कुल पेज दृश्य

gan लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
gan लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

सोमवार, 1 अक्टूबर 2018

vimarsh- gan kya hai?

विमर्श:
गण क्या है?
*
अ. गण और वेद
गण मूलत: वैदिक शब्द है। 'गणपति' और 'गणनांगणपति' शब्दों का आशय 'जन जातीय समूह' है। देवगण, ऋषिगण, पितृगण, कविगण इन समस्त पदों में यही अर्थ अभिप्रेषित है।

सृष्टि मूल में अव्यक्त स्रोत (परब्रम्ह) से प्रवृत्त हुई है। वह एक था, उस एक का बहुधा भाव या गण रूप में आना ही विश्व है। सृष्टि-रचना के लिए गणतत्व अनिवार्य है। नानात्व (विविधता) से ही जगत् बनता है। बहुधा, नाना, गण इन सबका लक्ष्य अर्थ एक ही है। वैदिक सृष्टिविद्या के अनुसार मूलभूत एक प्राण सर्वप्रथम था, उससे अनेक (ऋषि, पितर, देव आदि) उत्पन्न हुए पर वह प्रमुख बना रहा इसलिए वह गणपति कहा गया। मूलभूत गणपति ही पुराण की भाषा में गणेश है। शुद्ध विज्ञान की परिभाषा में उसे समष्टि (युनिवर्सल) कहेंगे। उससे जिन अनेक व्यष्टि भावों का जन्म होता है, उसकी संज्ञा गण है। गणपति या गणेश को महत्ततत्व भी कहते हैं। जो निष्कलरूप से सर्वव्यापक हो वही गणपति है। उसका खंड भाव में आना या पृथक्-पृथक् रूप ग्रहण करना गणभाव की सृष्टि है। समष्टि और व्यष्टि दोनों एक दूसरे से अविनाभूत या मिले हुए रहते है। यही संतति संबंध गणेश की सूँड से इंगित है। हाथी का मस्तक महत् या महान का प्रतीक है और व या चूहा पार्थित व्यष्टि पदार्थों या केंद्रों का प्रतीक है। वही पुराण की भाषा में गणपति का पशु है। वस्तुत: गणपति तत्व मूलभूत रुद्र का ही रूप है। जिसे महान कहा जाता है उसकी संज्ञा समुद्र भी थी। उसे ही पुराणों ने एकार्णव कहा है। वह सोम का समुद्र था और उसी तत्व के गणभावों का जन्म होता है। सोम का ही वैदिक प्रतीक मधु या अपूप था, उसी का पौराणिक या लोकगत प्रतीक मोदक है जो गणपति को प्रिय कहा जाता है। यही गण और गणपति की मूल कल्पना थी।

गण-स्वामी गणेश के प्रधान वीरभद्र सप्तमातृका मूर्तियों की पंक्ति के अंत में दंड धारण कर खड़े होते हैं। शिव के अनंत गण हैं जिनके वामन तथा विचित्र स्वरूपों का गुप्तकालीन कला में पर्याप्त आकलन हुआ है। खोह (म. प्र.) से प्राप्त, इलाहाबाद के संग्रहालय में सुरक्षित स्थूल वामन गणों की संख्या अपरिमित है। विकृत रूपधारीगण पट्टिकाओं पर उत्खचित हैं। शिव-बारात में इन अप्राकृतिक रूपधारी गणों का विशेष महत्व है।

