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बुधवार, 31 जनवरी 2024

गीत, लोकतंत्र, छंद एकावली, छंद शशिवदना, रामशंकर वर्मा, समीक्षा, सॉनेट, साधना

सलिल सृजन ३१ जनवरी
*
सॉनेट
साधना
*
साध पले मन में सतत, साध सके तो साध।
करे साध्य की साधना, संसाधन संसाध्य।
जीव रहे पल पल निरत, हो संजीव अबाध।।
करें काम कर कामना, हो प्रसन्न आराध्य।।
श्वास श्वास घुल-मिल सके, आस-आस हो संग।
नयनों में हो निमंत्रण, अधरों पर हो हास।।
जीवन में बिखरें तभी, खुशहाली के रंग।।
लिए हाथ में हाथ हो, जब जब खासमखास।।
योग-भोग का समन्वय, सभी सुखों का मूल।
प्रकृति-पुरुष हों शिवा-शिव, रमा-रमेश सुजान।
धूप-छाँव में साथ रह, इक दूजे अनुकूल।।
रसमय हों रसलीन हों, हों रसनिधि रसखान।।
हाथ हाथ में हाथ ले, हाथ हाथ के साथ।
साथ निभाने चल पड़ा, रखकर ऊँचा माथ।।
३१-१-२०२२
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कृति चर्चा-
चार दिन फागुन के - नवगीत का बदलता रूप
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
[कृति विवरण- चार दिन फागुन के, रामशंकर वर्मा, गीत संग्रह, वर्ष २०१५, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी, सजिल्द, जैकेट सहित, पृष्ठ १५९, मूल्य ३००/-, उत्तरायण प्रकाशन, के ९७ आशियाना, लखनऊ २२६०१२, ९८३९८२५०६२, नवगीतकार संपर्क टी ३/२१ वाल्मी कॉलोनी, उतरेठिया लखनऊ २२६०२९, ९४१५७५४८९२ rsverma8362@gmail.com. ]
*
धूप-छाँव की तरह सुख-दुःख, मिलन-विरह जीवन-सिक्के के दो पहलू हैं। एक के बिना दूसरे का अस्तित्व नहीं। इस सनातन सत्य से युवा गीतकार रामशंकर वर्मा सुपरिचित हैं। विवेच्य गीत-नवगीत संग्रह छार दिन फागुन के उत्सवधर्मी भारतीय जनमानस से पंक्ति-पंक्ति में साक्षात करता चलता है। ग्राम्य अनुभूतियाँ, प्राकृतिक दृष्यावलियाँ, ऋतु परिवर्तन और जीवन के ऊँच-नीच को सम्भावेन स्वीकारते आदमी इन गीतों में रचा-बसा है। गीत को कल्पना प्रधान और नवगीत को यथार्थ प्रधान माननेवाले वरिष्ठ नवगीत-ग़ज़लकार मधुकर अष्ठाना के अनुसार ''जब वे (वर्मा जी) गीत लिखते हैं तो भाषा दूसरी तो नवगीत में भाषा उससे पृथक दृष्टिगोचर होती है।'' यहाँ सवाल यह उठता है कि गीत नवगीत का भेद कथ्यगत है, शिल्पगत है या भाषागत है? रामशंकर जी नवगीत की उद्भवकालीन मान्यताओं के बंधन को स्वीकार नहीं करते। वे गीत-नवगीत में द्वैत को नकारकर अद्वैत के पथ पर बढ़ते हैं। उनके किस गीत को गीत कहें, किसे नवगीत या एक गीत के किस भाग को गीत कहें किसे नवगीत यह विमर्श निरर्थक है।
गीति रचनाओं में कल्पना और यथार्थ की नीर-क्षीरवत संगुफित अभेद्य उपस्थिति अधिक होती है, केवल कल्पना या केवल यथार्थ की कम। कोई रचनाकार कथ्य को कहने के लिये किसी एक को अवांछनीय मानकर रचना करता भी नहीं है। रामशंकर जी की ये गीति रचनाएँ निर्गुण-सगुण, शाश्वतता-नश्वरता को लोकरंग में रंगकर साथ-साथ जीते चलते हैं। कुमार रविन्द्र जी ने ठीक हे आकलन किया है कि इन गीतों में व्यक्तिगत रोमांस और सामाजिक सरोकारों तथा चिंताओं से समान जुड़ाव उपस्थित हैं।
रामशंकर जी कल और आज को एक साथ लेकर अपनी बात कहते हैं-
तरु कदम्ब थे जहाँ / उगे हैं कंकरीट के जंगल
रॉकबैंड की धुन पर / गाते भक्त आरती मंगल
जींस-टॉप ने/ चटक घाघरा चोली / कर दी पैदल
दूध-दही को छोड़ गूजरी / बेचे कोला मिनरल
शाश्वत प्रेम पड़ा बंदीगृह / नए उच्छृंख्रल
सामयिक विसंगतियाँ उन्हें प्रेरित करती हैं-
दड़बे में क्यों गुमसुम बैठे / बाहर आओ
बाहर पुरवाई का लहरा / जिया जुड़ाओ
ठेस लगी तो माफ़ कीजिए / रंग महल को दड़बा कहना
यदि तौहीनी / इसके ढाँचे बुनियादों में
दफन आपके स्वर्णिम सपने / इस पर भी यह तुर्रा देखो
मैं अदना सा / करूँ शान में नुक्ताचीनी
रामशंकर जी का वैशिष्ट्य दृश्यों को तीक्ष्ण भंगिमा सहित शब्दित कर सकना है -
रेनकोटों / छतरियों बरसतियों की
देह में निकले हैं पंख / पार्कों चिड़ियाघरों से
हाईवे तक / बज उठे / रोमांस के शत शंख
आधुनिकाएँ व्यस्त / प्रेमालाप में
इसी शहरी बरसात का एक अन्य चित्रण देखें-
खिड़कियों से फ़्लैट की / दिखते बलाहक
हों कि जैसे सुरमई रुमाल
उड़ रहा उस पर / धवल जोड़ा बलॉक
यथा रवि वर्मा / उकेरें छवि कमाल
चंद बूँदें / अफसरों के दस्तखत सी
और इतने में खड़ंजे / झुग्गियाँ जाती हैं दूब
अभिनव बिंब, मौलिक प्रतीक और अनूठी कहन की त्रिवेणी बहाते रामशंकर आधुनिक हिंदी तथा देशज हिंदी में उर्दू-अंग्रेजी शब्दों की छौंक-बघार लगाकर पाठक को आनंदित कर देते हैं। अनुप्राणित, मूर्तिमंत, वसुमति, तृषावंत, विपणकशाला, दुर्दंश, केलि, कुसुमाकर, मन्वन्तर, स्पंदन, संसृति, मृदभांड, अहर्निश जैसे संस्कृतनिष्ठ शब्द, सगरी, महुअन, रुत, पछुआ, निगोड़ी, गैल, नदिया, मिरदंग, दादुर, घुघुरी देशज-ग्राम्य शब्द, रिश्ते, काश, खुशबू, रफ़्तार, आमद, कसीदे, बेख़ौफ़, बेफ़िक्र, मासूम, सरीखा, नूर, मंज़िल, हुक्म, मशकें आदि उर्दू शब्द तथा फ्रॉक, पिरामिड, सेक्शन, ड्यूटी, फ़ाइल, नोटिंग, फ़्लैट, ट्रेन, रेनी डे, डायरी, ट्यूशन, पिकनिक, एक्सरे, जींस-टॉप आदि अंग्रेजी शब्दों का बेहिचक प्रयोग करते हैं वर्मा जी।
इस संकलन में शब्द युग्मों क पर्याप्त प्रयोग हुआ है। जैसे- तीर-कमान, क्षत-विक्षत, लस्त-पस्त, राहु-केतु, धीर-वीर, सुख-दुःख, खुसुर-फुसुर, घाघरा-चोली, भूल-चूक, लेनी-देनी, रस-रंग, फाग-राग, टोंका-टाकी, यत्र-तत्र-सर्वत्र आदि। कुछ मुद्रण त्रुटियाँ समय का नदिया, हंसी-ठिठोली, आंच नहीं मद्विम हो, निर्वान है हिंदी, दसानन, निसाचर, अमाँ-निशा आदि खटकती हैं। फूटते लड्डू, मिट्टी के माधो, बैठा मार कुल्हाड़ी पैरों, अब पछताये क्या होता है? आदि के प्रयोग से सरसता में वृद्धि हुई है। रात खिले जब रजनीगंधा, खुशबू में चाँदनी नहाई, सदा अनंदु रहैं यहै ट्वाला, कुसमय के शिला प्रहार, तन्वंगी दूर्वा, संदली साँसों, काल मदारी मरकत नर्तन जैसी अभिव्यक्तियाँ रामशंकर जी की भाषिक सामर्थ्य और संवेदनशील अभिव्यक्ति क्षमता की परिचायक हैं। इस प्रथम कृति में ही कृतिकार परिपक्व रचना सामर्थ्य प्रस्तुत कर सका है कृतियों उत्सुकता जगाता है।
३१.१.२०१६
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छंद सलिला:
शशिवदना छंद
*
यह दस मात्रिक छंद है.
उदाहरण:
१. शशिवदना चपला
कमलाक्षी अचला
मृगनयनी मुखरा
मीनाक्षी मृदुला
२. कर्मदा वर्मदा धर्मदा नर्मदा
शर्मदा मर्मदा हर्म्यदा नर्मदा
शक्तिदा भक्तिदा मुक्तिदा नर्मदा
गीतदा प्रीतदा मीतदा नर्मदा
३. गुनगुनाना सदा
मुस्कुराना सदा
झिलमिलाना सदा
खिलखिलाना सदा
गीत गाना सदा
प्रीत पाना सदा
मुश्किलों को 'सलिल'
जीत जाना सदा
***
एकावली छंद
*
दस मात्रिक एकावली छंद के हर चरण में ५-५ मात्राओं पर यति होती है.
उदाहरण :
१. नहीं सर झुकाना, नहीं पथ भुलाना
गिरे को उठाना, गले से लगाना
न तन को सजाना, न मन को भुलाना
न खुद को लुभाना, न धन ही जुटाना
२. हरि भजन कीजिए, नित नमन कीजिए
निज वतन पूजिए, फ़र्ज़ मत भूलिए
मरुथली भूमियों को, चमन कीजिए
भाव से भीगिए, भक्ति पर रीझिए
३. कर प्रीत, गढ़ रीत / लें जीत मन मीत
नव गीत नव नीत, मन हार मन जीत
***
३१.१.२०१४
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गीत  
जनगण के मन में
*
जनगण के मन में जल पाया,
नहीं आस का दीपक। 
कैसे हम स्वाधीन देश जब
लगता हमको क्षेपक?

