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बुधवार, 11 अप्रैल 2018

nav geet

नवगीत
जोड़-तोड़ है
मुई सियासत
*
मेरा गलत
सही है मानो।
अपना सही
गलत अनुमानो।
सत्ता पाकर,
कर लफ्फाजी-
काम न हो तो
मत पहचानो।
मैं शत गुना
खर्च कर पाऊँ
इसीलिए तुम
करो किफायत
*
मैं दो दूनी
तीन कहूँ तो
तुम दो दूनी
पाँच बताना।
मैं तुमको
झूठा बोलूँगा
तुम मुझको
झूठा बतलाना।
लोकतंत्र में
लगा पलीता
संविधान से
करें बगावत
*
यह ले उछली
तेरी पगड़ी।
झट उछाल तू
मेरी पगड़ी।
भत्ता बढ़वा,
टैक्स बढ़ा दें
लड़ें जातियाँ
अगड़ी-पिछड़ी।
पा न सके सुख
आम आदमी,
लात लगाकर
कहें इनायत।
***
11.4.2018

बुधवार, 17 जनवरी 2018

नवगीत

एक रचना:
गए साल की सासू सें
कमरा छिन गओ रे!
नए साल की दुलहन खों
कमरा मिल गओ रे!
*
गए बरस में देवर-ननदी,
तीन सौ पैंसठ रए अकरते।
परिवर्तन की भौजाई सें
बिनउ बात भी रए झगरते।
धरती अम्मा नें टोंका तो
बिन शरमाए बोले: 'हओ रे!
*
कोसिस चूला फूँक जला रए, 
हर नेकी खों तुरत भुला रए।
खैनी-गुटका साँप बिसैलो
लगा गले सें हात झुला रए।
सब मिट गओ तो कलपें
दैया! जे का हो रओ रे!
*
टके सेर है मोल फसल को
ब्याज नें पूजे, भूल असल को।
नेता-अफसर-सेठ डकारें
बीज नें बाकी रओ नसल को।
अब लों कबऊ नें जैसो भओ थो
अब उसईं भओ रे!
*
सूरज डुकरो झाँक ने पाए
बंद खिड़किया सँग किवाड़े।
चैन ने पा रओ तन्नक कोनौ
रो रए पिछड़े संग अगाड़े।
बादे झुठलाउत जुमला कै
हरिस्चंद् खुद को कै रओ रे!
*
जंगल काट, पहाड़ खोद,
तालाब पूर खें सड़क बना रए।
कर बिनास बोलें बिकास बे
कुरसी अपनी आप भुना रए।
जन की छाती, होरा भूंजे तंत्र
कैत जनतंत्र नओ रे!
*
गए साल की सासू सें
कमरा छिन गओ रे!
नए साल की दुलहन खों
कमरा मिल गओ रे!
****

शनिवार, 23 दिसंबर 2017

navgeet

नवगीत:
संजीव
*
नये बरस की
भोर सुनहरी
.
हरी पत्तियों पर
कलियों पर
तुहिन बूँद हो
ठहरी-ठहरी
ओस-कुहासे की
चादर को चीर
रवि किरण
हँसे घनेरी
खिड़की पर
चहके गौरैया
गाये प्रभाती
हँसे गिलहरी
*
लोकतंत्र में
लोभतंत्र की
सरकारें हैं
बहरी-बहरी
क्रोधित जनता ने
प्रतिनिधि पर
आँख करोड़ों
पुनः तरेरी
हटा भरोसा
टूटी निष्ठा
देख मलिनता
लहरी-लहरी
.
नए सृजन की
परिवर्तन की
विजय पताका
फहरी-फहरी
किसी नवोढ़ा ने
साजन की
आहट सुन
मुस्कान बिखेरी
गोरे करतल पर
मेंहदी की
सुर्ख सजावट
गहरी-गहरी
***

navgeet

नवगीत:
संजीव
.
कुण्डी खटकी
उठ खोल द्वार
है नया साल
कर द्वारचार
.
छोडो खटिया
कोशिश बिटिया
थोड़ा तो खुद को
लो सँवार
.
श्रम साला
करता अगवानी
मुस्का चहरे पर
ला निखार
.
पग द्वय बाबुल
मंज़िल मैया
देते आशिष
पल-पल हजार
.

navgeet

नवगीत:
संजीव
*
नये बरस की
भोर सुनहरी
.
हरी पत्तियों पर
कलियों पर
तुहिन बूँद हो
ठहरी-ठहरी
ओस-कुहासे की
चादर को चीयर
रवि किरण
हँसे घनेरी
खिड़की पर
चहके गौरैया
गाये प्रभाती
हँसे गिलहरी
*
लोकतंत्र में
लोभतंत्र की
सरकारें हैं
बहरी-बहरी
क्रोधित जनता ने
प्रतिनिधि पर
आँख करोड़ों
पुनः तरेरी
हटा भरोसा
टूटी निष्ठा
देख मलिनता
लहरी-लहरी
.
नए सृजन की
परिवर्तन की
विजय पताका
फहरी-फहरी
किसी नवोढ़ा ने
साजन की
आहट सुन
मुस्कान बिखेरी
गोर करतल पर
मेंहदी की
सुर्ख सजावट
गहरी-गहरी
***

