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बुधवार, 31 जनवरी 2024

गीत, लोकतंत्र, छंद एकावली, छंद शशिवदना, रामशंकर वर्मा, समीक्षा, सॉनेट, साधना

सलिल सृजन ३१ जनवरी
*
सॉनेट
साधना
*
साध पले मन में सतत, साध सके तो साध।
करे साध्य की साधना, संसाधन संसाध्य।
जीव रहे पल पल निरत, हो संजीव अबाध।।
करें काम कर कामना, हो प्रसन्न आराध्य।।
श्वास श्वास घुल-मिल सके, आस-आस हो संग।
नयनों में हो निमंत्रण, अधरों पर हो हास।।
जीवन में बिखरें तभी, खुशहाली के रंग।।
लिए हाथ में हाथ हो, जब जब खासमखास।।
योग-भोग का समन्वय, सभी सुखों का मूल।
प्रकृति-पुरुष हों शिवा-शिव, रमा-रमेश सुजान।
धूप-छाँव में साथ रह, इक दूजे अनुकूल।।
रसमय हों रसलीन हों, हों रसनिधि रसखान।।
हाथ हाथ में हाथ ले, हाथ हाथ के साथ।
साथ निभाने चल पड़ा, रखकर ऊँचा माथ।।
३१-१-२०२२
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कृति चर्चा-
चार दिन फागुन के - नवगीत का बदलता रूप
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
[कृति विवरण- चार दिन फागुन के, रामशंकर वर्मा, गीत संग्रह, वर्ष २०१५, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी, सजिल्द, जैकेट सहित, पृष्ठ १५९, मूल्य ३००/-, उत्तरायण प्रकाशन, के ९७ आशियाना, लखनऊ २२६०१२, ९८३९८२५०६२, नवगीतकार संपर्क टी ३/२१ वाल्मी कॉलोनी, उतरेठिया लखनऊ २२६०२९, ९४१५७५४८९२ rsverma8362@gmail.com. ]
*
धूप-छाँव की तरह सुख-दुःख, मिलन-विरह जीवन-सिक्के के दो पहलू हैं। एक के बिना दूसरे का अस्तित्व नहीं। इस सनातन सत्य से युवा गीतकार रामशंकर वर्मा सुपरिचित हैं। विवेच्य गीत-नवगीत संग्रह छार दिन फागुन के उत्सवधर्मी भारतीय जनमानस से पंक्ति-पंक्ति में साक्षात करता चलता है। ग्राम्य अनुभूतियाँ, प्राकृतिक दृष्यावलियाँ, ऋतु परिवर्तन और जीवन के ऊँच-नीच को सम्भावेन स्वीकारते आदमी इन गीतों में रचा-बसा है। गीत को कल्पना प्रधान और नवगीत को यथार्थ प्रधान माननेवाले वरिष्ठ नवगीत-ग़ज़लकार मधुकर अष्ठाना के अनुसार ''जब वे (वर्मा जी) गीत लिखते हैं तो भाषा दूसरी तो नवगीत में भाषा उससे पृथक दृष्टिगोचर होती है।'' यहाँ सवाल यह उठता है कि गीत नवगीत का भेद कथ्यगत है, शिल्पगत है या भाषागत है? रामशंकर जी नवगीत की उद्भवकालीन मान्यताओं के बंधन को स्वीकार नहीं करते। वे गीत-नवगीत में द्वैत को नकारकर अद्वैत के पथ पर बढ़ते हैं। उनके किस गीत को गीत कहें, किसे नवगीत या एक गीत के किस भाग को गीत कहें किसे नवगीत यह विमर्श निरर्थक है।
गीति रचनाओं में कल्पना और यथार्थ की नीर-क्षीरवत संगुफित अभेद्य उपस्थिति अधिक होती है, केवल कल्पना या केवल यथार्थ की कम। कोई रचनाकार कथ्य को कहने के लिये किसी एक को अवांछनीय मानकर रचना करता भी नहीं है। रामशंकर जी की ये गीति रचनाएँ निर्गुण-सगुण, शाश्वतता-नश्वरता को लोकरंग में रंगकर साथ-साथ जीते चलते हैं। कुमार रविन्द्र जी ने ठीक हे आकलन किया है कि इन गीतों में व्यक्तिगत रोमांस और सामाजिक सरोकारों तथा चिंताओं से समान जुड़ाव उपस्थित हैं।
रामशंकर जी कल और आज को एक साथ लेकर अपनी बात कहते हैं-
तरु कदम्ब थे जहाँ / उगे हैं कंकरीट के जंगल
रॉकबैंड की धुन पर / गाते भक्त आरती मंगल
जींस-टॉप ने/ चटक घाघरा चोली / कर दी पैदल
दूध-दही को छोड़ गूजरी / बेचे कोला मिनरल
शाश्वत प्रेम पड़ा बंदीगृह / नए उच्छृंख्रल
सामयिक विसंगतियाँ उन्हें प्रेरित करती हैं-
दड़बे में क्यों गुमसुम बैठे / बाहर आओ
बाहर पुरवाई का लहरा / जिया जुड़ाओ
ठेस लगी तो माफ़ कीजिए / रंग महल को दड़बा कहना
यदि तौहीनी / इसके ढाँचे बुनियादों में
दफन आपके स्वर्णिम सपने / इस पर भी यह तुर्रा देखो
मैं अदना सा / करूँ शान में नुक्ताचीनी
रामशंकर जी का वैशिष्ट्य दृश्यों को तीक्ष्ण भंगिमा सहित शब्दित कर सकना है -
रेनकोटों / छतरियों बरसतियों की
देह में निकले हैं पंख / पार्कों चिड़ियाघरों से
हाईवे तक / बज उठे / रोमांस के शत शंख
आधुनिकाएँ व्यस्त / प्रेमालाप में
इसी शहरी बरसात का एक अन्य चित्रण देखें-
खिड़कियों से फ़्लैट की / दिखते बलाहक
हों कि जैसे सुरमई रुमाल
उड़ रहा उस पर / धवल जोड़ा बलॉक
यथा रवि वर्मा / उकेरें छवि कमाल
चंद बूँदें / अफसरों के दस्तखत सी
और इतने में खड़ंजे / झुग्गियाँ जाती हैं दूब
अभिनव बिंब, मौलिक प्रतीक और अनूठी कहन की त्रिवेणी बहाते रामशंकर आधुनिक हिंदी तथा देशज हिंदी में उर्दू-अंग्रेजी शब्दों की छौंक-बघार लगाकर पाठक को आनंदित कर देते हैं। अनुप्राणित, मूर्तिमंत, वसुमति, तृषावंत, विपणकशाला, दुर्दंश, केलि, कुसुमाकर, मन्वन्तर, स्पंदन, संसृति, मृदभांड, अहर्निश जैसे संस्कृतनिष्ठ शब्द, सगरी, महुअन, रुत, पछुआ, निगोड़ी, गैल, नदिया, मिरदंग, दादुर, घुघुरी देशज-ग्राम्य शब्द, रिश्ते, काश, खुशबू, रफ़्तार, आमद, कसीदे, बेख़ौफ़, बेफ़िक्र, मासूम, सरीखा, नूर, मंज़िल, हुक्म, मशकें आदि उर्दू शब्द तथा फ्रॉक, पिरामिड, सेक्शन, ड्यूटी, फ़ाइल, नोटिंग, फ़्लैट, ट्रेन, रेनी डे, डायरी, ट्यूशन, पिकनिक, एक्सरे, जींस-टॉप आदि अंग्रेजी शब्दों का बेहिचक प्रयोग करते हैं वर्मा जी।
इस संकलन में शब्द युग्मों क पर्याप्त प्रयोग हुआ है। जैसे- तीर-कमान, क्षत-विक्षत, लस्त-पस्त, राहु-केतु, धीर-वीर, सुख-दुःख, खुसुर-फुसुर, घाघरा-चोली, भूल-चूक, लेनी-देनी, रस-रंग, फाग-राग, टोंका-टाकी, यत्र-तत्र-सर्वत्र आदि। कुछ मुद्रण त्रुटियाँ समय का नदिया, हंसी-ठिठोली, आंच नहीं मद्विम हो, निर्वान है हिंदी, दसानन, निसाचर, अमाँ-निशा आदि खटकती हैं। फूटते लड्डू, मिट्टी के माधो, बैठा मार कुल्हाड़ी पैरों, अब पछताये क्या होता है? आदि के प्रयोग से सरसता में वृद्धि हुई है। रात खिले जब रजनीगंधा, खुशबू में चाँदनी नहाई, सदा अनंदु रहैं यहै ट्वाला, कुसमय के शिला प्रहार, तन्वंगी दूर्वा, संदली साँसों, काल मदारी मरकत नर्तन जैसी अभिव्यक्तियाँ रामशंकर जी की भाषिक सामर्थ्य और संवेदनशील अभिव्यक्ति क्षमता की परिचायक हैं। इस प्रथम कृति में ही कृतिकार परिपक्व रचना सामर्थ्य प्रस्तुत कर सका है कृतियों उत्सुकता जगाता है।
३१.१.२०१६
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छंद सलिला:
शशिवदना छंद
*
यह दस मात्रिक छंद है.
उदाहरण:
१. शशिवदना चपला
कमलाक्षी अचला
मृगनयनी मुखरा
मीनाक्षी मृदुला
२. कर्मदा वर्मदा धर्मदा नर्मदा
शर्मदा मर्मदा हर्म्यदा नर्मदा
शक्तिदा भक्तिदा मुक्तिदा नर्मदा
गीतदा प्रीतदा मीतदा नर्मदा
३. गुनगुनाना सदा
मुस्कुराना सदा
झिलमिलाना सदा
खिलखिलाना सदा
गीत गाना सदा
प्रीत पाना सदा
मुश्किलों को 'सलिल'
जीत जाना सदा
***
एकावली छंद
*
दस मात्रिक एकावली छंद के हर चरण में ५-५ मात्राओं पर यति होती है.
उदाहरण :
१. नहीं सर झुकाना, नहीं पथ भुलाना
गिरे को उठाना, गले से लगाना
न तन को सजाना, न मन को भुलाना
न खुद को लुभाना, न धन ही जुटाना
२. हरि भजन कीजिए, नित नमन कीजिए
निज वतन पूजिए, फ़र्ज़ मत भूलिए
मरुथली भूमियों को, चमन कीजिए
भाव से भीगिए, भक्ति पर रीझिए
३. कर प्रीत, गढ़ रीत / लें जीत मन मीत
नव गीत नव नीत, मन हार मन जीत
***
३१.१.२०१४
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गीत  
जनगण के मन में
*
जनगण के मन में जल पाया,
नहीं आस का दीपक। 
कैसे हम स्वाधीन देश जब
लगता हमको क्षेपक?

