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शनिवार, 17 अगस्त 2024

अगस्त १५, भारत, स्वतंत्रता, गीत, पचेली, सॉनेट, तिरंगा, राष्ट्र गीत,

  

सॉनेट
आजादी
आजादी की साल गिरह है,
नाचो गाओ झूमो प्यारे,
बहुत खुशनुमा आज सुबह है,
मंज़र दिलकश, हसीं नजारे।
तीन रंग का परचम फहरा,
खाके-वतन लगा माथे पर,
मुट्ठी बाँध हवा में लहरा,
अमर शहीदों की जय जय कर।
दिल की दिल से रहे न दूरी,
सुख-दुख साझा रहें हमारे,
सुबह-साँझ हर हो सिंदूरी,
जन्नत धरती पर ले आ रे!
वतन परस्ती मजहब अपना।
पूरा हो सबका हर सपना।।
१५-८-२०२३
•••
सॉनेट
तिरंगा
धोती हरी लपेटे धरती,
तब घर-घर होती खुशहाली,
श्वेत कपासी चादर बुनती,
अमन-चैन होती दीवाली।
पाग कुसुंबी शीश सजाए,
बाँका वीर पलाश सजीला,
सलिल धार निर्मल-नीली बह,
जीवन चक्र बनाए रंँगीला।
कर तीली बन ताली देते,
बनता है ध्वजदंड सहारा,
ईश्वर जन्म धरा पर लेते,
हो आलोकित भारत प्यारा।
नव आशा लाती आजादी।
देशप्रेम की करे मुनादी।।
१५-८-२०२३
•••
!! हमारा राष्ट्र गान !!
[ इसका प्रथम पद ही हम गाते हैं ]
*
जन-गण-मन अधिनायक जय हे
भारत-भाग्य-विधाता
पंजाब-सिन्ध-गुजरात-मराठा
द्राविड़-उत्कल-बंग
विन्ध्य-हिमाचल, यमुना-गंगा
उच्छल जलधि तरंग
तव शुभ नामे जागे
तव शुभ आशिष मांगे
गाहे तव जय गाथा
जन-गण-मंगलदायक जय हे
भारत-भाग्य-विधाता
जय हे, जय हे, जय हे
जय-जय-जय, जय हे !
पतन-अभ्युदय-वन्धुर-पंथा
युग-युग धावित यात्री
हे चिर-सारथी
तव रथचक्रे मुखरित पथ दिन-रात्रि
दारुण विप्लव-माँझे
तव शंखध्वनि बाजे
संकट-दुख-श्राता
जन-गण-पथ-परिचायक जय हे
भारत-भाग्य-विधाता
जय हे, जय हे, जय हे
जय-जय-जय, जय हे !
घोर-तिमिर-घन-निविड़-निशीथ
पीड़ित मूर्च्छित-देशे
जागृत दिल तव अविचल मंगल
नत-नत-नयन अनिमेष
दुस्वप्ने आतंके
रक्षा करिजे अंके
स्नेहमयी तुमि माता
जन-गण-मन-दुखत्रायक जय हे
भारत-भाग्य-विधाता
जय हे, जय हे, जय हे !
जय-जय-जय, जय हे
रात्रि प्रभातिल उदिल रविच्छवि
पूरब-उदय-गिरि-भाले
साहे विहंगम, पूर्ण समीरण
नव-जीवन-रस ढाले
तव करुणारुण-रागे
निद्रित भारत जागे
तव चरणे नत माथा
जय-जय-जय हे, जय राजेश्वर
भारत-भाग्य-विधाता
जय हे, जय हे, जय हे
जय-जय-जय, जय हे !
- रवीन्द्रनाथ टैगोर
***
सॉनेट
पताका
लोक शक्ति की विजय पताका
तंत्र शीश पर फहर रही है
नील गगन में लहर रही है
खींचे उज्जवल भावी-खाका
दादा-दादी,काकी-काका
बेटी-बेटे का हर सपना
हो साकार, वक्ष हो तना
शरत्पूर्णिमा हो हर राका
चलो!लिखें इतिहास नया हम
नयन न कोई कहीं रहे नम
अधरों को दें हास नया हम
हो जीवंत-जाग्रत जनमत
नव निर्माणों हित हर हिकमत
बना सके भारत को जन्नत
१५-८-२०२२
•••
दोहा पचेली में
*
ठाँड़ी खेती खेत में, जब लौं अपनी नांय।
गाभिन गैया ताकियो, जब लौं नई बिआय।।
*
नीलकंठ कीरा भखैं, हमें दरस से काम।
कथरिन खों फेंकें नई, चिलरन भले तमाम।।
*
बाप न मारी लोखरी, बीटा तीरंदाज।
बात मम्योरे की करें, मामा से तज लाज।।
*
पानी में रै कहें करें, बे मगरा सें बैर।
बैठो मगरा-पीठ पे, बानर करबे सैर।।
*
घर खों बैरी ढा रओ, लंका कैसो पाप।
कूकुर धोए बच्छ हो, कबऊँ न बचियो आप।।
*
६.८.२०१८
*
पुस्तक चर्चा-
नवगीत के निकष पर "काल है संक्रांति का"
रामदेव लाल 'विभोर'
*
[पुस्तक परिचय - काल है संक्रांति का, गीत-नवगीत संग्रह, कवि आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', प्रकाशक- समन्वय प्रकाशन अभियान, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ म. प्र. दूरभाष ०७६१ २४१११३१, प्रकाशन वर्ष २०१६, मूल्य सजिल्द ३००/-, पेपरबैंक २००/-, कवि संपर्क चलभाष ९४२५१८३२४४, दूरलेख salil.sanjiv@gmail.com ]
*
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' विरचित गीत-कृति "काल है संक्रांति का" पैंसठ गीतों से सुसज्जित एक उत्तम एवं उपयोगी सर्जना है। इसे कृतिकार ने गीत व नवगीत संग्रह स्वयं घोषित किया है। वास्तव में नवगीत, गीत से इतर नहीं है किन्तु अग्रसर अवश्य है। अब गीत की अजस्र धारा वैयक्तिकता व अध्यात्म वृत्ति के तटबन्ध पर कर युगबोध का दामन पकड़कर चलने लगी है। गीतों में व्याप्त कलात्मकता व भावात्मकता में नवता के स्वरूप ने उसे 'नवगीत' नामित किया है। युगानुकूल परिवर्तन हर क्षेत्र में होता आ रहा है। अत:, गीतों में भी हुआ है। नवगीत में गीत के कलेवर में नयी कविता के भाव-रंग दिखते हैं। नए बिंब, नए उपमान, नए विचार, नयी कहन, वैशिष्ट्य व देश-काल से जुडी तमाम नयी बातों ने नवगीत में भरपूर योगदान दिया है। नवगीत प्रियतम व परमात्मा की जगह दीन-दुखियों की आत्मा को निहारता है जिसे दीनबन्धु परमात्मा भी उपयुक्त समझता होगा।
स्वर-देव चित्रगुप्त तथा वीणापाणी वंदना से प्रारंभ प्रस्तुत कृति के गीतों का अधिकांश कथ्य नव्यता का पक्षधर है। अपने गीतों के माध्यम से कृतिकार कहता है कि 'नव्यता संप्रेषणों में जान भरती' है और 'गेयता संवेदनों का गान करती' है। नवगीत को एक प्रकार से परिभाषित करनेवाली कृतिकार की इन गीत-पंक्तियों की छटा सटीक ही नहीं मनोहारी भी है। निम्न पंक्तियाँ विशेष रूप से दृष्टव्य हैं-
''नव्यता संप्रेषणों में जान भरती / गेयता संवेदनों का गान करती''
''सरलता-संक्षिप्तता से बात बनती / मर्मबेधकता न हो तो रार ठनती''
''लाक्षणिकता, भाव, रस, रूपक सलोने, बिम्ब टटकापन मिले बारात सजती''
''नाचता नवगीत के संग लोक का मन / ताल-लय बिन बेतुकी क्यों रहे कथनी?''
''छंद से अनुबंध दिखता या न दिखता / किंतु बन आरोह या अवरोह पलता'' -पृष्ठ १३-१४
इस कृति में 'काल है संक्रांति का' नाम से एक बेजोड़ शीर्षक-गीत भी है। इस गीत में सूरज को प्रतीक रूप में रख दक्षिणायन की सूर्य-दशा की दुर्दशा को एक नायाब तरीके से बिम्बित करना गीतकार की अद्भुत क्षमता का परिचायक है। गीत में आज की दशा और कतिपय उद्घोष भरी पंक्तियों में अभिव्यक्ति की जीवंतता दर्शनीय है-
''दक्षिणायन की हवाएँ कँपाती हैं हाड़
जड़ गँवा, जड़ युवा पीढ़ी काटती है झाड़'' -पृष्ठ १५
"जनविरोधी सियासत को कब्र में दो गाड़
झोंक दो आतंक-दहशत, तुम जलाकर भाड़" -पृष्ठ १६
कृति के गीतों में राजनीति की दुर्गति, विसंगतियों की बाढ़, हताशा, नैराश्य, वेदना, संत्रास, आतंक, आक्रोश के तेवर आदि नाना भाँति के मंज़र हैं जो प्रभावी ही नहीं, प्रेरक भी हैं। कृति से कुछ पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं-
"प्रतिनिधि होकर जन से दूर / आँखें रहते भी हो सूर" -पृष्ठ २०
"दोनों हाथ लिए लड्डू / रेवड़ी छिपा रहा नेता
मुँह में लैया-गजक भरे / जन-गण को ठेंगा देता" - पृष्ठ २१
"वह खासों में खास है / रुपया जिसके पास है....
.... असहनीय संत्रास है / वह मालिक जग दास है" - पृष्ठ ६८
"वृद्धाश्रम, बालश्रम और / अनाथालय कुछ तो कहते है
महिलाश्रम की सुनो सिसकियाँ / आँसू क्यों बहते रहते हैं?" - पृष्ठ ९४
"करो नमस्ते या मुँह फेरो / सुख में भूलो, दुःख में हेरो" - पृष्ठ ४७
ध्यान आकर्षण करने योग्य बात कि कृति में नवगीतकार ने गीतों को नव्यता का जामा पहनाते समय भारतीय वांग्मय व् परंपरा को दृष्टि में रखा है। उसे सूरज प्रतीक पसन्द है। कृति के कई गीतों में उसका प्रयोग है। चन्द पंक्तियाँ उद्धरण स्वरूप प्रस्तुत हैं -
"चंद्र-मंगल नापकर हम चाहते हैं छुएँ सूरज"
"हनु हुआ घायल मगर वरदान तुमने दिए सूरज" -पृष्ठ ३७
"कैद करने छवि तुम्हारी कैमरे हम भेजते हैं"
"प्रतीक्षा है उन पलों की गले तुमसे मिलें सूरज" - पृष्ठ ३८
कृति के गीतों में लक्षणा व व्यंजना शब्द-शक्तियों का वैभव भरा है। यद्यपि कतिपय यथार्थबोधक बिम्ब सरल व स्पष्ट शब्दों में बिना किसी लाग-लपेट के विद्यमान हैं किन्तु बहुत से गीत नए लहजे में नव्य दृष्टि के पोषक हैं। निम्न पंक्तियाँ देखें-
"टाँक रही है अपने सपने / नए वर्ष में धूप सुबह की" - पृष्ठ ४२
"वक़्त लिक्खेगा कहानी / फाड़ पत्थर मैं उगूँगा" - पृष्ठ ७५
कई गीतों में मुहावरों का का पुट भरा है। कतिपय पंक्तियाँ मुहावरों व लोकोक्तियों में अद्भुत ढंग से लपेटी गई हैं जिनकी चारुता श्लाघनीय हैं। एक नमूना प्रस्तुत है-
"केर-बेर सा संग है / जिसने देखा दंग है
गिरगिट भी शरमा रहे / बदला ऐसा रंग है" -पृष्ठ ११५
कृति में नवगीत से कुछ इतर जो गीत हैं उनका काव्य-लालित्य किंचित भी कम नहीं है। उनमें भी कटाक्ष का बाँकपन है, आस व विश्वास का पिटारा है, श्रम की गरिमा है, अध्यात्म की छटा है और अनेक स्थलों पर घोर विसंगति, दशा-दुर्दशा, सन्देश व कटु-नग्न यथार्थ के सटीक बिम्ब हैं। एक-आध नमूने दृष्टव्य हैं -
"पैला लेऊँ कमिसन भारी / बेंच खदानें सारी
पाछूँ घपले-घोटालों सौं / रकम बिदेस भिजा री!" - पृष्ठ ५१
"कर्म-योग तेरी किस्मत में / भोग-रोग उनकी किस्मत में" - पृष्ठ ८०
वेश संत का मन शैतान / खुद को बता रहे भगवान" - पृष्ठ ८७
वही सत्य जो निज हित साधे / जन को भुला तन्त्र आराधें" - पृष्ठ ११८
कृति की भाषा अधिकांशत: खड़ी बोली हिंदी है। उसमें कहीं-कहीं आंचलिक शब्दों से गुरेज नहीं है। कतिपय स्थलों पर लोकगीतों की सुहानी गंध है। गीतों में सम्प्रेषणीयता गतिमान है। माधुर्य व प्रसाद गुण संपन्न गीतों में शांत रस आप्लावित है। कतिपय गीतों में श्रृंगार का प्रवेश नेताओं व धनाढ्यों पर ली गयी चुटकी के रूप में है। एक उदाहरण दृष्टव्य है -
