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शनिवार, 14 अक्टूबर 2017

doha

दोहा सलिला 
*
कर अव्यक्त को व्यक्त हम, रचते नव 'साहित्य' 
भगवद-मूल्यों का भजन, बने भाव-आदित्य 
.
मन से मन सेतु बन, 'भाषा' गहती भाव
कहे कहानी ज़िंदगी, रचकर नये रचाव
.
भाव-सुमन शत गूँथते, पात्र शब्द कर डोर
पाठक पढ़-सुन रो-हँसे, मन में भाव अँजोर
.
किस सा कौन कहाँ-कहाँ, 'किस्सा'-किस्सागोई
कहती-सुनती पीढ़ियाँ, फसल मूल्य की बोई
.
कहने-सुनने योग्य ही, कहे 'कहानी' बात
गुनने लायक कुछ कहीं, कह होती विख्यात
.
कथ्य प्रधान 'कथा' कहें, ज्ञानी-पंडित नित्य
किन्तु आचरण में नहीं, दीखते हैं सदकृत्य
.
व्यथा-कथाओं ने किया, निश-दिन ही आगाह
सावधान रहना 'सलिल', मत हो लापरवाह
.
'गल्प' गप्प मन को रुचे, प्रचुर कल्पना रम्य
मन-रंजन कर सफल हो, मन से मन तक गम्य
.
जब हो देना-पावना, नातों की सौगात
ताने-बाने तब बनें, मानव के ज़ज़्बात 

***
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.com
#http://hindi_blogger

बुधवार, 4 अक्टूबर 2017

muktak

पञ्च मुक्तक
सम्मिलन साहित्यकारों का सुफलदायी रहे
सत्य-शिव-सुन्दर सुपथ हर कलम आगे बढ़ गहे
द्वन्द भाषा-बोलिओं में, सियासत का इष्ट है-
शारदा-सुत हिंद-हिंदी की सतत जय-जय कहे
*
नेह नर्मदा तीर पधारे शब्ददूत हिंदी माँ के
अतिथिदेव सम मन भाते हैं शब्ददूत हिंदी माँ के
भाषा, पिंगल शास्त्र, व्याकरण हैं त्रिदेवियाँ सच मानो
कथ्य, भाव, रस देव तीन हैं शब्ददूत हिंदी माँ के
*
अक्षर सुमन, शब्द-हारों से, पूजन भारत माँ का हो
गीतों के बन्दनवारों से, पूजन शारद माँ का हो
बम्बुलियाँ दस दिश में गूँजें, मातु नर्मदा की जय-जय
जस, आल्हा, राई, कजरी से, वंदन हिंदी माँ का हो
*
क्रांति का अभियान हिंदी विश्ववाणी बन सजे
हिंद-हिंदी पर हमें अभिमान, हिंदी जग पुजे
बोलियाँ-भाषाएँ सब हैं सहोदर, मिलकर गले -
दुन्दुभी दस दिशा में अब सतत हिन्दी की बजे
*
कोमल वाणी निकल ह्रदय से, पहुँच ह्रदय तक जाती है
पुलक अधर मुस्कान सजाती, सिसक नीर बरसाती है
वक्ष चीर दे चट्टानों का, जीत वज्र भी नहीं सके-
'सलिल' धार बन नेह-नर्मदा, जग की प्यास बुझाती है
*

शनिवार, 2 जुलाई 2016

geet

एक रचना 
*
येन-केन जीते चुनाव हम 
बनी हमारी अब सरकार 
कोई न रोके, कोई न टोके 
करना हमको बंटाढार 
*
हम भाषा के मालिक, कर सम्मेलन ताली बजवाएँ
टाँगें चित्र मगर रचनाकारों को बाहर करवाएँ 
है साहित्य न हमको प्यारा, भाषा के हम ठेकेदार 
भाषा करे विरोध न किंचित, छीने अंक बिना आधार 
अंग्रेजी के अंक थोपकर, हिंदी पर हम करें प्रहार 
भेज भाड़ में उन्हें, आज जो हैं हिंदी के रचनाकार 
लिखो प्रशंसा मात्र हमारी 
जो, हम उसके पैरोकार
कोई न रोके, कोई न टोके 
करना हमको बंटाढार 
*
जो आलोचक उनकी कलमें तोड़, नष्ट कर रचनाएँ 
हम प्रशासनिक अफसर से, साहित्य नया ही लिखवाएँ 
अब तक तुमने की मनमानी, आई हमारी बारी है 
तुमसे ज्यादा बदतर हों हम, की पूरी तैयारी है  
सचिवालय में भाषा गढ़ने, बैठा हर अधिकारी है 
छुटभैया नेता बन बैठा, भाषा का व्यापारी है 
हमें नहीं साहित्य चाहिए, 
नहीं असहमति है स्वीकार 
कोई न रोके, कोई न टोके 
करना हमको बंटाढार 
*