हम में से
हर एक मानता
निज हित सबसे पहले.
नहीं देश-हित कभी साधता
कोई कुछ भी कह ले। 

कुछ घंटों 'मेरे देश की धरती'
फिर हो 'छैंया-छैंया'
वन काटे, पर्वत खोदे,
भारत माँ घायल भैया। 

किसको चिंता? यहाँ देश की?
सबको है निज हित की। 
सत्ता पा- निज मूर्ति लगाकर,
भारत की दुर्गति की। 

श्रद्धा, आस्था, निष्ठा बेचो
स्वार्थ साध लो अपना। 
जाये भाड़ में किसको चिंता
नेताजी का सपना। 

कौन हुआ आजाद?
भगत है कौन देश का बोलो?
झंडा फहराने के पहले
निज मन जरा टटोलो। 

तंत्र न जन का
तो कैसा जनतंत्र तनिक समझाओ?
प्रजा उपेक्षित प्रजातंत्र में
क्यों कारण बतलाओ?

लोक तंत्र में लोक मौन क्यों?
नेता क्यों वाचाल?
गण की चिंता तंत्र न करता
जनमत है लाचार। 

गए विदेशी, आये स्वदेशी,
शासक मद में चूर। 
सिर्फ मुनाफाखोरी करता
व्यापारी भरपूर। 

न्याय बेचते जज-वकील मिल
शोषित- अब भी शोषित
दुर्योधनी प्रशासन में हो
सत्य किस तरह पोषित?

आज विचारें
कैसे देश हमारा साध्य बनेगा?
स्वार्थ नहीं सर्वार्थ
हमें हरदम आराध्य रहेगा.
२४ जनवरी २०११
***