इस करवट में पड़े दिखाई / कमसिन बर्तनवाली बाई
देह साँवरी नयन कँटीले / अभी न हो पाई कुड़माई
मलते-मलते बर्तन खनके चूड़ी / जाने क्या गाती है?
मुझ जैसे लक्ष्मीपुत्र को / बना भिखारी वह जाती है - पृष्ठ ८३
पूरे तौर पर यह नवगीत कृति मनोरम बन पड़ी है। आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' को इस उत्तम कृति के प्रणयन के लिए हार्दिक साधुवाद।
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संपर्क- ५६५ के / १४१ गिरिजा सदन, अमरूदही बाग़, आलमबाग, लखनऊ २२६००५, चलभाष- ९३३५७५११८८
***
स्वतंत्रता दिवस पर विशेष गीत:
सारा का सारा हिंदी है
*
जो कुछ भी इस देश में है, सारा का सारा हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्ज्वल बिंदी है....
*
मणिपुरी, कथकली, भरतनाट्यम, कुचपुडी, गरबा अपना है.
लेजिम, भंगड़ा, राई, डांडिया हर नूपुर का सपना है.
गंगा, यमुना, कावेरी, नर्मदा, चनाब, सोन, चम्बल,
ब्रम्हपुत्र, झेलम, रावी अठखेली करती हैं प्रति पल.
लहर-लहर जयगान गुंजाये, हिंद में है और हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्ज्वल बिंदी है....
*
मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, गिरजा सबमें प्रभु एक समान.
प्यार लुटाओ जितना, उतना पाओ औरों से सम्मान.
स्नेह-सलिल में नित्य नहाकर, निर्माणों के दीप जलाकर.
बाधा, संकट, संघर्षों को गले लगाओ नित मुस्काकर.
पवन, वन्हि, जल, थल, नभ पावन, कण-कण तीरथ, हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्ज्वल बिंदी है....
*
जै-जैवन्ती, भीमपलासी, मालकौंस, ठुमरी, गांधार.
गजल, गीत, कविता, छंदों से छलक रहा है प्यार अपार.
अरावली, सतपुडा, हिमालय, मैकल, विन्ध्य, उत्तुंग शिखर.
ठहरे-ठहरे गाँव हमारे, आपाधापी लिए शहर.
कुटी, महल, अँगना, चौबारा, हर घर-द्वारा हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्ज्वल बिंदी है....
*
सरसों, मका, बाजरा, चाँवल, गेहूँ, अरहर, मूँग, चना.
झुका किसी का मस्तक नीचे, 'सलिल' किसी का शीश तना.
कीर्तन, प्रेयर, सबद, प्रार्थना, बाईबिल, गीता, ग्रंथ, कुरान.
गौतम, गाँधी, नानक, अकबर, महावीर, शिव, राम महान.
रास कृष्ण का, तांडव शिव का, लास्य-हास्य सब हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्ज्वल बिंदी है....
*
ट्राम्बे, भाखरा, भेल, भिलाई, हरिकोटा, पोकरण रतन.
आर्यभट्ट, एपल, रोहिणी के पीछे अगणित छिपे जतन.
शिवा, प्रताप, सुभाष, भगत, रैदास कबीरा, मीरा, सूर.
तुलसी. चिश्ती, नामदेव, रामानुज लाये खुदाई नूर.
रमण, रवींद्र, विनोबा, नेहरु, जयप्रकाश भी हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्ज्वल बिंदी है....
***
स्वाधीनता दिवस पर :
मुक्तक
*
शहादतों को भूलकर सियासतों को जी रहे
पड़ोसियों से पिट रहे हैं और होंठ सी रहे
कुर्सियों से प्यार है, न खुद पे ऐतबार है-
नशा निषेध इस तरह कि मैकदे में पी रहे
*
जो सच कहा तो घेर-घेर कर रहे हैं वार वो
हद है ढोंग नफरतों को कह रहे हैं प्यार वो
सरहदों पे सर कटे हैं, संसदों में बैठकर-
एक-दूसरे को कोस, हो रहे निसार वो
*
मुफ़्त भीख लीजिए, न रोजगार माँगिए
कामचोरी सीख, ख्वाब अलगनी पे टाँगिए
फर्ज़ भूल, सिर्फ हक की बात याद कीजिए-
आ रहे चुनाव देख, नींद में भी जागिए
*
और का सही गलत है, अपना झूठ सत्य है
दंभ-द्वेष-दर्प साध, कह रहे सुकृत्य है
शब्द है निशब्द देख भेद कथ्य-कर्म का-
वार वीर पर अनेक कायरों का कृत्य है
*
प्रमाणपत्र गैर दे: योग्य या अयोग्य हम?
गर्व इसलिए कि गैर भोगता, सुभोग्य हम
जो न हाँ में हाँ कहे, लांछनों से लाद दें -
शिष्ट तज, अशिष्ट चाह, लाइलाज रोग्य हम
*
गंद घोल गंग में तन के मुस्कुराइए
अनीति करें स्वयं दोष प्रकृति पर लगाइए
जंगलों के, पर्वतों के नाश को विकास मान-
सन्निकट विनाश आप जान-बूझ लाइए
*
स्वतंत्रता है, आँख मूँद संयमों को छोड़ दें
नियम बनायें और खुद नियम झिंझोड़-तोड़ दें
लोक-मत ही लोकतंत्र में अमान्य हो गया-
सियासतों से बूँद-बूँद सत्य की निचोड़ दें
*
हर जिला प्रदेश हो, राग यह अलापिए
भाई-भाई से भिड़े, पद पे जा विराजिए
जो स्वदेशी नष्ट हो, जो विदेशी फल सके-
आम राय तज, अमेरिका का मुँह निहारिए
*
धर्महीनता की राह, अल्पसंख्यकों की चाह
अयोग्य को वरीयता, योग्य करे आत्म-दाह
आँख मूँद, तुला थाम, न्याय तौल बाँटिए-
बहुमतों को मिल सके नहीं कहीं तनिक पनाह
*
नाम लोकतंत्र, काम लोभतंत्र कर रहा
तंत्र गला घोंट लोक का विहँस-मचल रहा
प्रजातंत्र की प्रजा है पीठ, तंत्र है छुरा-
राम हो हराम, तज विराम दाल दल रहा
*
तंत्र थाम गन न गण की बात तनिक मानता
स्वर विरोध का उठे तो लाठियां है भांजता
राजनीति दलदली जमीन कीचड़ी मलिन-
लोक जन प्रजा नहीं दलों का हित ही साधता
*
धरें न चादरों को ज्यों का त्यों करेंगे साफ़ अब
बहुत करी विसंगति करें न और माफ़ अब
दल नहीं, सुपात्र ही चुनाव लड़ सकें अगर-
पाक-साफ़ हो सके सियासती हिसाब तब
*
लाभ कोई ना मिले तो स्वार्थ भाग जाएगा
देश-प्रेम भाव लुप्त-सुप्त जाग जाएगा
देस-भेस एक आम आदमी सा तंत्र का-
हो तो नागरिक न सिर्फ तालियाँ बजाएगा
*
धर्महीनता न साध्य, धर्म हर समान हो
समान अवसरों के संग, योग्यता का मान हो
तोडिये न वाद्य को, बेसुरा न गाइए-
नाद ताल रागिनी सुछंद ललित गान हो
*
शहीद जो हुए उन्हें सलाम, देश हो प्रथम
तंत्र इस तरह चले की नयन कोई हो न नम
सर्वदली-राष्ट्रीय हो अगर सरकार अब
सुनहरा हो भोर, तब ही मिट सके तमाम तम
१५-८-२०१५
*
सामयिक दोहागीत:
क्या सचमुच?
*
क्या सचमुच स्वाधीन हम?
गहन अंधविश्वास सँग
पाखंडों की रीत
शासन की मनमानियाँ
सहें झुका सर मीत
स्वार्थ भरी नजदीकियाँ
सर्वार्थों की मौत
होते हैं परमार्थ नित
नेता हाथों फ़ौत
संसद में भी कर रहे
जुर्म विहँस संगीन हम
क्या सचमुच स्वाधीन हम?
*
तंत्र लाठियाँ घुमाता
जन खाता है मार
उजियारे की हो रही
अन्धकार से हार
सरहद पर बम फट रहे
सैनिक हैं निरुपाय
रण जीतें तो सियासत
हारे, भूल भुलाय
बाँट रहें हैं रेवड़ी
अंधे तनिक न गम
क्या सचमुच स्वाधीन हम?
*
दूषित पर्यावरण कर
मना रहे आनंद
अनुशासन की चिता पर
गिद्ध-भोज सानंद
दहशतगर्दी देखकर
नतमस्तक कानून
बाज अल्पसंख्यक करें
बहुल हंस का खून
सत्ता की ऑंखें 'सलिल'
स्वार्थों खातिर नम
क्या सचमुच स्वाधीन हम?
१५-८-२०१४
*
सामयिक व्यंग्य कविता:
मौसमी बुखार
**
अमरीकनों ने डटकर खाए
सूअर मांस के व्यंजन
और सारी दुनिया को निर्यात किया
शूकर ज्वर अर्थात स्वाइन फ़्लू
ग्लोबलाइजेशन अर्थात
वैश्वीकरण का सुदृढ़ क्लू..
*'
वसुधैव कुटुम्बकम'
भारत की सभ्यता का अंग है
हमारी संवेदना और सहानुभूति से
सारी दुनिया दंग है.
हमने पश्चिम की अन्य अनेक बुराइयों की तरह
स्वाइन फ़्लू को भी
गले से लगा लिया.
और फिर शिकार हुए मरीजों को
कुत्तों की मौत मरने से बचा लिया
अर्थात डॉक्टरों की देख-रेख में
मौत के मुँह में जाने का सौभाग्य (?) दिलाकर
विकसित होने का तमगा पा लिया.
*
प्रभु ने शूकर ज्वर का
भारतीयकरण कर दिया
उससे भी अधिक खतरनाक
मौसमी ज्वर ने
नेताओं और कवियों की
खाल में घर कर लिया.
स्वाधीनता दिवस निकट आते ही
घडियाली देश-प्रेम का कीटाणु,
पर्यवरण दिवस निकट आते ही
प्रकृति-प्रेम का विषाणु,
हिन्दी दिवस निकट आते ही
हिन्दी प्रेम का रोगाणु,
मित्रता दिवस निकट आते ही
भाई-चारे का बैक्टीरिया और
वैलेंटाइन दिवस निकट आते ही
प्रेम-प्रदर्शन का लवेरिया
हमारी रगों में दौड़ने लगता है.
*
'एकोहम बहुस्याम' और'
विश्वैकनीडं' के सिद्धांत के अनुसार
विदेशों की 'डे' परंपरा के
समर्थन और विरोध में
सड़कों पर हुल्लड़कामी हुड़दंगों में
आशातीत वृद्धि हो जाती है.
लाखों टन कागज़ पर
विज्ञप्तियाँ छपाकर
वक्तव्यवीरों की आत्मा
गदगदायमान होकर
अगले अवसर की तलाश में जुट जाती है.
मौसमी बुखार की हर फसल
दूरदर्शनी कार्यक्रमों,संसद व् विधायिका के सत्रों का
कत्ले-आम कर देती है
और जनता जाने-अनजाने
अपने खून-पसीने की कमाई का
खून होते देख आँसू बहाती है.
*
गीत
भारत माँ को नमन करें....
स्वतंत्रता गीत
*
आओ, हम सब एक साथ मिल
भारत माँ को नमन करें.
ध्वजा तिरंगी मिल फहराएँ
इस धरती को चमन करें.....
*
नेह नर्मदा अवगाहन कर
राष्ट्र-देव का आवाहन कर
बलिदानी फागुन पावन कर
अरमानी सावन भावन कर
राग-द्वेष को दूर हटायें
एक-नेक बन, अमन करें.
आओ, हम सब एक साथ मिल
भारत माँ को नमन करें......
*
अंतर में अब रहे न अंतर
एक्य कथा लिख दे मन्वन्तर
श्रम-ताबीज़, लगन का मन्तर
भेद मिटाने मारें मंतर
सद्भावों की करें साधना
सारे जग को स्वजन करें.
आओ, हम सब एक साथ मिल
भारत माँ को नमन करें......
*
काम करें निष्काम भाव से
श्रृद्धा-निष्ठा, प्रेम-चाव से
रुके न पग अवसर अभाव से
बैर-द्वेष तज दें स्वभाव से
'जन-गण-मन' गा नभ गुंजा दें
निर्मल पर्यावरण करें.
आओ, हम सब एक साथ मिल
भारत माँ को नमन करें......
*
जल-रक्षण कर पुण्य कमायें
पौध लगायें, वृक्ष बचायें
नदियाँ-झरने गान सुनायें
पंछी कलरव कर इठलायें
भवन-सेतु-पथ सुदृढ़ बनाकर
सबसे आगे वतन करें.
आओ, हम सब एक साथ मिल
भारत माँ को नमन करें......
*
शेष न अपना काम रखेंगे
साध्य न केवल दाम रखेंगे
मन-मन्दिर निष्काम रखेंगे
अपना नाम अनाम रखेंगे
सुख हो भू पर अधिक स्वर्ग से
'सलिल' समर्पित जतन करें.
आओ, हम सब एक साथ मिल
भारत माँ को नमन करें......
१५-८-२०१०
*

