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रविवार, 18 नवंबर 2012

श्रृद्धांजलि: हिंदुत्व-केसरी नहीं रहा... संजीव 'सलिल'

श्रृद्धांजलि: बाल ठाकरे



हिंदुत्व-केसरी नहीं रहा...
संजीव 'सलिल'
*
कर जोड़ो शीश झुकाओ रे!
महाराष्ट्र-केसरी नहीं रहा...
***
वह वह नेता जन-मन को प्रिय था,
वह मजदूरों में सक्रिय था।
उसके रहते कुछ कदम थमे-
आतंकवाद कुछ निष्क्रिय  था।।
अब सम्हलो, चेतो, जागो रे!
महाराष्ट्र-केसरी नहीं रहा,
हिंदुत्व-केसरी नहीं रहा...
***
वह शिव सेना का नायक था,
वह व्यंग्यचित्र-शर धारक था।
हर शब्द तीक्ष्ण शर मारक था-
चिर-कुंठित का उद्धारक था।।
था प्रखर-मुखर, सर्वोच्च शिखर-
कार्टून-केसरी नहीं रहा,
हिंदुत्व-केसरी नहीं रहा...
***
सरकारों का निर्माता था,
मुम्बई का भाग्य-विधाता था।
धर्मांध सियासत का अरि था-
मजहबी रोग का त्राता था।।
निज गौरव के प्रति जागरूक
इंसान-केसरी नहीं रहा,
हिंदुत्व केसरी नहीं रहा...
***
उसके इंगित पर शिव सैनिक ,
तूफानों से टकराते थे।
उसकी दहाड़ सुन दिल्लीपति-
संकुचाते थे, शर्माते थे।।
मुंबई का बेटा! भूमि-पुत्र!!
बलिदान-केसरी नहीं रहा,
हिंदुत्व केसरी नहीं रहा...
***
उसने सत्ता को ठुकराया,
पद-मोह न बाँध उसे पाया।
उन चुरुट दबाये अधरों का-
चीता सा दिल था सरमाया।।
दुर्बल काया, दृढ़ अंतर्मन-
अरमान-केसरी नहीं रहा,
हिंदुत्व केसरी नहीं रहा...
***

samanvayam, 204 vijay apartment,
napier town, jabalpur 482001
salil.sanjiv@gmail.com
divyanarmada.blogspot.in
0761 2411131 / 94251 83244

शनिवार, 11 फ़रवरी 2012

श्रृद्धांजलि- एक युग का अंत: विजय महापात्र

एक साथ कई युगों में जीता है भारत

पत्रकारिता की दुनिया देखते-देखते मीडिया हो गयी | कभी एक अकेले व्यक्ति की मेहनत से अखबार निकलने की कहानी पर आज यकीं नहीं होता | पंडित युगुल किशोर शुक्ल , भारतेंदु हरिश्चंर और विष्णु राव पराड़कर की जीवटता आज बेमानी नजर आती है | यह दुनिया बड़ी अजीब है और भारतवर्ष की बात तो पूछिये मत ! 'एक साथ कई युगों में जीता है भारत'  आज फिर इस कथन पर यकीन करने को मजबूर हैं हम | जहाँ एक ओर टेलीविजन की चकाचौंध ने पत्रकार बिरादरी को अंधा बना रखा है वहीँ दूसरी ओर 'विजय महापात्र' जैसे भारतेंदु युगीन पत्रकार भी अपनी जिजीविषा के साथ जीते हुए अनंत यात्रा पर निकल गये हैं |

50 से अधिक भाषाओँ में पत्रिका निकालने वाले विजय महापात्र

विजय महापात्र को याद करते हुए ‘जयप्रकाश मानस ‘ लिखते हैं- 'ओड़िसा के जगतसिंहपुर जिला के पाकनपुर गांव के निवासी विजय कुमार महापात्र पिछले 20-22 साल से बच्चों की पत्रिका निकालते थे। तकरीबन 50 भारतीय भाषाओं में। ओड़िया, बांग्ला, नागपुरी, भोजपुरी, अंगरेजी, हिंदी (दुलारी बहन), संस्कृत, डोगरी आदि भाषाओं में। लिमका बुक में रिकार्ड बना चुके थे । अपनी साइकिल पर घूम-घूमकर अपनी पत्रिका बेचते थे । वे अपने लिए कुछ नहीं मांगते थे। सामनेवाले को पसंद आया तो पत्रिका की रसीद थमा देते थे । एक साल के लिए 100 रुपये। साल में छह माह दूसरे प्रदेशों की यात्रा पर रहते थे। रचनाकारों से मिलकर उनकी रचनाएं लेने के लिए। अनजान शहरों में भटकते रहते थे। हम कुछ साथी भी उनसे मिलकर दंग रह गये थे । वह हिम्मत और चुनौती स्वीकारने की हठ । अभी अभी पता चला कि वे पाई पाई को तरसते हुए पिछले 18 जनवरी को कैंसर से जूझते-जूझते चल बसे । उन्हें मेरी हार्दिक श्रद्धांजलि'

NDTV भुवनेश्वर से जुड़े पुरुषोत्तम ठाकुर लिखते हैं- 'विजय महापात्रा का परिचय देना हो तो एक वाक्य में कहा जा सकता है- वे संपादक हैं, बाल पत्रिका के संपादक. लेकिन यह विजय का अधूरा परिचय होगा.  असल में विजय देश और दुनिया के किसी भी दूसरे संपादक से अलग हैं. वे पत्रिका का संपादन नहीं करते, 'पत्रिकाओं' का संपादन करते हैं. वह भी एक-दो नहीं, देश की अलग-अलग भाषाओं में कुल 50 पत्रिकाएं !'