आ. गण और ज्योतिष

ज्‍योतिष शास्‍त्र में इंसान के गण को तीन भागों में वर्गीकृत गया है – देव गण, मनुष्‍य गण और राक्षस गण। मनुष्य के जन्‍म नक्षत्र एवं जन्‍मकुंडली के आधार पर उसके गण की पहचान की जा सकती है।                                                                                            क. देव गण से संबंधित जातक उदार, बुद्धिमान, साहसी, अल्‍पाहारी, समृद्ध और दान-पुण्‍य करने वाले होते हैं। 'सुंदरो दान शीलश्च मतिमान् सरल: सदा। अल्पभोगी महाप्राज्ञो तरो देवगणे भवेत्।।' अर्थात देवगण में उत्पन्न पुरुष दानी, बुद्धिमान, सरल हृदय, अल्पाहारी व विचारों में श्रेष्ठ, मेधावी, सरल, दयालु, परोपकारी, सुंदर और आकर्षक व्‍यक्‍तित्‍व के होते हैं। अश्विनी, मृगशिरा, पुर्नवासु, पुष्‍य, हस्‍त, स्‍वाति, अनुराधा, श्रावण, रेवती नक्षत्र में जन्में बालक देव गण के होते हैं।                                                        ख. मनुष्‍य गण के व्यक्ति अभिमानी, समृद्ध और धनुर्विद्या में निपुण होते हैं। 'मानी धनी विशालाक्षो लक्ष्यवेधी धनुर्धर:। गौर: पोरजन ग्राही जायते मानवे गणे।।' अर्थात मनुष्य गण में उत्पन्न पुरुष मानी, धनवान, विशाल नेत्र वाला, धनुर्विद्या का जानकार, ठीक निशाने बेध करने वाला, गौर वर्ण, नगरवासियों को वश में करने वाला होता है। ऐसे जातक किसी समस्या या नकारात्मक स्थिति में भयभीत हो जाते हैं। परिस्थितियों का सामना करने की क्षमता कम होती है। भरणी, रोहिणी, आर्दा, पूर्वा फाल्गुनी, उत्तर फाल्गुनी, पूर्व षाढ़ा, उत्तर षाढा, पूर्व भाद्रपद, उत्तर भाद्रपद में मनुष्य गण के जातक जन्म लेते हैं।                                                                                ग. राक्षस गण के मनुष्य विलक्षण प्रतिभा के धनी, अपने आसपास की अशुभ ऊर्जा को शीघ्रता से भाँप लेते हैं। इनकी छठी इंद्रिय काफी शक्‍तिशाली और सक्रिय होती है। इस गण वाले लोग कठिन परिस्थिति में भी धैर्य और साहस से काम लेते हैं। ये लोग अपने जीवन में हर मुश्किल का डटकर सामना करना जानते हैं। राक्षस गण कृत्तिका, अश्लेषा, मघा, चित्रा, विशाखा, ज्येष्ठा, मूल, धनिष्ठा और शतभिषा नक्षत्र में बनता है। 'उन्मादी भीषणाकार: सर्वदा कलहप्रिय:। पुरुषो दुस्सहं बूते प्रमे ही राक्षसे गण।।' अर्थात राक्षस गण में उत्पन्न बालक उन्मादयुक्त, भयंकर स्वरूप, झगड़ालु, प्रमेह रोग से पीड़ि‍त और कटु वचन बोलने वाला होता है। भविष्य में होने वाली घटनाओं का पूर्वाभास इन्हें पहले ही हो जाता है।
गण और विवाह-                                                                                                                                                       विवाह के समय गणों का सही मिलान होने पर दांपत्‍य जीवन में सुख  और आनंद बना रहता है। वर-कन्‍या का समान गण होने पर दोनों के मध्‍य उत्तम सामंजस्य से विवाह सर्वश्रेष्ठ रहता है। वर-कन्या देव तथा मनुष्य गण के हों तो वैवाहिक जीवन संतोषप्रद होता है, विवाह किया जा सकता है। वर-कन्या के देव गण और राक्षस गण होने पर दोनों के बीच सामंजस्य नहीं रहता है। विवाह नहीं करना चाहिए।