शुक्रवार, 9 अगस्त 2024

अगस्त ९, सॉनेट, तिरंगा, दोहा, नवगीत, मुक्तक, शिवाजी, अनिल माधव दवे, सावन, घनाक्षरी

सलिल सृजन अगस्त ९
*
दोहा सलिला
व्यर्थ नाग को पूजते, बना निरर्थक रीत। 
जहरीला ज्यादा मनुज, देख नाग भयभीत।। 
*
तनखा तन खा हँस रही, तन तनखा पा मस्त। 
मन बेबस बंदी हुआ, सिसक हो रहा त्रस्त।।
*
चाह न पाया चाहकर, अनजाने की चाह। 
हार गया खुद को खुदी, मनुआ बेपरवाह।। 
*
खेल खिलाड़ी खेलते, बरसों सकें न जीत। 
खुश होते हैं खेलकर, करें खेल से प्रीत।। 
*
जो तैरें सबको नहीं, मिल पाती है थाह।
अमल विमल जो सलिल सम, हो प्रसन्न अवगाह।। 
*
विजय-पराजय जो मिले, सहज भाव स्वीकार। 
खेल खेल में खेल कर, करो खेल से प्यार।।
९.८.२०२४  
***  
सॉनेट
कौतुक करता रश्मिरथी हो फुनगी पर आरूढ़,
अगिन पर्ण हय दौड़े रथ ले विरुद सुनाते झूम,
सैनिक पंछी हमला बोलें जूझ रहा तम मूढ़,
कलरव करते नभचर होगी विजय उन्हें मालूम।
उषा सुंदरी खड़ी द्वार पर रतनारे हैं गाल,
नमन प्रभाकर दिव्य दिवाकर दिनकर दिनपति नाथ,
कहे तिलककर सजा आरती शोभित गर्वित भाल,
करतल ध्वनि अनवरत कर रहे पर्ण उठाए माथ।
जागो मानव जागो सोए रहकर करो न भूल,
उठो बढ़ो कोशिश कर मंज़िल पाओ आलस छोड़,
नयन मूँदकर सुख-सपनों में रहो न नाहक झूल,
वरे सफलता सदा उसी को जो लेता है होड़।
रवि दे सबको सदा उजाला कहे श्रेष्ठ दो बाँट।
सब ईश्वर का अंश न अपना-गैर कहो तुम छाँट।।
९-८-२०२३
***
बाल सॉनेट
तिरंगा
ध्वजा तिरंगा सबसे प्यारी
सभी ध्वजाओं में यह न्यारी
सबसे ऊपर केसरिया है
देश हेतु ही जन्म लिया है
कहे सफेद शांति से रहिए
हरा कहे हरियाली करिए
चका कह रहा मेहनत करना
डंडा कहे न अरि से डरना
रस्सी कहे हमेशा साथ
रहना हाथों में ले हाथ
झंडा फहरा, करो प्रणाम
पौध लगा सींचो हर शाम
सुबह शाम नित करो पढ़ाई
सबसे तब ही मिले बड़ाई
९-८-२०२२
•••
कुण्डलिया
*
दशरथनंदन दुलारे, सिया न आईं याद
बलिहारी है समय की, करें कहाँ फरियाद
करें कहाँ फरियाद, सिया बिन राम अधूरे
रमा बिना हरि कहें, किस तरह होंगे पूरे
प्रभु को कम निज माथ, लगाते ज्यादा चंदन
भोग खा रहे भक्त, न पाते दशरथनंदन
***
मुक्तक
रंज ना कर मुक्ति की चर्चा न होती बंधनों में
कभी खुशियों ने जगह पाई तनिक क्या क्रन्दनों में?
जो जिए हैं सृजन में सच्चाई के निज स्वर मिलाने
'सलिल' मिलती है जगह उनको न किंचित वंदनों में
९-८-२०२०
***
दोहा है रस-कोष
रसः काव्य को पढ़ने या सुनने से मिलनेवाला अलौकिक आनंद ही रस है। काव्य मानव मन में छिपे भावों को जगाकर रस की अनुभूति कराता है। भरत मुनि के अनुसार "विभावानुभाव संचारी संयोगाद्रसनिष्पत्तिः" अर्थात् विभाव, अनुभाव व संचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। रस को साहित्य की आत्मा तथा ब्रम्हानंद सहोदर रस के ४ अंग स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव व संचारी भाव हैं।
विभिन्न संदर्भों में रस का अर्थ: एक प्रसिद्ध सूक्त है- 'रसौ वै स:' अर्थात् वह परमात्मा ही रस रूप आनंद है। 'कुमारसंभव' में प्रेमानुभूति, पानी, तरल और द्रव के अर्थ में रस शब्द का प्रयोग हुआ है। 'मनुस्मृति' मदिरा के लिए रस शब्द का प्रयोग करती है। मात्रा, खुराक और घूंट के अर्थ में रस शब्द प्रयुक्त हुआ है। 'वैशेषिक दर्शन' में चौबीस गुणों में एक गुण का नाम रस है। रस छह माने गए हैं- कटु, अम्ल, मधुर, लवण, तिक्त और कषाय। स्वाद, रुचि और इच्छा के अर्थ में भी कालिदास रस शब्द का प्रयोग करते हैं। 'रघुवंश', आनंद व प्रसन्नता के अर्थ में रस शब्द काम में लेता है। 'काव्यशास्त्र' में किसी कविता की भावभूमि को रस कहते हैं। रसपूर्ण वाक्य को काव्य कहते हैं।
भर्तृहरि सार, तत्व और सर्वोत्तम भाग के अर्थ में रस शब्द का प्रयोग करते हैं। 'आयुर्वेद' में शरीर के संघटक तत्वों के लिए 'रस' शब्द प्रयुक्त हुआ है। सप्तधातुओं को भी रस कहते हैं। पारे को रसेश्वर अथवा रसराज कहा है। पारसमणि को रसरत्न कहते हैं। मान्यता है कि पारसमणि के स्पर्श से लोहा सोना बन जाता है। रसज्ञाता को रसग्रह कहा गया है। 'उत्तररामचरित' में इसके लिए रसज्ञ शब्द प्रयुक्त हुआ है। भर्तृहरि काव्यमर्मज्ञ को रससिद्ध कहते हैं। 'साहित्यदर्पण' प्रत्यक्षीकरण और गुणागुण विवेचन के अर्थ में रस परीक्षा शब्द का प्रयोग करता है। नाटक के अर्थ में 'रसप्रबन्ध' शब्द प्रयुक्त हुआ है।
रस प्रक्रिया: विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से मानव-ह्रदय में रसोत्पत्ति होती है। ये तत्व ह्रदय के स्थाई भावों को परिपुष्ट कर आनंदानुभूति करते हैं। रसप्रक्रिया न हो मनुष्य ही नहीं सकल सृष्टि रसहीन या नीरस हो जाएगी। संस्कृत में रस सम्प्रदाय के अंतर्गत इस विषय का विषद विवेचन भट्ट, लोल्लट, श्न्कुक, विश्वनाथ कविराज, आभिंव गुप्त आदि आचार्यों ने किया है। रस प्रक्रिय के अंग निम्न हैं-
१. स्थायी भाव- मानव ह्र्दय में हमेशा विद्यमान, छिपाये न जा सकनेवाले, अपरिवर्तनीय भावों को स्थायी भाव कहा जाता है।
रस श्रृंगार हास्य करुण रौद्र वीर भयानक वीभत्स अद्भुत शांत वात्सल्य
स्थायी भाव रति हास शोक क्रोध उत्साह भय घृणा विस्मय निर्वेद संतान प्रेम
२. विभावः
किसी व्यक्ति के मन में स्थायी भाव उत्पन्न करनेवाले कारण को विभाव कहते हैं। व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति भी विभाव हो सकती है। ‌विभाव के दो प्रकार अ. आलंबन व आ. उद्दीपन हैं। ‌
अ. आलंबन: आलंबन विभाव के सहारे रस निष्पत्ति होती है। इसके दो भेद आश्रय व विषय हैं ‌
आश्रयः जिस व्यक्ति में स्थायी भाव स्थिर रहता है उसे आश्रय कहते हैं। ‌श्रृंगार रस में नायक नायिका एक दूसरे के आश्रय होंगे।‌
विषयः जिसके प्रति आश्रय के मन में रति आदि स्थायी भाव उत्पन्न हो, उसे विषय कहते हैं ‌ "क" को "ख" के प्रति प्रेम हो तो "क" आश्रय तथा "ख" विषय होगा।‌
आ. उद्दीपन विभाव- आलंबन द्वारा उत्पन्न भावों को तीव्र करनेवाले कारण उद्दीपन विभाव कहे जाते हैं। जिसके दो भेद बाह्य वातावरण व बाह्य चेष्टाएँ हैं। कभी-कभी प्रकृति भी उद्दीपन का कार्य करती है। यथा पावस अथवा फागुन में प्रकृति की छटा रस की सृष्टि कर नायक-नायिका के रति भाव को अधिक उद्दीप्त करती है। न सुनकर डरनेवाला व्यक्ति आश्रय, सिंह विषय, निर्जन वन, अँधेरा, गर्जन आदि उद्दीपन विभाव तथा सिंह का मुँह फैलाना आदि विषय की बाह्य चेष्टाएँ हैं ।
३. अनुभावः आश्रय की बाह्य चेष्टाओं को अनुभाव या अभिनय कहते हैं। भयभीत व्यक्ति का काँपना, चीखना, भागना या हास्य रसाधीन व्यक्ति का जोर-जोर से हँसना, नाईक के रूप पर नायक का मुग्ध होना आदि।
४. संचारी (व्यभिचारी) भावः आश्रय के चित्त में क्षणिक रूप से उत्पन्न अथवा नष्ट मनोविकारों या भावों को संचारी भाव कहते हैं। भयग्रस्त व्यक्ति के मन में उत्पन्न शंका, चिंता, मोह, उन्माद आदि संचारी भाव हैं। मुख्य ३३ संचारी भाव निर्वेद, ग्लानि, मद, स्मृति, शंका, आलस्य, चिंता, दैन्य, मोह, चपलता, हर्ष, धृति, त्रास, उग्रता, उन्माद, असूया, श्रम, क्रीड़ा, आवेग, गर्व, विषाद, औत्सुक्य, निद्रा, अपस्मार, स्वप्न, विबोध, अवमर्ष, अवहित्था, मति, व्याथि, मरण, त्रास व वितर्क हैं।
रसों पर दोहा
श्रृंगार: स्थाई भाव रति, आलंबन विभाव नायक-नायिका, उद्दीपन विभाव एकांत, उद्यान, शीतल पवन, चंद्र, चंद्रिकाक आदि। अनुभाव कटाक्ष, भ्रकुटि-भंग, अनुराग-दृष्टि आदि । संचारी भाव उग्रता, मरण, आलस्य, जुगुप्सा के आलावा शेष सभी।
संयोग श्रृंगार: नायक-नायिका का सामीप्य या मिलन।
।।चली मचलती-झूमती, सलिला सागर-अंक। द्वैत मिटा अद्वैत वर, दोनों हुए निशंक।।
वियोग श्रृंगार: नायक-नायिका का दूर रह के मिलन हेतु व्याकुल होना।
।।चंद्र चंद्रिका से बिछड़, आप हो गया हीन। खो सुरूप निज चाँदनी, हुई चाँद बिन दीन ।।
हास्य : स्थाई भाव विकृत रूप या वाणीजनित विकार। आलंबन विकृत वस्तु या व्यक्ति। अनुभव आँखें मींचना, मुँह फैलाना आदि। संचारी भाव निद्रा, आलस्य, चपलता, उद्वेग आदि।
।।दफ्तर में अफसर कहे, अधीनस्थ को फूल। फूल बिना घर गए तो, कहे गए खुद फूल।।
(फूल = मूर्ख, पुष्प)
व्यंग्य: स्थाई भाव विकृत रूप या वाणीजनित विकार। आलंबन विकृत वस्तु या व्यक्ति। अनुभव आँखें मींचना, मुँह फैलाना, तिलमिलाना आदि। संचारी भाव निद्रा, आलस्य, चपलता, उद्वेग आदि।
।।वादा कर जुमला बता, झट से जाए भूल। जो नेता वह हो सफल, बाकी फाँकें धूल।।
करुण रस: स्थाई भाव शोक, दुःख, गम। आलंबन मृत या घायल व्यक्ति, पतन, हार। उद्दीपन मृतक-दर्शन, दिवंगत की स्मृति, वस्तुएँ, चित्र आदि। अनुभाव धरती पर गिरना, विलाप, क्रुन्दन, चीत्कार, रुदन आदि। संचारी भाव निर्वेद, मोह, अपस्मार, विषाद आदि।
।।माँ की आँखों से बहें, आँसू बन जल-धार। निज पीड़ा को भूलकर, शिशु को रही निहार।।
रौद्रः स्थाई भाव क्रोध, गुस्सा। आलंबन अपराधी, दोषी आदि। उद्दीपन अपराध, दुष्कृत्य आदि। अनुभाव कठोर वचन, डींग मारना, हाथ-पैर पटकना। संचारी भाव अमर्ष, मद, स्मृति, चपलता,गर्व, उग्रता आदि।
।।शिखर कारगिल पर मचल, फड़क रहे भुजपाश ‌. जान हथेली पर लिये, अरि को करते लाश।।
वीरः स्थाई भाव उत्साह, वीरता। आलंबन शत्रु याचक, धर्म, कर्तव्य आदि। आश्रय उत्साही, वीर आदि। उद्दीपन रण-वाद्य, यशेच्छा, धर्म-ग्रंथ, कर्तव्य-बोध, रुदन आदि। अनुभाव भुजा फडकना, नेत्र लाल होना, मुट्ठी बाँधना, ताल ठोंकना, मूँछ उमेठना, उदारता, धर्म-रक्षा, सांत्वना आदि। संचारी भाव उत्सुकता, संतोष, हर्ष, शांति, धैर्य, हर्ष आदि।