उड़ीसा के जगतसिंहपुर में एक छोटा सा गांव है- पाकनपुर. इसी गांव में रहते थे 40 साल के बिजय महापात्रा   दो कमरों वाले उनके घर के एक कमरे में उनका कार्यालय है, आप चाहें तो इस कमरे को पत्रिकाओं का कारखाना कह सकते हैं

इस एक कमरे से कई बाल पत्रिकाएं निकलती हैं- तमिल में अंबू सगोथारी , अंगिका में अझोला बहिन, उड़िया में सुनाभाउनी , लद्दाखी में छू छू ले, कुमाउनी में भाली बानी, अंग्रेजी में लविंग सिस्टर, मंडीयाली में लाडली बोबो, उर्दू में प्यारी बहन, संस्कृत में सुबर्ण भगिनी, मराठी में प्रिय ताई, तेलुगु में प्रियमैना चेलेउ, कश्मीरी में त्याथ ब्यानी…….!

विजय इन बाल पत्रिकाओं के पीर, बावर्ची, भिश्ती, खर हैं यानी अकेले पत्रिकाओं के लिए रचनाएं मंगवाते हैं, उनका संपादन करते हैं, प्रकाशन करते हैं और इन पत्रिकाओं को बेचते भी हैं। 

अधिकांश पाठकों तक ये पत्रिकाएं वे डाक से भेजते हैं. इसके अलावा वे अलग-अलग स्कूलों में जा कर सीधे बच्चों को भी ये पत्रिकाएं बेचते हैं. रोज कई-कई किलोमीटर दूर जाने-अनजाने रास्तों पर अपनी साईकल से वे इन पत्रिकाओं को बेचने के लिए जाते हैं

क्यों निकालते हैं वे इतनी पत्रिकाएं ?

इसके जवाब में विजय कहते हैं-" भारत वर्ष में जितनी भाषा और बोलियां हैं, मैं उन सभी भाषाओं में बाल पत्रिकाएं निकालना चाहता हूं   मैं इन सबकी लिपि का प्रचार-प्रसार करूं   इतने विशाल देश में शायद यह काम थोड़ा मुश्किल है, लेकिन नामुमकिन नहीं है  "

इन पत्रिकाओं का प्रकाशन काफी मुश्किल काम है   कई बार तो आर्थिक कारणों से किसी-किसी पत्रिका का एक अंक निकालने में साल लग जाते हैं. लेकिन अंग्रेजी, हिंदी और उड़िया की पत्रिका जी तोड़ मेहनत के बाद हर महीने निकल जाती है   लेकिन इन सबके लिए रचनाएं जुटाने में ही हालत खराब हो जाती है

1990 से इन पत्रिकाओं के प्रकाशन-संपादन में जुटे बिजय कहते हैं- " मैं निजी तौर पर हर लेखक से संपर्क करता हूं   अलग-अलग राज्यों में जा कर लेखकों से मुलाकात करता हूं, उनसे बिना मानदेय के रचनाएं भेजने के लिए अनुरोध करता हूं. फिर इन रचनाओं को टाईप करना…! मेरे पास तो कंप्यूटर भी नहीं है. जिनके पास है, उनसे बहुत सहयोग नहीं मिलता  "

विजय की मानें तो इसके चलते उनके परिवार को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है क्योंकि वो अपने घर के इकलौते कमाऊ सदस्य हैं

पत्रिका निकालने के इस जुनून के कारण उन्हें घर की ज़मीन भी बेचनी पड़ी है लेकिन वे हार मानने को तैयार नहीं हैं. घर के दूसरे सदस्य भी चाहते हैं कि बिजय अपने मिशन में जुटे रहें

विजय कहते हैं- " मैं कम से कम 300 भाषा और बोलियों में बाल पत्रिकाएं निकालना चाहता हूं

आभार: जनोक्ति 

विजय जी के जीवट और समर्पण को सौ बार सलाम. क्या समाज और सरकार ऐसे व्यक्तित्व को सहयोग और सम्मान न दे पाने का दोषी नहीं है? क्या आनेवाले समय में एक और विजय को पनपने का वातावरण देना हमारा अपना कार्य नहीं है? क्या भाषा के नाम पर ओछी राजनीती कर आम जन को विभाजित करनेवाले राजनेता विजय जैसे व्यक्तित्व से कुछ सीखेंगे?

