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शनिवार, 3 अगस्त 2019

व्यंग्य लेखांश : ‘भगत की गत’ हरिशंकर परसाई

व्यंग्य लेखांश :
‘भगत की गत’ 
हरिशंकर परसाई जी 
*
...एक भगत ने मरने के बाद भगवान के पास जाकर स्वर्ग की डिमांड की, फिर क्या हुआ ......
प्रभु ने कहा- तुमने ऐसा क्या किया है, जो तुम्हें स्वर्ग मिले?
भगतजी को इस प्रश्न से चोट लगी। जिसके लिए इतना किया, वही पूछता है कि तुमने ऐसा क्या किया! भगवान पर क्रोध करने से क्या फायदा- यह सोचकर भगतजी गुस्सा पी गये। दीनभव से बोले- मैं रोज आपका भजन करता रहा।
भगवान ने पूछा- लेकिन लाउड-स्पीकर क्यों लगाते थे?
भगतजी सहज भव से बोले- उधर सभी लाउड-स्पीकर लगाते हैं। सिनेमावाले, मिठाईवाले, काजल बेचने वाले- सभी उसका उपयोग करते हैं, तो मैंने भी कर लिया।
भगवान ने कहा- वे तो अपनी चीज का विज्ञापन करते हैं। तुम क्या मेरा विज्ञापन करते थे? मैं क्या कोई बिकाऊ माल हूं।
भगतजी सन्न रह गये। सोचा, भगवान होकर कैसी बातें करते हैं।
भगवान ने पूछा- मुझे तुम अन्तर्यामी मानते हो न?
भगतजी बोले- जी हां!
भगवान ने कहा- फिर अन्तर्यामी को सुनाने के लिए लाउड-स्पीकर क्यों लगाते थे? क्या मैं बहरा हूं? यहां सब देवता मेरी हंसी उड़ाते हैं। मेरी पत्नी मजाक करती है कि यह भगत तुम्हें बहरा समझता है।
भगतजी जवाब नहीं दे सके।
भगवान को और गुस्सा आया। वे कहने लगे- तुमने कई साल तक सारे मुहल्ले के लोगों को तंग किया। तुम्हारे कोलाहल के मारे वे न काम कर सकते थे, न चैन से बैठ सकते थे और न सो सकते थे। उनमें से आधे तो मुझसे घृणा करने लगे हैं। सोचते हैं, अगर भगवान न होता तो यह भगत इतना हल्ला न मचाता। तुमने मुझे कितना बदनाम किया है!
भगत ने साहस बटोरकर कहा- भगवान आपका नाम लोंगों के कानों में जाता था, यह तो उनके लिए अच्छा ही था। उन्हें अनायास पुण्य मिल जाता था।
भगवान को भगत की मूर्खता पर तरस आया। बोले- पता नहीं यह परंपरा कैसे चली कि भक्त का मूर्ख होना जरूरी है। और किसने तुमसे कहा कि मैं चापलूसी पसंद करता हूं? तुम क्या यह समझते हो कि तुम मेरी स्तुति करोगे तो मैं किसी बेवकूफ अफसर की तरह खुश हो जाऊंगा? मैं इतना बेवकूफ नहीं हूं भगतजी कि तुम जैसे मूर्ख मुझे चला लें। मैं चापलूसी से खुश नहीं होता कर्म देखता हूं।
***
टीप: वे भगवान् अवश्य कर्मदेव चित्रगुप्त रहे होंगे.

बुधवार, 20 जून 2018

व्यंग्य रचना

व्यंग्य रचना:
अभिनंदन लो 
*
युग-कवयित्री! अभिनंदन लो....
*
सब जग अपना, कुछ न पराया
शुभ सिद्धांत तुम्हें यह भाया.
गैर नहीं कुछ भी है जग में-
'विश्व एक' अपना सरमाया.
जहाँ मिले झट झपट वहीं से
अपने माथे यश-चंदन लो
युग-कवयित्री अभिनंदन लो....
*
मेरा-तेरा मिथ्या माया
दास कबीरा ने बतलाया.
भुला परायेपन को तुमने
गैर लिखे को कंठ बसाया.
पर उपकारी अन्य न तुमसा
जहाँ रुचे कविता कुंदन लो
युग-कवयित्री अभिनंदन लो....
*
हिमगिरी-जय सा किया यत्न है
तुम सी प्रतिभा काव्य रत्न है.
चोरी-डाका-लूट कहे जग
निशा तस्करी मुदित-मग्न है.
अग्र वाल पर रचना मेरी
तेरी हुई, महान लग्न है.
तुमने कवि को धन्य किया है
खुद का खुद कर मूल्यांकन लो
युग-कवयित्री अभिनंदन लो....
*
कवि का क्या? 'बेचैन' बहुत वह
तुमने चैन गले में धारी.
'कुँवर' पंक्ति में खड़ा रहे पर
हो न सके सत्ता अधिकारी.
करी कृपा उसकी रचना ले
नभ-वाणी पर पढ़कर धन लो
युग-कवयित्री अभिनंदन लो....
*
तुम जग-जननी, कविता तनया
जब जी चाहा कर ली मृगया.
किसकी है औकात रोक ले-
हो स्वतंत्र तुम सचमुच अभया.
दुस्साहस प्रति जग नतमस्तक
'छद्म-रत्न' हो, अलंकरण लो
युग-कवयित्री अभिनंदन लो....
***
टीप: श्रेष्ठ कवि की रचना को अपनी बताकर २३-५-२०१८ को प्रात: ६.४० बजे काव्य धारा कार्यक्रम में आकाशवाणी पर प्रस्तुत कर धनार्जन का अद्भुत पराक्रम करने के उपलक्ष्य में यह रचना समर्पित उसे ही जो इसका सुपात्र है)

सोमवार, 26 फ़रवरी 2018

muktika

एक व्यंग्य मुक्तिका
*
छप्पन इंची छाती की जय
वादा कर, जुमला कह निर्भय
*
आम आदमी पर कर लादो
सेठों को कर्जे दो अक्षय
*
उन्हें सिर्फ सत्ता से मतलब
मौन रहो मत पूछो आशय
*
शाकाहारी बीफ, एग खा
तिलक लगा कह बाकी निर्दय
*
नूराकुश्ती हो संसद में
स्वार्थ करें पहले मिलकर तय
*
न्यायालय बैठे भुजंग भी
गरल पिलाते कहते हैं पय
*
कविता सँग मत रेप करो रे!
सीखो छंद, जान गति-यति, लय
***

