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सोमवार, 29 अप्रैल 2013


सम्भोग से समाधि तक



***************
संभोग
एक शब्द
या एक स्थिति
या कोई मंतव्य
विचारणीय है .........

सम + भोग
समान भोग हो जहाँ
अर्थात
बराबरी के स्तर पर उपयोग करना
अर्थात दो का होना
और फिर
समान स्तर पर समाहित होना
समान रूप से मिलन होना
भाव की समानीकृत अवस्था का होना
वो ही तो सम्भोग का सही अर्थ हुआ
फिर चाहे सृष्टि हो
वस्तु हो , मानव हो या दृष्टि हो
जहाँ भी दो का मिलन
वो ही सम्भोग की अवस्था हुयी

समाधि
सम + धी (बुद्धि )
समान हो जाये जहाँ बुद्धि
बुद्धि में कोई भेद न रहे
कोई दोष दृष्टि न हो
निर्विकारता का भाव जहाँ स्थित हो
बुद्धि शून्य में स्थित हो जाये
आस पास की घटित घटनाओं से उन्मुख हो जाये
अपना- पराया
मेरा -तेरा ,राग- द्वेष
अहंता ,ममता का
जहाँ निर्लेप हो
एक चित्त
एक मन
एक बुद्धि का जहाँ
स्तर समान हो
वो ही तो है समाधि की अवस्था

सम्भोग से समाधि कहना
कितना आसान है
जिसे सबने जाना सिर्फ
स्त्री पुरुष
या प्रकृति और पुरुष के सन्दर्भ में ही
उससे इतर
न देखना चाहा न जानना
गहन अर्थों की दीवारों को
भेदने के लिए जरूरी नहीं
शस्त्रों का ही प्रयोग किया जाए
कभी कभी कुछ शास्त्राध्ययन
भी जरूरी हो जाता है
कभी कभी कुछ अपने अन्दर
झांकना भी जरूरी हो जाता है
क्योंकि किवाड़ हमेशा अन्दर की ओर ही खुलते हैं
बशर्ते खोलने का प्रयास किया जाए

जब जीव का परमात्मा से मिलन हो जाये
या जब अपनी खोज संपूर्ण हो जाए
जहाँ मैं का लोप हो जाए
जब आत्मरति से परमात्म रति की और मुड जाए
या कहिये
जीव रुपी बीज को
उचित खाद पानी रुपी
परमात्म तत्व मिल जाए
और दोनों का मिलन हो जाए
वो ही तो सम्भोग है
वो ही तो मिलन है
और फिर उस मिलन से
जो सुगन्धित पुष्प खिले
और अपनी महक से
वातावरण को सुवासित कर जाए
या कहिये
जब सम्भोग अर्थात
मिलन हो जाये
तब मैं और तू का ना भान रहे
एक अनिर्वचनीय सुख में तल्लीन हो जाए
आत्म तत्व को भी भूल जाए
बस आनंद के सागर में सराबोर हो जाए
वो ही तो समाधि की स्थिति है
जीव और ब्रह्म का सम्भोग से समाधि तक का
तात्विक अर्थ तो
यही है
यही है
यही है

काया के माया रुपी वस्त्र को हटाना
आत्मा का आत्मा से मिलन
एकीकृत होकर
काया को विस्मृत करने की प्रक्रिया
और अपनी दृष्टि का विलास ,विस्तार ही तो
वास्तविक सम्भोग से समाधि तक की अवस्था है
मगर आम जन तो
अर्थ का अनर्थ करता है
बस स्त्री और पुरुष
या प्रकृति और पुरुष की दृष्टि से ही
सम्भोग और समाधि को देखता है
जबकि दृष्टि के बदलते
बदलती सृष्टि ही
सम्भोग से समाधि की अवस्था है

ब्रह्म और जीव का परस्पर मिलन
और आनंद के महासागर में
स्वयं का लोप कर देना ही
सम्भोग से समाधि की अवस्था है
गर देह के गणित से ऊपर उठ सको
तो करना प्रयास
सम्भोग से समाधि की अवस्था तक पहुंचने का
तन के साथ मन का मोक्ष
यही है
यही है
यही है

जब धर्म जाति , मैं , स्त्री पुरुष
या आत्म तत्व का भान मिट जाएगा
सिर्फ आनंद ही आनंद रह जायेगा
वो ही सम्भोग से समाधि की अवस्था हुयी

जीव रुपी यमुना का
ब्रह्म रुपी गंगा के साथ
सम्भोग उर्फ़ संगम होने पर
सरस्वती में लय हो जाना ही
आनंद या समाधि है
और यही
जीव , ब्रह्म और आनंद की
त्रिवेणी का संगम ही तो
शीतलता है
मुक्ति है
मोक्ष है