****************

शनिवार, 29 अक्टूबर 2011

श्रृद्धांजलि:  
  स्मृति शेष श्रीलाल शुक्ल                                                               shrilal-shukla.jpg
                                                  महेश चन्द्र द्विवेदी
              कल श्रीलाल शुक्ल जी के पार्थिव शरीर को अग्नि में समाते देखा- ३५ वर्ष पूर्व उनसे  प्रथम बार एक विभागीय  डिनर में मिला था, हम दोनों के उत्तर प्रदेश प्रशासन में होने के कारण ऐसा अवसर आया था - सौम्य स्वाभाव , सुन्दर मुख एवं सुलझा व्यक्तित्व-. तब मै लिखता नहीं था और तब तक मैंने राग-दरबारी पढ़ी भी नहीं थी, परन्तु उसके पश्चात् शीघ्र ही पढ़ी- और पढ़ी क्या? हंसी कहना अधिक पयुक्त होगा, क्योंकि प्रत्येक वाक्य के उपरांत हंसी रोकना कठिन होता था- इतना तीखा और नियंतरणहीन हास्योत्पादक व्यंग्य पहले नहीं पढ़ा था- फिर यदा-कदा मिलना होता रहा - १९९५ में जब मेरा पहला उपन्यास 'उर्मि' छपा, तब मैंने श्रीलाल जी को एक प्रति पढने को भेजी- उनकी टिपपनी थी ' अत्यंत रुचिकर  कहानी एवं शैली है परन्तु  कथानक को अबोर्ट कर दिया गया है, इस उपन्यास को सौ पृष्ठ के बजाय ४०० पृष्ठ में लिखना चाहिए था'-  १० वर्ष पश्चात् जब मैंने अपने व्यंग्यात्मक संस्मरण 'प्रशासनिक प्रसंग' उनके पास भेजे , तो चार घंटे पश्चात् ही फ़ोन आया कि मैंने पूरी पुस्तक पढ़ ली है. मैंने आश्चर्य से कहा इतनी जल्दी, तो बोले कि इतनी रुचिकर है कि प्रारंभ करने के पश्चात् छोड़ ही ना सका.'. मै धन्य हो गया- हाल में, जब वह अस्वस्थ रहने लगे थे, तब मिलने जाने पर मैंने अपना व्यंग्य संग्रह 'भज्जी का जूता ' उन्हें दिया , वह पढने की दशा में तो नहीं थे, परन्तु उन्होंने अपनी दो पुस्तकें मुझे दी, जिन्हें मै धरोहर के रूप में रखकर अपने को सौभाग्यशाली समझूंगा. 
               चार दिन पूर्व उन्हें सहारा अस्पताल में आई. सी. यू. में देखकर बड़ा बुरा लगा था- अत्यंत कृशकाय एवं निष्प्राण दिखने वाला शारीर - इतना  जीवंत व्यक्ति इस दशा में - उन्होंने ऐसे  शरीर का त्याग कर दिया है, परन्तु  मेरा विश्वास है कि वह आने वाली  सदियों तक हमारे बीच रहेंगे .
mcdewedy@gmail.com
श्रीलाल शुक्‍ल जन्म ३१ दिसंबर १९२५ - निधन २८ अक्टूबर २०११
विख्यात हिंदी व्यंग्यकार होने के पूर्व वे उत्तर प्रदेश राज्य लोक सेवा योग तथा भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी थे. उन्होंने २५ पुस्तकें लिखीं जिनमें मकान, सूनी घाती का सूरज, पहला पड़ाव, बीसरामपुर का संत आदि प्रमुख हैं. उन्होंने स्वतंत्रता पश्चात् भारतीय जन मानस के गिरते जीवन मूल्यों को अपनी विशिष्ट व्यंग्यात्मक शैली के माध्यम से उद्घाटित किया. उनकी सर्वाधिक सम्मानित तथा चर्चित कृति राग दरबारी अंग्रेजी सहित २५ भाषाओँ में अनूदित हुई. १०८० के दशक में उनकी कृति पर दूरदर्शन में धारावाहिक भी र्पसरित हुआ था.उनके जासूसी उपन्यास आदमी का ज़हर साप्ताहिक हिंदुस्तान में धारावाहिक प्रकाशित हुआ था.

श्री लाल शुक्ल को राग दरबारी पर १९६९ में साहित्य अकादमी पुरस्कार, १९९९ में उपन्यास बीसरामपुर का संत पर व्यास सम्मान से तथा २००९ में ज्ञानपीठ सम्मान से सम्मानित किया गया था. भारतीय साहित्य में महत्वपूर्ण अवदान हेतु राष्ट्रपति द्वारा उन्हें २००८ में पद्मभूषण से अलंकृत किया गया. सन २००५ में उनकी ८० वीं जन्म ग्रंथि पर दिल्ली में शानदार और जानदार कार्यक्रम का आयोजन उनके मित्रों द्वारा किया गया था तथा 'जीवन ही जीवन' शीर्षक स्मारिका का प्रकाशन किया गया था.