मंगलवार, 30 जनवरी 2018

व्यंग्य लेख

व्यंग्य लेख 
दही हांडी की मटकी और सर्वोच्च न्यायालय 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
*
दही-हांडी की मटकी बाँधता-फोड़ता और देखकर आनंदित होते आम आदमी के में भंग करने का महान कार्य कर खुद को जनहित के प्रति संवेदनशील दिखनेवाला निर्णय सौ चूहे खाकर बिल्ली के हज जाने की तरह शांतिप्रिय सनातनधर्मियों के अनुष्ठान में अयाचित और अनावश्यक हस्तक्षेप करने के कदमों की कड़ी है। हांड़ी की ऊँचाई उन्हें तोड़ने के प्रयासों को रोमांचक बनाती है। ऊँचाई को प्रतिबंधित करने के निर्णय का आधार, दुर्घटनाओं को बताया गया है कइँती यह कैसे सुनिश्चित किया गया कि निर्धारित ऊँचाई से दुर्घटना नहीं होगी? इस निर्णय की पृष्ठभूमि किसी प्राण-घातक दुर्घटना और जान-जीवन की रक्षा कहा जा रहा है। यदि न्यायलय इतना संवेदनशील है तो मुहर्रम में जलाते अलावों पर चलने, मुंह में छेदना, उन पर कूदने और अपने आप पर घातक शास्त्रों से वार करने की परंपरा हानिहीन कैसे कही जा सकती है? क्या बकरीद पर लाखों बकरों का कत्ल अधिक जघन्य नहीं है? न्यायालय यह जानता नहीं या इसे प्रतिबन्धयोग्य मानता नहीं या सनातन धर्मियों को सॉफ्ट टारगेट मानकर उनके धार्मिक अनुष्ठानों में हस्तक्षेप करना अपना जान सिद्ध अधिकार समझता है? सिख जुलूसों में भी शस्त्र तथा युद्ध-कला प्रदर्शनों की परंपरा है जिससे किसी की हताहत होने को सम्भावना नकारी नहीं जा सकती।
वस्तुत: दही-हांड़ी का आयोजन हो या न हो? हो तो कहाँ हो?, ऊँचाई कितनी हो?, कितने लोग भाग लें?, किस प्रकार मटकी फोड़ें? आदि प्रश्न न्यायालय नहीं प्रशासन हेतु विचार के बिंदु हैं। भारत के न्यायालय बीसों साल से लंबित लाखों वाद प्रकरणों, न्यायाधीशों की कमी, कर्मचारियों में व्यापक भ्रष्टाचार, वकीलों की मनमानी आदि समस्याओं के बोझ तले कराह रहे हैं। दम तोडती न्याय व्यवस्था को लेकर सर्वोच्च न्यायाधिपति सार्वजनिक रूप से आँसू बहा चुके हैं। लंबित लाखों मुकदमों में फैसले की जल्दी नहीं है किन्तु सनातन धर्मियों के धार्मिक अनुष्ठान से जुड़े मामले में असाधारणशीघ्रता और जन भावनाओं के निरादर का औचित्य समझ से परे है। न्यायलय को आम आदमी की जान की इतनी ही चिता है तो दीपा कर्माकर द्वारा प्रदर्शित जिम्नास्ट खेल में निहित सर्वाधिक जान का खतरा अनदेखा कैसे किया जा सकता है? खतरे के कारण ही उसमें सर्वाधिक अंक हैं। क्या न्यायालय उसे भी रोक देगा? क्या पर्वतारोहण और अन्य रोमांचक खेल (एडवेंचर गेम्स) भी बन्द किये जाएँ? यथार्थ में यह निर्णय उतना ही गलत है जितना गंभीर अपराधों के बाद भी फिल्म अभिनेताओं को बरी किया जाना। जनता ने न उस फैसले का सम्मान किया, न इसका करेगी।
इस सन्दर्भ में विचारणीय है कि-
१. विधि निर्माण का दायित्व संसद का है। न्यायिक सक्रियता (ज्यूडिशियल एक्टिविज्म) अत्यंत ग़ंभीऱ और अपरिहार्य स्थितियों में ही अपेक्षित है। सामान्य प्रकरणों और स्थितियों में इस तरह के निर्णय संसद के अधिकार क्षेत्र में प्रत्यक्ष हस्तक्षेप है।
२. कार्यपालिका का कार्य विधि का पालन करना और कराना है। किसी विधि का हर समय, हर स्थिति में शत-प्रतिशत पालन नहीं किया जा सकता। स्थानीय अधिकारियों को व्यावहारिकता और जन-भावनाओं का ध्यान भी रखना होता है। अत:, अन्य आयोजनों की तरह इस संबंध में भी निर्णय लेने का अधिकार स्थानीय प्रशासन के हाथों में देना समुचित विकल्प होता।
३. न्यायालय की भूमिका सबसे अंत में विधि का पालन न होने पर दोषियों को दण्ड देने मात्र तक सीमित है, जिसमें वह विविध कारणों से असमर्थ हो रहा है। असहनीय अनिर्णीत वाद प्रकरणों का बोझ, न्यायाधीशों की अत्यधिक कमी, वकीलों का अनुत्तरदायित्व और दुराचरण, कर्मचारियों में व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण दम तोड़ती न्याय व्यवस्था खुद में सुधार लाने के स्थान पर अनावश्यक प्रकरणों में नाक घुसेड़ कर अपनी हेठी करा रही है।
मटकी फोड़ने के मामलों में स्वतंत्रता के बाद से अब तक हुई मौतों के आंकड़ों का मिलान, बाढ़ में डूब कर मरनेवालों, दंगों में मरनेवालों, समय पर चिकित्सा न मिलने से मरनेवालों, सरकारी और निजी अस्पतालों में चिकित्सकों के न होने से मरनेवालों के आँकड़ों के साथ किया जाए तो स्थिति स्पष्ट होगी यह अंतर कुछ सौ और कई लाखों का है।
यह कानून को धर्म की दृष्टि से देखने का नहीं, धर्म में कानून के अनुचित और अवांछित हस्तक्षेप का मामला है। धार्मिक यात्राएँ / अनुष्ठान ( शिवरात्रि, राम जन्म, जन्माष्टमी, दशहरा, हरछट, गुरु पूर्णिमा, मुहर्रम, क्रिसमस आदि) जन भावनाओं से जुड़े मामले हैं जिसमें दीर्घकालिक परंपराएँ और लाखों लोगों की भूमिका होती है। प्रशासन को उन्हें नियंत्रित इस प्रकार करना होता है कि भावनाएँ न भड़कें, जान-असन्तोष न हो, मानवाधिकार का उल्लंघन न हो। हर जगह प्रशासनिक बल सीमित होता है। यदि न्यायालय घटनास्थल की पृष्भूमि से परिचित हुए बिना कक्ष में बैठकर सबको एक डंडे से हाँकने की कोशिश करेगा तो जनगण के पास कानून की और अधिकारियों के सामने कानून भंग की अनदेखी करने के अलावा कोई चारा शेष न रहेगा। यह स्थिति विधि और शांति पूर्ण व्यवस्था की संकल्पना और क्रियान्वयन दोनों दृष्टियों से घातक होगी।
इस निर्णय का एक पक्ष और भी है। निर्धारित ऊँचाई की मटकी फोड़ने के प्रयास में मौत न होगी क्या न्यायालय इससे संतुष्ट है? यदि मौत होगी तो कौन जवाबदेह होगा? मौत का कारण सिर्फ ऊँचाई कैसे हो सकती है। अपेक्षाकृत कम ऊँचाई की मटकी फोड़ने के प्रयास में दुर्घटना और अधिक ऊँचाई की मटकी बिना दुर्घटना फोड़ने के से स्पष्ट है की दुर्घटना का कारण ऊँचाई नहीं फोडनेवालों की दक्षता, कुशलता और निपुणता में कमी होती है। मटकी फोड़ने संबंधी दुर्घटनाएँ न हों, कम से कम हों, कम गंभीर हों तथा दुर्घटना होने पर न्यूनतम हानि हो इसके लिए भिन्न आदेशों और व्यवस्थाओं की आवश्यकता है -
१. मटकी स्थापना हेतु इच्छुक समिति निकट रहवासी नागरिकों की लिखित सहमति सहित आवेदन देकर स्थानीय प्रशासनिक अधिकारी से अनुमति ले और उसकी लिखित सूचना थाना, अस्पताल, लोक निर्माण विभाग, बिजली विभाग व नगर निगम को देना अनिवार्य हो।
२. मटकी की ऊँचाई समीपस्थ भवनों की ऊँचाई, विद्युत् तारों की ऊँचाई, होर्डिंग्स की स्थिति, अस्पताल जैसे संवेदनशील और शांत स्थलों से दूरी आदि देखकर प्रशासनिक अधिकारियों और स्थानीय जनप्रतिनिधियों की समिति तय करे।
३. तय की गयी ऊँचाई के परिप्रेक्ष्य में अग्नि, विद्युत्, वर्षा, तूफ़ान, भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदाओं तथा गिरने की संभावना का पूर्वाकलन कर अग्निशमन यन्त्र, विद्युत् कर्मचारी, श्रमिक, चिकित्साकर्मी आदि की सम्यक और समुचित व्यवस्था हो अथवा व्यवस्थाओं के अनुसार ऊँचाई निर्धारित हो।
४. इन व्यवस्थों को करने में समितियों का भी सहयोग लिया जाए। उन्हें मटकी स्थापना-व्यवस्था पर आ रहे खर्च की आंशिक पूर्ति हेतु भी नियम बनाया जा सकता है। ऐसे नियम हर धर्म, हर सम्प्रदाय, हर पर्व, हर आयोजन के लिये सामान्यत: सामान होने चाहिए ताकि किसी को भेदभाव की शिकायत न हो।
५. ऐसे आयोजनों का बीमा काबरा सामियितों का दायित्व हो ताकि मानवीय नियंत्रण के बाहर दुर्घटना होने पर हताहतों की क्षतिपूर्ति की जा सके।
प्रकरण में उक्त या अन्य तरह के निर्देश देकर न्यायालय अपनी गरिमा, नागरिकों की प्राणरक्षा तथा सामाजिक, धार्मिक, प्रशासनिक व्यावहारिकताओं के प्रति संवेदनशील हो सकता था किन्तु वह विफल रहा। यह वास्तव में चिता और चिंतन का विषय है।
समाचार है कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय की अवहेलना कर सार्वजनिक रूप से मुम्बई में ४४ फुट ऊँची मटकी बाँधी और फोड़ी गयी। ऐसा अन्य अनेक जगहों पर हुआ होगा और हर वर्ष होगा। पुलिस को नेताओं का संरक्षण करने से फुरसत नहीं है। वह ग़ंभीऱ आपराधिक प्रकरणों की जाँच तो कर नहीं पाती फिर ऐसे प्रकरणों में कोई कार्यवाही कर सके यह संभव नहीं दिखता। इससे आम जान को प्रताड़ना और रिश्वत का शिकार होना होगा। अपवाद स्वरूप कोई मामला न्यायालय में पहुँच भी जाए तो फैसला होने तक किशोर अपराधी वृद्ध हो चुका होगा। अपराधी फिल्म अभिनेता, नेता पुत्र या महिला हुई तब तो उसका छूटना तय है। इस तरह के अनावश्यक और विवादस्पद निर्णय देकर अपनी अवमानना कराने का शौक़ीन न्यायालय आम आदमी में निर्णयों की अवहेलना करने की आदत डाल रहा है जो घातक सिद्ध होगी। बेहतर हो न्यायालय यह निर्णय वापिस ले ले। 
*** 
लेखक संपर्क- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१८३२४४ 
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शुक्रवार, 30 जून 2017

vyangya: purnima burman

मेरी रूहानी यात्रा: पूर्णिमा वर्मन


साभार: ब्लॉग बुलेटिन 
पूर्णिमा वर्मन का नाम वेब पर हिंदी की स्थापना करने वालों में अग्रगण्य है। १९९६ से निरंतर वेब पर सक्रिय, उनकी जाल पत्रिकाएँ अभिव्यक्ति तथा अनुभूति वर्ष २००० से अंतर्जाल पर नियमित प्रकाशित होने वाली पहली हिंदी पत्रिकाएँ हैं। इनके द्वारा उन्होंने प्रवासी तथा विदेशी हिंदी लेखकों को एक साझा मंच प्रदान करने का महत्त्वपूर्ण काम किया है। लेखन एवं वेब प्रकाशन के अतिरिक्त वे जलरंग, रंगमंच, संगीत तथा हिंदी के अंतर्राष्ट्रीय विकास के अनेक कार्यों से जुड़ी हैं।
संप्रति : 
संयुक्त अरब इमारात के शारजाह नगर में साहित्यिक जाल पत्रिकाओं 'अभिव्यक्ति' और 'अनुभूति' के संपादन और कला कर्म में व्यस्त।
पुरस्कार व सम्मान : 
दिल्ली में भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद, साहित्य अकादमी तथा अक्षरम के संयुक्त अलंकरण "प्रवासी मीडिया सम्मान", जयजयवंती द्वारा जयजयवंती सम्मान, रायपुर में सृजन गाथा के "हिंदी गौरव सम्मान", विक्रमशिला हिंदी विद्यापीठ, भागलपुर द्वारा मानद विद्यावाचस्पति (पीएच.डी.) की उपाधि तथा केंद्रीय हिंदी संस्थान के पद्मभूषण डॉ. मोटूरि सत्यनारायण पुरस्कार से सम्मानित।
प्रकाशित कृतियाँ : 
कविता संग्रह : पूर्वा, वक्त के साथ एवं चोंच में आकाश, संपादित कहानी संग्रह- वतन से दूर, संपादित नवगीत संग्रह- नवगीत - २०१३, चिट्ठा : चोंच में आकाश, एक आँगन धूप, नवगीत की पाठशाला, शुक्रवार चौपाल, अभिव्यक्ति अनुभूति।
अन्य भाषाओं में- फुलकारी (पंजाबी में), मेरा पता (डैनिश में), चायखाना (रूसी में)

गर्मी फिर आ गई सजनी

।। मंगलाचरण ।।

जिन सूर्य भगवान के पीले कॉडरॉय के अंगरीय अर्थात् जीन्स के समान परिधान से निकलती पीली किरणें आठ बजे तक सोने वाले कलियुगी प्राणियों को सुबह–सुबह जगा कर 'बोर' करती हैं, जिनके लाल रंग के उत्तरीय अर्थात जैकेट के समान परिधान से बिखरने वाली सम्मोहक लाल किरणें खूबसूरत प्राणियों को गॉगल्स और छाता लगाने को मजबूर करती है, इस प्रकार के लाल–पीली किरणों के स्वामी, ग्रीष्म ऋतु के पिता, राजनीति रूपी आकाश में तानाशाह के पुत्र की भाँति चमकने वाले सूर्य भगवान को नमस्कार है, जिनके प्रताप से हे सजनी, गर्मी फिर आ गई है।

।। अथ ऋतु संदर्भ ।।

घर में हर ओर कामिक्स के पन्ने इधर उधर उड़ने लगे। साल भर से 'लिविंग रूम' में सजे बैटरी के खिलौने फ़र्श पर सर्वत्र दिखाई देने लगे। कैरम की गोटियों के खड़खड़ाने की आवाज़ें नियमित रूप से सुनाई देने लगीं। बैगाटेल की गोलियाँ बिस्तरों और कालीनों पर लुढ़कने लगीं। रसोईघर के 'ब्लेंडर' नामक यंत्र से 'मिल्कशेक' नामक व्यंजन बनाने की मधुर ध्वनि कानों को भँवरों के गुँजन के समान आह्लादित करने लगी। दोपहर भर दंगा करने वाले बच्चे 'ए सी' नामक यंत्र की ऐसी की तैसी कर के लंबी–लंबी नींद काटने लगे। बारामदे में लगा तापमापक यंत्र 45 डिग्री सेल्सियस की रेखा को पार कर गया। प्रात:काल स्कूल जानेवाले बच्चों के स्थान पर पीले अमलतास के फूल चारदीवारी के पार से हाथ हिला–हिला कर टाटा कहने लगे। छोटे बच्चे स्कूल बंद होने के कारण घर में ऊधम करने लगे। इन सभी दृष्यों को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि हे सजनी गर्मी फिर आ गई।

