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रविवार, 17 अगस्त 2025

अगस्त १७, कुंडलिया, षडपदिक सवैया, सरसी छंद, लघुकथा, राखी गीत, गीता, पूर्णिका

 सलिल सृजन अगस्त १७  

पूर्णिका . भोग लगा भगवान को पाते भक्त प्रसाद छप्पन व्यंजन में मिले अमृत जैसा स्वाद . भक्ति-भाव से कीजिए भजन भुलाकर स्वार्थ परेशान मत कीजिए, प्रभु को कर फरियाद . काम करें निष्काम हर, प्रभु अर्पण कर आप जो करते निस्वार्थ श्रम, वे होते आबाद . राधा धारा प्रेम की, मीरा भक्ति प्रवाह पार्थ समर्पण, द्रौपदी रिश्तों की मर्याद . जीवन के कुरुक्षेत्र में, धैर्य रखें बन पार्थ सुख-दुख दोनों प्रभु-कृपा, मान करें प्रभु-याद १७.८.२०२५ ०००

कुंडलिया छंद :

रावण लीला देख
*
लीला कहीं न राम की, रावण लीला देख.
नेता गण हैं कुकर्मी, यह सच करना लेख..
यह सच करना लेख कटेगा इनका पत्ता.
सरक रही है इनके हाथों से अब सत्ता..
कहे 'सलिल' कविराय कफन में ठोंको कीला.
कभी न कोई फिर कर पाये रावण लीला..
*
खरी-खरी बातें करें, करें खरे व्यवहार.
जो कपटी कोंगरेस है,उसको दीजे हार..
उसको दीजै हार सबक बाकी दल लें लें.
सत्ता पाकर जन अधिकारों से मत खेलें..
कुचले जो जनता को वह सरकार है मरी.
'सलिल' नहीं लाचार बात करता है खरी.
*
फिर जन्मा मारीच कुटिल सिब्बल पर थू है.
शूर्पणखा की करनी से फिर आहत भू है..
हाय कंस ने मनमोहन का रूप धरा है.
जनमत का अभिमन्यु व्यूह में फँसा-घिरा है..
कहे 'सलिल' आचार्य ध्वंस कर दे मत रह घिर.
नव स्वतंत्रता की नव कथा आज लिख दे फिर..
१७-८-२०२१
***
दोहा सलिला
श्री-प्रकाश पाकर बने, तमस चन्द्र सा दिव्य.
नहीं खासियत तिमिर की, श्री-प्रकाश ही भव्य ..
*
आशा-आकांक्षा लिये, सबकी जीवन-डोर.
'सलिल' न अब तक पा सका, कहाँ ओर या छोर.
*
मुक्तक :
अधरों पर सोहे मुस्कान
नित गाओ कोयल सम गान
हर बाधा पर विजयी हो -
शीश उठा रह सीना तान
*
मन की पीड़ा को शब्दों ने जब-जब भी गाया है
नूर खुदाई उनमें बरबस उतर-उतर आया है
करा कीर्तन सलिल रूप का, लीन हुआ सुध खोकर
संगत-रंगत में सपना साकार हुआ पाया है
*
कुसुम वीर हो, भ्रमर बहादुर, कली पराक्रमशाली
सोशल डिस्टेंसिंग पौधों में रखता है हर माली
गमछे-चुनरी से मुँह ढँककर, होंगी अजय बहारें-
हाथ थाम दिनकर का ऊषा, तम हर दे खुशहाली
१७-८-२०२०
***
नवप्रयोग
षडपदिक सवैया
*
पौ फटी नीलांबरी नभ, मेघ मल्लों को बुलाता, दामिनी की छवि दिखा, दंगल कराता।
होश खोते जोश से भर, टूट पड़ते, दाँव चलते, पटक उठते मल्ल कोई जय न पाता।
स्वेद धारा प्रवह धरती को भिगोती, ऊगते अंकुर नए शत, नर सृजन दुंदुभि बजाता।
दामिनी जल पतित होती, मेघ रो आँसू बहाता, कुछ न पाता।
पवन सनन सनन बहता, सत्य कहता मत लड़ो, मिलकर रचे कुछ नित नया जो कीर्ति पाता।
गरजकर आतंक की जो राह चलता, कुछ न पाता, सब गँवाता, हार कहता बहुत निष्ठुर है विधाता।
*
संजीव
१७-८-२०१९, मथुरा
बी ३-५२ संपर्क क्रांति एक्सप्रेस
***
छंद सलिला: पहले एक पसेरी पढ़ / फिर तोला लिख...
छंद सलिला सतत प्रवाहित, मीत अवगाहन करें
शारदा का भारती सँग, विहँस आराधन करें
*
जन्म ब्याह राखी तिलक, गृह-प्रवेश त्यौहार
सलिल बचा पौधे लगा, दें पुस्तक उपहार
*
पाठ १०१
सरसी छंद
*
लक्षण:
१. ४ पंक्ति.
२. प्रति पंक्ति २७ मात्रा.
३. १६-११ मात्राओं पर यति.
४. पंक्ति के अंत में गुरु-लघु मात्रा.
५. दो-दो पंक्ति में सम तुकांत.
लक्षण छंद:
सरसी सोलह-ग्यारह रखिए मात्रा, गुरु-लघु अंत.
नित्य करें अभ्यास सधे तब, कहते कविजन-संत.
कथ्य भाव रस अलंकार छवि, बिंब-प्रतीक मनोहर.
काव्य-कामिनी जन-मन मोहे, रचना बने धरोहर.
*
उदाहरण:
पशु-पक्षी,कृमि-कीट करें सुन, निज भाषा में बात.
हैं गुलाम मानव-मन जो पर-भाषा बोलें तात.
माँ से ज्यादा चाची-मामी,'सलिल' न करतीं प्यार.
माँ-चरणों में स्वर्ग, करो सेवा तो हो उद्धार.
***
हिंदी आटा माढ़िये, देशज मोयन डाल
सलिल संस्कृत सान दे, पूड़ी बने कमाल
१७-८-२०१७
***
लघुकथा-
टूटती शाखें
*
नुक्कड़ पर खड़े बरगद की तरह बब्बा भी साल-दर-साल होते बदलावों को देखकर मौन रह जाते थे। परिवार में खटकते चार बर्तन अब पहले की तरह एक नहीं रह पा रहे थे। कटोरियों को थाली से आज़ादी चाहिए थी तो लोटे को बाल्टी की बन्दिशें अस्वीकार्य थीं। फिर भी बरसों से होली-दिवाली मिल-जुलकर मनाई जा रही थी।
राजनीति के राजमार्ग के रास्ते गाँव में घुसपैठ कर चुके शहर ने टाट पट्टियों पर बैठकर पढ़ते बच्चे-बच्चियों को ऐसा लुभाया कि सुनहरे कल के सपनों को साकार करने के लिए अपनों को छोड़कर, शहर पहुँच कर छात्रावासों के पिंजरों में कैद हो गए।
कुछ साल बाद कुछ सफलता के मद में और शेष असफलता की शर्म से गाँव से मुँह छिपाकर जीने लगे। कभी कोई आता-जाता गाँववाला किसी से टकरा जाता तो 'राम राम दुआ सलाम' करते हुए समाचार देता तो समाचार न मिलने को कुशल मानने के आदी हो चुके बब्बा घबरा जाते। ये समाचार नए फूल खिलने के कम ही होते थे जबकि चाहे जब खबरें बनती रहती थीं गुल खिलानेवाली हरकतें और टूटती शाखें।
***
मुक्तक
अधरों पर सोहे मुस्कान
नित गाओ कोयल सम गान
हर बाधा पर विजयी हो -
शीश उठा रह सीना तान
१७-८-२०१६
***
राखी गीत
*
बंधनों से मुक्त हो जा
*
बंधनों से मुक्त हो जा
कह रही राखी मुखर हो
कभी अबला रही बहिना
बने सबला अब प्रखर हो
तोड़ देना वह कलाई
जो अचाहे राह रोके
काट लेना जुबां जो
फिकरे कसे या तुझे टोंके
सासरे जा, मायके से
टूट मत, संयुक्त हो जा
कह रही राखी मुखर हो
बंधनों से मुक्त हो जा
बलि न तेरे हौसलों को
रीति वामन कर सके अब
इरादों को बाँध राखी
तू सफलता वर सके अब
बाँध रक्षा सूत्र तू ही
ज़िंदगी को ज़िंदगी दे
हो समर्थ-सुयोग्य तब ही
समय तुझको बन्दगी दे
स्वप्न हर साकार करने
कोशिशों के बीज बो जा
नयी फसलें उगाना है
बंधनों से मुक्त हो जा
पूज्य बन जा राम राखी
तुझे बाँधेगा जमाना
सहायक हो बँधा लांबा
घरों में रिश्ते जिलाना
वस्त्र-श्रीफल कर समर्पित
उसे जो सब योग्य दिखता
अवनि की हर विपद हर ले
शक्ति-वंदन विश्व करता
कसर कोई हो न बाकी
दाग-धब्बे दिखे धो जा
शिथिल कर दे नेह-नाते
बंधनों से मुक्त हो जा
१५ अगस्त २०१६
***
गीता गायन
अध्याय १
पूर्वाभास
कड़ी ३.
*
अभ्यास सद्गुणों का नित कर
जीवन मणि-मुक्ता सम शुचि हो
विश्वासमयी साधना सतत
कर तप: क्षेत्र जगती-तल हो
*
हर मन सौंदर्य-उपासक है
हैं सत्य-प्रेम के सब भिक्षुक
सबमें शिवत्व जगता रहता
सब स्वर्ग-सुखों के हैं इच्छुक
*
वे माता वहाँ धन्य होतीं
होती पृथ्वी वह पुण्यमयी
होता पवित्र परिवार व्ही
होती कृतार्थ है वही मही
*
गोदी में किलक-किलक
चेतना विहँसती है रहती
खो स्वयं परम परमात्मा में
आनंद जलधि में जो बहती
*
हो भले भिन्न व्याख्या इसकी
हर युग के नयन उसी पर थे
जो शक्ति सृष्टि के पूर्व व्याप्त
उससे मिलने सब आतुर थे
*
हम नेत्र-रोग से पीड़ित हो
कब तप:क्षेत्र यह देख सके?
जब तक जीवित वे दोष सभी
तब तक कैसा कब लेख सके?
*
संसार नया तब लगता है
संपूर्ण प्रकृति बनती नवीन
हम आप बदलते जाते हैं
हो जाते उसमें आप लीन
*
परमात्मा की इच्छानुसार
जीवन-नौका जब चलती है
तब नये कलेवर के मानव
में, केवल शुचिता पलती है
*
फिर शोक-मुक्त जग होता है
मिलता है उसको नया रूप
बनकर पृथ्वी तब तप:क्षेत्र
परिवर्तित करती निज स्वरूप
*
जीवन प्रफुल्ल बन जाता है
भौतिक समृद्धि जुड़ जाती है
आत्मिक उत्थान लक्ष्य लेकर
जब धर्म-शक्ति मुड़ जाती है
*
है युद्ध मात्र प्रतिशोध बुद्धि
जिसमें हर क्षण बढ़ता
दो तत्वों के संघर्षण में
अविचल विकास क्रम वह गढ़ता
*
कुत्सित कर्मों का जनक यहाँ
अविवेक भयानकतम दुर्मुख
जिससे करना संघर्ष, व्यक्ति का
बन जाता है कर्म प्रमुख
*
कर्मों का गुप्त चित्र अंकित
हो पल-पल मिटता कभी नहीं
कर्मों का फल दें चित्रगुप्त
सब ज्ञात कभी कुछ छिपे नहीं
*
यह तप:क्षेत्र है कुरुक्षेत्र
जिसमें अनुशासन व्याप्त सकल
जिसका निर्णायक परमात्मा
जिसमें है दण्ड-विधान प्रबल
*
बन विष्णु सृष्टि का करता है
निर्माण अनवरत वह पल-पल
शंकर स्वरूप में वह सत्ता
संहार-वृष्टि करता छल-छल
*
'मैं हूँ, मेरा है, हमीं रहें,
ये अहंकार के पुत्र व्यक्त
कल्मष जिसका आधार बना
है लोभ-स्वार्थ भी पूर्व अव्यक्त
*
कुत्सित तत्वों से रिक्त-मुक्त
जस को करना ही अनुशासन
संपूर्ण विश्व निर्मल करने
जुट जाएँ प्रगति के सब साधन
*
कौरव-पांडव दो मूर्तिमंत
हैं रूप विरोधी गतियों के
ले प्रथम रसातल जाती है
दूसरी स्वर्ग को सदियों से
*
आत्मिक विकास में साधक जो
पांडव सत्ता वह ऊर्ध्वमुखी
माया में लिपट विकट उलझी
कौरव सत्ता है अधोमुखी
*
जो दनुज भरोसा वे करते
रथ, अश्वों, शासन, बल, धन का
पर मानव को विश्वास अटल
परमेश्वर के अनुशासन का
*
संघर्ष करें अभिलाषा यह
मानव को करती है प्रेरित
दुर्बुद्धि प्रबल लालसा बने
हो स्वार्थवृत्ति हावी उन्मत
*
हम नहीं जानते 'हम क्या हैं?
क्या हैं अपने ये स्वजन-मित्र?
क्या रूप वास्तविक है जग का
क्या मर्म लिये ये प्रकृति-चित्र?
*
अपनी आँखों में मोह लिये
हम आजीवन चलते रहते
भौतिक सुख की मृगतृष्णा में
पल-पल खुद को छलते रहते
*
जग उठते हममें लोभ-मोह
हबर जाता मन में स्वार्थ हीन
संघर्ष भाव अपने मन का
दुविधा-विषाद बन करे दीन
*
भौतिक सुख की दुर्दशा देख
होता विस्मृत उदात्त जीवन
हो ध्वस्त न जाए वह क्षण में
हम त्वरित त्यागते संघर्षण
*
अर्जुन का विषाद
सुन शंख, तुमुल ध्वनि, चीत्कार
मनमें विषाद भर जाता है
हो जाते खड़े रोंगटे तब
मन विभ्रम में चकराता है
*
हो जाता शिथिल समूचा तन
फिर रोम-रोम जलने लगता
बल-अस्त्र पराये गैर बनकर डँसते
मन युद्ध-भूमि तजने लगता
*
जिनका कल्याण साधना ही
अब तक है रहा ध्येय मेरा
संहार उन्हीं का कैसे-कब
दे सके श्रेय मुझको मेरा?
*
यह परंपरागत नैतिकता
यह समाजगत रीति-नीति
ये स्वजन, मित्र, परिजन सारे
मिट जाएँगे प्रतीक
*
हैं शत्रु हमारे मानव ही
जो पिता-पितामह के स्वरूप
उनका अपना है ध्येय अलग
उनकी आशा के विविध रूप
*
उनके पापों के प्रतिफल में
हम पाप स्वयं यदि करते हैं
तो स्वयं लोभ से हो अंधे
हम मात्र स्वार्थ ही वरते हैं
*
हम नहीं चाहते मिट जाएँ
जग के संकल्प और अनुभव
संतुलन बिगड़ जाने से ही
मिटते कुलधर्म और वैभव
*
फिर करुणा, दया, पुण्य जग में
हो जाएँगे जब अर्थहीन
जिनका अनुगमन विजय करती
होकर प्रशस्ति में धर्मलीन
*
मैं नहीं चाहता युद्ध करूँ
हो भले राज्य सब लोकों का
अपशकुन अनेक हुए देखो
है खान युद्ध दुःख-शोकों का
*
चिंतना हमारी ऐसी ही
ले डूब शोक में जाती है
किस हेतु मिला है जन्म हमें
किस ओर हमें ले जाती है?
*
जीवन पाया है लघु हमने
लघुतम सुख-दुःख का समय रहा
है माँग धरा की अति विस्तृत
सुरसा आकांक्षा रही महा
*
कितना भी श्रम हम करें यहाँ
अभिलाषाएँ अनेक लेकर
शत रूप हमें धरना होंगे
नैया विवेचना की खेकर
*
सीधा-सदा है सरल मार्ग
सामान्य बुद्धि यह कहती है
कर लें व्यवहार नियंत्रित हम
सर्वत्र शांति ही फलती है
*
ज्यों-ज्यों धोया कल्मष हमने
त्यों-त्यों विकीर्ण वह हुआ यहाँ
हम एक पाप धोने आते
कर पाप अनेकों चले यहाँ
*
प्राकृतिक कार्य-कारण का जग
इससे अनभिज्ञ यहाँ जो भी
मानव-मन उसको भँवर जाल
कब समझ सका उसको वह भी
*
है जनक समस्याओं का वह
उससे ही जटिलतायें प्रसूत
जानना उसे है अति दुष्कर
जो जान सका वह है सपूत
*
अधिकांश हमारा विश्लेषण
होता है अतिशय तर्कहीन
अधिकांश हमारी आशाएँ
हैं स्वार्थपूर्ण पर धर्महीन
*
जो मुक्ति नहीं दे सकती हैं
जीवन की किन्हीं दशाओं में
जब तक जकड़े हम रहे फँसे
है सुख मरीचिका जीवन में
*
लगता जैसे है नहीं कोई
मेरा अपना इस दुनिया में
न पिता-पुत्र मेरे अपने
न भाई-बहिन हैं दुनिया में
*
उत्पीड़न की कैसी झाँकी
घन अंधकार उसका नायक
चिंता-संदेह व्याप्त सबमें
एकाकीपन जिसका गायक
*
जब भी होता संघर्ष यहाँ
हम पहुँच किनारे रुक जाते
साहस का संबल छोड़, थकित
भ्रम-संशय में हम फँस जाते
१७-८-२०१५
***