संक्षिप्त जीवन वृत्त:

  • १९२५ - अतरौली लखनऊ उत्तर प्रदेश में जन्म.
  • १९४७ - इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक.
  • १९४९ - प्रादेशिक सिविल सेवा में प्रविष्ट.
  • १९५७ - प्रथम उपन्यास सूनी घाती का सूरज प्रकाशित.
  • १९५८ - प्रथम व्यंग्य लेख संकलन अंगद का पैर प्रकाशित.
  • १९७० - राग दरबारी १९६९ के लिये साहित्य अकादमी पुरस्कार.
  • १९७८  - मकान के लिये मध्य प्रदेश हिंदी साहित्य अकादमी पुरस्कार. 
  • १९७९-८० - निदेशक भारतेंदु नाट्य अकादमी उत्तर प्रदेश.
  • १९८१ - अंतर्राष्ट्रीय लेखक सम्मेलन बेलग्रेड में भारत का प्रतिनिधित्व.
  • १९८२-८६ - सदस्य साहित्य अकादमी परामर्श मंडल.
  • १९८३ - भारतीय प्रशासनिक सेवा से सेवा निवृत्त.
  • १९८७-९० - आई.सी.सी.आर. भारत शासन द्वारा एमिरितस फेलोशिप.
  • १९८८ - उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा साहित्य भूषण पुरस्कार.
  • १९९१ - कुरुक्षेत्र विश्व-विद्यालय द्वारा गोयल साहित्य पुरस्कार.
  • १९९४ -उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा लोहिया सम्मान.
  • १९९६ - मध्य प्रदेश शासन द्वारा शरद जोशी सम्मान.
  • १९९७ - मध्य प्रदेश शासन द्वारा मैथिली शरण गुप्ता सम्मान.
  • १९९९ - बिरला फ़ौंडेशन द्वारा व्यास सम्मान.
  • २००५ - उत्तर प्रदेश स्शासन द्वारा यश भारती सम्मान.
  • २००८ - भारत के राष्ट्रपति द्वारा पद्म भूषण.
  • २०११ - २००९ का ज्ञानपीठ सम्मान.
साहित्यिक अवदान:  उपन्यास 
  • सूनी घाती का सूरज - १९५७ 
  • अज्ञातवास - १९६२ 
  • राग दरबारी (उपन्यास) - १९६८ - मूलतः हिंदी में; पेंग्विन बुक्स द्वारा इसी नाम से अंग्रेजी अनुवाद १९९३; नॅशनल बुक्स ट्रस्ट द्वारा १५ भारतीय भाषाओँ में अनुवाद प्रकाशित.
  • आदमी का ज़हर - १९७२ 
  • सीमाएं टूटती हैं - १९७३ 
  • मकान - १९७६ - मूलतः हिंदी में; बांगला अनुवाद १९७० .
  • पहला पड़ाव - १९८७ - मूलतः हिंदी में; पेंग्विन इंटरनॅशनल द्वारा अंग्रेजी अनुवाद १९९३.
  • बिश्रामपुर का संत - १९९८ 
  • बब्बर सिंह और उसके साथी - १९९९ - मूलतः हिंदी में; स्कोलोस्टिक इं. न्यूयार्क द्वारा अंग्रेजी अनुवाद बब्बर सिंह एंड हिस फ्रिएंड्स  २००० में.
  • राग विराग - २००१ 
व्यंग्य:

  • अंगद का पाँव - १९५८ 
  • यहाँ से वहाँ - १९७० 
  • मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनायें - १९७९ 
  • उमरावनगर में कुछ दिन - १९८६
  • कुछ ज़मीन में कुछ हवा में - १९९० 
  • आओ बैठ लें कुछ देर - १९९५ 
  • अगली शताब्दी का शहर - १९९६
  • जहालत के पचास साल - २००३ 
  • ख़बरों की जुगाली - २००५ 
लघु कथा संग्रह:
  • यह घर मेरा नहीं - १९७९ 
  • सुरक्षा तथा अन्य कहानियाँ - १९९१ 
  • इस उम्र में - २००३ 
  • दस प्रतिनिधि कहानियाँ - २००३ 
संस्मरण:
  • मेरे साक्षात्कार - २००२ 
  • कुछ साहित्य चर्चा भी - २००८ 
साहित्यिक समालोचना:

  • भगवती चरण वर्मा - १९८९ 
  • अमृतलाल नागर - १९९४ 
  • अज्ञेय: कुछ रंग कुछ राग - १९९९ 
संपादित कार्य:
  • हिंदी हास्य-व्यंग्य  संकलन - २०००
  • साहित्यिक यात्रायें:

    युगोस्लाविया, गेरमन्य, इंग्लैंड, पोलैंड, सूरीनाम, चीन. 

