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रविवार, 17 दिसंबर 2023

जसाला, बुंदेली, सॉनेट, लोकोक्ति, कहावत, दोहा मुक्तिका, गीत, हृदय रोग, पीपल, वंशी,


जसाला फाउण्डेशन (पंजी) दिल्ली एवं सुप्रभात मंच (पंजी) दिल्ली के संयुक्त तत्वावधान में 24 दिसम्बर 2023 को आयोजित अंतर्राष्ट्रीय कला, साहित्य एवं संस्कृति सम्मान -2023 के लिए चयनित नाम सर्व श्री/श्रीमती/सुश्री-

राष्ट्र विभूषण सम्मान - 2023

1- योगेश चन्द्र कुलश्रेष्ठ, वैशाली, उत्तर प्रदेश
2- प्रो. विश्वम्भर शुक्ल, लखनऊ , उत्तर प्रदेश
3- पीतम सिंह 'प्रियतम', शाहदरा , दिल्ली
3- पं. जगदीश प्रसाद शर्मा, अध्यक्ष ब्राहमण समाज, दिल्ली
5- डॉ. सुरेन्द्र वर्मा, चेयरमैन शशि पब्लिक सीनियर सेकेंडरी स्कूल, दिल्ली
6- विजय कुमार स्वर्णकार, दिल्ली
7- पवन वर्मा शाहीन, दिल्ली
8- आचार्य संजीव वर्मा सलिल, जबलपुर, मध्य प्रदेश
9- साधुराम पल्लव, हरिद्वार, उत्तराखंड
10- रमाकांत कौशिक, शाहदरा, दिल्ली
11- अरुण कुमार शर्मा, अर्वाचीन इण्टर नेशनल स्कूल, दिल्ली
12 - सी. के. शर्मा, सर्वोदय कम्प्यूटर, शाहदरा, दिल्ली
13- रामप्रकाश वर्मा, कानपुर, उत्तर प्रदेश
14- रामचरण सिंह साथी, शाहदरा, दिल्ली
15- कुलदीप कुमार, हरिद्वार, उत्तराखंड

राष्ट्र रत्न सम्मान - 2023
1- सचिन वर्मा, मल्टीनेशनल कंपनी, गुरुग्राम
2- दिव्या वर्मा, सनसिटी स्कूल गुरुग्राम
3- संदीप वर्मा, मल्टीनेशनल कंपनी, नोएडा
4- डॉ. नवीन वर्मा, दिल्ली सरकार
5- गौरव वर्मा, मल्टीनेशनल कंपनी,, अमेरिका
6- अंकिता बिजपुरिया, मल्टीनेशनल कंपनी, अमेरिका
7- डॉ. नीरज धोलियान, दिल्ली सरकार
8- शुभम धोलियान, सीए, दिल्ली
9- प्रीति वर्मा, सीए, दिल्ली

भारत गौरव सम्मान 2023
1- अशोक जैन, आरपीआर आर्ट गैलरी, दिल्ली
2- प्रभात कुमार, प्रभात प्रकाशन, दिल्ली
3- आर. के. जैन, शेरिडन बुक कम्पनी, नई दिल्ली
4- जितेन्द्र बच्चन, राष्ट्रीय जनमोर्चा, गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश
5- राजेन्द्र प्रसाद वर्मा, संस्थापक स्वर्णकार धर्मशाला, दिल्ली
6- अरुण वर्मा प्रधान, शाहदरा , दिल्ली
7- एम के राजपूत, गरिमांजलि पब्लिक स्कूल, नई दिल्ली
8- कुँवरअशोक, सुरभि पत्रिका, दिल्ली
9- ममता वर्मा, गंधर्व वैलनेस स्टूडियो, नई दिल्ली
10- ओमप्रकाश प्रजापति, ट्रू मीडिया, राजनगर, गाजियाबाद
11- योगेश कौशिक, जोशीला टाइम्स, दिल्ली
12- प्रशान्त कुमार सरकार , नई दिल्ली
13- हरस्वरुप भामा, शाहदरा, दिल्ली
14- प्रवीण आर्य, संस्थापक सतमौला कवियों की चौपाल
15- सुशील कुमार जैन, जैन साड़ी सैंटर, शाहदरा दिल्ली
16- अभिनंदन गुप्ता, हरिद्वार, उत्तराखंड

साहित्य शिरोमणि सम्मान - 2023
1- पं ज्वाला प्रसाद शांडिल्य 'दिव्य', हरिद्वार, उत्तराखंड
2- समीर उपाध्याय सलिल, गुजरात
3- वीणा शर्मा वशिष्ठ, चंडीगढ़.
4- संजु श्रीमाली, बीकानेर , राजस्थान
5- नाजुहातिकाकोति बरुआ, आसाम
6- राजेन्द्र सैन, सागर, मध्यप्रदेश
7- सोनिया गुप्ता, चंडीगढ़
8- नीता नय्यर 'निष्ठा', हरिद्वार , उत्तराखंड

साहित्य रत्न सम्मान -2023
1- श्री कमलेश कुमार वर्मा, लखनऊ
2- शारदा मदरा, दिल्ली
3- मिलन सिंह मधुर, दिल्ली
4- प्रज्ञा देवले, महेश्वर, उज्जैन, मध्य प्रदेश
5- दामोदर प्रजापति, सागर, मध्यप्रदेश
6- निशि अग्रवाल, बिजनौर, उत्तर प्रदेश
7- देवनारायण शर्मा, सुल्तानपुर, उत्तर प्रदेश
8- रीता ग्रोवर, दिल्ली
9- वीना तँवर, गुरुग्राम , हरियाणा
10- प्रबोध मिश्र हितैषी, बड़वानी, मध्य प्रदेश
11 - नीता अग्रवाल, पूरनपुर, पीलीभीत, उत्तर प्रदेश

साहित्य विभूति सम्मान - 2023
1- दीक्षित दनकौरी, दिल्ली
2- रामकिशोर उपाध्याय, दिल्ली
3- रंजना झा, नेपाल
4- वसुधा कनुप्रिया, दिल्ली
5- विजय प्रशान्त, नोएडा, उत्तर प्रदेश
6- अनिल मीत, शाहदरा, दिल्ली

साहित्य गौरव सम्मान - 2023
1- ओमप्रकाश शुक्ल, दिल्ली
2- वीरेश प्रेम आर्य, दिल्ली
4- आदराम नायक, गजसिंहपुर, गंगानगर, राजस्थान
5- बिहारी लाल सोनी, सागर, मध्यप्रदेश
6- मीनाक्षी भटनागर, दिल्ली
7- प्रमिला पांडेय, कानपुर, उत्तर प्रदेश
8- अविनाश सैन, सागर, मध्यप्रदेश
9- मिलन सिंह मधुर, दिल्ली
10- सरोज सिंह सजल, दिल्ली
11- सुषमा शैली, दिल्ली
***
बुंदेली सॉनेट
बालम
*
जाने का का हेरत बालम,
हरदम चिपके रैत जोंक सें,
भिन्नाउत हैं रोक-टोंक सें,
नैना खूबई सेकें जालम।
सुनतइ नईं थे बरज रए हम,
लाड़ लड़ाउत रए सौक सें,
करत इसारे छिपे ओट सें, 
भए गुमसुम ज्यों फूट गओ बम। 
मोबाइल लए साँझ-सकारे,
कैते संग हमाए देखो,
बैरन ननदी आँख दिखा रई। 
इतै कूप उत खाई दुआरे, 
बिधना बिपद हमाई लेखो,
अतपर लरकोरी आफत भई।
१५-१२-२०१३  
***
बुंदेली सॉनेट 
*
छंद- चौकड़िया, १६-१२, पदांत  गुरु गुरु  
*
बेंदी करत किलोरें बाला, बाला झूला झूलें,
अँगुरी-अँगुरी सोहे मुँदरी, नथ बिजुरी सम चमकें,
गोरी-चिक्कन देह लता सी, दिप-दिप जब-तब दमकें,    
कजरा से कजरारी अँखियाँ, बाँके गलियाँ भूलें। 
खन खन खनक न जाने कैती का का चूरी ऊलें, 
'आँचर धरो सँभार ननदिया' भौजी बम सी बमकें
बीर निहोरें कछू नें कइयो, लरकौरी में इनकें, 
सूनी खोरें भईं सकारे, मन-मन मन्नत हूलें। 
पैंजन खाए चुगली बज खें, नैना झुक के बरजें, 
गाल लाल भय छतिया धड़की, लगे साँस रुकती सी, 
भोले बाबा किरपा करियो, इतै न कोऊ झाँके। 
मेघा छाए आसमान में, गड़ गड़ खूबई गरजें, 
गाँव-गली में संझा बिरिया मनो रुकी झुकती सी, 
अनबोले लें बोल-समझ जाने काअ बाँकी-बाँके। 
 १५-१२-२०१३ 
*
बुंदेली लोकोक्तियां / कहावतें

अंदरा की सूद
अपनी इज्जत अपने हाथ
अक्कल के पाछें लट्ठ लयें फिरत
अक्कल को अजीरन
अकेलो चना भार नईं फोरत
अकौआ से हाती नईं बंदत
अगह्न दार को अदहन
अगारी तुमाई, पछारी हमाई

इतै कौन तुमाई जमा गड़ी
इनईं आंखन बसकारो काटो?
इमली के पत्ता पपे कुलांट खाओ

ईंगुर हो रही

उंगरिया पकर के कौंचा पकरबो
उखरी में मूंड़ दओ, तो मूसरन को का डर
उठाई जीव तरुवा से दै मारी
उड़त चिरैंया परखत
उड़ो चून पुरखन के नाव
उजार चरें और प्यांर खायें
उनकी पईं काऊ ने नईं खायीं
उन बिगर कौन मॅंड़वा अटको
उल्टी आंतें गरे परीं

ऊंची दुकान फीको पकवान
ऊंटन खेती नईं होत
ऊंट पे चढ़के सबै मलक आउत
ऊटपटांग हांकबो

एक कओ न दो सुनो
एक म्यांन में दो तलवारें नईं रतीं

ऐसे जीबे से तो मरबो भलो
ऐसे होते कंत तौ काय कों जाते अंत

ओंधे मो डरे
ओई पातर में खायें, ओई में धेद करें
ओंगन बिना गाड़ी नईं ढ़ंड़कत

कंडी कंडी जोरें बिटा जुरत
कतन्नी सी जीव चलत
कयें खेत की सुने खरयान की
करिया अक्षर भैंस बराबर
कयें कयें धोबी गदा पै नईं चढ़त
करता से कर्तार हारो
करम छिपें ना भभूत रमायें
करें न धरें, सनीचर लगो
करेला और नीम चढो‌‌

का खांड़ के घुल्ला हो, जो कोऊ घोर कें पीले
काजर लगाउतन आंख फूटी
कान में ठेंठा लगा लये

कुंअन में बांस डारबो
कुंआ बावरी नाकत फिरत

कोऊ को घर जरे, कोऊ तापे
कोऊ मताई के पेट सें सीख कें नईं आऊत
कोरे के कोरे रे गये

कौआ के कोसें ढ़ोर नहिं मरत
कौन इतै तुमाओ नरा गड़ो

खता मिट जात पै गूद बनी रत
खाईं गकरियां, गाये गीत, जे चले चेतुआ मीत
खेत के बिजूका

गंगा नहाबो
गरीब की लुगाई, सबकी भौजाई
गांव को जोगी जोगिया, आनगांव को सिद्ध
गोऊंअन के संगे घुन पिस जात
गोली सें बचे, पै बोली से ना बचे

घरई की अछरू माता, घरई के पंडा
घरई की कुरैया से आंख फूटत
घर के खपरा बिक जेयें
घर को परसइया, अंधियारी रात
घर को भूत, सात पैरी के नाम जानत
घर घर मटया चूले हैं
घी देतन वामन नर्रयात
घोड़न को चारो, गदन कों नईं डारो जात

चतुर चार जगां से ठगाय जात
चलत बैल खों अरई गुच्चत
चित्त तुमाई, पट्ट तुमाई
चोंटिया लेओ न बकटो भराओ

छाती पै पथरा धरो
छाती पै होरा भूंजत
छिंगुरी पकर कें कोंचा पकरबो
छै महीनों को सकारो करत

जगन्नाथ को भात, जगत पसारें हाथ
जनम के आंदरे, नाव नैनसुख
जब की तब सें लगी
जब से जानी, तब सें मानी
जा कान सुनी, बा कान निकार दई
जाके पांव ना फटी बिम्बाई, सो का जाने पीर पराई
जान समझ के कुआ में ढ़केल दओ
जित्ते मों उत्ती बातें
जित्तो खात. उत्तई ललात
जित्तो छोटो, उत्तई खोटो
जैसो देस, तैसो भेष
जैसो नचाओ, तैसो नचने
जो गैल बताये सो आंगे होय
जोलों सांस, तौलों आस

झरे में कूरा फैलाबो

टंटो मोल ले लओ
टका सी सुनावो
टांय टांय फिस्स

ठांडो‌ बैल, खूंदे सार

ढ़ोर से नर्रयात

तपा तप रये
तरे के दांत तरें, और ऊपर के ऊपर रै गये
तला में रै कें मगर सों बैर
तिल को ताड़ बनाबो
तीन में न तेरा में, मृदंग बजाबें डेरा में
तुम जानो तुमाओ काम जाने
तुम हमाई न कओ, हम तुमाई न कयें
तुमाओ मो नहिं बसात