राही मासूम रजा

 विमर्श

(प्रस्तुत है विख्यात साहित्यकार राही मासूम रज़ा का लेख. पढ़िये, समझिए और अपने विचार सांझा करने के साथ अपने सृजन की भाषा तय करें, अपने विचारों के लिए शब्द चुनें। -संजीव)
उर्दू साहित्य की भारतीय आत्मा
राही मासूम रज़ा
*
यह ग्यारवीं या बारहवीं सदी की बात है कि अमीर खुसरू ने लाहौरी से मिलती-जुलती एक भाषा को दिल्ली में पहचाना और उसे 'हिंदवी' का नाम दिया। उन्नीसवीं सदी के आरंभ तक यही हिंदवी देहलवी, हिंदी, उर्दू-ए-मु्अल्ला और उर्दू कहीं गई । तब लिपि का झगड़ा खड़ा नहीं हुआ था, क्योंकि यह तो वह ज़माना था कि जायसी अपनी अवधी फ़ारसी लिपि में लिखते थे और तुलसी अपनी अवधी नागरी लिपि में । लिपि का झगड़ा तो अँग्रेज़ी की देन है ।
मैं चूँकि लिपि को भाषा का अंग नहीं मानता हूँ, इसलिए कि ऐसी बातें, जो आले अहमद सुरूर और उन्हीं की तरह के दूसरे पेशेवर उर्दूवालों को बुरी लगती हैं, मुझे बिल्कुल बुरी नहीं लगतीं। भाषा का नाम तो हिंदी ही है, चाहे वह किसी लिपि में लिखी जाए। इसलिए मेरा जी चाहता है कि कोई सिरफिरा उठे और सारे हिन्दी साहित्य को पढ़कर कोई राय कायम करे। मुसहफी (उनकी किताब का नाम तजकरए-हिंदी) उर्दू के तमाम कवियों को हिंदी का कवि कहते हैं। मैं उर्दू लिपि का प्रयोग करता हूँ, परंतु मैं हिन्दी कवि हूँ और यदि मैं हिंदी का कवि हूँ तो मेरे काव्य की आत्मा सूर, तुलसी, जायसी के काव्य की आत्मा से अलग कैसे हो सकती है? यह वह जगह है, जहाँ न मेर साथ उर्दूवाले हैं और न शायद हिंदीवाले और इसीलिए मैं अपने बहुत अकेला-अकेला पाता हूँ ? परंतु क्या मैं केवल इस डर से अपने दिल की बात न कहूँ कि मैं अकेला हूँ । ऐसे ही मौक़ों पर मज़रूह सुलतानपुरी का एक शेर याद आता है :
मैं अकेला ही चला था जानिवे-मंज़िल मगर।
लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया ।।
और इसीलिए मैं हिम्मत नहीं हारता ! और इसीलिए बीच बज़ार में खड़ा आवाज़ दे रहा हूँ कि मेरे पुरखों में ग़ालिब और मीर के साथ सूर, तुलसी और कबीर के नाम भी आते हैं।
लिपि के झगड़े में मैं अपनी विरासत और अपनी आत्मा को कैसे भूल जाऊँ? न मैं एक लिपि की तलवार से अपने पुरखों का गला काटने को तैयार हूँ और न मैं किसी को यह हक देता हूँ कि वह दूसरी लिपि की तलवार से मीर, ग़ालिब और अनीस के गर्दन काटे । आप खुद ही देख सकते हैं कि दोनों तलवारों के नीचे गले हैं मेरे ही बुजुर्गों के।
हमारे देश का आलम तो यह है कि कनिष्क की शेरवानी को मुसलमानों के सर मार के हम हिंदू और मुसलमान पहनावों की बातें करने लगते हैं। घाघरे में कलियाँ लग जाती हैं तो हम घाघरों को पहचानने से इंकार कर देते हैं और मुगलों-वुगलों की बातें करने लगते हैं, परंतु कलमी आम खाते वक़्त हम कुछ नहीं सोचते ।ऐसे वातावरण में दिल की बात कहने से जी अवश्य डरता है, परंतु किसी-न-किसी को तो ये बातें कहनी ही पड़ेगी। बात यह है कि हम लोग हर चीज़ को मज़हब की ऐनक लगाकर देखते हैं। किसी प्रयोगशाला का उद्घाटन करना होता है, तब भी हम या मिलाद करते हैं या नारियल फोड़ते हैं तो भाषा इस ठप्पे से कैसे बचती और साहित्य पर यह रंग चढ़ाने की कोशिश क्यों न की जाती? चुनांचे उन्नीसवीं सदी के आखिर में या बीसवीं सदी के आरंभ में हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान का नारा लगाया गया। इस नारे में जिन तीन शब्दों का प्रयोग हुआ है, वे तीनों ही फ़ारसी के हैं हिंदी कहते हैं, हिंदुस्तानी को, हिंदू काले को और हिंदुस्तान हिंदुओ के देश को। यानी हिंदू शब्द किसी धर्म से ताल्लुक नहीं रखता। ईरान और अरब के लोग हिंदुस्तानी मुसलमानों को भी हिंदू कहते हैं यानी हिंदू नाम है हिंदुस्तानी कौम का।
मैंने अपने थीसिस में यही बात लिखी थी तो उर्दू के एक मशहूर विद्वान् ने यह बात काट दी थी परंतु मैं यह बात फिर भी कहना चाता हूँ कि हिंदुस्तान के तमाम लोग धार्मिक मतभेद के बावजूद हिंदू है। हमारे देश का नाम हिंदुस्तान है। हमारे क़ौम का नाम हिंदू और इसलिए हमारी भाषा का नाम हिन्दी । हिंदुस्तान की सीमा हिन्दी की सीमा है। यानी मैं भी हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान का नारा लगाता हूँ, परंतु मैं यह नारा उस तरह नहीं लगाता, जिस तरह वह लगाया जा रहा है। मैं एक मुसलमान हिंदू हूँ । कोई विक्टर ईसाई हिंदू होगा और मातादीन वैष्णव या आर्यसमाजी हिंदू । इस देश में कई धर्म समा सकते हैं, परंतु एक देश में कई क़ौमें नहीं समाया करतीं परंतु यह सीधी-सी बात भी अब तक बहुत से हिंदुओं (हिंदुस्तानियों) की समझ में नहीं आ सकी है।
हमें धर्म की यह ऐनक उतारनी पड़ेगी। इस ऐनक का नंबर गलत हो गया है् और अपना देश हमें धुँधला-धुँधला दिखाई दे रहा है। हम हर चीज़ को शक की निगाह से देखन लगे हैं। ग़ालिब गुलोहुलुल का प्रयोग करता है और कोयल की कूक नहीं सुनता, इसलिए वह ईरान या पाकिस्तान का जासूस है? हम आत्मा को नहीं देखते । वस्त्र में उलझकर रह जाते हैं। वे तमाम शब्द जो हमारी जबानों पर चढ़े हुए हैं, हमारे हैं। एक मिसाल लीजिए। ‘डाक’ अँग्रेज़ी का शब्द है। ‘खाना’ फारसी का। परंतु हम ‘डाकखाना’ बोलते हैं। यह ‘डाकखाना’ हिंदी का शब्द है। इसे ‘डाकघर’ या कुछ और कहने की क्या ज़रूरत ? अरब की लैला काली थी परंतु उर्दू गज़ल की लैला का रंग अच्छा-खासा साफ़ है। तो इस गोरी लैला को हम अरबी क्यों मानें ? लैला और मजनू या शीरीं और फरहाद का कोई महत्त्व नहीं है। महत्त्व है उस कहानी का, जो इन प्रतीकों के जरिए हमें सुनाई जा रही है परंतु हम तो शब्दों में उलझ कर रह गए हैं। हमने कहानियों पर विचार करने का कष्ट ही नहीं उठाया है। मैं आपको वही कहानियाँ सुनाना चाहता हूँ । मैं आपको और मौलाना नदवी आले अहमद सुरूर और डॉक्टर फ़रीदी को यह दिखालाना चाहता हूँ कि मीर, सौदा, ग़ालिब और अनीस, सुर, तुलसी और कबीर ही के सिलसिले की कड़ियाँ हैं। फ़ारसी के उन शब्दों को कैसे देश निकाला दे दिया जाय, जिनका प्रयोग मीरा, तुलसी और सूर ने किया है? ये शब्द हमारे साहित्य में छपे हुए हैं। एक ईंट सरकाई गई, तो साहित्य की पूरी इमारत गिर पड़ेगी। मैं शब्दों की बात नहीं कर रहा हूँ। साहित्य की बात कर रहा हूँ। यह देखने का कष्ट उठाइए कि कबीर ने जब मीर बनकर जन्म लिया तो वे क्या बोल और जब तुलसी ने अनीस के रूप मे जन्म लिया तो उस रूप में उन्होंने कैसा रामचरित लिखा।
***

मंगलवार, 30 जनवरी 2024

३० जनवरी, सॉनेट, वैवाहिक रीति-रिवाज़, गोपाल उत्तर तापनीय उपनिषद, पद्मिनी, ऋतु, तसलीस, सूरज, वासव छंद

 सलिल सृजन ३० जनवरी

कार्य शाला हिंदी से अंग्रेजी काव्यानुवाद * भीगा भीगा है समा, ऐसे में है तू कहाँ? मेरा दिल ये पुकारे आजा, मेरे ग़म के सहारे आजा। • वैट वैट इज एटमॉस्फियर, व्हेयर आर यू माई डियर! माई हार्ट काल्स यू कम ऑन, माई सपोर्ट इन सॉरो कम ऑन। •
कार्यशाला
संकष्टी गणेश चतुर्थी
रेखा श्रीवास्तव * संकट हरण गणेश जी,हर लो सबकी पीर । विघ्नों का अंबार हो, करना मति को धीर ।।1।। निरा जल उपवास करें, लेकर तेरा नाम । चांद देख पूजन करें,बनते बिगड़े काम।।2।। तिल गुड़ अर्पित है तुम्हे,कर लेना स्वीकार । धूप दीप है साथ में,‌अरु फूलों का हार ।।3।। तुम ही मेरी शक्ति हो,सदा खड़े हो साथ । भाव सुमन है थाल में, चरणों में है माथ ।।4।। मति भ्रमित न हो कभी,सही दिखाना राह । तृप्ति सदा मन में रहे,‌नहीं किसी की चाह ।।5।।
*
करना मति को धीर?
धीरज धरा और धराया जाता है, 'धीरज करना' मैंने सुना-पढ़ा नहीं। 
'धरना रे मति धीर' / 'धर ले रे मति धीर' / 'धारण कर ले धीर' आदि।
दोहा २
प्रथम चरण- ३२२३३ सही कलबाँट नहीं, लय भंग, 
तृतीय चरण- ३३२२३ सही कलबाँट, 
बिन पानी उपवास कर / बिना नीर उपवास कर
दोहा ५
मन भ्रमित न हो कभी- न्यून मात्रा दोष ११ मात्रा
कभी न हो मति-भ्रम प्रभो!
मति भ्रम कभी न हो मुझे
**