मंगलवार, 3 नवंबर 2015

navgeet

एक रचना:
*
गोड-बखर
धरती पहले
फिर खेती कर
.
बीज न बोता
और चाहता फसल मिले
नीर न नयनों में
कैसे मन-कमल खिले
अंगारों से जला
हथेली-तलवा भी
क्या होती है
तपिश तभी तो पता चले
छाया-बैठा व्यर्थ
धूप को कोस रहा
घूरे सूरज को
चकराकर आँख मले
लौटना था तो
तूने माँगा क्यों था?
जनगण-मन से दूर
आप को आप छले
ईंट जोड़ना
है तो खुद
को रेती कर
गोड-बखर
धरती पहले
फिर खेती कर
.
गधे-गधे से
मिल ढेंचू-ढेंचू बोले
शेर दहाड़ा
'फेंकू' कह दागें गोले
कूड़ा-करकट मिल
सज्जित हो माँग भरें
फिर तलाक माँगें
कहते हम हैं भोले
सौ चूहे खा
बिल्ली करवाचौथ करे
दस्यु-चोर ईमान
बाँट बिन निज तौले
घास-फूस की
छानी तले छिपाए सिर
फूँक मारकर
जला रहे नाहक शोले
ऊसर से
फल पाने
खुद को गेंती कर
गोड-बखर
धरती पहले
फिर खेती कर
.  

सोमवार, 2 नवंबर 2015

kruti charcha :

कृति चर्चा:
अल्पना अंगार पर - नवगीत निखार पर 
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: अल्पना अंगार पर, नवगीत संग्रह, रामकिशोर दाहिया, २००८, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द, बहुरंगी, जैकेट सहित, पृष्ठ १९२, १००/-,  उद्भावना प्रकाशन, ए २१ झिलमिल इंडस्ट्रियल एरिया,  जी. टी.  रोड,शाहदरा दिल्ली ११००९५, कृतिकार संपर्क: अयोध्या  बस्ती,साइंस कॉलेज, खिरहने कटनी ४८३५०१, ९४२४६ ७६२९७, ९४२४६ २४६९३] 
*                    
नदी के कलकल प्रवाह, पवन की सरसराहट और कोयल की कूक की लय जिस मध्र्य को घोलती है वह गीतिरचना का पाथेय है। इस लय को गति-यति, बिंब-प्रतीक-रूपक से अलंकृत कर गीत हर सहृदय में मन को छूने में समर्थ बन जाता है। गति और लय को देश-काल-परिस्थिति के अनुरूप नवता देकर गीत के आकाशी कथ्य को जमीनी स्पर्श देकर सर्वग्राह्य बना देता है नवगीत। अपने-अपने समय में जिसने भी पारम्परिक रूप से स्थापित काव्य के शिल्प और कथ्य को यथावत न स्वीकार कर परिवर्तन के शंखनाद किया और सृजन-शरों से स्थापित को स्थानच्युत कर परिवर्तित का भिषेक किया वह अपने समय में नवता का वाहक बना। इस समय के नवताकारक सृजनधर्मियों में अपनी विशिष्ट भावमुद्रा और शब्द-समृद्धता के लिये चर्चित नवगीतकार रामकिशोर दाहिया की यह प्रथम कृति अपने शीर्षक 'अल्पना अंगार पर' में अन्तर्निहित व्यंजना से ही अंतर्वस्तु का आभास देती है। अंगार जैसे हालात का सामना करते हुए समय के सफे पर हौसलों की अल्पना  के नवगीत लिखना सब के बस का काम नहीं है।  

नवगीत को उसके उद्भव काल के मानकों और भाषिक रूप तक सिमित रखने असहमत रामकिशोर जी ने अपने प्रथम संग्रह में ही अपनी जमीन तैयार कर ली हैं। बुंदेली-बघेली अंचल के निवासी होने के नाते उनकी भाषा में स्थानीय लोकभाषाओं का पूत तो अपेक्षित है किन्तु उनके नवगीत इससे बहुत आगे जाकर इन लोकभाषाओं के जमीनी शब्दों को पूरी स्वाभाविकता और अधिकार के साथ अंगीकार करते हैं। वे यह भी जानते हैं कि शब्दों के अर्थों से कॉंवेंटी पीढ़ी ही नहीं रचनाकार, शब्द कोष भी अपरिचित हैं इसलिए पाद टिप्पणियों में शब्दों के अर्थ समाविष्ट कर अपनी सजगता का परिचय देते हैं।