सम्भोग से समाधि तक के
अर्थ बहुत गहन हैं
सूक्ष्म हैं
मगर हम मानव
न उन अर्थों को समझ पाते हैं
और सम्भोग को सिर्फ
वासनात्मक दृष्टि से ही देखते हैं
जबकि सम्भोग तो
वो उच्च स्तरीय अवस्था है
जहाँ न वासना का प्रवेश हो सकता है
गर कभी खंगालोगे ग्रंथों को
सुनोगे ऋषियों मुनियों की वाणी को
करोगे तर्क वितर्क
तभी तो जानोगे इन लफ़्ज़ों के वास्तविक अर्थ
यूं ही गुरुकुल या पाठशालाएं नहीं हुआ करतीं
गहन प्रश्नो को बूझने के लिए
सूत्र लगाये जाते हैं जैसे
वैसे ही गहन अर्थों को समझने के लिए
जीवन की पाठशाला में अध्यात्मिक प्रवेश जरूरी होता है
तभी तो सूत्र का सही प्रतिपादन होता है
और मुक्ति का द्वार खुलता है
यूँ ही नहीं सम्भोग से समाधि तक कहना आसान होता है


********

शुक्रवार, 7 सितंबर 2012

हास्य रचना: प्रवचन संजीव 'सलिल'


हास्य रचना:
प्रवचन



संजीव 'सलिल'
 
*



आधी रात पुलिस अफसर ने पकड़ा एक मुसाफिर.
'नाम बात, तू कहाँ जा रहा?, क्या मकसद है आखिर?'

घुड़की सुन, गुम सिट्टी-पिट्टी, वह घबराकर बोला:
' जी हुजूर! प्रवचन सुनने जाता, न चोर, मैं भोला.'

हँसा ठठाकर अफसर 'तेरा झूठ पकड़ में आया.
चल थाने, कर कड़ी ठुकाई, सच जानूंगो भाया.'

'माई-बाप! है कसम आपकी, मैंने सच बोला है.
जाता किसका प्रवचन सुनने? राज न यह खोला है.'

'कह जल्दी, वरना दो हत्थड़ मार राज जानूँगा.'
'वह बोला: क्या सच न बोलकर व्यर्थ रार ठानूँगा.'

'देर रात को प्रवचन केवल मैं न, आप भी सुनते.
और न केवल मैं, सच बोलूँ? शीश आप भी धुनते.'

सब्र चुका डंडा फटकारा, गरजा थानेदार.
जल्दी पूरी बात बता वरना खायेगा मार.'

यात्री बोला:'मैं, तुम, यह, वह सबकी व्यथा निराली.
देर रात प्रवचन सुनते सब, देती नित घरवाली.



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Acharya Sanjiv verma 'Salil'

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रविवार, 5 अगस्त 2012

गीत: गीत के नीलाभ नभ पर... --संजीव 'सलिल'

कालजयी गीतकार राकेश जी को समर्पित:

एक गीत:
गीत के नीलाभ नभ पर...
संजीव 'सलिल'




*
गीत के नीलाभ नभ पर, चमकते राकेश की छवि
'सलिल' में बिम्बित तनिक हो, रचे सिकता स्वर्ण जैसी...
*




भावनाओं की लहरियाँ, कामनाओं की शिला पर,
सिर पटककर तोड़तीं दम, पुनर्जन्मित हो विहँसतीं.
नित नयी संभावनाओं के झंकोरे, ओषजन बन-
श्वास को नव आस देते, कोशिशें फिर-फिर किलकतीं..
स्वेद धाराएँ प्रवाहित हो अबाधित, आशु कवि सी
प्रीत के पीताभ पट पर,  खंचित अर्पण-पर्ण जैसी...
गीत के नीलाभ नभ पर, चमकते राकेश की छवि
'सलिल' में बिम्बित तनिक हो, रचे सिकता स्वर्ण जैसी...
*




क्षर करे आराधना, अक्षर निहारे मौन रहकर,
सत्य-शिव-सुंदर सुपासित, हो सुवासित आत्म गहकर.
लौह तन को वासना का, जंग कर कमजोर देता-
त्याग-संयम से बने स्पात, तप-आघात सहकर..
अग्नि-कण अगणित बनाते अमावस भी पूर्णिमा सी
नीत के अरुणाभ घट पर, निखरते  ऋतु-वर्ण जैसी..
गीत के नीलाभ नभ पर, चमकते राकेश की छवि
'सलिल' में बिम्बित तनिक हो, रचे सिकता स्वर्ण जैसी...
*




Acharya Sanjiv verma 'Salil'
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शुक्रवार, 20 जुलाई 2012

नवगीत: कागा हँसकर बोले काँव... --संजीव 'सलिल'

नवगीत:
कागा हँसकर बोले काँव...
संजीव 'सलिल'
*

*
चले श्वास-चौसर पर
आसों का शकुनी नित दाँव.
मौन रो रही कोयल
कागा हँसकर बोले काँव...
*
सम्बंधों को अनुबंधों ने
बना दिया बाज़ार.
प्रतिबंधों के धंधों के
आगे दुनिया लाचार.
कामनाओं ने भावनाओं को
करा दिया नीलाम.
बद को अच्छा माने दुनिया,
कहे बुरा बदनाम.