हे सजनी गर्मी क्या आई पसीने का कूलर चालू हो कर तन बदन को शीतल करने लगा। भागती हुई लू ने अगले ओलंपिक दौड़ का पूर्वाभ्यास नियमित रूप से शुरू कर दिया। दाद देते हुए सूखे पत्तों के ढेर ने भी उसको उत्साहित करते हुए खड़खड़ाना शुरू कर दिया। हे सजनी बाह्य वातावरण पर्णरूपेण यह विदित कराने लगा कि गरमी फिर आ गई।

।। अथ प्रयाग वर्णन ।।

हे सजनी, शीतल पेय यत्र–तत्र सर्वत्र दिखाई देने लगे। सिविल लाइन्स की 'सोफेस्टिकेटेड' महिलाएँ फव्वारे वाले चौराहे पर खड़ी हो आइसक्रीम के कोन को जीभ निकाल कर चाटने लगी। उन्हें यह भी ध्यान न रहा कि उनके ओठों पर पुती महँगी लिपस्टिक इस क्रिया द्वारा लुप्त हो रही है। हे सजनी, किशोर युवक–युवतियाँ अपने–अपने गर्ल फ्रेंड और ब्वाय फ्रेंड के साथ सोडावाटर की बोतलों पर माँ–बाप का पैसा फूँकने लगे। आइसक्रीम और सोडावाटर ख़रीद सकने की सामर्थ्य न रखनेवाले ग़रीब प्राणी दस पैसे गिलास वाले ठंडे पानी से अपनी–अपनी महबूबाओं को संतुष्ट करने लगे। हे सजनी अमीर–ग़रीब हर प्रकार के प्राणी को शीतल पेय का आनंद प्रदान करनेवाली गर्मी की ऋतु का आगमन निश्चय ही फिर हो गया।

पुदीने से सजे लाल मटकों में आम के पने वाले चौक बाज़ार में अपने–अपने ठेलों सहित सुशोभित होने लगे। ताज़ा–ताज़ा ठंडा–मीठा बर्फ़ की चुस्की वाले बर्फ़ की नन्हीं सिल्लियों और शर्बत की लाल–पीली बोतलों के साथ चौक से अतरसुइया तक के फेरे लगाने लगे। लोकनाथ के शुद्ध घी वाले गर्मागरम समोंसों की सुगंध अब कुछ मंद पड़ गई। जगमग करती बड़े–बड़े शीशों की शोविंडो वाली बृहदाकार दूकानों के सामने, अफ्रीकी हाथी के बड़े–बड़े कानों के सदृश तिरपाल के पर्दे लहराने लगे। हे सजनी, जनगण का रंग परिवर्तित करने वाली गर्मी फिर आ गई।

।। अथ वाराणसी वर्णन ।।

वर्षा के विरह में गंगा घट कर आधी रह गई। वे सभी लोग जो जाड़ों में मनों मैल लादे रहने का गौरव धारण किए थे, प्रात:काल निद्रा त्याग कर तट पर भीड़ बनाने लगे। डुबकियाँ लेने और नहाने लगे। इसी बहाने कुछ मनचले और मनचलियाँ नैन और सैन लड़ाने लगे। किनारों पर छिपे हुए चोर चेन, घड़ियाँ और ट्रांज़िस्टर चुराने लगे। भैसें ग्वालों के खूँटे त्याग कर तालाबों की शोभा बढ़ाने लगीं। उनकी रखवाली करते किशोर लड़के धूप में घूमते खेलते विदेशी मेमों की तरह अपने शरीर को 'टैन' करते नगर परिसर की शोभा बढ़ाने लगे। विदेशी फ़कीर अर्थात हिप्पी छोकरे छोकरियाँ मंदिरों की आड़ में यत्र-तत्र सुस्ताने लगे। भदैनी से दशाश्वमेध घाट तक लगने वाले लंबे-लंबे ट्रैफ़िक जाम अब दिखाई नहीं देते। 

पति बच्चों और रिश्तेदारों को व्यस्त रखने वाली जाड़े की दोपहर अब गर्मी के दिनों में चहल पहल से भर उठी। ठंडाई और पान के दौर जमने लगे। मिर्ज़ापुरी कालीनों पर चादर बिछाकर मामा मामी बच्चों सहित ताश के पत्तों पर ट्वैंटी टू खेलने लगे। खेलते–खेलते खरबूज़ों के बीज छिलकों के बड़े ढेर में परिवर्तित होने लगे। हर शाम उनको झाड़ू से बुहारती महरी ज़ोर–ज़ोर से बड़बड़ाने लगी। इस प्रकार मौसम में गरमागरम बड़बड़ाहट भरने वाली गर्मी फिर आ गई।

।। अथ दिल्ली वर्णन ।।

हे सजनी, गर्मी की प्रचंड तपन से व्याकुल होकर बिजली की सप्लाई आँख–मिचौली करने लगी। जब–तब 'पावर–कट' होने लगे। इस प्रकार देश में स्वयं ही समाजवाद आने लगा। जिन धनिकों के वातानुकूलित कमरे एयरकंडीशनर की कृपा से ठंडे शिमला बने रहते थे, उन्हें काले धन की कमाई के फलस्वरूप 'पावर–कट' का कष्ट भोगने का दंड मिला। इस प्रकार पूँजीपतियों को उनकी काला–बाज़ारी का दंड पाते देख ग़रीब प्राणी प्रसन्न होकर समान जीवन–स्तर के गुण गाने लगे। हे सजनी, गर्मी एक बार फिर प्रत्येक प्राणी को समान अधिकार का सुख देने लगी। जवान युवक–युवतियाँ अपने–अपने कमरे बंद कर डिस्को संगीत की ब्लां–ब्लां पर तन–बदन को हिचकोले देने लगे। हे सजनी, दिशाओं में डिस्को की धुन भर देने वाली गर्मी सचमुच ही आ गईं।

बाज़ारों में मोटी भारी सिल्क की साड़ियाँ पीछे वाले स्टोर में रख दी गई। कोटा, वायल और आरगेंडी के हरे, गुलाबी छोटे–छोटे आकर्षक छापे शो विंडो में अपनी छवि बिखरने लगे। अद्दी और मलमल की आकस्मिक यानी 'सीजनल' दुकानों में आठ रुपए पीस के कपड़े धड़ल्ले से बिकने लगे। ठेलों पर सजे फुलपैंट अब नहीं दिखते और रंग–बिरंगे निक्कर पुन: धूम मचाने लगे। चिकन के कुर्ते की दूकानों में ठेलमेल और भीड़भाड़ दिखाई देने लगी। मोजे और दस्तानों की दूकानों में जन–सामान्य की आवाजाही बहुत कम हो गई। हर दूसरी–तीसरी दुकान पर लटकती, दस रुपए की लच्छी वाली रंग–बिरंगी ऊन की मालाओं के इंद्रधनुष, शरदकालीन बादलों की तरह लुप्त हो गए। गर्मी फिर आ ही गई।

।। अथ मीरजापुर वर्णन ।।

सालभर से सूने पड़े दूसरे और तीसरे पहर अब रंगीन हो उठे। ग्रामीण बूढ़ों के झुंड पीपल के नीचे बने चबूतरे पर बैठकर नाती–पोतों की बुराई–भलाई करने में व्यस्त हो गए। घर की औरतें दोपहर भर बैठी बहू–बेटियों और नए ज़माने को कोसने लगी। छोटे शहरों में बड़े भैया यूनिवर्सिटी बंद हो जाने पर यार–दोस्तों सहित अड्‌डा जमाकर 'वीडियो पर नई फ़िल्में देखने लगे। संतरे और गन्ने के रस के ठेले अपनी कांति बिखेरने लगे। फलों की सुगंध से आकर्षित होकर मक्खियों के माता–पिता अपने संपूर्ण अनियोजित, असुखी, मरभुक्खे परिवार के साथ ठेलों पर छा गए। स्वास्थ्य और सफ़ाई के सारे कार्यक्रम पर पानी फेरते मक्खियों के झुंड हैजे का प्रकोप फैलाते हुए, डाक्टरों के बीच फैली बेरोज़गारी दूर करने का प्रयास करने लगे। जन साधारण में फैलते अतिसार और पेट की ख़राबी के रोगों के कारण हर नुक्कड़ पर बैठने वाले हर छोटे–बड़े डाक्टर की आमदनी के रास्ते खुलने लगे। हे सजनी, इस प्रकार डाक्टरों का भला करनेवाली गर्मी फिर आ गई।

शालीमार आइसक्रीम की आवाज़ें दोपहर के घोर सन्नाटे को वेधने लगीं। सफ़ेद खरबूजे के ढेर बड़े–बड़े हीरों के पहाड़ की तरह मंडी में चमकने लगे। इसके साथ ही रखे हरे तरबूज, पन्ने के भीमकाय गोल आकारों की तरह दृष्टि को चकाचौंध करने लगे। लैला की उँगलियाँ– मजनू की पसलियाँ– ककड़ियाँ अपने नाजुक कलेवर के साथ भोजन–प्रेमियों का हृदय जीतने लगीं। सोने के चंद्रहार की तरह आकर्षक कटहल, भगवान विष्णु के मुकुट में टँके बड़े–से पन्ने के आकार के परवल और नवदूर्वादल के समान हरी–हरी भिंडियों ने मटर और गोभी की छुट्टी कर दी। हे सजनी, यत्र–तत्र छा जानेवाली गर्मी फिर आ गई। 

।। अथ दुबई नगर वर्णन ।।

बच्चों ने देर रात तक सड़कों पर खेलना बंद कर दिया। इसके कारण अरबी भाषा में बिखरते हुए मनोरंजक शब्दों की ध्वनि अब सुनाई नहीं देती। विदेशी अपने अपने देशों को छुट्टी मनाने चले गए। हमेशा भरी रहने वाली सड़कें सुनसान हो गईं। दूकानों और बाज़ारों में अब भीड़ नहीं दिखाई देती। फिर भी सड़कें "समर फ़ेस्टिवल" नामक उत्सव के बड़े-बड़े 'होर्डिंग' नामक चित्रों से सज गईं। भारी भरकम "मेगा–माल" कही जाने वाली बाज़ारनुमा इमारतें अपने यहाँ प्रतियोगिताएँ और नाच गाने आयोजित करने लगीं। इस प्रकार वे विदेशी कलाकारों को बुलाकर उनके नाम से स्थानीय लोगों को आकर्षित करने लगीं। सूर्य भगवान की तेज़ किरनें नगर के चार दीर्घाओं वाले विस्तृत राजमार्गों पर तीव्र गति से दौड़ने वाली वातानुकूलित कारों के भीतर भी किरणावरोधी नयन कवच अर्थात पोलरायड ऐनक पहनने को बाध्य करने लगीं। ओपेन एअर रेस्ट्रां अपना बोरिया बिस्तर उठा कर अंदर 'ए सी' में पैक हो गए। 

