उपवन में कलरव करें, पंछी नित्य अनेक.
भाषाएँ अगणित रखें, मन में नेह-विवेक..

भाषा बोलेन कोई भी. किन्तु बोलिए शुद्ध.
दिल से दिल तक जा सके, बनकर दूत प्रबुद्ध..


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मैथिली कविता: "चुलबुली कन्या बनि गेलहुँ" -कुसुम ठाकुर

मैथिली कविता:

बिहार के मिथिला अंचल की जन भाषा मैथिली समृद्ध साहित्यिक सृजन परंपरा के वाहक है. प्रस्तुत है नवोदित कवयित्री कुसुम ठाकुर की प्रथम मैथिली कविता_

"चुलबुली कन्या बनि गेलहुँ"


बिसरल छलहुँ हम कतेक बरिस सँ ,
अपन सभ अरमान आ सपना ।
कोना लोक हँसय कोना हँसाबय ,
आ कि हँसी में सामिल होमय ।
आइ अकस्मात अपन बदलल ,
स्वभाव देखि हम स्वयं अचंभित ।
दिन भरि हम सोचिते रहि गेलहुँ ,
मुदा जवाब हमरा नहि भेंटल ।
एक दिन हम छलहुँ हेरायल ,
ध्यान कतय छल से नहि जानि ।
अकस्मात मोन भेल प्रफुल्लित ,
सोचि आयल हमर मुँह पर मुस्की ।
हम बुझि गेलहुँ आजु कियैक ,
हमर स्वभाव एतेक बदलि गेल ।
किन्कहु पर विश्वास एतेक जे ,
फेर सँ चंचल,चुलबुली कन्या बनि गेलहुँ ।।


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नवगीत: मैं अपना / जीवन लिखता संजीव 'सलिल'

मैं अपना / जीवन लिखता

संजीव 'सलिल'

मैं अपना
जीवन लिखता
तुम कहते
गीत-अगीत है...
*
उठता-गिरता,
फिर भी चलता.
सुबह ऊग
हर साँझा ढलता.
निशा, उषा,
संध्या मन मोहें.
दें प्राणों को
विरह-विकलता.
राग-विराग
ह्रदय में धारे,
साथी रहे
अतीत हैं...
*
पाना-खोना,
हँसाना-रोना.
फसल काटना,
बीजे बोना.
शुभ का श्रेय
स्वयं ले लेना-
दोष अशुभ का
प्रभु को देना.
जन-मानकर
सच झुठलाना,
दूषित सोच
कुरीत है...
*
देखे सपने,
भूले नपने.
जो थे अपने,
आये ठगने.
कुछ न ले रहे,
कुछ न दे रहे.
व्यर्थ उन्हें हम
गैर कह रहे.
रीत-नीत में
छुपी हुई क्यों
बोलो 'सलिल'
अनीत है?...
****

Poems : Dr. Ram Sharma

poems:

Dr, Ram Sharma

POLITICS

Some party is against Hindus,
Some against Mohammdens
Some party is against Hindi
some against English
but no party is against corruption
poverty, illiteracy and terrorism
none opposes darkness
none favours humanism
everywhere is naked play
of money and liquor
how is this politics!

DISATER – DISASTER

On the threshold of 21st century
The moving time
With the speed of hurricane
I don`t have any past
Nor any future
The sun doesn`t rise
In the dark tunnel of my life
The dim eyes
Looking hopes everywhere
All the weather same
All festivals
Equal
Autumn –spring
Same
My only hope
My little son
In my lap

**************

बाबा रामदेव के प्रति दोहांजलि : संजीव 'सलिल'

बाबा रामदेव के प्रति दोहांजलि :



संजीव 'सलिल'

सत-शिव-सुन्दर ध्येय है, सत-चित आनंद प्रेय.
कंकर को शंकर करें, रामदेव प्रज्ञेय .. १

'दूर रोग कर योग से', कहते: 'बनो निरोग'.
काल बली पर मत बने, मनुज भोग का भोग..२

अनिल अनल भू नभ सलिल, पञ्चतत्त्वमय देह.
गह न तेरा, जनक सम, हो हर मनुज विदेह.. ३

निर्देशक परमात्मा, आत्मा केवल पात्र.
रंगमंच जीवन-जगत, तेरे साधन मात्र.. ४

वाग्वीर बाबा नहीं, करते स्वयं प्रयोग.
दिखा, सिखाते, कर सके, जो देखे वह योग.. ५

बाबा दयानिधान हैं, तन-मन की हर पीर.
कहते- 'मत भागो' 'सलिल', करो जगत बेपीर.. ६

'सौ रोगों का एक है', बाबा कहें: 'इलाज.
संयम, श्रम, आसन, नियम, अपना कल मत-आज'. ७

कुंठा हरकर दे रहे, नव आशा-विश्वास.
बाबा से डरकर भगे, दुःख पीड़ा संत्रास.. ८

बाबा की महिमा अमित, वह पाता है जान,
जो श्रृद्धा रखकर करे, उपदेशों का पान.. ९

'जीव मात्र पर कर दया', बाबा का उपदेश.
'सबमें है परमात्मा, सेवा मते क्लेश'. १०

नशा नाश का मार्ग है, भोग रोग का मूल.
योगासन है मुक्तिपथ, बाधा हरे समूल.. ११

सबको मान समान तू, मना सभी की क्षेम.
बाबा सबसे पा रहे, देकर सबको प्रेम.. १२

पातंजलि के योग पर, पीताम्बर का रंग.
जन-मन भय सुलभ यह, योगासन सत्संग.. १३

शीतल पेय न पीजिये, यह है ज़हर समान.
आंत-उदर क्षतिग्रस्त कर, करता सुलभ मसान.. १४

'कोल्ड ड्रिंक विष मूल है', जठर-अग्नि कर मंद.
पाचन तंत्र बिगाड़ता, खो जाता आनंद.. १५