तुमाओ ईमान तुमाय संगे
तुमाये मों में घी शक्कर
तेली को बैल बना रखो

थूंक कैं चाटत

दबो बानिया देय उधार
दांत काटी रोटी
दांतन पसीना आजे
दान की बछिया के दांत नहीं देखे जात

धरम के दूने

नान सें पेट नहीं छिपत
नाम बड़े और दरसन थोरे
निबुआ, नोंन चुखा दओ
नौ खायें तेरा की भूंक
नौ नगद ना तेरा उधार

पके पे निबौरी मिठात
पड़े लिखे मूसर
पथरा तरें हाथ दबो
पथरा से मूंड़ मारबो
पराई आंखन देखबो
पांव में भौंरी है
पांव में मांदी रचायें
पानी में आग लगाबो
पिंजरा के पंछी नाईं फरफरा रये
पुराने चांवर आयें
पेट में लात मारबो

बऊ शरम की बिटिया करम की
बचन खुचन को सीताराम
बड़ी नाक बारे बने फिरत
बातन फूल झरत

मरका बैल भलो कै सूनी सार
मन मन भावे, मूंड़ हिलाबे
मनायें मनायें खीर ना खायें जूठी पातर चांटन जायें
मांगे को मठा मौल बराबर
मीठी मीठी बातन पेट नहीं भरत
मूंछन पै ताव दैवो
मौ देखो व्यवहार

रंग में भंग
रात थोरी, स्वांग भौत

लंका जीत आये
लम्पा से ऐंठत
लपसी सी चांटत
लरका के भाग्यन लरकोरी जियत
लाख कई पर एक नईं मानी

सइयां भये कोतबाल अब डर काहे को
सकरे में सम्धियानो
समय देख कें बात करें चइये
सोउत बर्रे जगाउत
सौ ड़ंडी एक बुंदेलखण्डी
सौ सुनार की एक लुहार की

हम का गदा चराउत रय
हरो हरो सूजत
हांसी की सांसी
हात पै हात धरें बैठे
हात हलाउत चले आये
होनहार विरबान के होत चीकने पात
हुइये सोई जो राम रचि राखा
***
सॉनेट
आशा पुष्पाती रहे, किरण बखेर उजास।
गगन सरोवर में खिले, पूनम शशि राजीव सम।
सुषमा हेरें नैन हो, मन में खुशी हुलास।।
सुमिर कृष्ण को मौन, हो जाते हैं बैन नम।।
वीणा की झंकार सुन, वाणी होती मूक।
ज्ञान भूल कर ध्यान, सुमिर सुमिर ओंकार।
नेत्र मुँदें शारद दिखें, सुन अनहद की कूक।।
चित्र गुप्त झलके तभी, तर जा कर दीदार।।
सफल साधना सिद्धि पा, अहंकार मत पाल।
काम-कामना पालकर, व्यर्थ न तू होना दुखी।
ढाई आखर प्रेम के, कह हो मालामाल।
राग-द्वेष से दूर, लोभ भुला मन हो सुखी।।
दाना दाना फेरकर, नादां बन रह लीन।
कर करतल करताल, हँस बजा भक्ति की बीन।।
१६-१२-२०२१
***
त्वरित कविता
*
दागी है जो दीप, बुझा दो श्रीराधे
आगी झट से उसे लगा दो श्रीराधे
रक्षा करिए कलियों की माँ काँटों से
माँगी मन्नत शांति दिला दो श्रीराधे
१६-१२-२०१९
***
दोहा मुक्तिका
*
दोहा दर्पण में दिखे, साधो सच्चा रूप।
पक्षपात करता नहीं, भिक्षुक हो या भूप।।
*
सार-सार को गह रखो, थोथा देना फेंक।
मनुज स्वभाव सदा रखो, जैसे रखता सूप।।
*
प्यासा दर पर देखकर, द्वार न करना बंद।
जल देने से कब करे, मना बताएँ कूप।।
*
बिसरा गौतम-सीख दी, तज अचार-विचार।
निर्मल चीवर मलिन मन, नित प्रति पूजें स्तूप।।
*
खोट न अपनी देखती, कानी सबको टोंक।
सब को कहे कुरूप ज्यों, खुद हो परी अनूप।।
१६-१२-२०१८
***
गीत:
दरिंदों से मनुजता को जूझना है
.
सुर-असुर संघर्ष अब भी हो रहा है
पा रहा संसार कुछ, कुछ खो रहा है
मज़हबी जुनून पागलपन बना है
ढँक गया है सूर्य, कोहरा भी घना है
आत्मघाती सवालों को बूझना है
.
नहीं अपना या पराया दर्द होता
कहीं भी हो, किसी को हो ह्रदय रोता
पोंछना है अश्रु लेकर नयी आशा
बोलना संघर्ष की मिल एक भाषा
नाव यह आतंक की अब डूबना है
.
आँख के तारे अधर की मुस्कुराहट
आये कुछ राक्षस मिटाने खिलखिलाहट
थाम लो गांडीव, पाञ्चजन्य फूंको
मिटें दहशतगर्द रह जाएँ बिखरकर
सिर्फ दृढ़ संकल्प से हल सूझना है
.
जिस तरह का देव हो, वैसी ही पूजा
दंड के अतिरिक्त पथ वरना न दूजा
खोदकर जड़, मठा उसमें डाल देना
तभी सूझेगा नयन कर रुदन सूजा
सघन तम के बाद सूरज ऊगना है
*
***
आयुर्वेद
हृदय रोग चिकित्सा- पीपल पत्ता
99 प्रतिशत ब्लॉकेज को भी रिमूव कर देता है पीपल का पत्ता....
पीपल के १५ हरे-कोमल पत्तों का ऊपर व नीचे का कुछ भाग कैंची से काटकर अलग कर दें। पत्ते का बीच का भाग पानी से साफ कर लें। इन्हें एक गिलास पानी में धीमी आँच पर पकने दें। जब पानी उबलकर एक तिहाई रह जाए तब ठंडा होने पर साफ कपड़े से छान लें और उसे ठंडे स्थान पर रख दें, दवा तैयार।
सुपाच्य व हल्का नाश्ता करने के बाद इस काढ़े की तीन खुराकें प्रत्येक तीन घंटे बाद प्रातः लें। खुराक लेने से पहले पेट एक दम खाली नहीं होना चाहिए। लगातार पंद्रह दिन तक इसे लेने से हृदय पुनः स्वस्थ हो जाता है और फिर दिल का दौरा पड़ने की संभावना नहीं रहती। दिल के रोगी इस नुस्खे का एक बार प्रयोग अवश्य करें। प्रयोगकाल में तली चीजें, चावल आदि न लें। मांस, मछली, अंडे, शराब, धूम्रपान का प्रयोग बंद कर दें। नमक, चिकनाई का प्रयोग बंद कर दें। अनार, पपीता, आंवला, बथुआ, लहसुन, मैथी दाना, सेब का मुरब्बा, मौसंबी, रात में भिगोए काले चने, किशमिश, गुग्गुल, दही, छाछ आदि लें । पीपल के पत्ते में दिल को बल और शांति देने की अद्भुत क्षमता ह, संभवत: पीपल-पत्र का हृदयाकार यही बताता है।
***
एक हाइकु-
बहा पसीना
चमक उठी देह
जैसे नगीना।
***
नवगीत:
जितनी रोटी खायी
की क्या उतनी मेहनत?
.
मंत्री, सांसद मान्य विधायक
प्राध्यापक जो बने नियामक
अफसर, जज, डॉक्टर, अभियंता
जनसेवक जन-भाग्य-नियंता
व्यापारी, वकील मुँह खोलें
हुए मौन क्यों?
कहें न तुहमत
.
श्रमिक-किसान करे उत्पादन
बाबू-भृत्य कर रहे शासन
जो उपजाए वही भूख सह
हाथ पसारे माँगे राशन
कब बदलेगी परिस्थिति यह
करें सोचने की
अब ज़हमत
.
उत्पादन से वेतन जोड़ो
अफसरशाही का रथ मोड़ो
पर्यामित्र कहें क्यों पिछड़ा?
जो फैलाता कैसे अगड़ा?
दहशतगर्दों से भी ज्यादा
सत्ता-धन की
फ़ैली दहशत
१६-१२-२०१४
***
वंशी और वास्तु :
(बांसुरीवादन व स्थापन से वास्तुदोष परिहार)
वंशी का पौराणिक इतिहास:
भगवान श्रीकृष्ण और वंशी एक दुसरे के बिना अधूरे हैं, प्रभु श्रीकृष्ण की वंशी तो शब्दब्रह्म का प्रतीक है। ऐसा भी समझा जाता है कि बांसनिर्मित वंशी के आविष्कारक संभवतः कन्हैयाजी ही हैं | साथ-साथ ऐसा भी कहा जाता है की ब्रह्मा के किसी शाप वश उनकी मानस पुत्री माँ सरस्वती को बॉस रूपी जड़रूप में धरती पर आना पडा था किन्तु किसी संयोग वश जड़ होने से पूर्व उन्होंने एक सहस्त्र वर्ष तक भगवत-प्राप्ति के लिए तपस्या की, जिससे प्रसन्न होकर प्रभु ने कृष्णावतार में उन्हें अपनी सहचरी बनाने का वरदान दिया | तब उन्होंने ब्रह्माजी के शाप का स्मरण करके प्रभु से कहा, " हे प्रभु! मैं तो जड़बांस के रूप में जन्म लेने के लिए श्रापग्रस्त हूँ |" यह सुनकर प्रभु ने कहा, "यद्यपि तुम्हें जन्म चाहे जड़ रूप में मिलेगा, तथापि मैं तुम्हें अपनाकर तुम में ऐसी प्राण-शक्ति अवश्य भर दूंगा जिससे तुम एक विलक्षण चेतना का अनुभव करके अपनी जड़ों को सदैव के लिए चैतन्य बनाए रख सकोगी |" तब से इस जगत में प्रभु के अधरों पर वंशी, मुरली, वेणु या बांसुरी के रूप में वस्तुतः ब्रह्मा जी की मानस पुत्री सरस्वती जी ही निरंतर विराजमान हैं | वंशी या बांसुरी का वर्णन सबसे पहले सामवेद में ही मिलता है | वस्तुतः बांसुरी संगीत के सप्त स्वरों की एक साथ प्रस्तुति का सर्वोत्तम वाद्ययंत्र है |
वंशी, मुरली, वेणु या बांसुरी की मधुर धुन तन-मन को परमानंद से भर देती है | यह क्या जड़ क्या चेतन सभी के मन का हरण कर लेती है इसके गीत की धुन सुनकर गोपियाँ अपनी सुध-बुध तक खो बैठती थीं. गोपियाँ तो गोपियाँ, वहां की सारी गायें तक इस धुन से आकर्षित होकर कन्हैया के सम्मुख आ उपस्थित होती थीं | वंशी की तान सुनकर आज भी हम सभी को असीमित आनंद की अनुभूति होती है | कहा जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने गोपियों के लिए इसे बजाने से पूर्व एक बार इसकी अभूतपूर्व परीक्षा भी ली थी | एक दिन उनके वंशीवादन करते ही वास्तव में यमुना की गति ही रूक गई तदनंतर एक दिन वृन्दावन के पाषाण तक वंशी ध्वनि का श्रवण कर द्रवीभूत हो उठे साथ-साथ पशु-पक्षी व देवताओं के विमान आदि की गति भी रूक गई, जिससे सभी स्तब्ध हो उठे | इस प्रकार जब वंशी की पूर्ण परीक्षा हो गई तब श्यामसुन्दर ने अपनी ब्रजगोपांगनाओं के लिए वंशी बजाई | जिन ब्रजदेवियों ने वंशीगीत सुना वे सभी अपनी सुधबुध ही खो बैठीं साथ-साथ उन सभी के अंत करण में किशोर श्यामसुन्दर का सुन्दर मनोहारी स्वरूप विराजमान हो गया | ब्रह्म, रूद्र, इन्द्र आदि ने भी उस वंशी का सुर सुना, वे सभी एक विशेष भाव में मुग्ध तो हुए, उनमें से किसी-किसी की समाधि भी भंग हुई परन्तु वंशी का तात्विक रहस्य निश्चिंत रूपेण उस समय किसी को भी ज्ञात न हो सका | यह भी कहा जाता है कि एक बार राधा जी ने बांसुरी से पूछा, "हे बांसुरी! यह बताइये कि मैं कृष्ण जी को इतना प्रेम करती हूं, फिर भी मैं अनुभव कर रही हूँ कि मेरे श्याम मुझसे अधिक तुमसे प्रेम करते है, वह तुम्हे सदैव ही अपने होठों से लगाये रखते है, इसका क्या राज है? तब विनीत भाव से बांसुरी ने सुरीले स्वर में कहा, "प्रिय राधे! प्रभु के प्रेम में पहले मैंने अपने तन को कटवाया, फिर से काट-छाँट कर अलग करके जलती आग में तपाकर सीधी की गई, तद्पश्चात मैंने अपना मन भी कटवाया, अर्थात बीच में से आर-पार एकदम पूरी की पूरी खाली कर दी गई | फिर जलते हुए छिद्रक से समस्त अंग-अंग छिदवाकर स्वयं में अनेक सुराख़ करवाये | तदनंतर कान्हा ने मुझे जैसे बजाना चाहा मै ठीक वैसे ही अर्थात उनके आदेशानुसार ही बजी |अपनी मर्ज़ी से तो मैं कभी भी नहीं बज सकी | बस हममें व तुममें एकमात्र यही अंतर है कि मैं कन्हैया की मर्ज़ी से चलती हूं और तुम कृष्णजी को अपनी मर्ज़ी से चलाना चाहती हो!" वस्तुतः यह प्रेम में त्याग व समर्पण की पराकाष्ठा है | वंशी हमें सदैव यही सन्देश देती है कि हम अपने प्रभु की इच्छानुसार ही सत्कर्म करके अपना जीवनमार्ग प्रशस्त करें ! यह कदापि उचित नहीं कि हम अपने हठयोग से उन्हें विवश करें कि प्रभु हमारे जीवनमार्ग का निर्धारण हमारी इच्छानुसार ही करें |
वास्तु दोष परिहार :
एक समय था जब अधिकाँश घरों में कोई न कोई व्यक्ति वंशी बजाने में प्रवीण होता ही होता था | यहाँ तक कि अपने लोक गीतों में भी कहा गया है कि "देवर जी आवैं वंशी बजावैं" किन्तु आज के आधुनिक दौर में अपने देश में गिने चुने बांसुरीवादक ही रह गए हैं जबकि विदेशों में इसे अत्यंत सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है | चायना जैसे देश में तो अधिकांश लडकियाँ तक बांसुरी वादन में प्रवीण हैं वहां की वास्तु विद्या फेंगशुई के अनुसार वास्तु दोष के निवारण हेतु बांस की बांसुरी का प्रयोग अति उत्तम है लो पिच पर उत्पन्न की गयी इसकी शंख समान ध्वनि से आस-पास के वातावरण में व्याप्त सूक्ष्म वायरस तक नष्ट हो जाते हैं | यह धनात्मक ऊर्जा का सर्वश्रेष्ठ स्रोत है जिसकी उपस्थिति में नकारात्मक ऊर्जा नष्ट हो जाती है | फेंग-शुई में ऐसी मान्यता है कि इसे लाल धागे में बाँध कर भवन के मुख्य द्वार पर क्रास रूप में दो बांसुरी एक साथ लगाने से भवन में नकारात्मक ऊर्जा का प्रवेश नहीं हो पाता है और अचानक आने वाली मुसीबतें दूर हो जाती हैं | शिक्षा, व्यवसाय या नौकरी में बाधा आने पर शयन कक्ष के दरवाजे पर दो बांसुरियों को लगाना शुभ फलदायी होता है | ऐसी भी मान्यता है कि बीम के नीचे बैठकर काम करने, भोजन करने व सोने से दिमागी बोझ व अशान्ति बनी रहती है किन्तु उसी बीम के नीचे यदि लाल धागे में बांधकर बांसनिर्मित वंशी लटका दी जाय तो इस दोष का परिहार हो जाता है | बीमार व्यक्ति के तकिये के नीचे बांसुरी रखने से रोगमुक्ति होगी है | यह भी मान्यता है कि यदि घर के अंदर किसी तरह की बुरी आत्मा या अशुभ चीजों का संदेह हो तो इसे घर की दीवार पर तलवार की तरह लटकाकर इन चीजों से घर को मुक्त किया जा सकता है साथ-साथ यदि वैवाहिक जीवन ठीक न चल रहा हो तो सोते-समय इसे सिराहने के नीचे रखने से आपसी तनाव आदि दूर हो जाता है | जन्माष्टमी के दिन बांसुरी को सजाकर भगवान कृष्ण के समझ रखकर इसकी पूजा करने से घर में सुख-समृद्धि बनी रहती है | धर्मग्रंथों के अनुसार भगवान् श्रीकृष्ण को बांसुरी अत्यधिक प्रिय है और वे इसे सदैव अपने साथ ही रखते हैं इसी कारण से इसे अति पवित्र व पूज्यनीय माना जाता है | यह भी भगवान् श्रीकृष्ण का वरदान ही है कि जिस स्थान पर बांसुरीवादन होता रहता है वह स्थान वास्तुदोष जनित दुष्प्रभावों व बीमारियों से पूर्णतः सुरक्षित रहता है | वहां पर परिवार के सदस्यों के विचार सकारात्मक हो जाते हैं जिससे उन्हें सभी कार्यों में सफलता प्राप्त होती है | बांसुरी से निकलने वाला स्वर प्रेम बरसाने वाला ही है | इसी वजह से जिस घर में बांस निर्मित बांसुरी रखी होती है वहां पर प्रेम और धन की कोई कमी नहीं रहती है साथ साथ सभी दुःख व आर्थिक तंगी भी दूर हो जाती है |
सहज उपलब्धता :
बजाने योग्य वंशी आमतौर पर वाद्ययंत्रों की दुकानों पर सहजता से उपलब्ध हो जाती है | वैसे तो अक्सर किसी भी मेले में बांसुरी बेचने वाले दिखाई दे जाते हैं किन्तु उनके पास बहुत छाँट-बीन करने के उपरान्त भी बहुत कम ही बजाने योग्य बाँसुरियाँ उपलब्ध हो पाती हैं | कुंछएक बैंड की दुकानों पर भी बिक्री के लिए यह उपलब्ध हो जाती है | इसके विभिन्न ट्यून की तेरह, अठारह व चौबीस बांसुरियों के ट्यून्ड सेट भी उपलब्ध हो जाते हैं जिनकी अधिकतर आपूर्ति उत्तर प्रदेश के पीलीभीत शहर से की जाती है | नबी एण्ड संस यहाँ के प्रमुख बांसुरी निर्माता हैं जो विदेशों तक में बांसुरी का निर्यात करते हैं | पीलीभीत को बांसुरी नगरी के नाम से भी जाना जाता है |
कुछ प्रसिद्द व प्रमुख बांसुरी वादक :
भगवान् श्रीकृष्ण (सर्वश्रेष्ठ बांसुरी वादक)
पंडित पन्नालाल घोष
पंडित भोलानाथ
पंडित हरिप्रसाद चौरसिया
पंडित रघुनाथ सेठ
पंडित विजय राघव राव
पंडित देवेन्द्र
पंडित देवेन्द्र गुरूदेश्वर
पंडित रोनू मजूमदार
पंडित रूपक कुलकर्णी
बांसुरी वादक श्री राजेंद्र प्रसन्ना
बांसुरी वादक श्री एन रामानी
बांसुरी वादक श्री समीर राव
पंडित प्रमोद बाजपेयी (वरिष्ठ एडवोकेट)
स्वैच्छिक बांसुरी वादक श्री नरेन्द्र मोदी (वर्तमान प्रधानमंत्री भारत सरकार)
स्वैच्छिक बांसुरी वादक श्री लालकृष्ण आडवानी (वरिष्ठ राजनेता)
स्वैच्छिक बांसुरी वादक श्री मुक्तेश चन्द्र (पुलिस कमिश्नर)
बांसुरी वादक श्री बलबीर कुमार (कनॉट प्लेस सब वे पर बांसुरी विक्रेता व बांसुरी-शिक्षक) आदि..
आज के दौर में बांसुरी वादकों की संख्या बहुत ही कम रह गयी है | कहीं-कहीं पर ये खोजने से भी नहीं मिल पाते हैं | इसका प्रमुख कारण हमारे संस्कारों की क्षति व पश्चिमी सभ्यता का अन्धानुकरण ही है | हमारी सरकारों व समाज को इस ओर ध्यान देकर बांसुरीवादकों के लिए सम्मानजनक रोजगार के पर्याप्त अवसर उपलब्ध कराने चाहिए |
मुक्तक:
अधरों पर मुस्कान, आँख में चमक रहे
मन में दृढ़ विश्वास, ज़िन्दगी दमक कहे
बाधा से संकल्प कहो कब हारा है?
आओ! जीतो, यह संसार तुम्हारा है
***
दोहा:
पलकर पल भर भूल मत, पालक का अहसान
गंध हीन कटु स्वाद पर, पालक गुण की खान
१६-१२-२०१४
*