आजीविका से शिक्षक, मन से साहित्यकार और प्रतिबद्धता से आम आदमी की पीड़ा के सहभागी हैं राम किशोर, इसलिए इन नवगीतों में सामाजिक वैषम्य, राजनैतिक विद्रूपताएँ, आर्थिक विषमता, धार्मिक पाखंड और व्यक्तिगत दोमुँहेपन पर प्रबल-तीक्ष्ण शब्द-प्रहार होना स्वाभाविक है। उनकी संवेदनशील दृष्टि राजमार्गोन्मुखी न होकर पगडंडी के कंकरों, काँटों, गड्ढों और उन पर बेधड़क चलने वाले पाँवों के छालों, चोटों, दर्द और आह को केंद्र में रखकर रचनाओं का ताना-बाना बुनती है। वे माटी की सौंधी गंध तक सीमित नहीं रहते, माटी में मिले सपनों की तलाश भी कर पाते हैं। विवेच्य संग्रह वस्तुत: २ नवगीत संग्रहों को समाहित किये है जिन्हें २ खण्डों के रूप में 'महानदी उतरी' (ग्राम्यांचल के सजीव शब्द चित्र तदनुरूप बघेली भाषा)  और  'पाले पेट कुल्हाड़ी' (सामाजिक-सांस्कृतिक सन्दर्भों से जुड़े नवगीत) शीर्षकों के अंतर्गत रखा गया है। २५-३० रचनाओं की स्वतंत्र पुस्तकें निकालकर संख्या बढ़ाने के काल में ४५ + ५३ कुल ९८ नवगीतों के  समृद्ध संग्रह को पढ़ना स्मरणीय अनुभव है।

कवि ज़माने की बंदिशों को ठेंगे पर मारते हुए अपने मन की बात सुनना अधिक महत्वपूर्ण मानता है-

कुछ अपने दिल की भी सुन
संशय के गीत नहीं बुन
अंतड़ियों को खंगालकर
भीतर के ज़हर को निकाल
लौंग चूस / जोड़े से चाब
सटका दे / पेट के बबाल
तंत्री पर साध नई धुन

लौंग को जोड़े से चाबना और तंत्री पर धुन साधना जैसे अनगिन प्रयोग इस कृति में पृष्ठ-पृष्ठ पर हैं। शिक्षक रामकिशोर को पर्यावरण की फ़िक्र न हो यह कैसे संभव है?

धुआँ उगलते वाहन सारे / साँसों का संगीत लुटा है
धूल-धुएँ से / हवा नहाकर /  बैठी खुले मुँडेरे
नहीं उठाती माँ भी सोता / बच्चा अलस्सवेरे

छद्म प्रगति के व्यामोह में फँसे जनगण को प्रतीत हो रहे से सर्वथा विपरीत स्थिति से रू-ब-रू कराते हुए कवि अपना बेलाग आकलन प्रस्तुत करता है:

आँख बचाकर / छप्पर सिर की /नव निर्माण उतारे
उठती भूखी / सुबह सामने / आकर हाथ पसारे
दिये गये / संदर्भ प्रगति के / उजड़े रैन बसेरे

समाज में व्याप्त दोमुँहापन कवि की चिंता का विषय है:

लोग बहुत हैं / धुले दूध के / खुद हैं चाँद-सितारे
कालिख रखते / अंतर्मन में / नैतिक मूल्य बिसारे

नैतिक मूल्यों की चिंता सर्वाधिक शिक्षक को ही होती है। शिक्षकीय दृष्टि सुधर को लक्षित करती है किन्तु कवि उपदेश नहीं देना चाहता, अत:,  इन रचनाओं में शब्द प्रचलित अर्थ के साथ विशिष्ट अर्थ व्यंजित करते हैं:

स्वेद गिरकर / देह से / रोटी उगाता
ज़िंदगी के / जेठ पर / आजकल दरबान सी
देने लगी है / भूख पहरा पेट पर 

स्वतंत्रता के बाद क्या-कितना बदला? सूदखोर साहूकार आज भी किसानों के म्हणत की कमाई खा रहा है। मूल से ज्यादा सूद चुकाने के बाद भी क़र्ज़ न चुकाने की त्रासदी भोगते गाँव की व्यथा-कथा गाँव में पदस्थ और निवास करते संवेदनशील शिक्षक से कैसे छिप सकती है? व्यवस्था को न सुधार पाने और शोषण को मूक होकर  देखते रहने से उपजा असंतोष इन रचनाओं के शब्द-शब्द में व्याप्त है:

खाते-बही, गवाह-जमानत / लेते छाप अँगूठे
उधार बाढ़ियाँ / रहे चुकाते / कन्हियाँ धांधर टूटे
.
भूखे-लांघर रहकर जितना / देते सही-सही
जमा नहीं / पूँजी में पाई / बढ़ती ब्याज रही
बने बखार चुकाने पर भी / खूँटे से ना छूटे
.
लड़के को हरवाही लिख दी / गोबरहारिन बिटिया
उपरवार / महरारु करती / फिर भी डूबी लुटिया
मिले विरासत में हम बंधुआ / अपनी साँसें कूते

सामान्य लीक से हटकर रचे गए  नवगीतों में अम्मा शीर्षक गीत उल्लेखनीय है:

मुर्गा बांग / न देने पाता / उठ जाती अँधियारे अम्मा
छेड़ रही / चकिया पर भैरव / राग बड़े भिन्सारे अम्मा

से आरम्भ अम्मा की दिनचर्या में दोपहर कब आ जाती, है पता ही नहीं चलता-

चौक बर्तन / करके रीती / परछी पर आ धूप खड़ी है
घर से नदिया / चली नहाने / चूल्हे ऊपर दाल चढ़ी है
आँगन के / तुलसी चौरे पर / आँचल रोज पसारे अम्मा 
पानी सिर पर / हाथ कलेवा / लिए पहुँचती खेत हरौरे
उचके हल को / लत्ती देने / ढेले आँख देखते दौरे

यह क्रम देर रात तक चलता है:

घिरने पाता / नहीं अँधेरा / बत्ती दिया जलाकर रखती
भूसा-चारा / पानी - रोटी / देर-अबेर रात तक करती
मावस-पूनो / ढिंगियाने को / द्वार-भीत-घर झारे अम्मा

ऐसा जीवन शब्द चित्र मनो पाठक अम्मा को सामने देख रहा हो। संवेदना की दृष्टि से श्री आलोक श्रीवास्तव की सुप्रसिद्ध 'अम्मा' शीर्षक ग़ज़ल के समकक्ष और जमीनी जुड़ाव में उससे बढ़कर यह नवगीत इस संग्रह की प्रतिनिधि रचना है।

रामकिशोरजी सिर्फ शिक्षक नहीं अपितु सजग और जागरूक शिक्षक हैं। शिक्षक के प्राण शब्दों में बसते हैं चूँकि शब्द ही उसे संसार और शिष्यों से जोड़ते हैं। विवेच्य कृति कृतिकार के समृद्ध शब्द भण्डार का परिचय पंक्ति-पंक्ति में देती है। एक ओर बघेली के शब्दों दहरा, लमतने, थूं, निगडौरे, भिनसारे, हरौरे, ढिंगियाने, भीत, पगडौरे, लौंद, गादर, अलमाने, च्यांड़ा, चौहड़े, लुसुक, नेडना, उरेरे, चरागन, काकुन, डिंगुरे, तुरतुरी, खुम्हरी आदि को हिंदी के संस्कृतनिष्ठ शब्दों लौह्गामिनी, कीटविनाशी, दावानल, बड़वानल, वसुधा, व्योम, अनुगूंज, ऊर्जा, स्रोत, शिल्प, चन्द्रकला, अविराम, वृन्त, कुंतल, ऊर्ध्ववती, कपोल, समुच्चय, पारलौकिक, श्रृंगारित आदि को गले मिलते देखना आनंदित करता है तो  दूसरी ओर उर्दू के लफ़्ज़ों वज़ूद, सिरफिरी, सोहबत, दौलत, तब्दील, कंदील, नूर, शोहरत, सरहदों, बाजार, हुकुम, कब्ज़े, फरजी, पेशी, जरीब, दहशत, सरीखा, बुलंदी, हुनर, जुर्म, ज़हर, बेज़ार, अपाहिज, कफ़न, हैसियत, तिजारत, आदि को अंग्रेजी वर्ड्स पेपर, टी. व्ही., फ़ोकस, मिशन, सीन, क्रिकेटर, मोटर, स्कूल, ड्रेस, डिम, पावर, केस, केक, स्वेटर, डिजाइन, स्क्रीन, प्लेट, सर्किट, ग्राफ, शोकेस आदि के साथ हाथ मिलाते देखना सामान्य से इतर सुखद अनुभव कराता है।  

इस संग्रह में शब्द-युग्मों का प्रयोग यथावसर हुआ है। साही-साम्भर, कोड़ों-कुटकी, 'मावस-पूनो, तमाखू-चूना, कांदो-कीच, चारा-पानी, कांटे-कील, देहरी-द्वार, गुड-पानी, देर-अबेर, चौक-बर्तन, दाने-बीज, पौधे-पेड़, ढोर-डंगार, पेड़-पत्ते, कुलुर-बुलुर, गली-चौक, आडी-तिरछी, काम-काज, हट्टे-कट्टे, सज्जा-सिंगार, कुंकुम-रोली, लचर-पचर, खोज-खबर, बत्ती-दिया आदि गीतों की भाषा को सरस बनाते हैं।

राम किशोर जी ने किताबी भाषा के व्यामोह को तजते हुए पारंपरिक मुहावरों दांत निपोरेन, सर्ग नसेनी, टेंट निहारना आदि के साथ धारा हुई लंगोटी, डबरे लगती रोटी, झरबेरी की बोटी, मन-आँगन, कानों में अनुप्रास, मदिराया मधुमास, विषधर वसन, बूँद के मोती, गुनगुनी चितवन, शब्दों के संबोधन, आस्था के दिये, गंध-सुंदरी, मन, मर्यादा पोथी, इच्छाओं के तारे, नदिया के दो ओंठ, नयनों के पटझर जैसी निजी अनुभूतिपूर्ण शब्दावली से भाषा को जीवंत किया है।     