ठंडक देती धूप,
ताप देती है शीतल छाँव.
मौन रो रही कोयल
कागा हँसकर बोले काँव...
*
सद्भावों की सती तजी,
वर राजनीति रथ्या.
हरिश्चंद्र ने त्याग सत्य,
चुन लिया असत मिथ्या..
सत्ता-शूर्पनखा हित लड़ते
हाय! लक्ष्मण-राम.
खुद अपने दुश्मन बन बैठे
कहें- विधाता वाम..



मोह शहर का किया
उजाड़े अपने सुन्दर गाँव.
मौन रो रही कोयल
कागा हँसकर बोले काँव...
*
'सलिल' समय पर न्याय न होता,
करे देर अंधेर.
मार-मारकर बाज खा रहे
कुर्सी बैठ बटेर..
बेच रहे निष्ठाएँ अपनी,
बिना मोल बेदाम.
और कह रहे बेहयाई से
'भला करेंगे राम'.



अपने हाथों तोड़ खोजते
कहाँ खो गया ठाँव?
मौन रो रही कोयल
कागा हँसकर बोले काँव...

***************
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

अभिनव प्रयोग- गीत: कमल-कमलिनी विवाह --संजीव 'सलिल'

अभिनव प्रयोग-
गीत:
कमल-कमलिनी विवाह
संजीव 'सलिल'
*

pond_pink_lity_lotus.jpg

* रक्त कमल 
अंबुज शतदल कमल
अब्ज हर्षाया रे!
कुई कमलिनी का कर
गहने आया रे!...
*









* हिमकमल 
अंभज शीतल उत्पल देख रहा सपने
बिसिनी उत्पलिनी अरविन्दिनी सँग हँसने
कुंद कुमुद क्षीरज अंभज नीरज के सँग-
नीलाम्बुज नीलोत्पल नीलोफर भी दंग.

कँवल जलज अंबोज नलिन पुहुकर पुष्कर
अर्कबन्धु जलरुह राजिव वारिज सुंदर
मृणालिनी अंबजा अनीकिनी वधु मनहर

यह उसके, वह भी
इसके मन भाया रे!...
*








* नील कमल 
बाबुल ताल, तलैया मैया हँस-रोयें
शशिप्रभ कुमुद्वती कैरविणी को खोयें.
निशापुष्प कौमुदी-करों मेंहदी सोहे.
शारंग पंकज पुण्डरीक मुकुलित मोहें.

बन्ना-बन्नी, गारी गायें विष्णुप्रिया.
पद्म पुंग पुन्नाग शीतलक लिये हिया.
रविप्रिय श्रीकर कैरव को बेचैन किया

अंभोजिनी अंबुजा
हृदय अकुलाया रे!... 
*







* श्वेत कमल 
चंद्रमुखी-रविमुखी हाथ में हाथ लिये
कर्णपूर सौगन्धिक श्रीपद साथ लिये.
इन्दीवर सरसिज सरोज फेरे लेते.
मौन अलोही अलिप्रिय सात वचन देते.

असिताम्बुज असितोत्पल-शोभा कौन कहे?
सोमभगिनी शशिकांति-कंत सँग मौन रहे.
'सलिल'ज हँसते नयन मगर जलधार बहे

श्रीपद ने हरिकर को
पूर्ण बनाया रे!...
***************






* ब्रम्ह कमल
टिप्पणी:
* कमल, कुमुद, व कमलिनी का प्रयोग कहीं-कहीं भिन्न पुष्प प्रजातियों के रूप में है, कहीं-कहीं एक ही प्रजाति के पुष्प के पर्याय के रूप में. कमल के रक्तकमल, नीलकमल  तथा श्वेतकमल तीन प्रकार रंग के आधार पर वर्णित हैं. कमल-कमलिनी का विभाजन बड़े-छोटे आकार के आधार पर प्रतीत होता है. कुमुद को कहीं कमल, कहीं कमलिनी कहा गया है. कुमद के साथ कुमुदिनी का भी प्रयोग हुआ है. कमल सूर्य के साथ उदित होता है, उसे सूर्यमुखी, सूर्यकान्ति, रविप्रिया आदि कहा गया है. रात में खिलनेवाली कमलिनी को शशिमुखी, चन्द्रकान्ति, रजनीकांत,  कहा गया है. रक्तकमल के लाल रंग की श्री तथा हरि के कर-पद पल्लवों से समानता के कारण हरिपद, श्रीकर जैसे पर्याय बने हैं, सूर्य, चन्द्र, विष्णु, लक्ष्मी, जल, नदी, समुद्र, सरोवर आदि  से जन्म के आधार पर बने पर्यायों के साथ जोड़ने पर कमल के अनेक और पर्यायी शब्द बनते हैं. मुझसे अनुरोध था कि कमल के सभी पर्यायों को गूँथकर रचना करूँ. माँ शारदा के श्री चरणों में यह कमल-माल अर्पित कर आभारी हूँ. सभी पर्यायों को गूंथने पर रचना अत्यधिक लंबी होगी. पाठकों की प्रतिक्रिया ही बताएगी कि गीतकार निकष पर खरा उतर सका या नहीं?