पेप्सी-कोला शत्रु हैं, करिए इस क्षण त्याग.
उपजाते शत रोग ये, मिलता नहीं सुराग.. १६

आसव, शरबत, दुग्ध, रस, ठंडाई लें आप.
तन-मन तृप्त-स्फूर्त हों, आप सकें जग-व्याप.. १७

जल-शीतक संयन्त्र में, मिटते जीवन तत्व.
गुणविहीन ताज 'सलिल', ज्यों भोजन बिन सत्व. १८

आडंबर से दूर रह, नैतिकता का पाठ.
बाबा से जो सीख ले, होते उसके ठाठ.. १९

सदा जीवन रख सदा, रखना उच्च विचार.
बाबा का गुरु मंत्र ले, तरें 'सलिल' स्वीकार. २०

करो राष्ट्र पर गर्व सब, जाग्रत रखो विवेक.
भारत माता कर सके, गर्व- रहो बन एक.. २१

नित्य प्रात उठ घूमिये, करिए प्राणायाम.
तन-मन हों जीवंत तब, भारत हो शुभ-धाम.. २२

ध्यान करो एकाग्र हो, जाग्रत हो निज आत्म.
कंकर में शंकर दिखे, प्रगटे खुद परमात्म.. २३

योगासन जब सीख लें, तभी करें प्रारंभ.
बिना टिकिट मत कीजिये, यात्रा का आरंभ.. २४

करतल-ध्वनि से रक्त का, हो कर में संचार.
नख-घर्षण से दूर हों, तन के विविध विकार.. २५

आत्महीनता दे मिटा, पल भर का आध्यात्म.
'सलिल' आत्म-गौरव जगे, योग करे विश्वात्म.. २६

रामदेव जी का लगे, जयकारा हो धूम.
योगी के पदकमल ले, स्वयं विधाता चूम.. २७

प्रकृति-पुत्र इंसान है, क्यों प्रकृति से दूर?
माँ को तजकर भटकता, आँखें रहते सूर.. २८

धरती माँ का नाशकर, कसे पाप का पाश.
माँ ही रक्षा कर सके, सत्य समझ ले काश.. २९

भू को पहना वस्त्र नव, कर सुन्दर श्रृंगार.
हरी-भरी होकर धरा, हो तुझ पर बलिहार.. ३०

राष्ट्र हेतु जिसने किया, जीवन का बलिदान.
अमर कीर्ति उसको मिली, सुर करते गुणगान.. ३१

हर पत्ता है औषधी, जान सके तो जान.
मिट्टी, पत्थर, काष्ठ भी, 'सलिल' गुणों की खान.. ३२

'बाबा खाते: 'मृदा से भी मिटते हैं रोग.
कर इलाज विश्वास रख, ताज कुटैव, लत, भोग..३३

परनारी को माँ-बहन, जैसा दे सम्मान.
लम्पटता से जिंदगी, बनती नरक-समान.. ३४

अन्न उगाता है कृषक, पाले सबका पेट.
पूंजीपति मिलकर करें, उस का ही आखेट.. ३५

नहीं भोग में तृप्ति है, भोगी रहे अतृप्त.
संयम साधे जो उसे, 'सलिल' मिलें सुख सप्त.. ३६

बूचडखाने से बहे, पशुओं का मल-स्राव.
चाकलेट में वह मिले, तू खाता ले चाव.. ३७

मृग की अंतर्ग्रंथी का, स्राव बना परफ्यूम.
भागी हत्या का बने, तू ले उसको चूम.. ३८

भोग शक्तिवर्धक दावा, करें बहुत नुकसान.
पशु-अंगों संग आह ले, बनता न र्हैवान.. ३९

मनु पशु पौधों सभी में, बसा वही परमात्म.
सबल निबल की जान ले, रुष्ट रहें विश्वात्म.. ४०

***********************************

शुक्रवार, 20 नवंबर 2009

PRAVESH: The Life -FARHAN KHAN

PRAVESH
:

Column of young talents

FARHAN KHAN

The Life

I saw a dream,
A man asks me
Why I live ?
No retort

Asks me again
What the life is?
No retort.

We live a smoky life
That is vague.
Life is a curse for those
Everything is immortal
Life is godsend for those
Everything is mortal

*******************

नवगीत: कौन किताबों से/सर मारे?... --आचार्य संजीव 'सलिल'

नवगीत:

आचार्य संजीव 'सलिल'

कौन किताबों से
सर मारे?...
*
बीत गया जो
उसको भूलो.
जीत गया जो
वह पग छूलो.

निज तहजीब
पुरानी छोडो.
नभ की ओर
धरा को मोड़ो.

जड़ को तज
जडमति पछता रे.
कौन किताबों से
सर मारे?...
*
दूरदर्शनी
एक फलसफा.
वही दिखा जो
खूब दे नफा.

भले-बुरे में
फर्क न बाकी.
देख रहे
माँ में भी साकी.

रूह बेचकर
टका कमा रे...
कौन किताबों से
सर मारे?...
*
बटन दबा
दुनिया हो हाज़िर.
अंतरजाल
बन गया नाज़िर.

हर इंसां
बन गया यंत्र है.
पैसा-पद से
तना तंत्र है.

निज ज़मीर बिन
बेच-भुना रे...
*

गुरुवार, 19 नवंबर 2009

नव गीत : चलो भूत से मिलकर आएँ... -संजीव 'सलिल'

नव गीत :

संजीव 'सलिल'

चलो भूत से
मिलकर आएँ...
*
कल से कल के
बीच आज है.
शीश चढा, पग
गिरा ताज है.
कल का गढ़
है आज खंडहर.
जड़ जीवन ज्यों
भूतों का घर.
हो चेतन
घुँघरू खनकाएँ.
चलो भूत से
मिलकर आएँ...
*
जनगण-हित से
बड़ा अहम् था.
पल में माटी
हुआ वहम था.
रहे न राजा,
नौकर-चाकर.
शेष न जादू
या जादूगर.
पत्थर छप रह
कथा सुनाएँ.
चलो भूत से
मिलकर आएँ...
*
जन-रंजन
जब साध्य नहीं था.
तन-रंजन
आराध्य यहीं था.
शासक-शासित में
यदि अंतर.
काल नाश का
पढता मंतर.
सबक भूत का
हम पढ़ पाएँ.
चलो भूत से
मिलकर आएँ...
*

तेवरी -संजीव 'सलिल'

: तेवरी :

संजीव 'सलिल'


दिल ने हरदम चाहे फूल.
पर दिमाग ने बोये शूल..