शुक्रवार, 4 जुलाई 2025

जुलाई ४, दोहा गीत, बाल कविता, वाक्, गीता, सॉनेट, बरखा गीत, सरस्वती

सलिल सृजन जुलाई ४
*
बरखा गीत 
० 
रिमझिम रिमझिम बरसे बरखा, झूलें सारद मैया 
रमा-उमा तालियाँ बजाएँ, पेंग देख खें दैया 
० 
टेसू की ऊँची डारी सें, लिपट रातरानी ने 
बेल चमेली की महकाई, पिक कूकी बानी ने 
छप छपाक् छप करतीं सखियाँ, खेलें ता ता थैया 
रिमझिम रिमझिम बरसे बरखा, झूलें सारद मैया 
० 
अमुआ ब्रह्मा, बेल बैठ शिव, हरसिँगार हरि टेरें 
हनुमत लला विराजे पीपल, नचे मयूरा हेरें 
मुदित 'सलिल' माँ के जस गाए, बैठ नीम की छैंया 
रिमझिम रिमझिम बरसे बरखा, झूलें सारद मैया 
० 
रीझ बरसता काला बादल, बिजली जलती खोट 
संध्या-उषा-निशा सँग सँकुचे, सूरज झाँके ओट
चाँद-चाँदनी ढाबा खोजें, चाहें भजिया-चैया    
रिमझिम रिमझिम बरसे बरखा, झूलें सारद मैया
४.७.२०२५
०0०
सॉनेट 
नित करती सवाल फुलबगिया
 पौधे-तरु जड़ कहाँ जमाएँ? 
नर-पिशाच धरती कब्जाएँ है 
मतलबपरस्त सब दुनिया। 
सिसक रही बेबस फुलवरिया 
सूर्य तपे, पौधे कुम्हलाएँ। 
पवन-सलिल बिन पनप न पाएँ? 
क्षुधित-तृषित भटके गौरैया। 