गण और जीव विज्ञान                                                                                                                                            (अंग्रेज़ी: order, ऑर्डर; लातिनी: ordo, ओर्दोजीववैज्ञानिक वर्गीकरण में जीवों के वर्गीकरण की एक श्रेणी होती है। एक गण में एक-दुसरे से समानताएँ रखने वाले कई सारे जीवों के कुल आते हैं। ध्यान दें कि हर जीववैज्ञानिक कुल में बहुत सी भिन्न जीवों की जातियाँ-प्रजातियाँ सम्मिलित होती हैं। गणों के नाम लातिनी भाषा में हैं क्योंकि जीववैज्ञानिक वर्गीकरण की प्रथा १७वीं और १८वीं सदियों में यूरोप में शुरू हुई थी और उस समय वहाँ लातिनी ज्ञान की भाषा मानी जाती थी। आधुनिक काल में इस्तेमाल होने वाली वर्गीकरण व्यवस्था १८वीं शताब्दी में कार्ल लीनियस नामक स्वीडी वैज्ञानिक ने की थी। उदाहरण: मानव एक जीववैज्ञानिक जाति है जिसका वैज्ञानिक नाम 'होमो सेपियन्ज़' (Homo sapiens) है। होमो (Homo) एक जीववैज्ञानिक वंश है जिसमें मानव और मानव से मिलती-जुलती निअंडरथल मानव जैसी कई और जातियाँ थीं - आधुनिक काल में मानवों को छोड़कर इस वंश की अन्य सभी जातियाँ विलुप्त हो चुकी हैं। होमिनिडाए (Hominidae), जिसे हिन्दी में 'मानवनुमा' कह सकते हैं, एक जीववैज्ञानिक कुल है जिसमें मनुष्य, चिम्पान्ज़ी, गोरिल्ला और ओरन्गउटान जैसे सभी बड़े आकार वाले वानर वंश आते हैं। प्राइमेट (Primate), जिसे हिन्दी में 'नरवानर' कह सकते हैं, एक जीववैज्ञानिक गण है जिसमें मानव और सारे मानवनुमा कपियों के अलावा, सभी बन्दर, लीमर, तारसियर जैसे सदस्यों वाले सभी कुल आते हैं। स्तनधारी (Mammalia, मैमेलिया) एक जीववैज्ञानिक वर्ग है जिसमें स्तनधारी जानवरों वाले सभी गण आते हैं - यानी इस वर्ग में मनुष्य, भेड़िये, व्हेल, चूहे, घोड़े और कुत्ते सभी सम्मिलित हैं। कोरडेटाए (Chordatae), जिसे हिन्दी में 'रज्जुकी' कहते हैं, एक जीववैज्ञानिक संघ है जिसमें वे सभी वर्ग आते हैं जिनके सदस्य जानवरों के पास रीढ़ की हड्डी होती है - इसमें मनुष्य, गिरगिटमेंढक, मछली, वग़ैरह शामिल हैं। ऐनीमेलिया (Animalia), जिसे हिन्दी में 'जंतु' कहा जा सकता है, एक जीववैज्ञानिक जगत है जिसमें सभी जंतुओं वाले संघ आते हैं, लेकिन पौधे, इत्यादि नहीं आते - इसमें मनुष्यमकड़ी, ओक्टोपस वग़ैराह सभी प्राणी शामिल हैं।                       गण और छंद                                                                                                                                           आग्नेय महापुराण अध्याय ३२८ छंदों के गण और गुरु-लघु की व्यवस्था                                                                "अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठ! अब मैं वेद मन्त्रों के अनुसार पिन्गलोक्त छंदों का क्रमश: वर्णन करूँगा। मगण, नगण, भगण, यगण, जगण, रगण, सगण, और तगण ये ८ गण होते हैं। सभी गण ३-३ अक्षरों के हैं। इनमें मगण के सभी अक्षर गुरु (SSS) और नगण के सब अक्षर लघु होते हैं। आदि गुरु (SII) होने से 'भगण' तथा आदि लघु (ISS) होने से 'यगण' होता है। इसी प्रकार अन्त्य गुरु होने से 'सगण' तथा अन्त्य लघु होने से 'तगण' (SSI) होता है। पाद के अंत में वर्तमान ह्रस्व अक्षर विकल्प से गुरु माना जाता है। विसर्ग, अनुस्वार, संयुक्त अक्षर (व्यंजन), जिव्हामूलीय तथाउपध्मानीय अव्यहित पूर्वमें स्थित होने पर 'ह्रस्व' भी 'गुरु' माना जाता है, दीर्घ तो गुरु है ही। गुरु का संकेत 'ग' और लघु का संकेत 'ल' है। ये 'ग' और 'ल' गण नहीं हैं। 