शनिवार, 8 जुलाई 2023

चित्रगुप्त, कमल, नवगीत, कमलिनी, लोकोक्ति

॥ ॐ यमाय धर्मराजाय श्री चित्रगुप्ताय वै नमः ॥
कायस्थ - धर्मराज चित्रगुप्त के वंसज
वर्ण / जति - द्विज -क्षत्रिय ( राजन्य कायस्थ )
गरुड़ पुराण में कहा गया है कि चित्रगुप्त का राज्य सिंहासन यमपुरी में है और वो अपने न्यायालय में मनुष्यों के कर्मों के अनुसार उनका न्याय करते हैं तथा उनके कर्मों का लेखा जोखा रखते हैं, जो कि निम्नवत स्पष्ट हैं :-
‘धर्मराज चित्रगुप्त: श्रवणों भास्करादय: कायस्थ तत्र पश्यनित पाप पुण्यं च सर्वश:’
चित्रगुप्तम, प्रणम्यादावात्मानं सर्वदेहीनाम। कायस्थ जन्म यथाथ्र्यान्वेष्णे नोच्यते मया।।
☻ भवन्तौ क्षत्रवर्णस्थौ द्विजन्मनौ महाशयी । कृतोप वितीनो स्थान वेद शस्त्रधिकारिणी ॥ (पद्म पुराण )
" चित्रगुप्त को क्षत्रिय वर्ण का बताते हुए कहा गया है की वेदो को समझने व् ज्ञान रखने के वजह से आप यज्ञोपवीत के अधिकारी हैं जिन्हे द्विज -क्षत्रिय कहा जाता है । "
कमलाकरभट्ट क्रित वृहत्ब्रहम्खण्ड् में लिखा है-
भवान क्षत्रिय वर्णश्च समस्थान समुद्भवात्। कायस्थ्: क्षत्रिय: ख्यातो भवान भुवि विराजते॥
☻चित्र वचो मयागुप्तम् चित्रगुप्त स्मृत बुधै । सः गत्वा कोट नगरे चंडी भजन तत्परः ॥ (पद्म पुराण )
" आपका निवास संयम नगरी में है जो नगरकोट में है और आप चंडी के उपाशक हो । "
विष्णु धर्म सूत्र (विष्णु स्मृति ग्रंथ के प्रथम परिहास के प्रथम श्लोक में तो कायस्थ को परमेश्वर का रुप कहा गया है।
येनेदम स्वैच्छया, सर्वम, माययाम्मोहितम जगत। स जयत्यजित: श्रीमान कायस्थ: परमेश्वर:।।
स्कंद पुराण में कायस्थ के सात लक्षणों को बताया गया है ।
" विद्या वाश्च्य शुचि; धीरो , दाता परोप्कराकः ! राज्य सेवी , क्षमाशील; कायस्थ सप्त लक्षणा ; !!
यजुर्वेद आपस्तम्ब शाखा चतुर्थ खंड यम विचार प्रकरण से ज्ञात होता है कि महाराज चित्रगुप्त के वंसज चित्ररथ ( चैत्ररथ ) जो चित्रकुट के महाराजाधिराज थे और गौतम ऋषि के शिष्य थे ।
बहौश्य क्षत्रिय जाता कायस्थ अगतितवे। चित्रगुप्त: सिथति: स्वर्गे चित्रोहिभूमण्डले।।
चैत्ररथ: सुतस्तस्य यशस्वी कुल दीपक:। ऋषि वंशे समुदगतो गौतमो नाम सतम:।।
तस्य शिष्यो महाप्रशिचत्रकूटा चलाधिप:।।
“प्राचीन काल में क्षत्रियों में कायस्थ इस जगत में हुये उनके पूर्वज चित्रगुप्त स्वर्ग में निवास करते हैं तथा उनके पुत्र चित्र इस भूमण्डल में सिथत है उसका पुत्र (वंसज ) चैत्रस्थ अत्यन्त यशस्वी और कुलदीपक है जो ऋषि-वंश के महान ऋषि गौतम का शिष्य है वह अत्यन्त महाज्ञानी परम प्रतापी चित्रकूट का राजा है।”
यमांश्चैके-यमायधर्मराजाय मृतयवे चान्तकाय च। वैवस्वताय, कालाय, सर्वभूत क्षयाय च।।
औदुम्बराय, दघ्नाय नीलाय परमेषिठने। वृकोदराय, चित्रायत्र चित्रगुप्ताय त नम:।।
एकैकस्य-त्रीसित्रजन दधज्जला´जलीन। यावज्जन्मकृतम पापम, तत्क्षणा देव नश्यति।।
यम, धर्मराज, मृत्यु, अन्तक, वैवस्वत, काल, सर्वभूतों का क्षय करने वाले, औदुम्बर, चित्र, चित्रगुप्त, एकमेव, आजन्म किये पापों को तत्क्षण नष्ट कर सकने में सक्षम, नील वर्ण आदि विशेषण चित्रगुप्त के परमप्रतापी स्वरूप का बखान करते हैं। पुणयात्मों के लिए वे कल्याणकारी और पापियों के लिए कालस्वरूप है।
☻द्विज - हिन्दू रीती रिवाज के अनुसार जनेऊ ( यज्ञोपवीत ) कराने के बाद दूसरा जन्म मानते हैं जो जातियां इन्हे करती हैं द्विज कहलाती है ।
☻द्विज -क्षत्रिय :- प्राचीन वेद ज्ञान परंपरा के अनुसार ब्राहमणो के सामान वेद ज्ञानी क्षत्रिय को द्विज क्षत्रिय कहा गया है ।