फुलबगिया में हृदय रहे मिल 
द्वैत मिटा अद्वैत वर रहे 
भ्रमर-तितलियाँ करते गुंजन। 
मन सचेत हो रहो न ग़ाफ़िल 
भोग भोगकर व्यर्थ मत दहे 
खिल महके कर भव-भय-भंजन। 
३.७.२०२५ 
०0०
 आमंत्रण 
विश्व वाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर (भारत)
अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरणीय काव्य संकलन 'फुलबगिया'
संपर्क- ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१
*
विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर (भारत) द्वारा विश्व कीर्तिमान स्थापित करते काव्य संकलनों दोहा दोहा नर्मदा, दोहा सलिला निर्मला, दोहा दिव्य दिनेश, 'हिंदी सॉनेट सलिला' (३२ सॉनेटकार, ३२१ सॉनेट) तथा 'चंद्र विजय अभियान' (५ देश, ५१ भाषा-बोलियाँ, २१३ रचनाकार) की शृंखला में अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरणीय काव्य संकलन 'फुलबगिया' प्रकाशनधीन है। आप अपनी पसंद के लुप्त हो रहे फूल/फूलों को केंद्र में रखकर पद्य रचना भेजें। पुष्प के रूप-रंग, उपादेयता, वानस्पतिक महत्व, आयुर्वेदिक उपयोग अथवा उसे रूपक या उपमा के रूप में प्रयोग कर अथवा शिव-काम प्रसंग, पार्वती अपर्णा प्रसंग, कैकेयी-दशरथ प्रसंग, राम-सीता फुलवारी प्रसंग, कृष्ण-राधा कुंज वन प्रसंग, मेघदूत प्रसंग, दुष्यंत-शकुंतला प्रसंग, रानी दुर्गावती-दलपतिशाह प्रसंग, विवाह संस्कार में जयमाल आदि में बाग-पुष्प, मिलन- विरह शृंगार आदि को लेकर भी काव्य रचना की जा सकती है।

'फुलबगिया' संग्रह में रचनाकार व फूल का चित्र, संक्षिप्त परिचय, आपकी सामग्री पर संपादकीय टिप्पणी तथा गीतलेख आदि होंगे। हर सहभागी को ३००/- प्रति पृष्ठ सहभागिता निधि  १००/- पैकिंग व डाक व्यय अग्रिम ९४२५१८३२४४ पर जमा करना होगा। न्यूनतम ४ पृष्ठ लेना अनिवार्य है।४ से अधिक पृष्ठ लिए जा सकते हैं। हर सहभागी को २ प्रति निशुल्क तथा अतिरिक्त प्रतियाँ ४०% रियायती दर पर मिलेंगी। सहभागियों को विश्ववाणी हिंदी संस्थान की ईकाई स्थापित करने में प्राथमिकता दी जाएगी। 

निम्न बिंदुओं पर लेखन कर जुड़िए फुलबगिया में-   
० फूलों पर केंद्रित फिल्मी गीत
० लोकगीतों में फुलबगिया- ऐसे लोकगीत भेजिए जो फूलों पर केंद्रित हों।
० लोक कलाओं में फुलबगिया- विविध शैलियों में फूलों के चित्रांकन संबंधी वैशिष्ट्य पर जानकारी आमंत्रित है। 
० नवग्रह और फूलबगिया- ज्योतिष शास्त्र में फूलों के महत्व संबंधी जानकारी भेजिए। 
० वास्तु और फुलबगिया- वास्तुशास्त्र में फूलों के महत्व, स्थान आदि संबंधी जानकारी। 
० पर्व कथाओं में फुलबगिया- धार्मिक पर्वों, प्रसंगों में फूलों से संबंधित जानकारी। 
० पूजा और फूलबगिया- देवी-देवताओं के पूजन में फूल, त्तसंबंधी पौराणिक कथाओं आदि संबंधी जानकारी। 
० पर्यावरण/मौसम और फुलबगिया- ऋतु परिवर्तन के सूचक फूल। 
० दाम्पत्य जीवन और फुलबगिया। 
० ................ भाषा/बोली  के साहित्य में फुलबगिया। 
००० 