'वसु' शब्द ८ की और 'वेद' शब्द ४ की संज्ञा हैं, इत्यादि बातें लोक के अनुसार जाननी चाहिए। १-३।।                                                                                                            इस प्रकार आदि आग्नेय पुराण में 'छंदस्सार का कथन' नामक तीन सौ अट्ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ।।३२८।।                            छंदों का विभाजन वर्णों और मात्राओं के आधार पर किया गया है। छंद प्रथमत: दो प्रकार के माने गए है: वर्णिक और मात्रिक।            वर्णिक छन्द:  इनमें वृत्तों की संख्या निश्चित रहती है। इसके दो भी प्रकार हैं- गणात्मक और अगणात्मक।                                   गणात्मक वणिंक छंदों को वृत्त भी कहते हैं। इनकी रचना तीन लघु और दीर्घ गणों से बने हुए गणों के आधार पर होती है। लघु तथा दीर्घ के विचार से यदि वर्णों क प्रस्तारव्यवस्था की जाए आठ रूप बनते हैं। इन्हीं को "आठ गण" कहते हैं इनमें भ, न, म, य शुभ गण माने गए हैं और ज, र, स, त अशुभ माने गए हैं। वाक्य के आदि में प्रथम चार गणों का प्रयोग उचित है, अंतिम चार का प्रयोग निषिद्ध है। यदि अशुभ गणों से प्रारंभ होनेवाले छंद का ही प्रयोग करना है, देवतावाची या मंगलवाची वर्ण अथवा शब्द का प्रयोग प्रथम करना चाहिए - इससे गणदोष दूर हो जाता है। इन गणों में परस्पर मित्र, शत्रु और उदासीन भाव माना गया है। छंद के आदि में दो गणों का मेल माना गया है। वर्णों के लघु एवं दीर्घ मानने का भी नियम है। लघु स्वर अथवा एक मात्रावाले वर्ण लघु अथवा ह्रस्व माने गए और इसमें एक मात्रा मानी गई है। दीर्घ स्वरों से युक्त संयुक्त वर्णों से पूर्व का लघु वर्ण भी विसर्ग युक्त और अनुस्वार वर्ण तथा छंद का वर्ण दीर्घ माना जाता है।                                                                                                                                                         अगणात्मक वर्णिक वृत्त वे हैं जिनमें गणों का विचार नहीं रखा जाता, केवल वर्णों की निश्चित संख्या का विचार रहता है विशेष मात्रिक छंदों में केवल मात्राओं का ही निश्चित विचार रहता है और यह एक विशेष लय अथवा गति (पाठप्रवाह अथवा पाठपद्धति) पर आधारित रहते हैं। इसलिये ये छंद लयप्रधान होते हैं।                                                                                                                       गण और यमाताराजभानसलगाः  वर्णिक छन्दों में वर्ण गणों के हिसाब से रखे जाते हैं। तीन वर्णों के समूह को गण कहते हैं। इन गणों के नाम हैं: यगण, मगण, तगण, रगण, जगण, भगण, नगण और सगण। अकेले लघु को ‘ल’ और गुरु को ‘ग’ कहते हैं। किस गण में लघु-गुरु का क्रम जानने के लिए सूत्र - यमाताराजभानसलगा जिस गण को जानना हो उसका वर्ण इस में देखकर अगले दो वर्ण और साथ जोड़ लेते हैं और उसी क्रम से गण की मात्राएँ लगा लेते हैं, जैसे: यगण - यमाता =। ऽ ऽ आदि लघु, मगण - मातारा = ऽ ऽ ऽ सर्वगुरु, तगण - ताराज = ऽ ऽ। अन्तलघु, रगण - राजभा = ऽ। ऽ मध्यलघु, जगण - जभान =। ऽ। मध्यगुरु, भगण - भानस = ऽ।। आदिगुरु, नगण - नसल =।। । सर्वलघु, सगण - सलगाः =।। ऽ अन्तगुरु।  मात्राओं में जो अकेली मात्रा है, उस के आधार पर इन्हें आदिलघु या आदिगुरु कहा गया है। जिसमें सब गुरु है, वह ‘मगण’ सर्वगुरु कहलाया और सभी लघु होने से ‘नगण’ सर्वलघु कहलाया।