॥ जय माँ चंडी जय धर्मराज ॥

नवगीत:

पैर हमारे लात हैं....
संजीव 'सलिल'
*
*
पैर हमारे लात हैं,
उनके चरण कमल.
ह्रदय हमारे सरोवर-
उनके हैं पंकिल...
*
पगडंडी काफी है हमको,
उनको राजमार्ग भी कम है.
दस पैसे में हम जी लेते,
नब्बे निगल रहा वह यम है.
भारतवासी आम आदमी -
दो पाटों के बीच पिस रहे.
आँख मूँद जो न्याय तौलते
ऐश करें, हम पैर घिस रहे.
टाट लपेटे हम फिरें
वे धारे मलमल.
धरा हमारा बिछौना
उनका है मखमल...
*
अफसर, नेता, जज, व्यापारी,
अवसरवादी-अत्याचारी.
खून चूसते नित जनता का,
देश लूटते भ्रष्टाचारी.
हम मर-खप उत्पादन करते,
लूट तिजोरी में वे भरते.
फूट डाल हमको लड़वाते.
थाना कोर्ट जेल भिजवाते.
पद-मद उनका साध्य है,
श्रम है अपना बल.
वे चंचल ध्वज, 'सलिल' हम
हैं नींवें अविचल...
*
पुष्कर, पुहुकर, नीलोफर हम,
उनमें कुछ काँटें बबूल के.
कुई, कुंद, पंकज, नीरज हम,
वे बैरी तालाब-कूल के.
'सलिल'ज क्षीरज हम, वे गगनज
हम अपने हैं, वे सपने हैं.
हम हरिकर, वे श्रीपद-लोलुप
मनमाने थोपे नपने हैं.
उन्हें स्वार्थ आराध्य है,
हम न चाहते छल.
दलदल वे दल बन करें
हम उत्पल शतदल...
अभिनव प्रयोग- गीत: कमल-कमलिनी विवाह संजीव 'सलिल'
कमल-कमलिनी विवाह
संजीव 'सलिल'
*
* रक्त कमल
अंबुज शतदल कमल
अब्ज हर्षाया रे!
कुई कमलिनी का कर
गहने आया रे!...
*
* हिमकमल
अंभज शीतल उत्पल देख रहा सपने
बिसिनी उत्पलिनी अरविन्दिनी सँग हँसने
कुंद कुमुद क्षीरज अंभज नीरज के सँग-
नीलाम्बुज नीलोत्पल नीलोफर भी दंग.
कँवल जलज अंबोज नलिन पुहुकर पुष्कर
अर्कबन्धु जलरुह राजिव वारिज सुंदर
मृणालिनी अंबजा अनीकिनी वधु मनहर
यह उसके, वह भी
इसके मन भाया रे!...
*
* नील कमल
बाबुल ताल, तलैया मैया हँस-रोयें
शशिप्रभ कुमुद्वती कैरविणी को खोयें.
निशापुष्प कौमुदी-करों मेंहदी सोहे.
शारंग पंकज पुण्डरीक मुकुलित मोहें.
बन्ना-बन्नी, गारी गायें विष्णुप्रिया.
पद्म पुंग पुन्नाग शीतलक लिये हिया.
रविप्रिय श्रीकर कैरव को बेचैन किया
अंभोजिनी अंबुजा
हृदय अकुलाया रे!...
*
श्वेत कमल
चंद्रमुखी-रविमुखी हाथ में हाथ लिये
कर्णपूर सौगन्धिक श्रीपद साथ लिये.
इन्दीवर सरसिज सरोज फेरे लेते.
मौन अलोही अलिप्रिय सात वचन देते.
असिताम्बुज असितोत्पल-शोभा कौन कहे?
सोमभगिनी शशिकांति-कंत सँग मौन रहे.
'सलिल'ज हँसते नयन मगर जलधार बहे
श्रीपद ने हरिकर को
पूर्ण बनाया रे!...
***************
* ब्रम्ह कमल
टिप्पणी:
* कमल, कुमुद, व कमलिनी का प्रयोग कहीं-कहीं भिन्न पुष्प प्रजातियों के रूप में है, कहीं-कहीं एक ही प्रजाति के पुष्प के पर्याय के रूप में. कमल के रक्तकमल, नीलकमल तथा श्वेतकमल तीन प्रकार रंग के आधार पर वर्णित हैं. कमल-कमलिनी का विभाजन बड़े-छोटे आकार के आधार पर प्रतीत होता है. कुमुद को कहीं कमल, कहीं कमलिनी कहा गया है. कुमद के साथ कुमुदिनी का भी प्रयोग हुआ है. कमल सूर्य के साथ उदित होता है, उसे सूर्यमुखी, सूर्यकान्ति, रविप्रिया आदि कहा गया है. रात में खिलनेवाली कमलिनी को शशिमुखी, चन्द्रकान्ति, रजनीकांत, कहा गया है. रक्तकमल के लाल रंग की श्री तथा हरि के कर-पद पल्लवों से समानता के कारण हरिपद, श्रीकर जैसे पर्याय बने हैं, सूर्य, चन्द्र, विष्णु, लक्ष्मी, जल, नदी, समुद्र, सरोवर आदि से जन्म के आधार पर बने पर्यायों के साथ जोड़ने पर कमल के अनेक और पर्यायी शब्द बनते हैं. मुझसे अनुरोध था कि कमल के सभी पर्यायों को गूँथकर रचना करूँ. माँ शारदा के श्री चरणों में यह कमल-माल अर्पित कर आभारी हूँ. सभी पर्यायों को गूंथने पर रचना अत्यधिक लंबी होगी. पाठकों की प्रतिक्रिया ही बताएगी कि गीतकार निकष पर खरा उतर सका या नहीं?
* कमल हर कीचड़ में नहीं खिलता. गंदे नालों में कमल नहीं दिखेगा भले ही कीचड़ हो. कमल का उद्गम जल से है इसलिए वह नीरज, जलज, सलिलज, वारिज, अम्बुज, तोयज, पानिज, आबज, अब्ज है. जल का आगर नदी, समुद्र, तालाब हैं... अतः कमल सिंधुज, उदधिज, पयोधिज, नदिज, सागरज, निर्झरज, सरोवरज, तालज भी है. जल के तल में मिट्टी है, वहीं जल और मिट्टी में मेल से कीचड़ या पंक में कमल का बीज जड़ जमता है इसलिए कमल को पंकज कहा जाता है. पंक की मूल वृत्ति मलिनता है किन्तु कमल के सत्संग में वह विमलता का कारक हो जाता है. क्षीरसागर में उत्पन्न होने से वह क्षीरज है. इसका क्षीर (मिष्ठान्न खीर) से कोई लेना-देना नहीं है. श्री (लक्ष्मी) तथा विष्णु की हथेली तथा तलवों की लालिमा से रंग मिलने के कारण रक्त कमल हरि कर, हरि पद, श्री कर, श्री पद भी कहा जाता किन्तु अन्य कमलों को यह विशेषण नहीं दिया जा सकता. पद्मजा लक्ष्मी के हाथ, पैर, आँखें तथा सकल काया कमल सदृश कही गयी है. पद्माक्षी, कमलाक्षी या कमलनयना के नेत्र गुलाबी भी हो सकते हैं, नीले भी. सीता तथा द्रौपदी के नेत्र क्रमशः गुलाबी व् नीले कहे गए हैं और दोनों को पद्माक्षी, कमलाक्षी या कमलनयना विशेषण दिए गये हैं. करकमल और चरणकमल विशेषण करपल्लव तथा पदपल्लव की लालिमा व् कोमलता को लक्ष्य कर कहा जाना चाहिए किन्तु आजकल चाटुकार कठोर-काले हाथोंवाले लोगों के लिये प्रयोग कर इन विशेषणों की हत्या कर देते हैं. श्री राम, श्री कृष्ण के श्यामल होने पर भी उनके नेत्र नीलकमल तथा कर-पद रक्तता के कारण करकमल-पदकमल कहे गये. रीतिकालिक कवियों को नायिका के अन्गोंपांगों के सौष्ठव के प्रतीक रूप में कमल से अधिक उपयुक्त अन्य प्रतीक नहीं लगा. श्वेत कमल से समता रखते चरित्रों को भी कमल से जुड़े विशेषण मिले हैं. मेरे पढ़ने में ब्रम्हकमल, हिमकमल से जुड़े विशेषण नहीं आये... शायद इसका कारण इनका दुर्लभ होना है. इंद्र कमल (चंपा) के रंग चम्पई (श्वेत-पीत का मिश्रण) से जुड़े विशेषण नायिकाओं के लिये गर्व के प्रतीक हैं किन्तु पुरुष को मिलें तो निर्बलता, अक्षमता, नपुंसकता या पाण्डुरोग (पीलिया ) इंगित करते हैं. कुंती तथा कर्ण के पैर कोमलता तथा गुलाबीपन में साम्यता रखते थे तथा इस आधार पर ही परित्यक्त पुत्र कर्ण को रणांगन में अर्जुन के सामने देख-पहचानकर वे बेसुध हो गयी थीं.
* हिम कमल: विकिपीडिया, एक मुक्त ज्ञानकोष से चीन के सिन्चांग वेवूर स्वायत्त प्रदेश में खड़ी थ्येनशान पर्वत माले में समुद्र सतह से तीन हजार मीटर ऊंची सीधी खड़ी चट्टानों पर एक विशेष किस्म की वनस्पति उगती है, जो हिम कमल के नाम से चीन भर में मशहूर है। हिम कमल का फूल एक प्रकार की दुर्लभ मूल्यवान जड़ी बूटी है, जिस का चीनी परम्परागत औषधि में खूब प्रयोग किया जाता है। विशेष रूप से ट्यूमर के उपचार में, लेकिन इधर के सालों में हिम कमल की चोरी की घटनाएं बहुत हुआ करती है, इस से थ्येन शान पहाड़ी क्षेत्र में उस की मात्रा में तेजी से गिरावट आयी। वर्ष 2004 से हिम कमल संरक्षण के लिए व्यापक जनता की चेतना उन्नत करने के लिए प्रयत्न शुरू किए गए जिसके फलस्वरूप पहले हिम कमल को चोरी से खोदने वाले पहाड़ी किसान और चरवाहे भी अब हिम कमल के संरक्षक बन गए हैं।
***
विमर्श
रूढ़ियाँ और तथ्य
पिछले दिनों लेखिकाओं की आपबीती बयान करने वाली तथा नारी की निष्ठुर नियति का सर्जनात्मक चित्रण करने वाली आत्मकथाओं के अंशों का संकलन कर सुविख्यात कथाकार, सम्पादक और चिन्तक राजेन्द्र यादव के सम्पादन में प्रकाशित पुस्तक ’देहरी भई बिदेस’ की चर्चा चली तो हमारे मानस में वह दिलचस्प और रोमांचक तथ्य फिर उभर आया कि बहुधा कुछ उक्तियाँ, फिकरे या उद्धरण लोककंठ में इस प्रकार समा जाते हैं कि कभी-कभी तो उनका आगा-पीछा ही समझ में नहीं आता, कभी यह ध्यान में नहीं आता कि वह उद्धरण ही गलत है, कभी उसके अर्थ का अनर्थ होता रहता है और पीढी-दर-पीढी हम उस भ्रान्ति को ढोते रहते हैं जो उस फिकरे में लोककंठ में आ बसी है।
’देहरी भई बिदेस’ भी ऐसा ही उद्धरण है जो कभी था नहीं, किन्तु सुप्रसिद्ध गायक कुन्दनलाल सहगल द्वारा गाई गई कालजयी ठुमरी में भ्रमवश इस प्रकार गा दिये जाने के कारण ऐसा फैला कि इसे गलत बतलाने वाला पागल समझे जाने के खतरे से शायद ही बच पाये।
पुरानी पीढी के वयोवृद्ध गायकों को तो शायद मालूम ही होगा कि वाजिद अली शाह की सुप्रसिद्ध शरीर और आत्मा के प्रतीकों को लेकर लिखी रूपकात्मक ठुमरी "बाबुल मोरा नैहर छूटो जाय" सदियों से प्रचलित है जिसके बोल लोककंठ में समा गये हैं - "चार कहार मिलि डोलिया उठावै मोरा अपना पराया छूटो जाय" आदि। उसमें यह भी रूपकात्मक उक्ति है - "देहरी तो परबत भई, अँगना भयो बिदेस, लै बाबुल घर आपनो मैं चली पिया के देस"। जैसे परबत उलाँघना दूभर हो जाता है वैसे ही विदेश में ब्याही बेटी से फिर देहरी नहीं उलाँघी जाएगी, बाबुल का आँगन बिदेस बन जाएगा। यही सही भी है, बिदेस होना आँगन के साथ ही फबता है, देहरी के साथ नहीं, वह तो उलाँघी जाती है, परबत उलाँघा नहीं जा सकता, अतः उसकी उपमा देहरी को दी गई। हुआ यह कि गायक शिरोमणि कुन्दनलाल सहगल किसी कारणवश बिना स्क्रिप्ट के अपनी धुन में इसे यूँ गा गये "अँगना तो परबत भया देहरी भई बिदेस" और उनकी गाई यह ठुमरी कालजयी हो गई। सब उसे ही उद्धृत करेंगे। बेचारे वाजिद अली शाह को कल्पना भी नहीं हो सकती थी कि बीसवीं सदी में उसकी उक्ति का पाठान्तर ऐसा चल पडेगा कि उसे ही मूल समझ लिया जाएगा। सहगल साहब तो ’चार कहार मिल मोरी डोलियो सजावैं" भी गा गये जबकि कहार डोली उठाने के लिए लगाये जाते हैं, सजाती तो सखियाँ हैं। हो गया होगा यह संयोगवश ही अन्यथा हम कालजयी गायक सहगल के परम प्रशंसक हैं।
नई पीढी को उस गीत की तो शायद याद भी नहीं होगी जो सुप्रसिद्ध सुगम संगीत गायक जगमोहन ने गाया था और गैर-फिल्मी सुगम संगीत में सिरमौर हो गया था - ’ये चाँद नहीं, तेरी आरसी है।’ उसमें गाते-गाते एक बार उनके मुँह से निकल गया "ये चाँद नहीं तेरी आरती है।" बरसों तक यह बहस चलती रही कि मूल पाठ में ’आरसी"शब्द है या ’आरती"।