मेहनतकश को कहें गलत.
अफसर काम न करते भूल..

बहुत दोगली है दुनिया
तनिक न भाते इसे उसूल..

पैर मत पटक नाहक तू
सर जा बैठे उड़कर धूल..

बने तीन के तेरह कब?
डूबा दिया अपना धन मूल..

मँझधारों में विमल 'सलिल'
गंदा करते हम जा कूल..

धरती पर रख पैर जमा
'सलिल' न दिवास्वप्न में झूल..

****************

बुधवार, 18 नवंबर 2009

नवगीत: सूना-सूना घर का द्वार -संजीव 'सलिल'

नवगीत:

संजीव 'सलिल'

सूना-सूना
घर का द्वार,
मना रहे
कैसा त्यौहार?...
*
भौजाई के
बोल नहीं,
बजते ढोलक-
ढोल नहीं.
नहीं अल्पना-
रांगोली.
खाली रिश्तों
की झोली.
पूछ रहे:
हाऊ यू आर?
मना रहे
कैसा त्यौहार?...
*
माटी का
दीपक गुमसुम.
चौक न डाल
रहे हम-तुम.
सज्जा हेतु
विदेशी माल.
कुटिया है
बेबस-बेहाल.
श्रमजीवी
रोता बेज़ार.
मना रहे
कैसा त्यौहार?...
*
हल्लो!, हाय!!
मोबाइल ने,
दिया न हाथ-
गले मिलने.
नातों को
जीता छल ने .
लगी चाँदनी
चुप ढलने.
'सलिल' न प्रवाहित
नेह-बयार.मना रहे
कैसा त्यौहार?...
****************

शनिवार, 14 नवंबर 2009

नवगीत: संजीव 'सलिल'

नवगीत:

संजीव 'सलिल'

दवा ज़हर की
सिर्फ ज़हर है...
*
विश्वासों को
तजकर दुनिया
सीख-सिखाती तर्क.
भुला रही
असली नकली में
कैसा, क्या है फर्क?
अमृत सागर सुखा
पूछती कहाँ खो गयी
हर्ष-लहर है...
*
राष्ट्र भूलकर
महाराष्ट्र की
चिंता करता राज.
असल नहीं, अब
हमें असल से
ज्यादा प्यारा ब्याज.
प्रकृति पुत्र है,
प्रकृति का शोषक
ढाता रोज कहर है....
*
दुनिया पूज रही
हिंदी को.
हमें न तनिक सुहाती.
परदेशी भाषा
अन्ग्रेज़ी हमको
'सलिल' लुभाती.
लिखीं हजारों गजल
न लेकिन हमको
ज्ञात बहर है...
*****************

शुक्रवार, 13 नवंबर 2009

मेघदूत श्लोक ३१ से ३५

मेघदूत श्लोक ३१ से ३५

भावानुवादक ..प्रो सी बी श्रीवास्तव विदग्ध


प्राप्यावन्तीन उदयनकथाकोविदग्रामवृद्धान
पूर्वोद्दिष्टाम उपसर पुरीं श्रीविशालां विशालाम
स्वल्पीभूते सुचरितफले स्वर्गिणां गां गतानां
शेषैः पुण्यैर हृतम इव दिवः कान्तिमत खण्डम एकम॥१.३१॥

अवन्ती जहां वृद्धजन ग्राम वासी
कुशल हैं कथाकार उदयन कथा के
विशद पूर्व वर्णित पुरी , पूर्ण वैभव
परं रम्य विस्तीर्ण उज्जैन जा के
जिसे पुण्य के क्षीण होते स्वतः के
गये स्वर्गजन ने धरा पर उतारा
कि मानो बचे पुण्य को मोल देकर
लिया पा यहां स्वर्ग का खण्ड प्यारा


दीर्घीकुर्वन पटु मदकलं कूजितं सारसानां
प्रत्यूषेषु स्फुटितकमलामोदमैत्रीकषायः
यत्र स्त्रीणां हरति सुरतग्लानिम अङ्गानुकूलः
शिप्रावातः प्रियतम इव प्रार्थनाचाटुकारः॥१.३२॥

जहां सारसों का कलित नादवर्धक
सदा प्रात प्रमुदित कमल गंधवाही
कि शिप्रा समीरण सुखद, तरुणियों के
मिटाता सुरति खेद प्रिय सम सदा ही


हारांस तारांस तरलगुटिकान कोटिशः शङ्कशुक्तीः
शष्पश्यामान मरकतमणीन उन्मयूखप्ररोहान
दृष्ट्वा यस्यां विपणिरचितान विद्रुमाणां च भङ्गान
संलक्ष्यन्ते सलिलनिधयस तोयमात्रावशेषाः॥१.३३॥

जहां विपणि में हार अगणित अनेकों
सुखद शंख , सीपी , हरित मणि विनिर्मित
प्रभा पूर्ण मूंगों , तरल मोतियों से
भरेलख , जलधि भास होते प्रवंचित


प्रद्योतस्य प्रियदुहितरं वत्सराजो ऽत्र जह्रे
हैमं तालद्रुमवनम अभूद अत्र तस्यैव राज्ञः
अत्रोद्भ्रान्तः किल नलगिरिः स्तम्भम उत्पाट्य दर्पाद
इत्य आगन्तून रमयति जनो यत्र बन्धून अभिज्ञः॥१.३४॥