* कमल हर कीचड़ में नहीं खिलता. गंदे नालों में कमल नहीं दिखेगा भले ही कीचड़ हो. कमल का उद्गम जल से है इसलिए वह नीरज, जलज, सलिलज, वारिज, अम्बुज, तोयज, पानिज, आबज, अब्ज है. जल का आगर नदी, समुद्र, तालाब हैं... अतः कमल सिंधुज, उदधिज, पयोधिज, नदिज, सागरज, निर्झरज, सरोवरज, तालज भी है. जल के तल में मिट्टी है, वहीं जल और मिट्टी में मेल से कीचड़ या पंक में कमल का बीज जड़ जमता है इसलिए कमल को पंकज कहा जाता है. पंक की मूल वृत्ति मलिनता है किन्तु कमल के सत्संग में वह विमलता का कारक हो जाता है. क्षीरसागर में उत्पन्न होने से वह क्षीरज है. इसका क्षीर (मिष्ठान्न खीर) से कोई लेना-देना नहीं है. श्री (लक्ष्मी) तथा विष्णु की हथेली तथा तलवों की लालिमा से रंग मिलने के कारण रक्त कमल हरि कर, हरि पद, श्री कर, श्री पद भी कहा जाता किन्तु अन्य कमलों को यह विशेषण नहीं दिया जा सकता. पद्मजा लक्ष्मी के हाथ, पैर, आँखें तथा सकल काया कमल सदृश कही गयी है. पद्माक्षी, कमलाक्षी या कमलनयना के नेत्र गुलाबी भी हो सकते हैं, नीले भी. सीता तथा द्रौपदी के नेत्र क्रमशः गुलाबी व् नीले कहे गए हैं और दोनों को पद्माक्षी, कमलाक्षी या कमलनयना विशेषण दिए गये हैं. करकमल और चरणकमल विशेषण करपल्लव तथा पदपल्लव की लालिमा व् कोमलता को लक्ष्य कर कहा जाना चाहिए किन्तु आजकल चाटुकार कठोर-काले हाथोंवाले लोगों के लिये प्रयोग कर इन विशेषणों की हत्या कर देते हैं. श्री राम, श्री कृष्ण के श्यामल होने पर भी उनके नेत्र नीलकमल तथा कर-पद रक्तता के कारण करकमल-पदकमल कहे गये. रीतिकालिक कवियों को नायिका के अन्गोंपांगों के सौष्ठव के प्रतीक रूप में कमल से अधिक उपयुक्त अन्य प्रतीक नहीं लगा. श्वेत कमल से समता रखते चरित्रों को भी कमल से जुड़े विशेषण मिले हैं. मेरे पढ़ने में ब्रम्हकमल, हिमकमल से जुड़े विशेषण नहीं आये... शायद इसका कारण इनका दुर्लभ होना है. इंद्र कमल (चंपा) के रंग चम्पई (श्वेत-पीत का मिश्रण) से जुड़े विशेषण नायिकाओं के लिये गर्व के प्रतीक हैं किन्तु पुरुष को मिलें तो निर्बलता, अक्षमता, नपुंसकता या पाण्डुरोग (पीलिया ) इंगित करते हैं. कुंती तथा कर्ण के पैर कोमलता तथा गुलाबीपन में साम्यता रखते थे तथा इस आधार पर ही परित्यक्त पुत्र कर्ण को रणांगन में अर्जुन के सामने देख-पहचानकर वे बेसुध हो गयी थीं.

*

हिम कमल

विकिपीडिया, एक मुक्त ज्ञानकोष से

चीन के सिन्चांग वेवूर स्वायत्त प्रदेश में खड़ी थ्येनशान पर्वत माले में समुद्र सतह से तीन हजार मीटर ऊंची सीधी खड़ी चट्टानों पर एक विशेष किस्म की वनस्पति उगती है, जो हिम कमल के नाम से चीन भर में मशहूर है। हिम कमल का फूल एक प्रकार की दुर्लभ मूल्यवान जड़ी बूटी है, जिस का चीनी परम्परागत औषधि में खूब प्रयोग किया जाता है। विशेष रूप से ट्यूमर के उपचार में, लेकिन इधर के सालों में हिम कमल की चोरी की घटनाएं बहुत हुआ करती है, इस से थ्येन शान पहाड़ी क्षेत्र में उस की मात्रा में तेजी से गिरावट आयी। वर्ष 2004 से हिम कमल संरक्षण के लिए व्यापक जनता की चेतना उन्नत करने के लिए प्रयत्न शुरू किए गए जिसके फलस्वरूप पहले हिम कमल को चोरी से खोदने वाले पहाड़ी किसान और चरवाहे भी अब हिम कमल के संरक्षक बन गए हैं।
* दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
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मंगलवार, 17 जुलाई 2012

मुक्तिका: अम्मी --संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

अम्मी

संजीव 'सलिल'
*
माहताब की जुन्हाई में, झलक तुम्हारी पाई अम्मी.
दरवाजे, कमरे आँगन में, हरदम पडीं दिखाई अम्मी.

