: अभिनव सारस्वत प्रयोग :
त्रिपदिक (जनक छंदी ) नवगीत : 
                                  नेह नर्मदा तीर पर
                                                - संजीव 'सलिल'
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[ इस रचना में जनक छंद का प्रयोग हुआ है. संस्कृत के प्राचीन त्रिपदिक  छंदों (गायत्री, ककुप आदि) की तरह जनक छंद में भी ३ पद (पंक्तियाँ) होती  हैं. दोहा के विषम (प्रथम, तृतीय) पद की तीन आवृत्तियों से जनक छंद बनता  है. प्रत्येक पद में १३ मात्राएँ तथा पदांत में लघु गुरु लघु या लघु लघु  लघु लघु होना आवश्यक है. पदांत में सम तुकांतता से इसकी सरसता तथा गेयता  में वृद्धि होती है. प्रत्येक पद दोहा या शे'र की तरह आपने आप में स्वतंत्र  होता है किन्तु मैंने जनक छंद में गीत और अनुगीत (ग़ज़ल की तरह तुकांत,  पदांत सहित) कहने के प्रयोग किये हैं. अंतर्जाल पर पहली बार इन्हें  प्रस्तुत करते समय संकोच है कि न जाने क्या प्रतिक्रिया मिले. गुण ग्राहकों  को रुचे तो आगे अन्य रचनाएँ और अन्य छंद सामने रखने का साहस जुटाऊँगा. इस  क्रम में उर्दू का तसलीस आप के समक्ष आ ही चुका है.]
नेह नर्मदा तीर पर,
       अवगाहन कर धीर धर,
           पल-पल उठ-गिरती लहर...
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कौन उदासी-विरागी,
विकल किनारे पर खड़ा?
किसका पथ चुप जोहता?
          निष्क्रिय, मौन, हताश है. 
          या दिलजला निराश है?
          जलती आग पलाश है.
जब पीड़ा बनती भँवर,
       खींचे तुझको केंद्र पर,
           रुक मत घेरा पार कर...
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नेह नर्मदा तीर पर,
       अवगाहन का धीर धर,
           पल-पल उठ-गिरती लहर...
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सुन पंछी का मशविरा,
मेघदूत जाता फिरा-
'सलिल'-धार बनकर गिरा.
          शांति दग्ध उर को मिली. 
          मुरझाई कलिका खिली.
          शिला दूरियों की हिली.
मन्दिर में गूँजा गजर,
       निष्ठां के सम्मिलित स्वर,
           'हे माँ! सब पर दया कर...
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नेह नर्मदा तीर पर,
       अवगाहन का धीर धर,
           पल-पल उठ-गिरती लहर...
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पग आये पौधे लिये,
ज्यों नव आशा के दिये.
नर्तित थे हुलसित हिये.
          सिकता कण लख नाचते. 
          कलकल ध्वनि सुन झूमते.
          पर्ण कथा नव बाँचते.
बम्बुलिया के स्वर मधुर,
       पग मादल की थाप पर,
           लिखें कथा नव थिरक कर...
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