*** सॉनेट
वाक् बंद है
*
बकर-बकर बोलेंगे नेता।
सुन, जनता की वाक् बंद है।
यह वादे, वह जुमले देता।।
दल का दलदल, मची गंद है।।
अंधभक्त खुद को सराहता।
जातिवाद है तुरुपी इक्का।
कैसे भी हो, ताज चाहता।।
खोटा दलित दलों का सिक्का।।
जोड़-घटाने, गुणा-भाग में।
सबके सब हैं चतुर-सयाने।
तेल छिड़कते लगी आग में।।
बाज परिंदे लगे रिझाने।।
खैर न जनमत की है भैया!
घर फूँकें नच ता ता थैया।।
३०-१०२०२२
***
सॉनेट
सुतवधु
*
विनत सुशीला सुतवधु प्यारी।
हिलती-मिलती नीर-क्षीर सी।
नव नातों की गाथा न्यारी।।
गति-यति संगम धरा-धीर सी।।
तज निज जनक, श्वसुर गृह आई।
नयनों में अनगिनती सपने।
सासू माँ ने की पहुनाई।।
जो थे गैर, वही अब अपने।।
नव कुल, नव पहचान मिली है।
नई डगर नव मंज़िल पाना।
हृदय कली हो मुदित खिली है।।
नित्य सफलता-गीत सुनाना।।
शुभाशीष जो चाहो पाओ।
जग-जीवन को पूर्ण बनाओ।।
३०-१-२०२२
विमर्श
वैवाहिक रीति-रिवाज़
आभा सक्सेना : मैंने बचपन में अपने सक्सेना परिवार में अपनी मां को एक परंपरा निभाते हुए देखा था अब तो वह परंपरा लुप्त ही हो गई है जो मुझे अब भी याद है ...मेरी माँ जब भी परिवार में किसी के घर जातीं थीं तो साड़ी के ऊपर गुलाबी रंग की सूती ओढ़नी ओढ़ कर जातीं थीं ...उनके घर जाने पर घर की किसी महिला को अपनी चादर का कोना छुआ देतीं थीं तब ही वह उस घर में बैठतीं थीं ...इस के बाद घर की महिला चाची ताई या फिर दादी उन्हें सम्मान स्वरूप पान खाने को दिया करती थीं..उस समय चाय आदि का तो चलन था ही नहीं
शिल्पा सक्सेना : इसका सिग्नीफिकेन्स क्या है?
आभा : इसका सिगनिफेन्स जो मैं समझ पाई हूँ, एक दूसरे को रेस्पेक्ट देना था। विदेशों में आपका पहिना हुआ कोट रेस्पेक्ट देने के लिए होस्ट (आतिथेय) ही उतारता है।
शिल्पा : वाह। चलो, इस परंपरा को आगे बढ़ाते हैं, बाज़ार से गुलाबी सूती धोती खरीद कर लाते हैं।
आभा : सूती धोती नहीं सूती चादर।
बबिता अग्रवाल कंवल : हमारे यहाँ ओढ़नी ओढ़कर आया-जाया करते थे
मनोरंजन सहाय : सूती चादर ओढ़ना पर्दे का शरीर को आवृत्त रखने की परम्परा का अंश था। जैसे आजकल युवतियाँ कपड़ों पर कोटनुमा एप्रिन पहने रहती हैं। मेजबान का मेहमान की चादर हाथ में लेकर उसे सम्मानपूर्वक निश्चित स्थान पर रखना उसके प्रति सम्मान प्रदर्शन था, आज की तरह नहीं, अपने स्थान से हिले बिना 'कम कम, सिट सिट' कह दिया और आवभगत हो गई, आगन्तुक की। उसके बाद पहले पीने को पानी दिया जाता था।
बंगाल में आज भी करनेवाले सांस्कृतिक परम्पराओं के अनुयायी चादर धारण करते हैं और आगन्तुक को पहले बताशा और पानी देते हैं। संस्कृत में एक श्लोक है-
तृणानि भूमि, उद्कम च वाक चतुर्थी व शून्रता।
ऐतान्यप संताम गेहे, नोछिद्यन्ते कदाचना:।।
इसका अर्थ है कि भूमि पर आसन , और अतिथि से बातचीत करनेवाला यह सज्जन व्यक्ति के घर में सदैव उपलब्ध होंगे।
तुलसीदास ने इसी सन्दर्भ में एक नीतिपरक दोहा कहा है-
आबत ही हरसे नहीं, नैनन नहीं सनेह।
तुलसी तहाँ न जाइये, कंचन बरसे मेह।।
किसी प्राचीन परम्परा का उपहास करने के लिये सूती साड़ी खरीदने की बात करने की जगह हमारी परम्पराओं के पीछे निहित तर्क और उपादेयता को समझने की जरूरत है।
मंजु काला : ओह ...बहुत सुन्दर परंपरा से अवगत कराया आपने आभा जी! ये "हैरिटैज"परंपराएँ हैं... fruitful for mee.
मंजू सक्सेना : हाँ....बिलकुल ऐसा ही होता था...तब पान को मान सम्मान समझा जाता था....यहाँ तक कि किसी के घर गमी हो जाने पर भी एक बार मेरी मम्मी उसके घर पान का टुकड़ा खाने ज़रूर जाती थीं...शायद ये औपचारिकता थी गमी खत्म करने की.. शादी में कितने रीत-रिवाज़ होते थे... सब गायब हो गए
आभा : होली आने से पहले बड़ी मुंगोड़ी तोड़ी जातीं थीं, बन्ने, बन्नी, सोहर गीत सब लुप्त हो गए ...मुझे तो अभी भी याद है कुछ... होली से पहले रंगपाशी का त्योहार मनाया जाता था सही मायनों में होली उसी दिनसे शुरू हो जाती थी सारे पकवान भी उस दिन से पहले ही बना लिए जाते थे ... लड़की के विवाह में उसकी विदाई से पहले एक रस्म होती थी कुंवर कलेवा ...जिसमें दूल्हे के टीका करके उसे उपहार दिए जाते थे
राम अशोक सक्सेना : शादी के अवसर पर लड़कीवालों की तरफ से एक पानदान जरूर आता था।
मंजू सक्सेना : शादी में तिलक चढ़ते ही ढोलक पूज कर बन्नी-बन्ना शुरू हो जाते थे... एक दिन रतजगा होता था जिसे 'ताई' कहते थे उस दिन दोपहर मे कढ़ी-चावल बनता था...फिर मांगर होता था। चूल्हा बनाकर उस पर बड़े सिकते थे। बारात की निकरौसी से पहले लड़के की शादी मे कुँआबरा होता था जिसमें घर की औरतें पास के कुएँ पर जाती थीं और लड़के की माँ कुएँ मे पैर लटका कर बैठ कर लड़के से पूछती थी कि वो बाँदी लाएगा या रानी? जब तक वो यह कह नहीं देता था कि 'तेरे लिए बाँदी लाऊँगा माँ' 'तब तक वह उठती नहीं थी।
मनोरंजन सहाय : हम लोग मूल रूप से मैनपुरी से हैं। मुगल दरबार से, हमारे पूर्वजों को पंचहजारी का मनसब और वर्तमान कुरावली तहसील तथा आसपास के ८ गाँवों की जमींदारी मिलीं हुई थी। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में मुगल सल्तनत के पतन के बाद हमारे पूर्वजों को पलायन करना पड़ा। मेरे दादाजी आपने बड़े भाई के साथ तत्कालीन धौलपुर- वर्तमान में उ. प्र. के महानगर आगरा और म. प्र. के मुरैना के मध्य स्थित कोटा राजस्थान जिला में आ पहुँचे। फारसी के आलिम होने के कारण उन्हे रियासत में नौकरी मिल गई, और शीघ्र ही तहसीलदार बना दिया गया। वहीं मेरे पिता जी और उनके ४ अन्य भाई बहिनों का जन्म हुआ। सभी की सन्तानें राजकीय सेवाओं में अधिकारी वर्ग की सेवा कर सेवानिवृत्त हुईं। मैं पिछले ४० वर्ष से जयपुर में हूँ। राज्य राजस्व सेवा से करनिर्धारण अधिकारी के रूप में २००२ से सेवा निवृत्त हूँ। मेरा एकमात्र पुत्र जयपुर नेशनल यूनिवर्सिटी में कम्प्यूटर विभाग मैं निदेशक पद पर कार्यरत है। कायस्थ अन्य जातियों की अपेक्षा अल्प संख्या में हैंं इसलिये आपस में पारिवारिक सम्बन्ध निकल ही आते हैं।