गीता ज्ञान
*
'मैं' से हो मन मुक्त यदि, 'तुम' को जाए भूल
कर कर 'हम' की साधना, हो बगिया का फूल
हो बगिया का फूल, फूलकर कुप्पा मत हो
तितली भ्रमर पराग पा सकें, देने रत हो
संचय मोह व क्रोध, अहं पालक पातक हैं
इनसे हो जो मुक्त, न उसको व्याप सके मैं
४-७-२०२१
***
शब्द, पर्याय और अर्थ
साभार सामग्री स्रोत : अर्थान्तर न्यास - डॉ. सुरेश कुमार वर्मा
*
वाक् (भाषा) :
भाषा मनुष्य की शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक शक्तियों का संघात है। मनुष्य जन्म से परिवार की शाला में भाषा के पाठ सीखता है।सीखने की भावना मनुष्य ( वअन्य जीव-जंतुओं) के रक्त में जन्मजात वृत्ति के रूप में रहती है। वह वस्तु जगत के विविध पदार्थों का ज्ञान प्राप्त और व्यक्त करता है। भाषा ज्ञेय भी है और ज्ञान भी। शैशवावस्था में भाषा ज्ञातव्य वस्तु है और जबकि विकास की परिणत अवस्थाओं में दृश्य एवं सूक्ष्म जगत के नाना स्तरों का ग्राहक ज्ञान। वस्तु जगत की क्रमशः: वर्धित जानकारी मनुष्य के मानसिक क्षेत्र में जटिल आवर्त उत्पन्न करती है जो क्रमश: भाषा के अरण्य में जटिलता उत्पन्न करते हैं। अरण्य के विरल, सघन एवं सघनतम क्षेत्रों के समान्तर भाषा के अंतर्गत अर्थों के सरल, गूढ़ एवं रहस्यात्मक स्तर निविष्ट रहते हैं। शब्दों के सजग-सतर्क नियोजन से भाषा शुद्ध, सुचारु और सहज बनती है। सतत प्रयोग से भाषा जीवन का अविभाज्य अंग बनकर लोक जीवन, दैनंदिन व्यवहार एवं आत्म-चिंतन का आधार और अंग बन जाती है। भाषा और शब्द विशेष परिस्थिति की उपज है। वह विज्ञान विशेष परिस्थिति में ही अपनी मूल भावना को व्यक्त करता है। पर्यायवाचिता उसे किसी दूसरी परिस्थिति और प्रयोग के निकट लाकर उसकी मूल भावना को आहत कर देती है। एक पर्याय सभी परिस्थितियों में प्रयुक्त नहीं किया जा सकता। पर्यायवाचिता एक सीमा तक ही क्रियाशील रह सकती है। हिंदी पर्यायवाचिता को विकास के कारण हैं - विविध भाषाओं-बोलिओं की एक क्षेत्र में एक ही समय में प्रचलित होना, आरोपित अर्थ, सांस्कृतिक प्रभाव, अपस्तरीय वाक् आदि। विशेषणों की पर्यायभावना, व पर्यायपद भी अर्थपरक दृष्टि से विचारणीय है। अर्थ की विलोमस्थिति सैद्धांतिक कम व्यावहारिक अधिक है। अर्थांतर की दृष्टि से विदेशी शब्दों (जिनसे हिंदी पर्याय युग्मों की रचना हुई) का अनुशीलन महत्वपूर्ण है। भाषा और संस्कृति में अनिवार्य समाश्रयता है। भाषा संस्कृति की पोषिका और उसके विकास की संवाहिनी है। यह संवहन अर्थ के माध्यम से होता है।
अर्थ
ध्वनि के सामान की भी परिवर्तन शील सत्ता है। ध्वनिशास्त्र के कठोर परीक्षण में किसी ध्वनि का यथावत (हू-ब-हू ) उच्चारण कठिन माना गया है। अभिव्यक्ति की भी यही स्थिति है। प्रत्येक प्रेषण में वक्त अर्थ को उसी आयाम और इयत्ता से व्यक्त कर रहा है, कहना कठिन है। अर्थ मन और बुद्धि की जटिल सारणियों से प्रवाहित होता है, उसे प्रवाहित करनेवाली बाह्य एवं आंतरिक शक्तियाँ असंख्य हैं। व्यक्ति के आशय को नाना प्रकार के ध्वनि संयोजनों में रूपायित होना पड़ता है। इससे अर्थ के विचलन की संभावना बढ़ जाती है। यह विचलित अर्थ फिर-फिर प्रयोगों से नवीन अर्थ के रूप में प्रतिष्ठित और लोकमान्य हो जाता है। अर्थ का इतिहास अर्थ परिवर्तन का इतिहास है। अर्थान्तर वाक् की मूलभूत संवेदनाओं में से एक है।
अर्थ वाक् का आरंभ भी है और अंत भी। वक्ता अपने आशय को व्यक्त करने के लिए धवनियों का संयोजन करता है और उसकी प्राप्ति के पश्चात् उसका लोप। अर्थ पद और वाक्य की केंद्रीय सत्ता है। अर्थ एक अभौतिक स्थिति है। उसकी प्रक्रिया जटिल और सूक्ष्म है। उसकी प्रवृत्तियों और परिस्थितियों के अध्ययन और मानकीकरण का प्रयास ध्वनिशास्त्र, ध्वनिग्रामशास्त्र, रूपग्रामशास्त्र आदि की तरह प्रचलित और प्रसिद्ध नहीं हो सका। हिंदी अर्थ विज्ञा पर केवल डॉ. सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या, डॉ. बाबूराम सक्सेना, डॉ. हरदेव बाहरी, डॉ. धीरेन्द्र वर्मा, डॉ, उदय नारायण तिवारी, डॉ. सुरेश कुमार वर्मा आदि ने ही कार्य किया है। डॉ. बाहरी ने ने अंग्रेजी में लिखित शोध प्रबंध 'हिंदी सेमेंटिक्स' हिंदी भाषा को अर्थविज्ञान के विविध कोणों से स्पर्श किया गया है। डॉ. केशवराम पाल का हिंदी अर्थ से सम्बद्ध शोध प्रबंध 'हिंदी में प्रयुक्त संस्कृत शब्दों के अर्थ परिवर्तन' की परिधि सीमित है। अर्थान्तर की नींव वस्तु - नामांकन के समय ही पड़ जाती है। एक नामांकन दूसरे नामांकन को जन्म देता है। इससे प्रथम में अर्थान्तर की छाया उत्पन्न हो जाती है।
वाक्य और अर्थ में अर्थवैज्ञानिक एवं व्याकरणिक संबंध है। वाक्य के भेद-प्रभेद अर्थ को भिन्न-भिन्न स्तर प्रदान करते हैं। शब्द शक्तियों काव्य वैभव में वृद्धि करती हैं। हिंदी अर्थ परिवर्तन में लक्षणा और व्यंजना का अभूतपूर्व योगदान है।
हिंदी क्रियाओं के अंतर्गत अर्थ के लक्षणात्मक परिवर्तन, विशेषार्थक व्यंजनाओं, तथा संध्वनीय भिन्नार्थी रूपों का ज्ञान रचनाकार को होना आवश्यक है।
अर्थ की दृष्टि से विशेषणों की अस्पष्टता व विसंगति, उनके प्रयोग भेद, विरुद्धार्थी विशेषणों की सापेक्ष स्थिति का परिचय स्थिर अर्थ को गतिमान कर सकता है। विशेषणों के अर्थों को प्रत्यय योजना भी प्रभावित करती है। संज्ञा और विशेषण की भिन्नार्थक समध्वनीयता रचनाओं में रोचकता और लालित्य की वृद्धि करती हैं।
क्रमश:
४-७-२०२०
***
मुक्तक - कसूर
*
ओ कसूरी लाल! तुझको कया कहूँ?
चुप कसूरों को क्षमाकर क्यों दहूँ?
नटखटी नटवर न छोडूँ साँवरे!
रास-रस में साथ तेरे हँस बहूँ.
*
तू कहेगा झूठ तो भी सत्य हो.
तू करे हुडदंग तो भी नृत्य है.
साँवरे ओ बाँवरे तेरा कसूर
जगत कहता ईश्वर का कृत्य है.
*
कौन तेरे कसूरों से रुष्ट है?
छेड़ता जिसको वही संतुष्ट है.
राधिका, बाबा या मैया जशोदा-
सभी का ऐ कसूरी तू इष्ट है.
***
: बाल कविता :
*
आन्या गुडिया प्यारी,
सब बच्चों से न्यारी।
.
गुड्डा जो मन भाया,
उससे हाथ मिलाया।
.
हटा दिया मम्मी ने,
तब दिल था भर आया।
.
आन्या रोई-मचली,
मम्मी थी कुछ पिघली।
.
''नया खिलौना ले लो'',
आन्या को समझाया।
.
शाम को पापा आए
मम्मी पर झल्लाए।
*
हुई रुआँसी मम्मी
आन्या ने ली चुम्मी।
*
बोली: ''इनको बदलो
साथ नये के हँस लो''।
***
आभार
*
आभार ही
आ भार.
वही कहे
जो सके
भार स्वीकार.
४-७-२०१७
***
दोहा गीत
*
जो अव्यक्त हो,
व्यक्त है
कण-कण में साकार
काश!
कभी हम पा सकें,
उसके भी दीदार
*
कंकर-कंकर में वही
शंकर कहते लोग
संग हुआ है किस तरह
मक्का में? संजोग
जगत्पिता जो दयामय
महाकाल शशिनाथ
भूतनाथ कामारि वह
भस्म लगाए माथ
भोगी-योगी
सनातन
नाद वही ओंकार
काश!
कभी हम पा सकें,
उसके भी दीदार
*
है अगम्य वह सुगम भी
अवढरदानी ईश
गरल गहे, अमृत लुटा
भोला है जगदीश
पुत्र न जो, उनका पिता
उमानाथ गिरिजेश
नगर न उसको सोहते
रुचे वन्य परिवेश
नीलकंठ
नागेश हे!
बसो ह्रदय-आगार
काश!
कभी हम पा सकें,
उसके भी दीदार
४-७-२०१६
***
कृति चर्चा:
अँधा हुआ समय का दर्पन : बोल रहा है सच कवि का मन
चर्चाकार: आचार्य संजीव
*
[कृति विवरण: अँधा हुआ समय का दर्पन, डॉ. रामसनेही लाल शर्मा 'यायावर', नवगीत संग्रह, १९०९, आकार डिमाई, पृष्ठ १२७, १५०/-, आवरण बहुरंगी सजिल्द जैकेट सहित, अयन प्रकाशन दिल्ली, संपर्क: ८६ तिलक नगर, फीरोजाबाद १८३२०३, चलभाष: ९४१२३६७७९,dr.yayavar@yahoo.co.in]
*
श्रेष्ठ-ज्येष्ठ साहित्यकार डॉ. रामसनेहीलाल शर्मा 'यायावर' के आठवें काव्य संकलन और तीसरी नवगीत संग्रह 'अँधा हुआ समय का दर्पण' पढ़ना युगीन विसंगतियों और सामाजिक विडम्बनाओं से आहत कवि-मन की सनातनता से साक्षात करने की तरह है. आदिकाल से अब तक न विसंगतियाँ कम होती हैं न व्यंग्य बाणों के वार, न सुधार की चाह. यह त्रिवेणी नवगीत की धार को अधिकाधिक पैनी करती जाती है. यायावर जी के नवगीत अकविता अथवा प्रगतिवादी साहित्य की की तरह वैषम्य की प्रदर्शनी लगाकर पीड़ा का व्यापार नहीं करते अपितु पूर्ण सहानुभूति और सहृदयता के साथ समाज के पद-पंकज में चुभे विसंगति-शूल को निकालकर मलहम लेपन के साथ यात्रा करते रहने का संदेश और सफल होने का विश्वास देते हैं.