जन सामान्य का सारा ध्यान और मनोरंजन रेडियो, टी वी, कंप्यूटर और वीडियो गेम पर सिमट आया। रेडियो पर गर्मी के गाने बजने लगे, गर्मी के नाटक होने लगे। यहाँ तक कि कविताएँ और लेख भी गर्मी के विषय में ही प्रसारित होने लगे। यही हाल पत्र–पत्रिकाओं का भी हुआ। कहीं कटहल के कोफ्ते छपने लगे, कहीं शर्बतों के सौ व्यंजन प्रकाशित होने लगे। गर्मियों में 'रूप की रक्षा कैसे' इस विषय पर सिने अभिनेत्रियाँ अपने-अपने व्याख्यान देने लगीं। यूरोप और अमरीका में छुट्टियाँ कहाँ और कैसे मनायी जाएँ इस विषय पर बड़ी–बड़ी यात्रा कंपनियाँ अपने कार्यक्रम प्रस्तुत करने लगीं। रात में 'वाटर किगडम' नामक मनोरंजन स्थलों पर भीड़ जमा होने लगी। हे सजनी जो लोग साल भर काम में अपना भेजा खपाए रहते थे उनको आराम देने की यह ऋतु अब आ ही गई।

।। अथ उपसंहार ।।

इस प्रकार हर ओर ग्रीष्म ऋतु का सौंदर्य देख कर हे सजनी मेरा मन भी विचलित हो उठा है। मैं यहाँ अपने बगीचे में अंतिम साँसें लेती हुई पैंज़ी की क्यारियों के दु:ख में दुखी हूँ और उधर बर्मिंघम से शैल जीजी अपने बगीचे में डैफोडिल खिला रही हैं। लानत है मुझ पर इस दुख को दूर करने की बजाय मैं फ़ालतू बैठी अपना की-बोर्ड टिपटिपा रही हूँ। मित्रों ये क्यारियाँ अब साफ़ करनी हैं। गरमी भर यहाँ कोचिया और पोर्टूलका के सिवा और कुछ नहीं उगेगा। तो फिर, कही डैफोडिल खिलाने और कहीं पैंजी का समूल नाश करने वाली इस ग्रीष्म ऋतु का वर्णन यहीं संपूर्ण करते हैं। विश्व में कहीं सुख और कहीं दु:ख का वितरण करने वाली यह ऋतु हमारे सभी पाठकों का कल्याण करे।

मंगलवार, 30 मई 2017

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एक नवगीत: 
मिलती कबहुँ न 
बिन तिकड़म कें  
कुरसी काहे गुइंया?
*
पल भर बिसरत नईं बिसारे 
हमखों जनता प्यारी। 
रैली, जुलुस, भीड़, भगदड़ सें 
हमें बढ़ावनवारी। 
बहु मत दे पहुँचाउत संसद 
तब बन पाउत नेता-
जुमला बता 
भुला दए वादे 
कोऊ हमाओ नइंया
*
तुरतई लेऊँ कमीसन भारी 
कर घपले घोटाले। 
बिस्व रिकॉर्ड बना देऊँ  
दम किसमें जौन हरा ले? 
होटल, फैक्ट्री, सेयर, धरती 
रकम बिदेश भिजाऊँ-
मन भाउत हैं 
खूब लच्छमी 
भांय नें बिस्नू  ततैया 
*
देस-बिदेस फ़ोकट में मटकों 
माल मुफ़त में गटकों। 
लगा लाल बाती गाडी मा 
जब जी चाहे टपकों। 
बगुला कें सें कपरा हों मन 
करिया कौआ जैंसा-
सांच जान रओ, पकड़ नें पाए 
ठोंक सलाम सिपैया 
***
लघुकथा
ज़हर
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
--'टॉमी को तुंरत अस्पताल ले जाओ।' जैकी बोला।
--'जल्दी करो, फ़ौरन इलाज शुरू होना जरूरी है। थोड़ी सी देर भी घातक हो सकती है।' टाइगर ने कहा।
--'अरे! मुझे हुआ क्या है?, मैं तो बीमार नहीं हूँ फ़िर काहे का इलाज?' टॉमी ने पूछा।
--'क्यों अभी काटा नहीं उसे...?' जैकी ने पूछा।
--'काटा तो क्या हुआ? आदमी को काटना हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है।'
--'है, तो किसी आदमी को काटता। तूने तो कमबख्त नेता को काट लिया। कहीं ज़हर चढ़ गया तो भाषण देने, धोखा देने, झूठ बोलने, रिश्वत लेने, घोटाला करने और न जाने कौन-कौन सी बीमारियाँ घेर लेंगी?
बहस मत कर, जाकर तुंरत इलाज शुरू करा। जैकी ने आदेश के स्वर में कहा...बाकी कुत्तों ने सहमति जताई और टॉमी चुपचाप सर झुकाए चला गया इलाज कराने।
*
रचनाकार परिचय:-
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' नें नागरिक अभियंत्रण में त्रिवर्षीय डिप्लोमा, बी.ई., एम.आई.ई., अर्थशास्त्र तथा दर्शनशास्त्र में एम.ए., एल.एल.बी., विशारद, पत्रकारिता में डिप्लोमा व कंप्युटर ऍप्लिकेशन में डिप्लोमा किया है।
आपकी प्रथम प्रकाशित कृति 'कलम के देव' भक्ति गीत संग्रह है। 'लोकतंत्र का मकबरा' तथा 'मीत मेरे' आपकी छंद मुक्त कविताओं के संग्रह हैं। आपकी चौथी प्रकाशित कृति है 'भूकंप के साथ जीना सीखें'। आपनें निर्माण के नूपुर, नींव के पत्थर, राम नाम सुखदाई, तिनका-तिनका नीड़, सौरभ, यदा-कदा, द्वार खड़े इतिहास के, काव्य मन्दाकिनी २००८ आदि पुस्तकों के साथ साथ अनेक पत्रिकाओं व स्मारिकाओं का भी संपादन किया है।
आपको देश-विदेश में १२ राज्यों की ५० सस्थाओं ने शताधिक सम्मानों से सम्मानित किया जिनमें प्रमुख हैं : आचार्य, २०वीं शताब्दी रत्न, सरस्वती रत्न, संपादक रत्न, विज्ञानं रत्न, शारदा सुत, श्रेष्ठ गीतकार, भाषा भूषण, चित्रांश गौरव, साहित्य गौरव, साहित्य वारिधि, साहित्य शिरोमणि, काव्य श्री, मानसरोवर साहित्य सम्मान, पाथेय सम्मान, वृक्ष मित्र सम्मान, कामता प्रसाद गुरु वर्तिका सम्मान आदि।
वर्तमान में आप म.प्र. सड़क विकास निगम में उप महाप्रबंधक, लोक निर्माण विभाग में जिला परियोजना प्रबंधक, कार्यपालन यंत्री आदि पदों पर कार्य कर सेवानिवृत्त हैं।
[साहित्य शिल्पी में २००९ में प्रकाशित]
*
: मुक्तिका :
मन का इकतारा
संजीव 'सलिल'
*
मन का इकतारा तुम ही तुम कहता है.
जैसे नेह नर्मदा में जल बहता है..
*
सब में रब या रब में सब को जब देखा.
देश धर्म भाषा का अंतर ढहता है..
*
जिसको कोई गैर न कोई अपना है.
हँस सबको वह, उसको सब जग सहता है..
*
मेरा बैरी मुझे कहाँ बाहर मिलता?
देख रहा हूँ मेरे भीतर रहता है..
*
जिसने जोड़ा वह तो खाली हाथ गया.
जिसने बाँटा वह ही थोड़ा गहता है..
*
जिसको पाया सुख की करते पहुनाई.
उसको देखा बैठ अकेले दहता है..
*
सच का सूत न समय कात पाया लेकिन
सच की चादर 'सलिल' कबीरा तहता है.
****
३०-५-२०१०
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
मुक्तिका
.....डरे रहे.
संजीव 'सलिल'
*
हम डरे-डरे रहे.
तुम डरे-डरे रहे.
दूरियों को दूर कर
निडर हुए, खरे रहे.
हौसलों के वृक्ष पा
लगन-जल हरे रहे.
रिक्त हुए जोड़कर
बाँटकर भरे रहे.
नष्ट हुए व्यर्थ वे
जो महज धरे रहे.
निज हितों में लीन जो
समझिये मरे रहे.
सार्थक हैं वे 'सलिल'
जो फले-झरे रहे.
**************
३०-५-२०१०
मुक्तिका :
संजीव 'सलिल'
भंग हुआ हर सपना
*
भंग हुआ हर सपना,
टूट गया हर नपना.
माया जाल में उलझे
भूले माला जपना..
तम में साथ न कोई
किसे कहें हम अपना?
पिंगल-छंद न जाने
किन्तु चाहते छपना..
बर्तन बनने खातिर
पड़ता माटी को तपना..
************
३०-५-२०११
घनाक्षरी / मनहरण कवित्त
... झटपट करिए
संजीव 'सलिल'
*
लक्ष्य जो भी वरना हो, धाम जहाँ चलना हो,
काम जो भी करना हो, झटपट करिए.
तोड़ना नियम नहीं, छोड़ना शरम नहीं,
मोड़ना धरम नहीं, सच पर चलिए.
आम आदमी हैं आप, सोच मत चुप रहें,
खास बन आगे बढ़, देशभक्त बनिए-
गलत जो होता दिखे, उसका विरोध करें,
'सलिल' न आँख मूँद, चुपचाप सहिये.
*
छंद विधान: वर्णिक छंद, आठ चरण,
८-८-८-७ पर यति, चरणान्त लघु-गुरु.
*********
३०-५-२०११
हाइकु सलिला:
हाइकु का रंग पलाश के संग
संजीव
*
करे तलाश 
अरमानों की लाश
लाल पलाश
*
है लाल-पीला
देखकर अन्याय
टेसू निरुपाय
*
दीन न हीन
हमेशा रहे तीन
ढाक के पात
*
आप ही आप
सहे दुःख-संताप
टेसू निष्पाप
*
देख दुर्दशा
पलाश हुआ लाल
प्रिय नदी की
*
उषा की प्रीत
पलाश में बिम्बित
संध्या का रंग
*
फूल त्रिनेत्र
त्रिदल से पूजित
ढाक शिवाला
*
पर्ण है पन्त
तना दिखे प्रसाद
पुष्प निराला
*
मनुजता को
पत्र-पुष्प अर्पित
करे पलाश
*
होली का रंग
पंगत की पत्तल
हाथ का दौना
*
पहरेदार
विरागी तपस्वी या
प्रेमी उदास
*
३०-५-२०१५
द्विपदी सलिला :
संजीव
*
कंकर-कंकर में शंकर हैं, शिला-शिला में शालिग्राम
नीर-क्षीर में उमा-रमा हैं, कर-सर मिलकर हुए प्रणाम
*
दूल्हा है कौन इतना ही अब तक पता नहीं
यादों की है हसीन सी बारात दोस्ती
*
जिसकी आँखें भर आती हैं उसके मन में गंगा जल है
नेह-नर्मदा वहीं प्रवाहित पोर-पोर उसका शतदल है
*
३०-५-२०१५
दोहा सलिला:
संजीव
*
भँवरे की अनुगूँज को, सुनता है उद्यान
शर्त न थककर मौन हो, लाती रात विहान 
*
जला रही है तन-बदन, धूप दसों दिश धाक
सलिल-चाँदनी साथ मिल, करते शीतल-पाक
*
जाकर आना मोद दे, आकर जाना शोक
होनी होकर ही रहे, पूरक तम-आलोक
*
अब नालंदा अभय हो, ज्ञान-रश्मि हो खूब
'सलिल' मिटा अज्ञान निज, सके सत्य में डूब
*
३०-५-२०१५
एक दोहा
*
बीते दिन फुटपाथ पर, प्लेटफोर्म पर रात
ट्रेन लेट है प्रीत की, बतला रहा प्रभात
*
३०-५-२०१६
मुक्तक:
संजीव
तेरी नजरों ने बरबस जो देखा मुझे, दिल में जाकर न खंजर वो फिर आ सका
मेरी नज़रों ने सीरत जो देखी तेरी, दिल को चेहरा न कोई कभी भा सका
तेरी सुनकर सदा मौन है हर दिशा, तेरी दिलकश अदा से सवेरा हुआ
तेरे नखरों से पुरनम हुई है हवा, तेरे सुर में न कोई कभी गा सका
*
३०-५-२०१५
याते अतीत की 
एक रचना
शुष्क मौसम, संदेशे मधुर रस भरे
*
शुष्क मौसम, संदेशे मधुर रस भरे, नेटदूतित मिले मन मगन हो गया
बैठ अमराई में कूक सुन कोकिली, दशहरी आम कच्चा भी मन भा गया 
कार्बाइड पके नाम थुकवा रहे, रूप - रस - गंध नकली मगर बिक रहे
तर गये पा तरावट शिकंजी को पी, घोल पाती पुदीना मजा आ गया
काट अमिया, लगा नोन सेंधा - मिरच, चाट-चटखारकर आँख झट मुँद गयी
लीचियों की कसम, फालसे की शपथ, बेल शर्बत लखनवी प्रथम आ गया
जय अमरनाथ की बोल झट पी गये, द्वार निर्मल का फिर खटखटाने लगे
रूह अफ्जा की जयकार कर तृप्ति पा, मधुकरी गीत बिसरा न, याद आ गया
श्याम श्रीवास्तवी मूँछ मिल खीर से, खोजती रह गयी कब सुजाता मिले?
शांत तरबूज पा हो गया मन मुदित, ओज घुल काव्य में हो मनोजी गया
आजा माज़ा मिटा द्वैत अद्वैत वर, रोहिताश्वी न सत्कार तू छोड़ना
मोड़ना न मुख देख खरबूज को, क्या हुआ पानी मुख में अगर आ गया
लाड़ लस्सी से कर आड़ हो या न हो, जूस पी ले मुसम्बी नहीं चूकना
भेंटने का न अवसर कोई चूकना, लू - लपट को पटकनी दे पन्हा गया
बोई हरदोई में मित्रता की कलम, लखनऊ में फलूदा से यारी हुई
आ सके फिर चलाचल 'सलिल' इसलिए, नर्मदा तीर तेरा नगर आ गया
***
३०-५-२०१६
[लखनऊ प्रवास- अमरनाथ- कवि, समीक्षक, निर्मल- निर्मल शुक्ल नवगीतकार, संपादक उत्तरायण, मधुकरी मधुकर अष्ठाना नवगीतकार, श्याम श्रीवास्तव कवि, शांत- देवकीनंदन 'शांत' कवि, मनोजी- मनोज श्रीवास्तव कवि, रोहिताश्वी- डॉ. रोहिताश्व अष्ठाना होंदी ग़ज़ल पर प्रथम शोधकर्ता, बाल साहित्यकार हरदोई]