हम में से
हर एक मानता
निज हित सबसे पहले.
नहीं देश-हित कभी साधता
कोई कुछ भी कह ले। 

कुछ घंटों 'मेरे देश की धरती'
फिर हो 'छैंया-छैंया'
वन काटे, पर्वत खोदे,
भारत माँ घायल भैया। 

किसको चिंता? यहाँ देश की?
सबको है निज हित की। 
सत्ता पा- निज मूर्ति लगाकर,
भारत की दुर्गति की। 

श्रद्धा, आस्था, निष्ठा बेचो
स्वार्थ साध लो अपना। 
जाये भाड़ में किसको चिंता
नेताजी का सपना। 

कौन हुआ आजाद?
भगत है कौन देश का बोलो?
झंडा फहराने के पहले
निज मन जरा टटोलो। 

तंत्र न जन का
तो कैसा जनतंत्र तनिक समझाओ?
प्रजा उपेक्षित प्रजातंत्र में
क्यों कारण बतलाओ?

लोक तंत्र में लोक मौन क्यों?
नेता क्यों वाचाल?
गण की चिंता तंत्र न करता
जनमत है लाचार। 

गए विदेशी, आये स्वदेशी,
शासक मद में चूर। 
सिर्फ मुनाफाखोरी करता
व्यापारी भरपूर। 

न्याय बेचते जज-वकील मिल
शोषित- अब भी शोषित
दुर्योधनी प्रशासन में हो
सत्य किस तरह पोषित?

आज विचारें
कैसे देश हमारा साध्य बनेगा?
स्वार्थ नहीं सर्वार्थ
हमें हरदम आराध्य रहेगा.
२४ जनवरी २०११
***