इन नवगीतों का मिजाज औरों से अलग है. इनकी भाव भंगिमा, अभिव्यक्ति सामर्थ्य, शैल्पिक अनुशासन, मौलिक कथ्य और छान्दस सरसता इन्हें पठनीयता ही नहीं मननीयता से भी संपन्न करती है. गीत, नवगीत, दोहा, ग़ज़ल, हाइकु, ललित निबंध, समीक्षा, लघुकथा और अन्य विविध विधाओं पर सामान दक्षता से कलम चलाते यायावर जी अपनी सनातन मूल्यपरक शोधदृष्टि के लिये चर्चित रहे हैं. विवेच्य कृति के नवगीतों में देश और समाज के सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक परिदृश्य का नवगीतीय क्ष किरणीय परीक्षण नितांत मलिन तथा तत्काल उपचार किये जाने योग्य छवि प्रस्तुत करता है.
पीर का सागर / घटज ऋषि की / प्रतीक्षा कर रहा है / धर्म के माथे अजाने / यक्ष-प्रश्नों की व्यथा है -२५,
भूनकर हम / तितलियों को / जा रहे जलपान करने / मंत्र को मुजरे में / भेजा है / किसी ने तान भरने -२६,
हर मेले में / चंडी के तारोंवाली झूलें / डाल पीठ पर / राजाजी के सब गुलाम फूलें / राजा-रानी बैठ पीठ पर / जय-जयकार सुनें / मेले बाद मिलें / खाने को / बस सूखे पौधे - ३८
दूधिया हैं दाँत लेकिन / हौसला परमाणु बम है / खो गया मन / मीडिया में / आजकल चरचा गरम है / आँख में जग रहा संत्रास हम जलते रहे हैं - ३९
सूखी तुलसी / आँगन के गमले में / गयी जड़ी / अपने को खाने / टेबिल पर / अपनी भूख खड़ी / पाणिग्रहण / खरीद लिया है / इस मायावी जाल ने - ४४
चुप्पी ओढ़े / भीड़ खड़ी है / बोल रहे हैं सन्नाटे / हवा मारती है चाँटे / नाच रहीं बूढ़ी इच्छाएँ / युवा उमंग / हुई सन्यासिन / जाग रहे / विकृति के वंशज / संस्कृति लेती खर्राटे -५२
भूमिका पर थी बहस / कुछ गर्म इतनी / कथ्य पूरा रह गया है अनछुआ / क्या हुआ? / यह क्या हुआ? - ५७
यहाँ शिखंडी के कंधे पर / भरे हुए तूणीर / बेध रहे अर्जुन की छाती / वृद्ध भीष्म के तीर / किसे समर्पण करे कहानी / इतनी कटी-फ़टी -६०-६१
सम्मानित बर्बरता / अभिनन्दित निर्ममता / लांछित मर्यादा को दें सहानुभूति / चलो / हत्यारे मौसम के कंठ को प्रहारें -७१
पीड़ा के खेत / खड़े / शब्द के बिजूके / मेड़ों पर आतंकित / जनतंत्री इच्छाएँ / वन्य जंतु / पाँच जोड़ बांसुरी बजाएँ / पीनस के रोगी / दुर्गन्ध के भभूके / गाँधी की लाठी / पर / अकड़ी बंदूकें -७३
हर क्षण वही महाभारत / लिप्साएँ वे गर्हित घटनाएँ / कर्ण, शकुनि, दुर्योधन की / दूषित प्रज्ञायें / धर्म-मूढ़ कुछ धर्म-भीरु / कुछ धर्म विरोधी / हमीं दर्द के जाये / भाग्य हमारे फूटे-७६
मुखिया जी के / कुत्ते जैसा दुःख है / मुस्टंडा / टेढ़ी कमर हो गयी / खा / मंहगाई का डंडा / ब्याज चक्रवर्ती सा बढ़कर / छाती पर बैठा / बिन ब्याही बेटी का / भारी हुआ / कुँआरापन -८७
पीना धुआँ, निगलने आँसू / मिलता ज़हर पचने को / यहाँ बहुत मिलता है धोखा / खाने और खिलाने को / अपना रोना, अपना हँसना / अपना जीना-मरना जी / थोड़ा ही लिखता हूँ / बापू! / इसको बहुत समझना जी- पृष्ठ ९९
इन विसंगतियों से नवगीतकार निराश या स्तब्ध नहीं होता। वह पूरी ईमानदारी से आकलन कर कहता है:
'उबल रहे हैं / समय-पतीले में / युग संवेदन' पृष्ठ ११०
यह उबाल बबाल न बन पाये इसीलिये नवगीत रचना है. यायावर निराश नहीं हैं, वे युग काआव्हान करते हैं: 'किरणों के व्याल बने / व्याधों के जाल तने / हारो मत सोनहिरन' -पृष्ठ ११३
परिवर्तन जरूरी है, यह जानते हुए भी किया कैसे जाए? यह प्रश्न हर संवेदनशील मनुष्य की तरह यायावर-मन को भी उद्वेलित करता है:
' झाड़कर फेंके पुराने दिन / जरूरत है / मगर कैसे करें?' -पृष्ठ ११७
सबसे बड़ी बाधा जन-मन की किंकर्तव्यविमूढ़ता है:
देहरी पर / आँगन में / प्राण-प्रण / तन-मन में / बैठा बाजार / क्या करें? / सपने नित्य / खरीदे-बेचे / जाते हैं / हम आँखें मींचे / बने हुए इश्तहार / क्या करें? -पृष्ठ १२४
पाले में झुलसा अपनापन / सहम गया संयम / रिश्तों की ठिठुरन को कैसे / दूर करें अब हम? - पृष्ठ ५६
यायावर शिक्षक रहे हैं. इसलिए वे बुराई के ध्वंस की बात नहीं कहते। उनका मत है कि सबसे पहले हर आदमी जो गलत हो रहा है उसमें अपना योगदान न करे:
इस नदी का जल प्रदूषित / जाल मत डालो मछेरे - पृष्ठ १०७
कवि परिवर्तन के प्रति सिर्फ आश्वस्त नहीं हैं उन्हें परिवर्तन का पूरा विश्वास है:
गंगावतरण होना ही है / सगरसुतों की मौन याचना / कैसे जाने? / कैसे मानें? -पृष्ठ ८४
यह कैसे का यक्ष प्रश्न सबको बेचैन करता है, युवाओं को सबसे अधिक:
तेरे-मेरे, इसके-उसके / सबके ही घर में रहती है / एक युवा बेचैनी मितवा -पृष्ठ ७९
आम आदमी कितना ही पीड़ित क्यों न हो, सुधार के लिए अपना योगदान और बलिदान करने से पीछे नहीं हटता:
एकलव्य हम / हमें दान करने हैं / अपने कटे अँगूठे -पृष्ठ ७५
यायावर जी शांति के साथ-साथ जरूरी होने पर क्रांतिपूर्ण प्रहार की उपादेयता स्वीकारते हैं:
सम्मानित बर्बरता / अभिनन्दित निर्ममता / लांछित मर्यादा को दे सहानुभूति / चलो / हत्यारे मौसम के कंठ को प्रहारें - पृष्ठ ७१
भटक रहे तरुणों को सही राह पर लाने के लिये दण्ड के पहले शांतिपूर्ण प्रयास जरूरी है. एक शिक्षक सुधार की सम्भावना को कैसे छोड़ सकता है?:
आज बहके हैं / किरन के पाँव / फिर वापस बुलाओ / क्षिप्र आओ -पृष्ठ ६९
प्रयास होगा तो भूल-चूक भी होगी:
फिर लक्ष्य भेद में चूक हुई / भटका है / मन का अग्निबाण - पृष्ठ ६२
भूल-चूल को सुधारने पर चर्चा तो हो पर वह चर्चा रोज परोसी जा रही राजनैतिक-दूरदर्शनी लफ्फ़ाजियों सी बेमानी न हो:
भूमिका पर थी बहस / कुछ गर्म इतनी / कथ्य पूरा रह गया है अनछुआ / यह क्या हुआ? / यह क्या हुआ? -पृष्ठ ५७
भटकन तभी समाप्त की जा सकती है जब सही राह पर चलने का संकल्प दृढ़ हो:
फास्टफूडी सभ्यता की कोख में / पलते बवंडर / तुम धुएँ को ओढ़कर नाचो-नचाओ / हम, अभी कजरी सुनेंगे- पृष्ठ ५४
कवि के संकल्पों का मूल कहाँ है यह 'मुक्तकेशिनी उज्जवलवसना' शीर्षक नवगीत में इंगित किया गया है:
आँगन की तुलसी के बिरवे पर / मेरी अर्चना खड़ी है -पृष्ठ ३१
यायावर जी नवगीत को साहित्य की विधा मात्र नहीं परिवर्तन का उपकरण मानते हैं. नवगीत को युग परिवर्तन के कारक की भूमिका में स्वीकार कर वे अन्य नवगीतिकारों का पथप्रदर्शन करते हैं:
यहाँ दर्द, यहाँ प्यार, यहाँ अश्रु मौन / खोजे अस्तित्व आज गीतों में कौन? / शायद नवगीतकार / सांस-साँस पर प्रहार / बिम्बों में बाँध लिया गात -पृष्ठ ३०
यायावर के नवगीतों की भाषा कथ्यानुरूप है. हिंदी के दिग्गज प्राध्यापक होने के नाते उनका शब्द भण्डार समृद्ध और संपन्न होना स्वाभाविक है. अनुप्रास, उपमा, रूपक अलंकारों की छटा मोहक है. श्लेष, यमक आदि का प्रयोग कम है. बिम्ब, प्रतीक और उपमान की प्रचुरता और मौलिकता इन नवगीतों के लालित्य में वृद्धि करती है. आशीष देता सूखा कुआँ, जूते से सरपंची कानून लाती लाठियाँ, कजरी गाता हुआ कलह, कचरे में मोती की तलाश, लहरों पर तैरता सन्नाटा, रोटी हुई बनारसी सुबहें आदि बिम्ब पाठक को बाँधते हैं.
इन नवगीतों का वैशिष्ट्य छान्दसिकता के निकष पर खरा उतरना है. मानवीय जिजीविषा, अपराजेय संघर्ष तथा नवनिर्माण के सात्विक संकल्प से अनुप्राणित नवगीतों का यह संकलन नव नवगीतकारों के लिये विशेष उपयोगी है. यायावर जी के अपने शब्दों में : 'गीत में लय का नियंत्रण शब्द करता है. इसलिए जिस तरह पारम्परिक गीतकार के लिये छंद को अपनाना अनिवार्य था वैसे हही नवगीतकार के लिए छंद की स्वीकृति अनिवार्य है.… नवता लेन के लिए नवगीतकार ने छंद के क्षेत्र में अनेक प्रयोग किये हैं. 'लयखंड' के स्थान पर 'अर्थखण्ड' में गीत का लेखन टी नवगीत में प्रारंभ हुआ ही इसके अतिरिक्त २ लग-अलग छंदों को मिलकर नया छंद बनाना, चरण संख्या घटाकर या बढ़ाकर नया छंद बनाना, चरणों में विसंगति और वृहदखण्ड योजना से लय को नियंत्रित करना जैसे प्रयोग पर्याप्त हुए हैं. इस संकलन में भी ऐसे प्रयोग सुधीपाठकों को मिलेंगे।'
निष्कर्षत: यह कृति सामने नवगीत संकलन न होकर नवगीत की पाठ्य पुस्तक की तरह है जिसमें से तत्सम-तद्भव शब्दों के साथ परिनिष्ठित भाषा और सहज प्रवाह का संगम सहज सुलभ है. इन नवगीतों में ग्रामबोध, नगरीय संत्रास, जाना समान्य की पीड़ाएँ, शासन-प्रशासन का पाखंड, मठाधीशों की स्वेच्छाचारिता, भक्तों का अंधानुकरण, व्यवस्थ का अंकुश और युवाओं की शंकाएं एक साथ अठखेला करती हैं.
***
***
कुण्डलिनी :
*
हे माँ! हेमा है खबर, खाकर थोड़ी चोट
बची; हुई जो दिवंगता, थी इलाज में खोट
थी इलाज में खोट, यही अच्छे दिन आए
व्ही आई पी है खास, आम जन हुए पराए
कब तक नेताओं को, जनता करे क्यों क्षमा?
काश समझ लें दर्द, आम जन का कुछ हेमा
४-७-२०१५
***