व्यंग्य 
बात-बेबात :
*
भारत में सावन में महिलाओं के मायके जाने की रीत है।
क्यों न गृह स्वामिनी का जिला बदर होने के स्थान पर दामाद के ससुराल जाने की रीत हो।
इसके अनेक फायदे हो सकते हैं. आप क्या सोचते हैं?
*
१. बीबी की तानाशाही से त्रस्त दीन-दुखी आजाद देश का पराधीन नागरिक गुलामी के स्थान पर के स्थान पर स्वतंत्र होने का सुख पा सकेगा मतलब नवाज़ शरीफ को भारत में मेहम्नी का सुख।
*
२. आधी घरवाली और सरहज के प्रभाव से बचने के लिये बेचारे पत्नी पीड़ित पति को घर पर भी कुछ संरक्षण मिलेगा याने बीजेपी के सहयोगी दलों को भी मंत्री पद।
*
३. निठल्ले और निखट्टू के विशेषणों से नवाज़े गये पति नामक निरीह प्राणी की वास्तविक कीमत गृह लक्ष्मियाँ जान सकेंगी जैसे अल्पमतीय सरकार में निर्दलीय विधायक ।
*
४. घरवाली खरीददारी के बाद थैले खुद उठाकर लाने से स्वस्थ्य होगी तो डॉक्टर और दवाई का खर्च आधा होने से वैसी ही ख़ुशी मिलेगी जैसी आडवाणी जी को मोदी द्वारा चरण स्पर्श से होती है।
*
५. पति के न लौटने तक पली आशंका लौटते ही समाप्त हो जाएगी तो दांपत्य में माधुर्य बढ़ेगा याने भाजपा सरकार और संघ में तालमेल।
*
६. जीजू की जेब काटकर साली तो खुश होगी ही, जेब कटाकर जीजू प्रसन्न नज़र आयेंगे अर्थात लूटनेवाले और लूटनेवाले दोनों खुश, और क्या चाहिए? इससे अंतर्राष्ट्रीय सद्भाव बढ़ेगा ही याने घर-घर सुषमा स्वराज्य।
*
७. मौज कर लौटे पति की परेड कराने के लिए पत्नी को योजना बनाने का मौका याने संसाधन मंत्रालय मिल सकेगा। कौन महिला स्मृति ईरानी सा महत्त्व नहीं चाहेगी?
कहिए, क्या राय है?
*
३०-५-२०१४
पुस्तक चर्चा-
'सच कहूँ तो' नवगीतों की अनूठी भाव भंगिमा
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[पुस्तक विवरण- सच कहूँ तो, नवगीत संग्रह, निर्मल शुक्ल, प्रथम संस्करण २०१६, आकार २१.५ से.मी. x १४.५ से.मी., आवरण बहुरंगी, पेपरबैक जैकेट सहित, पृष्ठ ९६, मूल्य २५०/-, उत्तरायण प्रकाशन, के ३९७ आशियाना कॉलोनी, लखनऊ २२६०१२ , चलभाष ९८३९८ २५०६२]
*
''इस संग्रह में कवि श्री निर्मल शुक्ल ने साक्षी भाव से अपनी अनुभूतियों के रंगपट्ट पर विविधावर्णी चित्र उकेरे हैं। संकलन का शीर्षक 'सच कहूँ तो' भी उसी साक्षी भाव को व्याख्यायित करता है। अधिकांश गीतों में सच कहने की यह भंगिमा सुधि पाठक को अपने परिवेश की दरस-परस करने को बाध्य करती है। वस्तुतः यह संग्रह फिलवक्त की विसंगतियों का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है। वैयक्तिक राग-विरागों, संवेदनाओं से ये गीत रू-ब-रू नहीं हुए हैं। ... कहन एवं बिंबों की आकृति की दृष्टि से भी ये गीत अलग किसिम के हैं। '' नवगीतों के शिखर हस्ताक्षर कुमार रवींद्र जी ने विवेच्य कृति पर अभिमत में कृतिकार निर्मल शुक्ला जी को आस्तिक आस्था से प्रेरित कवि ठीक ही कहा है।
'सच कहूँ तो' के नवगीतों में दैनन्दिन जीवन के सहज उच्छ्वास से नि:सृत तथा मानवीय संवेदनाओं से सम्पृक्त मनोभावों की रागात्मक अन्विति महसूसी जा सकती है। इन गीतों में आम जन के सामाजिक परिवेश में होते व्याघातों के साथ करवट बदलती, असहजता के विरोध में स्वर गुँजाती परिवर्तनकामी वैचारिक चेतना यात्रा-तत्र अभिव्यक्त हुई है। संवेदन, चिंतन और अभिव्यक्ति की त्रिवेणी ने 'सच कहूँ तो' को नवगीत-संकलनों में विशिष्ट और अन्यों से अलग स्थान का अधिकारी बनाया है। सामान्यत: रचनाकार के व्यक्तिगत अनुभवों की सघनता और गहराई उसकी अंतश्चेतना में अन्तर्निहित तथा रचना में अभिव्यक्त होती रहती है। वैयक्तिक अनुभूति सार्वजनीन होकर रचना को जन सामान्य की आवाज़ बना देती है। तब कवि का कथ्य पाठक के मन की बात बन जाता है। निर्मल शुक्ल जी के गीतकार का वैशिष्ट्य यही है कि उनकी अभिव्यक्ति उनकी होकर भी सबकी प्रतीत होती है।
 सच कहूँ तो / पढ़ चुके हैं
हम किताबों में लिखी / सारी इबारत / अब गुरु जी
शब्द अब तक / आपने जितने पढ़ाये / याद हैं सब
 स्मृति में अब भी / तरोताज़ा / पृष्ठ के संवाद हैं अब
सच कहूँ तो / छोड़ आए / हम अँधेरों की बहुत / पीछे इमारत / अब गुरु जी
व्यक्ति और समाज के स्वर में जब आत्मविश्वास भर जाता है तो अँधेरों का पीछे छूटना ही उजाले की अगवानी को संकेतित करता है। नवगीत को नैराश्य, वैषम्य और दर्द का पर्याय बतानेवाले समीक्षकों को आशावादिता का यह स्वर पचे न पचे पाठक में नवचेतना का संचार करने में समर्थ है। राष्ट्रीय अस्मिता की पहचान विश्ववाणी हिंदी को लेकर शासन-प्रशासन कितने भी उदासीन और कर्तव्यविमुख क्यों न हों निर्मल जी के लिये हिंदी राष्ट्रीयता का पर्याय है-
हिन्द की पहचान हिंदी / शब्दिता की शान हिंदी
सच कहूँ तो / कृत्य की परिकल्पना, अभिव्यंजनाएँ
और उनके बीच भूषित / भाल का है गर्व हिंदी
रूप हिंदी, भूप हिंदी / हर नया प्रारूप हिंदी
सच कहूँ तो / धरणि से / आकाश तक अवधारणाएँ
और उनके बीच / संस्कृत / चेतना गन्धर्व हिंदी
'स्व' से 'सर्व' तक आनुभूतिक सृजन सेतु बनते-बनाते निर्मल जी के नवगीत 'व्हिसिल ब्लोअर' की भूमिका भी निभाते हैं। 'हो सके तो' शीर्षक गीत में भ्रूण-हत्या के विरुद्ध अपनी बात पूरी दमदारी से सामने आती है-
सच कहूँ तो / हर किसी के दर्द को
अपना समझना / हो सके तो
एक पल को मान लेना / हाथ में सीना तुम्हारा
दर्द से छलनी हुआ हो / सांस ले-न-ले दुबारा
सच कहूँ तो / उन क्षणों में, एक छोटी / चूक से
बचना-सम्हलना / हो सके तो
एक पल को, कोख की / हारी-अजन्मी चीख सुनना
और बदनीयत / हवा के / हर कदम पर आँख रखना
अगला विश्व युद्ध पानी को लेकर लड़े जाने की संभावनाओं, नदी-तालाबों के विनष्ट होने की आशंकाओं को देखते हुए 'नदी से जन्मती हैं' शीर्षक नवगीत में 'नदी से जन्मती है / सच कहूँ तो / आज संस्कृतियाँ', 'प्रवाहों में समाई / सच कहूँ तो / आज विकृतियाँ', तरंगों में बसी हैं / सच कहूँ तो / स्वस्ति आकृतियाँ, सिरा लें, आज चलकर / सच कहूँ तो / हर विसंगतियाँ ' रचनात्मकता का आव्हान है।
निर्मल जी के नवगीत सतयजित राय के चलचित्रों की तरह विसंगतियों और विडंबनाओं की प्रदर्शनी लगाकर आम जन की बेबसी की नीलामी नहीं करते अपितु प्रतिरोध का रचनात्मक स्वर गुँजाते हैं-
 चिनगियों से आग / फिर जल कर रहेगी देख लेना / सच कहूँ तो
बादलों की, परत / फिर गल कर रहेगी देख लेना / सच कहूँ तो
तालियाँ तो आज / भी खुलकर बजेंगी देख लेना / सच कहूँ तो
निर्मल जी नवगीत लिखते नहीं गाते हैं। इसलिए उनके नवगीतों में अंत्यानुप्रास तुकबन्दी मात्र नहीं करते, विचारों के बीच सेतु बनाते हैं। उर्दू ग़ज़ल में लम्बे - लम्बे रदीफ़ रखने की परंपरा घट चली है किन्तु निर्मल जी नवगीत के अंतरों में इसे अभिनव साज सज्जा के साथ प्रयोग करते हैं। जल तरंगों के बीच बहते कमल पुष्प की तरह 'फिर नया क्या सिलसिला होगा, देख लेना सच कहूँ तो, अब गुरु जी, फिर नया क्या सिलसिला होगा, आना होगा आज कृष्ण को, यही समय है, धरें कहाँ तक धीर, महानगर है' आदि पंक्त्यांश सरसता में वृद्धि करते हैं।
'सच कहूँ तो' इस संग्रह का शीर्षक मात्र नहीं है अपितु 'तकियाकलाम' की तरह हर नवगीत की जुबान पर बैठा अभिव्यक्ति का वह अंश है तो कथ्य को अधिक ताकत से पाठक - श्रोता तक इस तरह पहुंचाता है की बारम्बार आने के बाद भी बाह्य आवरण की तरह ओढ़ा हुआ नहीं अपितु अंतर्मन की तरह अभिन्न प्रतीत होता है। कहीं - कहीं तो समुच ानवगीत इस 'सच कहूं के इर्द - गिर्द घूमता है। यह अभिनव शैल्पिक प्रयोग कृति की पठनीयता औेर नवगीतों की मननीयत में वृद्धि करता है।
हिंदी साहित्य के महाकवियों और आधुनिक कवियों के सन्दर्भ में एक दोहा प्रसिद्ध है -
सूर सूर तुलसी ससी, उडुगन केसवदास
अब के कवि खद्योत सैम, जँह - तँह करत प्रकास
निर्मल जी इस से सहमत होते हैं, किन्तु शर्मिंदा नहीं होते। वे जुगनू होने में भी अर्थवत्ता तलाश लेते हैं-
हम, संवेदन के जुगनू हैं / हम से / तम भी थर्राता है
पारिस्थितिक विडंबनाओं को उद्घाटित करते नवगीतों में दीनता, विवशता या बेबसी नहीं जूझने और परिवर्तन करने का संकल्प पाठक को दिशा देता है-
तंत्र राज में नाव पुरानी उतराती है
सच कह दूँ तो रोज सभ्यता आँख चुराती है
ऐसे में तो, जी करता है / सारी काया उलट-पुलट दें
दुत्कारें, इस अंधे युग को / मंत्र फूँक, सब पत्थर कर दें
इन नवगीतों का वैशिष्ट्य दे-पीड़ित को हौसला देने और सम्बल बनने का परोक्ष सन्देश अन्तर्निहित कर पाना है। यह सन्देश कहीं भी प्रवचन, उपदेश या भाषण की तरह नहीं है अपितु मीठी गोली में छिपी कड़वी दवाई की तरह ग्राह्य हो गया है-
इसी समय यदि / समय साधने का हम कोई
मंतर पढ़ लें / तो, आगे अच्छे दिन होंगे / यही समय है
सच कह दूँ तो / फिर जीने के / और अनूठे अवसर होंगे
आशाओं से हुआ प्रफुल्लित / जगर-मगर घर में उजियारा
सुख का सागर / समय बाँचकर / समां गया आँगन में सारा
उत्सव होंगे, पर्व मनेगा / रंग-बिरंगे अम्बर होंगे
 सच कह दूँ तो / फिर जीने के वासन्ती / संवत्सर हौंगे
संवेदना को वेदना न बनाकर, वेदना के परिहार का हथियार बनाने का कौशल नवगीतों को एक नया तेवर दे सका है। वैषम्य को ही सुधार और परिष्कार का आधार बनाते हुए ये नवगीत निर्माल्य की तरह ग्रहणीय हैं। महाप्राण निराला पर रचा गया नवगीत और उसमें निराला जी की कृतियों के नामों का समावेश निर्मल जी की अभिव्यक्ति सामर्थ्य की बानगी है। नए नवगीतकारों के लिये यह कृति अनुकरणीय है। इस कृति के नवगीतों में कहीं भी आरोपित क्लिष्टता नहीं है, पांडित्य प्रदर्शन का प्रयास नहीं है। सरलता, सरसता और सार्गर्भितता की इस त्रिवेणी में बार-बार अवगाहन करने का मन होता ही इन नवगीतों और नवगीतकार की सफलता है। 
३०-५-२०१६
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समन्वयम २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१
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शुक्रवार, 30 दिसंबर 2016