बसा सासरे केवल तन है. मन तो तेरे साथ रह गया.
इत्मीनान हमेशा रखना- बिटिया नहीं पराई अम्मी.

भावज जी भर गले लगाती, पर तेरी कुछ बात और थी.
तुझसे घर अपना लगता था, अब बाकी पहुनाई अम्मी.

कौन बताये कहाँ गयी तू ? अब्बा की सूनी आँखों में,
जब भी झाँका पडी दिखाई तेरी ही परछाँई अम्मी.

अब्बा में तुझको देखा है, तू ही बेटी-बेटों में है.
सच कहती हूँ, तू ही दिखती भाई और भौजाई अम्मी.

तू दीवाली, तू ही ईदी, तू रमजान दिवाली होली.
मेरी तो हर श्वास-आस में तू ही मिली समाई अम्मी.

तू कुरआन, तू ही अजान है, तू आँसू, मुस्कान, मौन है.
जब भी मैंने नजर उठाई, लगा अभी मुस्काई अम्मी.

*********

शनिवार, 14 जुलाई 2012

गीत: हारे हैं... संजीव 'सलिल'

गीत:

हारे हैं...





संजीव 'सलिल'
*
कौन किसे कैसे समझाए
सब निज मन से हारे हैं?.....
*



इच्छाओं की कठपुतली हम
बेबस नाच दिखाते हैं.
उस पर भी तुर्रा यह खुद को
तीसमारखाँ पाते हैं.
रास न आये सच कबीर का
हम बुदबुद गुब्बारे हैं...
*


बिजली के जिन तारों से
टकरा पंछी मर जाते हैं.
हम नादां उनसे बिजली ले
घर में दीप जलाते हैं.
कोई न जाने कब चुप हों
नाहक बजते इकतारे हैं...
*


पान, तमाखू, जर्दा, गुटका,
खुद खरीदकर खाते हैं.
जान हथेली पर लेकर
वाहन जमकर दौड़ाते हैं.
'सलिल' शहीदों के वारिस,
या दिशाहीन गुब्बारे हैं...
*



करें भोर से भोर शोर हम,
चैन न लें, ना लेने दें.
अपनी नाव डुबाते, औरों को
नैया ना खेने दें.
वन काटे, पर्वत खोदे,
सच हम निर्मम हत्यारे है...
*




नदी-सरोवर पाट दिये,
जल-पवन प्रदूषित कर हँसते.
सर्प हुए हम खाकर अंडे-
बच्चों को खुद ही डंसते.
चारा-काँटा फँसा गले में
हम रोते मछुआरे हैं...
*
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
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बुधवार, 4 जुलाई 2012

मुक्तिका: सूना-सूना पनघट हैं संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

सूना-सूना पनघट हैं

संजीव 'सलिल'
*




सूना-सूना पनघट हैं, सूखी-सूखी अमराई है।
चौपालों-खलिहानों में, सन्नाटे की पहुनाई है।।

बरगद बब्बा गुजर गए,  पछुआ की सोच विषैली है।
पात झरे पीपल के, पुरखिन पुरवैया पछताई है।।

बदलावों की आँधी में, जड़ उखड़ी जबसे जंगल की।
हत्या हुई पहाड़ों की, नदियों की शामत आई है।।

कोंवेन्ट जा जुही-चमेली-चंपा के पर उग आये।
अपनापन अंगरेजी से है, हिन्दी  मात पराई है।।

भोजपुरी, अवधी, बृज गुमसुम, बुन्देली के फूटे भाग।
छत्तीसगढ़ी, निमाड़ी बिसरी, हाडौती  पछताई है।।

मोदक-भोग न अब लग पाए, चौथ आयी है खाओ केक।
दिया जलाना भूले बच्चे, कैंडल हँस  सुलगाई है।।

श्री गणेश से मूषक बोला, गुड मोर्निंग राइम सुन लो।
'सलिल'' आरती करे कौन? कीर्तन करना रुसवाई है।।

***********

रविवार, 24 जून 2012

मुक्तिका: नागरिक से बड़ा... संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
नागरिक से बड़ा...
संजीव 'सलिल'
*
नागरिक से बड़ा नेता का कभी रुतबा न हो.  
तभी है जम्हूरियत कोई बशर रोता न हो..    

आसमां तो हर जगह है बता इसमें खास क्या?
खासियत हो कि परिंदा उड़ने से डरता न हो.. 

मुश्किलों से डर न तू दीपक जला ले आस का.
देख दामन हो सलामत, हाथ भी जलता न हो.. 

इस जमीं का क्या करूँ मैं? ऐ खुदा! क्यों की अता?
ख्वाब की फसलें अगर कोई यहाँ बोता न हो..

व्यर्थ है मर्दानगी नाहक न इस पर फख्र कर.
बता कोई पेड़ जिस पर परिंदा सोता न हो..

घाट पर मत जा जहाँ इंसान मुँह धोता न हो.
'सलिल' वह निर्मल नहीं जो निरंतर बहता न हो..