।।सीमा में बैरी घुसा, उठो, निशाना साध। ह्रदय वेध दो वीर तुम, मृग मारे ज्यों व्याध।।
भयानकः स्थाई भाव भय, डर आदि। आलंबन प्राणघातक प्राणी शेर आदि। उद्दीपन आलंबन की हिंसात्मक चेष्टा, डरावना रूप आदि। अनुभाव शरीर कांपना, पसीना छूटना, मुख सूखना आदि। संचारी भाव देनी, सम्मोह आदि।
।। लपट कराल गगन छुएँ, दसों दिशाएँ तप्त। झुलस जले खग वृंद सब, जीव-जंतु संतप्त।।
वीभत्सः स्थाई भाव जुगुप्सा, घृणा आदि। आलंबन दुर्गंधमय मांस-रक्त, घृणित पदार्थ। उद्दीपन घृणित वस्तुएँ व रूप। अनुभाव नाक=भौं सिकोड़ना, मुँह बनाना, नाक बंद करना आदि। संचारी भाव आवेग, शंका, मोह आदि।
।। हा, पशुओं की लाश को, नोचें कौए गिद्ध। हँसते जन-का खून पी, नेता अफसर सिद्ध।।
अद्भुतः स्थाई भाव विस्मय, आश्चर्य, अचरज। आलंबन आश्चर्यजनक वस्तु, घटना आदि। उद्दीपन अलौकिकतासूचक तत्व। अनुभव प्रशंसा, रोमांच, अश्रु आदि। संचारी भाव हर्ष, आवेग, त्रास आदि।
।। खाली डब्बा दिखाया, पलटा पक्षी-फूल। उड़े-हाथ में देख सब, चकित हुए क्या मूल।।
शांतः स्थाई भाव निर्वेद। आलंबन ईश-चिंतन, वैराग, नश्वरता आदि। उद्दीपन सत्संग, पुण्य, तीर्थ-यात्रा आदि। अनुभाव समानता, रोमांच, गदगद होना। संचारी भाव मति, हर्ष, स्मृति आदि।
।।घर में रह बेघर हुआ, सगा न कोई गैर। श्वास-आस जब तक रहे, कर प्रभु सँग पा सैर।।
वात्सल्यः स्थाई भाव ममता। आलंबन शिशु आदि। उद्दीपन शिशु से दूरी। अनुभाव शिशु का रुदन। संचारी भाव लगाव।
।। छौने को दिल से लगा, हिरनी चाटे खाल। पान करा पय मनाती, चिरजीवी हो लाल।।
भक्तिः स्थाई भाव ईश्वर से प्रेम। आलंबन मूर्ति, चित्र आदि। उद्दीपन अप्राप्ति। अनुभाव सांसारिकता। संचारी भाव आकर्षण।
।।करुणासींव करें कृपा, चरण-शरण यह जीव। चित्र गुप्त दिखला इसे, करिए प्रभु संजीव।।
विरोध: स्थायी भाव आक्रोश। आलंबन कुव्यवस्था, अवांछनीय तत्व। उद्दीपन क्रूर व्यवहार। अनुभाव सुधर या परिवर्तन की चाह। संचारी भाव दैन्य, उत्साहहीनता, शोक, भय, जड़ता, संताप आदि। (श्री रमेश राज, अलीगढ़ प्रणीत नया रस)
दोहा लेखन के सूत्र:
१. दोहा द्विपदिक छंद है। दोहा में दो पंक्तियाँ (पद) होती हैं।
२. हर पद में दो चरण होते हैं।
३. विषम (१-३) चरण में १३-१३ तथा सम (२-४) चरण में ११-११ मात्राएँ होती हैं।
४. विषम चरण के आरंभ में एक शब्द में जगण (लघु गुरु लघु) वर्जित होता है।
५. विषम चरणों की ग्यारहवीं मात्रा लघु हो तो लय भंग होने की संभावना कम हो जाती है। कबीर, तुलसी, बिहारी जैसे कालजयी दोहकारों ने ग्यारहवीं मात्रा लघु रखे बिना भी अनेक उत्तम दोहे कहे हैं।
६. सम चरणों के अंत में गुरु लघु मात्राएँ आवश्यक हैं।
७. हिंदी में खाय, मुस्काय, आत, भात, डारि जैसे देशज क्रिया रूपों का उपयोग न करें।
८. दोहा मुक्तक छंद है। कथ्य (जो बात कहना चाहें वह) एक दोहे में पूर्ण हो जाना चाहिए।
९. श्रेष्ठ दोहे में लाक्षणिकता, संक्षिप्तता, मार्मिकता (मर्मबेधकता), आलंकारिकता, स्पष्टता, पूर्णता तथा सरसता होना चाहिए।
१०. दोहे में संयोजक शब्दों और, तथा, एवं आदि का प्रयोग न करें।
११. दोहे में कोई भी शब्द अनावश्यक न हो। हर शब्द ऐसा हो जिसके निकालने या बदलने पर दोहा न कहा जा सके।
१२. दोहे में कारक का प्रयोग कम से कम हो।
१३. दोहा में विराम चिन्हों का प्रयोग यथास्थान अवश्य करें।
१४. दोहा सम तुकांत छंद है। सम चरण के अंत में समान तुक आवश्यक है।
१५. दोहा में लय का महत्वपूर्ण स्थान है। लय के बिना दोहा नहीं कहा जा सकता।
१६. दोहा में एक ही शब्द को भिन्न-भिन्न मात्रा भर में प्रयोग किया जा सकता है बशर्ते उतनी कुशलता हो। यथा कैकेई ६, कैकई ५, कैकइ ४ के रूप में तुलसीदास जी ने प्रयोग किया है।
९-८-२०१८
***
मुक्तक सलिला:
आँखों में जिज्ञासा, आमंत्रण या वर्जन?
मौन धरे अधरों ने पैदा की है उलझन
धनुष भौंह पर तीर दृष्टि के चढ़े हुए हैं-
नागिन लट मोहे, भयभीत करे कर नर्तन
*
आशा कुसुम, लता कोशिश पर खिलते हैं
सलिल तीर पर, हँस मन से मन मिलते हैं
नातों की नौका, खेते रह बिना थके-
लहरों जैसे बिछुड़-बिछुड़ हम मिलते हैं
*
पाठ जब हमको पढ़ाती जिंदगी।
तब न किंचित मुस्कुराती जिंदगी।
थाम कर आगे बढ़ाती प्यार से-
'सलिल' मन को तब सुहाती जिंदगी.
*
केवल प्रसाद सत्य है, बाकी तो कथा है
हर कथा का भू-बीज मिला, हर्ष-व्यथा है
फैला सको अँजुरी, तभी प्रसाद मिलेगा
पी ले 'सलिल' चुल्लू में यही सार-तथा है
तथा = तथ्य,
प्रयोग: कथा तथा = कथा का सार
*
आँखों में जिज्ञासा, आमंत्रण या वर्जन?
मौन धरे अधरों ने पैदा की है उलझन
धनुष भौंह पर तीर दृष्टि के चढ़े हुए हैं-
नागिन लट मोहे, भयभीत करे कर नर्तन
९-८-२०१७
***
पुस्तक सलिला
"शिवाजी सुराज" सिखाये लोकराज का कामकाज
आचार्य संजीव वर्मा "सलिल"
*
[पुस्तक विवरण- शिवाजी सुराज, शोध-विवेचना, ISBN 978-93-5048-179-0, अनिल माधव दवे, वर्ष २०१२, आकार २४ से.मी. x १५.५ से.मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक फ्लैप सहित, पृष्ठ २३१, मूल्य ३००/-, प्रकाशक प्रभात प्रकाशन, ४/१९ आसफ़ अली मार्ग, नई दिल्ली ११०००२, लेखक संपर्क सी ६०३ स्वर्ण जयंती सदन, डॉ. बी.डी. मार्ग, नई दिल्ली ११०००१, दूरभाष ९८६८१८१८०६ ]
*
"शिवाजी सुराज" भारतीय इतिहास और जनगण-मन में पराक्रमी, न्यायी, चतुर, नैतिक, तथा संस्कारी शासक के रूप में चिरस्मरणीय शासक एवं महामानव छत्रपति शिवजी की प्रशासन कला तथा राज-काज प्रबंधन को अभिनव शोधपरक दृष्टि से जानने एवम वर्तमान से तुलना कर परखने का श्रम-साध्य प्रयास है। लेखक श्री अनिल माधव दवे सामाजिक समरसता, राष्ट्रीय एकता, पर्यावरणीय शुचिता तथा नर्मदा घाटी के गहन अध्ययन परक गतिविधियों के लिए सुचर्चित रहे हैं। एक सामान्य सामाजिक-राजनैतिक कार्यकर्ता से लेकर राष्ट्रीय स्तर का राजनेता बनने तक की यात्रा निष्कलंकित रहकर करते हुए अनिल जी के प्रेरणा-स्तोत्र संभवत: शिवाजी ही रहे हैं। इस कृति का वैशिष्ट्य चरितनायक से अधिक महत्व चरित नायक के अवदान को देना है।
आमुख, प्रतिमा (छवि) निर्माण, मंत्रालय (वित्त, गृह, कृषि, न्याय-विधि, विदेश, व्यापार-उद्योग, विज्ञान-प्रौद्योगिकी, सड़क-नौपरिवहन, श्रम-रोजगार, भाषा-संस्कृति, रक्षा तथा जन संपर्क), संकेत (वन-पर्यावरण, महिला सशक्तिकरण, अल्पसंख्यक, भ्रष्टाचार,स्वप्रेरित राज्य रचना), व्यक्तित्व (दूरदृष्टि, राजनैतिक कदम, योजकता-कार्यान्वयन क्षमता), मन्त्रिमण्डल (अष्ट प्रधान- मुख्य प्रधान, पन्त सचिव, अमात्य, मंत्री, सेनापति, सुमंत, न्यायाधीश, पण्डित), कीर्तिशेष, अच्छे-कमजोर शासन के लक्षण, जाणता राजा संवाद, शीर्षकों में विभक्त यह कृति पर्यवेक्षकीय तथा विवेचनात्मक सामर्थ्य की परिचायक है।
पुस्तकारंभ में भारतीय संस्कृति के श्रेष्ठ उद्घोषक स्वामी विवेकानंद के वक्तव्यांश में शिवाजी को राष्ट्रीय चेतना संपन्न नायक, सन्त, भक्त तथा शासक निरूपित किया गया है। आमुख में श्री मोहनराव भागवत, सरसंघचालक राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने शिवजी के शासनतंत्र को लक्ष्य लक्ष्य शासन या लोकोपकार मात्र नहीं अपितु जनता जनार्दन की ऐहिक, आध्यात्मिक तथा सन्तुलित उन्नति का वाहक बताया है। प्राक्कथन में बाबा साहेब पुरंदरे ने शिवाजी की राजनीति और राज्यनीति को वर्तमान परिस्थितियों में अनुकरणीय बताया है।
सुव्यवस्थित प्रस्तावना के अंतर्गत प्रजा केंद्रित विकास को सुशासन का मूलमन्त्र बताते हुए श्री नरेन्द्र मोदी (तत्कालीन मुख्यमंत्री गुजरात, वर्तमान प्रधान मंत्री भारत) ने जनता को केंद्र में रखकर स्थापित विकास प्रक्रियाजनित लोकतान्त्रिक सुशासन को समय की मांग बताया है। पारदर्शी प्रक्रियाओं और जवाबदेही, सामूहिक विमर्श, प्रशासन में स्पष्टता तथा जनभागीदारी जनि विकास को जनान्दोलन बनाने पर श्री मोदी ने बल दिया है। इसमें दो मत नहीं हो सकते कि प्रशासन सत्य को छिपाने के स्थान पर जन सामान्य को उससे अवगत कराता रहे तो प्रजातान्त्रिक व्यवस्था की नींव सुद्रढ़ होती है। नेताओं, अधिकारियों, कर्मचारियों व् युवाओं के लिए प्रस्तावित करनेवाले मोदी जी प्रणीत मेक इन इंडिया, स्वच्छता अभियान, मन की बात, विद्यार्थियों से सीधे संवाद, शौचालय निर्माण, गैस अनुदान समर्पण, संपत्ति घोषित करने आदि कार्यक्रमों में शिवाजी की शासन पद्धति से प्राप्त प्रेरणा देखी जा सकती है।
सामान्यत: एक ऐतिहासिक चरित्र, पराक्रमी योद्धा या चतुर-लोकप्रिय शासक के रूप में प्रसिद्द शिवाजी के चरित्र की अनेक अल्पज्ञात विशेषताओं का परिचय इस कृति से मिलता है। कृतिकार श्री अनिल माधव दवे की सामाजिक कार्यकर्ता से उठकर राष्ट्रीय नेतृत्व के स्तर तक बिना किसी विवाद या कलंक के पहुँचने की यात्रा में शिवाजी विषयक अध्ययन और इस पुस्तक के सृजन से व्युत्पन्न वैचारिक परिपक्वता का योगदान नाकारा नहीं जा सकता। राजतंत्र के एक शासक को लोकतंत्र के आदर्श पुरुष के रूप में व्याख्यायित करना अनिल जी के असाधारण अध्ययन, सूक्ष्म विवेचन, प्रामाणिक तुलनाओं तथा व्यापक समन्वयपरक तर्कणा शक्ति को है। तर्क दोधारी तलवार होता है जिससे तनिक भी असावधानी होने पर विपरीत निष्कर्ष ध्वनित होते हैं। अनिल जी ने तर्क और तुलना का सटीक प्रयोग किया है।