alha

एक रचना
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मचा महाभारत भारत में, जन-गण देखें ताली पीट 
दहशत में हैं सारे नेता, कैसे बचे पुरानी सीट?  
हुई नोटबंदी, पैरों के नीचे, रही न हाय जमीन 
कौन बचाए इस मोदी से?, नींद निठुर ने ली है छीन 
पल भर चैन न लेता है खुद, दुनिया भर में करता धूम 
कहे 'भाइयों-बहनों' जब भी, तभी सफलता लेता चूम 
कहाँ गए वे मौनी बाबा?, घपलों-घोटालों का राज 
मनमानी कर जोड़ी दौलत, घूस बटोरी तजकर लाज 
हाय-हाय हैं कैसे दुर्दिन?, छापा पड़ता सुबहो-शाम 
चाल न कोई काम आ रही, जब्त हुआ सब धन बेदाम 
जनधन खातों में डाला था, रूपया- पीट रहे अब माथ 
स्वर्ण ख़रीदा जाँच हो रही, बैठ रहा दिल खाली हाथ 
पत्थर फेंक करेगा दंगा, कौन बिना धन? पिट रइ गोट 
नकली नोट न रहे काम के, रोज पड़े चोटों पर चोट   
ताले तोड़ आयकरवाले, खाते-बही कर रहे जब्त 
कर चोरी की पोल खोलते, रिश्वत लेंय न कैसी खब्त?
बेनामी संपत्ति बची थी, उस पर ली है नजर जमाय 
हाय! राम जी-भोले बाबा, हनुमत  कहूँ न राह दिखाय 
छोटे नोट दबाये हमीं ने, जनता को है बेहद कष्ट  
चूं न कर रहा फिर भी कोई, समय हो रहा चाहे नष्ट 
लगे कतारों में हैं फिर भी, कहते नीति यही है ठीक 
शायर सिंह सपूत वही जो, तजे पुरानी गढ़ नव लीक 
पटा लिया कुछ अख़बारों को, चैनल भरमाते हैं खूब 
दोष न माने फिर भी जनता, लुटिया रही पाप की डूब  
चचा-भतीजे आपस में भिड़, मोदी को करते मजबूत 
बंद बोलती माया की भी, ममता को है कष्ट अकूत 
पाला बदल नितिश ने मारा, दाँव न लालू जाने काट 
बोल थके है राहुल भैया, खड़ी हुई मैया की खाट 
जो मैनेजर ललचाये थे, उन पर भी गिरती है गाज 
फारुख अब्दुल्ला बौराया, कमुनिस्टों का बिगड़ा काज  
भूमि-भवन के भाव गिर रहे, धरे हाथ पर हाथ सुनार 
सेठ अफसरों नेताओं के ठाठ, न बाकी- फँसे दलाल  
रो-रो सूख रहे हैं आँसू, पिचक गए हैं फूले गाल 
जनता जय-जयकार कर रही, मोदी लिखे नाता इतिहास 
मन मसोस दिन-रात रो रहे, घूसखोर सब पाकर त्रास 
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मंगलवार, 12 जुलाई 2016

व्यंग्य

व्यंग्य- 
हाय! हम न रूबी राय हुए  
- संजीव वर्मा 'सलिल'
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                       रात अचानक नींद खुल गयी, उठ भी नहीं सकता था। श्रीमती जी की निद्रा भंग होने की आशंका और फिर अगले दिन ठीक से सो न पाने का उलाहना कौन सुनता? यह भी कि देर रात उठकर तीर भी कौन सा मार लेता? सो 'करवटें बदलते रहे सारी' न सही आधी 'रात हम'...  कसम किसकी? यह नहीं बता सकते.... 'श्रीमती जी की' कहा तो गुस्सा "क्यों असगुन कर रहे हो झूठ बोलकर" और किसी और का नाम लिया तो ज़लज़ला ही आ जायेगा सो "परदे में रहने दो पर्दा न उठाओ, पर्दा जो उठ गया तो" रूबी राय बन जाएगा। 