मंगलवार, 19 सितंबर 2023

हिंदी, साधना, नवगीत, बाल गीत, निशा तिवारी, आचार्य धर्मेंद्र,


महाप्रस्थान : आचार्य धर्मेंद्र

विश्व हिन्दू परिषद के केंद्रीय मार्गदर्शक मंडल में शामिल रहे, राम मंदिर आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभानेवाले हिंदू नेता व संत आचार्य धर्मेंद्र का आज निधन हो गया है। उन्होंने जयपुर के एसएमएस हॉस्पिटल के आईसीयू में इलाज के दौरान अंतिम सांस ली। गौरतलब है कि बीते एक माह से खराब स्वास्थ्य के कारण जयपुर के इस अस्पताल में उनका इलाज चल रहा था। आचार्य धर्मंद्र आंत की बीमारी से पीड़ित थे।
श्रीपंचखण्ड पीठाधीश्वर आचार्य स्वामी धर्मेंद्र महाराज सनातन धर्म के अद्वितीय व्याख्याकार, प्रखर वक्ता और ओजस्वी वाणी के रामानंदी संत थे। हुतात्मा रामचन्द्र शर्मा 'वीर' महाराज के पुत्र आचार्य धर्मेंद्र ने राम मंदिर आंदोलन में भी सक्रिय भूमिका निभाई थी। आचार्य के पिता महात्मा रामचन्द्र वीर ने लगातार अनशन करके स्वयं को नरकंकाल जैसा बनाकर अनशनों के सारे कीर्तिमान ध्वस्त कर दिए। उन्होंने शपथ ली थी की जब तक लाहौर से ढाका तक अखंड हिन्दू राष्ट्र स्थापित नहीं होगा वे अन्न और लवण (नमक) का सेवन नहीं करेंगे और इस शपथ का आजीवन पालन किया। हिन्दू मंदिरों में गौ हत्या और पशुबलि बंद करने के लिए महात्मा वीर ने पूरे भारत में अनशन किए। वे पशुओं के स्थान पर खुद को बलि हेतु प्रस्तुत कर कहते थे कि माँ (काली) यदि संतान की बलि से प्रसन्न होती है तो पशु क्यों मेंरी बलि दो। आचार्य धर्मेंद्र अपने पिता के साथ बचपन से ऐसे आंदोलनों का हिस्सा रहे। आचार्य धर्मेंद्र ने अपनी कैशोर्यावस्था में ही वज्रांग वंदना और गौशाला जैसी उत्कृष्ट कृतियों की रचना की थी। १९५८-५९ में मेरे पिताश्री राजबहादुर वर्मा जी छिंदवाड़ा में जेलर थे। तब हुतात्मा स्वामी रामचंद्र शर्मा 'वीर' ने गौ हत्या के विरुद्ध अनशन किया था और उन्हें गिरफ्तार कर जेल में रखा गया था। उनके साथ किशोर धर्मेंद्र भी थे। स्वामी जी नैष्ठिक और दृश्य संकल्पित संत थे। उनका आहार आदि पूरी तरह सात्विक था। जेल में उन्हें पूजन सामग्री और आहार सुलभ करने का पिताश्री पूरी तरह ध्यान रखते थे। कभी-कभी घर से भी भिजवा दिया करते थे। स्वामी जी ने उन्हें अपनी पुस्तकें विकट यात्रा, विजय पताका, हिन्दू नारी तथा धर्मेंद्र जी रचित गोशाला भेंट की थी, जो मेरे पास अब तक सुरक्षित है। वज्रांग वंदना कहीं खो गई।
आचार्य धर्मेन्द्र का पहली धर्म संसद अप्रैल १९८४ में विश्व हिन्दू परिषद् की ओर से धर्म संसद में राम जन्मभूमि के द्वार से ताला खुलवाने के लिए जनजागरण यात्राएँ करने का प्रस्ताव पारित करने और राम जानकी रथ यात्रा और विश्व हिन्दू परिषद की ओर से अक्तूबर १९८४ में जनजागरण के लिए की गई सीतामढ़ी से दिल्ली तक राम जानकी रथ यात्रा में अहम योगदान रहा। आचार्य धर्मेंद्र ने जयपुर के तीर्थ विराट नगर के पार्श्व पवित्र वाणगंगा के तट पर मैड गाँव में अपना जीवन व्यतीत किया। गृहस्थ होते हुए भी उन्हें साधु-संतों के समान आदर और सम्मान प्राप्त था।
जगद्गुरु शंकराचार्य निरंजनदेव तीर्थ ने ७२ दिन,संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी ने ६५ दिन आचार्य धर्मेन्द्र ने ५२ दिन और जैन मुनि सुशील कुमार ने ४ दिन अनशन किया। आन्दोलन में पहली महिला सत्याग्रह का नेतृत्व प्रतिभा धर्मेन्द्र ने किया और अपने तीन शिशुओ के साथ जेल गई। साथ ही विश्व हिंदू परिषद से लंबे समय तक जुड़े रहने के दौरान चर्चा में रहे थे। वे राममंदिर मुद्दे पर बड़ी ही बेबाकी से बोलते थे। बाबरी विध्वंस मामले में जब फैसला आने वाला था तब आचार्य धर्मेंद्र ने कहा था कि मैं आरोपी नंबर वन हूं। सजा से डरना क्या? जो किया सबके सामने किया। आचार्य का जन्म ९ जनवरी १९४२ को गुजरात के मालवाडा में हुआ। बाबरी विध्वंस मामले में लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, कल्याण सिंह, उमा भारती सहित आचार्य धर्मेंद्र को भी आरोपी माना गया था।
आचार्य धर्मेंद्र के परिवार में दो पुत्र सोमेन्द्र शर्मा और प्रणवेन्द्र शर्मा है। सोमेन्द्र की पत्नी और आचार्य की पुत्रवधू अर्चना शर्मा वर्तमान में गहलोत सरकार में समाज कल्याण बोर्ड की अध्यक्ष हैं। राजस्थान के विराटनगर में उनका मठ और पावनधाम आश्रम है, जहां उनका विधी-विधान पूर्वक उनके शिष्यों और अनुयायियों के बीच अंतिम संस्कार किया जाएगा।
बाल गीत
पानी दो, अब पानी दो
मौला धरती धानी दो, पानी दो...
*
तप-तप धरती सूख गयी
बहा पसीना, भूख गई.
बहुत सयानी है दुनिया
प्रभु! थोड़ी नादानी दो, पानी दो...
*
टप-टप-टप बूँदें बरसें
छप-छपाक-छप मन हरषे
टर्र-टर्र बोले दादुर
मेघा-बिजुरी दानी दो, पानी दो...
*
रोको कारें, आ नीचे
नहा-नाच हम-तुम भीगे
ता-ता-थैया खेलेंगे
सखी एक भूटानी दो, पानी दो...
*
सड़कों पर बहता पानी
याद आ रही क्या नानी?
जहाँ-तहाँ लुक-छिपते क्यों?
कर थोड़ी मनमानी लो, पानी दो... *
छलकी बादल की गागर
नचे झाड़ ज्यों नटनागर
हर पत्ती गोपी-ग्वालन
करें रास रसखानी दो, पानी दो...
१९-९-२०१७ *
***
पुस्तक चर्चा -
वर्तमान युग का नया चेहरा: 'काल है संक्रांति का'
समीक्षक: डॉ. निशा तिवारी
*
[पुस्तक विवरण- काल है संक्रांति का, गीत-नवगीत संग्रह, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', वर्ष २०१६, आवरण बहुरँगी, आकार डिमाई, पृष्ठ १२८, मूल्य सजिल्द ३००/-, पेपरबैक २००/-, समन्वय प्रकाशन, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, ०७६१२४१११३१, गीतकार संपर्क- ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com
*
'काल है संक्रांति का' संजीव वर्मा 'सलिल' का २०१६ में प्रकाशित नवीन काव्य संग्रह है। वे पेशे से अभियंता रहे हैं। किन्तु उनकी सर्जक प्रतिभा उर्वर रही है। सर्जना कभी किसी अनुशासन में आबद्ध नहीं रह सकती। सर्जक की अंत:प्रज्ञा (भारतीय काव्य शास्त्र में 'प्रतिभा' काव्य शास्त्र हेतु), संवेदनशीलता, भावाकुलता और कल्पना किसी विशिष्ट अनुशासन में बद्ध न होकर उन्मुक्त उड़ान भरती हुई कविता में निःसृत होती है। यही 'सलिल जी' की सर्जन-धर्मिता है। यद्यपि उनके मूल अनुशासन का प्रतिबिम्ब भी कहीं-कहीं झलककर कविता को एक नया ही रूप प्रदान करता है। भौतिकी की 'नैनो-पीको' सिद्धांतिकी जिस सूक्ष्मता से समूह-क्रिया को संपादित करती है, वह सलिल जी के गीतों में दिखाई देती है। उत्तर आधुनिक वैचारिकी के अन्तर्गत जिस झंडी-खण्ड चेतना का रूपायन सम-सामयिक साहित्य में हो रहा है वही चिन्तना सलिल जी के गीतों में सांस्कृतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनीतिक, साहित्यिक विसंगतियों के रूप में ढलकर आई है- रचनाकार की दृष्टि में यही संक्रांति का काल है। संप्रति नवलेखन में 'काल' नहीं वरन 'स्पेस' को प्रमुखता मिली है।
शब्दों की परंपरा अथवा उसके इतिहास के बदले व्यंजकों के स्थगन की परिपाटी चल पड़ी है। सलिल जी भी कतिपय गीतों में पुराने व्यंजकों को विखण्डित कर नए व्यंजकों की तलाश करते हैं। उनका सबसे प्रिय 'व्यंजक' सूर्य है। उनहोंने सूर्य के 'आलोक' के परंपरागत अर्थ 'जागरण' को ग्रहण करते हुए भी उसे नए व्यंजक का रूप प्रदान किया है। 'उठो सूरज' गीत में उसे साँझ के लौटने के संदर्भ में 'झुको सूरज! विदा देकर / हम करें स्वागत तुम्हारा' तथा 'हँसों सूर्य भाता है / खेकर अच्छे दिन', 'आओ भी सूरज! / छँट गए हैं फुट के बदल / पतंगें एकता की मिल उड़ाओ। / गाओ भी सूरज!', 'सूरज बबुआ! / चल स्कूल। ', 'हनु हुआ घायल मगर / वरदान तुमने दिए सूरज!', 'खों-खों करते / बादल बब्बा / तापें सूरज सिगड़ी' इत्यादि व्यंजक सूरज को नव्यता प्रदान करते हैं, यद्यपि कवि का परंपरागत मन सूरज को 'तिमिर-विनाशक' के रूप में ही ग्रहण करता है।