एक राजनैतिक दल से सम्बद्ध होने और वर्तमान राजनीती में दखल रखने के कारण स्वाभाविक है कि लेखक अपने दल की सरकारों की नीतियों और कार्यक्रमों का उल्लेख सकारात्मक परिणामों के संदर्भ में करे जबकि अन्य दलीय नीतियों और कार्यक्रमों का विफलता के सन्दर्भ में। 'मनोगत' शीर्षक भूमिका में लेखक ने महापुरुषों के जीवन में कष्ट, अवसाद, व् पीड़ा के आधिक्य को इंगित किया है। भारत में राजनीती के वर्तमान स्वरुप पर प्रहार करते हुए अनिल जी ने प्रतिमा (व्यक्तित्व-छवि) निर्माण अध्याय में शिवजी के दो मूलमंत्र "शासन करने के लिए होता है, छोड़ने के लिए नहीं तथा युद्ध जितने के लिए होता है, लड़ने के लिए नहीं" बताये हैं। दिल्ली में श्री केजरीवाल द्वारा विशाल बहुमत के बाद भी सरकार से भागने तथा पाकिस्तानी आतंकियों से छद्य युद्ध लड़ने के सन्दर्भ में ये दोनों मन्त्र दिशा-दर्शक हैं।
आरम्भ, आकलन, आस्था, तथा अभय उपशीर्षकों के अंतर्गत विद्वान लेखक ने शिवाजी के चरित्र, नीतियों तथा व्यक्तित्व को वर्तमान परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में आदर्श बताया है। शिवजी के प्रशासन के विविध अंगों की वर्तमान मंत्रिमंडल से तुलनात्मक समीक्षा करते हुए लेखक ने तत्कालीन शब्दों का कम से कम तथा वर्तमान में प्रयोग हो रहे पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग अधिकाधिक किया है। इससे उनका कथ्य आम पाठक के लिए ग्रहणीय हो सका है। अहिन्दीभाषी होते हुए भी लेखक ने शुद्ध हिंदी का प्रयोग किया है। शब्द चयन सटीक किन्तु सहज बोधगम्य है। अपनी बात प्रमाणित करने के लिए घटनाओं का चयन तथा विवेचना तथ्यपरक है। यहाँ एक प्रश्न यह उठता है कि यह विवेचन केवल अध्ययन हेतु है या व्यवहार में लाने के लिये भी? एक देश कुलकर्णी (छोटे स्तर का लेखापाल) द्वारा एक दिन का हिसाब पंजी में प्रविष्ट न किये जाने पर शिवजी द्वारा कड़ा दंड दिये जाने और वर्तमान में बड़े घपलों के बावजूद समर्थ को दण्ड न मिलने के बीच की दूरी कैसे दूर की जायेगी? सार्वजनिक धन के रख-रखाव में एक-एक पाई का हिसाब रखनेवाले महात्मा गाँधी ने एक पैसे का हिसाब न मिलने पर अपने सचिव महादेव देसाई की आलोचना कर उन्हें हिसाब ठीक करने को कहा था। क्या वर्तमान सरकार ऐसा कर सकेगी?
असहायों की सहायता, व्यक्ति से व्यवस्था को बड़ा मानना, महत्वाकांक्षा से अधिक महत्त्व कार्यपूर्ति को देना, सेफ हाउस, सेफ पैसेज, सेफ इवैकुएशन युक्त रक्षा व्यवस्था, प्रकृति चक्र के अनुकूल कृषि उत्पादन, सशक्त लोक संस्थाओं, पारदर्शी न्याय प्रणाली, अपराधी को कड़ा दण्ड आदि से जुडी घटनाओं के प्रामाणिक विवेचना कर शिवाजी के शासन को श्रेष्ठ व् अनुकरणीय बताने में लेखक ने अथक श्रम किया है। शिवाजी के अष्ट प्रधानों में से एक कान्होजी के संबंधी खंडोजी द्वारा अफजल खां की सहायता किये जाने पर शिवजी ने एक हाथ-एकपैर काटकर दण्डित किया था, आज सोते हुए लोगों को कर से कुचलने और मासूम काले हिरणों को मारने वाले समर्थ बच जाते हैं। एक साथ अनेक शत्रुओं के साथ संघर्ष न कर किसी एक से लड़कर जितने तथा उसके बाद अन्य को जीतने की शिवाजी की नीति भारतीय विदेश नीति की विफलता इंगित करती है जहाँ हमारे सब पडोसी भारत से रुष्ट हैं। सिद्दी जौहर के साथ पन्हाला युद्ध में अंग्रेजी तोपों और ध्वजों का प्रयोग राजपुर में अंग्रेजों का भंडार नष्ट कर लेने का प्रसंग कश्मीरमें पाकिस्तानी आतंकवादियों द्वारा ध्वज फहराने के संबन्ध में विचारणीय है। क्यों नहीं भारत सरकार पाकिस्तानी क्षेत्र में स्थित अड्डे करती?
शिवाजी ने वेदेशी व्यापारियों के प्रवेश, व्यवसाय करने, इमारतें बनाने आदि हर सुविधा के बदले बड़ी धनराशि सरकारी ख़ज़ाने में जमा कराई, आज हमारी सरकार विदेशी कंपनियों को अनेक सुविधाएँ देकर आमंत्रित कर रही है। बड़े उद्योगपति अरबों-खरबों का कर्ज़ लेकर देश छोड़ भाग रहे हैं। शिवाजी को आदर्श माननेवालों के शासनकाल में उद्योगपतियों के करोड़ों रुपयों के बिजली के बिल माफ़ होना और आम नागरिक के चंद रुपयों के बिल भुगतान न होने पर बिजली कटने का अंतर्विरोध कथनी-करनी पर प्रश्न चिन्ह लगाता है। शिवजी द्वारा नौसेना को ५ गुरुबों तथा ११ गलबतों में विभाजित किया जाना, शस्त्र भंडारण एक स्थान पर न करना, कर्मचारियों को यथेष्ठ वेतन ताकि गुणवत्तापूर्ण कार्य करे (अतिथि विद्वानों को नाम मात्र पारिश्रमिक देकर उच्च शिक्षा देने), राज प्रसाद की समुचित सुरक्षा (इंदिरा गाँधी हत्या), सैन्य शिविरों में छोटे-बड़े सैन्याधिकारियों का एक साथ रहना, कर्मचारियों का निर्धारित समयावधि में नियमित स्थानान्तरण, भ्रष्टाचार के प्रति कठोर रुख, त्वरित न्याय आदि प्रसंगों में लेखन की विवेचना शक्ति का परिचय मिलता है।
पाठक मंच के माध्यम से इस पुस्तक को पुरे प्रदेश में पढवाये जाने और चर्चा कराये जाने का विपुल महत्त्व है। सभी जनप्रतिनिधियों को यह पुस्तक पढ़कर शिवजी के आदर्शों के अनुसार सदा जीवन-उच्च विचार अपनाना चाहिए और विलासिता पूर्ण जीवन त्यागना चाहिए। सारत: यह कृति शिवाजी को युग-नायक के रूप में स्थापित करती है। अनिल जी को साधुवाद इस कृति के माध्यम से राजनेताओं के लिए शिवाजी की तरह आचार संहिता बनाये और अपनाये जाने की आवश्यकता प्रतिपादित करने के लिए। आवश्यक यह है कि आदर्शों को व्यवहार मेंसरकारें अपनाएं ताकि जनगण की निष्ठा शासन-प्रशासन और विधि-व्यवस्था में बनी रहे।
*
समीक्षक संपर्क- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', समन्वयं, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, दूरलेख salil.sanjiv@gmail.com, दूरवार्ता ९४२५१८३२४४, ०७६१ २४१११३१।
***
मुक्तक
वही अचल हो सचल समूची सृष्टि रच रहा
कण-कणवासी किन्तु दृष्टि से सदा बच रहा
आँख खोजती बाहर वह भीतर पैठा है
आप नाचता और आप ही आप नच रहा
*
श्री प्रकाश पा पाँव पलोट रहा राधा के
बन महेश-सिर-चंद्र, पाश काटे बाधा के
नभ तारे राकेश धरा भू वज्र कुसुम वह-
तर्क-वितर्क-कुतर्क काट-सुनता व्याधा के
*
राम सुसाइड करें, कृष्ण का मर्डर होता
ईसा बन अपना सलीब वह खुद ही ढोता
बने मुहम्मद आतंकी जब-जब जय बोलें
तब-तब बेबस छिपकर अपने नयन भिगोता
*
पाप-पुण्य क्या? सब कर्मों का फल मिलना है
मुरझाने के पहले जी भरकर खिलना है
'सलिल' शब्द-लहरों में डूबा-उतराता है
जड़ चेतन होना चाहे तो खुद हिलना है
९-८-२०१६
***
नवगीत:
*
दुनिया रंग रँगीली
बाबा
दुनिया रंग रँगीली रे!
*
धर्म हुआ व्यापार है
नेता रँगा सियार है
साध्वी करती नौटंकी
सेठ बना बटमार है
मैया छैल-छबीली
बाबा
दागी गंज-पतीली रे!
*
संसद में तकरार है
झूठा हर इकरार है
नित बढ़ते अपराध यहाँ
पुलिस भ्रष्ट-लाचार है
नैतिकता है ढीली
बाबा
विधि-माचिस है सीली रे!
*
टूट रहा घर-द्वार है
झूठों का सत्कार है
मानवतावादी भटके
आतंकी से प्यार है
निष्ठा हुई रसीली
बाबा
आस्था हुई नशीली रे!
९-८-२०१५
***
सावनी घनाक्षरियाँ :
सावन में झूम-झूम
*
सावन में झूम-झूम, डालों से लूम-लूम,
झूला झूल दुःख भूल, हँसिए हँसाइये.
एक दूसरे की बाँह, गहें बँधें रहे चाह,
एक दूसरे को चाह, कजरी सुनाइये..
दिल में रहे न दाह, तन्नक पले न डाह,
मन में भरे उछाह, पेंग को बढ़ाइए.
राखी की है साखी यही, पले प्रेम-पाखी यहीं,
भाई-भगिनी का नाता, जन्म भर निभाइए..
*
बागी थे हों अनुरागी, विरागी थे हों सुहागी,
कोई भी न हो अभागी, दैव से मनाइए.
सभी के माथे हो टीका, किसी का न पर्व फीका,
बहनों का नेह नीका, राखी-गीत गाइए..
कलाई रहे न सूनी, राखी बाँध शोभा दूनी,
आरती की ज्वाल धूनी, अशुभ मिटाइए.
मीठा खाएँ मीठा बोलें, जीवन में रस घोलें,
बहना के पाँव छूलें, शुभाशीष पाइए..
*
बंधन न रास आये, बँधना न मन भाये,
स्वतंत्रता ही सुहाये, सहज स्वभाव है.
निर्बंध अगर रहें, मर्याद को न गहें,
कोई किसी को न सहें, चैन का अभाव है..
मना राखी नेह पर्व, करिए नातों पे गर्व,
निभायें संबंध सर्व, नेह का निभाव है.
बंधन जो प्रेम का हो, कुशल का क्षेम का हो,
धरम का नेम हो, 'सलिल' सत्प्रभाव है..
*
संकट में लाज थी, गिरी सिर पे गाज थी,
शत्रु-दृष्टि बाज थी, नैया कैसे पार हो?
करनावती महारानी, पूजतीं माता भवानी,
शत्रु है बली बहुत, देश की न हार हो..
राखी हुमायूँ को भेजी, बादशाह ने सहेजी,
बहिन की पत राखी, नेह का करार हो.
शत्रु को खदेड़ दिया, बहिना को मान दिया,
नेह का जलाया दिया, भेंट स्वीकार हो..
*
महाबली बलि को था, गर्व हुआ संपदा का,
तीन लोक में नहीं है, मुझ सा कोई धनी.
मनमानी करूँ भी तो, रोक सकता न कोई,
हूँ सुरेश से अधिक, शक्तिवान औ' गुनी..
महायज्ञ कर दिया, कीर्ति यश बल लिया,
हरि को दे तीन पग, धरा मौन था गुनी.
सभी कुछ छिन गया, मुख न मलिन हुआ,
हरि की शरण गया, सेवा व्रत ले धुनी..
*
बाधा दनु-गुरु बने, विपद मेघ थे घने,
एक नेत्र गँवा भगे, थी व्यथा अनसुनी.
रक्षा सूत्र बाँधे बलि, हरि से अभय मिली,
हृदय की कली खिली, पटकथा यूँ बनी..
विप्र जब द्वार आये, राखी बांध मान पाये,
शुभाशीष बरसाये, फिर न हो ठनाठनी.
कोई किसी से न लड़े, हाथ रहें मिले-जुड़े,
साथ-साथ हों खड़े, राखी मने सावनी..
*
घनाक्षरी रचना विधान :
आठ-आठ-आठ-सात, पर यति रखकर,
मनहर घनाक्षरी, छन्द कवि रचिए.
लघु-गुरु रखकर, चरण के आखिर में,
'सलिल'-प्रवाह-गति, वेग भी परखिये..
अश्व-पदचाप सम, मेघ-जलधार सम,
गति अवरोध न हो, यह भी निरखिए.
करतल ध्वनि कर, प्रमुदित श्रोतागण-
'एक बार और' कहें, सुनिए-हरषिए..
९-८-२०१४
***