सोमवार, 4 दिसंबर 2017

hindi gazal / muktika 2

हिंदी ग़ज़ल / मुक्तिका
पाठ २ 
हिंदी ग़ज़ल को मुक्तिका कहें क्योंकि हर द्विपदी (दो पंक्तियाँ या शे'र) शेष से मुक्त अपने आप में पूर्ण होती हैं। मुक्तिका में पदांत तथा तुकांत गज़ल की ही तरह होता है किन्तु पदभार (पंक्ति का वजन) हिंदी मात्रा गणना के अनुसार होता है। इसे हिंदी के छंदों को आधार बनाकर रचा जाता है।  उर्दू ग़ज़ल बहर के आधार पर रची जाती है तथा वजन तकती'अ के मुताबिक देखा जाता है. जरूरत हो तो लघु को गुरु और गुरु को लघु पढ़ा जा सकता है, मुक्तिका में यह छूट नहीं होती। 
लयखंड / गण / रुक्न -
अक्षर (हर्फ़) मिलकर शब्द बनाते हैं। शब्दों का समूह वाक्य है जिसका प्रयोग गद्य लिखने में किया जाता है। पद्य लेखन में लय का महत्त्व सर्वविदित है। लयखंड अक्षरों का ऐसा समूह होता है जिसकी आवृत्ति अथवा जिनके सम्मिश्रण से गायी जा सकने वाली काव्य पंक्तियाँ बन सकें। ध्वनि, अक्षर व मात्रा के दो रूप लघु (ह्रस्व, छोटी) व् दीर्घ (बड़ी) हैं जिनका भार (वज़न) क्रमश: १ तथा २ गिना जाता है। 
गण: 
हिंदी पिंगल में लय-खंड ८ हैं जिन्हें गण कहा जाता है। इन्हें एक सूत्र 'यमाताराजभानसलगा' से याद रखा जा सकता है। प्रथम आठ अक्षर गण  का नाम बताते हैं जिसके साथ अगले दो अक्षर मिलकर उस गण का भार सूचित करते हैं-
यगण    यमाता     १२२   ५ मात्री    दुलारा, पिला दे, उठा ला  
मगण    मातारा     २२२   ६ मात्री    मायावी, दे ताली, राजा जी   
तगण    ताराज      २२१   ५ मात्री    वातास, दो बोल, आओ न 
रगण     राजभा      २१२   ५ मात्री    रंजना, भोर में, हे उषा 
जगण    जभान      १२१    ४ मात्री    बयार, उठा न, न मार 
भगण    भानस      २११    ४ मात्री    देवर, बोल न, जा मत 
नगण    नसल        १११    ३ मात्री    कथन, कह न, न रुक 
सगण    सलगा       ११२   ४ मात्री    करनी, वर दे, न कहो 
रुक्न (बहुवचन अरकान): 
(अ) उर्दू छंदशास्त्र के ७ बुनियादी इरकान निम्न हैं-
फ़ऊलुं  १२२                ५ हर्फ़ी      सवाली, कहो तो, सही है    (यगण)     
फ़ाइलुं  २१२                ५ हर्फ़ी      वायदा, मात दी, है यही     (रगण)     
मुस्तफ़इलुं २१११२        ७ हर्फ़ी      नायबगिरी, ये वतन है      (भगण लघु गुरु, गुरु लघु सगण, गुरु नगण गुरु)
मफ़ाईलुं १२२२            ७ हर्फ़ी      करामाती, कहाँ जाएँ         (यगण गुरु, लघु मगण) 
फ़ाइलातुं  २१२२           ७ हर्फ़ी      तीनतारा, चाँद आया        (रगण गुरु, गुरु यगण)
मुतफ़ाइलुं                   ७ हर्फ़ी      फ़रमाइशी, अपना जहां     (सगण नगण) 
मफ़ऊलात                   ७ हर्फ़ी      खुदमुख्तार,                    (सगण गुरु लघु, लघु लघु तगण)
ज़िहाफ़ (इरकान में बदलाव) 
फ़ाइलातुन के अंत में 'न' को हटा दें तो शेष फ़ाइलातु (फ़ाइलात) तथा 'तुन' को हटा दें तो फ़ाइला (फाईलुं) शेष रहेगा। 
मफ़ाईलुं से 'न' गिराकर मफ़ाईल, मफ़ऊलात 'त' हटाकर मफ़ऊला (मफ़ऊलुं), मफ़ऊलुं से मफ़ऊलु (मफ़ऊल), फ़ऊलुं से फ़ऊल (जगण) बनाया जाता है। फऊलुं से फ़ गिराने पर ऊलुं बचता है जिसे फेइलुं लिखा जाता है।  इरकान में बदलाव करने को ज़िहाफ़ कहा जाता है। ज़िहाफ़ों (ज़िहाफ़ात) से उर्दू शायरी की खूबसूरती बढ़ती है। ज़िहाफ़ के ३ तरीके है- 
१. इज़ाफ़ा - अक्षर बढ़ाना। 
२. सुकूत - एक या अधिक अक्षर गिराना (घटाना)। जैसे मफ़ाईलुं से 'ईलुं'  गिरा दें तो 'मफ़ा' बचा जिसे 'फइल' (नगण) लिखते तथा 'फ़ेल' पढ़ते हैं।     
३. तहरीक - साकित अक्षर को मुतहर्रिक (चलता हुआ) करना।      
ज़िहाफ़ के २ और प्रकार  'ख़ास' और 'आम' ज़िहाफ़ भी हैं।   
(आ) मुज़ाहिफ़ (ज़िहाफ़ से प्रभावित या परिवर्तित) इरकान- 
दो हर्फ़ी      -  फई  (फ़ा)
तीन हर्फ़ी   -  फ़ेल (फ़इल), फ़ाइ 
चार हर्फ़ी    -  फ़ऊल, फ़ेइलुं 
पाँच हर्फ़ी   -   मफ़ऊल, फेइलात  
छ: हर्फ़ी     -  मफ़ाईल, फ़ाइलात, मफ़ाइलुं, मफ़ऊलुं, फेइलातुं, मुफ़्तइलुं
सात हर्फ़ी   -  मफ़ाइलतुं, मफ़ाईलां
आठ हर्फ़ी   -  मुस्तफइलान, फ़ाइलातान, मफ़ाईलान 
रेखांकित अक्षर (हर्फ) में मात्रा बहुत संक्षिप्त है जिसकी गणना नहीं की जाती। उर्दू छंद शास्त्र में गुरु को दो लघु और दो लघु को गुरु करने से एक रुकन के कई मात्रिक समायोजन बनते हैं। ध्यान रहे कि लघु-गुरु का क्रम न बदले। 
फाइलातुन = २१२११ है गनीमत, १११२११ रहम तो कर, २१११११ बोल कुछ मत, २१२२ आदमी को, १११११११ कल तलक हम, २१११२ भूल गलती, १११२२ सनम आजा आदि।  
कुछ अरूजियों ने आठ और नौ हर्फ़ी इरकान बनाने की कोशिश की है। नए-नए इरकान लगातार बनाये जा रहे हैं। 
***
www.divyanarmada.in, #हिंदी_ब्लॉगर 