लोकप्रसिद्धि और चलन में आ जाने के कारण खोटे-खरे सिक्के के अन्तर करने में तथा मूलतः किसी उक्ति का क्या आशय रहा होगा इसके निर्णय में कैसी मुश्किलें आती हैं इसके अनेक उदाहरण हैं। केवल दो-एक ही नमूने की दृष्टि से प्रस्तुत हैं। एक बहुत प्रसिद्ध लोकोक्ति है - ’अक्ल बडी कि भैंस "? इसका अर्थ दशकों से हमारे समझ में नहीं आता था, भला अक्ल और भैंस की तुलना क्यों की जा रही है ? क्या भैंस को बेअक्ल मानने के कारण ? हमने बुजुर्गों से पूछा तो जितने मुँह उतने निर्वचन सामने आये। कुछ ने कहा भैंस जैसी मोटी अक्ल की दृष्टि से यह कहा गया होगा। कुछ समझदारों ने यह तरीका निकाला कि यह मूलतः ’अक्ल बडी कि बहस"? रहा होगा। बहस करने से गलत को सही थोडे ही बताया जा सकता है। जिन्होंने यह समझाया कि हमारे यहाँ प्राचीनकाल से यह अवधारणा चली आ रही है कि केवल उम्रदराज होने से ही आदमी बडा नहीं हो जाता, जो बुद्धिमान है वही बडा होता है - "अक्ल बडी कि वयस (उम्र) "?, वह बात अवश्य हमारे गले उतरी। मनुस्मृति से लेकर आज तक संस् त की उक्ति प्रसिद्ध है कि जो बुद्धिमान है वह महान् है, केवल वयोवृद्ध नहीं, हमें ज्ञानवृद्ध होना चाहिए आदि। "अक्ल बडी कि वयस" में वयस भैंस हो गई। अपभ्रंश की यही तो सरणि होती है।
इसी प्रकार हमारे समय में इस लोकोक्ति का अर्थ कभी नहीं आया था - "दूर के ढोल सुहावने होते हैं।" लोगों ने बहुत विवेचन किया कि पास से ढोल कर्णकटु लगता है, दूर से ही सुहावना लगता है पर यह इसलिए ठीक नहीं लगा कि सुहावना दृश्य होता है, श्रव्य नहीं। इसका रहस्य तब समझ में आया जब संस् त की वह प्रसिद्ध सूक्ति ध्यान में आई जिसमंि कहा गया कि तीन चीजें दूर से ही सुहावनी लगती हैं - पहाड दूर से रम्य लगते हैं, वेश्या का शृंगार दूर से ही अच्छा लगता है, युद्ध की चर्चा ही अच्छी होती है, युद्ध वस्तुतः विनाशक होता है। ’दूरस्थाः पर्वता रम्याः" उक्ति सुप्रसिद्ध है। यह पहले राजस्थानी में गई ’दूर के टोल सुहावने लगते हैं" बनकर और हिन्दी में बन गई "दूर के ढोल" क्योंकि वहाँ ढोल नहीं होते। राजस्थानी में टोळ अनगढ पत्थर पहाडी, टीला आदि के लिए आता है जो ऊबड-खाबड होता है पर दूर से हरियाली आदि के कारण सुरम्य लगता है।
इसी प्रकार की एक प्रसिद्ध लोकोक्ति है - ’कहाँ राजा भोज, कहाँ गंगू तेली ’? इसका अर्थ समझे बिना हम इसका प्रयोग ऐसे अवसरों पर करते हैं जब कोई किसी अत्यन्त समर्थ या समृद्ध व्यक्ति की तुलना किसी दरिद्र से करने लगता है। इसका अर्थ भी किसी ने हमें सही ढंग से नहीं बतलाया था। हम यही समझते थे कि राजा भोज के राज में कोई तेली गंगाराम नाम का रहा होगा जिसकी तुलना राजा भोज से करना नितान्त हास्यास्पद माना गया। इस लोकोक्ति का सही अर्थ तब समझ में आया जब डॉ. विद्यानिवास मिश्र जैसे कुछ प्राच्य विद्याविदों ने मध्यकालीन इतिहास में एक तथ्य की ओर संकेत कर यह समझाया कि यह लोकोक्ति धारानगरी के नरेश राजा भोज की वीरता को लक्ष्य कर कही गई थी। भोज के समकालीन दो राज्य और थे जिन्होंने धारानगरी पर चढाई कर राजा भोज को हराना चाहा था। ये थे कलचुरिनरेश राजा गांगेय और चालुक्यनरेश तैलप। इन्होंने मिलकर राजा भोज पर आक्रमण किया था पर उसे नहीं हरा सके थे। ये ही गंगू और तेली हैं। दोनों मिलकर भी राजा भोज की बराबरी नहीं कर पाये यह बतलाने के लिए यह उक्ति चल पडी "कहाँ राजा भोज और कहाँ गंगू और तेली"? और हम समझते हैं कि गंगू नाम का एक कोई तेली था जिसकी तुलना राजा भोज से करने पर तुलना करने वाले की हँसी उडाई जाती है। डॉ. विद्यानिवास मिश्र ने अपने प्रसिद्ध निबन्ध "कलचुरियों की राजधानी" में इस सारे इतिहास का विवरण दिया है।
यह तो बात हुई लोकोक्तियों की जिनका अर्थ लगाने में भ्रान्तियों के कैसे-कैसे कुहासे हमारी दृष्टि को ढके रखते हैं इसका कुछ अन्दाजा अब आपको हो गया होगा। कुछ प्रसिद्ध दोहे भी ऐसे हैं जिनके अर्थ के बीच में कुहासे आ जाते हैं। बिहारी सतसई के दोहे प्रसिद्ध हैं। उनकी तारीफ में यह दोहा बहुत प्रचलित हो गया है - ;सतसैया के दोहरे ज्यों नावक के तीर’। देखन में छोटे लगैं, घाव करैं गंभीर। इसमें नावक के तीर क्या होते हैं यह तो हम समझते नहीं, इसे बोलते हैं "नाविक के तीर" क्योंकि नाविक का अर्थ हम जानते हैं नाव चलाने वाला। पर नाव चलाने वाला तो पतवार चलाता है, तीर नहीं चलाता। फिर इसका अर्थ क्या होगा ? इसका अर्थ भी मध्यकालीन "नावक" का अर्थ समझे बिना नहीं लगाया जा सकता। जब बारूद का प्रचलन हो गया तो नुकीले लोहे के तीर छोटी तोप में बारूद भरकर उससे इतनी जोर से छोडे जाते थे कि शरीर के आरपार भी हो जाते थे। इस छोटी तोपची या तोप को ही "नावक" कहा जाता था (यह फारसी शब्द है)। उससे चले तीर छोटे तो होते थे पर तेजी से घुस जाते थे शरीर में। ये नावक ज्यादातर ऊँट या हाथी की पीठ पर लादकर सेना के साथ ले जाए जाते थे। अब नावकों का चलन तो रहा नहीं, अतः हमें "नाविक" ही समझ में आता है और बडे-बडे विद्वान भी कुछ इसी प्रकार का अर्थ करने लग जाते हैं। क्या किया जाए ?
ये कुछ दिलचस्प उदाहरण है बहुप्रचलित भ्रान्तियों के। जब तक इनका वास्तविक अर्थ समझने के स्रोत उपलब्ध हैं तब तक भले ही इनका सही रहस्य हम समझ लें अन्यथा लोक प्रचलन अर्थ को कहाँ से कहाँ ले जा सकता है, इसका अन्दाजा आप इन्हें देखकर भलीभाँति लगा सकते हैं।
इसी प्रकार सामन्तकालीन अभिवादन शैली का एक वाक्यांश सदियों से सुप्रचलित है। जनतंत्र् के सुप्रतिष्ठित होने के बाद ऐसी अभिवादन शैलियाँ विरल अवश्य हो गई थीं, किन्तु सामन्तकालीन परिवेश पर बने दूरदर्शन आदि के धारावाहिकों के कारण यह अभिवादन फिर सुना जाने लगा है। यह है अनुयायियों, अधीनस्थों तथा कनिष्ठों आदि के द्वारा राजा, राजवर्गीय वरिष्ठ व्यक्ति या सामन्त के अभिवादन करते समय बोला जाने वाला वाक्यांश - ’घणी खम्मा’ या ’खम्मा घणी’। यह क्यों बोला जाता है इस पर हमें सदा जिज्ञासा रही थी। सदियों से अधिकांश लोग अर्थ समझे बिना इसे राजवर्गीय सम्मानित व्यक्ति को अभिवादन करते समय बोल देते थे। हाल ही में एक सीरियल में तो इसे उत्तर-प्रत्युत्तर शैली द्वारा इस प्रकार बोलते देखा गया है कि पहला ’घणी खम्मा’ कहता है, दूसरा प्रत्युत्तर में ’खम्मा घणी’ कहता है,जैसे ’सलाम अलैकुम’ सुनकर प्रत्युत्तर में ’अलैकुम अस सलाम"बोला जाता है।
अधिकतर लोग इसका अर्थ क्षमा शब्द से लगाते हैं और समझते हैं कि अभिवादक चाहता है कि उस पर घणी (बहुत) क्षमा रखी जाए, अर्थात् वह अपराध करता भी जाए तो उसे क्षमा किया जाता रहे। हमें सदा से यह जिज्ञासा रही थी कि ’क्षमा’ शब्द की बजाय ’ कृपा’, ’दया’ बनी रहे ऐसे शब्द उचित रहते, क्षमा तो गलती होने पर ही की जाती है। संस् त, प्रा त, राजस्थानी और मध्यकालीन इतिहास के परिनिष्ठित प्राचीन पंडितों से जब इसका रहस्य पूछा गया तो उन्होंने इसका जो अर्थ बताया उसे सुनकर हमें विनोदमिश्रित आश्चर्य हुआ, यह भय भी लगा कि यदि इसका यह वास्तविक अर्थ किसी को बताएँगे तो वह शायद ही विश्वास करे, हमें पागल भी समझ सकता है पर इसका वास्तविक रहस्य यही है।
वस्तुतः सामन्त लोग अपने राजा को इसी कामना के साथ अभिवादन करते थे कि ’आपकी दीर्घ आयु हो"। सर्वत्र् सामन्तीकाल में ऐसे ही अभिवादन होते थे जैसे अंग्रेजी में लॉङ्ग लिव द किंग अभिव्यक्ति सुविदित है। इसके लिए बोला जाता था ’घणी आयुष्यम्" (घणी आयु हो आपकी) राजस्थानी में आयुष्यम् ’आयुख्यम्म" बोला जाता है। अतः यों बोला जाता था यह वाक्यांश "घणी आयुख्यम्मा" धीरे-धीरे ’अ’ गायब हुआ, "युख्यम्मा’ रह गया, फिर ’यु’ भी गायब हुआ, ’घणी ख्यम्मा’ रह गया और आज जो बोला जाता है वह आप जानते ही हैं। ’ख्यम्मा घणी’ और ’घणी ख्यम्मा’ दोनों का अर्थ एक ही है, किन्तु जिस प्रकार चलन में इसका अपभ्रंश कर दिया है उसके कारण इसका वास्तविक अर्थ बतलाने वाला पागल या झाँसेबाज समझा जाएगा, इसमें कोई संदेह नहीं। हमने भी इस अर्थ को झाँसा ही समझा था पर जब मुनि जिनविजय जी से लेकर स्वामी नरोत्तमदास जी, पं. गोपालनारायण वहुरा आदि सभी ने इसी तथ्य की पुष्टि की तब हमें विश्वास हुआ।
चलन में सदियों से आकर शब्द किस प्रकार बदल जाते हैं इसके ठीक इसी प्रकार के अनेक उदाहरण वयोवृद्ध व्यक्तियों को आज भी याद होंगे, यद्यपि नई पीढी को तो वे शब्द ही अजूबा लग सकते हैं। राजस्थानी में एक शब्द बोला जाने लगा था ’’खैरसल्ला’। इसका प्रयोग कभी तो बात की समाप्ति हेतु होता था, कभी लापरवाही बताने के लिए, कभी ’सब कुछ चलता है’ के अर्थ में। इसका अर्थ क्या है यह भी जब विद्वानों ने बताया तो हमारी आँख खुली। पूरा वाक्य इस प्रकार बोला जाता था ’अल्ला-अल्ला, खैर सल्ला’ अर्थात् भगवान की कृपा से सब कुछ ठीक है। अल्ला अल्ला तो इसमें समझ में आता ही है ’खैर सल्ला’ क्या है ? यह वस्तुतः ’खैर-उल-इस्लाम’ का अपभ्रंश है जिसका अर्थ है इस्लाम की खैर हो। वह उसी पद्धति के अनुरूप बोला जाता था जिसमें ’अस सलाम अलैकुम’ बोलकर सवाल का जवाब दिया जाता है। ’खैर उल इस्लाम’, ’खैर सल्लाम’ बना, फिर ’खैर सुल्ला’ रह गया। आज इसका यह रहस्य बतलाने वाले को भी पागल समझा जाने का डर अवश्य लगेगा। हो सकता है ’खैर सल्ला’ ही कम लोगों ने सुना हो।
बहुत कम लोगों को यह मालूम होगा कि अंग्रेजी राज में रात को गश्त लगाने वाले संतरी (जो सेंटिनल शब्द का अपभ्रंश है) सुरक्षा के अन्तर्गत आने वाले स्थल के आगे घूमते रहते थे और कई बार यह नारा लगाते थे ’हुकम सदर’। हमने बाल्यकाल में (स्वतंत्र्ता से पूर्व अंग्रेजी राज में) जब यह फिकरा सुना तो इसका यही अर्थ समझा कि ’सदर’ (मालिक) के हुकम से यह हो रहा है पर इसका यह अर्थ नहीं था। जब पुलिस के सर्वोच्च अधिकारी ने इसका रहस्य समझाया तब विनोदमिश्रित आश्चर्य होना ही था। वस्तुतः यह अंग्रेजी वाक्य है जो संतरी किसी भी अजनबी को गश्त के समय देखते ही यह पूछने हेतु बोला था - ’तुम कौन हो’ ? ’कौन आ रहा है’ ? ’हू कम्स देयर’ ? (Who comes there ?) यह ’हुकमसदेयर’ हुआ, फिर ’हुकम सदर’ हो गया। ऐसे अनेक फिकरे हैं जो अन्य भाषाओं से हमारी अपनी भाषाओं में आते-आते बदल गए हैं, जिनका अध्ययन ज्ञानवर्धक और मनोरंजक होगा।
***