प्रद्योत की प्रिय सुता का , हरण
था यहां पर हुआ वत्स नरराज द्वारा
यहां ताल तरु का लगा बाग था
स्वर्ग निर्मित उसी भूप का , ख्यातिवाला
मदमस्त गजराज नलगिरि कभी
यहां भटका , यहां एक खम्भा उखाड़ा
आगत जनों को जहां विज्ञजन
यों सुनाते कथा , ले विगत का सहारा


जालोद्गीर्णैर उपचितवपुः केशसंस्कारधूपैर
बन्धुप्रीत्या भवनशिख्जिभिर दत्तनृत्योपहारः
हर्म्येष्व अस्याः कुसुमसुरभिष्व अधवखेदं नयेथा
लक्ष्मीं पश्यंल ललितवनितापादरागाङ्कितेषु॥१.३५॥

वहां सूर्य के अश्व सम नील हय हैं
जहां शैल सम उच्च गय मद प्रदर्शी
सुनिर्भीक रणवीर भट अग्रगामी
असिव्रण अलंकृत रुचिर रूपदर्शी

नवगीत: हिंद और/ हिंदी की जय हो... संजीव 'सलिल'

नवगीत:

संजीव 'सलिल'

हिंद और
हिंदी की जय हो...
*
जनगण-मन की
अभिलाषा है.
हिंदी भावी
जगभाषा है.
शत-शत रूप
देश में प्रचलित.
बोल हो रहा
जन-जन प्रमुदित.
ईर्ष्या, डाह, बैर
मत बोलो.
गर्व सहित
बोलो निर्भय हो.
हिंद और
हिंदी की जय हो...
*
ध्वनि विज्ञानं
समाहित इसमें.
जन-अनुभूति
प्रवाहित इसमें.
श्रुति-स्मृति की
गहे विरासत.
अलंकार, रस,
छंद, सुभाषित.
नेह-प्रेम का
अमृत घोलो.
शब्द-शक्तिमय
वाक् अजय हो.
हिंद और
हिंदी की जय हो...
*
शब्द-सम्पदा
तत्सम-तद्भव.
भाव-व्यंजना
अद्भुत-अभिनव.
कारक-कर्तामय
जनवाणी.
कर्म-क्रिया कर
हो कल्याणी.
जो भी बोलो
पहले तौलो.
जगवाणी बोलो
रसमय हो.
हिंद और
हिंदी की जय हो...
**************

गुरुवार, 12 नवंबर 2009

नवगीत: आचार्य संजीव 'सलिल'

नवगीत:

आचार्य संजीव 'सलिल'

बैठ मुंडेरे

कागा बोले

काँव, काँव का काँव.

लोकतंत्र की चौसर

शकुनी चलता

अपना दाँव.....
*
जनता

द्रुपद-सुता बेचारी.

कौरव-पांडव

खींचें साड़ी.

बिलख रही

कुररी की नाईं

कहीं न मिलता ठाँव...
*
उजड़ गए चौपाल

हुई है

सूनी अमराई.

पनघट सिसके

कहीं न दिखतीं

ननदी-भौजाई.

राजनीति ने

रिश्ते निगले

सूने गैला-गाँव...
*
दाना है तो

भूख नहीं है.

नहीं भूख को दाना.

नादाँ स्वामी,

सेवक दाना

सबल करे मनमाना.

सूरज

अन्धकार का कैदी

आसमान पर छाँव...
*
Read more...

मंगलवार, 10 नवंबर 2009

स्मृति गीत: संजीव 'सलिल'

स्मृति गीत: संजीव 'सलिल'


सृजन विरासत

तुमसे पाई...

*

अलस सवेरे

उठते ही तुम,

बिन आलस्य

काम में जुटतीं.

सिगडी, सनसी,

चिमटा, चमचा

चौके में

वाद्यों सी बजतीं.

देर हुई तो

हमें जगाने

टेर-टेर

आवाज़ लगाई.

सृजन विरासत

तुमसे पाई...

*

जेल निरीक्षण

कर आते थे,

नित सूरज

उगने के पहले.

तव पाबंदी,

श्रम, कर्मठता

से अपराधी

रहते दहले.

निज निर्मित

व्यक्तित्व, सफलता

पाकर तुमने

सहज पचाई.

सृजन विरासत

तुमसे पाई...

*

माँ!-पापा!

संकट के संबल

गए छोड़कर

हमें अकेला.

विधि-विधान ने

हाय! रख दिया

है झिंझोड़कर

विकट झमेला.

तुम बिन

हर त्यौहार अधूरा,

खुशी पराई.

सृजन विरासत

तुमसे पाई...

*

यह सूनापन

भी हमको

जीना ही होगा

गए मुसाफिर.

अमिय-गरल

समभावी हो

पीना ही होगा

कल की खातिर.

अब न

शीश पर छाँव,

धूप-बरखा मंडराई.

सृजन विरासत

तुमसे पाई...

*

वे क्षर थे,

पर अक्षर मूल्यों

को जीते थे.

हमने देखा.

कभी न पाया

ह्रदय-हाथ

पल भर रीते थे

युग ने लेखा.

सुधियों का

संबल दे

प्रति पल राह दिखाई..

सृजन विरासत

तुमसे पाई...


*

सोमवार, 9 नवंबर 2009

भ्रष्टाचार की जय हो !