आभा : माँगरवाले दिन एक दूसरे के पीठ पर हल्दी के थापे लगाए जाते थे। एक दूसरे से मज़ाक, हँसी-ठिठोली सब इसी बहाने हो जाया करते थे, होली जैसा माहौल होता था उस दिन। खोरिया में सारी रात जाग कर महिलाएँ हँसी-मजाक करके अपने दिल की सारी भड़ास निकाल लिया करतीं थीं क्योंकि घर के सारे मर्द तो बारात में गए होते थे । उन दिनों घर की महिलाएँ बारात में नहीं जाया करतीं थीं।
मंजू : बिलकुल सहीक्या मज़ा आता था उन दिनों शादी में.... लड़के की बारात के पहले बरौंगा और लड़की की शादी में दिखावे की गुझिया सजाने मे पूरी कलाएँ दिखाई जाती थीं.... और लड़के की बारात जाते ही रात में औरतों का खोरिया....गज़ब का हुआ करता था....अब तो शादी के रीत-रिवाज़ बस नाम भर के हैं... अगली पीढ़ी तो उस का आनंद ही नहीं समझ पाएगी जो हम लोगों ने लिया है..
मंजू : एक बार मैं खोरिया में दुल्हन बनी तब मै कुँवारी थी और मेरी भाभी दूल्हा... मैं थोड़ी शरमीली थी और उन्होंने आँख मार मार के मेरी हालत खराब कर दी मुझे इतनी शर्म आ रही थी जैसे वह सचमुच ही लड़का हों.
संजीव : सक्सेना कायस्थ मैं भी हूँ। मेरे पूर्वज भोगाँव मैनपुरी से जबलपुर मध्य प्रदेश आये थे। मैं ५वी पीढ़ी में हूँ। मेरे नाना रायबहादुर माताप्रसाद सिन्हा 'रईस' मैनपुरी में ऑनरेरी मजिस्ट्रेट थे। सराऊगियान (गाड़ीवान) मोहल्ला में उनकी हवेली है। उनके बारे में कोई कुछ बता सके तो स्वागत है। गाँधी जी से जुड़कर उन्होंने सब पद और उपाधियाँ त्याग दीं और सत्याग्रही हो गए। संदेहास्पद परिस्थिति में उनकी मृत्यु हुई, परिवार की अल्प शिक्षित महिलाएँ जमीन-जायदाद, धन-संपत्ति सम्हाल नहीं सकीं, सब नष्ट हो गया। तब मेरे मामा हरप्रसाद सिन्हा मात्र ५-६ वर्षों के थे। नाना जी, राजकुमार कॉलेज आगरा से पढ़े थे। वे शक्कर मिल तथा किसी बैंक के डायरेक्टर भी थे। मामा ने बड़े होकर कुछ जमीन-जायदाद सम्हाली, उन्हीं के मित्रों ने उनके साथ विश्वासघात किया और विवाह के २ दिनों के अंदर उनका निधन हो गया। हमारी अल्ल 'ऊमरे' है। मेरे एक मित्र ओमप्रकाश सक्सेना 'कामठान' इंदौर में थे, एक कायस्थ पत्रिका का संपादन करते थे। बरेली, एटा, इटावा, कासगंज, फर्रुखाबाद, आगरा आदि में कई रिश्तेदार थे।
मनोरंजन सहाय : सलिल जी! कमठान हमारी भी अल्ह है, क्या कामठान अलग है? अपने रिश्तेदारों के बारे में बताइये।
हम जिला मैनपूरी के कुरावली या किरावली से ह़ै। हमारे पूर्वजों को मुगलदरवार से पंचहजारी का मनसब अता किया हुआ था और तत्कालीन कुरावली के अलावा आठ गांव की जमींदारी थी। मुगल सल्तनत के पतन के बाद हमारे पूर्वजों को मैनपुरी से पलायन करना पड़ा और मेरे पूर्वजों में मेरे दादाजी धोलपुर में बस गये। फारसी के आलिम थे इसलिये यहाँ स्टेट के तत्कालीन ए.जी. आफिस जैसे किसी दफ्तर में नौकरी मिल गई मगर पॉलिटीकल ऐजेंट की अनुशंसा पर तहसीलदार बने और उनकी ईमानदारी के चर्चे काफी समय तक लोगों की जुबान पर रहे।
अलका कुदेसिया : मेरी शादी में भी पान-दान दिया गया था।
सभी पाठक-पाठिकाएँ अपने-अपने परिवारों में प्रचलित रस्मों की जानकारियाँ दें।
३०.१.२०२२
***
सोरठा सलिला
राम राम अविराम, जपकर हो भव-पार।
पल में देते तार, निर्बल के बल राम।।
राम न छोड़ें सत्य, कष्ट भोगते अनगिनत।
करें धर्म-हित कृत्य, हँस अधर्म का नाश भी।।
पल-पल कह आ राम, प्रभु को ध्याएँ निरंतर।
प्रभु न करें आराम, शबरी से जा खुद मिलें।।
•••
गोपाल उत्तर तापनीय उपनिषद
भोग कामना युक्त, जो भोगे कामी वही।
भोग कामनाहीन, जो भोगे निष्काम वह।।
गोपालक हैं कृष्ण, पहचानें हम किस तरह?
सबसे पहले कृष्ण, फिर विधि-हरि-हर प्रगट हों।।
मथुरा कैसे सुरक्षित, बारह वन से है घिरी।
कृष्ण-चक्र से सुरक्षित, ज्यों सरवर में कमल हो।।
पद्म यंत्र का केंद्र, मथुरा दलवत वन सकल।
चौबिस शिव के लिंग, जो पूजे भाव पार हो।।
एक ब्रह्म के रूप, चार किस तरह हो गए?
मुक्ताक्षरी अनूप, मैं अव्यक्त व व्यक्त भी।।
क्लीं ॐ हैं एक, मूल प्रकृति हैं रुक्मिणी।
राधा आद्या शक्ति, हों विलीन द्वय कृष्ण में।।
पूजे मानव लोक, मानव रूपी कृष्ण को।
मिटे रोग भय शोक, मुक्ति मिले संतृष्ण को।।
काम करे निष्काम, जो वह फल से मुक्त हो।
माया मिले न राम, मन में पाले अहं जो।।
अजमल सुल्तानपुरी की याद में -
*
हँसे फिर अपना हिंदुस्तान
विरासत गीता-ग्रंथ-कुरान
ख्वाब हम करें मुकम्मल
*
जहाँ खुसरो कबीर हैं साथ
ताज बीबी के कान्हा नाथ
एक रामानुज औ' रैदास
ईसुरी जगनिक बिना उदास
प्रवीणा केशव का अरमान
यहीं है अपना हिंदुस्तान
ख्वाब हम करें मुकम्मल
*
शारदा पूत अलाउद्दीन
सिखाते रविशंकर को बीन
यहीं होली-दीवाली-ईद
जिए मर सेंखों वीर हमीद
यहीं तुलसी रहीम रसखान
यहीं है अपना हिंदुस्तान
ख्वाब मिल करें मुकम्मिल
*
बँटे पर मिटे नहीं ज़ज़्बात
बदल लेंगे फिर से हालात
हमारा धर्म दीन इंसान
बसे कंकर-कंकर भगवान
मोहब्बत ही अपना ईमान
यहीं है अपना हिंदुस्तान
ख्वाब फिर करें मुकम्मिल
*
यहीं पर खिले धूल में फूल
मिटा दे नफरत प्रेम-त्रिशूल
एक केरल-कश्मीर न भिन्न
पूर्व-पश्चिम हैं संग अभिन्न
शक्ति-शिव, राम-सिया में जान
यहीं है अपना हिंदुस्तान
ख्वाब फिर करें मुकम्मिल
*
यहीं गौतम गाँधी गुरुदेव
विवेकानंद कलाम सदैव
बताते जला प्रेम का दीप
बनो मोती जीवन है सीप
लिखें इतिहास नया है आन
यही है अपना हिंदुस्तान
ख्वाब हम करें मुकम्मिल
३०-१-२०२०
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छंद सलिला
मत्तगयंद सवैया
*