शनिवार, 8 जनवरी 2022

सॉनेट, दोहा, मुहावरा, कहावत, लोकोक्ति, धन

भारत की माटी 
*
जड़ को पोषण देकर 
नित चैतन्य बनाती।
रचे बीज से सृष्टि 
नए अंकुर उपजाति। 
पाल-पोसकर, सीखा-पढ़ाती। 
पुरुषार्थी को उठा धरा से 
पीठ ठोंक, हौसला बढ़ाती। 
नील गगन तक हँस पहुँचाती। 
किन्तु स्वयं कुछ पाने-लेने 
या बटोरने की इच्छा से 
मुक्त वीतरागी-त्यागी है। 
*
सुख-दुःख, 
धूप-छाँव हँस सहती। 
पीड़ा मन की 
कभी न कहती। 
सत्कर्मों पर हर्षित होती। 
दुष्कर्मों पर धीरज खोती।  
सबकी खातिर 
अपनी ही छाती पर
हल बक्खर चलवाती,
फसलें बोती। 
*
कभी कोइ अपनी जड़ या पग 
जमा न पाए। 
आसमान से गर गिर जाए। 
तो उसको 
दामन में अपने लपक छिपाती,
पीठ ठोंक हौसला बढ़ाती। 
निज संतति की अक्षमता पर 
ग़मगीं होती, राह दिखाती। 
मरा-मरा से राम सिखाती। 
इंसानों क्या भगवानो की भी 
मैया है भारत की माटी। 
***  
गीत 
आज नया इतिहास लिखें हम। 

अब तक जो बीता सो बीता 
अब न हास-घट होगा रीता 
अब न साध्य हो स्वार्थ सुभीता 
अब न कभी लांछित हो सीता 
भोग-विलास न लक्ष्य रहे अब 
हया, लाज, परिहास लिखें हम 

रहें न हमको कलश साध्य अब 
कर न सकेगी नियति बाध्य अब 
सेह-स्वेद-श्रम हो आराध्य अब 
पूँजी होगी महज माध्य अब
श्रम पूँजी का भक्ष्य न हो अब 
शोषक हित खग्रास लिखें हम  

मिल काटेंगे तम की कारा 
उजियारे के हों पाव बारा 
गिर उठ बढ़कर मैदां मारा 
दस दिश में गूँजे जयकारा।
कठिनाई में संकल्पों का 
कोशिश कर नव हास , लिखें हम  
आज नया इतिहास लिखें हम।  
*    
सॉनेट
तिल का ताड़
*
तिल का ताड़ बना रहे, भाँति-भाँति से लोग।
अघटित की संभावना, क्षुद्र चुनावी लाभ।
बौना खुद ओढ़कर, कहा न हो अजिताभ।।
नफरत फैला समझते, साध रहे हो योग।।

लोकतंत्र में लोक से, दूरी, भय, संदेह।
जन नेता जन से रखें, दूरी मन भय पाल।
गन के साये सिसकता, है गणतंत्र न ढाल।।
प्रजातंत्र की प्रजा को, करते महध अगेह।।

निकल मनोबल अहं का, बाना लेता धार।
निज कमियों का कर रहा, ढोलक पीट प्रचार।
जन को लांछित कर रहे, है न कहीं आधार।

भय का भूत डरा रहा, दिखे सामने हार।।
सत्ता हित बनिए नहीं, आप शेर से स्यार।।
जन मत हेतु न कीजिए, नौटंकी बेकार।।
८-१-२०२२
*
मनरंजन
मुहावरों ,लोकोक्तियों, गीतों में धन
संजीव
*
०१. टके के तीन।
०२. कौड़ी के मोल।
०३. दौलत के दीवाने
०४. लछमी सी बहू।
०५. गृहलक्ष्मी।
०६. नौ नगद न तरह उधार।
०७. कौड़ी-कौड़ी को मोहताज।
०८. बाप भला न भैया, सबसे भला रुपैया।
०९. घर में नईंयाँ दाने, अम्मा चली भुनाने।
१०. पुरुष पुरातन की वधु, क्यों न चंचला होय?
११. एक चवन्नी चाँदी की, जय बोलो महात्मा गाँधी की।
१२. पीर बबर्ची भिश्ती खर।
१३. पूत सपूत तो क्यों धन संचै, पूत कपूत तो क्यों धन संचै?
१४. फरेगा तो झरेगा।
१५. आए खाली हाथ हैं, जाना खाली हाथ।
१६. अंधेर नगरी चौपट राजा, टके सेर भाजी टके सेर खाजा।
१७. मिट्टी मोल।
१७. सूम का धन शैतान खाय।
१८, सामन सौ बरस का है, पल की खबर नहीं।
१९. सौ सुनार की एक लुहार की।
२०. पइसा ना कौड़ी, बाजार जाए दौड़ी।
२१. विप्र टहलुआ अजा धन और कन्या की बाढि़।
इतने से ना धन घटे तो, करैं बड़ेन सों रारि।
२२. धन के पन्द्रा मकर पचीस। जाड़ा परै दिना चालीस। (अवधी)
२२. सूमी का धन अइसे जाय। जइसे कुंजर कैथा खाय।
२३. सोनरवा की ठुक ठुक, लोहरवा की धम्म।
२४. खेल खिलाड़ी का, पैसा मदारी का।
२५. गरीबी में गीला आटा।
२६. खेल खतम, पैसा हजम। गीत
०१. आमदनी अठन्नी और खरचा रुपैया
तो भैया ना पूछो, ना पूछो हाल, नतीजा ठनठन गोपाल
०२. पाँच रुपैया, बारा आना, मारेगा भैया ना ना ना ना -चलती का नाम गाड़ी
०३. चाँदी की दीवार न तोड़ी, प्यार भरा दिल तोड़ दिया
एक धनवान की बेटी ने निर्धन का दमन छोड़ दिया
८-१-२०२१
***
दोहा सलिला

लज्जा या निर्लज्जता, है मानव का बोध
समय तटस्थ सदा रहे, जैसे बाल अबोध
८-१-२०१८

मंगलवार, 26 मई 2020

मुहावरे और कहावतें



मुहावरे / इडियम्स : मुहावरों एवं लोकोक्तियों का प्रयोग भाषा की सुंदर रचना हेतु आवश्यक माना जाता है। अपने साधारण अर्थ को छोड़ कर विशेष अर्थ को व्यक्त करने वाले वाक्यांश को मुहावरा कहते हैं। मुहावरा अरबी भाषा का शब्द है ,जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘अभ्यास’ । मुहावरा पूर्ण वाक्य नहीं होता है, इसीलिए इसका स्वतंत्र रूप से प्रयोग नहीं किया जा सकता है। सामान्य अर्थ का बोध न कराकर विशेष अथवा विलक्षण अर्थ का बोध कराने वाले पदबन्ध को मुहावरा कहते हैँ। इन्हेँ वाग्धारा भी कहते हैँ।

      मुहावरा एक ऐसा वाक्यांश है, जो रचना मेँ अपना विशेष अर्थ प्रकट करता है। रचना मेँ भावगत सौन्दर्य की दृष्टि से मुहावरोँ का विशेष महत्त्व है। इनके प्रयोग से भाषा सरस, रोचक एवं प्रभावपूर्ण बन जाती है। इनके मूल रूप मेँ कभी परिवर्तन नहीँ होता अर्थात् इनमेँ से किसी भी शब्द का पर्यायवाची शब्द प्रयुक्त नहीँ किया जा सकता। हाँ, क्रिया पद मेँ काल, पुरुष, वचन आदि के अनुसार परिवर्तन अवश्य होता है। मुहावरा अपूर्ण वाक्य होता है। वाक्य प्रयोग करते समय यह वाक्य का अभिन्न अंग बन जाता है। मुहावरे के प्रयोग से वाक्य मेँ व्यंग्यार्थ उत्पन्न होता है। अतः मुहावरे का शाब्दिक अर्थ न लेकर उसका भावार्थ ग्रहण करना चाहिए।
कहावतें / लोकोक्तियाँ / प्रोवर्ब या फोकलोर  : साधारणतया लोक में प्रचलित उक्तियों को लोकोक्ति कहा जाता है। लोक अनुभव से उपजी उक्तियों को लोकोक्ति कहा जाता है। यह समाज द्वारा लम्बे अनुभव से अर्जित किये गए ज्ञान या सत्य की वाक्य या वाक्यांश में की गई अभिव्यक्ति है।  लोकोक्तियाँ अंतर्कथाओं से भी संबंध रखती हैं। लोकोक्तियाँ स्वतंत्र वाक्य होती हैं, जिनमें एक पूरा भाव छिपा रहता है। किसी विशेष स्थान पर प्रसिद्ध हो जाने वाले कथन को 'लोकोक्ति' कहते हैं। जब कोई पूरा कथन किसी प्रसंग विशेष में उद्धत किया जाता है तो लोकोक्ति कहलाता है।
दूसरे शब्दों में- जब कोई पूरा कथन किसी प्रसंग विशेष में उद्धत किया जाता है तो लोकोक्ति कहलाता है। इसी को कहावत कहते है।
उदाहरण- 'उस दिन बात-ही-बात में राम ने कहा, हाँ, मैं अकेला ही कुँआ खोद लूँगा। इन पर सबों ने हँसकर कहा, व्यर्थ बकबक करते हो, अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता' । यहाँ 'अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता' लोकोक्ति का प्रयोग किया गया है, जिसका अर्थ है 'एक व्यक्ति के करने से कोई कठिन काम पूरा नहीं होता' ।
'लोकोक्ति' शब्द 'लोक + उक्ति' शब्दों से मिलकर बना है जिसका अर्थ है- लोक में प्रचलित उक्ति या कथन'। संस्कृत में 'लोकोक्ति' अलंकार का एक भेद भी है तथा सामान्य अर्थ में लोकोक्ति को 'कहावत' कहा जाता है।
चूँकि लोकोक्ति का जन्म व्यक्ति द्वारा न होकर लोक द्वारा होता है अतः लोकोक्ति के रचनाकार का पता नहीं होता। इसलिए अँग्रेजी में इसकी परिभाषा दी गई है- ' A proverb is a saying without an author' अर्थात लोकोक्ति ऐसी उक्ति है जिसका कोई रचनाकार नहीं होता।
वृहद् हिंदी कोश में लोकोक्ति की परिभाषा इस प्रकार दी गई है-