Acharya Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot.com



रविवार, 12 दिसंबर 2010

प्रो. सत्यसहाय के प्रति : स्मृति गीत: मन न मानता... संजीव 'सलिल'

प्रो. सत्यसहाय के प्रति श्रृद्धांजलि :
 स्मृति गीत:
मन न मानता...
संजीव 'सलिल'
*
मन न मानता
चले गये हो...
*
अभी-अभी तो यहीं कहीं थे.
आँख खुली तो कहीं नहीं थे..
अंतर्मन कहता है खुदसे-
साँस-आस से
छले गये हो...
*
नेह-नर्मदा की धारा थे.
श्रम-संयम का जयकारा थे..
भावी पीढ़ी के नयनों में-
स्वप्न सदृश तुम
पले गये हो...
*
दुर्बल तन में स्वस्थ-सुदृढ़ मन.
तुम दृढ़ संकल्पों के गुंजन..
जीवन उपवन में भ्रमरों संग-
सूर्य अस्त लाख़
ढले गये हो...
*****

विधि का विधान : प्रो. सत्य सहाय दिवंगत.....

श्रृद्धांजलि: विधि का विधान : प्रो. सत्य सहाय दिवंगत.....                                                                                                                                                                                                                   SS Shrivastava.jpg

वयोवृद्ध शिक्षाविद-अर्थशास्त्री प्रो. सत्यसहाय श्रीवास्तव

संजीव वर्मा 'सलिल'

बिलासपुर, छत्तीसगढ़ २८.११.२०१०. स्थानीय अपोलो चिकित्सालय में आज देर रात्रि विख्यात अर्थशास्त्री, छत्तीसगढ़ राज्य में महाविद्यालायीन शिक्षा के सुदृढ़ स्तम्भ रहे अर्थशास्त्र की ३ उच्चस्तरीय पुस्तकों के लेखक, प्रादेशिक कायस्थ महासभा मध्यप्रदेश के पूर्व प्रांतीय अध्यक्ष रोटेरियन, लायन प्रो. सत्य सहाय का लम्बी बीमारी के पश्चात् देहावसान हो गया. खेद है कि छत्तीसगढ़ की राज्य सरकार आपने प्रदेश के इस गौरव पुरुष के प्रति पूरी तरह अनभिज्ञ तथा असावधान रही. वर्ष १९९४ से पक्षाघात (लकवे) से पीड़ित प्रो. सहाय शारीरिक पीड़ा को चुनौती देते हुए भी सतत सृजन कर्म में संलग्न रहे. शासन सजग रहकर उन्हें राजकीय अतिथि के नाते एम्स दिल्ली या अन्य उन्नत चिकित्सालय में भेजकर श्रेष्ठ विशेषज्ञों की सेवा उपलब्ध कराता तो वे रोग-मुक्त हो सकते थे.

१६ वर्षों से लगातार पक्षाघात (लकवा) ग्रस्त तथा शैयाशाई होने पर भी उनके मन-मष्तिष्क न केवल स्वस्थ्य-सक्रिय रहा अपितु उनमें सर्व-हितार्थ कुछ न कुछ करते रहने की अनुकरणीय वृत्ति भी बनी रही. वे लगातार न केवल अव्यवसायिक सामाजिक पत्रिका 'संपर्क' का संपादन-प्रकाशन करते रहे अपितु इसी वर्ष उन्होंने 'राम रामायण' शीर्षक लघु पुस्तक का लेखन-प्रकाशन किया था. इसमें रामायण का महत्त्व, रामायण सर्वप्रथम किसने लिखी, शंकर जी द्वारा तुलसी को रामकथा साधारण बोल-चाल की भाषा में लिखने की सलाह, जब तुलसी को हनुमानजी ने श्रीराम के दर्शन करवाये, रामकथा में हनुमानजी की उपस्थिति, सीताजी का पृथ्वी से पैदा होना, रामायण कविता नहीं मंत्र, दशरथ द्वारा कैकेयी को २ वरदान, श्री राम द्वारा श्रीभरत को अयोध्या की गद्दी सौपना, श्री भारत द्वारा कौशल्या को सती होने से रोकना, रामायण में सर्वाधिक उपेक्षित पात्र उर्मिला, सीता जी का दूसरा वनवास, रामायण में सुंदरकाण्ड, हनुमानजी द्वारा शनिदेव को रावण की कैद से मुक्त कराना, परशुराम प्रसंग की सचाई, रावण के अंतिम क्षण, लव-कुश काण्ड, सीताजी का पृथ्वी की गोद में समाना, श्री राम द्वारा बाली-वध, शूर्पनखा-प्रसंग में श्री राम द्वारा लक्ष्मण को कुँवारा कहा जाना, श्री रामेश्वरम की स्थापना, सीताजी की स्वर्ण-प्रतिमा, रावण के वंशज, राम के बंदर, कैकेई का पूर्वजन्म, मंथरा को अयोध्या में रखेजाने का उद्देश्य,  मनीराम की छावनी, पशुओं के प्रति शबरी की करुणा, सीताजी का राजयोग न होना, सीताजी का रावण की पुत्री होना, विभीषण-प्रसंग, श्री राम द्वारा भाइयों में राज्य-विभाजन आदि जनरूचि के रोचक प्रसंगों का उल्लेख किया है. गागर में सागर की तरह विविध प्रसंगों को समेटे यह कृति प्रो. सहाय की जिजीविषा का पुष्ट-प्रमाण है.