शनिवार, 7 जून 2025

जून ७, समीक्षा, गीता, कामरूप, सड़गोड़ासनी, श्री श्री, माँ, हरिगीतिका, शारदा, शोकहर, शुभंगी, छंद



गीता हिंदी रूपांतरण
(महातैथिक जातीय, शुभंगी / शोकहर छंद, १६-१४, ८-८-८-६,
पदांत गुरु, दूसरे-चौथे-छठे चौकल में जगण वर्जित)
गीता अध्याय ५ : कर्म-सन्यास योग
*
पार्थ- कर''पूर्व सन्यास कर्म हरि!, फिर कह कर्मयोग अच्छा।
अधिक लाभप्रद दोनों में से, एक मुझे कहिए निश्चित''।।१।।
*
हरि- ''सन्यास- कर्म दोनों ही, मुक्ति राह हैं दिखलाते।
किन्तु कर्म सन्यास से अधिक, कर्म योग ही उत्तम है।।२।।
*
जाने वह सदैव सन्यासी, जो न द्वेष या आस करे।
द्विधामुक्त हो बाहुबली! वह, सुख से बंधनमुक्त रहे।।३।।
*
सांख्य-योग को भिन्न बताते, कमज्ञानी विद्वान नहीं।
रहे एक में भी थिर जो वह, दोनों का फल-भोग करे।।४।।
*
जो सांख्य से मिले जगह वही, मिले योग के द्वारा भी।
एक सांख्य को और योग को, जो देखे वह दृष्टि सही।।५।।
*
है सन्यास महाभुजवाले!, दुखमय बिना योग जानो।
योगयुक्त मुनि परमेश्वर को, शीघ्र प्राप्त कर लेता है।।६।।
*
योगयुक्त शुद्धात्मावाले, आत्मजयी इंद्रियजित जो।
सब जीवों में परमब्रह्म को, जान कर्म में नहीं बँधे।।७।।
*
निश्चय ही कुछ किया न करता, ऐसा सोचे सत-ज्ञानी।
देखे, सुन, छू, सूँघ, खा, जा, देखे सपना, साँसें ले।।८।।
*
बात करे, तज दे, स्वीकारे, चक्षु मूँद ले या देखे।
इंद्रिय में इन्द्रियाँ तृप्त हों, इस प्रकार जो सोच रहे।।९।।
*
करे ब्रह्म-अर्पित कार्यों को, तज आसक्ति रहे करता।
हो न लिप्त वह कभी पाप में, कमल पत्र ज्यों जल में हो।।१०।।
*
तन से, मन से, याकि बुद्धि से, या केवल निज इंद्रिय से।
योगी करते कर्म मोह तज, आत्म-शुद्धि के लिए सदा।।११।।
*
युक्त कर्म-परिणाम सभी तज, शांति प्राप्त नैष्ठिक करते।
दूर ईश से भोग कर्म-फल, मोहासक्त बँधे रहते।।१२।।
*
सब कर्मों को मन से तजकर, रहे सुखी संयमी सदा।
नौ द्वारों के पुर में देही, करता न ही कराता।।१३।।
*
कर्तापन को नहिं कर्मों को, लोक हेतु प्रभु सृजित करे।
कर्मफल संयोग न रचते, निज स्वभाव से कार्य करे।।१४।।
*
कभी नहीं स्वीकार किसी का, पाप-पुण्य प्रभु करते हैं।
अज्ञान-ढँके ज्ञान की भाँति, जीव मोहमय रहते हैं।।१५।।
*
ज्ञान से अज्ञान वह सारा, नष्ट जिसका हो चुका हो।
ज्ञान उसका प्रकाशित करता, परमेश्वर परमात्मा को।।१६ ।।
*
उस मति-आत्मा-मन वाले जन, प्रभुनिष्ठा रख आश्रय ले।
जाते अपनी मुक्ति राह पर, ज्ञान मिटा सब कल्मष दे।।१७।।
*
विद्या तथा विनय पाए जन, ब्राह्मण में गौ-हाथी में।
कुत्ते व चांडाल में ज्ञानी, एक समान दृष्टि रखते।।१८।।
*
इस जीवन में सर्गजयी जो, उसका समता में मन रहता।
है निर्दोष ब्रह्म जैसे वे, सदा ब्रह्म में वह रहता।।१९।।
*
नहीं हर्षित सुप्रिय पाकर जो, न विचलित पा अप्रिय को हो।
अचल बुद्धि संशयविहीन वह, ब्रह्म जान उसमें थिर हो।।२०।।
*
बाह्य सुखों से निरासक्त वह, भोगे आत्मा के सुख को।
ब्रह्म-ध्यान कर मिले ब्रह्म में, मिल भोगे असीम सुख वो।।२१।।
*
इंद्रियजन्य भोग दुख के हैं, कारण निश्चय ही सारे।
आदि-अंतयुत हैं कुंतीसुत!, नहीं विवेकी कभी रमे।।२२।।
*
है समर्थ वह तन में सह ले, जो तन तजने के पहले।
काम-क्रोध उत्पन्न वेग को, नर योगी वह सुखी रहे।।२३।।
*
जो अंतर में सुखी; रमणकर अंतर अंतर्ज्योति भरे।
निश्चय ही वह योगी रमता, परमब्रह्म में मुक्ति वरे।।२४।।
*
पाते ब्रह्म-मुक्ति वे ऋषि जो, सब पापों से दूर रहे।
दूर द्वैत से; आत्म-निरत वह, सब जन का कल्याण करे।।२५।।
*
काम- क्रोध से मुक्त पुरुष की, मन पर संयमकर्ता की।
निकट समय में ब्रह्म मुक्ति हो, आत्मज्ञान युत सिद्धों की।।२६।।
*
इंद्रिय विषयों को कर बाहर, चक्षु भौंह के मध्य करे।
प्राण-अपान वायु सम करके, नाक-अभ्यंतर बिचरे।।२७।।
*
संयम इंद्रिय-मन-मति पर कर, योगी मोक्ष परायण हो।
तज इच्छा भय क्रोध सदा जो, निश्चय सदा मुक्त वह हो।।२८।।
*
भोक्ता सारे यज्ञ-तपों का, सब लोकों के देवों का।
उपकारी सब जीवों का, यह जान मुझे वह वरे सदा।।२९।।
***
दोहा-
बंदौं सारद मात खौं, हंस बिराजीं मौन
साँसों में ऐंसी बसीं, ज्यों भोजन में नौन
*
टेक-
ओ बीनावाली सारदा!, बीना दो झनकार
हंसबिराजीं मोरी माता, मंद-मंद मुसकांय
हांत जोर ठाँड़े बिधि-हरि-हर, रमा-उमा सँग आँय
ओ बीनावाली सारदा! डालो दृष्टि उदार
कमल आसनी मोर म'तारी, ध्वनि-अच्छर मा बास
मो पे किरपा करियो मैया!, मम उर करो निवास
ओ बीनावाली सारदा!, बिनती हाँत पसार
तुमनें असुरों की मति फेरी, मोरी बिपदा टारो
भौत घना तम छाओ मैया!, बनकें जोत उबारो
ओ बीनावाली सारदा!, दया-दृष्टि दो डार
***
शारद वंदना
छंद - हरिगीतिका
मापनी - लघु लघु गुरु लघु गुरु
*
माँ शारदे!, माँ तार दे....
कर शारदे! इतनी कृपा, नित छंद का, नव ग्यान दे
रस-भाव का, लय-ताल का, सुर-तान का, अनुमान दे
सपने पले, शुभ मति मिले, गति-यति सधे, मुसकान दे
विपदा मिटे, कलियाँ खिलें,
खुशियाँ मिलें, नव गान दे
६-६-२०२०
***
मतिमान माँ ममतामयी!
द्युतिमान माँ करुणामयी
विधि-विष्णु-हर पर की कृपा
हर जीव ने तुमको जपा
जिह्वा विराजो तारिणी!
अजपा पुनीता फलप्रदा
बन बुद्धि-बल, बल बन बसीं
सब में सदा समतामयी
महनीय माँ, कमनीय माँ
रमणीय माँ, नमनीय माँ
कलकल निनादित कलरवी
सत सुर बसीं श्रवणीय माँ
मननीय माँ कैसे कहूँ
यश अपरिमित रचनामयी
अक्षर तुम्हीं ध्वनि नाद हो
निस्तब्ध शब्द-प्रकाश हो
तुम पीर, तुम संवेदना
तुम प्रीत, हर्ष-हुलास हो
कर जीव हर संजीव दो
रस-तारिका क्षमतामयी
***
मुक्तिका
*
कृपा करो माँ हंसवाहिनी!, करो कृपा
भवसागर में नाव फँसी है, भक्त धँसा
रही घेर माया फंदे में, मातु! बचा
रखो मोह से मुक्त, सृजन की डोर थमा
नहीं हाथ को हाथ सूझता, राह दिखा
उगा सूर्य नव आस जगा, भव त्रास मिटा
रहे शून्य से शू्न्य, सु मन से सुमन मिला
रहा अनकहा सत्य कह सके, काव्य-कथा
दिखा चित्र जो गुप्त, न मन में रहे व्यथा
'सलिल' सत्य नारायण की सच सिरज कथा
७-६-२०२०
***
श्री श्री चिंतन: दोहा गुंजन
*
जो पाया वह खो दिया, मिला न उसकी आस।
जो न मिला वह भूलकर, देख उसे जो पास।।
*
हर शंका का हो रहा, समाधान तत्काल।
जिस पर गुरु की हो कृपा, फल पाए हर हाल।।