अव्यंग
भ्रष्ट व्यवस्था के लाभ

विवेक रंजन श्रीवास्तव
ओ बी ११ , विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर ४८२००८
मो ००९४२५८०६२५२

भ्रष्टाचार की जय हो ! एक और घोटाला सफलता पूर्वक संपन्न हुआ . सरकार हिल गई . स्वयं प्रधानमंत्री को एक बार फिर से भ्रष्टाचार के विरुद्ध कठोर से कठोर कदम उठाने की घोषणायें दोहरानी पड़ी . एक और उच्चस्तरीय जांच कमेटी गठित की गई . सी बी आई के पास एक और फाइल बढ़ गई . भ्रष्टाचार यूं तो सारे विश्व में ही व्याप्त है , पर उन देशो में अधिक है जहां आबादी अधिक संसाधन कम , और भ्रष्टाचार के पनपने के मौके ज्यादा हैं , भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के सरकारी नियम कमजोर हैं . भारत के संदर्भ में बात करे तो मै समझता हूं कि हम सदा से किसी न किसी से डर कर ही सही काम करते रहे हैं चाहे राजा से , भगवान से , या स्वयं अपने आप से . पिछले सालो मे आजादी के बाद से हमारा समाज निरंकुश होता चला गया . हर कहीं प्रगति हुई , बस आचरण का पतन हुआ . नैतिक शिक्षा को स्कूल के पाठ्यक्रम में शामिल जरूर किया गया है पर जीवन से नैतिकता गायब होती जा रही है . धर्म निरपेक्षता के चलते धर्म का , दिखावे का सार्वजनिक स्वरूप तो बढ़ा पर धर्म के आचरण का व्यैक्तिक चरित्र पराभव का शिकार हुआ . यह बात लोगो के जहन में घर कर गई कि सरकारी मुलाजिमो को खरीदा जा सकता है , कम या अधिक कीमत में . हाल के , घोटाले ने भ्रष्टाचार की इस चर्चा को पुनः सामयिक , प्रासंगिक बना दिया है . अपने इस व्यंग लेख में मैं किसी घोटाले विशेष का नाम न लिखकर इसे जनरलाइज करते हुये व्यंग लिख रहा हूं , जिससे कैलेंडर की तारीखें मेरे व्यंग को पुराना न कर सकें . घोटालों का क्या है , औसतन महीने में दो की दर से उच्च स्तरीय ऐसे घोटाले होते ही रहते हैं , जो चैनलों के लिये सनसनी खेज होते हैं ,पत्र पत्रिकाओ के लिये स्कूप स्टोरी बन सकते हैं , जिनमें सरकारों को हिलाने का दम होता है , जो विरोधी पार्टी को नवजीवन और एकजुटता प्रदर्शित करने का मौका देते हैं . सो मेरा यह आलेख आर्काइव के रूप में संजोया जा सकता है , जिस संपादक को जब मन हो तब इसे प्रकाशित करे , यह सामयिक , तात्कालिक और प्रासंगिक रहेगा .

सरवाइवल आफ फिटेस्ट के सिद्धांत को ध्यान में रखे , तो हम सहज ही समझ सकते हैं कि तमाम कोशिशो के बावजूद भी जिस तरह से भ्रष्टाचार दिन दूनी रात चौगुनी गति से फल फूल रहा है , उसे देखते हुये मेरा मानना है कि अब समय आ गया है कि विशव गुरु भारत को भ्रष्टाचार के पक्ष में खुलकर सामने आ जाना चाहिये . हमें दुनियां को भ्रष्टाचार के लाभ बताना चाहिये .पारदर्शिता का समय है , विज्ञापन बालायें और फिल्मी नायिकायें पूर्ण पारदर्शी होती जा रही हैं . पारदर्शिता के ऐसे युग में भ्रष्टाचार को स्वीकारने में ही भलाई है .स्वयं हमारे प्रधानमंत्री जी स्वीकार कर चुके हैं कि दिल्ली से चला एक रुपया , गांवो में पहुंचते पहुंचते १५ पैसे में बदल जाता है ... भ्रष्टाचार करते हुये , सार्वजनिक रूप से भ्रष्टाचार की बुराई करने की दोहरी मानसिकता के साथ अब और जीना ठीक नही . जब भ्रष्टाचार के ढ़ेर सारे लाभ हैं तो फिर उन्हें गिने गिनायें और गर्व से यह कहें कि हाँ हम भ्रष्टाचारी हैं ,हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे . भ्रष्टाचार के अनंत लाभ हैं . बिना लम्बी लाइन में लगे हुये यदि घर बैठे आपका काम हो जाये तो इसमें बुरा क्या है ? अब जब ऐसा होगा तो इसके लिये कुछ सुविधा शुल्क भी आप चुकायेंगे . देने वाले राजी , लेने वाले राजी , पर आपकी इस सफलता व योग्यता को देखकर लाइन में लगे बेचारे आम आदमी इस सबको भ्रष्टाचार की संज्ञा दें , तो यह उनकी नादानी ही कही जानी चाहिये . स्कूल कालेज में एडमीशन का मसला हो , नौकरी का मामला हो , नियम कानून को पकड़कर बैठो तो बस परीक्षा और इंटरव्यू ही देते रहो . समय , पैसे सबकी बरबादी ही बरबादी होती है .बेहतर है सिफारिशी फोन करवायें , और पहले ही प्रयास में मन वांछित फल पायें . अब जब मन वांछित फल मिलेगा तो आप मूर्ख थोड़े ही हैं जो प्रसाद न चढ़ायेंगे ? इस प्रक्रिया को जो भ्रष्टाचार मानते हैं उन्हें नैतिकता का राग अलापने दें , ये समय से सामंजस्य न बैठा पाने वाले असफल लोग हैं . जो कुछ जितने में खरीदा जाना है वह तो उतने में ही आयेगा , अब यदि सप्लायर सदाशयी व्यवाहार के चलते आर्डर करने वाले अधिकारी और बिल पास करने वाले बाबू साहब को कुछ भेंट करे तो समझ से परे है कि यह भ्रष्टाचार कैसे हुआ . शिकायत कर्ता को उसका समाधान मिल जाये , उसके दुख , कष्ट दूर हो जायें और वह खुशी से वर्दी वालों को कुछ दे देवे तो भि भ्रष्टाचार के विरुद्ध मुहिम चलाने वालों के पेट में दर्द होने लगता है , अरे भैया ! दान , दक्षिणा , भेंट , बख्शीस , आदान प्रदान , का महत्व समझिये .
भ्रष्टाचार के लाभ ही लाभ हैं . परस्पर प्रेम बना रहता है , कामों में सुगमता होती है , निश्चिंतता रहती है . सब एक दूसरे की चिंता करते हैं . सद्भाव पनपता है . भ्रष्टाचार एक जीवन शैली है . इसे अपनाना समय की जरूरत है . इस व्यवस्था में आनंद ही आनंद है . एक बार इसका हिस्सा बनकर तो देखिये , आपकी रुकी हुई फाइल दौड़ पड़ेगी , कार्यालयों के व्यर्थ चक्कर लगाने से जो समय बचे उसे परमार्थ में लगाइये , कुछ भ्रष्टाचार कीजिये किसी का भला ही करेंगे आप इस तरह . गीता का ज्ञान गांठ बांध लीजीये , साथ क्या लाये थे ? साथ क्या ले जायेंगे , अरे कुछ व्यवहार बनाइये . मिल बांटकर खाइये खिलाइये .जियो और जीने दो . जितनी ईमानदारी भ्रष्टाचार की अलिखित व्यवस्था में है उतनी स्टेंप पेपर में नोटराइज्ड एग्रीमेंट्स में हो जाये तो अदालतो के चक्कर ही न लगाना पड़े लोगों को . भ्रष्ट व्यवस्था में कभी भी अविश्वास , संदेह , या गवाही जैसी बकवास चीजो की कोई जरुरत नही होती . यदि कभी कोई भ्रष्टाचारी विवशतावश किसी का कोई काम नहीं कर पाता तो , सामने वाला उसे सहज ही क्षमा करने का माद्दा रखता है , वह स्वयं भ्रष्टाचार कर अपने नुकसान को पूरा करने की हिम्मत रखता है , ऐसी उदारहृदय व्यवस्था ,मानवीयता की वाहक है , आइये भ्रष्टाचार का खुला समर्थन करें , भ्रष्टाचार अपनायें , भ्रष्ट व्यवस्था के अभिन्न अंग बने . जब हम सब हमाम में नंगे हैं ही तो फिर शर्म कैसी ?