शुक्रवार, 26 जनवरी 2024

शिव छंद, गणतंत्र, लघुकथा, गीत, मुक्तिका, तिरंगा, राजेंद्र प्रसाद, सोरठा, राममनोहर सिन्हा

गीत
देश हमारा है
*
देश हमारा है, सरकार हमारी है,
क्यों न निभाई, हमने जिम्मेदारी है?
*
नियम व्यवस्था का पालन हम नहीं करें,
दोष गैर पर निज, दोषों का नहीं धरें।
खुद क्या बेहतर कर सकते हैं, वही करें।
सोचें त्रुटियाँ कितनी कहाँ सुधारी हैं?...
*
भाँग कुएँ में घोल, हुए मदहोश सभी
किसके मन में किसके प्रति आक्रोश नहीं?
खोज-थके, हारे पाया सन्तोष नहीं।
फ़र्ज़ भुला, हक़ चाहें मति गई मारी है...
*
एक अँगुली जब तुम को मैंने दिखलाई।
तीन अंगुलियाँ उठीं आप पर, शरमाईं
मति न दोष खुद के देखे थी भरमाई।
सोचें क्या-कब हमने दशा सुधारी है?...
*
जैसा भी है तन्त्र, हमारा अपना है।
यह भी सच है बेमानी हर नपना है।
अँधा न्याय-प्रशासन, सत्य न तकना है।
कद्र न उसकी जिसमें कुछ खुद्दारी है...
*
कौन सुधारे किसको? आप सुधर जाएँ।
देखें अपनी कमी, न केवल दिखलायें।
स्वार्थ भुला, सर्वार्थों की जय-जय गायें।
अपनी माटी सारे जग से न्यारी है ...
•••
प्रथम राष्ट्रपति महामानव देशरत्न राजेंद्र बाबू

डॉ. राजेंद्र प्रसाद राष्ट्रपति बनने के बाद पहली बार अपने गाँव जीरादेई (ज़िला सिवान, बिहार) गए। भव्य तरीके से उनका स्वागत हुआ। ढोल और गाजे-बाजे की आवाज के साथ उनका सम्मान हुआ। गाँववालों के साथ वे अपने घर पहुँचे और पैर छूकर अपनी दादी का आशीर्वाद लिया। दादी ने आशीर्वाद देते हुए कहा- "सुनअ तनी कि बउवा बहुत बड़का आदमी बनअ गईल। जुग जुग जिय औरउ आगे बढ़अ। इतना बड़ आदमी जाई कि गाँव में ज सिपाही रही ओकर से भी बड़ -उ बहुते तंग करतअ हमरा परिवार के।" (सुना कि तुम बहुत बड़े आदमी बन गए हो। जुग जुग जियो, और भी आगे बढ़ो। इतना बड़ा आदमी कि ये गाँव में जो सिपाही है उससे बड़े आदमी- वो सिपाही हमारे परिवार को बहुत तंग करता है।)

बहुत सादा जीवन था उनका, स्वभाव भी सरल। पहनावा-ओढ़ावा और रहन सहन बेहद साधारण। मोज़े के जोड़े का एक मोजा फट जाए तो उसे फेंकते नहीं थे, दूसरे रंग के मोज़े के साथ पहन लेते कि इसे बनाने में जिसने श्रम किया है, उसका अपमान न हो।
राष्ट्रपति बनने के बाद उन्हें दिल्ली में आवंटित निवास राष्ट्रपति भवन में व्यवस्थित होना था। रेल के माध्यम से उनका सारा सामान पटना से दिल्ली ले जाया रहा था। व्यक्तिगत रूप से इस्तेमाल होने वाली सामग्री तो १-२ सूटकेस में समाहित हो गए पर सबसे बड़ा ज़खीरा था- बाँस से बने सूप ,डलिया, चलनी इत्यादि का। गाँवों में श्रीमती राजवंशी देवी इसका इस्तेमाल अनाज से भूसा, कंकड़ और धूल इत्यादि निकालने के लिए करती रहीं। उन्होंने और उनकी पत्नी ने ये परंपरा राष्ट्रपति भवन में भी बरक़रार रखी।

कुछ दिनों बाद प्रख्यात कवयित्री महादेवी जी दिल्ली गईं तो राजेंद्र बाबू और राजवंशी देवी जी से मिलने बहुत संकोच के साथ गईं कि सर्वोच्च पद पाने के बाद न जाने कैसा व्यवहार करें। राजेंद्र बाबू कार्यालय में थे, इसलिए वे सीधे राजवंशी देवी के पास रसोई घर में बैठ गईं। हाल-चाल जानने के बाद पूछा कि कैसा लग रहा है? राजवंशी जी ने कहा कि गाँव की बहुत याद आती है। यहाँ कोई अपना नहीं है। महादेवी जी ने चलते समय पूछा कि यहाँ तो किसी चीज की कमी नहीं होगी? राजवंशी देवी ने सँकुचाते हुए कहा कि गाँव जैसे सूपे नहीं मिलते। कुछ दिनों बाद महादेवी जी का फिर दिल्ली जाना हुआ तो वे राजवंशी देवी के लिए कुछ सूपे ले जाना न भूलीं। सूपे पाकर राजवंशी जी बहुत प्रसन्न हुईं हुए बगल में सूपे रखकर दोनों बातचीत करने लगीं। महादेवी जी के आने का समाचार मिलने पर कुछ देर में राजेंद्र बाबू भी रसोई में आ गए। सूपे देखकर पूछ कि कहाँ से आए तो राजवंशी देवी ने बताया कि बीबी जी (ननद) लाई हैं। राजेंद्र बाबू ने नाज़िर को बुलवाया और बोले सूपे तोशाखाने (वह स्थान जहाँ बेशकीमती उपहार रखे जाते हैं) में रखवा दो और राजवंशी देवी से बोले कि मैं सरकारी पद पर हूँ, मुझे जो उपहार मिले वह सरकार का होता है, हम उसे अपने काम में नहीं ला सकते। राजवंशी जी और महादेवी जी देखती रह गईं और नाज़िर ने वे सूपे तोशाखाने में जमा करवा दिए। आज हर अधिकारी और नेता सरकारी सुख, सुविधा और संपत्ति पर अपना अधिकार समझता है, क्या कोई राजेंद्र बाबू का अनुकरण करेगा?