बुधवार, 11 फ़रवरी 2015

लेख:


साहित्य की चुनौतियां और हमारा दायित्व 

--विवेक रंजन श्रीवास्तव "विनम्र"
ओ बी ११ , विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर 
९४२५८०६२५२
         साहित्य समय सापेक्ष होता है . साहित्य की इसी सामयिक अभिव्यक्ति को आचार्य हजारी प्रसाद व्दिवेदी जी ने कहा था कि साहित्य समाज का दर्पण होता है . आधुनिक तकनीक की भाषा में कहूं तो जिस तरह डैस्कटाप , लैपटाप , आईपैड , स्मार्ट फोन विभिन्न हार्डवेयर हैं जो मूल रूप से इंटरनेट  के संवाहक हैं एवं साफ्टवेयर से संचालित हैं . जनसामान्य की विभिन्न आवश्यकताओ की सुविधा हेतु इन माध्यमो का उपयोग हो रहा है .  कुछ इसी तरह साहित्य की विभिन्न विधायें कविता , कहानी , नाटक , वैचारिक लेख , व्यंग , गल्प आदि शिल्प के विभिन्न हार्डवेयर हैं , मूल साफ्टवेयर संवेदना है , जो  इन साहित्यिक विधाओ में रचनाकार की लेखकीय विवशता के चलते अभिव्यक्त होती है .  परिवेश व समाज का रचनाकार के मन पर पड़ने  प्रभाव ही है , जो रचना के रूप में जन्म लेता है   . लेखन की  सारी विधायें इंटरनेट की तरह भावनाओ तथा संवेदना की संवाहक हैं .  साहित्यकार जन सामान्य की अपेक्षा अधिक संवेदनशील होता है . बहुत से ऐसे दृश्य जिन्हें देखकर भी लोग अनदेखा कर देते हैं , रचनाकार का मन उन दृश्यो को अपने मन के कैमरे में कैद कर लेता है . फिर वैचारिक मंथन की प्रसव पीड़ा के बाद कविता के भाव , कहानी की काल्पनिकता , नाटक की निपुणता , लेख की ताकत और व्यंग में तीक्ष्णता के साथ एक क्षमतावान  रचना लिखी जाती है . जब यह रचना पाठक पढ़ता है तो प्रत्येक पाठक के हृदय पटल पर उसके स्वयं के  अनुभवो एवं संवेदनात्मक पृष्ठभूमि के अनुसार अलग अलग चित्र संप्रेषित होते हैं . 
        वर्तमान  में विश्व में  आतंकवाद  , देश में सांप्रदायिकता, जातिवाद , सामाजिक उत्पीड़न तथा आर्थिक शोषण आदि के सूक्ष्म रूप में हिंसा की मनोवृत्ति समाज में  तेज़ी से फैलती जा रही है, यह दशा हमारी शिक्षा , समाज में नैतिक मूल्यो के हृास , सामाजिक-राजनीतिक संस्थाओं की गतिविधियो और हमारी संवैधानिक व्यवस्थाओ व आर्थिक प्रक्रिया पर  प्रश्नचिन्ह लगाती  है, साथ ही उन सभी प्रक्रियाओं को भी कठघरे में खड़ा कर देती है जिनका संबंध हमारे संवेदनात्मक जीवन से है. समाज से सद्भावना व संवेदना का विलुप्त होते जाना यांत्रिकता को जन्म दे रहा है . यही अनेक सामाजिक बुराईयो के पनपने का कारण है . स्त्री भ्रूण हत्या , नारी के प्रति बढ़ते अपराध , चरित्र में गिरावट , चिंतनीय हैं .  हमारी सभी साहित्यिक विधाओं और कलाओ का  औचित्य तभी है जब वे समाज के सम्मुख उपस्थित ऐसे ज्वलंत अनुत्तरित प्रश्नो के उत्तर खोजने का यत्न करती दिखें . समाज की परिस्थितियो की अवहेलना साहित्य कर ही नही सकता . क्योकि साहित्यकार का दायित्व है कि वह किंकर्त्तव्यविमूढ़ स्थितियों में भी समाज के लिये मार्ग प्रशस्त करे . समाज का नेतृत्व करने वालो को भी राह दिखाये . राजनीतिज्ञो के पास अनुगामियो की भीड़ होती है पर वैचारिक दिशा दर्शन के लिये वह स्वयं साहित्य का अनुगामी होता है . साहित्यकार  का दायित्व है और साहित्य की चुनौती होती है कि वह देश काल परिस्थिति के अनुसार समाज के गुण अवगुणो का अध्ययन एवं विश्लेषण  करने की अनवरत प्रक्रिया का हिस्सा बना रहे और शाश्वत तथ्यो का अन्वेषण कर उन्हें लोकप्रिय तरीके से समुचित विधा में प्रस्तुत कर समाज को उन्नति की ओर ले जाने का वैचारिक मार्ग बनाता रहे .समाज को नैतिकता का पाठ पढ़ाने का दायित्व साहित्य का ही है . इसके लिये साहित्यिक संसाधन उपलब्ध करवाना ही नही , राजनेताओ को ऐसा करने के लिये अपनी लेखनी से विवश कर देने की क्षमता भी लोकतांत्रिक प्रणाली में पत्रकारिता के जरिये रचनाकार को सुलभ है .  