बुंदेलखंड-बघेलखण्ड के घर-गाँव अपने परिवेश के साथ इस गहराई और व्यापकता के साथ उपस्थित हैं कि कोई चित्रकार शब्दचित्रों से रेखाचित्र की ओर बढ़ सके। कुछ शब्दों का संकेत ही पर्याप्त है यह इंगित करने के लिए कि ग्राम्य जीवन का हर पक्ष इन गीतों में है। निवास स्थल- द्वार, भीत, घर, टटिया, कछरा आदि, श्रृंगार- सेंदुर, कुंड़वा, कंघी, चुरिया महावर आदि, वाद्य- टिमकी, मांडल, ढोलक, मंजीर, नृत्य-गान- राई , करमा, फाग, कबीर, कजरी, राग आदि, वृक्ष-पौधे महुआ, आम, अर्जुन, सेमल, साल, पलाश, अलगोजे, हरसिंगार, बेल, तुलसी आदि, नक्षत्र- आर्द्रा, पूर्व, मघा आदि, माह- असाढ़, कातिक, भादों, कुंवार, जेठ, सावन, पूस, अगहन आदि, साग-सब्जी- सेमल, परवल, बरबटी, टमाटर, गाजर, गोभी, मूली, फल- आंवले, अमरुद, आम, बेल आदि, अनाज- उर्द, अरहर, चना, मसूर, मूंग, उड़द, कोदो, कुटकी, तिल, धान, बाजरा, ज्वार आदि, पक्षी- कबूतर, चिरैयाम सुआ, हरियर, बया, तितली, भौंरे आदि, अन्य प्राणी- छिपकली, अजगर, शेर, मच्छर सूअर, वनभैंसा, बैल, चीतल, आदि, वाहन- जीप, ट्रक, ठेले, रिक्शे, मोटर आदि , औजार- गेंती, कुदाल आदि उस अंचल के प्रतिनिधि है जहाँ की पृष्ठभूमि में इन नवगीतों की रचना हुई है. अत: िंवगीतों में उस अंचल की संस्कृति और जीवन -शब्द में अभव्यक्त होना स्वाभाविक है।      

उर्दू का एक प्रसिद्ध शेर है 'गिरते हैं शाह सवार ही मैदाने जंग में / वह तिफ़्ल क्या गिरेगा जो घुटनों के बल चले' कवि राम किशोर जी गुड़सवारी करने, गिरने और बढ़ने का माद्दा रखते हैं यह काबिले-तारीफ है। नवगीतों की बंधी-बंधाई लीक से हटकर उन्होंने पहली ही कृति में अपनी पगडंडी आप बनाने का हसला दिखाया है।  दाग की तरह कुछ त्रुटियाँ होन स्वाभविक है- 'टी. व्ही. के / स्क्रीन सरीखे / सारे दृश्य दिखाया' में वचन दोष, 'सर्किट प्लेट / ह्रदय ने घटना / चेहरे पर फिल्माया' तथा 'बढ़ती ब्याज रही' में लिंग दोष है। लब्बो-लुबाब यह कि 'अल्पना अंगार पर' समसामयिक सन्दर्भों में नवगीत की ऐसी कृति है जिसके बिना इस दशक के नवगीतों का सही आकलन नहीं किया जा सकेगा। रामकिशोर जी का शिक्षक मन इस संग्रह में पूरी ईमानदारी से उपस्थित है- 'दिल की बात / लिखी चहरे पर/ चेहरा पढ़ना सीख'।

****
समन्वयम २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, ०७६१ २४१११३१, ९४२५१ ८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com 
==========

















शुक्रवार, 30 अक्टूबर 2015

navgeet

:एक रचना:
राम रे! 
*
राम रे!
तनकऊ नई मलाल???
*
भोर-साँझ लौ
गोड़ तोड़ रै
काम चोर बे कैते
पसरे रैत
ब्यास गादी पे
भगतन संग लपेटे
काम-पुजारी
गीता बाँचे
हेरें गोप निहाल।
आँधर ठोकें ताल
राम रे!
बारो डाल पुआल।
राम रे!
तनकऊ नई मलाल???
*
झिमिर-झिमिर-झम
बूँदें टपकें
रिस रए छप्पर-छानी
मैली कर दई रैटाइन की
किन्नें धोती धानी?
लज्जा ढाँपे
सिसके-कलपे
ठोंके आप कपाल
मुए हाल-बेहाल
राम रे!
कैसा निर्दय काल?
राम रे!
तनकऊ नई मलाल???
*
भट्टी-देह न देत दबाई
पैले मांगें पैसा
अस्पताल मा
घुसे कसाई
ठाणे-अरना भैंसा
काले कोट
कचैरी घेरे
बकरा करें हलाल
नेता भए बबाल
राम रे!
लूट बजा रए गाल
राम रे!
तनकऊ नई मलाल???
*