सोमवार, 11 सितंबर 2017

gan

छंद चर्चा:
आग्नेय महापुराण अध्याय ३२८
छंदों के गण और गुरु-लघु की व्यवस्था
"अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठ! अब मैं वेड मन्त्रों के अनुसार पिन्गलोक्त छंदों का क्रमश: वर्णन करूँगा। मगण, नगण, भगण, यगण, जगण, रगण, सगण, और तगण ये ८ गण होते हैं। सभी गण ३-३ अक्षरों के हैं। इनमें मगण के सभी अक्षर गुरु (SSS) और नगण के सब अक्षर लघु होते हैं। आदि गुरु (SII) होने से 'भगण' तथा आदि लघु (ISS) होने से 'यगण'  होता है। इसी प्रकार अन्त्य गुरु होने से 'सगण' तथा अन्त्य लघु होने से 'तगण' (SSI) होता है। पाद के अंत में वर्तमान ह्रस्व अक्षर विकल्प से गुरु माना जाता है। विसर्ग,  अनुस्वार, संयुक्त अक्षर (व्यंजन), जिव्हामूलीय तथाउपध्मानीय अव्यहित पूर्वमें स्थित होने पर 'ह्रस्व' भी 'गुरु' माना जाता है, दीर्घ तो गुरु है ही। गुरु का संकेत 'ग' और लघु का संकेत 'ल' है। ये 'ग' और 'ल' गण नहीं हैं। 'वसु' शब्द ८ की और 'वेद' शब्द ४ की संज्ञा हैं, इत्यादि बातें लोक के अनुसार जाननी चाहिए। १-३।।
  
इस प्रकार आदि आग्नेय पुराण में 'छंदस्सारका कथन' नामक तीन सौ अट्ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ।।३२८।।   [आभार:  कल्याण, अग्निपुराण, गर्ग संहिता, नरसिंहपुराण अंक, वर्ष ४५, संख्या १, जनवरी १९७१, पृष्ठ ५४६, सम्पादक- हनुमान प्रसाद पोद्दार, प्रकाशक गीताप्रेस, गोरखपुर।]                                                                      ***                                    
salil.sanjiv@gmail.com, 9425183244
http://divyanarmada.blogspot.com