आज कहें कल भूल रहे जुमला बतला छलते जनता को
बाप-चचा चित चुप्प पड़े नित कोस रहे अपनी ममता को
केर व बेर हुए सँग-साथ तपाक मिले तजते समता को
चाह मिले कुरसी फिर से ठगते जनको भज स्वाराथता को
*
विमर्श
वीरांगना पद्मिनी का आत्मोत्सर्ग और फिल्मांकन
*
जिन पौराणिक और ऐतिहासिक चरित्रों से मानव जाति सहस्त्रों वर्षों तक प्रेरणा लेती रही है उनकी विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह लगाना और उन्हें केंद्र में रखकर मन-माने तरीके से फिल्मांकित करना गौरवपूर्ण इतिहास के साथ खिलवाड़ करने के साथ-साथ उन घटनाओं और व्यक्तित्वों से सदियों से प्रेरणा ले रहे असंख्य मानव समुदाय को मानसिक आघात पहुँचाने के कारण जघन्य अपराध है. ऐसा कृत्य समकालिक जन सामान्य को आहत करने के साथ-साथ भावी पीढ़ी को उसके इतिहास, जीवन मूल्यों, मानकों, परम्पराओं आदि की गलत व्याख्या देकर पथ-भ्रष्ट भी करता है. ऐसा कृत्य न तो क्षम्य हो सकता है न सहनीय.
अक्षम्य अपराध
राजस्थान ही नहीं भारत के इतिहास में चित्तौडगढ की वीरांगना रानी पद्मावती को हथियाने की अलाउद्दीन खिलजी की कोशिशों, राजपूतों द्वारा मान-रक्षा के प्रयासों, युद्ध टालने के लिए रानी का प्रतिबिम्ब दिखाने, मित्रता की आड़ में छलपूर्वक राणा को बंदी बनाने, गोरा-बादल के अप्रतिम बलिदान और चतुराई से बनाई योजना को क्रियान्वित कर राणा को मुक्त कराने, कई महीनों तक किले की घेराबंदी के कारण अन्न-जल का अभाव होने पर पुरुषों द्वारा शत्रुओं से अंतिम श्वास तक लड़ने तथा स्त्रियों द्वारा शत्रु के हाथों में पड़कर बलात्कृत होने के स्थान पर सामूहिक आत्मदाह 'जौहर' करने का निर्णय लिया जाना और अविचलित रहकर क्रियान्वित करना अपनी मिसाल आप है . ऐसी ऐतिहासिक घटना को झुठलाया जाना और फिर उन्हीं पात्रों का नाम रखकर उन्हीं स्थानों पर अपमान जनक पटकथा रचकर फिल्माना अक्षम्य अपराध है.
जौहर और सती प्रथा
जौहर का सती प्रथा से कोई संबंध नहीं था. जौहर ऐसा साहस है जो हर कोई नहीं कर सकता. जौहर विधर्मी स्वदेशी सेनाओं की पराजय के बाद शत्रुओं के हाथों में पड़कर बलात्कृत होने से बचने के लिए पराजित सैनिकों की पत्नियों द्वारा स्वेच्छा से किया जाता था. जौहर के ३ चरण होते थे - १. योद्धाओं द्वारा अंतिम दम तक लड़कर मृत्यु का वरण, २. जन सामान्य द्वारा खेतों, अनाज के गोदामों आदि में आग लगा देना, ३. स्त्रियों और बच्चियों द्वारा अग्नि स्नान. इसके पीछे भावना यह थी कि शत्रु की गुलामी न करना पड़े तथा शत्रु को उसके काम या लाभ की कोई वस्तु न मिले. वह पछताता रह जाए कि नाहक ही आक्रमण कर इतनी मौतों का कारण बना जबकि उसके हाथ कुछ भी न लगा.
पति की मृत्यु होने पर पत्नि स्वेच्छा से प्राण त्याग कर सती होती थी. दोनों में कोई समानता नहीं है.
हजारों पद्मिनियाँ
स्मरण हो जौहर अकेली पद्मिनी ने नहीं किया था. एक नारी के सम्मान पर आघात का प्रतिकार १५००० नारियों ने आत्मदाह कर किया जबकि उनके जीवन साथी लड़ते-लड़ते मर गए थे. ऐसा वीरोचित उदाहरण अन्य नहीं है. जब कोई अन्य उपाय शेष न रहे तब मानवीय अस्मिता और आत्म-गरिमा खोकर जीने से बेहतर आत्माहुति होती है. इसमें कोई संदेह नहीं है. ऐसे भी लाखों भारतीय स्त्री-पुरुष हैं जिन्होंने मुग़ल आक्रान्ताओं के सामने घुटने टेक दिए और आज के मुसलमानों को जन्म दिया जो आज भी भारत नहीं मक्का-मदीना को तीर्थ मानते हैं, जन गण मन गाने से परहेज करते हैं. ऐसे प्रसंगों पर इस तरह के प्रश्न जो प्रष्ठभूमि से हटकर हों, आहत करते हैं. एक संवेदनशील विदुषी से यह अपेक्षा नहीं होती. प्रश्न ऐसा हो जो पूर्ण घटना और चरित्रों के साथ न्याय करे.
आज भी यदि ऐसी परिस्थिति बनेगी तो ऐसा ही किया जाना उचित होगा. परिस्थिति विशेष में कोई अन्य मार्ग न रहने पर प्राण को दाँव पर लगाना बलिदान होता है. जौहर करनेवाली रानी पद्मिनी हों, या देश कि आज़ादी के लिए प्राण गँवानेवाले क्रांन्तिकारी या भ्रष्टाचार मिटने हेतु आमरण अनशन करनेवाले अन्ना सब का कार्य अप्रतिम और अनुकरणीय है. वीरांगना देवी पद्मिनी सदियों से देशवासियों कि प्रेरणा का स्रोत हैं. आओ बच्चों तुम्हें दिखाएँ झांकी हिंदुस्तान कि गीत में याद करें ये हैं अपना राजपुताना नाज इसे तलवारों पर ... कूद पड़ी थीं यहाँ हजारों पद्मिनियाँ अंगारों पे'.
आत्माहुति पाप नहीं
मुश्किलों से घबराकर समस्त उपाय किये बिना मरना कायरता और निंदनीय है किन्तु समस्त प्रयास कर लेने के बाद भी मानवीय अस्मिता और गरिमा सहित जीवन संभव न हो अथवा जीवन का उद्देश्य पूर्ण हो गया हो तो मृत्यु का वरण कायरता या पाप नहीं है.
देव जाति को असुरों से बचाने के लिए महर्षि दधीचि द्वारा अस्थि दान कर प्राण विसर्जन को गलत कैसे कहा जा सकता है?
क्या जीवनोद्देश्य पूर्ण होने पर भगवन राम द्वारा जल-समाधि लेने को पाप कहा जायेगा?
क्या गांधी जी, अन्ना जी आदि द्वारा किये गए आमरण अनशन भी पाप कहे जायेंगे?
एक सैनिक यह जानते हुए भी कि संखया और शास्त्र बल में अधिक शत्रु से लड़ने पर मारा जायेगा, कारन पथ पर कदम बढ़ाता है, यह भी मृत्यु का वरण है. क्या इसे भी गलत कहेंगी?
जैन मतावलंबी संथारा (एक व्रत जिसमें निराहार रहकर प्राण त्यागते हैं) द्वारा म्रत्यु का वरण करते हैं. विनोबा भावे ने इसी प्रकार देह त्यागी थी वह भी त्याज्य कहा जायेगा?
हर घटना का विश्लेषण आवश्यक है. आत्मोत्सर्ग को उदात्ततम कहा गया है.
सोचिए-
एक पति के साथ पत्नि के रमण करने और एक वैश्य के साथ ग्राहक के सम्भोग करने में भौतिक क्रिया तो एक ही होती है किन्तु समाज और कानून उन्हें सामान नहीं मानता. एक सर्व स्वीकार्य है दूसरी दंडनीय. दैहिक तृप्ति दोनों से होती हो तो भी दोनों को समान कैसे माना जा सकता है?