पदभार 26

******

सोमवार, 18 जून 2012

अभिनव बाल गीत: -- संजीव 'सलिल'

अभिनव बाल गीत:




संजीव 'सलिल'



*
शशि सा सुन्दर मुख मिला,
मेघ राशि से बाल.
बाल गीत रच बाल पर,
सचमुच 'सलिल' निहाल..
*




*
लहर लहर लहरा रहे, बाल पवन संग झूम.
गीत, गजल लिखता गगन, तुमको क्या मालूम.




केशव कईसन अस करी, अस कबहूँ न कराय.
नाना बाबा आह भर, बालों पर बलि जांय..



नागिन सम बल खा रहे,
बाल बुला भूचाल.
सर्वनाम होते फ़िदा,
संज्ञा करें धमाल..


 





 बाल हाल बतला रहे, पिया डालते तेल.
हौले-हौले गूंथते, रूचि-रूचि पोनीटेल.




बाल-बाल बच बाल से, बनते बाल बवाल..
ग्वाल-बाल की फ़ौज लख, हों अरमान निढाल..



क्रोध प्रिया का देखकर,
खड़े पिया के बाल.
राम बचाएं लग रहा,
घर जी का जंजाल..  
*




Acharya Sanjiv verma 'Salil'
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स्मृति गीत: हर दिन पिता याद आते हैं... --संजीव 'सलिल'

स्मृति गीत:
हर दिन पिता याद आते हैं...

संजीव 'सलिल'

*

जान रहे हम अब न मिलेंगे.

यादों में आ, गले लगेंगे.

आँख खुलेगी तो उदास हो-

हम अपने ही हाथ मलेंगे.

पर मिथ्या सपने भाते हैं.

हर दिन पिता याद आते हैं...

*

लाड, डांट, झिडकी, समझाइश.

कर न सकूँ इनकी पैमाइश.

ले पहचान गैर-अपनों को-

कर न दर्द की कभी नुमाइश.

अब न गोद में बिठलाते हैं.

हर दिन पिता याद आते हैं...

*

अक्षर-शब्द सिखाये तुमने.

नित घर-घाट दिखाए तुमने.

जब-जब मन कोशिश कर हारा-

फल साफल्य चखाए तुमने.

पग थमते, कर जुड़ जाते हैं

हर दिन पिता याद आते हैं...

*
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
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मंगलवार, 12 जून 2012

दोहा गीत: फिर प्राची से... -- संजीव 'सलिल'

दोहा गीत:
फिर प्राची से...
संजीव 'सलिल'
*


*
फिर प्राची से प्रगटा है रवि...
*
जाग रात भर कर अथक, अंधकार से जंग.
ले उजियारा आ गया, सबको करता दंग..

कलरव स्वागत कर रहे, अगिन विहग कर गान.
जितनी ताकत पंख में, उतनी भरें उड़ान..

मन-प्राणों में ज्वलित हुई पवि,
फिर प्राची से प्रगटा है रवि...
*


उषा सुंदरी सँग ले, पुलकित लाल कपोल.
अपरूपा सौंदर्य शुचि, लख दिल जाए डोल..

कनक किरण भू को करे, छूकर नम्र प्रणाम.
शयन कक्ष में झाँककर, कहे त्याग विश्राम..

जाग जगा जग को कविता कवि,
फिर प्राची से प्रगटा है रवि...
*



काम त्याग दे भोर भई,  रहे काम से काम.
फल की चिंता छोड़ दे, भला करेंगे राम..

नाम न कोई रख सके, कर कुछ ऐसा काम.
नाम मिले- हो देखकर, 'सलिल' प्रसन्न अनाम..

ज्यों की त्यों चादर, उज्जवल छवि,
फिर प्राची से प्रगटा है रवि...



*****
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बुधवार, 6 जून 2012

मुक्तिका: मुस्कुराते रहो... --संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
मुस्कुराते रहो...
संजीव 'सलिल'

*
 
*
मुस्कुराते रहो, खिलखिलाते रहो
स्वर्ग नित इस धरा पर बसाते रहो..
*
गैर कोई नहीं, है अपरिचित अगर
बाँह फैला गले से लगाते रहो..
*
बाग़ से बागियों से न दूरी रहे.
फूल बलिदान के नव खिलाते रहो..
*
भूल करते सभी, भूलकर भूल को
ख्वाब नयनों में अपने सजाते रहो..
*
नफरतें दूर कर प्यार के, इश्क के
गीत, गज़लें 'सलिल' गुनगुनाते रहो..
***

शनिवार, 12 मई 2012

गीत: छोड़ दें थोड़ा... संजीव 'सलिल'