        प्राचीन शासन प्रणाली में यह कार्य राजगुरु , ॠषि व  मनीषी करते थे .उन्हें राजा स्वयं सम्मान देता था . वे राजा के पथ दर्शक की भूमिका का निर्वाह करते थे .हमारे महान ग्रंथ ऐसे ही विचारको ने लिखे हैं जिनका साहित्यिक महत्व शाश्वत बना हुआ है . समय के साथ  बाद में कुछ राजाश्रित कवियो ने जब अपना यह मार्गदर्शी नैतिक दायित्व भुलाकर केवल राज स्तुति का कार्य संभाल लिया तो साहित्य को उन्हें भांड कहना पड़ा . उनकी साहित्यिक रचनाओ ने भले ही उनको किंचित धन लाभ करवा दिया हो पर समय के साथ ऐसी लेखनी का साहित्यिक मूल्य स्थापित नही हो सका . कलम की ताकत तलवार की ताकत से सदा से बड़ी रही है .वीर रस के कवि राजसेनाओ का हिस्सा रह चुके हैं , यह तथ्य इस बात का उद्घोष करता है कि साहित्य के प्रभाव की उपेक्षा संभव नही . जिस समय में युद्ध ही राज धर्म बन गया था तब इस तरह की वीर रस की रचनायें हुई .जब समाज अधोपतन का शिकार हो गया था विदेशी आक्रांताओ के द्वारा हमारी संस्कृति का दमन हो रहा था तब तुलसी हुये .  भक्तिरस की रचनायें हुई  . अकेली रामचरित मानस , भारत से दूर विदेशो में ले जाये गये मजदूरो को भी अपनी संस्कृति की जड़ो को पकड़े रखने का संसाधन बनी . 
        आज  रचनाकार राजाश्रय से मुक्त अधिक स्वतंत्र है , अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का संवैधानिक अधिकार आज हमारे पास है .  आज लेखन , प्रकाशन , व वांछित पाठक तक त्वरित पहुँच बनाने के तकनीकी संसाधन कही अधिक सुगम हैं . लेखन की व अभिव्यक्ति की शैली तेजी से बदली है . माइक्रो ब्लागिंग इसका सशक्त उदाहरण है . पर आज नई पीढ़ी में  पठनीयता का तेजी हृास हुआ है . साहित्यिक किताबो की मुद्रण संख्या में कमी हुई है . आज साहित्य की चुनौती है कि पठनीयता के अभाव को समाप्त करने के लिये पाठक व लेखक के बीच उँची होती जा रही दीवार तोड़ी जाये . पाठक की जरूरत के अनुरूप लेखन तो हो पर शाश्वत वैचारिक चिंतन मनन योग्य लेखन की ओर पाठक की रुचि विकसित की  जाये . आवश्यक हो तो इसके लिये पाठक की जरूरत के अनुरूप शैली व विधा बदली जा सकती है ,प्रस्तुति का माध्यम भी बदला जा सकता है . यदि समय के अभाव में पाठक छोटी रचना चाहता है , तो क्या फेसबुक की संक्षिप्त टिप्पणियो को या व्यंग के कटाक्ष करती क्षणिकाओ को साहित्य का हिस्सा बनाया जा सकता है ?  यदि पाठक किताबो तक नही पहुँच रहे तो क्या किताबो को पोस्टर के वृहद रूप में पाठक तक पहुंचाया जावे ? क्या टी वी चैनल्स पर किताबो की चर्चा के प्रायोजित कार्यक्रम प्रारंभ किये जावे ? ऐसे प्रश्न भी विचारणीय हैं . जो भी हो हमारी पीढ़ी और हमारा समय उस परिवर्तन  का साक्षी  है जब समाज में  कुंठाये , रूढ़ियां , परिपाटियां टूट रही हैं . समाज हर तरह से उन्मुक्त हो रहा है, परिवार की इकाई वैवाहिक संस्था तक बंधन मुक्त हो रही है , अतः हमारी लेखकीय पीढ़ी का साहित्यिक दायित्व अधिक है .निश्चित ही  आज हम जितनी गंभीरता से इसका निर्वहन करेंगे कल इतिहास में हमें उतना ही अधिक महत्व दिया जावेगा .  