कवि का परंपरागत मन अपने गीतों में शास्त्रीय लक्षण ग्रन्थों के मंगलाचरण के अभियोजन को भी विस्मृत नहीं कर पाता। मंगलाचरण के रूप में वह सर्वप्रथम हिंदी जाति की उपजाति 'कायसिहों' के आराध्य 'चित्रगुप्त जी' की वंदना करता है। यों भी चित्रगुप्त जी मनुष्य जाति के कर्मों का लेखा-जोखा रखनेवाले देवता हैं। ऐसा माना जाता है कि उत्तर आधुनिक युग में धर्मनिरपेक्षता का तत्व प्रबल है- कवि की इस वन्दना में चित्रगुप्त जी को शिव, ब्रम्हा, कृष्ण, पैग़ंबर, ईसा, गुरु नानक इत्यादि विभिन्न धर्मों के ईश्वर का रूप देकर सर्वधर्म समभाव का परिचय दिया गया है। चित्रगुप्त जी की वन्दना में भी कवि का प्रिय व्यंजक सूर्य उभरकर आया है - 'तिमिर मिटाने / अरुणागत हम / द्वार तिहरे आए।'
कला-साहित्य की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती की अभ्यर्थना में कवि ने एक नवीन व्यंजना करते हुए ज्ञान-विज्ञान-संगीत के अतिरिक्त काव्यशास्त्र के समस्त उपादानों की याचना की है और सरस्वती माँ की कृपा प्राप्त प्राप्त करने हेतु एक नए और प्रासंगिक व्यंजक की कल्पना की है- 'हिंदी हो भावी जगवाणी / जय-जय वीणापाणी।' विश्वभाषा के रूप में हिंदी भाषा की यह कल्पना हिंदी भाषा के प्रति अपूर्व सम्मान की द्योतक है।
हिन्दू धर्म में प्रत्येक मांगलिक कार्य के पूर्व अपने पुरखों का आशिर्वाद लिया जाता है। पितृ पक्ष में तो पितरों के तर्पण द्वारा उनके प्रति श्रद्धा प्रगट की जाती है। गीत-सृजन को अत्यंत शुभ एवं मांगलिक कर्म मानते हुए कवि ने पुरखों के प्रति यही श्रद्धा व्यक्त की है। इस श्रद्धा भाव में भी एक नवीन संयोजन है- 'गीत, अगीत, प्रगीत न जानें / अशुभ भुला, शुभ को पहचानें / मिटा दूरियाँ, गले लगाना / नव रचनाकारों को ठानें कलश नहीं, आधार बन सकें / भू हो हिंदी-धाम। / सुमिर लें पुरखों को हम / आओ! करें प्रणाम।' कवि अपनी सीमाओं को पहचानता है, सर्जना का दंभ उसमें नहीं है और न ही कोई दैन्य है। वह तो पुरखों का आशीर्वाद प्राप्त कर केवल हिंदी को विश्व भाषा बनाने का स्वप्न पूरा करना चाहता है। यदि चित्रगुप्त भगवान की, देवी सरस्वती की और पुरखों की कृपा रही तो हिंदी राष्ट्रभाषा तो क्या, विश्व भाषा बनकर रहेगी। सलिल जी के निज भाषा-प्रेम उनके मंगलाचरण अथवा अभ्यर्थना का चरम परिपाक है।
उनकी समर्पण कविता इस दृष्टि से उल्लेखनीय है कि उनहोंने उसमें रक्षाबन्धन पर्व की एक सामान्यीकृत अभिव्यंजना की है। बहिनों के प्रत्येक नाम संज्ञा से विशेषण में परिवर्तित हो गए हैं और रक्षासूत्र बाँधने की प्रत्येक प्रक्रिया, आशाओं का मधुवन बन गयी है। मनुष्य और प्रकृति का यह एकीकरण पर्यावरणीय सौंदर्य को इंगित करता है। 'उठो पाखी' कविता में भी राखी बाँधने की प्रक्रिया प्रकृति से तदाकार हो गयी है।
कविता मात्र वैयक्तिक भावोद्गार नहीं है, उसका सामाजिक सरोकार भी होता है। कभी-कभी कवि की चेतना सामाजिक विसंगति से पीड़ित और क्षुब्ध होकर सामाजिक हस्तक्षेपभी करती है। श्री कान्त वर्मा ने आलोचना को 'सामाजिक हस्तक्षेप' कहा है। मेरी दृष्टि में कविता भी यदा-कदा सामाजिक हस्तक्षेप हुआ करती है। प्रतिबद्ध कवि में तो यह हस्तक्षेप निरन्तर बना रहता है। कवि सलिल ने राजनैतिक गुटबाजी, नेताओं अफसरों की अर्थ-लोलुपता, पेशावर के न्र पिशाचों की दहशतगर्दी, आतंकवाद का घिनौना कृत्य, पाक की नापाकी, लोकतंत्र का स्वार्थतंत्र में परिवर्तन, अत्याचार और अनाचार के प्रति जनता का मौन,नेताओं की गैर जिम्मेदारी, स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भी राजनीतिक कुतंत्र में वास्तविक आज़ादी प्राप्त न कर पाना इत्यादि कुचक्रों पर गीत लिखकर अपनी कृति को 'काल है संक्रांति का' नाम दिया है। वास्तव में देश की ये विसंगतियाँ संक्रमण को सार्थक बनाती हैं किन्तु उनके गीत 'संक्रांति काल है' -में संक्रांति का संकेत भर है तथा उससे निबटने के लिए कवी ने प्रेरित भी किया है। यों भी छोटे से गीत के लघु कलेवर में विसंगति के विस्तार को वाणी नहीं दी जा सकती। कवि तो विशालता में से एक चरम और मार्मिक क्षण को ही चुनता है। सलिल ने भी इस कविता में एक प्रभावी क्षण को चुना है। वह क्षण प्रभावोत्पादक है या नहीं, उसकी चिंता वे नहीं करते। वे प्रतिबद्ध कवु न होकर भी एक सजग औए सचेत कवि हैं।
सलिल जी ने काव्य की अपनी इस विधा को गीत-नवगीत कहा है। एक समय निराला ने छंदात्मक रचना के प्रति विद्रोह करते हुए मुक्त छंद की वकालत की थी लेकिन उनका मुक्त छंद लय और प्रवाह से एक मनोरम गीत-सृष्टि करता था। संप्रति कविताएँ मुक्त छंद में लिखी जा रही हैं किन्तु उनमें वह लयात्मकता नहीं है जो जो उसे संगीतात्मक बना सके। ऐसी कवितायेँ बमुश्किल कण्ठस्थ होती हैं। सलिल जी ने वर्तमान लीक से हटकर छंदात्मक गीत लिखे हैं तथा सुविधा के लिए टीप में उन छंदों के नाम भी बताए हैं। यह टीप रचनाकार की दृष्टि से भले ही औचित्यपूर्ण न हो किन्तु पाठक-समीक्षक के लिए सुगम अवश्य है। 'हरिगीतिका' उनका प्रिय छंद है।
सलिल जी ने कतिपय अभिनव प्रयोग भी किये हैं। कुछ गीत उनहोंने बुन्देली भाषा में लिखे हैं। जैसे- 'जब लौं आग' (ईसुरी की चौकड़िया फाग की तर्ज पर), मिलती कांय नें (ईसुरी की चौकड़िया फाग पर आधारित) इत्यादि तथा पंजाबी एवं सोहर लोकगीत की तर्ज पर गीत लिखकर नवीन प्रयोग किये हैं।
कवि संक्रांति-काल से भयभीत नहीं है। वह नया इतिहास लिखना चाहता है- 'कठिनाई में / संकल्पों का / नव है लिखें हम / आज नया इतिहास लिखें हम।'' साथ ही संघर्षों से घबराकर वह पलायन नहीं करता वरन संघर्ष के लिए प्रेरित करता है- 'पेशावर में जब एक विद्यालय के विद्यार्थियों को आतंकवादियों ने गोलियों से भून दिया था तो उसकी मर्मान्तक पीड़ा कवि को अंतस तक मठ गई थी किंतु इस पीड़ा से कवि जड़ीभूत नहीं हुआ। उसमें एक अद्भुत शक्ति जाग्रत हुई और कवि हुंकार उठा-
आसमां गर स्याह है
तो क्या हुआ?
हवा बनकर मैं बहूँगा।
दहशतों के
बादलों को उदा दूँगा।
मैं बनूँगा सूर्य
तुम रण हार रोओ
वक़्त लिक्खेगा कहानी
फाड़ पत्थर मैं उगूँगा।
मैं लिखूँगा।
मैं लड़ूँगा।।
*
संपर्क समीक्षा: डॉ. निशा तिवारी, ६५० नेपियर टाउन, भंवरताल पानी की टँकी के सामने, जबलपुर ४८२००१
चलभाष; ९४२५३८६२३४, दूरलेख: pawanknisha@gmail.com
***
नव गीत
बम भोले! मत बोलो भाई
मत कहना जय राम जी!!
*
लोकतंत्र का अजब तकाज़ा
दुनिया देखे ठठा तमाशा
अपना हाथ
गाल भी अपना
जमकर मारें खुदी तमाचा
आज़ादी कुछ भी कहने की?
हुए विधाता वाम जी!
बम भोले! मत बोलो भाई
मत कहना जय राम जी!!
*
जन का निर्णय पचा न पाते
संसद में बैठे गुर्राते
न्यायालय का
कहा न मानें
झूठे, प्रगतिशील कहलाते
'ख़ास' बुद्धिजीवी पथ भूले
इन्हें न कहना 'आम' जी
बम भोले! मत बोलो भाई
मत कहना जय राम जी!!
*
कहाँ मानते हैं बातों से
कहो, देवता जो लातों के?
जैसे प्रभु
वैसी हो पूजा
उत्तर दो सब आघातों के
अवसर एक न पाएं वे
जो करें देश बदनाम जी
बम भोले! मत बोलो भाई