गत्यात्मक ज्योतिष संगीता पुरी

गत्यात्मक ज्योतिष

संगीता पुरी

मंगल चंद्र की यह युति धनु राशिवालों के लिए खासी बुरी और कुंभ राशिवालों के लिए खासी अच्‍छी रहेगी !!

आज आसमान में मंगल और चंद्र की एक बहुत ही मजबूत स्थिति बन रही है , जिसका रात्रि साढे नौ बजे के आसपास उदय होगा और रातभर मंगल और चंद्र को आप एक साथ आकाश में चमकता देख सकते हैं। इसके कारण आज और कल का दिन युवाओं के लिए खासकर 24 वर्ष की उम्र से 36 वर्ष की उम्र तक के युवकों युवतियों के लिए बहुत ही निर्णायक होगा , इसलिए वे आज कल में किसी महत्‍वपूर्ण घटना से संयुक्‍त हो सकते हैं। वैसे इसका प्रभाव अभी आनेवाले छह महीने तक रहेगा। अधिकांश के लिए यह घटना सुखद हो सकती है , पर कुछ के लिए तो कष्‍टकर होगी ही। मई 2010 तक इस घटना के विशेष प्रभाव से उन्‍हें सुख या दुख की अनुभूति होती रहेगी। जहां सुखद प्रभाव महसूस करनेवाले युवक युवतियों को इसकी बधाई देना चाहूंगी , तो दुखद प्रभाव महसूस करनेवालों के लिए मेरे दिल में संवेदनाएं भी हैं। वे अपने धैर्य की परीक्षा देते रहें , आनेवाला कल उनका भी होगा। वैसे इसके बारे में कल ही हल्‍के फुल्‍के ढंग से बताया था , पर आज विस्‍तार से जानकारी प्राप्‍त करें।

वैसे तो पंचांग में मंगल और चंद्र की यह युति हर महीने आती है , क्‍यूंकि 28 दिन में ही चंद्रमा हर राशि की परिक्रमा करता है और किसी न किसी राशि में मंगल को होना ही है , इसलिए युति तो हर महीने होगी ही। पर हर महीने की युति को हम नहीं देख पाते , क्‍यूंकि सूर्य के साथ रहने के कारण वह पृथ्‍वी के हर भाग में वह दिन में ही उदय और अस्‍त हो जाता है। वैसे दिखाई न देने से हमपर प्रभाव भी न पडे , यह बात तो ग्रहों के संबंध में कहना तो उचित नहीं होगा। वास्‍तव में सूर्य से कोणिक दूरी के बढने के साथ ही साथ पृथ्‍वी से इसकी दूरी अपेक्षाकृत कम होने लगती है। यही कारण है कि इस समय नासा के वैज्ञानिक भी मंगल पर अपने यान भेजने या मंगल पर अन्‍य प्रकार के परीक्षण करने की शुरूआत करते हैं।

मंगल से संबंधित कई आलेखमैं पोस्‍ट कर चुकी , जिसमें मैने स्‍पष्‍टत: समझाया है कि पृथ्‍वी से अपेक्षाकृत कम दूरी बनते जाने से ही यह पृथ्‍वी पर अधिक प्रभावी होने लगता है। जैसा कि पिछले आलेखों में कह ही चुकी हूं , मंगल युवाओं को काफी हद तक प्रभावित करता है। इस कारण 7 और 8 नवम्‍बर 2010 को युवा वर्ग के किसी खास घटना से संबंधित होने की संभावना बढ जाती है। यहां ही नहीं आनेवाले कई महीनों में मंगल और चंद्र की इस तरह की युति का प्रभाव वे देख सकेंगे। जहां कुंभ राशिवालोंके लिए यह युति खासी अच्‍छी होगी , वहीं धनु राशिवालेइस युति के कारण कुछ परेशान भी रह सकते हैं।

युवाओं के अतिरिक्‍त अन्‍य लोगों पर भी इसका आंशिक प्रभाव पडेगा , मंगल की इस खास स्थिति के कारण आज के अलावे आनेवाले छह महीनों में सभी लोग मंगल से संबंधित मुद्दों को मजबूत बनाने की कोशिश में लगे रहेंगे। विभिन्‍न लग्‍नवाले भिन्‍न प्रकार के संदर्भों में विशेष ध्‍यान संकेन्‍द्रण करेंगे .......