                       चालीस साल इंजीनियरी करने, सामाजिक-साहित्यिक संस्थाओं में सक्रिय रहने और कलम घिसाई करने, ५ पुस्तकें छपाने और सहस्त्रों रचनाएँ करने  के बाद बकौल श्रीमती जी "भाड़ झोंकने" के बाद भी दूरदर्शन पर अपने आपके निकट दर्शन कर पाने से वंचित रहा मैं, गत कई दिनों से छोटे पर्दे की एकछत्र साम्राज्ञी महामहिमामयी रूबी राय जी के कीर्तिमान के समक्ष नतमस्तक हो सोचने लगा 'क्यों न टॉपर बन गया?'
                       मैं ही नहीं, न जाने कितने और भी यही सोच रहे होंगे। जो समझदार हैं उन्होंने सोचा पूरा न सही, आधा ही सही कुछ तो हाथ आये। ऐसे समझदार जनसेवक दो खेमों में बँट गए। कुछ रूबी राय के विरोध में बोलकर-लिखकर सुर्ख़ियों में आ गए, शासन, प्रशासन, कॉलेज प्रबंधन और छात्रों को पानी पीकर कोसने, अरे! नहीं, नहीं तब तो भीषण गर्मी और पानी का अकाल था, इसलिए बिना पानी पिए ही सबको कोस-कोसकर अख़बारों में छपे और दिन - दो दिन  की वाहवाही बटोरकर भुला दिए गए। कोसनेवालों के हाथ में दोष - दर्शन के अलावा कोई तर्क नहीं रहा, लोग उनसे मौखिक सहानुभूति जताकर धीरे से सरकने लगे चूँकि अपने गरेबां में झाँकते ही जान गए कि हमाम में सब नंगे हैं। मौका मिलने पर हाथ सेंकनेवाले भी कहाँ पीछे रहे? अपने चेहरे की झलक कैमरे में कैद होते ही सरक लिए। रूबी राय के कारण जो प्रथम आने की मनोकामना पूरी न कर सके थे, वे शुरू में खुश हुए किंतु खुलासे की आग में अपने भी हाथ जलते देख 'सबसे भली चुप्प' के नीति का अनुसरण करने लगे।बाकी रह गये वे जिन्हें मौक़ा ही नहीं मिला, ऐसे लोग मौके की तलाश में आगे आये किन्तु यह अहसास होते ही कि कल मौका देनेवाले उनसे दूर हो जायेंगे, पीठ दिखाकर भाग खड़े हुए। 

                       कुछ अधिक समझदार जननायक बनने की तैयारी कर आरंभ में मौन रहकर हालात का जायज़ा लेते रहे और फिर धीरे से समर्थन में आ खड़े हुए और मौखिक संवेदना जताने लगे। इनके तर्क अधिक दमदार हैं। भारत में हर गलत को सही सिद्ध करने का सर्वाधिक प्रभावशाली शस्त्र मानवाधिकार है। आतंकी सौ निर्दोषों को मार दे तो कोई बात नहीं, सेना या पुलिस आतंकी को मारने की बात सोचे भी तो मानवाधिकार पर बिजली गिर जाती है। किसी अपराधी मानसिकता के नराधम ने किसी अबला के साथ कुकृत्य किया तो व्यवस्था दोष को लेकर हंगामा और जब दण्ड देने की बात सामने आये तो अपराधी के कमसिन होने, गरीब होने, अशिक्षित होने याने किसी न किसी बात का बतंगड़ कर अपराधी को नाममात्र का दण्ड दिलाकर या दण्ड-मुक्त कराने की दुहाई देकर अपनी पीठ आप ठोंकने का मौका तलाशना मानवाधिकारवादियों का प्रिय शगल है। कोइ रईसजादा इन्हें इस से भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनकी बात न्यायालय में टिकी या नहीं? उन्हें मतलब सिर्फ इस बात से है कि सुर्खियाँ बटोरीं, कतरने विदेश भेजीं और अपने एन. जी. ओ. के लिए डोनेशन बटोरकर अपने निजी ऐशो-आराम पर खर्च किया। किस्मत ने साथ दिया और दमदार नेता की कोई  कमी पकड़ ली तो उसे उजागर न करने का सौदा कर 'पदम' पाने का जुगाड़ याने आम के आम गुठली के भी दाम। रूबी राय ऐसे मानवाधिकारवादियों (?) के लिए सुनहरा मौका है। 

                       रूबी राय एक लॉटरी है जो खुल गयी है स्त्री विमर्शवादियों के नाम पर। लॉटरी भी ऐसी जिसका टिकिट ही नहीं खरीदना पड़ा। इनका तर्क यह है कि वह कमसिन है, अबला है, निर्दोष-नासमझ है, धोखे से फँसाई गयी है। स्त्री विमर्शवादी द्रौपदी, अहल्या, मंदोदरी, शूर्पणखा, शबरी  और न जाने किस-किस के गड़े मुर्दे उखाड़कर सिद्ध कर देंगे कि इस देश में नारी का दमन और शोषण ही किया गया है, कभी मान, प्यार, लाड़ नहीं दिया गया। बहुत आसानी से भुला दिया जाएगा कि  इसी देश में कहा गया 'काह न अबला कर सके?' कहकर नारी की सामर्थ्य को आलोचकों ने भी स्वीकारा है। इसी देश में 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता' कह कर नारी की वंदना की गयी।  इसी देश में विद्या, धन और शक्ति की अधिष्ठात्री नारी ही मान्य है जिसकी उपासना कर नर खुद को धन्य मानता है। इनसे पूछ लिया जाए कि उन्हें लाड़ नहीं मिला तो जन्म के बाद सुरक्षित कैसे रहीं? उन्हें प्यार नहीं मिला तो वे अपने सुहाग पर नाज़ क्यों करती हैं और संतान कहाँ से आई? उन्हें सम्मान नहीं मिला तो घर में उनकी मर्जी के बिना पत्ता भी क्यों नहीं खड़कता? तो वे बगलें झाँकती नज़र आएँगी। 

                       लोकतंत्र की विधायिका के अपरिहार्य अंग विपक्ष के लिए तो यह प्रसंग सोने का अंडा देनेवाली मुर्गी की तरह है।अपने सत्ताकाल में हुईं इस जैसी और इससे भी बड़ी गड़बड़ियों को भूलकर इस प्रसंग को लेकर जुलूस, नारेबाजी, सभाएँ, अखबारबाजी और खबरी चैनलों पर भाषणबाजी का यह सुनहरा मौका है। सत्ता पक्ष की आलोचना, सरकार को कटघरे में खड़ा करना, सत्ता के सच को झूठ और विपक्ष के झूठ को सच कहना, कुर्सी से  दूर रहने तक अपना जन्मसिद्ध अधिकार माननेवाले, सत्ता हेतु समर्पित राजनैतिक लोगों के लिए रूबी-प्रसंग अलादीन का चिराग है, घिसते रहो कभी न कभी तो जिन्न निकलेगा ही। "मंज़िल मिले, मिले न मिले, और बात है / मंज़िल की जुस्तजू में मेरा (इनका) कारवां तो है।" इनका बस चले तो ये रूबी मैया की जय का जयकारा लगते हुए विधान सभा के गलियारे में व्रत-कथा भी करने लगें।

                       यह प्रसंग परिवार के व्यक्तिगत विरोधियों के लिए भी एक अवसर है किन्तु वे जुबानी चटखारे ले - लेकर परनिंदा रस का आनंद लेने से अधिक  नहीं सकेंगे कि इससे अधिक की उनकी औकात ही नहीं है। कॉलेज के व्यवसायगत विरोधियों के लिए यह मौका है खुद को  बढ़ाने का। इसलिए नहीं कि वे ऐसा फिर नहीं होने देना चाहते बल्कि इसलिए कि ऐसा चाहनेवाले अब बड़ी रकम देकर उनकी संस्था में प्रवेश लें और अगले कई वर्षों तक कुशलतापूर्वक ऐसे कारनामे करने का अवसर उन्हें मिले। 

                       पराई आग में हाथ सेंकने की आदी खबरिया बिरादरी के छुटभैये इस घटना को नमक-मिर्च लगाकर इस आस में बखानते रहेंगे कि उनका कद बढ़ जाए लेकिन उनके आका उनसे कई कदम आगे हैं। वे छुटभैयों द्वारा जुटाए गए मसाले सनसनीखेज़ बनाकर सबसे पहले परोसने की नूरा कुश्ती कर टी. आर. पी. बढ़ाने में प्राण-प्राण से संलग्न होकर, कॉलेजों से विज्ञापन जुटाकर अपना उल्लू सीधा करेंगे। यही नहीं ऐसे मामलों से होनेवाली कमाई का अंदाज़ कर अपना कॉलेज आरम्भ करने में भी पीछे नहीं रहेंगे।इसलिए निकट भविष्य में ऐसे अनेक प्रकरण हर राज्य और विश्वविद्यालय में होने लगें तो 'किमाश्चर्यम?' अर्थात कोई आश्चर्य नहीं।       

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                        यहाँ तक तो फिर भी गनीमत है लेकिन बात यहीं नहीं रूकती, यह प्रसंग सत्ता पक्ष के लिए भी मौके को भुनाने की तरह है। जाँच के नाम पर एक जाँच आयोग गठित कर अपने चहेतों को नियुक्त कर मुख्य मंत्री जी विद्यार्थी वर्ग जो कल मतदाता बनेगा, के बीच अपनी स्वच्छ छवि बनायेँगे। जाँच आयोग सुरसा के मुँह की तरह अपना कार्यकाल और बजट बढ़ाता जाएगा और जब उसके घपले सामने आयेंगे तो एक साथ गवाहों की दुर्घटना या बीमारियों से मौतें होने लगेंगी। नेताओं को राजनीति की रोटियां सेंकने के नए अवसर मिलते रहेंगे। 
                       इस घटना के बाद रूबी राय व्यक्ति नहीं प्रवृत्ति बन गयी है।  हम सबमें कहीं न कहीं रूबी राय है। वह जब भी नज़र आये तो उसे उकसाने नहीं, दबाने की जरूरत है कि वह गलत तरीके या छोटे मार्ग से शीर्ष तक जाने की बात न सोचे।  

                       रूबी राय को इस मुकाम पर पहुँचाने का श्रेय है उसके माता-पिता, कॉलेज प्रबंधक, उत्तर पुस्तिका जाँचकर्ता और  नियति को भी है। जो हुआ वह सब होने के बाद भी यदि रूबी राय शीर्ष पर न आकर कुछ नीचे आतीं ८ वें-१० वें क्रमांक पर, तो उनकी चर्चा ही न होती। अभी भी उनके अलावा किस-किस ने किस प्रकार कितने अंक और कौन सा स्थान इसके पहले पाया या बाद में पाएगा यह कोई नहीं बता सकता।रूबी के जीवन में जटिलता और बदनामी का उसे सामना करना ही होगा, उसके परिजन उसे सहारा दें और इतना सबल बनायें कि वह परिश्रम कर उत्तम परिणाम लाये और जिन में कुछ बन सके।  
                       लाख टके का सवाल यह है कि क्या इस सबके बाद भी रूबी राय, उनके स्वजन, कॉलेज प्रबंधन या अन्य छात्र ऐसा करने से तौबा करेंगे? अगर नहीं तो इसका यही अर्थ है कि मिल रही सजा कम है। हमारे समाज की यही विडंबना है कि सही को सराहनेवाले नहीं मिलते पर गलत के प्रति सहानुभूति जतानेवाले रेडीमेड होते हैं। इसे संयोग कहें या दुर्योग सच यह है कि शिक्षा के नाम पर अंकों और उपाधियों का फर्जीवाड़ा सड़ गए नासूर की तरह बजबजा रहा है। दो ही रास्ते हैं दोषियों को कड़ा दण्ड या रहमदिली के साथ और बढ़ने का अवसर देना।पौ फटती देख मन मसोस कर उठ रहे हैं कि हाय! हम क्यों न हुए रूबी राय ? हो पाते तो दूरदर्शन और  छाने के साथ हमारे हमदर्दों की भी बड़ी संख्या होती। 