मत कहना जय राम जी!!
***
गीत -
हम
*
हम वही हैं,
यह न भूलो
झट उठो आकाश छू लो।
बता दो सारे जगत को
यह न भूलो
हम वही है।
*
हमारे दिल में पली थी
सरफरोशी की तमन्ना।
हमारी गर्दन कटी थी
किंतु
किंचित भी झुकी ना।
काँपते थे शत्रु सुनकर
नाम जिनका
हम वही हैं।
कारगिल देता गवाही
मर अमर
होते हमीं हैं।
*
इंकलाबों की करी जयकार
हमने फेंककर बम।
झूल फाँसी पर गये
लेकिन
न झुकने दिया परचम।
नाम कह 'आज़ाद', कोड़े
खाये हँसकर
हर कहीं हैं।
नहीं धरती मात्र
देवोपरि हमें
मातामही हैं।
*
पैर में बंदूक बाँधे,
डाल घूँघट चल पड़ी जो।
भवानी साकार दुर्गा
भगत के
के संग थी खड़ी वो।
विश्व में ऐसी मिसालें
सत्य कहता हूँ
नहीं हैं।
ज़िन्दगी थीं या मशालें
अँधेरा पीती रही
रही हैं।
*
'नहीं दूँगी कभी झाँसी'
सुनो, मैंने ही कहा था।
लहू मेरा
शिवा, राणा, हेमू की
रग में बहा था।
पराजित कर हूण-शक को
मर, जनम लेते
यहीं हैं।
युद्ध करते, बुद्ध बनते
हमीं विक्रम, 'जिन'
हमीं हैं।
*
विश्व मित्र, वशिष्ठ, कुंभज
लोपामुद्रा, कैकयी, मय ।
ऋषभ, वानर, शेष, तक्षक
गार्गी-मैत्रेयी
निर्भय?
नाग पिंगल, पतंजलि,
नारद, चरक, सुश्रुत
हमीं हैं।
ओढ़ चादर रखी ज्यों की त्यों
अमल हमने
तही हैं।
*
देवव्रत, कौंतेय, राघव
परशु, शंकर अगम लाघव।
शक्ति पूजित, शक्ति पूजी
सिय-सती बन
जय किया भव।
शून्य से गुंजित हुए स्वर
जो सनातन
हम सभी हैं।
नाद अनहद हम पुरातन
लय-धुनें हम
नित नयी हैं।
*
हमीं भगवा, हम तिरंगा
जगत-जीवन रंग-बिरंगा।
द्वैत भी, अद्वैत भी हम
हमीं सागर,
शिखर, गंगा।
ध्यान-धारी, धर्म-धर्ता
कम-कर्ता
हम गुणी हैं।
वृत्ति सत-रज-तम न बाहर
कहीं खोजो,
त्रय हमीं हैं।
*
भूलकर मत हमें घेरो
काल को नाहक न टेरो।
अपावन आक्रांताओं
कदम पीछे
हटा फेरो।
बर्फ पर जब-जब
लहू की धार
सरहद पर बही हैं।
कहानी तब शौर्य की
अगणित, समय ने
खुद कहीं हैं।
*
हम वही हैं,
यह न भूलो
झट उठो आकाश छू लो।
बता दो सारे जगत को
यह न भूलो
हम वही है।
*
जय हिंद
जय भारत
वन्दे मातरम्
भारत माता की जय
१९-९-२०१६
***
डॉ. साधना वर्मा की जन्म तिथि १२ सितंबर पर :
वर्षगाँठ यह मंगलमय हो...
*
जो भी चाहे अंतर्मन,
पाने का नित करो जतन.
विनय दैव से है इतनी-
मिलें सफलताएँ अनगिन..
जीवन-पथ पर पग निर्भय हो,
वर्षगाँठ यह मंगलमय हो...
*
अधरों पर सोहे मुस्कान.
पाओ सब जग से सम्मान.
शतजीवी हो, स्वस्थ्य रहो-
पूरा हो मन का अरमान..
श्वास-श्वास सरगम सुरमय हो
वर्षगाँठ यह मंगलमय हो...
*
मिले कीर्ति, यश, अभिनन्दन,
मस्तक पर रोली-चन्दन.
घर-आँगन में खुशियाँ हों-
स्नेहिल नातों का वन्दन..
आस-हास की निधि अक्षय हो,
वर्षगाँठ यह मंगलमय हो...
***
नवगीत:
मेघ बजे
*
नभ ठाकुर की ड्योढ़ी पर फिर मेघ बजे.
ठुमुक बेड़नी नचे, बिजुरिया बिना लजे...
*
दादुर देते ताल,
पपीहा-प्यास बुझी.
मिले मयूर-मयूरी
मन में छाई खुशी...
तोड़ कूल-मरजाद नदी उफनाई तो-
बाबुल पर्वत रूठे, तनया तुरत तजे...
*
पल्लव की करताल,
बजाती नीम मुई.
खेत कजलियाँ लिये,
मेड़ छुईमुई हुई..
जन्मे माखनचोर, हरीरा भक्त पिए
गणपति बप्पा, लाये मोदक हुए मजे...
*
टप-टप टपके टीन,
चू गयी है बाखर.
डूबी शाला हाय!,
पढ़ाये को आखर?
डूबी गैल, बके गाली अभियंता को.
डुकरो काँपें, 'सलिल' जोड़ कर राम भजे...
*
नभ ठाकुर की ड्योढ़ी पर फिर मेघ बजे.
ठुमुक बेड़नी नचे बिजुरिया, बिना लजे...
***
बाल गीत:
लंगडी खेलें.....
**
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
*
एक पैर लें
जमा जमीं पर।
रखें दूसरा
थोडा ऊपर।
बना संतुलन
निज शरीर का-
आउट कर दें
तुमको छूकर।
एक दिशा में
तुम्हें धकेलें।
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
*
आगे जो भी
दौड़ लगाये।
कोशिश यही
हाथ वह आये।
बचकर दूर न
जाने पाए-
चाहे कितना
भी भरमाये।
हम भी चुप रह
करें झमेले।
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....*
हा-हा-हैया,
ता-ता-थैया।
छू राधा को
किशन कन्हैया।
गिरें धूल में,
रो-उठ-हँसकर,
भूलें- झींकेगी
फिर मैया।
हर पल 'सलिल'
ख़ुशी के मेले।
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
***
गीत:
मनुज से...
*
न आये यहाँ हम बुलाये गये हैं.
तुम्हारे ही हाथों बनाये गये हैं.
ये सच है कि निर्मम हैं, बेजान हैं हम,
कलेजे से तुमको लगाये गये हैं.
नहीं हमने काटा कभी कोई जंगल
तुम्हीं कर रहे थे धरा का अमंगल.
तुमने ही खोदे थे पर्वत और टीले-
तुम्हीं ने किया पाट तालाब दंगल..
तुम्हीं ने बनाये ये कल-कारखाने.
तुम्हीं जुट गये थे भवन निज बनाने.
तुम्हारी हवस का न है अंत लोगों-
छोड़ा न अवसर लगे जब भुनाने..
कोयल की छोड़ो, न कागा को छोड़ा.
कलियों के संग फूल कांटा भी तोड़ा.
तुलसी को तज, कैक्टस शत उगाये-
चुभे आज काँटे हुआ दर्द थोड़ा..
मलिन नेह की नर्मदा तुमने की है.
अहम् के वहम की सुरा तुमने पी है.
न सम्हले अगर तो मिटोगे ये सुन लो-
घुटन, फ़िक्र खुद को तुम्हीं ने तो दी है..
हूँ रचना तुम्हारी, तुम्हें जानती हूँ.
बचाऊँगी तुमको ये हाथ ठानती हूँ.
हो जैसे भी मेरे हो, मेरे रहोगे-
इरादे तुम्हारे मैं पहचानती हूँ..
नियति का इशारा समझना ही होगा.
प्रकृति के मुताबिक ही चलना भी होगा.
मुझे दोष देते हो नादां हो तुम-
गिरे हो तो उठकर सम्हलना भी होगा..
ये कोंक्रीटी जंगल न ज्यादा उगाओ.
धरा-पुत्र थे, फिर धरा-सुत कहाओ..
धरती को सींचो, पुनः वन उगाओ-
'सलिल'-धार संग फिर हँसो-मुस्कुराओ..
नहीं है पराया कोई, सब हैं अपने.
अगर मान पाये, हों साकार सपने.
बिना स्वर्गवासी हुए स्वर्ग पाओ-
न मंगल पे जा, भू का मंगल मनाओ..
***
नव गीत:
क्या?, कैसा है?...
*
*क्या?, कैसा है?
कम लिखता हूँ,
अधिक समझना...
*
पोखर सूखे,
पानी प्यासा.
देती पुलिस
चोर को झाँसा.
सड़ता-फिंकता
अन्न देखकर
खेत, कृषक,
खलिहान रुआँसा.
है गरीब की
किस्मत, बेबस
भूखा मरना.
क्या?, कैसा है?
कम लिखता हूँ,
अधिक समझना...
*
चूहा खोजे
मिले न दाना.
सूखी चमड़ी
तन पर बाना.
कहता: 'भूख
नहीं बीमारी'.
अफसर-मंत्री
सेठ मुटाना.
न्यायालय भी
छलिया लगता.
माला जपना.
क्या?, कैसा है?
कम लिखता हूँ,
अधिक समझना...
*
काटे जंगल,
भू की बंजर.
पर्वत खोदे,
पूरे सरवर.
नदियों में भी
शेष न पानी.
न्यौता मरुथल
हाथ रहे मल.
जो जैसा है
जब लिखता हूँ
देख-समझना.
क्या?, कैसा है?
कम लिखता हूँ,
अधिक समझना...
***
नवगीत:
अपना हर पल
है हिन्दीमय
*
अपना हर पल
है हिन्दीमय
एक दिवस
क्या खाक मनाएँ?
बोलें-लिखें
नित्य अंग्रेजी
जो वे
एक दिवस जय गाएँ...
*
निज भाषा को
कहते पिछडी.
पर भाषा
उन्नत बतलाते.
घरवाली से
आँख फेरकर
देख पडोसन को
ललचाते.
ऐसों की
जमात में बोलो,
हम कैसे
शामिल हो जाएँ?...
*
हिंदी है
दासों की बोली,
अंग्रेजी शासक
की भाषा.
जिसकी ऐसी
गलत सोच है,
उससे क्या
पालें हम आशा?
इन जयचंदों
की खातिर
हिंदीसुत
पृथ्वीराज बन जाएँ...
*
ध्वनिविज्ञान-
नियम हिंदी के
शब्द-शब्द में
माने जाते.
कुछ लिख,
कुछ का कुछ पढने की
रीत न हम
हिंदी में पाते.
वैज्ञानिक लिपि,
उच्चारण भी
शब्द-अर्थ में
साम्य बताएँ...
*
अलंकार,
रस, छंद बिम्ब,
शक्तियाँ शब्द की
बिम्ब अनूठे.
नहीं किसी
भाषा में मिलते,
दावे करलें
चाहे झूठे.
देश-विदेशों में
हिन्दीभाषी
दिन-प्रतिदिन
बढ़ते जाएँ...
*
अन्तरिक्ष में
संप्रेषण की
भाषा हिंदी
सबसे उत्तम.
सूक्ष्म और
विस्तृत वर्णन में
हिंदी है
सर्वाधिक
सक्षम.
हिंदी भावी
जग-वाणी है
निज आत्मा में
'सलिल' बसाएँ...
१९-९-२०१०
***