'विभिन्न प्रकार के अनुभवों, पौराणिक तथा ऐतिहासिक व्यक्तियों एवं कथाओं, प्राकृतिक नियमों और लोक विश्वासों आदि पर आधारित चुटीली, सारगर्भित, संक्षिप्त, लोकप्रचलित ऐसी उक्तियों को लोकोक्ति कहते हैं, जिनका प्रयोग किसी बात की पुष्टि, विरोध, सीख तथा भविष्य-कथन आदि के लिए किया जाता है।

'लोकोक्ति' के लिए यद्यपि सबसे अधिक मान्य पर्याय 'कहावत' ही है पर कुछ विद्वानों की राय है कि 'कहावत' शब्द 'कथावृत्त' शब्द से विकसित हुआ है अर्थात कथा पर आधारित वृत्त, अतः 'कहावत' उन्हीं लोकोक्तियों को कहा जाना चाहिए जिनके मूल में कोई कथा रही हो। जैसे 'नाच न जाने आँगन टेढ़ा' या 'अंगूर खट्टे होना' कथाओं पर आधारित लोकोक्तियाँ हैं। फिर भी आज हिंदी में लोकोक्ति तथा 'कहावत' शब्द परस्पर समानार्थी शब्दों के रूप में ही प्रचलित हो गए हैं।
लोकोक्ति किसी घटना पर आधारित होती है। इसके प्रयोग में कोई परिवर्तन नहीं होता है। ये भाषा के सौन्दर्य में वृद्धि करती है। लोकोक्ति के पीछे कोई कहानी या घटना होती है। उससे निकली बात बाद में लोगों की जुबान पर जब चल निकलती है, तब 'लोकोक्ति' हो जाती है।
नाक के बाल ने, नाक रगड़कर, नाक कटाने का काम किया है 
नाकों चने चबवाए, घुसेड़ के नाक, न नाक का मान रखा है 
नाक न ऊँची रखें अपनी, दम नाक में हो तो भी नाक दिखा लें
नाक पे मक्खी न बैठन दें, है सवाल ये नाक का, नाक बचा लें
नाक के नीचे अघट न घटे, जो घटे तो जुड़े कुछ नाक बजा लें
नाक नकेल भी डाल सखे हो, न कटे जंजाल तो नाक चढ़ा लें
लोकोक्ति : प्रमुख अभिलक्षण
(1) लोकोक्तियाँ ऐसे कथन या वाक्य हैं जिनके स्वरूप में समय के अंतराल के बाद भी परिवर्तन नहीं होता और न ही लोकोक्ति व्याकरण के नियमों से प्रभावित होती है। अर्थात लिंग, वचन, काल आदि का प्रभाव लोकोक्ति पर नहीं पड़ता। इसके विपरीत मुहावरों की संरचना में परिवर्तन देखे जा सकते हैं। उदाहरण के लिए 'अपना-सा मुँह लेकर रह जाना' मुहावरे की संरचना लिंग, वचन आदि व्याकरणिक कोटि से प्रभावित होती है; जैसे-
(i) लड़का अपना सा मुँह लेकर रह गया।
(ii) लड़की अपना-सा मुँह लेकर रह गई।
जबकि लोकोक्ति में ऐसा नहीं होता। उदाहरण के लिए 'यह मुँह मसूर की दाल' लोकोक्ति का प्रयोग प्रत्येक स्थिति में यथावत बना रहता है; जैसे-
(iii) है तो चपरासी पर कहता है कि लंबी गाड़ी खरीदूँगा। यह मुँह और मसूर की दाल।

(2) लोकोक्ति एक स्वतः पूर्ण रचना है अतः यह एक पूरे कथन के रूप में सामने आती है। भले ही लोकोक्ति वाक्य संरचना के सभी नियमों को पूरा न करे पर अपने में वह एक पूर्ण उक्ति होती है; जैसे- 'जाको राखे साइयाँ, मारि सके न कोय'।
(3) लोकोक्ति एक संक्षिप्त रचना है। लोकोक्ति अपने में पूर्ण होने के साथ-साथ संक्षिप्त भी होती है। आप लोकोक्ति में से एक शब्द भी इधर-उधर नहीं कर सकते। इसलिए लोकोक्तियों को विद्वानों ने 'गागर में सागर' भरने वाली उक्तियाँ कहा है।
(4) लोकोक्ति सारगर्भित एवं साभिप्राय होती है। इन्हीं गुणों के कारण लोकोक्तियाँ लोक प्रचलित होती हैं।
(5) लोकोक्तियाँ जीवन अनुभवों पर आधारित होती है तथा ये जीवन-अनुभव देश काल की सीमाओं से मुक्त होते हैं। जीवन के जो अनुभव भारतीय समाज में रहने वाले व्यक्ति को होते हैं वे ही अनुभव योरोपीय समाज में रहने वाले व्यक्ति को भी हो सकते हैं। उदाहरण के लिए निम्नलिखित लोकोक्तियों में अनुभूति लगभग समान है-
(i) एक पंथ दो काज- To kill two birds with one stone.
(ii) नया नौ दिन पुराना सौ दिन- Old is gold.