गीत:
छोड़ दें थोड़ा...
संजीव 'सलिल'
*


*
जोड़ा बहुत,
छोड़ दें थोड़ा...
*
चार कमाना, एक बाँटना.
जो बेहतर हो वही छांटना-
मंझधारों-भँवरों से बचना-
छूट न जाए घाट-बाट ना.
यही सिखाया परंपरा ने
जुत तांगें में
बनकर घोड़ा...
*
जब-जब अंतर्मुखी हुए हो.
तब एकाकी दुखी हुए हो.
मायावी दुनिया का यह सच-
आध्यात्मिक कर त्याग सुखी हो.
पाठ पढ़ाया पराsपरा ने.
कुंभकार ने
रच-घट फोड़ा...
*
मेघाच्छादित आसमान सच.
सूर्य छिपा पर भासमान सच.
छतरीवाला प्रगट, न दिखता.
रजनी कहती है विहान सच.
फूल धूल में भी खिल हँसता-
खाता शूल
समय से कोड़ा...
***

बुधवार, 9 मई 2012

गीत: लिखें कहानी... संजीव 'सलिल'

गीत:
लिखें कहानी...
संजीव 'सलिल'
*
सुनी कही कई बार,
आओ! अब लिखें कहानी.
समय कहे भू पर आये
इंसां वरदानी...
*
छिद्रित है ओजोन परत,
कुछ फिक्र कहीं हो.
घातक पराबैंगनी किरणें,
ज़िक्र कहीं हो.
धरती माँ को पहनायें
मिल चूनर धानी...
*
वायु-प्रदूषण से दूभर
सांसें ले पाना.
दूषित पानी पी मुश्किल
जिंदा रह पाना.
शोर कम करो,
मौन वरो कहते हैं ज्ञानी...
*
पुनः करें उपयोग,
समेटें बिखरा कचरा.
सुंदर-स्वच्छ स्वर्ग सी
सुंदर हो वसुंधरा.
गरल पियें अमृत बाँटें,
हो मीठी बानी...
****


Acharya Sanjiv verma 'Salil'

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गीत: जितनी ऑंखें उतने सपने... --संजीव 'सलिल'

दोहा गीत:
जितनी ऑंखें उतने सपने...
संजीव 'सलिल'
*
*
जितनी ऑंखें उतने सपने...
*
मैंने पाये कर कमल, तुमने पाये हाथ.
मेरा सिर ऊँचा रहे, झुके तुम्हारा माथ..

प्राणप्रिये जब भी कहा, बना तुम्हारा नाथ.
हरजाई हो चाहता, सात जन्म का साथ..

कितने बेढब मेरे नपने?
जितनी ऑंखें उतने सपने...
*
घड़ियाली आँसू बहा, करता हूँ संतोष.
अश्रु न तेरे पोछता, अनदेखा कर रोष..

टोटा जिसमें टकों का, ऐसा है धन-कोष.
अपने मुँह से खुद किया, अपना ही जय-घोष..

लगते गैर मगर हैं अपने,
जितनी ऑंखें उतने सपने...
*
गोड़-लात की जड़ें थीं, भू में गहरी खूब.
चरणकमल आधार बिन, उड़-गिर जाते डूब..

अपने तक सीमित अगर, सांसें जातीं ऊब.
आसें हरियातीं 'सलिल', बन भू-रक्षक दूब..

चल मन-मंदिर हरि को जपने,
जितनी ऑंखें उतने सपने...
*****
*

Acharya Sanjiv verma 'Salil'

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गुरुवार, 3 मई 2012

गीत: हमें जरूरत है --संजीव 'सलिल'

गीत:  
हमें जरूरत है...  
--संजीव 'सलिल'
*
हमें जरूरत है लालू की...
*
हम बिन पेंदी के लोटे हैं.
दिखते खरे मगर खोटे हैं.
जिसने जमकर लात लगाई
उसके चरणों में लोटे हैं.
लगा मुखौटा हर चेहरे पर
भाये आरक्षण कोटे हैं.
देख समस्या आँख मूँद ले
हमें जरूरत है टालू की...
*
औरों पर उँगलियाँ उठाते.
लेकिन खुद के दोष छिपाते.
नहीं सराहे यदि दुनिया तो
खुद ही खुद की कीरति गाते.
तन से तन की चाह हमेशा
मन से मन को मिला न पाते.
देख चढ़ाव भागते पीछे
हमें जरूरत भू ढालू की...
*
दिखती है लंबी छाया पर-
कद से हम सचमुच बौने हैं...
लेट पालने, चूस अँगूठा
चाह रहे होते गौने हैं.
शेर-मांद में डाल रहे सिर
मन भटकाते मृग छौने हैं.
जो कहता हो ठाकुरसुहाती
हमें जरूरत उस चालू की...
*
Acharya Sanjiv verma 'Salil'

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शुक्रवार, 13 अप्रैल 2012

मुक्तिका : 'काव्य धारा' है प्रवाहित --संजीव 'सलिल'


मुक्तिका :
'काव्य धारा' है प्रवाहित
संजीव 'सलिल'
*
'काव्य धारा' है प्रवाहित, सलिल की कलकल सुनें.
कह रही किलकिल तजें, आनंदमय सपने बुनें..

कमलवत रह पंक में, तज पंक को निर्मल बनें.
दीप्ति पाकर दीपशिख सम, जलें- तूफां में तनें..

संगमरमर संगदिल तज, हाथ माटी में सनें.
स्वेद-श्रम कोशिश धरा से, सफलता हीरा खनें..