जैसे मेष लग्‍नवाले स्‍वास्‍थ्‍य और जीवनशैली को , वृष लग्‍नवाले घर गृहस्‍थी और खर्च को , मिथुन लग्‍नवाले लाभ और प्रभाव को , कर्क लग्‍नवाले संतान और प्रतिष्‍ठा के वातावरण को , सिंह लग्‍नवाले किसी प्रकार की छोटी या बडी संपत्ति को प्राप्‍त करने को , कन्‍या लग्‍नवाले भाई बंधु से संबंधित वातावरण को , तुला लग्‍न वाले अपनी घर गृहस्‍थी और आर्थिक वातावरण को , वृश्चिक लग्‍नवाले स्‍वास्‍थ्‍य और प्रभाव को , धनु लग्‍नवाले अपनी संतान और बाह्य संदर्भों की स्थिति को , मकर लग्‍नवाले किसी प्रकार की संपत्ति के लाभ को , कुंभ लग्‍नवाले पारिवारिक और पद प्रतिष्‍ठा से संबंधित वातावरण को तथा मीन लग्‍नवाले अपनी आर्थिक स्थिति को मजबूत बनाने की कोशिश में जुटे रहेंगे , उनमें से अधिकांश को सफलता मिलेगी , पर कुछ को असफलता भी हाथ आ सकती है। असफलता हाथ आने का कारण उनकी जन्‍मकालीन ग्रह स्थिति होगी , तत्‍कालीन नहीं !!

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व्‍यंग्‍य: हवाई जहाज का आसमान में सब्जियों और दालों से गले मिलना

व्‍यंग्‍य:

हवाई जहाज का आसमान में सब्जियों और दालों से गले मिलना

- अविनाश वाचस्‍पति

हैरान मत होइये। आप नहीं, हवाई जहाज की बात कर रहा हूं उन्‍हीं से पूछ रहा हूं वे कह रहे हैं कि कल तक हमें गुमान था कि इतनी ऊंचाईयों पर सिर्फ हम ही उड़ते विचरते रहते हैं। काफी नीचे इससे पक्षी उड़ते हैं। पर आप भी इतनी ऊंचाई पर पहुंच जाओगे, हमें विश्‍वास नहीं हो रहा है। कभी किसी को कमजोर नहीं समझना चाहिए सब्जियों ने कहा। घूरे के दिन फिर जाते हैं फिर हम तो सब्जियां हैं। कॉमनमैन ने हमें कामन कर दिया था पर महंगाई ने हमारी लाज बचा ली है। कॉमन होने की जिल्‍लत से हमने छुट्टी पा ली है। देखो हम यहां पर अपनी पूरी आन बान और शान से मौजूद हैं।

दे दाल में पानी देकर हमारी मिट्टी इंसान ने खराब कर रखी थी पर जब दाल के ही लाले पड़ जायेंगे तो पानी में डूब कर मरने के सिवाय कॉमनमैन के सामने कोई और रास्‍ता नहीं बचा है। दालें गर्व से यह अहसास कर फूली नहीं समा रही थीं। दालें आसमान में चारों ओर छितराई हुई थीं और हवाई जहाज उनके बीच में से बच बचाकर उड़ने के लिए मजबूर था। पायलटों को नाकों चने चबाने पड़ रहे हैं। चने ही सस्‍ते हैं। दालें महंगी हैं इसलिए नाक से दाल चबाने की तो पायलट अब सोच भी नहीं सकते हैं। डूबने के लिए कॉमनमैन को पानी भी अब बिसलेरी ही चाहिए होता है, साधारण पानी के कीटाणुओं से मरेंगे तो नरक में भी जगह नहीं मिलेगी।

कद्दू, घिया, सीताफल अपनी उन्‍नति पर प्रसन्‍न नजर आ रहे थे। आलू भी अब इतनी आसानी से हाथ नहीं आते हैं और टमाटरों ने तो सबको लाल कर रखा है। सब्जियों का हरा रंग अब आंखों में हरियाली नहीं लाता है। सब्जियों को देखते ही आंखें मुंद जाती हैं। हाथ अकड़ जाते हैं। उनमें इतनी ताकत नहीं बचती कि जेब की तरफ बढ़ने की सोच सकें और जीभ तो उनकी कीमतें सुनकर ही तालू से ऐसी चिपकती है कि जैसे गरीबी कॉमनमैन से चिपकने के लिए अभिशप्‍त है। जैसे अमीरी नेताओं की जेब में रहती है। गाजर मूली भी अब मामूली सब्जियां नहीं रही हैं। वे भी आसमान में कुलांचें भर रही हैं। खूब खुश हैं। मूली डर से सफेद नहीं होती खरीदने वाला कॉमनमैन उनकी कीमत जानकर डर से सफेद हो जाता है और जब गाजर को खरीदने में असफल होता है तो शर्म से उसका मुंह लाल हो जाता है। सब्जियों के रंगों के अब निराले ढंग हैं।

सेब को आज अपने सेब होने पर शर्म आ रही थी वो शर्म से जमीन में गड़ने की बजाय आसमान में उड़ा जा रहा था। वो तो खैर पहले भी उड़ता रहा है पर उसकी ऊंचाई में कोई इजाफा नहीं हुआ है। । बाजी तो इस बार मारी है अमरूद ने। जी हां, अमरूद जिसने बिग बी के छाने से पहले इलाहाबाद का नाम मशहूर कर रखा है। वह अमरूद सेब के पास पास ही उड़ रहा था सेब जितना उससे दूर होने की कोशिश कर रहा था, अमरूद उसके गले पड़ रहा था। कहानी कुछ नहीं है, अमरूद के भाव 50 से 60 रुपये किलो हो रहे हैं और सेब अब 40 रूपये किलो में भी मिल रहा है। अब बतलायें सेब की इतनी फजीहत हो और शर्म से आसमान में न गड़ जाए तो क्‍या करे ? जमीन पर रहने वाला आलू तक महंगाई के बल पर आसमान में हवाई जहाज के आसपास ही चक्‍कर लगाता मिला तो सेब ने आंखें ही बंद कर लीं। जिस तरह बिल्‍ली को देखकर कबूतर आंखें बंद करता रहा है पर आलू महाशय वहीं मंडरा रहे हैं।