अपने जीवन से जुडी घटनाओं में निर्णय का अधिकार आपका है या आपसे सदियों बाद पैदा होनेवालों का?
एक अपराधी द्वारा हत्या और सीमा पर सैनिक द्वारा शत्रु सैनिक कि हत्या को एक ही तराजू पर तौलने जैसा है यह कुतर्क. वीरगाथाकाल के जीवन मूल्यों की कसौटी पर जौहर आत्महत्या नहीं राष्ट्र और जाति के स्वाभिमान कि रक्षा हेतु उठाया गया धर्म सम्मत, लोक मान्य और विधि सम्मत आचरण था जिसके लिए अपार साहस आवश्यक था. १५००० स्त्रियों का जौहर एक साथ चाँद सेकेण्ड में नहीं हो सकता था, न कोई इतनी बड़ी संख्या में किसी को बाध्य कर सकता था. सैकड़ों चिताओं पर रानी पद्मावती और अन्य रानियों के कूदने के बाद शेष स्त्रियाँ अग्नि के ताप, जलते शरीरों कि दुर्गन्ध और चीख-पुकारों से अप्रभावित रहकर आत्मोत्सर्ग करती रहीं और उनके जीवनसाथी जान हथेली पर लेकर शत्रु से लड़ते हुई बलिदान की अमर गाथा लिख गए जिसका दूसरा सानी नहीं है. यदि यह गलत होता तो सदियों से अनगिनत लोग उन स्थानों पर जाकर सर न झुका रहे होते.
अपने जीवन में नैतिक मूल्यों का पालन न करने वाले, सिर्फ मौज-मस्ती और धनार्जन को जीवनोद्देश्य माननेवाले अभिव्यक्ति कि स्वतंत्रता कि आड़ में सामाजिक समरसता को नष्ट कर्ण का प्रयास कैसे कर सकते हैं? लोक पूज्य चरित्रों पर कीचड उछालने कि मानसिकता निंदनीय है. परम वीरांगना पद्मावती के चरित्र को दूषित रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास सिर्फ निंदनीय नहीं दंडनीय भी है. शासन-प्रशासन पंगु हो तो जन सामान्य को ही यह कार्य करना होगा.
***
ऋतुएँ और मौसम
*
ऋतु एक वर्ष से छोटा कालखंड है जिसमें मौसम की दशाएँ एक खास प्रकार की होती हैं। यह कालखण्ड एक वर्ष को कई भागों में विभाजित करता है जिनके दौरान पृथ्वी के सूर्य की परिक्रमा के परिणामस्वरूप दिन की अवधि, तापमान, वर्षा, आर्द्रता इत्यादि मौसमी दशाएँ एक चक्रीय रूप में बदलती हैं। मौसम की दशाओं में वर्ष के दौरान इस चक्रीय बदलाव का प्रभाव पारितंत्र पर पड़ता है और इस प्रकार पारितंत्रीय ऋतुएँ निर्मित होती हैं यथा पश्चिम बंगाल में जुलाई से सितम्बर तक वर्षा ऋतु होती है, यानि पश्चिम बंगाल में जुलाई से अक्टूबर तक, वर्ष के अन्य कालखंडो की अपेक्षा अधिक वर्षा होती है। इसी प्रकार यदि कहा जाय कि तमिलनाडु में मार्च से जुलाई तक गृष्म ऋतु होती है, तो इसका अर्थ है कि तमिलनाडु में मार्च से जुलाई तक के महीने साल के अन्य समयों की अपेक्षा गर्म रहते हैं। एक ॠतु = २ मास। ऋतु साैर अाैर चान्द्र दाे प्रकार के हाेते हैं। धार्मिक कार्य में चन्द्र ऋतुएँ ली जाती हैं।
ऋतु चक्र-
भारत में मुख्यतः छः ऋतुएँ मान्य हैं -१. वसन्त (Spring) चैत्र से वैशाख (वैदिक मधु -माधव) मार्च से अप्रैल, २. ग्रीष्म (Summer) ज्येष्ठ से आषाढ (वैदिक शुक्र- शुचि) मई से जून, ३. वर्षा (Rainy) श्रावन से भाद्रपद (वैदिक नभः- नभस्य) जुलाई से सितम्बर, ४, शरद् (Autumn) आश्विन से कार्तिक (वैदिक इष- उर्ज) अक्टूबर से नवम्बर, ५. हेमन्त (pre-winter) मार्गशीर्ष से पौष (वैदिक सहः-सहस्य) दिसम्बर से 15 जनवरी, ६. शिशिर (Winter) माघ से फाल्गुन (वैदिक तपः-तपस्य) 16 जनवरी से फरवरी।
ऋतु परिवर्तन का कारण पृथ्वी द्वारा सूर्य के चारों ओर परिक्रमण और पृथ्वी का अक्षीय झुकाव है। पृथ्वी का डी घूर्णन अक्ष इसके परिक्रमा पथ से बनने वाले समतल पर लगभग ६६.५ अंश का कोण बनता है जिसके कारण उत्तरी या दक्षिणी गोलार्धों में से कोई एक गोलार्द्ध सूर्य की ओर झुका होता है। यह झुकाव सूर्य के चारो ओर परिक्रमा के कारण वर्ष के अलग-अलग समय अलग-अलग होता है जिससे दिन-रात की अवधियों में घट-बढ़ का एक वार्षिक चक्र निर्मित होता है। यही ऋतु परिवर्तन का मूल कारण बनता है।
विश्व में भारत ही एक ऐसा देश है जहां समय-समय पर छः ऋतुएँ (Six Types of Ritu) अपनी छटा बिखेरती हैं। प्रत्येक ऋतु दो मास की होती है।
चैत (Chaitra) और बैसाख़ (Baishakh) में बसंत ऋतु (Basant Ritu) अपनी शोभा का परिचय देती है। इस ऋतु को ऋतुराज (Rituraj) की संज्ञा दी गयी है। धरती का सौंदर्य इस प्राकृतिक आनंद के स्रोत में बढ़ जाता है। रंगों का त्यौहार होली बसंत ऋतु (Vasant) की शोभा को दुगना कर देता है। हमारा जीवन चारों ओर के मोहक वातावरण को देखकर मुस्करा उठता है।
ज्येष्ठ -आषाण ( ग्रीष्म ऋतु) में सू्र्य उत्तरायण की ओर बढ़ता है। ग्रीष्म ऋतु प्राणी मात्र के लिये कष्टकारी अवश्य है पर तप के बिना सुख-सुविधा को प्राप्त नहीं किया जा सकता। यदि गर्मी न पड़े तो हमें पका हुआ अन्न भी प्राप्त न हो।
श्रावण -भाद्र (वर्षा ऋतु) में मेघ गर्जन के साथ मोर नाचते हैं । तीज, रक्षाबंधन आदि त्यौहार (Festivals) इस ऋतु में आते हैं।
अश्विन (Ashvin) और कातिर्क (Kartik) के मास शरद ऋतु (Sharad Ritu) के मास हैं। शरद ऋतु प्रभाव की दृश्र्टि से बसंत ऋतु का ही दूसरा रूप है। वातावरण में स्वच्छता का प्रसार दिखा़ई पड़ता है। दशहरा (Dussehra) और दीपावली (Dipawali) के त्यौहार इसी ऋतु में आते हैं।
मार्गशीर्ष (Margshirsh) और पौष (Paush) हेमन्त ऋतु (Hemant Ritu) के मास हैं। इस ऋतु में शरीर प्राय स्वस्थ रहता है। पाचन शक्ति बढ़ जाती है।
माघ (Magh) और फाल्गुन (Falgun) शिशिर अर्थात पतझड़ (Shishir / Patjhar Ritu) के मास हैं। इसका आरम्भ मकर संक्राति (Makar Sankranti) से होता है। इस ऋतु में प्रकृति पर बुढ़ापा छा जाता है। वृक्षों के पत्ते झड़ने लगते हैं। चारों ओर कुहरा छाया रहता है।
भारत को भूलोक का गौरव तथा प्रकृति का पुण्य स्थल कहा गया है। इस प्रकार ये ऋतुएं जीवन रुपी फलक के भिन्न- भिन्न दृश्य हैं, जो जीवन में रोचकता, सरसता और पूर्णता लाती हैं।