बारह वर्षों के लिए राष्ट्रपति भवन राजेंद्र बाबू का घर था। उसकी राजसी भव्यता और शान सुरुचिपूर्ण सादगी में बदल गई थी। राष्ट्रपति का एक पुराना नौकर था, तुलसी। एक दिन सुबह कमरे की झाड़पोंछ करते हुए उससे राजेन्द्र प्रसाद जी के डेस्क से एक हाथी दांत का पेन नीचे ज़मीन पर गिर गया। पेन टूट गया और स्याही कालीन पर फैल गई। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद बहुत गुस्सा हुए। यह पेन किसी की भेंट थी और उन्हें बहुत ही पसन्द थी। तुलसी पहले भी कई बार लापरवाही कर चुका था। उन्होंने अपना गुस्सा दिखाने के लिये तुरंत तुलसी को अपनी निजी सेवा से हटा दिया। उस दिन वह बहुत व्यस्त रहे। कई प्रतिष्ठित व्यक्ति और विदेशी पदाधिकारी उनसे मिलने आये। मगर सारा दिन काम करते हुए उनके दिल में एक काँटा सा चुभता रहा था। उन्हें लगता रहा कि उन्होंने तुलसी के साथ अन्याय किया है। जैसे ही उन्हें मिलने वालों से अवकाश मिला राजेन्द्र प्रसाद ने तुलसी को अपने कमरे में बुलाया। पुराना सेवक अपनी ग़लती पर डरता हुआ कमरे के भीतर आया। उसने देखा कि राष्ट्रपति सिर झुकाए और हाथ जोड़े उसके सामने खड़े हैं। उन्होंने धीमे स्वर में कहा- "तुलसी मुझे माफ कर दो।"
तुलसी इतना चकित हुआ कि उससे कुछ बोला ही नहीं गया।
राष्ट्रपति ने फिर नम्र स्वर में दोहराया- "तुलसी, तुम क्षमा नहीं करोगे क्या?"
इस बार सेवक और स्वामी दोनों की आँखों में आँसू आ गए।
***
मुक्तिका
*
जनगण सेवी तंत्र बने राधे माधव
लोक जागृति मंत्र बने राधे माधव
प्रजा पर्व गणतंत्र दिवस यह अमर रहे
देश हेतु जन यंत्र बने राधे माधव
हों मतभेद न पर मनभेद कभी हममें
कोटि-कोटि जन एक बने राधे माधव
पक्ष-विपक्ष विनम्र सहिष्णु विवेकी हों
दाऊ-कन्हैया सदृश सदा राधे माधव
हों नर-नारी पूरक शंकर-उमा बनें
संतति सीता-राम रहे राधे माधव
हो संजीवित जग जीवन की जय बोलें
हो न महाभारत भारत राधे माधव
आर्यावर्त बने भारत सुख-शांतिप्रदा
रिद्धि-सिद्धि-विघ्नेश बसें राधे माधव
देव कलम के! शब्द-शक्ति की जय जय हो
शारद सुत हों सदा सुखी राधे माधव
जगवाणी हिंदी की दस दिश जय गूँजे
स्नेह सलिल अभिषेक करे राधे माधव
२०.१.२०२०
***
सोरठे गणतंत्र के
जनता हुई प्रसन्न, आज बने गणतंत्र हम।
जन-जन हो संपन्न, भेद-भाव सब दूर हो।
*
सेवक होता तंत्र, प्रजातंत्र में प्रजा का।
यही सफलता-मंत्र, जनसेवी नेता बनें।।
*
होता है अनमोल, लोकतंत्र में लोकमत।
कलम उठाएँ तोल, हानि न करिए देश की।।
*
खुद भोगे अधिकार, तंत्र न जन की पीर हर।
शासन करे विचार, तो जनतंत्र न सफल है।।
*
आन, बान, सम्मान, ध्वजा तिरंगी देश की।
विहँस लुटा दें जान, झुकने कभी न दे 'सलिल'।।
*
पालन करिए नित्य, संविधान को जानकर।
फ़र्ज़ मानिए सत्य, अधिकारों की नींव हैं।।
*
भारतीय हैं एक, जाति-धर्म को भुलाकर।
चलो बनें हम नेक, भाईचारा पालकर
२६-१-२०१८
***
बासंती दोहा ग़ज़ल (मुक्तिका)
*
स्वागत में ऋतुराज के, पुष्पित शत कचनार.
किंशुक कुसुम विहँस रहे, या दहके अंगार..
पर्ण-पर्ण पर छा गया, मादक रूप निखार.
पवन खो रहा होश निज, लख वनश्री श्रृंगार..
महुआ महका देखकर, चहका-बहका प्यार.
मधुशाला में बिन पिए, सिर पर नशा सवार..
नहीं निशाना चूकती, पंचशरों की मार.
पनघट-पनघट हो रहा, इंगित का व्यापार..
नैन मिले लड़ मिल झुके, करने को इंकार.
देख नैन में बिम्ब निज, कर बैठे इकरार..
मैं तुम यह वह ही नहीं, बौराया संसार.
फागुन में सब पर चढ़ा, मिलने गले खुमार..
ढोलक, टिमकी, मँजीरा, करें ठुमक इसरार.
फगुनौटी चिंता भुला. नाचो-गाओ यार..
घर-आँगन, तन धो लिया, अनुपम रूप निखार.
अपने मन का मैल भी, किंचित 'सलिल' बुहार..
बासंती दोहा ग़ज़ल, मन्मथ की मनुहार.
सीरत-सूरत रख 'सलिल', निर्मल सहज सँवार..
२२-१-२०१८
***
लघुकथा-
तिरंगा
*
माँ इसे फेंकने को क्यों कह रही हो? बताओ न इसे कहाँ रखूँ? शिक्षक कह रहे थे इसे सबसे ऊपर रखना होता है। तुम न तो पूजा में रखने दे रही हो, न बैठक में, न खाने की मेज पर, न ड्रेसिंग टेबल पर फिर कहाँ रखूँ?
बच्चा बार-बार पूछकर झुंझला रहा था.… इतने में कर्कश आवाज़ आयी 'कह तो दिया फेंक दे, सुनाता है कि लगाऊँ दो तमाचे?'
अवाक् बच्चा सुबकते हुए बोला 'तुम बड़े लोग गंदे हो। सही बात बताते नहीं और डाँटते हो, तुमसे बात नहीं करूंगा'। सुबकते-सुबकते कब आँख लगी पता ही नहीं चला उसके सीने से अब भी लगा था तिरंगा।
***
नवगीत
*
प्रजातंत्र का अर्थ हो गया
केर-बेर का संग
*
संविधान कर प्रावधान
जो देता, लेता छीन
सर्वशक्ति संपन्न जनता
केवल बेबस-दीन
नाग-साँप-बिच्छू चुनाव लड़
बाँट-फूट डालें
विजयी हों, मिल जन-धन लूटें
जन-गण हो निर्धन
लोकतंत्र का पोस्टर करती
राजनीति बदरंग
प्रजातंत्र का अर्थ हो गया
केर-बेर का संग
*
आश्वासन दें, जीतें चुनाव, कह
जुमला जाते भूल
कहें गरीबी पर गरीब को
मिटा, करें निर्मूल
खुद की मूरत लगा पहनते,
पहनाते खुद हार
लूट-खसोट करें व्यापारी
अधिकारी बटमार
भीख , पा पुरस्कार
लौटा करते हुड़दंग
प्रजातंत्र का अर्थ हो गया
केर-बेर का संग
*
गौरक्षा का नाम, स्वार्थ ही
साध रहे हैं खूब
कब्ज़ा शिक्षा-संस्थान पर
कर शराब में डूब
दुश्मन के झंडे लहराते
दें सेना को दोष
बिन मेहनत पा सकें न रोटी
तब आएगा होश
जनगण जागे, गलत दिखे जो
करे उसी से जंग
प्रजातंत्र का अर्थ हो गया
केर-बेर का संग
२२-८-२०१६
***
मुक्तिका :
*
तुममें मैं हूँ , मुझमें तुम हो
खोज न बाहर, मिलकर हम हो
*
ईश-देश या नियति-प्रकृति सँग
रहो प्रकाशित, शेष न तम हो
*
पीर तुझे हो, दर्द मुझे हो
सुख-दुःख में मिल अँखियाँ नम हो
*
संबंधों के अनुबंधों में
साधक संयम और नियम हो
*
मंतर मार सकें कुछ ऐसा
अंतर से ही अंतर गुम हो
*
मन-प्राणों को देह टेरती
हो विदेह सुख वही परम हो
*
देना-पाना, मिल-खो जाना
आना-जाना संग धरम हो
२६.१.२०१६
***
गीत:
यह कैसा जनतंत्र...
*
यह कैसा जनतंत्र कि सहमत होना, हुआ गुनाह ?
आह भरें वे जो न और क़ी सह सकते हैं वाह...
*
सत्ता और विपक्षी दल में नेता हुए विभाजित
एक जयी तो कहे दूसरा, मैं हो गया पराजित
नूरा कुश्ती खेल-खेलकर जनगण-मन को ठगते-
स्वार्थ और सत्ता हित पल मेँ हाथ मिलाये मिलते
मेरी भी जय, तेरी भी जय, करते देश तबाह...
*
अहंकार के गुब्बारे मेँ बैठ गगन मेँ उड़ते
जड़ न जानते, चेतन जड़ के बल जमीन से जुड़ते
खुद को सही, गलत औरों को कहना- पाला शौक
आक्रामक भाषा ज्यों दौड़े सारमेय मिल-भौंक
दूर पंक से निर्मल चादर रखिए सही सलाह...
*
दुर्योधन पर विदुर नियंत्रण कर पायेगा कैसे?
शकुनी बिन सद्भाव मिटाये जी पाएगा कैसे??
धर्मराज की अनदेखी लख, पार्थ-भीम भी मौन
कृष्ण नहीं तो पीर सखा की न्यून करेगा कौन?
टल पाए विनाश, सज्जन ही सदा करें परवाह...
*
वेश भक्त का किंतु कुदृष्टि उमा पर रखे दशानन
दबे अँगूठे के नीचे तब स्तोत्र रचे मनभावन
सच जानें महेश लेकिन वे नहीं छोड़ते लीला
राम मिटाते मार, रहे फिर भी सिय-आँचल गीला
सत को क्यों वनवास? असत वाग्मी क्यों गहे पनाह?...
*
कुसुम न काँटों से उलझे, तब देव-शीश पर चढ़ता
सलिल न पत्थर से लडता तब बनकर पूजता
ढाँक हँसे घन श्याम, किन्तु राकेश न देता ध्यान
घट-बढ़कर भी बाँट चंद्रिका, जग को दे वरदान
जो गहरे वे शांत, मिले कब किसको मन की थाह...
*
२८-४-२०१४
***
छंद सलिला:
शिव छंद
*
(अब तक प्रस्तुत छंद: अग्र, अचल, अचल धृति, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, कीर्ति, घनाक्षरी, छवि, तोमर, दीप, दोधक, निधि, प्रेमा, माला, वाणी, शक्तिपूजा, शाला, शिव, शुभगति, सार, सुगति, सुजान, हंसी)
*
एकादश रुद्रों के आधार पर ग्यारह मात्राओं के छन्दों को 'रूद्र' परिवार का छंद कहा गया है. शिव छंद भी रूद्र परिवार का छंद है जिसमें ११ मात्राएँ होती हैं. तीसरी, छठंवीं तथा नवमी मात्रा लघु होना आवश्यक है. शिव छंद की मात्रा बाँट ३-३-३-३-२ होती है.
छोटे-छोटे चरण तथा दो चरणों की समान तुक शिव छंद को गति तथा लालित्य से समृद्ध करती है. शिखरिणी की सलिल धर की तरंगों के सतत प्रवाह और नरंतर आघात की सी प्रतीति कराना शिव छंद का वैशिष्ट्य है.
शिव छंद में अनिवार्य तीसरी, छठंवीं तथा नवमी लघु मात्रा के पहले या बाद में २-२ मात्राएँ होती हैं. ये एक गुरु या दो लघु हो सकती हैं. नवमी मात्रा के साथ चरणान्त में दो लघु जुड़ने पर नगण, एक गुरु जुड़ने पर आठवीं मात्र लघु होने पर सगण तथा गुरु होने पर रगण होता है.
सामान्यतः दो पंक्तियों के शिव छंद की हर एक पंक्ति में २ चरण होते हैं तथा दो पंक्तियों में चरण साम्यता आवश्यक नहीं होती। अतः छंद के चार चरणों में लघु, गुरु, लघु-गुरु या गुरु-लघु के आधार पर ४ उपभेद हो सकते हैं.
उदाहरण:
१. चरणान्त लघु:
हम कहीं रहें सनम, हो कभी न आँख नम
दूरियाँ न कर सकें, दूर- हों समीप हम
२. चरणान्त गुरु:
आप साथ हों सदा, मोहती रहे अदा
एक मैं नहीं रहूँ, भाग्य भी रहे फ़िदा
३. चरणान्त लघु-गुरु:
शिव-शिवा रहें सदय, जग तभी रहे अभय
पूत भक्ति भावना, पूर्ण शक्ति कामना
४. चरणान्त गुरु लघु:
हाथ-हाथ में लिये, बाँध मुष्टि लब सिये
उन्नत सर-माथ रख, चाह-राह निज परख
------
***
२६ जनवरी:
भारत का राष्ट्रीय पर्व गणतन्त्र दिवस प्रति वर्ष २६ जनवरी को मनाया जाता है। इसी दिन सन १९५० को भारत का संविधान लागू किया गया था।
इतिहास
सन १९२९- दिसंबर में जवाहरलाल नेहरू जी की अध्यक्षता में लाहौर में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में प्रस्ताव पारित कर घोषणा की गई कि यदि अंग्रेज सरकार २६ जनवरी १९३० तक भारत को उपनिवेश का पद (डोमीनियन स्टेटस) नहीं प्रदान करेगी तो भारत अपने को पूर्ण स्वतंत्र घोषित कर देगा। २६ जनवरी, 1930 तक अंग्रेज सरकार ने कुछ नहीं किया तब कांग्रेस ने उस दिन भारत की पूर्ण स्वतंत्रता के निश्चय की घोषणा कर अपना आंदोलन आरंभ किया। उस दिन से १९४७ में स्वतंत्रता प्राप्त होने तक २६ जनवरी स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया जाता रहा। तदनंतर स्वतंत्रता प्राप्ति के वास्तविक दिन १५ अगस्त को स्वतंत्रता दिवस के रूप में स्वीकार किया गया। २६ जनवरी का महत्व बनाए रखने के लिए विधान निर्मात्री सभा (कांस्टीट्यूएंट असेंबली) द्वारा स्वीकृत संविधान में भारत के गणतंत्र स्वरूप को मान्यता प्रदान की गई।
गणतंत्र दिवस समारोह
२६ जनवरी को भारत के राष्ट्रपति द्वारा भारतीय राष्ट्र ध्वज को फहराने के बाद सामूहिक रूप में खड़े होकर राष्ट्रगान गाया जाता है। हर साल एक भव्य परेड इंडिया गेट से राष्ट्रपति भवन (राष्ट्रपति के निवास) तक राजपथ नई दिल्ली में आयोजित की जाती है| इस भव्य परेड में भारतीय सेना के विभिन्न रेजिमेंट ,वायुसेना, नौसेना आदि भाग लेते हैं। समारोह में भाग लेने के लिए देश के सभी हिस्सों से राष्ट्रीय कडेट कोर व विभिन्न विद्यालयों से बच्चे आते हैं , समारोह में भाग लेना एक सम्मान ही नहीं सौभाग्य भी है। परेड प्रारंभ करते हुए प्रधानमंत्री अमर जवान ज्योति पर पुष्प माल चढ़ाते हैं, शहीद सैनिकों की स्मृति में दो मिनट मौन रखा जाता है। यह देश की संप्रभुता की रक्षा के लिए लड़े युद्ध व स्वतंत्रता आंदोलन में देश के लिए बलिदान देने वाले शहीदों के बलिदान का एक स्मारक है। इसके बाद प्रधानमंत्री, अन्य व्यक्तियों के साथ राजपथ पर स्थित मंच तक आते हैं, राष्ट्रपति बाद में अवसर के मुख्य अतिथि के साथ आते हैं। परेड में विभिन्न राज्यों से चलित शानदार प्रदर्शिनी भी होती है ,प्रदर्शिनी में हर राज्य के लोगों की विशेषता, उनके लोक गीत व कला का दृश्यचित्र प्रस्तुत किया जाता है| हर प्रदर्शिनी भारत की विविधता व सांस्कृतिक समृद्धि प्रदर्शित करती है। परेड और जलूस राष्ट्रीय टेलीविजन पर प्रसारित होता है और देश के हर कोने में करोड़ों दर्शकों के द्वारा देखा जाता है। भारत के राष्ट्रपति व प्रधान मंत्री के भाषण सुनने अगणित जनगण लाल किले पर एकत्रित होता है।
भारत में गणतन्त्र दिवस
ऑस्ट्रेलिया में ऑस्ट्रेलिया दिवस
प्रमुख घटनाएँ:
१५५६- हुमायूँ निधन।
१७८८- ऑस्ट्रेलिया ब्रिटेन का उपनिवेश बना।
१९०५- दुनिया का सबसे बड़ा हीरा 'क्यूलियन' (वजन ३१०६ कैरेट) दक्षिण अफ्रीका के प्रिटोरिया में मिला।
१९२४- पेट्रोग्राद (सेंट पीट्सबर्ग) का नाम बदलकर 'लेनिनग्राद' किया गया।
१९३१- सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान ब्रिटिश सरकार से बातचीत के लिए महात्मा गांधी रिहा किये गए।
१९३७- भारतीय संघीय न्यायालय का नाम सर्वोच्च न्यायालय कर दिया गया।
१९५०- भारत संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित हुआ, भारत का संविधान लागू हुआ। स्वतंत्र भारत के पहले और अंतिम गवर्नर जनरल चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने अपने पद से त्यागपत्र दिया, डा. राजेंद्र प्रसाद देश के पहले राष्ट्रपति बने।
उत्तर प्रदेश के सारनाथ स्थित अशोक स्तंभ के शेरों को राष्ट्रीय प्रतीक की मान्यता मिली।
भारतीय युद्ध पोत एचएमआईएस दिल्ली काअ नाम कारण आईएनएस दिल्ली हुआ, ३० जून १९७८ को सेवामुक्त।
१९७२- युध्द में शहीद सैनिकों की याद में दिल्ली के इंडिया गेट पर अमर जवान ज्योति स्थापित।
१९८० - इसरायल और मिस्र के बीच राजनयिक संबंध फ़िर से बहाल ।
१९८१- पूर्वोत्तर भारत में हवाई यातायात सुगम बनाने को ध्यान में रखते हुए हवाई सेवा 'वायुदूत' शुरू।
१९८२-भारतीय रेल ने पैलेस आन व्हील्स सेवा शुरू की।
१९९४- रोमानिया ने उत्तर अटलांटिक संधि संगठन 'नाटो' के साथ सैन्य सहयोग समझौते पर दस्तखत किए।
१९९६- अमरीकी सीनेट ने रूस के साथ परमाणु हथियार व मिसाइल की होड़ घटाने हेतु समझौता स्टार्ट 2 मंजूर किया।
२००१- गुजरात के भुज में ७.७ तीव्रता के भीषण भूकंप में लाखों लोग मारे गए थे।
२००३- मार्टिना नवरातिलोवा (अमेरिका) टेनिस का ग्रैंड स्लैम खिताब जीतनेवाली सबसे उम्रदराज खिलाड़ी बनी।
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संविधान के चित्रकार ब्यौहार राममनोहर सिन्हा