गुरुवार, 29 अक्टूबर 2015

navgeet

नवगीत:
रिश्ते 
*
सांस बन गए रिश्ते 

अनजाने पहचाने लगते
अनचीन्हे नाते, मन पगते
गैरों को अपनापन देकर
हम सोते या जगते
ठगे जा रहे हम औरों से
या हम खुद को ठगते?
आस बन गए रिश्ते
.
दिन भर बैठे आँख फोड़ते
शब्द-शब्द ही रहे जोड़ते
दुनिया जोड़े रूपया-पैसा
कहिए कैसे छंद छोड़ते?
गीत अगीत प्रगीत विभाजन
रहे समीक्षक हृदय तोड़ते
फांस बन गए रिश्ते
.
नभ भू समुद लगता फेरा
गिरता बहता उड़ता डेरा
मीठा मैला खरा होता
'सलिल' नहीं रोके पग-फेरा
दुनियादारी सीख न पाया
क्या मेरा क्या तेरा
कांस बन गए रिश्ते
*

सोमवार, 1 सितंबर 2014

nvgeet: chah kiski sanjiv

नवगीत:
चाह किसकी.... 
संजीव
*
चाह किसकी है
कि वह निर्वंश हो?....
*
ईश्वर अवतार लेता
क्रम न होता भंग
त्यगियों में मोह बसता
देख दुनिया दंग
संग-संगति हेतु करते
जानवर बन जंग
पंथ-भाषा कोई भी हो
एक ही है ढंग
चाहता कण-कण
कि बाकी अंश हो....
*
अंकुरित पल्लवित पुष्पित
फलित बीजित झाड़ हो
हरितिमा बिन सृष्टि सारी
खुद-ब-खुद निष्प्राण हो  
जानता नर काटता क्यों?
जाग-रोपे पौध अब
रह सके सानंद प्रकृति
हो ख़ुशी की सौध अब
पौध रोपें, वृक्ष होकर
'सलिल' कुल अवतंश हो....


मंगलवार, 24 सितंबर 2013

Nav Geet: Raja ji ki.... Om Prakash Tiwari

 नवगीत: 
ओम प्रकाश तिवारी
राजा जी की पाँचो उँगली
--------------------------------
राजा जी की
पाँचो उँगली
घी में डूबी जायं ।

डूबे नगर खेत उतिराएं
जब से आई बाढ़,
जुम्मन-जुगनू सबकी ख़ातिर
बैरी हुआ असाढ़ ;

उड़नखटोले
पर राजा जी
जलदर्शन को जायं ।

सूखे सारे ताल तलैया
सूखीं नदियां-झील,
सूखे सब आँखों के आँसू
ऐश कर रहीं चील ;

राजा के घर
नदी दूध की
रानी इत्र नहायं ।

सब्जी चढ़ी बाँस के ऊपर
दाल करे हड़ताल,
परजा के चेहरे हैं सूखे
हड्डी उभरे गाल ;

राजकुमारी
वजन घटाने
की औषधियाँ खायं ।

- ओमप्रकाश तिवारी 

Om Prakash Tiwari <omtiwari24@gmail.com>

Chief of Mumbai Bureau, Dainik Jagran 41, Mittal Chambers, Nariman Point, Mumbai- 400021Tel : 022 30234900 /30234913, blogs :  http://gazalgoomprakash.blogspot.com/http://navgeetofopt.blogspot.in/ http://janpath-kundali.blogspot.com/ Resi.- 07, Gypsy , Main Street , Hiranandani Gardens, Powai , Mumbai-76Tel. : 022 25706646
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शुक्रवार, 12 जुलाई 2013

chitr par kavita: nav geet kahan ja rahe ho --sanjiv

नव गीत:
कहाँ जा रहे हो…
संजीव
*
पाखी समय का
ठिठक पूछता है
कहाँ जा रहे हो?...
*
उमड़ आ रहे हैं बादल गगन पर
तूफां में उड़ते पंछी भटककर
लिए  हाथ में हाथ जाते कहाँ हो?
बैठा है कोई खुद में सिमटकर
साथी प्रलय का
सतत जूझता है
सुस्ता रहे हो?...
*
मलय कोई देखे कैसे नयन भर
विलय कोई लेखे कैसे शयन कर
घन श्याम आते न छाते यहाँ हो?
बेकार है कार थमकर, ठिठककर 
साथी 'सलिल' का
नहीं सूझता है
मुस्का रहे हो?...
*

सोमवार, 4 मार्च 2013

navgeet: nadani sanjiv 'salil'

नव गीत:

कैसी नादानी??...