बुधवार, 30 नवंबर 2022

मुक्तिका, अक्षर गीत, स्वर, व्यंजन, साधना, राजलक्ष्मी शिवहरे, श्यामलाल उपाध्याय, शब्द सामर्थ्य, घनाक्षरी, नवगीत,

कार्य शाला 
मुक्तिका १  
वज़्न--212 212 212 212 
*
गालिबों के नहीं कद्रदां अब रहे 
शायरी लोग सोते हुए कर रहे 

बोल जुमले; भुला दे सभी वायदे
जो हकीकत कही; आप भी डर रहे  
  
जिंदगी के रहे मायने जो कभी 
हैं नहीं; लोग जीते हुए मर रहे 

ये निजामत झुकेगी तुम्हारे लिए 
नौजवां गर न भागे; डटे मिल रहे 
 
मछलियों ने मगर पर भरोसा किया 
आसुओं की खता; व्यर्थ ही बह रहे 

वेदना यातना याचना सत्य है 
हुक्मरां बोलते स्वर्ग में रह रहे 

ये सियासत न जिसमें सिया-सत रहा 
खेलते राम जी किसलिए हैं रहे 
***
मुक्तिका २ 
वज़्न--२१२ x ४ 
बह्रे - मुतदारिक़ मुसम्मन सालिम.
अर्कान-- फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन
क़ाफ़िया— "ए" (स्वर)
रदीफ़ --- हुए
*
मुक्तिका 
कायदे जो कभी थे; किनारे हुए 
फायदे जो मिले हैं; हमारे हुए 