*
धन-समृद्धि से ही नहीं, मिल पाता संतोष।
काम आ सकें अन्य के, घटे न सेवा कोष।।
*
गुरु जी से जो भी मिला, उसका कहीं न अंत।
गुरु में ही मिल जायेंगे, तुझको आप अनंत।।
*
जीवन यात्रा शुरू की, आकर खाली हाथ।
जोड़-तोड़ तज चला चल, गुरु-पग पर रख माथ।।
*
लेखन में संतुलन हो, सत्य-कल्पना-मेल।।
लिखो सकारात्मक सदा, शब्दों से मत खेल।।
*
गुरु से पाकर प्रेरणा, कर खुद पर विश्वास।
अपने अनुभव से बढ़ो, पूरी होगी आस।।.
*
गुरु चरणों का ध्यान कर, हो जा भव से पार।
गुरु ही जग में सार है, बाकी जगत असार।।
*
मन से मन का मिलन ही, संबंधों की नींव।
मन न मिले तो, गुरु-कृपा, दे दें करुणासींव।।
*
वाणी में अपनत्व है, शब्दों में है सत्य।
दृष्टि अमिय बरसा रही, बन जा गुरु का भृत्य।।
*
नस्ल, धर्म या लिंग का, भेद नहीं स्वीकार।
उस प्रभु को जिसने किया, जीवन को साकार।।
*
है अनंत भी शून्य भी, अहं ईश का अंश।
डूब जाओ या लीन हो, लक्ष्य वही अवतंश।।
*
शब्द-शब्द में भाव है, भाव समाहित अर्थ।
गुरु से यह शिक्षा मिली, शब्द न करिए व्यर्थ।।
*
बिंदु सिंधु में समाहित, सिंधु बिंदु में लीन।
गुरु का मानस पुत्र बन, रह न सकेगा दीन।।
*
सद्विचार जो दे जगा, वह लेखन है श्रेष्ठ।
लेखक सत्यासत्य को, साध बन सके ज्येष्ठ।।
७.६.२०१८
***
सड़गोड़ासनी 3
श्री श्री आइए
*
श्री श्री आइए मन-द्वारे,
चित पल-पल मनुहारे।
सब जग को देते प्रकाश नित,
हर लेते अँधियारे।
मृदु मुसकान अधर की शोभा,
मीठा वचन उचारे।
नयनों में है नेह-नर्मदा,
नहा-नहा तर जा रे!
मेघ घटा सम छाओ-बरसो,
चातक प्राण पुकारे।
अंतर्मन निर्मल करते प्रभु,
जै-जैकार गुँजा रे।
श्री-चरणों की रज पाना तो,
खुद को धरा बना रे।
कल खोकर कल सम है जीवन,
व्याकुल पार लगा रे।
लोभ मोह माया तृष्णा तज
गुरु का पथ अपना रे!
श्री-वचनों का अमिय पानकर
जीवन सफल बना रे!
६.६.२०१८ 
***
मुक्तक:
*
मुक्त मन से रचें मुक्तक, बंधनों को भूलिए भी.
विषधरों की फ़िक्र तजकर, चंदनों को चूमिये भी.
बन सकें संजीव मन में, देह ले मिथिलेश जैसी-
राम का सत्कार करिए, सँग दशरथ झूमिये भी.
*
ज्ञान-कर्मेन्द्रिय सुदशरथ, जनक मन को संयमित रख.
लख न कोशिश-माथ हो नत, लखन को अविजित सदा लख.
भरत भय से विरत हो, कर शत्रु का हन शत्रुहन हो-
जानकी ही राम की है जान, रावण याद सच रख.
७-६-२०१८
***
समीक्षा
यह ‘काल है संक्रांति का’
- राजेंद्र वर्मा
गद्य-पद्य की विभिन्न विधाओं में निरंतर सृजनरत और हिंदी भाषा के व्याकरण तथा पिंगल के अधिकारी विद्वान आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ने खड़ी हिंदी के समांतर बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, अवधी, छत्तीसगढ़ी, मालवी, निमाड़ी, राजस्थानी, हरियाणवी, सिरायकी तथा अंग्रेजी में भी लेखन किया है। अपनी बुआश्री महीयसी महादेवी जी तथा माताजी कवयित्री शांति देवी को साहित्य व भाषा-प्रेम की प्रेरणा माननेवाले ‘सलिल’ जी आभासी दुनिया में भी वे अपनी सतत और गंभीर उपस्थिति से हिंदी के साहित्यिक पाठकों को लाभान्वित करते रहे हैं। गीत, नवगीत, ग़ज़ल और कविता के लेखन में छंद की प्रासंगिकता और उसके व्याकरण पर भी उन्होंने अपेक्षित प्रकाश डाला है। रस-छंद- अलंकारों पर उनका विशद ज्ञान लेखों के माध्यम से हिंदी संसार को लाभान्वित करता रहा है। वस्तु की दृष्टि से शायद ही कोई ऐसा विषय हो जो उनकी लेखनी से अछूता रहा हो- भले ही वह गीत हो, कविता हो अथवा लेख! नवीन विषयों पर पकड़ के साथ-साथ उनकी रचनाओं में विशद जीवनानुभव बोलता-बतियाता है और पाठकों-श्रोताओं में संजीवनी भरता है।
‘काल है संक्रांति का’ संजीव जी का नवीनतम गीत-संग्रह है जिसमें ६५ गीत-नवगीत हैं। जनवरी २०१४ से मार्च २०१६ के मध्य रचे गये ये गीत शिल्प और विषय, दोनों में बेजोड़ हैं। संग्रह में लोकगीत, सोहर, हरगीतिका, आल्हा, दोहा, दोहा-सोरठा मिश्रित, सार आदि नए-पुराने छंदों में सुगठित ये गीति-रचनाएँ कलात्मक अभिव्यक्ति में सामयिक विसंगतियों और विद्रूपताओं की ख़बर लेते हुए आम आदमी की पीड़ा और उसके संघर्ष-संकल्प को जगर-मगर करती चलती हैं। नवगीत की शक्ति को पहचानकर शिल्प और वास्तु में अधिकाधिक सामंजस्य बिठाकर यथार्थवादी भूमि पर रचनाकार ने आस-पास घटित हो रहे अघट को कभी सपाट, तो कभी प्रतीकों और मिथकों के माध्यम से उद्घाटित किया है। विसंगतियों के विश्लेषण और वर्णित समस्या का समाधान प्रस्तुत करते अधिकांश गीत टटकी भाव-भंगिमा दर्शाते हैं। बिम्ब-प्रतीक, भाषा और टेक्नीक के स्तरों पर नवता का संचार करते हैं। इनमें ऐंद्रिक भाव भी हैं, पर रचनाकार तटस्थ भाव से चराचर जगत को सत्यम्-शिवम्- सुन्दरम् के वैचारिक पुष्पों से सजाता है।
शीर्षक गीत, ‘काल है संक्रांति का’ में मानवीय मूल्यों और प्राची के परिवेश से च्युत हो रहे समाज को सही दिशा देने के उद्देश्य से नवगीतकार, सूरज के माध्यम से उद्बोधन देता है। यह सूरज आसमान में निकलने वाला सूरज ही नहीं, वह शिक्षा, साहित्य, विज्ञान आदि क्षेत्रों के पुरोधा भी हो सकते हैं जिन पर दिग्दर्शन का उत्तरदायित्व है—
काल है संक्रांति का / तुम मत थको सूरज!
दक्षिणायन की हवाएँ / कँपाती हैं हाड़
जड़ गँवा, जड़ युवा पीढ़ी / काटती है झाड़
प्रथा की चूनर न भाती / फेंकती है फाड़
स्वभाषा को भूल, इंग्लिश / से लड़ाती लाड़
टाल दो दिग्भ्रांति को / तुम मत रुको सूरज!
.......
प्राच्य पर पाश्चात्य का / अब चढ़ गया है रंग
कौन, किसको सम्हाले / पी रखी मद की भंग
शराफत को शरारत / नित कर रही है तंग
मनुज-करनी देखकर है / ख़ुद नियति भी दंग
तिमिर को लड़, जीतना / तुम मत चुको सूरज! (पृ.१६)
एक अन्य गीत, ‘संक्रांति काल है’ में रचनाकार व्यंग्य को हथियार बनाता है। सत्ता व्यवस्था में बैठे लोगों से अब किसी भले काम की आशा ही नहीं रही, अतः गीतकार वक्रोक्ति का सहारा लेता है-
प्रतिनिधि होकर जन से दूर / आँखे रहते भी हो सूर
संसद हो चौपालों पर / राजनीति तज दे तंदूर
अब भ्रान्ति टाल दो / जगो, उठो!
अथवा,
सूरज को ढाँके बादल / सीमा पर सैनिक घायल
नाग-साँप फिर साथ हुए / गुँजा रहे बंसी-मादल
झट छिपा माल दो / जगो, उठो!