ऋतु और राग- शिशिर - भैरव, बसंत - हिंडोल, ग्रीष्म - दीपक, वर्षा - मेघ, शरद - मलकन, हेमंत - श्री।
***
वासव जातीय अष्ट मात्रिक छंद
१. पदांत यगण
सजन! सजाना
सजनी! सजा? ना
काम न आना
बात बनाना
रूठ न जाना
मत फुसलाना
तुम्हें मनाना
लगे सुहाना
*
२. पदांत मगण
कब आओगे?
कब जाओगे?
कब सोओगे?
कब जागोगे?
कब रुठोगे?
कब मानोगे?
*
बोला कान्हा:
'मैया मोरी
तू है भोरी
फुसलाती है
गोपी गोरी
चपला राधा
बनती बाधा
आँखें मूँदे
देखे आधा
बंसी छीने
दौड़े-आगे
कहती ले लो
जाऊँ, भागे
*
३. पदांत तगण
सृजन की राह
चले जो चाह
न रुकना मीत
तभी हो वाह
न भय से भीत
नहीं हो डाह
मिले जो कष्ट
न भरना आह
*
४. पदांत रगण
रहीं बच्चियाँ
नहीं छोरियाँ
न मानो इन्हें
महज गोरियाँ
लगाओ नहीं
कभी बोलियाँ
न ठेलो कहीं
उठा डोलियाँ
*
५. पदांत रगण
जब हो दिनांत
रवि हो प्रशांत
पंछी किलोल
होते न भ्रांत
संझा ललाम
सूराज सुशांत
जाते सदैव
पश्चिम दिशांत
(छवि / मधुभार छंद)
*
६. पदांत भगण
बजता मादल
खनके पायल
बेकल है दिल
पड़े नहीं कल
कल तक क्यों हम
विलग रहें कह?
विरह व्यथा सह
और नहीं जल
*
७. पदांत नगण
बलम की कसम
न पालें भरम
चलें साथ हम
कदम दर कदम
न संकोच कुछ
नहीं है शरम
सुने सच समय
न रूठो सनम
*
८. पदांत सगण
जब तक न कहा
तब तक न सुना
सच ही कहना
झूठ न सहना
नेह नरमदा
बनकर बहना
करम चदरिया
निरमल तहना
सेवा जन की
करते रहना
शुचि संयम का
गहना गहना
३०-१-२०१७
***
खून के धब्बे धुलेंगे प्रेम की बारिश के बाद
तसलीस (उर्दू त्रिपदी)
सूरज
*
बिना नागा निकलता है सूरज,
कभी आलस नहीं करते देखा.
तभी पाता सफलता है सूरज..
*
सुबह खिड़की से झाँकता सूरज,
कह रहा जग को जीत लूँगा मैं.
कम नहीं खुद को आंकता सूरज..
*
उजाला सबको दे रहा सूरज,
कोई अपना न पराया कोई.
दुआएं सबकी ले रहा सूरज..
*
आँख रजनी से चुराता सूरज,
बाँह में एक, चाह में दूजी.
आँख ऊषा से लड़ाता सूरज..
*
जाल किरणों का बिछाता सूरज,
कोई चाचा न भतीजा कोई.
सभी सोयों को जगाता सूरज..
*
भोर पूरब में सुहाता सूरज,
दोपहर-देखना भी मुश्किल हो.
शाम पश्चिम को सजाता सूरज..
*
काम निष्काम ही करता सूरज,
मंजिलें नित नयी वरता सूरज.
खुद पे खुद ही नहीं मरता सूरज..
*
अपने पैरों पे ही बढ़ता सूरज,
डूबने हेतु क्यों चढ़ता सूरज?
भाग्य अपना खुदी गढ़ता सूरज..
*
लाख़ रोको नहीं रुकता सूरज,
मुश्किलों में नहीं झुकता सूरज.
मेहनती है नहीं चुकता सूरज..
***
लघुकथा -
अँगूठा
*
शत-प्रतिशत साक्षरता के नीति बनकर शासन ने करोड़ों रुपयों के दूरदर्शन, संगणक, लेखा सामग्री, चटाई, पुस्तकें , श्याम पट आदि खरीदे। हर स्थान से अधिकारी कर्मचारी सामग्री लेने भोपाल पहुँचे जिन्हें आवागमन हेतु यात्रा भत्ते का भुगतान किया गया। नेताओं ने जगह-जगह अध्ययन केन्द्रों का उद्घाटन किया, संवाददताओं ने दूरदर्शन और अख़बारों पर सरकार और अधिकारियों की प्रशंसा के पुल बाँध दिये। कलेक्टर ने सभी विभागों के शासकीय अधिकारियों / कर्मचारियों को अध्ययन केन्द्रों की गतिविधियों का निरीक्षण कर प्रतिवेदन देने के आदेश दिये।
हर गाँव में एक-एक बेरोजगार शिक्षित ग्रामीण को अध्ययन केंद्र का प्रभारी बनाकर नाममात्र मानदेय देने का प्रलोभन दिया गया। नेताओं ने अपने चमचों को नियुक्ति दिला कर अहसान से लाद दिया। खेतिहर तथा अन्य श्रमिकों के रात में आकर अध्ययन करना था। सवेरे जल्दी उठकर खा-पकाकर दिन भर काम कर लौटने पर फिर राँध-खा कर आनेवालों में पढ़ने की दम ही न बाकी रहती। दो-चार दिन में शौकिया आनेवाले भी बंद हो गये। प्रभारियों को दम दी गयी कि ८०% हाजिरी और परिणाम न होने पर मानदेय न मिलेगा। मानदेय की लालच में गलत प्रवेश और झूठी हाजिरी दिखा कर खाना पूरी की गयी। अब बारी आयी परीक्षा की।
कलेक्टर ने शिक्षाधिकारी से आदेश प्रसारित कराया कि कार्यक्रम का लक्ष्य साक्षरता है, विद्वता नहीं। इसे सफल बनाने के लिये अक्षर पहचानने पर अंक दें, शब्द के सही-गलत होने को महत्व न दें। प्रभारियों ने अपने संबंधियों और मित्रों के उनके भाई-बहिनों सहित परीक्षा में बैठाया की परिणाम न बिगड़े। कमल को कमाल, कलाम और कलम लिखने पर भी पूरे अंक देकर अधिक से अधिक परिणाम घोषित किये गये। अख़बारों ने कार्यक्रम की सफलता की खबरों से कालम रंग दिये। भरी-भरकम रिपोर्ट राजधानी गयी, कलेक्टर मुख्य मंत्री स्वर्ण पदक पाकर प्रौढ़ शिक्षा की आगामी योजनाओं हेतु शासकीय व्यय पर विदेश चले गये। प्रभारी अपने मानदेय के लिये लगाते रहे कलेक्टर कार्यालय के चक्कर और श्रमिक अँगूठा।
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लघुकथा -
जनसेवा
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अंतर्राष्ट्रीय बाजार में पैट्रोल-डीजल की कीमतें घटीं। मंत्रिमंडल की बैठक में वर्तमान और परिवर्तित दर से खपत का वर्ष भर में आनेवाले अंतर का आंकड़ा प्रस्तुत किया गया। बड़ी राशि को देखकर चिंतन हुआ कि जनता को इतनी राहत देने से कोई लाभ नहीं है। पैट्रोल के दाम घटे तो अन्य वस्तुओं के दाम काम करने की माँग कर विपक्षी दल अपनी लोकप्रियता बढ़ा लेंगे।
अत:, इस राशि का ९०% भाग नये कराधान कर सरकार के खजाने में डालकर विधायकों का वेतन-भत्ता आदि दोगुना कर दिया जाए, जनता तो नाम मात्र की राहत पाकर भी खुश हो जाएगी। विरोधी दल भी विधान सभा में भत्ते बढ़ाने का विरोध नहीं कर सकेगा।
ऐसा ही किया गया और नेतागण दत्तचित्त होकर कर रहे हैं जनसेवा।
३०-१-२०१६
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मुक्तक
सांध्य सुंदरी ने मुस्काकर किया क्षितिज का अभिनंदन।
अस्ताचलगामी रवि बोला भू को कर नत शिर वंदन।।
दूब पौध तरु नीड़ जीव जड़-चेतन का जीवन आधार-
सहस किरण-कर से करता मैं नित अर्पित कुंकुम चंदन।।
३०.१.२०१५
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