चाँद सोया रहा बाँह में रात भर 
लाख गर्दिश मगर हम सितारे हुए 

नफरतों से रही है मुहब्बत हमें 
आप मानें न मानें सहारे हुए 

हुस्न वादे करे जो निभाए नहीं 
इश्किया लोग सारे बिचारे हुए 

सर्दियाँ सर्दियों में बिगाड़ें गले 
फायदेमंद यारां गरारे हुए 

सर कटा तो कटा, तुम न मातम करो 
जान लो; मान लो हम तुम्हारे हुए   

धार में तो सदा लोग बहते रहे 
हम बहे थे जहाँ वां किनारे हुए  
***
उदाहरण 
एक मुद्दत हुई घर से निकले हुए
अपने माहौल में खुद को देखे हुए  -  शारिक़ कैफ़ी
गीत
1. कर चले हम फिदा जानो तन साथियों
2. खुश रहे तू सदा ये दुआ है मेरी
3. आपकी याद आती रही रात भर
4. गीत गाता हूँ मैं गुनगुनाता हूँ मैं
5. बेख़ुदी में सनम उठ गये जो क़दम
6. एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा
7. हाल क्या है दिलों का न पूछो सनम
8. आजकल याद कुछ और रहता नहीं
9. तुम अगर साथ देने का वादा करो
10. ऐ वतन ऐ वतन हमको तेरी कसम
11. छोड़ दे सारी दुनिया किसी के लिए
■■■
अक्षर गीत
संजीव
*
अक्षर स्वर-व्यंजन सुन-पढ़-लिख
आओ! गाएँ अक्षर गीत।
माँ शारद को नमस्कार कर
शुभाशीष पा हँसिए मीत।
स्वर :
'अ' से अनुपम; अवनि; अमर; अब,
'आ' से आ; आई; आबाद।
'इ' से इरा; इला; इमली; इस,
'ई' ईश्वरी; ईख; ईजाद।
'उ' से उषा; उजाला; उगना,
'ऊ' से ऊर्जा; ऊष्मा; ऊन।
'ए' से एड़ी; एक; एकता,
'ऐ' ऐश्वर्या; ऐनक; ऐन।
'ओ' से ओम; ओढ़नी; ओला,
'औ' औरत; औषधि; औलाद।
'अं' से अंक; अंग, अंगारा,
'अ': खेल-हँस हो फौलाद।
*
व्यंजन
'क' से कमल; कलम; कर; करवट,
'ख' खजूर; खटिया; खरगोश।
'ग' से गणपति; गज; गिरि; गठरी,
'घ' से घट; घर; घाटी; घोष।
'ङ' शामिल है वाङ्मय में
पंचम ध्वनि है सार्थक रीत।
अक्षर स्वर-व्यंजन सुन-पढ़-लिख
आओ! गायें अक्षर गीत।
*
'च' से चका; चटकनी; चमचम,
'छ' छप्पर; छतरी; छकड़ा।
'ज' जनेऊ; जसुमति; जग; जड़; जल,
'झ' झबला; झमझम, झरना।
'ञ' हँस व्यञ्जन में आ बैठा,
व्यर्थ न लड़ना; करना प्रीत।
अक्षर स्वर-व्यंजन सुन-पढ़-लिख
आओ! गायें अक्षर गीत।
*
'ट' टमटम; टब; टका; टमाटर,
'ठ' ठग; ठसक; ठहाका; ठुमरी।
'ड' डमरू; डग; डगर; डाल; डफ,
'ढ' ढक्कन; ढोलक; ढल; ढिबरी।
'ण' कण; प्राण; घ्राण; तृण में है
मन लो जीत; तभी है जीत।
अक्षर स्वर-व्यंजन सुन-पढ़-लिख
आओ! गायें अक्षर गीत।
*
'त' तकिया; तबला; तसला; तट,
'थ' से थपकी; थप्पड़; थान।
'द' दरवाजा; दवा, दशहरा,
'ध' धन; धरा; धनुष; धनवान।
'न' नटवर; नटराज; नगाड़ा,
गिर न हार; उठ जय पा मीत।
अक्षर स्वर-व्यंजन सुन-पढ़-लिख
आओ! गायें अक्षर गीत।
*
'प' पथ; पग; पगड़ी; पहाड़; पट,
'फ' फल; फसल; फलित; फलवान।
'ब' बकरी; बरतन, बबूल; बस,
'भ' से भवन; भक्त; भगवान।
'म' मइया; मछली; मणि; मसनद,
आगे बढ़; मत भुला अतीत।
अक्षर स्वर-व्यंजन सुन-पढ़-लिख
आओ! गायें अक्षर गीत।
*
'य' से यज्ञ; यमी-यम; यंत्री,
'र' से रथ; रस्सी; रस, रास।
'ल' लकीर; लब; लड़का-लड़की;
'व' से वन; वसंत; वनवास।
'श' से शतक; शरीफा; शरबत,
मीठा बोलो; अच्छी नीत।
अक्षर स्वर-व्यंजन सुन-पढ़-लिख
आओ! गायें अक्षर गीत।
*
'ष' से षट; षटकोण; षट्भुजी,
'स' से सबक; सदन; सरगम।
'ह' से हल; हलधर; हलवाई,
'क्ष' क्षमता; क्षत्रिय; क्षय; क्षम।
'त्र' से त्रय, त्रिभुवन; त्रिलोचनी,
'ज्ञ' से ज्ञानी; ज्ञाता; ज्ञान।
'ऋ' से ऋषि, ऋतु, ऋण, ऋतंभरा,
जानो पढ़ो; नहीं हो भीत
अक्षर स्वर-व्यंजन सुन-पढ़-लिख
आओ! गायें अक्षर गीत।
*
२९-३० नवंबर २०२०
***
पुस्तक चर्चा-
सृजन समीक्षा : डॉ. राजलक्ष्मी शिवहरे अंक, पृष्ठ १६, मूल्य ४०रु.।
डॉ. साधना वर्मा
*
सृजन समीक्षा अंतरा शब्द शक्ति प्रकाशन बालाघाट द्वारा संस्कारधानी जबलपुर की सुपरिचित उपन्यासकार डॉ राजलक्ष्मी शिवहरे की सात कविताओं को लेकर प्रकाशित इस अंक में कविताओं के बाद कुछ पाठकों की प्रतिक्रियाएं भी संलग्न की गई हैं। डॉ. राजलक्ष्मी शिवहरे मूलतः उपन्यासकार कथाकार हैं, काव्य लेखन में उनकी रुचि और गति अपेक्षाकृत कम है। प्रस्तुत रचनाओं में कथ्य भावनाओं से भरपूर हैं किंतु शिल्प और भाषिक प्रवाह की दृष्टि से रचनाओं में संपादन की आवश्यकता प्रतीत होती है। चन्द रचनाओं को लेकर छोटी-छोटी पुस्तिकाएँ निकालने से पुस्तकों की संख्या भले ही बढ़ जाए लेकिन रचनाकार विशेषकर वह जिसके ९ उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं, का गौरव नहीं बढ़ता। बेहतर हो इस तरह के छोटे कलेवर में शिशु गीत, बाल गीत, बाल कथाएँ पर्यावरण गीत आदि प्रकाशित कर निशुल्क वितरण अथवा अल्प मोली संस्करण प्रकाशित किए जाएँ तभी पाठकों के लिए इस तरह के सारस्वत अनुष्ठान उपयोगी हो सकते हैं। इस १६ पृष्ठीय लघ्वाकारी संकलन का मूल्य ४०रु. रखा जाना उचित नहीं है।
***
पुस्तक चर्चा-
हिंदी और गाँधी दर्शन, डॉक्टर श्रीमती राजलक्ष्मी शिवहरे, अंतरा शब्द शक्ति प्रकाशन बालाघाट, प्रथम संस्करण २०१८, पृष्ठ बत्तीस, मूल्य ५५ रु.।
*
हिंदी और गाँधी दर्शन एक बहुत महत्वपूर्ण विषय पर प्रकाशित कृति है जिसमें हिंदी पर गाँधीजी ही नहीं, संत कबीर, राजा राममोहन राय, महर्षि दयानंद सरस्वती, एनी बेसेंट, महर्षि अरविंद, सुभाष चंद्र बोस आदि महापुरुषों के प्रेरक विचार प्रकाशित किए गए हैं। राजलक्ष्मी जी गद्य लेखन में निपुण हैं और प्रस्तुत पुस्तिका में उन्होंने हिंदी के विविध आयामों की चर्चा की है। भारत में बोली जा रही १७९ भाषाएँ एवं ५४४ बोलियों को भारत के राष्ट्रीय भाषाएँ मानने का विचार राष्ट्रीय एकता को पुष्ट करता है। गाँधी जी ने दैनंदिन व्यवहार में हिंदी के प्रयोग के लिए कई सुझाव दिए थे। उन्होंने हिंदी के संस्कृतनिष्ठ स्वरूप की जगह जन सामान्य द्वारा दैनंदिन जीवन में बोले जा रहे शब्दों के प्रयोग को अधिक महत्वपूर्ण माना था। गाँधी का एक सुझाव थी कि भारत की समस्त भाषाएँ देवनागरी लिपि में लिखी जाएँ तो उन्हें सारे भारतवासी पढ़ और क्रमश: समझ सकेंगे।
अधिकांश भाषाएँ संस्कृत से जुड़ी रही हैं इसीलिए उनकी शब्दावली भी एक दूसरे के द्वारा आसानी से समझी जा सकेगी। गाँधी जी के निधन के बाद भाषा का प्रश्न राजनीतिक स्वार्थ साधन का उपकरण बनकर रह गया। राजनेताओं ने भाषा को जनगण को बाँटने के औजार के रूप में उपयोग किया और सत्ता प्राप्ति का स्वार्थ साधा। राजलक्ष्मी जी की यह प्रस्तुति युवाओं को सही रास्ता दिखाने के लिए एक कदम ह। कृति का मूल्य ₹ ५५ रखा जाना उसे उन सामान्य पाठकों की क्रय सीमा से बाहर ले जाता है जिनके लिए राजभाषा संबंधी तथ्यों को व्यवस्थित और समृद्ध बनाया है।
***
सरस्वती स्तवन
स्मृतिशेष प्रो. श्यामलाल उपाध्याय
जन्म - १ मार्च १९३१।
शिक्षा - एम.ए., टी.टी.सी., बी.एड.।
संप्रति - पूर्व हिंदी प्राध्यापक-विभागाध्यक्ष, मंत्री भारतीय वांग्मय पीठ कोलकाता।
प्रकाशन - नियति न्यास, नियति निक्षेप, नियति निसर्ग, संक्षिप्त काव्यमय हिंदी बालकोश, शोभा, सौरभ, सौरभ रे स्वर।
उपलब्धि - अनेक प्रतिष्ठित साहित्यिक सम्मान।
*
जननी है तू वेद की, वीणा पुस्तक साथ।
सुविशाल तेरे नयन, जनमानस की माथ।।
*
सर्वव्याप्त निरवधि रही, शुभ वस्त्रा संपृक्त।
सदा निनादित नेह से, स्रोत पयस्विनी सिक्त।।