संजीव 'सलिल'
*
मानव तो करता है, निश-दिन मनमानी.
प्रकृति से छेड़-छाड़, घातक नादानी...
*
काट दिये जंगल,
दरकाये पहाड़.
नदियाँ भी दूषित कीं-
किया नहीं लाड़..
गलती को ले सुधार, कर मत शैतानी.
'रुको' कहे प्रकृति से कैसी नादानी??...
*
पाट दिये ताल सभी
बना दीं इमारत.
धूल-धुंआ-शोर करे
प्रकृति को हताहत..
घायल ऋतु-चक्र हुआ, जो है लासानी...
प्रकृति से छेड़-छाड़, घातक नादानी...
*
पावस ही लाता है
हर्ष सुख हुलास.
हमने खुद नष्ट किया
अपना मधु-मास..
सूर्य तपे, कहे सुधर, बचा 'सलिल' पानी.
'रुको' कहे प्रकृति से कैसी नादानी??...
*

शुक्रवार, 14 दिसंबर 2012

नवगीत: ओमप्रकाश तिवारी कुम्हड़ा-लौकी नहीं चढ़ रहे

नवगीत:
ओमप्रकाश तिवारी
 

कुम्हड़ा-लौकी नहीं चढ़ रहे

कुम्हड़ा-लौकी
अब छप्पर पे
नहीं चढ़ रहे गांव में

रोज चढ़ रहीं दारू मैया
गुटका-गांजा-सुरती भैया
चौराहे पर चाय केतली
कभी भांग की ता-ता थैया


प्रगति कर रही
है नव पीढ़ी
बेड़ी बांधे पांव में


चढ़ी बांस पे ताश की गड्डी
भूले खो-खो और कबड्डी
गाय-भैंस को देशनिकाला
दिखती है गालों की हड्डी

पढ़ना-लिखना नकल भरोसे
छेद कर रहे नाव में

खूब चढ़ रही कर्ज-उधारी
चमक रही है साहूकारी
खानापूरी में माहिर हैं
जिन्हें बैंक कहते सरकारी

फिर भी चार्वाक
की दुनिया
दिखती गांव - गिरांव में

चढ़ती जाती हैं दीवारें
अनबन की छीटें-बौछारें
हर घर में दो-चार मुकदमे
भाई ही भाई को मारें

प्रेमचंद के पंच
मगन हैं
अपने-अपने दांव में
( यह नवगीत हाल ही में हुई अपने गांव की यात्रा से उपजा है) 

--
Om Prakash Tiwari
Special Correspondent
Dainik Jagran
41, Mittal Chambers, Nariman Point,
 Mumbai- 400021

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रविवार, 26 सितंबर 2010

बाल गीत / नव गीत: ज़िंदगी के मानी संजीव 'सलिल'

बाल गीत / नव गीत:

ज़िंदगी के मानी

संजीव 'सलिल'
*
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.
मेघ बजेंगे, पवन बहेगा,
पत्ते नृत्य दिखायेंगे.....
*
बाल सूर्य के संग ऊषा आ,
शुभ प्रभात कह जाएगी.
चूँ-चूँ-चूँ-चूँ कर गौरैया
रोज प्रभाती गायेगी..

टिट-टिट-टिट-टिट करे टिटहरी, 
करे कबूतर गुटरूं-गूं-
कूद-फांदकर हँसे गिलहरी
तुझको निकट बुलायेगी..

                                                                                             
आलस मत कर, आँख खोल,
हम सुबह घूमने जायेंगे.
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.....
*
आई गुनगुनी धूप सुनहरी
माथे तिलक लगाएगी.
अगर उठेगा देरी से तो
आँखें लाल दिखायेगी..

मलकर बदन नहा ले जल्दी,
प्रभु को भोग लगाना है. 
टन-टन घंटी मंगल ध्वनि कर-
विपदा दूर हटाएगी.

मुक्त कंठ-गा भजन-आरती,
सरगम-स्वर सध जायेंगे.
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.....
*
मेरे कुँवर कलेवा कर फिर,
तुझको शाला जाना है.
पढ़ना-लिखना, खेल-कूदना,
अपना ज्ञान बढ़ाना है..

अक्षर,शब्द, वाक्य, पुस्तक पढ़,
तुझे मिलेगा ज्ञान नया.
जीवन-पथ पर आगे चलकर
तुझे सफलता पाना है..

सारी दुनिया घर जैसी है,
गैर स्वजन बन जायेंगे.
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.....
*


Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

बुधवार, 21 अप्रैल 2010

नव गीत: जीवन की जय बोल..... --संजीव 'सलिल'


*
जीवन की
जय बोल,
धरा का दर्द
तनिक सुन...
           तपता सूरज
           आँख दिखाता,
           जगत जल रहा.
           पीर सौ गुनी
           अधिक हुई है,
            नेह गल रहा.
हिम्मत
तनिक न हार-
नए सपने
फिर से बुन...
             निशा उषा
             संध्या को छलता
             सुख का चंदा.
             हँसता है पर
             काम किसी के
             आये न बन्दा...
सब अपने
में लीन,
तुझे प्यारी
अपनी धुन...
            महाकाल के
            हाथ जिंदगी
           यंत्र हुई है.
           स्वार्थ-कामना ही
           साँसों का
           मन्त्र मुई है.
तंत्र लोक पर,
रहे न हावी
कर कुछ
सुन-गुन...