हवाई जहाज विचारमग्‍न है कि इन जमीनी सब्जियों के भी पंख महंगाई ने निकाले हैं अब कॉमनमैन वेल्‍थ गेम्‍स के नाम पर गरीबों के मुंह से छीन लिए निवाले हैं। पर ऐसों की भी कमी नहीं है जिन्होंने इन्‍हीं कार्यों को कराने के नाम पर खूब हिस्‍सेदारी बंटाई है। उसे स्‍मरण हो आती है अपनी दुर्दशा जब जमीन पर रेंगने दौड़ने वाली रेल उसे नीचे से सीटी बजा बजाकर चिढ़ाती रही है क्‍योंकि उसके किराये हवाई जहाज के किरायों से भी अधिक हो गए थे और आज भी ऐसा ही है पर क्‍या करे हवाई जहाज जब सेब कुछ नहीं कर पा रहा है। तीनों विवश हैं। आप पूछेंगे कि तीसरा कौन है, तो तीसरा तो आजाद भारत की राजधानी में रहने वाला कॉमनमैन है जिसकी वेल्‍थ के नाम पर उसे बीमार कर दिया गया है।
...
- अविनाश वाचस्‍पति, साहित्‍यकार सदन, पहली मंजिल, 195 सन्‍त नगर, नई दिल्‍ली 110065

मोबाइल 09868166586/09711537664

रविवार, 8 नवंबर 2009

नव गीत : संजीव 'सलिल'

नव गीत

संजीव 'सलिल'

शहनाई बज रही
शहर में मुखिया आये...

*

जन-गण को कर दूर
निकट नेता-अधिकारी.
इन्हें बनायें सूर
छिपाकर कमियाँ सारी.
सबकी कोशिश
करे मजूरी
भूखी सुखिया
फिर भी गाये.
शहनाई बज रही
शहर में मुखिया आये...

*

है सच का आभास
कर रहे वादे झूठे.
करते यही प्रयास
वोट जन गण से लूटें.
लोकतंत्र की
लख मजबूरी,
लोभतंत्र
दुखिया पछताये.
शहनाई बज रही
शहर में
मुखिया आये...

*

आये-गये अखबार रँगे,
रेला-रैली में.
शामिल थे बटमार
कर्म-चादर मैली में.
अंधे देखें,
बहरे सुन,
गूंगे बोलें,
हम चुप रह जाएँ.
शहनाई बज रही
शहर में
मुखिया आये...

*

बुधवार, 4 नवंबर 2009

लघुकथा एकलव्य आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

लघुकथा

एकलव्य

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

- 'नानाजी! एकलव्य महान धनुर्धर था?'

- 'हाँ; इसमें कोई संदेह नहीं है.'

- उसने व्यर्थ ही भोंकते कुत्तों का मुंह तीरों से बंद कर दिया था ?'

-हाँ बेटा.'

- दूरदर्शन और सभाओं में नेताओं और संतों के वाग्विलास से ऊबे पोते ने कहा - 'काश वह आज भी होता.'


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मंगलवार, 3 नवंबर 2009

दोहा सलिला: संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला


संजीव 'सलिल'


मन वृन्दावन में बसे, राधा-माधव नित्य.

श्वास-आस जग जानता, होती रास अनित्य..


प्यास रहे बाकी सदा, हास न बचता शेष.

तिनका-तिनका जोड़कर, जोड़ा नीड़ अशेष..


कौन किसी का है सगा?, और कौन है गैर?

'सलिल' मानते हैं सभी, अपनी-अपनी खैर..


आए हैं तो छोड़ दें, अपनी भी कुछ छाप.

समय पृष्ठ पर कर सकें, निज हस्ताक्षर आप..


धूप-छाँव सा शुभ-अशुभ, कभी न छोडे साथ.

जो दोनों को सह सके, जिए उठाकर माथ..


आत्म-दीप बालें 'सलिल', बन जाएँ विश्वात्म.

मानव बनने के लिए, आये खुद परमात्म..


सकल जगत से तिमिर हर, प्रसरित करें प्रकाश.

शब्द ब्रम्ह के उपासक, जीतें मन-आकाश..


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रविवार, 1 नवंबर 2009

नवगीत: भुज भर भेंटो...संजीव 'सलिल'

आज की रचना:

नवगीत

संजीव 'सलिल'

फेंक अबीरा,
गाओ कबीरा,
भुज भर भेंटो...

*

भूलो भी तहजीब
विवश हो मुस्काने की.
देख पराया दर्द,
छिपा मुँह हर्षाने की.

घिसे-पिटे
जुमलों का
माया-जाल समेटो.
फेंक अबीरा,
गाओ कबीरा,
भुज भर भेंटो...

*

फुला फेंफड़ा
अट्टहास से
गगन गुंजा दो.
बैर-परायेपन की
बंजर धरा कँपा दो.

निजता का
हर ताना-बाना
तोड़-लपेटो.
फेंक अबीरा,
गाओ कबीरा,
भुज भर भेंटो...

*

बैठ चौंतरे पर
गाओ कजरी
दे ताली.
कोई पडोसन भौजी हो,
कोई हो साली.

फूहड़ दूरदर्शनी रिश्ते
'सलिल' न फेंटो. .
फेंक अबीरा,
गाओ कबीरा,
भुज भर भेंटो...

*