 प्रो. सत्यसहाय जीवंत व्यक्तित्व, कर्मठ कृतित्व तथा मौलिक मतित्व की त्रिविभूति-संपन्न ऐसे व्यक्तित्व थे जिन पर कोई भी राज्य-सत्ता गर्व कर सकती है. ग्राम रनेह (राजा नल से समबन्धित ऐतिहासिक नलेह), तहसील हटा (राजा हट्टेशाह की नगरी), जिला दमोह (रानी दमयन्ती की नगरी) में जन्में, बांदकपुर स्थित उपज्योतिर्लिंग जागेश्वरनाथ पुण्य भूमि के निवासी संपन्न-प्रतिष्ठित समाजसेवी स्व. सी.एल. श्रीवास्तव तथा धर्मपरायण स्व. महारानी देवी के कनिष्ठ पुत्र सत्यसहाय की प्राथमिक शिक्षा रनेह, ग्राम, उच्चतर माध्यमिक शिक्षा दमोह तथा महाविद्यालयीन शिक्षा इलाहाबाद में अग्रज स्व. पन्नालाल श्रीवास्तव (आपने समय के प्रखर पत्रकार, दैनिक लीडर तथा अमृत बाज़ार पत्रिका के उपसंपादक, पत्रकारिता पर महत्वपूर्ण पुस्तक के लेखक) के सानिंध्य में पूर्ण हुई. अग्रज के पद-चिन्हों पर चलते हुए पत्रकारिता के प्रति लगाव स्वाभाविक था. उनके कई लेख, रिपोर्ताज, साक्षात्कार आदि प्रकाशित हुए. वे लीडर पत्रिका के फ़िल्मी स्तम्भ के संपादक रहे. उनके द्वारा फ़िल्मी गीत-गायक स्व. मुकेश व गीता राय का साक्षात्कार बहुचर्चित हुआ. 

उन्हीं दिनों महात्मा गाँधी के निजी सचिव स्व. महेशदत्त मिश्र पन्नालाल जी के साथ रहकर राजनीति शास्त्र में एम.ए. कर रहे थे. तरुण सत्यसहाय को गाँधी जी की रेलयात्रा के समय बकरीका ताज़ा दूध पहुँचाने का दायित्व मिला. गाँधी जी की रेलगाड़ी इलाहाबाद पहुँची तो भरी भीड़ के बीच छोटे कद के सत्यसहाय जी नजर नहीं आये, रेलगाड़ी रवाना होने का समय हो गया तो मिश्रजी चिंतित हुए, उन्होंने आवाज़ लगाई 'सत्य सहाय कहाँ हो? दूध लाओ.' भीड़ में घिरे सत्यसहाय जी जोर से चिल्लाये 'यहाँ हूँ' और उन्होंने दूध का डिब्बा ऊपर उठाया, लोगों ने देखा मिश्र जी डब्बा पकड़ नहीं पा रहे और रेलगाड़ी रेंगने लगी तो कुछ लम्बे लोगों ने सहाय जी को ऊपर उठाया, मिश्र जी ने लपककर डब्बा पकड़ा. बापू ने खिड़की से यह दृश्य देखा तो खिड़कीसे हाथ निकालकर उन्हें आशीर्वाद दिया.  मिश्रा जी के सानिंध्य में वे अनेक नेताओं से मिले. सन १९४८ में अर्थशास्त्र में एम.ए. करने के पश्चात् नव स्वतंत्र देश का भविष्य गढ़ने और अनजाने क्षेत्रों को जानने-समझने की ललक उन्हें बिलासपुर (छत्तीसगढ़) ले आयी.

पन्नालाल जी अमृत बाज़ार पत्रिका और लीडर जैसे राष्ट्रीय अंग्रेजी अख़बारों में संवाददाता और उपसंपादक रहे थे. वे मध्य प्रान्त और विदर्भ के नेताओं को राष्ट्री क्षितिज में उभारने में ही सक्रिय नहीं रहे अपितु मध्य अंचल के तरुणों को अध्ययन और आजीविका जुटने में भी मार्गदर्शक रहे. विख्यात पुरातत्वविद राजेश्वर गुरु उनके निकट थे, जबलपुर के प्रसिद्द पत्रकार रामेश्वर गुरु को अपना सहायक बनाकर पन्नालाल जी ने संवाददाता बनाया था. कम लोग जानते हैं मध्य-प्रदेश उच्च न्यायालय के  विद्वान् अधिवक्ता श्री राजेंद्र तिवारी भी प्रारंभ में प्रारंभ में पत्रकार ही थे. उन्होंने बताया कि वे स्थानीय पत्रों में लिखते थे. गुरु जी का जामाता होने के बाद वे पन्नालाल जी के संपर्क में आये तो पन्नालाल जी ने अपना टाइपराइटर उन्हें दिया तथा राष्ट्रीय अख़बारों से रिपोर्टर के रूप में जोड़ा. अपने अग्रज के घर में अंचल के युवकों को सदा आत्मीयता मिलते देख सत्य सहाय जी को भी यही विरासत मिली.

