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सोमवार, 28 जून 2021

अमलतास

प्रस्तुत है एक रचना - प्रतिरचना आप इस क्रम में अपनी रचना टिप्पणी में प्रस्तुत कर सकते हैं.
रचना - प्रति रचना : इंदिरा प्रताप / संजीव 'सलिल'
*
रचना:
अमलतास का पेड़
इंदिरा प्रताप
*
वर्षों बाद लौटने पर घर
आँखें अब भी ढूँढ रही हैं
पेड़ पुराना अमलतास का,
सड़क किनारे यहीं खड़ा था
लदा हुआ पीले फूलों से|
पहली सूरज की किरणों से
सजग नीड़ का कोना–कोना,
पत्तों के झुरमुट के पीछे,
कलरव की धुन में गाता था,
शिशु विहगों का मौन मुखर हो|
आँखें अब भी ढूँढ रही हैं
तेरी–मेरी
पेड़ पुराना अमलतास का
लदा हुआ पीले फूलों से
कुछ दिन पहले यहीं खड़ा था|
गुरुवार, २३ अगस्त २०१२
*****
Indira Pratap <pindira77@yahoo.co.in
प्रतिरचना:
अमलतास का पेड़
संजीव 'सलिल'
**
तुम कहते हो ढूँढ रहे हो
पेड़ पुराना अमलतास का।
*
जाकर लकड़ी-घर में देखो
सिसक रही हैं चंद टहनियाँ,
कचरा-घर में रोती कलियाँ,
बिखरे फूल सड़क पर करते
चीत्कार पर कोई न सुनता।
करो अनसुना.
अपने अंतर्मन से पूछो:
क्यों सन्नाटा फैला-पसरा
है जीवन में?
घर-आंगन में??
*
हुआ अंकुरित मैं- तुम जन्मे,
मैं विकसा तुम खेल-बढ़े थे।
हुईं पल्लवित शाखाएँ जब
तुमने सपने नये गढ़े थे।
कलियाँ महकीं, कँगना खनके
फूल खिले, किलकारी गूँजी।
बचपन में जोड़ा जो नाता
तोड़ा सुन सिक्कों की खनखन।
तभी हुई थी घर में अनबन।
*
मुझसे जितना दूर हुए तुम,
तुमसे अपने दूर हो गए।
मन दुखता है यह सच कहते
आँखें रहते सूर हो गए।
अब भी चेतो-
व्यर्थ न खोजो,
जो मिट गया नहीं आता है।
उठो, फिर नया पौधा रोपो,
टूट गये जो नाते जोड़ो.
पुरवैया के साथ झूमकर
ऊषा संध्या निशा साथ हँस
स्वर्गिक सुख धरती पर भोगो
बैठ छाँव में अमलतास की.
*
२८-६-२०१७ 
salil.sanjiv@gmail.com

शुक्रवार, 28 जून 2019

रचना-प्रति रचना: अमलतास का पेड़

प्रस्तुत है एक रचना - प्रतिरचना आप इस क्रम में अपनी रचना टिप्पणी में प्रस्तुत कर सकते हैं.
रचना - प्रति रचना : इंदिरा प्रताप / संजीव 'सलिल'
*
रचना:
अमलतास का पेड़
इंदिरा प्रताप
*
वर्षों बाद लौटने पर घर
आँखें अब भी ढूँढ रही हैं
पेड़ पुराना अमलतास का,
सड़क किनारे यहीं खड़ा था
लदा हुआ पीले फूलों से|
पहली सूरज की किरणों से
सजग नीड़ का कोना–कोना,
पत्तों के झुरमुट के पीछे,
कलरव की धुन में गाता था,
शिशु विहगों का मौन मुखर हो|
आँखें अब भी ढूँढ रही हैं
तेरी–मेरी
पेड़ पुराना अमलतास का
लदा हुआ पीले फूलों से
कुछ दिन पहले यहीं खड़ा था|
गुरुवार, २३ अगस्त २०१२
*****
Indira Pratap <pindira77@yahoo.co.in
प्रतिरचना:
अमलतास का पेड़
संजीव 'सलिल'
**
तुम कहते हो ढूँढ रहे हो
पेड़ पुराना अमलतास का।
*
जाकर लकड़ी-घर में देखो
सिसक रही हैं चंद टहनियाँ,
कचरा-घर में रोती कलियाँ,
बिखरे फूल सड़क पर करते
चीत्कार पर कोई न सुनता।
करो अनसुना.
अपने अंतर्मन से पूछो:
क्यों सन्नाटा फैला-पसरा
है जीवन में?
घर-आंगन में??
*
हुआ अंकुरित मैं- तुम जन्मे,
मैं विकसा तुम खेल-बढ़े थे।
हुईं पल्लवित शाखाएँ जब
तुमने सपने नये गढ़े थे।
कलियाँ महकीं, कँगना खनके
फूल खिले, किलकारी गूँजी।
बचपन में जोड़ा जो नाता
तोड़ा सुन सिक्कों की खनखन।
तभी हुई थी घर में अनबन।
*
मुझसे जितना दूर हुए तुम,
तुमसे अपने दूर हो गए।
मन दुखता है यह सच कहते
आँखें रहते सूर हो गए।
अब भी चेतो-
व्यर्थ न खोजो,
जो मिट गया नहीं आता है।
उठो, फिर नया पौधा रोपो,
टूट गये जो नाते जोड़ो.
पुरवैया के साथ झूमकर
ऊषा संध्या निशा साथ हँस
स्वर्गिक सुख धरती पर भोगो
बैठ छाँव में अमलतास की.
*
salil.sanjiv@gmail.com