संविधान के इस मुख पृष्ठ को तो लगभग सभी ने कभी न कभी देखा होगा, लेकिन हम लोगों में से कितने ये जानते होंगे कि इस आवरण को अलंकृत करने वाले महान चित्रकार जबलपुर के थे, जी हाँ उनका नाम था ब्योहार राममनोहर सिन्हा, शान्तिनिकेतन में देश के सर्वकालिक महान चित्रकारों में से एक नन्दलाल बोस के प्रिय शिष्य ब्योहार राममनोहर सिन्हा जी ने हमारे देश के संविधान का मुख्य पृष्ठ बनाया था, और वो भी सिर्फ 20 वर्ष की उम्र में..वो किस्सा भी बहुत रोचक है..


हुआ यूँ कि देश जब आजाद हुआ तो इसका अपना संविधान होना भी ज़रूरी था तो एक तरफ संविधान के निर्माता, देश के लिए कानून बनाने के लिए माथापच्ची कर रहे थे तब जवहारलाल नेहरु इसे हर तरह से अद्वतीय बनाने के लिए कृत संकल्पित थे, और इसी चाह को मन में रखकर वे पहुंचे शान्तिनिकेतन उस समय के सबसे मशहूर चित्रकार नन्दलाल बोस के पास, और नन्दलाल बोस ने भरोसा जताया अपने प्रिय शिष्य ब्यौहार राममनोहर सिन्हा के ऊपर और उन्हें संविधान के मुख्य पृष्ठ के रूपांकन (डिजाइन) का जिम्मा सौंपा, सिन्हा जी ने भी पूरी लगन और ईमानदारी से वो काम पूरा किया और बनाया हुआ पृष्ठ लेकर जब जवाहरलाल नेहरु को दिखाया तो नेहरु जी ने उसे देखकर कहा कि ये बना तो बेहतरीन है लेकिन इस कला के बेजोड़ नमूने को मैं स्वीकार नहीं कर सकता क्यूंकि इसमें कला तो है लेकिन कलाकार नदारद, क्यूंकि हर कला के नमूने को जीवंत उसे बनाने वाले कलाकार के हस्ताक्षर करते हैं जो इसमें नहीं है इसीलिए मैं इसे स्वीकार नहीं कर सकता, तब 20 वर्षीय उस युवा ने जो जवाब दिया वो लाजवाब था, ब्यौहार राममनोहर सिन्हा ने नेहरु जी से कहा कि चूँकि ये मात्र कला नहीं है ये देश के लिए मेरा योगदान है और उसमे मेरा नाम आये मैं ये ज़रूरी नहीं मानता लेकिन जब नेहरु नहीं माने तो उन्होंने अपने नाम को भी पृष्ठ के दायें निचले कोने में इस तरह संयोजित किया कि उस कवर की डिजाईन में "राम" आ भी गया और समा भी गया।

उस महान कलाकार की महानता और का एक और किस्सा है, १९५७ के आसपास जब भारत के चीन से रिश्ते बिगड़ने लगे तो नेहरु ने फिर ब्यौहार राममनोहर सिन्हा को राहुल संस्क्रतायन के साथ चीन भेजा, आर्ट डिप्लोमेसी का दायित्व सौंप कर, और दोनों ने चीन जाकर भारतीय और चीनी चित्रकला की वो जुगलबंदी बनाई कि थोड़े दिनों में दोनों देशों के संबंधों में सुधार देखने मिला, और "हिंदी चीनी भाई भाई " के नारे गूँजने लगे, हालाँकि ये दोस्ती बाद के कुछ वर्षों तक कायम नहीं रह पाई।
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गणतंत्र दिवस पर विशेष गीत:

लोकतंत्र की वर्ष गांठ पर
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लोकतंत्र की वर्ष गांठ पर
भारत माता का वंदन...
हम सब माता की संतानें,
नभ पर ध्वज फहराएंगे.
कोटि-कोटि कंठों से मिलकर
'जन गण मन' गुन्जायेंगे.
'झंडा ऊंचा रहे हमारा',
'वन्दे मातरम' गायेंगे.
वीर शहीदों के माथे पर
शोभित हो अक्षत-चन्दन...
नेता नहीं, नागरिक बनकर
करें देश का नव निर्माण.
लगन-परिश्रम, त्याग-समर्पण,
पत्थर में भी फूंकें प्राण.
खेत-कारखाने, मन-मन्दिर,
स्नेह भाव से हों संप्राण.
स्नेह-'सलिल' से मरुथल में भी
हरिया दें हम नन्दन वन...
दूर करेंगे भेद-भाव मिल,
सबको अवसर मिलें समान.
शीघ्र और सस्ता होगा अब
सतत न्याय का सच्चा दान.
जो भी दुश्मन है भारत का
पहुंचा देंगे उसे मसान.
सारी दुनिया लोहा मने
विश्व-शांति का हो मंचन...
२६.१.२०१३
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त्रिभंगी सलिला:
ऋतुराज मनोहर...
*
ऋतुराज मनोहर, प्रीत धरोहर, प्रकृति हँसी, बहु पुष्प खिले.
पंछी मिल झूमे, नभ को चूमे, कलरव कर भुज भेंट मिले..
लहरों से लहरें, मिलकर सिहरें, बिसरा शिकवे भुला गिले.
पंकज लख भँवरे, सजकर सँवरे, संयम के दृढ़ किले हिले..
*
ऋतुराज मनोहर, स्नेह सरोवर, कुसुम कली मकरंदमयी.
बौराये बौरा, निरखें गौरा, सर्प-सर्पिणी, प्रीत नयी..
सुरसरि सम पावन, जन मन भावन, बासंती नव कथा जयी.
दस दिशा तरंगित, भू-नभ कंपित, प्रणय प्रतीति न 'सलिल' गयी..
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ऋतुराज मनोहर, सुनकर सोहर, झूम-झूम हँस नाच रहा.
बौराया अमुआ, आया महुआ, राई-कबीरा बाँच रहा..
पनघट-अमराई, नैन मिलाई के मंचन के मंच बने.
कजरी-बम्बुलिया आरोही-अवरोही स्वर हृद-सेतु तने..
१४-२-२०१३
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गीत :
किस तरह आये बसंत?...
मानव लूट रहा प्रकृति को
किस तरह आये बसंत?...
*
होरी कैसे छाये टपरिया?,
धनिया कैसे भरे गगरिया?
गाँव लीलकर हँसे नगरिया.
राजमार्ग बन गयी डगरिया.
राधा को छल रहा सँवरिया.
अंतर्मन रो रहा निरंतर
किस तरह गाये बसंत?...
*
बैला-बछिया कहाँ चरायें?
सूखी नदिया कहाँ नहायें?
शेखू-जुम्मन हैं भरमाये.
तकें सियासत चुप मुँह बाये.
खुद से खुद ही हैं शरमाये.
जड़विहीन सूखा पलाश लख
किस तरह भाये बसंत?...
*
नेह नरमदा सूखी-सूनी.
तीन-पाँच करते दो दूनी.
टूटी बागड़ ग़ायब थूनी.
ना कपास, तकली ना पूनी.
वैश्विकता की दाढ़ें खूनी.
खुशी बिदा हो गयी 'सलिल'चुप
किस तरह लाये बसंत?...
६-३-२०१०
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लघुकथा
शब्द और अर्थ
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शब्द कोशकार ने अपना कार्य समाप्त किया...कमर सीधी कर लूँ , सोचते हुए लेटा कि काम की मेज पर कुछ खटपट सुनायी दी... मन मसोसते हुए उठा और देखा कि यथास्थान रखे शब्दों के समूह में से निकल कर कुछ शब्द बाहर आ गए थे। चश्मा लगाकर पढ़ा , वे शब्द 'लोकतंत्र', प्रजातंत्र', 'गणतंत्र' और 'जनतंत्र' थे।
शब्द कोशकार चौका - ' अरे! अभी कुछ देर पहले ही तो मैंने इन्हें यथास्थान रखा रखा था, फ़िर ये बाहर कैसे...?'
'चौंको मत...तुमने हमारे जो अर्थ लिखे हैं वे अब हमें अनर्थ लगते हैं। दुनिया का सबसे बड़ा लोक तंत्र लोभ तंत्र में बदल गया है। प्रजा तंत्र में तंत्र के लिए प्रजा की कोई अहमियत ही नहीं है। गन विहीन गन तंत्र का अस्तित्व ही सम्भव नहीं है। जन गन मन गाकर जनतंत्र की दुहाई देने वाला देश सारे संसाधनों को तंत्र के सुख के लिए जुटा रहा है। -शब्दों ने एक के बाद एक मुखर होते हुए कहा।
२३.३.२००९
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