आदर्श शिक्षक तथा प्रशासनविद:

बुंदेलखंड में कहावत है 'जैसा पियो पानी, वैसी बोलो बनी, जैसा खाओ अन्न, वैसा होए मन'- सत्यसहाय जी के व्यक्तित्व में सुनार नदी के पानी साफगोई, नर्मदाजल की सी निर्मलता व गति तथा गंगाजल की पवित्रता तो थी ही बिलासपुर छत्तीसगढ़ में बसनेपर अरपा नदीकी देशजता और शिवनाथ नदीकी मिलनसारिता सोने में सुहागा की तरह मिल गई. वे स्थानीय एस.बी.आर. महाविद्यालय में अर्थशास्त्र के व्याख्याता हो गये. उनका प्रभावशाली व्यक्तित्व, सरस-सटीक शिक्षण शैली, सामयिक उदाहरणों से विषय को समझाने तथा विद्यार्थी की कठिनाई को समझकर सुलझाने की प्रवृत्ति ने उन्हें सर्व-प्रिय बना दिया. जहाँ पहले छात्र अर्थशास्त्र विषय से दूर भागते थे, अब आकर्षित होने लगे. सन १९६४ तक उनका नाम स्थापित तथा प्रसिद्ध हो चुका था. इस मध्य १९५८ से १९६० तक उन्होंने नव-स्थापित 'ठाकुर छेदीलाल महाविद्यालय जांजगीर' के प्राचार्य का चुनौतीपूर्ण दायित्व सफलतापूर्वक निभाया और महाविद्यालय को सफलता की राह पर आगे बढ़ाया. उस समय शैक्षणिक दृष्टि से सर्वाधिक पिछड़े राज्य छत्तीसगढ़ में उच्च शिक्षा की दीपशिखा प्रज्वलित करनेवालों में अग्रगण्य स्व. सत्य सहाय अपनी मिसाल आप थे.जांजगीर महाविद्यालय सफलतापूर्वक चलने पर वे वापिस बिलासपुर आये तथा योजना बनाकर एक अन्य ग्रामीण कसबे खरसिया के विख्यात राजनेता-व्यवसायी स्व. लखीराम अग्रवाल प्रेरित कर महाविद्यालय स्थापित करने में जुट गये. लम्बे २५ वर्षों तक प्रांतीय सरकार से अनुदान प्राप्तकर यह महाविद्यालय शासकीय महाविद्यालय बन गया. इस मध्य प्रदेश में विविध दलों की सरकारें बनीं... लखीराम जी तत्कालीन जनसंघ से जुड़े थे किन्तु सत्यसहाय जी की समर्पणवृत्ति, सरलता, स्पष्टता तथा कुशलता के कारण यह एकमात्र महाविद्यालय था जिसे हमेशा अनुदान मिलता रहा.

उन्होंने रविशंकर विश्वविद्यालय रायपुर में अधिष्ठाता छात्र-कल्याण परिषद्, अधिष्ठाता महाविद्यालयीन विकास परिषद् तथा निदेशक जनजाति प्रशासनिक सेवा प्रशिक्षण के रूप में भी अपनी कर्म-कुशलता की छाप छोड़ी.
आपके विद्यार्थियों में स्व. बी.आर. यादव, स्व. राजेंद्र शुक्ल. श्री अशोक राव, श्री सत्यनारायण शर्मा आदि अविभाजित मध्यप्रदेश / छतीसगढ़ के कैबिनेट मंत्री, पुरुषोत्तम कौशिक केन्द्रीय मंत्री तथा स्व. श्रीकांत वर्मा सांसद और राष्ट्रीय राजनीति के निर्धारक रहे. अविभाजित म.प्र. के वरिष्ठ नेता स्वास्थ्य मंत्री स्व. डॉ. रामाचरण राय, शिक्षामंत्री स्व. चित्रकांत जायसवाल से उनके पारिवारिक सम्बन्ध थे. उनके अनेक विद्यार्थी उच्चतम प्रशासनिक पदों पर तथा कई कुलपति, प्राचार्य, निदेशक आदि भी हुए किन्तु सहाय जी ने कभी किसीसे नियम के विपरीत कोई कार्य नहीं कराया. अतः उन्होंने सभी से  सद्भावना तथा सम्मान पाया. 

सक्रिय समाज सेवी:

प्रो. सत्यसहाय समर्पित समाज सुधारक भी थे. उन्होंने छतीसगढ़ अंचल में लड़कियों को शिक्षा से दूर रखने की कुप्रथा से आगे बढ़कर संघर्ष किया. ग्रामीण अंचल में रहकर तथा सामाजिक विरोध सहकर भी उन्होंने न केवल अपनी ४ पुत्रियों को  स्नातकोत्तर शिक्षा दिलाई अपितु २ पुत्रियों को महाविद्यालयीन प्राध्यापक बनने हेतु प्रोत्साहित तथा  विवाहोपरांत शोधकार्य हेतु सतत प्रेरित किया. इतना ही नहीं उन्होंने अपने संपर्क के सैंकड़ों परिवारों को भी लड़कियों को पढ़ाने की प्रेरणा दी.