गुरुवार, 11 फ़रवरी 2010

नव गीत: जीवन की / जय बोल --संजीव 'सलिल'

जीवन की

जय बोल,

धरा का दर्द

तनिक सुन...

तपता सूरज

आँख दिखाता,

जगत जल रहा.

पीर सौ गुनी

अधिक हुई है,

नेह गल रहा.

हिम्मत

तनिक न हार-

नए सपने

फिर से बुन...

निशा उषा

संध्या को छलता

सुख का चंदा.

हँसता है पर

काम किसी के

आये न बन्दा...

सब अपने

में लीन,

तुझे प्यारी

अपनी धुन...

महाकाल के

हाथ जिंदगी

यंत्र हुई है.

स्वार्थ-कामना ही

साँसों का

मन्त्र मुई है.

तंत्र लोक पर,

रहे न हावी

कर कुछ

सुन-गुन...
 
* * *

गुरुवार, 17 दिसंबर 2009

नव गीत: हर चेहरे में... संजीव 'सलिल'

नव गीत:

हर चेहरे में...

संजीव 'सलिल'

हर चेहरे में
अलग कशिश है,
आकर्षण है...
*
मिल्न-विरह में, नयन-बयन में.
गुण-अवगुण या चाल-चलन में.
कहीं मोह का,
कहीं द्रोह का
संघर्षण है.
हर चेहरे में
अलग कशिश है,
आकर्षण है...
*
मन की मछली, तन की तितली.
हाथ न आयी, पल में फिसली.
क्षुधा-प्यास का,
श्वास-रास का,
नित तर्पण है.
हर चेहरे में
अलग कशिश है,
आकर्षण है...
*
चंचल चितवन, सद्गुण-परिमल.
मृदुल-मधुर सुर, आनन मंजुल.
हाव-भाव ये,
ताव-चाव ये
प्रभु-अर्पण है.
हर चेहरे में
अलग कशिश है,
आकर्षण है...
*
गिरि-सलिलाएँ, काव्य-कथाएँ
कही-अनकही, सुनें-सुनाएँ.
कलरव-गुंजन,
माटी-कंचन
नव दर्पण है.
हर चेहरे में
अलग कशिश है,
आकर्षण है...
*
बुनते सपने, मन में अपने.
समझ नाते जग के नपने.
जन्म-मरण में,
त्याग-वरण में
संकर्षण है.
हर चेहरे में
अलग कशिश है,
आकर्षण है...
*

शनिवार, 12 दिसंबर 2009

नवगीत: डर लगता है --संजीव 'सलिल'

नवगीत:


संजीव 'सलिल'

*
डर लगता है

आँख खोलते...

*
कालिख हावी है

उजास पर.

जयी न कोशिश

क्षुधा-प्यास पर.

रुदन हँस रहा

त्रस्त हास पर.

आम प्रताड़ित

मस्त खास पर.

डर लगता है

बोल बोलते.

डर लगता है

आँख खोलते...

*
लूट फूल को

शूल रहा है.

गरल अमिय को

भूल रहा है.

राग- द्वेष का

मूल रहा है.

सर्प दर्प का

झूल रहा है.

डर लगता है

पोल खोलते.

डर लगता है

आँख खोलते...

*
आसमान में

तूफाँ छाया.

कर्कश स्वर में

उल्लू गाया.

मन ने तन को

है भरमाया.

काया का

गायब है साया.

डर लगता है

पंख तोलते.

डर लगता है

आँख खोलते...

*

शुक्रवार, 11 दिसंबर 2009

नव गीत: अवध तन,/मन राम हो... संजीव 'सलिल'

नव गीत:

संजीव 'सलिल'

अवध तन,
मन राम हो...
*
आस्था सीता का
संशय का दशानन.
हरण करता है
न तुम चुपचाप हो.
बावरी मस्जिद
सुनहरा मृग- छलावा.
मिटाना इसको कहो
क्यों पाप हो?

उचित छल को जीत
छल से मौन रहना.
उचित करना काम
पर निष्काम हो.
अवध तन,
मन राम हो...
*
दगा के बदले
दगा ने दगा पाई.
बुराई से निबटती
यूँ ही बुराई.
चाहते हो तुम
मगर संभव न ऐसा-
बुराई के हाथ
पिटती हो बुराई.

जब दिखे अंधेर
तब मत देर करना
ढेर करना अनय
कुछ अंजाम हो.
अवध तन,
मन राम हो...
*
किया तुमने वह
लगा जो उचित तुमको.
ढहाया ढाँचा
मिटाया क्रूर भ्रम को.
आज फिर संकोच क्यों?
निर्द्वंद बोलो-
सफल कोशिश करी
हरने दीर्घ तम को.

सजा या ईनाम का
भय-लोभ क्यों हो?
फ़िक्र क्यों अनुकूल कुछ
या वाम हो?
अवध तन,
मन राम हो...
*