--विवेक रंजन श्रीवास्तव "विनम्र"
ओ बी ११ , विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर 
९४२५८०६२५२
ईमेल vivek1959@yahoo.co.in

गुरुवार, 15 जनवरी 2015

lohadi par: manjul bhatnagar, sanjiv

अभिनव प्रयोग:
मंजुल भटनागर, संजीव, गीत, लोक, साहित्य, पद्य, लोहड़ी,
नमस्कार मित्रों
राय अब्दुल्ला खान भट्टी राजपूत की यह पंक्तियाँ जो हम सब बरसों से मकर संक्रांति के अवसर पर सुनते आयें हैं। ----
सुन्दर मुंदरिये - होय !

तेरा कौन विचारा - होय !
दुल्ला भट्टी वाला - होय !

दुल्ले धी व्याई - होय !
सेर शक्कर पाई - होय !

कुड़ी दा लाल पटाका - होय !
कुड़ी दा सल्लू पाटा - होय !

सल्लू कौन समेटे - होय !

चाचे चूरी कुट्टी - होय !
ओ जिमीदारां लुट्टी - होय !

जिमीदार सुधाए - होय !
गिन गिन पौले आए - होय !

इक पौला रै गया - होय !
सिपाई फड़ के लै गया - होय !

सिपाई ने मारी इट्ट - होय !
भांवे रो ते भांवे पिट्ट - होय !
(पौला=झूठा)
*
मंजुल जी! द्वारा पंक्तियों को पढ़कर उतरी पंक्तियाँ इस लोहड़ी पर उन्हें और आप सबको उपहारस्वरूप भेंट:
सुन्दरिये मुंदरिये, होय!
सब मिल कविता करिए, होय

कौन किसी का प्यारा, होय
स्वार्थ सभी का न्यारा, होय

जनता का रखवाला, होय
नेता तभी दुलारा, होय

झूठी लड़ें लड़ाई, होय
भीतर करें मिताई, होय

पाकी हैं नापाकी, होय
सेना अपनी बाँकी, होय

मत कर ताका-ताकी, होय
कर ले रोका-राकी, होय

झाड़ू माँगे माफ़ी, होय
पंजा है नाकाफी, होय

कमल करे चालाकी, होय
जनता सबकी काकी, होय

हिंदी मैया निरभै, होय
भारत माता की जै, होय
=================

navgeet: - sanjiv

अभिनव प्रयोग:
नवगीत 
संजीव 


जब लौं आग न बरिहै तब लौं, 
ना मिटहै अंधेरा
सबऊ करो कोसिस मिर-जुर खें 
बन सूरज पगफेरा 

कौनौ बारो चूल्हा-सिगरी  
कौनौ ल्याओ पानी 
रांध-बेल रोटी हम सेंकें 
खा रौ नेता ग्यानी 
झारू लगा आज लौं काए 
मिल खें नई खदेरा 
दोरें दिखो परोसी दौरे 
भुज भेंटें बम भोला 
बाटी भरता चटनी गटखें 
फिर बाजे रमतूला 
गाओ राई, फाग सुनाओ
जागो, भओ सवेरा 
(बुंदेलों लोककवि ईसुरी की चौकड़िया फाग की तर्ज़ पर प्रति पर मात्रा १६-१२)
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