स्वेच्छा से सेवानिवृत्ति के पश्चात् वे सामाजिक ऋण-की अदायगी करने में जुट गये. प्रादेशिक चित्रगुप्त महासभा मध्य प्रदेश के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने जबलपुर, बरमान (नरसिंहपुर), उज्जैन, दमोह, बालाघाट, बिलासपुर आदि अनेक स्थानों पर युवक-युवती, परिचय सम्मलेन, मितव्ययी दहेज़रहित सामूहिक आदर्श विवाह सम्मलेन आदि आयोजित कराये. वैवाहिक जानकारियाँ एकत्रित कर चित्राशीष जबलपुर तथा संपर्क बिलासपुर पत्रिकाओं के माध्यम से उन्होंने अभिभावकों को उपलब्ध कराईं.
विविध काल खण्डों में सत्यसहाय जी  ने लायन तथा रोटरी क्लबों के माध्यम से भी सामाजिक सेवा की अनेक योजनाओं को क्रियान्वित कर अपूर्व सदस्यतावृद्धि हेतु श्रेष्ठ गवर्नर पदक प्राप्त किये. वे जो भी कार्य करते थे दत्तचित्त होकर लक्ष्य पाने तक करते थे.

छतीसगढ़ शासन जागे : 

बिलासपुर तथा छत्तीसगढ़ के विविध अंचलों में प्रो. असत्य सहाय के निधन का समाचार पाते ही शोक व्याप्त हो गया. छतीसगढ़ तथा मध्य प्रदेश के अनेक महाविद्यालयों ने उनकी स्मृति में शोक प्रस्ताव पारित किये. अभियान सांस्कृतिक-साहित्यिक संस्था जबलपुर, रोटरी क्राउन जबलपुर, रोटरी क्लब बिलासपुर, रोटरी क्लब खरसिया, लायंस क्लब खरसिया, अखिल भारतीय कायस्थ महासभा, सनातन कायस्थ महापरिवार मुम्बई, विक्रम महाविद्यालय उज्जैन, शासकीय महाकौशल महाविद्यालय जबलपुर, कायस्थ समाज बिलासपुर, कायस्थ कल्याण परिषद् बिलासपुर, कायस्थ सेना जबलपुर आदि ने प्रो. सत्यसहाय के निधन पर श्रैद्धांजलि व्यक्त करते हुए उन्हें युग निर्माता निरूपित किया है. छत्तीसगढ़ शासन से अपेक्षा है कि खरसिया महाविद्यालय में उनकी प्रतिमा स्थापित की जाये तथा रविशंकर विश्वविद्यालय रायपुर एवं गुरु घासीदास विश्वविद्यालय बिलासपुर में अर्थशास्त्र विषयक उच्च शोध कार्यों हेतु प्रो. सत्यसहाय शोधपीठ की स्थापना की जाए.

दिव्यनर्मदा परिवार प्रो. सत्यसहाय के ब्रम्हलीन होने को शोक का कारण न मानते हुए इसे देह-धर्म के रूप में विधि के विधान के रूप में नत शिर स्वीकारते हुए संकल्प लेता है कि दिवंगत के आदर्शों के क्रियान्वयन हेतु सतत सक्रिय रहेगा. हिन्दी को विश्व भाषा के रूप में विकसित करने की प्रो. सत्यसहाय की मनोकामना को मूर्तरूप देने के लिये सतत प्रयास जारी रहेंगे. आप सब इस पुनी कार्य में सहयोगी हों, यही सच्ची कर्मांजलि होगी.

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गुरुवार, 18 जून 2009

श्रृद्धांजलि: अल्हड बीकानेरी - संजीव 'सलिल'

हिन्दी-हास्य जगत को फ़िर से आज बहाना है आँसू।

सूनापन बढ़ गया हास्य में चला गया है कवि धाँसू ।।

ऊपरवाला दुनिया के गम देख हो गया क्या हैरां?


नीचेवालों को ले जाकर दुनिया को करता वीरां।।


शायद उस से माँग-माँगकर हमने उसे रुला डाला ।


अल्हड औ' आदित्य बुलाये उसने कर गड़बड़ झाला।।


इन लोगों से तुम्हीं बचाओ, इन्हें हँसाया-मुझे हँसाओ।


दुनियावालों इन्हें पढो हँस, इनसे सदा प्रेरणा पाओ।।


ज़हर ज़िन्दगी का पीकर भी जैसे ये थे रहे हँसाते।


नीलकंठ बन दर्द मौन पी, क्यों न आज तुम हँसी लुटाते?


भाई अल्हड बीकानेरी के निधन पर दिव्य नर्मदा परिवार शोक में सहभागी है-सं.