खलिश दें बाधाएँ जब भी, अचल-निर्मम हो धुनें.
है अरूप अनूप सच, हो मौन उसको नित गुनें..

समय-भट्टी में न भुट्टे सदृश गुमसुम भुनें.
पिघलकर स्पात बनने की सदा राहें चुनें..
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Acharya Sanjiv verma 'Salil'
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रविवार, 4 मार्च 2012

दोहा सलिला: गले मिले दोहा यमक --संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:
गले मिले दोहा यमक
संजीव 'सलिल'
*
देव! दूर कर बला हर, हो न करबला और.
जयी न हो अन्याय फिर, चले न्याय का दौर..
*
'सलिल' न हो नवजात की, अब कोइ नव जात.
मानव मानव एक हों, भेद नहीं हो ज्ञात..
*
मन असमंजस में पड़ा, सुनकर खाना शब्द.
खा या खा ना क्या कहा?, सोच रहा नि:शब्द..
*
किस उधेड़-बुन में पड़े, फेरे मुँह चुपचाप.
फिर उधेड़-बुन कर सकें, स्वेटर पूरा आप..
*
होली हो ली हो रही, होगी नहीं समाप्त.
रंग नेह का हमेशा, रहे जगत में व्याप्त..
*
खाला ने खाली दवा, खाली शीशी फेंक.
देखा खालू दूर से, आँख रहे हैं सेंक..
*
आपा आपा खो नहीं, बिगड़ जायेगी बात.
जो आपे में ना रहे, उसकी होती मात..
*
स्वेद सना तन कह रहा, प्रथा सनातन खूब.
वरे सफलता वही जो, श्रम में जाए डूब..
*
साजन सा जन दूसरा, बिलकुल नहीं सुहाय.
सजनी अपलक रात में, जागे नींद न आय..
*
बाल-बाल बच गये सब, ग्वाल बाल रह मौन.
बाल किशन के खींचकर, भागी बाला कौन?
*
बाला का बाला चमक, बता गया चुप नाम.
मैया से किसने करी, चुगली लेकर नाम..
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शुक्रवार, 2 मार्च 2012

मुक्तिका क्या हुआ?? --संजीव 'सलिल'

मुक्तिका
क्या हुआ??
संजीव 'सलिल'
*
 होली भाँग ही गटकी नहीं तो क्या हुआ?
छान कर ठंडा जी भर पी नहीं तो क्या हुआ?? 

हो चुकी होगी हमेशा, मौसमी होली नहीं..
हर किसी से मिल गले, टोली नहीं तो क्या हुआ??

माँगकर गुझिया गटक, घर दोस्त के जा मत हिचक.
चौंक मत चौके में मेवा, घी नहीं तो क्या हुआ??

जो समाई आँख में उससे गले मिल खिलखिला.
दिल हुआ बागी मुनादी की नहीं तो क्या हुआ??

छूरियाँ भी हैं बगल में, राम भी मुँह में 'सलिल'
दूर रह नेता लिये गोली नहीं तो क्या हुआ??
बाग़ है दिल दाद सुनकर, हो रहा दिल बाग यूँ.

फूल-कलियाँ झूमतीं तितली नहीं तो क्या हुआ?? 

सौरभी मस्ती नशीली, ले प्रभाकर पहनता
केसरी बाना, हवा बागी नहीं तो क्या हुआ??

खूबसूरत कह रहे सीरत मगर परखी नहीं.
ब्याज प्यारा मूल गर बाकी नहीं तो क्या हुआ..

सँग हबीबों का मिले तो कौन चाहेगा नहीं
ख़ास खाते आम गो फसली नहीं तो क्या हुआ??

धूप-छाँवी ज़िंदगी में, शोक को सुख मान ले.
हो चुकी जो आज वह होली नहीं तो क्या हुआ??

केसरी बालम कहाँ है? खोजतीं पिचकारियाँ.
आँख में सपना धनी धानी नहीं तो क्या हुआ??

दुश्मनों से दोस्ती कर, दोस्त को दुश्मन न कर.
यार से की यार ने यारी नहीं तो क्या हुआ??

नाज़नीनें चेहरे पर प्यार से मलतीं गुलाल
अबके किस्मत आपकी चमकी नहीं तो क्या हुआ?

श्री लुटाये वास्तव में, जब बरसता अम्बरीश.
'सलिल' पाता बूँद भर पानी नहीं तो क्या हुआ??

***
बह्र: बहरे रमल मुसम्मन महजूफ
अब(२)/के(१)/किस्(२)/मत(२)     आ(२)/प(१)/की(२)/चम(२)      की(२)/न्(१)/ही(२)/तो(२)      क्या(२)/हू(१)/आ(२)

२१२२  २१२२  २१२२  २१२

फाइलातुन फाइलातुन फाइलातुन फाइलुन 
रदीफ: नहीं तो क्या हुआ 
काफिया: ई की मात्रा (चमकी, आई, बिजली, बाकी, तेरी, मेरी, थी आदि)