गुरुवार, 18 अक्टूबर 2012

कविता: सुबह-सवेरे इंदिरा प्रताप
















कविता:
सुबह-सवेरे  
इंदिरा प्रताप
*
सुबह सवेरे
छल – छल जल
उमगी एक तरंग
लहर – लहर लहराया
चंचल जल |
भोर – किरण जल थल
खिले सुमन
मृग तृष्णा सा मन
करे नित्य नर्तन |
सन – सन - सन
चली पवन
उड़ा संग ले मन
तन हर्षाया |
कुहू – कुहू की तान
लाया मधुर विहान
दिल भर आया |
रस – रूप – गंध
सब एक संग
हैं तेरे ही अंश
हे ! परमब्रह्म |
सुन्दर, शुभ्र प्रभात
मन भाया
धरती पर
धीरे से
उतर आया |

शनिवार, 15 सितंबर 2012

कविता: जीवन - सफ़र इंदिरा प्रताप

कविता:

 

जीवन - सफ़र

इंदिरा प्रताप 
*
कब पैर उठे
कब जीवन के अनगढ़
रस्ते पर निकल पड़े ,
कुछ पता नहीं |
कभी सुबह का उगता सूरज ,
कभी निशा की काली रातें ,
कभी शाम की शीतल छाया,
कभी वादियों में भटके तो ,
कभी मरू की तपती रेती ,
कभी भागते मृग तृष्णा में ,
दूर – दूर तक |
जिया यूँहीं अल्हड सा जीवन ,
पर अब जीबन की संध्या में ,
सोच रही हूँ बैठ किनारे ,
पूनम की भीगी रातों में ,
कोई लहर समेत लेगी जब ,
मुझे भँवर में ,
तुम तक कैसे पहुँच सकूँगी  ?
नहीं तैरना सीखा मैनें
वैतरणी का पाट बृहत्तर ,
जीवन की इस कठिन डगर में |
_________________________
Indira Pratap <pindira77@yahoo.co.in>

गुरुवार, 23 अगस्त 2012

रचना - प्रति रचना : इंदिरा प्रताप / संजीव 'सलिल'






रचना - प्रति रचना  :
अमलतास का पेड़
इंदिरा प्रताप
*



वर्षों बाद लौटने पर घर
आँखें अब भी ढूँढ रही हैं
पेड़ पुराना अमलतास का,
सड़क किनारे यहीं खड़ा था
लदा हुआ पीले फूलों से|
पहली सूरज की किरणों से
सजग नीड़ का कोना–कोना,
पत्तों के झुरमुट के पीछे,
कलरव की धुन में गाता था,
शिशु विहगों का मौन मुखर हो|
आँखें अब भी ढूँढ रही हैं
तेरी–मेरी ------
पेड़ पुराना अमलतास का
लदा हुआ पीले फूलों से
कुछ दिन पहले यहीं खड़ा था|
*****
Indira Pratap <pindira77@yahoo.co.in
 


कविता,
अमलतास
संजीव 'सलिल'
*
 
*
तुम कहते हो ढूँढ रहे हो 
पेड़ पुराना अमलतास का।
जाकर लकड़ी-घर में देखो 
सिसक रही हैं चंद टहनियाँ,
कचरा-घर में रोती कलियाँ,
बिखरे फूल सड़क पर करते 
चीत्कार पर कोई न सुनता। 
करो अनसुना.
अपने अंतर्मन से पूछो:
क्यों सन्नाटा फैला-पसरा
है जीवन में? 
घर-आंगन में??  


हुआ अंकुरित मैं- तुम जन्मे,
मैं विकसा तुम खेल-बढ़े थे। 
हुईं पल्लवित शाखाएँ जब
तुमने सपने नये गढ़े थे।
कलियाँ महकीं, कँगना खनके 
फूल खिले, किलकारी गूँजी।
बचपन में जोड़ा जो नाता 
तोड़ा सुन सिक्कों की खनखन
तभी हुई थी घर में अनबन। 


मुझसे जितना दूर हुए तुम,
तुमसे अपने दूर हो गए।
मन दुखता है यह सच कहते 
आँखें रहते सूर हो गए।
अब भी चेतो-
व्यर्थ न खोजो,
जो मिट गया नहीं आता है
उठो, फिर नया पौधा रोपो,
टूट गये जो नाते जोड़ो.
पुरवैया के साथ झूमकर 
ऊषा संध्या निशा साथ हँस 
स्वर्गिक सुख धरती पर भोगो 
बैठ छाँव में अमलतास की.