(6) लोकोक्ति का एक और प्रमुख गुण है उनकी सजीवता। इसलिए वे आम आदमी की जुबान पर चढ़ी होती है।
(7) लोकोक्ति जीवन के किसी-न-किसी सत्य को उद्घाटित करती है जिससे समाज का हर व्यक्ति परिचित होता है।
(8) सामाजिक मान्यताओं एवं विश्वासों से जुड़े होने के कारण अधिकांश लोकोक्तियाँ लोकप्रिय होती है।
(9) चुटीलापन भी लोकोक्ति की प्रमुख विशेषता है। उनमें एक पैनापन होता है। इसलिए व्यक्ति अपनी बात की पुष्टि के लिए लोकोक्ति का सहारा लेता है।
मुहावरा और लोकोक्ति में अंतर
मुहावरेलोकोक्तियाँ
(1) मुहावरे वाक्यांश होते हैं, पूर्ण वाक्य नहीं; जैसे- अपना उल्लू सीधा करना, कलम तोड़ना आदि। जब वाक्य में इनका प्रयोग होता तब ये संरचनागत पूर्णता प्राप्त करती है।(1) लोकोक्तियाँ पूर्ण वाक्य होती हैं। इनमें कुछ घटाया-बढ़ाया नहीं जा सकता। भाषा में प्रयोग की दृष्टि से विद्यमान रहती है; जैसे- चार दिन की चाँदनी फेर अँधेरी रात।
(2) मुहावरा वाक्य का अंश होता है, इसलिए उनका स्वतंत्र प्रयोग संभव नहीं है; उनका प्रयोग वाक्यों के अंतर्गत ही संभव है।(2) लोकोक्ति एक पूरे वाक्य के रूप में होती है, इसलिए उनका स्वतंत्र प्रयोग संभव है।
(3) मुहावरे शब्दों के लाक्षणिक या व्यंजनात्मक प्रयोग हैं।(3) लोकोक्तियाँ वाक्यों के लाक्षणिक या व्यंजनात्मक प्रयोग हैं।
(4) वाक्य में प्रयुक्त होने के बाद मुहावरों के रूप में लिंग, वचन, काल आदि व्याकरणिक कोटियों के कारण परिवर्तन होता है; जैसे- आँखें पथरा जाना।
प्रयोग- पति का इंतजार करते-करते माला की आँखें पथरा गयीं।
(4) लोकोक्तियों में प्रयोग के बाद में कोई परिवर्तन नहीं होता; जैसे- अधजल गगरी छलकत जाए।
प्रयोग- वह अपनी योग्यता की डींगे मारता रहता है जबकि वह कितना योग्य है सब जानते हैं। उसके लिए तो यही कहावत उपयुक्त है कि 'अधजल गगरी छलकत जाए।
(5) मुहावरों का अंत प्रायः इनफीनीटिव 'ना' युक्त क्रियाओं के साथ होता है; जैसे- हवा हो जाना, होश उड़ जाना, सिर पर चढ़ना, हाथ फैलाना आदि।(5) लोकोक्तियों के लिए यह शर्त जरूरी नहीं है। चूँकि लोकोक्तियाँ स्वतः पूर्ण वाक्य हैं अतः उनका अंत क्रिया के किसी भी रूप से हो सकता है; जैसे- अधजल गगरी छलकत जाए, अंधी पीसे कुत्ता खाए, आ बैल मुझे मार, इस हाथ दे, उस हाथ ले, अकेली मछली सारे तालाब को गंदा कर देती है।
(6) मुहावरे किसी स्थिति या क्रिया की ओर संकेत करते हैं; जैसे हाथ मलना, मुँह फुलाना?(6) लोकोक्तियाँ जीवन के भोगे हुए यथार्थ को व्यंजित करती हैं; जैसे- न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी, ओस चाटे से प्यास नहीं बुझती, नाच न जाने आँगन टेढ़ा।
(7) मुहावरे किसी क्रिया को पूरा करने का काम करते हैं।(7) लोकोक्ति का प्रयोग किसी कथन के खंडन या मंडन में प्रयुक्त किया जाता है।
(8) मुहावरों से निकलने वाला अर्थ लक्ष्यार्थ होता है जो लक्षणा शक्ति से निकलता है।(8) लोकोक्तियों के अर्थ व्यंजना शक्ति से निकलने के कारण व्यंग्यार्थ के स्तर के होते हैं।
(9) मुहावरे 'तर्क' पर आधारित नहीं होते अतः उनके वाच्यार्थ या मुख्यार्थ को स्वीकार नहीं किया जा सकता;
जैसे- ओखली में सिर देना, घाव पर नमक छिड़कना, छाती पर मूँग दलना।
(9) लोकोक्तियाँ प्रायः तर्कपूर्ण उक्तियाँ होती हैं। कुछ लोकोक्तियाँ तर्कशून्य भी हो सकती हैं; जैसे-
तर्कपूर्ण :
(i) काठ की हाँडी बार-बार नहीं चढ़ती।
(ii) एक हाथ से ताली नहीं बजती।
(iii) आम के आम गुठलियों के दाम।
तर्कशून्य :
(i) छछूंदर के सिर में चमेली का तेल।
(10) मुहावरे अतिशय पूर्ण नहीं होते।(10) लोकोक्तियाँ अतिशयोक्तियाँ बन जाती हैं।
 दोहा यमक मुहावरा
संजीव 'सलिल'
*
घाव हरे हो गये हैं, झरे हरे तरु पात.
शाख-शाख पर कर रहा, मनुज-दनुज आघात..
*
उठ कर से कर चुकाकर, चुका नहीं ईमान.
निर्गुण-सगुण  न मनुज ही, हैं खुद श्री भगवान..
*
चुटकी भर सिंदूर से, जीवन भर का साथ.
लिये हाथ में हाथ हँस, जिएँ उठाकर माथ..
*
सौ तन जैसे शत्रु के, सौतन लाई साथ.
रख दूरी दो हाथ की, करती दो-दो हाथ..
*
टाँग अड़ाकर तोड़ ली, खुद ही अपनी टाँग.
दर्द सहन करते मगर, टाँग न पाये टाँग..
*
कन्याएँ हडताल पर, बैठीं लेकर माँग.
युव आगे आकर भरें, बिन दहेज़ ले माँग..
*
काट नाक के बाल हैं, वे प्रसन्न फिलहाल.
करा नाक के बाल ने, हर दिन नया बवाल..
*
मुहावरे
  • अक्ल का अंधा- मूर्ख व्यक्ति; जिसमें समझ न हो।
  • अक्ल घास चरने जाना- समझ का अभाव होना।
  • अक्ल का दुश्मन- मूर्ख व्यक्ति।
  • अगर-मगर करना- आनाकानी या टालमटोल करना; बहाने बनाना।
  • अपना उल्लू सीधा करना- अपना मतलब निकालना।
  • अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनना- अपनी प्रशंसा स्वयं करना।
  • अपने पैरों पर खड़ा होना- स्वावलंबी होना।
  • आस्तीन का साँप- किसी अपने या निकट व्यक्ति द्वारा धोखा देना, कपटी मित्र।
  • आसमान से बातें करना- बहुत ऊँचा होना या तेज़ गति वाला।
  • आँख का तारा- बहुत प्रिय होना।
  • आँखें खुलना- जागना, वास्तविकता से अवगत होना, भ्रम दूर होना, सचेत होना।
  • आँखें चार होना- प्रेम होना, आमना-सामना होना।
  • आँखों में धूल झोंकना- धोखा देना।
  • अंगार उगलना- अत्यंत क्रुद्ध होकर अपशब्द कहना।
  • अंधे की लाठी- एकमात्र सहारा।
  • उखड़ी-उखड़ी बातें करना- अन्यमनस्क होना या उदासीन बातें करना।
  • उन्नीस-बीस का अंतर होना- बहुत कम अंतर होना।
  • उल्टी गंगा बहाना- विपरीत चलना।
  • उड़ती चिड़िया के पर गिनना- रहस्य की बात दूर से जान लेना।
  • इज़्ज़त ख़ाक में मिलना- परिवारिक प्रतिष्ठा को ठेस पहुँचना।
  • ईद का चाँद होना- बहुत दिनों बाद दिखाई पड़ना।
  • ईंट से ईंट बजाना- पूरी तरह से नष्ट करना।
  • ईंट का जबाब पत्थर से देना- ज़बरदस्त बदला लेना; करारा जवाब देना।
  • कान भरना- किसी के ख़िलाफ़ किसी के मन में कोई बात बैठाना।
  • कूच करना- जाना; प्रस्थान करना; चले जाना।
  • ख़ून पसीना एक करना- कड़ी मेहनत करना।
  • घोड़े बेचकर सोना- हर ज़िम्मेदारी से मुक्त हो जाना; बिल्कुल निश्चिंत हो जाना; किसी प्रकार की चिन्ता न करना।
  • घी के दिये जलाना- अत्यधिक प्रसन्न होना; खुशियाँ मनाना; प्रसन्नता ज़ाहिर करना।
  • चार चाँद लगाना- किसी सुन्दर वस्तु को और सुन्दर बनाना; किसी कार्यक्रम की शोभा बढ़ाना; किसी को ज़्यादा मान-सम्मान देना।
  • चैन की सांस लेना- काम निपटाकर निश्चिन्त होना; कार्य पूर्ण होने पर शान्ति महसूस करना।
  • चोली-दामन का साथ होना- गहरी मित्रता होना; अत्यधिक घनिष्ठता होना; बहुत मधुर सम्बन्ध होना।
  • चिकना घड़ा होना- बेशर्म होना; किसी बात का प्रभाव न पड़ना; अपमान होने पर भी अपमानित महसूस न करना; किसी की लिहाज़ न करना।
  • चुल्लू भर पानी में डूबना- लज्जित होना; अपमानित होना।
  • छक्के छुड़ाना- बुरी तरह हराना; अपने से बलवान पर विजय प्राप्त करना।
  • छाती पर मूँग दलना- पास रहकर कष्ट देना।
  • जान में जान आना- मुसीबत से निकलने पर निश्चिंत होना।
  • जले/ घाव पर नमक छिड़कना- दुःखी को और अधिक दुःखी करना; किसी का काम खराब होने पर हंसी उड़ाना।
  • दाहिना हाथ होना- बहुत बड़ा सहायक होना।
  • दाँत खट्टे करना- प्रतिद्वंद्विता या लड़ाई में पछाड़ना।
  • दुम हिलाना- दीनतापूर्वक प्रसन्नता प्रकट करना।
  • नील का टीका लगाना- कलंक लगाना, कलंकित करना।
  • सिर ओखली में देना- व्यर्थ ही जान-बूझकर जोख़िम में पड़ना।
  • टोपी पहनाना- बेवकूफ़ बनाना; झाँसा देना।
  • हवा में गाँठ लगाना- बड़े-बड़े दावे करना; असम्भव कार्य को करने का दम भरना।
  • हाथ-खड़े कर देना- असमर्थता जताना; वक्त पर मदद से इन्कार करना।
  • हाथ धोना- गँवा देना।
  • हाथ पाँव मारना- प्रयास करना।
  • पानी देना- सींचना, तर्पण करना।
  • पानी में रहकर मगरमच्छ से बैर- पास में रहकर ख़तरनाक व्यक्ति से दुश्मनी रखना।
  • पासा पलटना- अच्छा से बुरा या बुरा से अच्छा भाग्य होना; भाग्य का अनुकूल से प्रतिकूल या प्रतिकूल से अनुकूल होना।
  • पीठ दिखाना- कायरता दिखाना, भाग जाना, विमुख होना।
  • पैर पसारना- फैलाना, आराम से लेटना।
  • टोपी उछालना- अपमानित करना।
  • ठगा-सा रह जाना- बहुत छोटा महसूस करना, अपमानित महसूस करना।
लोकोक्तियाँ
  • अक्ल बड़ी या भैंस- शारीरिक शक्ति की अपेक्षा बुद्धि का महत्व अधिक होता है |
  • अक्ल के पीछे लट्ठ लिए फिरना- सदा मूर्खतापूर्ण बातें या काम करते रहना।
  • अधजल गगरी छलकत जाए- थोड़ा होने पर अधिक दिखावा करना।
  • अपना हाथ जगन्नाथ- स्वतंत्र व्यक्ति जिसके काम में कोई दखल न दें ।
  • अपने पांव पर आप कुल्‍हाड़ी मारना- अपना अहित स्वयं करना।
  • अपनी अपनी डफली,अपना अपना राग- विचारो का बेमेल होना|
  • अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत- समय गुज़रने पर पछतावा करने से कोई लाभ नहीं होता।
  • अशर्फ़ियाँ लुटाकर कोयलों पर मोहर लगाना- मूल्यवान वस्तु भले ही जाए, पर तुच्छ चीज़ों को बचाना।
  • आसमान से गिरा खजूर में अटका- एक विपत्ति से निकलकर दूसरी में उलझना |
  • आप भला सो जग भला- स्वयं सही हो तो सारा संसार ठीक लगता है |
  • आगे कुआँ पीछे खाई- हर तरफ परेशानी होना; विपत्ति से बचाव का कोई मार्ग न होना |
  • आगे नाथ न पीछे पगहा- कोई भी जिम्मेदारी न होना; पूर्णत: बंधनरहित होना |
  • आए थे हरि भजन को ओटन लगे कपास- इच्छितकार्य न कर पाने पर कोई अन्य कार्य कर लेना|
  • आटे के साथ घुन भी पिसता है- अपराधी के साथ निरपराधी भी दण्ड पा जाताहै |
  • अंधेर नगरी चौपट राजा, टके सेर भाजी टके सेर खाजा- जहाँ मुखिया ही मूर्ख हो, वहाँ अन्याय ही होता है।
  • अंधों में काना राजा- मूर्खों में थोड़ा सा ज्ञानी।
  • अंधी पीसे कुत्ता खाये- परिश्रमी व्यक्ति के असावधानी पर अन्य व्यक्ति का उपभोग करना|
  • आम के आम गुठलियों के दाम- दुहरा लाभ होना |
  • आँख का अँधा, नाम नैनसुख- गुण न होने पर भी गुण का दिखावा करना।
  • ओखली मे सिर दिया तो मूसल से क्या डर- कठिन कार्यो में उलझ कर विपत्तियों से क्या घबराना |
  • एक अनार सौ बीमार- समान कम चाहने वाले बहुत ।
  • एक और एक ग्यारह- एकता मे शक्ति होती है |
  • एक पंथ दो काज- एक प्रयत्न से दोहरा लाभ।
  • एक तो चोरी ऊपर से सीनाज़ोरी- गलती करने पर भी उसे स्वीकार न करके विवाद करना|
  • एक हाथ से ताली नही बजती- झगड़ा एक ओर से नही होता |
  • एक तो करेला, दूजे नीम चढ़ा- अवगुणी में और अवगुणों का आ जाना |
  • एक म्यान में दो तलवार नहीं रह सकती- एक स्थान पर दो विचारधारायें नहीं रह सकतीं हैं|
  • उल्टा चोर कोतवाल को डांटे- अपना अपराध स्वीकार करने की बजाय पूछने वाले को दोष देना।
  • ऊँट के मुँह मे ज़ीरा- बड़ी आवश्यकता के लिये कम देना।
  • कहाँ राजा भोज, कहाँ गंगू तेली- दो असमान व्यक्तियों का मेल न होना |
  • कंगाली में आटा गीला- कमी में और नुकसान होना |
  • कहीं का ईंट, कहीं का रोड़ा, भानुमती ने कुनबा जोड़ा- इधर -उधर से उल्टे सीधे प्रमाण एकत्र कर अपनी बात सिद्ध करने का प्रयत्न करना |
  • कौवा चला हंस की चाल- अयोग्य व्यक्ति का योग्य व्यक्ति जैसा बनने का प्रयत्न |
  • खोदा पहाड़ निकली चुहिया- बहुत प्रयत्न करने पर कम फल प्राप्त होना |
  • खिसियानी बिल्ली खम्भा नोचे- दूसरे के क्रोध को अनुचित स्थान पर निकालना|
  • घर का भेदी लंका ढावे- आपस की फूट विनाश कर देती है।
  • घर की मुर्गी दाल बराबर- घर की वस्तु का महत्व नहीं होता |
  • घर में नहीं दाने, अम्मा चली भुनाने- झूठी शान दिखाना |
  • चमड़ी जाए पर दमड़ी न जाए- अत्यधिक कंजूस होना‌।
  • चार दिन की चांदनी फिर अंधेरी रात- सुख क्षणिक होता है |
  • चोर की दाढ़ी में तिनका- अपराध बोध से व्यक्ति सहमा-सहमा रहता है; दोषी व्यक्ति का व्यवहार उसकी असलियत उजागर कर देता है।
  • चिराग़ तले अन्धेरा होना- देने वाले का स्वयं वंचित रहना; सबका काम कराने वाले का स्वयं का काम लटका रहना; सुविधा प्रदान करने वाले को स्वयं सुविधा न मिलना।
  • छ्छूंदर के सिर पर चमेली का तेल- अयोग्य व्यक्ति को अच्छी चीज़ देना।
  • छाती पर सांप लोटना- ईर्ष्या होना ।
  • छोटा मुँह बड़ी बात- अपनी योग्यता से बढ़कर बात करना।
  • छक्के छूटना- बुद्धि चकरा जाना।
  • जाके पाँव व फटी बिबाई, सो क्या जाने पीर पराई- जिसने कभी दु:ख न देखा हो वह दूसरेरे के दु:ख को नहीं समझ सकता |
  • जिसकी लाठी उस की भैंस- शक्तिशाली विजयी होता है |
  • जिसकी उतर गई लोई उसका क्या करेगा कोई- निर्लज्ज को किसी की परवाह नहीं होती|
  • झूठ के पांव नहीं होते- झूठ ज़्यादा दिन तक नहीं ठहरता है।
  • ढाक के वही तीन पात- परिणाम कुछ नहीं, बात वहीं की वहीं.
  • डूबते हुए को तिनके का सहारा- घोर संकट मे जरा सी सहायता ही काफी होती है |
  • थोथा चना बाजे घना- ओछा आदमी ज्यादा डींग हाँकता है |
  • दान की बछिया के दाँत नहीं देखे जाते- मुफ्त की वस्तु का अच्छा बुरा नहीं देखा जाता |
  • दुविधा में दोनों गये माया मिली न राम- दुविधाग्रस्त व्यक्ति को कुछ भी प्राप्त नही होता ।
  • दूध का दूध ,पानी का पानी- उचित न्याय ,विवेकपूर्ण न्याय ।
  • धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का- अस्थिर व्यक्ति प्रभावहीन होता है |
  • नहले पर दहला- एक से बढ़कर एक।
  • न रहेगा बांस न बजेगी बाँसुरी- झगड़े को समूल नष्ट करना |
  • न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी- कार्य न करने हेतु असम्भव शर्ते रखना |
  • नाच न जाने आँगन टेढ़ा- खुद न जानने पर बहाने बनाना |
  • नौ सौ चूहे खाय बिल्ली हज को चली ढोंगी व्यक्ति- जीवन भर पाप करने के बाद बुढ़ापे मे धर्मात्मा होने का ढोंग करना |
  • पगड़ी उछालना- अपमानित करना|
  • पढ़े फारसी बेचे तेल, यह देखे कुदरत का खेल- भाग्यवश योग्य व्यक्ति द्वारा तुच्छ कार्य करने के लिये विवश होना |
  • बगल में छोरा, शहर में ढिंढोरा- वाँछित वस्तु की प्राप्ति के लिये अपने आस -पास नजर न डालना|
  • बड़े मियाँ सो बड़े मियाँ, छोटे मियाँ सुभानअल्लाह- छोटे का बड़े से भी अधिक चालाक होना |
  • बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद- किसी के गुणों को न जान कर उसके महत्व को न समझ सकना |
  • बिन माँगे मोती मिले,माँगे मिले न भीख- माँगने पर कुछ नहीं मिलता है |
  • भागते चोर/भूत के लँगोटी ही सही- कुछ न मिलने पर जो भी मिला वही अच्छा |
  • भैंस के आगे बीन बजाना- मूर्ख के सामने ज्ञान की बातें करना व्यर्थ है|
  • मान न मान मैं तेरा मेहमान- व्यर्थ मे गले पड़ना |
  • मुख मे राम बगल में छुरी- ऊपर से भला बनकर धोखा देना |
  • ये मुंह और मसूर की दाल- अपनी औक़ात से बाहर की बात होना|
  • सौ सुनार की एक लुहार की- सामान्य व्यक्ति की अपेक्षा बुद्धिमान व्यक्तिकम प्रयत्न मे लाभ पा लेता है ।
  • हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े लिखे को फारसी क्या- प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती|
  • हाथ पसारना/फैलाना- किसी से विवशतापूर्ण माँगना।
  • हाथ –पाँव फूल जाना- डर से घबराना।
  • होनहार बिरवान के होत चीकने पात- प्रतिभा बचपन से दिखाई देती है|