शनिवार, 31 मई 2014

kundali milan men gan vichar: sanjiv

लेख: 
कुंडली मिलान में गण-विचार
संजीव 
*








वैवाहिक संबंध की चर्चा होने पर लड़का-लड़की की कुंडली मिलान की परंपरा भारत में है. कुंडली में वर्ण का १, वश्य के २, तारा के ३, योनि के ४, गृह मैटरर के ५, गण के ६, भकूट के ७ तथा नाड़ी के ८ कुल ३६ गुण होते हैं.जितने अधिक गुण मिलें विवाह उतना अधिक सुखद माना जाता है. इसके अतिरिक्त मंगल दोष का भी  विचार किया जाता है. 

कुंडली मिलान में 'गण' के ६ अंक होते हैं. गण से आशय मन:स्थिति या मिजाज (टेम्परामेन्ट) के तालमेल से हैं. गण अनुकूल हो तो दोनों में उत्तम सामंजस्य और समन्वय उत्तम होने तथा गण न मिले तो शेष सब अनुकूल होने पर भी अकारण वैचारिक टकराव और मानसिक क्लेश होने की आशंका की जाती है. दैनंदिन जीवन में छोटी-छोटी बातों में हर समय एक-दूसरे की सहमति लेना या एक-दूसरे से सहमत होना संभव नहीं होता,  दूसरे को सहजता से न ले सके और टकराव हो तो पूरे परिवार की मानसिक शांति नष्ट होती है। गण भावी पति-पत्नी के वैचारिक साम्य और सहिष्णुता को इंगित करते हैं 

ज्योतिष के प्रमुख ग्रन्थ कल्पद्रुम के अनुसार निम्न २ स्थितियों में गण दोष को महत्त्वहीन कहा गया है:

१. 'रक्षो गणः पुमान स्याचेत्कान्या भवन्ति मानवी । केपिछान्ति तदोद्वाहम व्यस्तम कोपोह नेछति ।।' 

अर्थात जब जातक का कृतिका, रोहिणी, स्वाति, मघा, उत्तराफाल्गुनी, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढा नक्षत्रों में जन्म हुआ हो।

        २. 'कृतिका रोहिणी स्वामी मघा चोत्त्राफल्गुनी । पूर्वाषाढेत्तराषाढे न क्वचिद गुण दोषः ।।'

अर्थात जब वर-कन्या के राशि स्वामियों अथवा नवांश के स्वामियों में मैत्री हो।

      गण को ३ वर्गों 1-देवगण, 2-नर गण, 3-राक्षस गण में बाँटा गया है। गण मिलान ३ स्थितियाँ हो सकती हैं:

1. वर-कन्या दोनों समान गण के हों तो सामंजस्य व समन्वय उत्तम होता है. 

2. वर-कन्या देव-नर हों तो सामंजस्य संतोषप्रद होता है ।

३. वर-कन्या देव-राक्षस हो तो सामंजस्य न्यून होने के कारण पारस्परिक टकराव होता है ।

शारंगीय के अनुसार; वर राक्षस गण का और कन्या मनुष्य गण की हो तो विवाह उचित होगा। इसके विपरीत वर मनुष्य गण का एवं कन्या राक्षस गण की हो तो विवाह उचित नहीं अर्थात सामंजस्य नहीं होगा। 

सर्व विदित है कि देव सद्गुणी किन्तु विलासी, नर या मानव परिश्रमी तथा संयमी एवं असुर या राक्षस दुर्गुणी, क्रोधी तथा अपनी इच्छा अन्यों पर थोपनेवाले होते हैं।  

भारत में सामान्यतः पुरुषप्रधान परिवार हैं अर्थात पत्नी सामान्यतः पति की अनुगामिनी होती है। युवा अपनी पसंद से विवाह करें या अभिभावक तय करें दोनों स्थितियों में वर-वधु के जीवन के सभी पहलू एक दूसरे को विदित नहीं हो पाते गण मिलान अज्ञात पहलुओं का संकेत कर सकता है गण को कब-कितना महत्त्व देना है यह उक्त दोनों तथ्यों तथा वर-वधु के स्वभाव, गुणों, शैक्षिक-सामाजिक-आर्थिक स्थितियों के परिप्रेक्ष्य में विचारकर तय करना चाहिए। 

   
***