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रविवार, 10 अप्रैल 2016

समीक्षा

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पुस्तक चर्चा- 
'महँगाई का शुक्ल पक्ष'-सामयिक विसंगतियों की शल्यक्रिया 
-आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
 [पुस्तक विवरण- महँगाई का शुक्ल पक्ष,  व्यंग्य लेख संग्रह, सुदर्शन कुमार सोनी, ISBN ९७८-९३-८५९४२-११-२, प्रथम संस्करण २०१६, आकार- २०.५ सेमी X १४ सेमी, आवरण पेपरबैक, बहुरंगी, लेमिनेटेड, पृष्ठ १४४, मूल्य १२०/-,बोधि प्रकाशन, ऍफ़ ७७, सेक्टर ९, करतारपुरा औद्योगिक क्षेत्र, बाईस गोदाम, जयपुर ३०२००६, दूरभाष ०१४१ २५०३९८९, ९८२६० १८०८७, व्यंग्यकार संपर्क- डी ३७ चार इमली, भोपाल, ४६२०१६, चलभाष ९४२५६३४८५२, sudarshanksoniyahoo.co.in ]
​विवेच्य कृति एक व्यंग्य संग्रह है। संस्कृत भाषा का शब्द व्यंग्य’ शब्द अज्ज’ धातु में वि’ उपसर्ग और ण्यत्’ प्रत्यय के लगाने से बनता है। यह व्यंजना शब्द शक्ति से संबंधित है तथा व्यंग्यार्थ’ के रूप में प्रयोग किया जाता है। आम बोलचाल में व्यंग्य को ताना’ या चुटकी’ कहा जाता है जिसका अर्थ है “चुभती हुई बात जिसका कोई गूढ़ अर्थ हो।” आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार व्यंग्य कथन की एक ऐसी शैली है जहाँ बोलने वाला अधरोष्ठों में मुस्करा रहा हो और सुननेवाला तिलमिला उठे।” व्यंग्य सोद्देश्य, तीखा व तेज-तर्रार कथन है जिसका प्रभाव तिलमिला देने वाला होता है। कथन की एक शैली के रूप में जन्मा व्यंग्य क्रमश: साहित्य की ऊर्जस्वित विधा के रूप में विक्सित हो रहा है 

आज़ादी के बाद आमजन का रामराज की परिकल्पना से शासन-प्रशासन की व्यवस्था में मनोवांछित परिवर्तन न पाकर मोह-भंग हुआ राजनैतिक-सामाजिक विद्रूपताओं ने व्यंग्य शैली को विधा का रूप धारण करने के लिए उर्वर जमीन प्रदान की है। व्यंग्य जो गलत है’ उस पर तल्ख चोट कर जो सही होना चाहिए’ उस सत्य ओर इशारा भी करता है। इसलिए व्यंग्य आमें साहित्य की केन्द्रीय विधा बनने की पूरी संभावना सन्निहित है। आधुनिक हिंदी साहित्य का व्यंग्य अंग्रेजी की 'सैटायर' विधा से प्रेरित है जिसमें व्यवस्था का मजान उदय जाता है। व्यंग्य में उपहास, कटाक्ष, मजाक, लुत्फ़, आलोचना तथा यत्किंचित निंदा का समावेश होता है। 

इस पृष्ठ भूमि में सुदर्शन कुमार सोनी के व्यंग्य लेख संग्रह 'मँहगाई का शुक्ल पक्ष' को पढ़ना सैम सामयिक विसंगतियों से साक्षात् करने की तरह है। उनके व्यंग्य लेख न तो परसाई जी के व्यंग्य की तरह तिलमिलाते हैं, न शरद जोशी के व्यंग्य की तरह गुदगुदाते हैं, न लतीफ़ घोंघी के व्यंग्य लेखों की तरह गुदगुदाते हैं। सनातन सलिल नर्मदा तट स्थित संस्कारधानी जबलपुर में जन्में सुदर्शन जी प्रशासनिक अधिकारी हैं, अत: उनकी भाषा में गाम्भीर्य, अभिव्यक्ति में संतुलन, आक्रोश में मर्यादा तथा असहमति में संयम होना स्वाभाविक है। विवेच्य कृति के पूर्व उनके ३ कहानी संग्रह नजरिया, यथार्थ, जिजीविषा तथा एक व्यंग्य संग्रह 'घोटालेबाज़ न होने का गम' छप चुके हैं। 

इस संग्रह में बैंडवालों से माफी की फरियाद, अनोखा मर्ज़, देश में इस समय दो ही काम बयान हो रहे हैं, सबके पेट पर लात, कुछ घट रहा है तो कुछ बढ़ रहा है, इट्स रेनिंग डिक्शनरीज एंड ग्रामर बुक्स, मँहगाई का शुक्ल पक्ष, चिर यौवनता की धनी, आज अफसर बहुत खुश है, आम और ख़ास, आवश्यकता नहीं उचक्कापन ही आविष्कार की जननी है, आई एम वोटिंग फॉर यू, धूमकेतु समस्या, सबसे ज्यादा असरकारी इंसान नहीं उसके रचे शब्द हैं, लाइन में लगे रहो, हाय मैंने उपवास रखा, नींद दिवस, समस्या कभी खत्म नहीं होती, सरकार के लिए कहाँ स्कोप है?, मीटिंग अधिकारी, देश का रोजनामचा, झाड़ू के दिन जैसे सबके फिरे, ये ही मेरे आदर्श हैं, फूलवालों की सैर, इन्सान नहीं परियोजनाएं अमर होती हैं, उदासी का सेलिब्रेशन, महिला सशक्तिकरण के सही पैमाने, नेता का पियक्कड़ से चुनावी मौसम में आमना-सामना, भरे पेट का चिंतन खालीपेट का चिंतन, पलटे पेटवाला आदमी, खूब जतन कर लिये नहीं हो पाया, मानसून व पत्नी की तुलना, अनोखी घुड़दौड़, रत्नगर्भा अभियान, पेड़ कटाई, बेचारे ये कुत्ते घुमानेवाले, जेनरेशन गैप इन कुत्तापालन, इंसान की पूंछ होती तो क्या होता?, इन्सान के इंजिन व ऑटोमोबाइल के हार्ट का परिसंवाद, धांसू अंतिम यात्रा की चाहत, 'अच्छे दिन आने वाले हैं' पर पीएच डी, आक्रोश ज़ोन तथा इन्सान तू सच में बहुरूपिया है शीर्षक ४३ व्यंग्य लेख सम्मिलित हैं।   

प्रस्तुत संग्रह से देश के सामाजिक-राजनैतिक परिदृश्य में व्याप्त अराजकता के साथ-साथ हिंदी के भाषिक लिखित-वाचिक रूप में व्याप्त अराजकता का भी साक्षात् हो जाता है। व्यंग्यकार सुशिक्षित, अनुभवी और समृद्ध शब्द-भण्डार के धनी हैं। साहित्य का उद्देश्य मनोरंजन मात्र नहीं होता, वह भाषा के स्वरूप को संस्कारित भी करता है। नई पीढ़ी पुरानी पुस्तकों से ही भाषा को ग्रहण करती है। यह सर्वमान्य तथ्य है की किसी भाषा के श्रेष्ठ साहित्य में अन्य भाषा के शब्द आवश्यक होने पर ही लिये जाते हैं। विवेच्य कृति में हिंदी, संस्कृत, उर्दू तथा अंग्रेजी के शब्दों का उदारतापूर्वक और बहुधा उपयुक्त प्रयोग हुआ है। अप्रतिम, उत्तरार्ध, शाश्वत, अदृश्य, गरिष्ठ, अपसंस्कृति, वयस्कता जैसे संस्कृतनिष्ठ शब्द, नून तलक, बावला, सयाना आदि देशज शब्द, खास, रिश्तों, खत्म, माशूक, अय्याश, खुराफाती, जंजीर जैसे उर्दू शब्द और क्रिकेट, एस एम एस, डोक्टर, इलेक्ट्रोनिक, डॉलर, सोफ्टवेयर जैसे अंग्रेजी शब्दों के समुचित प्रयोग से लेखों की भाषा जीवंत और सहज हुई है किन्तु ऐसे अंग्रेजी शब्द जिनके सरल, सहज और प्रचलित हिंदी शब्द उपलब्ध और जानकारी में हैं उनका प्रयोग न कर अंग्रेजी शब्द को ठूँसा जाना खीर में कंकर की प्रतीति कराता है। ऐसे शताधिक शब्दों में से कुछ इंटरेस्ट (रूचि), लेंग्थ (लंबाई), ड्रेस (पोशाक), क्वालिटी (गुणवत्ता), क्वांटिटी (मात्रा), प्लाट (भूखंड), साइज (परिमाप), लिस्ट (सूची), पैरेंट (अभिभावक), चैप्टर (अध्याय), करेंसी (मुद्रा), इमोशनल (भावनात्मक) आदि हैं। इससे भाषा प्रदूषित होती है

कोढ़ में खाज यह कि मुद्रण-त्रुटि ने भी जाने-अनजाने शब्दों को विरूपित कर दिया है। महँगाई (बृहत हिंदी कोश, पृष्ठ ८७८) शब्द के दो रूप महंगाई तथा मंहगाई मुद्रित हुए हैं किन्तु दोनों ही गलत हैं। गजब यह कि 'मंह' का मतलब 'मुंह' बता दिग गया है। यह भाषा विज्ञानं के किस नियम से संभव है? यदि वह सन्दर्भ दे दिया जाता तो मुझ पाठक का ज्ञान बढ़ पाता अनुस्वार तथा अनुनासिक के प्रयोग में भी स्वच्छन्दता बरती गयी है। 'ढ' और 'ढ़' के मुद्रण की त्रुटि ने 'मेंढक' को 'मेंढ़क' बना दिया। 'लड़ाई' के स्थान पर 'लड़ी', 'ढूँढना' के स्थान पर 'ढूंढ़ने' जैसी मुद्रण त्रुटी सम्भवत:शीघ्रता के कारण हुई हो क्योंकि प्रकाशक की अन्य पुस्तकें पथ्य त्रुटियों से मुक्त हैं व्यंग्यकार का भाषा कौशल 'आम के आम गुठली के दाम', 'नाक-भौं सिकोड़ना' आदि मुहावरों तथा 'आवश्यकता अविष्कार की जननी है' जैसे सूक्ति वाक्यों के प्रयोग में निखरा है। 'लोकलीकरण' जैसे नये शब्द का प्रयोग लेखक की सामर्थ्य दर्शाता है ऐसे प्रयोगों से भाषा समृद्ध होती है

व्यंग्य लेखों के विषय सामयिक, चिन्तन सार्थक तथा भाषा शैली सहज ग्राह्य है। 'व्यंजना' शक्ति का अधिकाधिक प्रयोग भाषा के मारक प्रभाव में वृद्धि करेगा पाठकों के बीच यह संग्रह लोकप्रिय होगा
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