वर्षों बाद लौटने पर घर
आँखें अब भी ढूँढ रही हैं
पेड़ पुराना अमलतास का,
सड़क किनारे यहीं खड़ा था
लदा हुआ पीले फूलों से|
पहली सूरज की किरणों से
सजग नीड़ का कोना–कोना,
पत्तों के झुरमुट के पीछे,
कलरव की धुन में गाता था,
शिशु विहगों का मौन मुखर हो|
आँखें अब भी ढूँढ रही हैं
तेरी–मेरी ------
पेड़ पुराना अमलतास का
लदा हुआ पीले फूलों से
कुछ दिन पहले यहीं खड़ा था|
*****
Indira Pratap <pindira77@yahoo.co.in
 

कविता,
अमलतास
संजीव 'सलिल'
*
 
*
तुम कहते हो ढूँढ रहे हो 
पेड़ पुराना अमलतास का।
जाकर लकड़ी-घर में देखो 
सिसक रही हैं चंद टहनियाँ,
कचरा-घर में रोती कलियाँ,
बिखरे फूल सड़क पर करते 
चीत्कार पर कोई न सुनता। 
करो अनसुना.
अपने अंतर्मन से पूछो:
क्यों सन्नाटा फैला-पसरा
है जीवन में? 
घर-आंगन में??  


हुआ अंकुरित मैं- तुम जन्मे,
मैं विकसा तुम खेल-बढ़े थे। 
हुईं पल्लवित शाखाएँ जब
तुमने सपने नये गढ़े थे।
कलियाँ महकीं, कँगना खनके 
फूल खिले, किलकारी गूँजी।
बचपन में जोड़ा जो नाता 
तोड़ा सुन सिक्कों की खनखन
तभी हुई थी घर में अनबन। 


मुझसे जितना दूर हुए तुम,
तुमसे अपने दूर हो गए।
मन दुखता है यह सच कहते 
आँखें रहते सूर हो गए।
अब भी चेतो-
व्यर्थ न खोजो,
जो मिट गया नहीं आता है
उठो, फिर नया पौधा रोपो,
टूट गये जो नाते जोड़ो.
पुरवैया के साथ झूमकर 
ऊषा संध्या निशा साथ हँस 
स्वर्गिक सुख धरती पर भोगो 
बैठ छाँव में अमलतास



वर्षों बाद लौटने पर घर
आँखें अब भी ढूँढ रही हैं
पेड़ पुराना अमलतास का,
सड़क किनारे यहीं खड़ा था
लदा हुआ पीले फूलों से|
पहली सूरज की किरणों से
सजग नीड़ का कोना–कोना,
पत्तों के झुरमुट के पीछे,
कलरव की धुन में गाता था,
शिशु विहगों का मौन मुखर हो|
आँखें अब भी ढूँढ रही हैं
तेरी–मेरी ------
पेड़ पुराना अमलतास का
लदा हुआ पीले फूलों से
कुछ दिन पहले यहीं खड़ा था|
*****
Indira Pratap <pindira77@yahoo.co.in
 

कविता,
अमलतास
संजीव 'सलिल'
*
 
*
तुम कहते हो ढूँढ रहे हो 
पेड़ पुराना अमलतास का।
जाकर लकड़ी-घर में देखो 
सिसक रही हैं चंद टहनियाँ,
कचरा-घर में रोती कलियाँ,
बिखरे फूल सड़क पर करते 
चीत्कार पर कोई न सुनता। 
करो अनसुना.
अपने अंतर्मन से पूछो:
क्यों सन्नाटा फैला-पसरा
है जीवन में? 
घर-आंगन में??  


हुआ अंकुरित मैं- तुम जन्मे,
मैं विकसा तुम खेल-बढ़े थे। 
हुईं पल्लवित शाखाएँ जब
तुमने सपने नये गढ़े थे।
कलियाँ महकीं, कँगना खनके 
फूल खिले, किलकारी गूँजी।
बचपन में जोड़ा जो नाता 
तोड़ा सुन सिक्कों की खनखन
तभी हुई थी घर में अनबन। 


मुझसे जितना दूर हुए तुम,
तुमसे अपने दूर हो गए।
मन दुखता है यह सच कहते 
आँखें रहते सूर हो गए।
अब भी चेतो-
व्यर्थ न खोजो,
जो मिट गया नहीं आता है
उठो, फिर नया पौधा रोपो,
टूट गये जो नाते जोड़ो.
पुरवैया के साथ झूमकर 
ऊषा संध्या निशा साथ हँस 
स्वर्गिक सुख धरती पर भोगो 
बैठ छाँव में अमलतास की.

     

अमलतास = आरग्वध, मुकुल, राजतरु, राजवृक्ष, रेवत, रोचन, व्याघिघ्न, शंपाक, सियारलाठी, सुपर्णक, सुपुष्पक, स्वर्णपुष्पी, स्वर्णभूषण, हेमपुष्प, केसिया फिस्टुला, लेबरनम.  



*****************************************

 
गुलमोहर = अशरफी, गुल अशरफी, डेलोनिक्स रेग़िया.

 
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
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