*
विश्वपटल पर है इला, अंतरिक्ष में वाणि।
कहीं भारती स्वर्ग में, ब्रह्मलोक ब्रह्माणि।।
*
जहाँ स्वर्ग में सूर्य है, वहीं मर्त्य सुविवेक।
अंतर्मन चेतन करे, यह तेरी गति नेक।।
*
ऋद्धि-सिद्धि है जगत में, ग्यान यग्य जप-जाप।
अभयदान दे जगत को, गर वो सब परिताप।।
*
तब देवी अभिव्यक्ति की, जग है तेरा दास।
सुख संपति से पूर्ण कर, हर ले सब संत्रास।।
***
***
दोहा सलिला
*
भौजी सरसों खिल रही, छेड़े नंद बयार।
भैया गेंदा रीझता, नाम पुकार पुकार।।
समय नहीं; हर किसी पर, करें भरोसा आप।
अपना बनकर जब छले, दुख हो मन में व्याप।।
उसकी आए याद जब, मन जा यमुना-तीर।
बिन देखे देखे उसे, होकर विकल अधीर।।
दाँत दिए तब थे नहीं, चने हमारे पास।
चने मिले तो दाँत खो, हँसते हम सायास।।
पावन रेवा घाट पर, निर्मल सलिल प्रवाह।
मन को शीतलता मिले, सलिला भले अथाह।।
हर काया में बसा है, चित्रगुप्त बन जान।
सबसे मिलिए स्नेह से, हम सब एक समान।।
*
मुझमें बैठा लिख रहा, दोहे कौन सुजान?
लिखता कोई और है, पाता कोई मान।।
३०-११-२०१९
***
कार्यशाला-
शब्द सामर्थ्य बढ़ाइए,
*
अंतरंग = अतिप्रिय
अंबर = आकाश
अंभोज = कमल
अंशुमाली = सूर्य
अक्षत = अखंड, पूर्ण
अक्षय = शिव
अक्षर = आत्मा,
अच्युत = ईश्वर
अतीन्द्रिय = आत्मा
अतिस्वान = सुपर सोनिक
अद्वितीय = अनुपम
अनंत = ईश्वर
अनुभव = प्रत्यक्ष ज्ञान
अन्वेषक = आविष्कारक
अपराजित = जिसे हराया नहीं जा सका, ईश्वर
अपरिमित = बहुत अधिक
अभिजीत = विजय दिलानेवाला,
अभिधान = नाम, उपाधि
अभिनंदन = स्वागत, सम्मान
अभिनव = नया
अमर = अविनाशी
अमिताभ = सूर्य
अमृत = मृत्यु से बचानेवाला
अमोघ = अचूक
अरुण = सूर्य
अर्चित = पूजित
अलौकिक - अद्भुत
अवतंस = श्रेष्ठ व्यक्ति
अवतार = ईश्वर का जन्म
अवनींद्र = राजा
अवसर = मौका
अविनाश = अमर
अव्यक्त = ब्रह्म
अशोक = शोक रहित
अशेष = संपूर्ण
अश्वत्थ = पीपल, जिसमें
अश्विनी = प्रथम नक्षत्र
असीम = सीमाहीन
अभियान = विष्णु
*
ॐ = ईश्वर
ओंकार = गणेश
ओंकारनाथ = शिव
ओजस्वी = तेजस्वी, प्रभावकारी
ओषधीष = चन्द्रमा,
ओजस = कांतिवाला, चमकनेवाला
ओदन = बादल
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एक दोहा
राम दीप बाती सिया, तेल भक्ति हनुमान।
भरत ज्योति तीली लखन, शत्रुघ्न उजाला जान।।
२९-११-२०१९
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घनाक्षरी
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चलो कुछ काम करो, न केवल नाम धरो,
उठो जग लक्ष्य वरो, नहीं बिन मौत मरो।
रखो पग रुको नहीं, बढ़ो हँस चुको नहीं,
बिना लड़ झुको नहीं, तजो मत पीर हरो।।
गिरो उठ आप बढ़ो, स्वप्न नव नित्य गढ़ो,
थको मत शिखर चढ़ो, विफलता से न डरो।
न अपनों को ठगना, न सपनों को तजना,
न स्वारथ ही भजना, लोक हित करो तरो।।
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विजया घनाक्षरी
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राम कहे राम-राम, सिया कैसे कहें राम?,
होंठ रहे मौन थाम, नैना बात कर रहे।
मौन बोलता है आज, न अधूरा रहे काज,
लाल गाल लिए लाज, नैना घात कर रहे।।
हेर उर्मिला-लखन, देख द्वंद है सघन,
राम-सिया सिया-राम, बोल प्रात कर रहे।
श्रुतिकीर्ति-शत्रुघन, मांडवी भरत हँस,
जय-जय सिया-राम मात-तात कर रहे।।
३०.११.२०१८
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क्षणिकाएँ
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उस्ताद अखाड़ा नहीं,
दंगल हुआ?, हुआ.
बाकी ने वृक्ष एक भी,
जंगल हुआ? हुआ.
दस्तूरी जमाने का अजब,
गजब ढा रहा-
हाय-हाय कर कहे
मंगल हुआ? हुआ.
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घर-घर में गान्धारियाँ हैं,
कोई क्या करे?
करती न रफ़ू आरियाँ हैं,
कोई क्या करे?
कुन्ती, विदुर न धर्मराज
शेष रहे हैं-
शकुनी-अशेष पारियाँ हैं,
कोई क्या करे?
२९-११-२०१७
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नवगीत:
नयन झुकाये बैठे हैं तो
मत सोचो पथ हेर रहे हैं
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चहचह करते पंछी गाते झूम तराना
पौ फटते ही, नहीं ठण्ड का करें बहाना
सलिल-लहरियों में ऊषा का बिम्ब निराला
देख तृप्त मन डूबा खुद में बन बेगाना
सुन पाती हूँ चूजे जगकर
कहाँ चिरैया? टेर रहे हैं
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मोरपंख को थाम हाथ में आँखें देखें
दृश्य अदेखे या अतीत को फिर-फिर लेखें
रीती गगरी, सूना पनघट,सखी-सहेली
पगडंडी पर कदम तुम्हारे जा अवरेखें
श्याम लटों में पवन देव बन
श्याम उँगलियाँ फेर रहे हैं
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नील-गुलाबी वसन या कि है झाँइ तुम्हारी
जाकर भी तुम गए न मन से क्यों बनवारी?
नेताओं जैसा आश्वासन दिया न झूठा-
दोषी कैसे कहें तुम्हें रणछोड़ मुरारी?
ज्ञानी ऊधौ कैसे समझें
याद-मेघ मिल घेर रहे हैं?
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नवगीत:
अनेक वर्णा पत्तियाँ हैं
शाख पर तो क्या हुआ?
अपर्णा तो है नहीं अमराई
सुख से सोइये
बज रहा चलभाष सुनिए
काम अपना छोड़कर
पत्र आते ही कहाँ जो रखें
उनको मोड़कर
किताबों में गुलाबों की
पंखुड़ी मिलती नहीं
याद की फसलें कहें, किस नदी
तट पर बोइये?
सैंकड़ों शुभकामनायें
मिल रही हैं चैट पर
सिमट सब नाते गए हैं
आजकल अब नैट पर
ज़िंदगी के पृष्ठ पर कर
बंदगी जो मीत हैं
पड़ गये यदि सामने तो
चीन्ह पहचाने नहीं
चैन मन का, बचा रखिए
भीड़ में मत खोइए
३०-११-२०१४
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गीत:
हर सड़क के किनारे
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हर सड़क के किनारे हैं उखड़े हुए,
धूसरित धूल में, अश्रु लिथड़े हुए.....
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कुछ जवां, कुछ हसीं, हँस मटकते हुए,
नाज़नीनों के नखरे लचकते हुए।
कहकहे गूँजते, पीर-दुःख भूलते-
दिलफरेबी लटें, पग थिरकते हुए।।
बेतहाशा खुशी, मुक्त मति चंचला,
गति नियंत्रित नहीं, दिग्भ्रमित मनचला।
कीमती थे वसन किन्तु चिथड़े हुए-
हर सड़क के किनारे हैं उखड़े हुए,
धूसरित धूल में, अश्रु लिथड़े हुए.....
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चाह की रैलियाँ, ध्वज उठाती मिलीं,
डाह की थैलियाँ, खनखनाती मिलीं।
आह की राह परवाह करती नहीं-
वाह की थाह नजरें भुलातीं मिलीं।।
दृष्टि थी लक्ष्य पर पंथ-पग भूलकर,
स्वप्न सत्ता के, सुख के ठगें झूलकर।
साध्य-साधन मलिन, मंजु मुखड़े हुए
हर सड़क के किनारे हैं उखड़े हुए,
धूसरित धूल में, अश्रु लिथड़े हुए.....
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ज़िन्दगी बन्दगी बन न पायी कभी,
प्यास की रास हाथों न आयी कभी।
श्वास ने आस से नेह जोड़ा नहीं-
हास-परिहास कुलिया न भायी कभी।।
जो असल था तजा, जो नकल था वरा,
स्वेद को फेंककर, सिर्फ सिक्का ।
साध्य-साधन मलिन, मंजु उजड़े हुए
हर सड़क के किनारे हैं उखड़े हुए,
धूसरित धूल में, अश्रु लिथड़े हुए.....
३०-११-२०१२
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