गीतकार सत्ताधीशों की ही खबर नहीं लेता, वह हममें-आपमें बैठे चिन्तक-सर्जक पर भी व्यंग्य करता है; क्योंकि आज सत्ता और सर्जना में दुरभिसंधि की उपस्थिति किसी से छिपी नहीं हैं--
नवता भरकर गीतों में / जन-आक्रोश पलीतों में
हाथ सेंक ले कवि, तू भी / जी ले आज अतीतों में
मत खींच खाल दो / जगो, उठो! (पृ.२०)
शिक्षा जीवन की रीढ़ है। इसके बिना आदमी पंगु है, दुर्बल है और आसानी से ठगा जाता है। गीतकार ने सूरज (जो प्रकाश देने का कार्य करता है) को पढने का आह्वान किया है, क्योंकि जब तक ज्ञान का प्रकाश नहीं फैलता है, तब तक किसी भी प्रकार के विकास या उन्नयन की बात निरर्थक है। सन्देश रचने और अभिव्यक्त करने में रचनाकार का प्रयोग अद्भुत है—
सूरज बबुआ! / चल स्कूल।
धरती माँ की मीठी लोरी / सुनकर मस्ती ख़ूब करी।
बहिन उषा को गिरा दिया / तो पिता गगन से डाँट पड़ी।
धूप बुआ ने लपक चुपाया
पछुआ लायी बस्ता-फूल।
......
चिड़िया साथ फुदकती जाती / कोयल से शिशु गीत सुनो।
‘इकनी एक’ सिखाता तोता / ’अ’ अनार का याद रखो।
संध्या पतंग उड़ा, तिल-लडुआ
खा, पर सबक़ न भूल। (पृ.३५)
परिवर्तन प्रकृति का नियम है। नव वर्ष का आगमन हर्षोल्लास लाता है और मानव को मानवता के पक्ष में कुछ संकल्प लेने का अवसर भी, पर हममें से अधिकांश की अन्यमनस्कता इस अवसर का लाभ नहीं उठा पाती। ‘सलिल’ जी दार्शनिक भाव से रचना प्रस्तुत करते हैं जो पाठक पर अन्दर-ही- अन्दर आंदोलित करती चलती है—
नये साल को/आना है तो आएगा ही।
करो नमस्ते या मुँह फेरो।
सुख में भूलो, दुख में टेरो।
अपने सुर में गायेगा ही/नये साल...।
एक-दूसरे को ही मारो।
या फिर, गले लगा मुस्काओ।
दर्पण छवि दिखलायेगा ही/नये साल...।
चाह, न मिटना, तो ख़ुद सुधरो।
या कोसो जिस-तिस को ससुरो!
अपना राग सुनायेगा ही/नये साल...। (पृ.४७)
विषयवस्तु में विविधता और उसकी प्रस्तुति में नवीनता तो है ही, उनके शिल्प में, विशेषतः छंदों को लेकर रचनाकार ने अनेक अभिनव प्रयोग किये हैं, जो रेखांकित किये जाने योग्य हैं। कुछ उद्धरण देखिए—
सुन्दरिये मुन्दरिये, होय!
सब मिल कविता करिये होय!
कौन किसी का प्यारा होय!
स्वार्थ सभी का न्यारा होय!
जनता का रखवाला होय!
नेता तभी दुलारा होय!
झूठी लड़ै लड़ाई होय!
भीतर करें मिताई होय!
.....
हिंदी मैया निरभै होय!
भारत माता की जै होय! (पृ.४९)
उपर्युक्त रचना पंजाब में लोहड़ी पर्व पर राय अब्दुल्ला खान भट्टी उर्फ़ दुल्ला भट्टी को याद कर गाये जानेवाले लोकगीत की तर्ज़ पर है। इसी प्रकार निम्नलिखित रचना बुन्देली लोककवि ईसुरी की चौकड़िया फागों (पद भार१६/१२) पर आधारित है। दोनों ही गीतों की वस्तु में युगबोध उमगता हुआ दिखता है—
मिलती काय नें ऊँचीवारी / कुर्सी हमको गुइयाँ!
हमखों बिसरत नहीं बिसारे / अपनी मन्नत प्यारी
जुलुस, विसाल भीर जयकारा / सुविधा संसद न्यारी
मिल जाती, मन की कै लेते / रिश्वत ले-दे भइया!
......
कौनउ सगो हमारो नैयाँ / का काऊ से काने?
अपने दस पीढ़ी खें लाने / हमें जोड़ रख जानें।
बना लई सोने की लंका / ठेंगे पे राम-रमैया! (पृ.५१)
इसी छंद में एक गीत है, ‘जब लौं आग’, जिसमें कवि ने लोक की भाषा में सुन्दर उद्बोधन दिया है। कुछ पंक्तियाँ देखें—
जब लौं आग न बरिहै, तब लौं / ना मिटिहै अन्धेरा!
सबऊ करो कोसिस मिर-जुर खें / बन सूरज पगफेरा।
......
गोड़-तोड़ हम फ़सल उगा रए / लूट रए व्यापारी।
जन के धन से तनखा पा खें / रौंद रए अधिकारी।
जागो, बनो मसाल / नई तो / घेरे तुमै / अँधेरा! (पृ.६४)
गीत ‘सच की अरथी’ (पृ.55) दोहा छंद में है, तो अगले गीत, ‘दर्पण का दिल’ का मुखड़ा दोहे छंद में है और उसके अंतरे सोरठे में हैं, तथापि गीत के ठाठ में कोई कमी नहीं आयी है। कुछ अंश देखिए—
दर्पण का दिल देखता, कहिए, जब में कौन?
आप न कहता हाल, भले रहे दिल सिसकता।
करता नहीं ख़याल, नयन कौन-सा फड़कता!
सबकी नज़र उतारता, लेकर राई-नौन! (पृ.५७)
छंद-प्रयोग की दृष्टि से पृष्ठ ५९, ६१ और ६२ पर छोटे-छोटे अंतरों के गीत ‘हरगीतिका’ में होने के कारण पाठक का ध्यान खींचते हैं। एक रचनांश का आनंद लीजिए—
करना सदा, वह जो सही।
........
हर शूल ले, हँस फूल दे
यदि भूल हो, मत तूल दे
नद-कूल को पग-धूल दे
कस चूल दे, मत मूल दे
रहना सदा, वह जो सही। (पृ.६२)
सत्ता में बैठे छद्म समाजवादी और घोटालेबाजों की कमी नहीं है। गीतकार ने ऐसे लोगों पर प्रहार करने में कसर नहीं छोड़ी है—
बग्घी बैठा / बन सामंती समाजवादी।
हिन्दू-मुस्लिम की लड़वाये
अस्मत की धज्जियाँ उड़ाये
आँसू, सिसकी, चीखें, नारे
आश्वासन कथरी लाशों पर
सत्ता पाकर / उढ़ा रहा है समाजवादी! (पृ.७६)
देश में तमाम तरक्क़ी के बावजूद दिहाड़ी मज़दूरों की हालत ज्यों-की- त्यों है। यह ऐसा क्षेत्र है जिसके संगठितहोने की चर्चा भी नहीं होती, परिणाम यह कि मजदूर को जब शाम को दिहाड़ी मिलती है, वह खाने-पीने के सामान और जीवन के राग को संभालने-सहेजने के उपक्रमों को को जुटाने बाज़ार दौड़ता है। ‘सलिल’ जी ने इस क्षण को बखूबी पकड़ा है और उसे नवगीत में सफलतापूर्वक ढाल दिया है—
मिली दिहाड़ी / चल बाज़ार।
चावल-दाल किलो-भर ले ले / दस रुपये की भाजी
घासलेट का तेल लिटर-भर / धनिया- मिर्चा ताज़ी
तेल पाव-भर फल्ली का / सिन्दूर एक पुड़िया दे-
दे अमरूद पाँच का / बेटी की न सहूँ नाराजी
ख़ाली ज़ेब, पसीना चूता / अब मत रुक रे! / मन बेज़ार! (पृ.८१)
आर्थिक विकास, सामाजिक विसंगतियों का जन्मदाता है। समस्या यह भी है कि हमारे अपनों ने अपने चरित्र में भी संकीर्णता भर ली है। ऐसे हम चाहते भी कुछ नहीं कर पाते और उच्छवास ले-ले रह जाते हैं। ऐसी ही व्यथा का चित्रांकन एक गीत, ‘राम बचाये’ में द्रष्टव्य है। इसके दो बंद देखें—
अपनी-अपनी मर्यादा कर तार-तार / होते प्रसन्न हम,
राम बचाये!
वृद्धाश्रम-बालाश्रम और अनाथालय / कुछ तो कहते हैं!
महिलाश्रम की सुनो सिसकियाँ / आँसू क्यों बहते रहते हैं?
राम-रहीम बीनते कूड़ा / रजिया-रधिया झाडू थामे
सड़क किनारे, बैठे लोटे बतलाते / कितने विपन्न हम,
राम बचाये!
अमराई पर चौपालों ने / फेंका क्यों तेज़ाब, पूछिए!
पनघट ने खलिहानों को क्यों / नाहक़ भेजा जेल बूझिए।
सास-बहू, भौजाई-ननदी / क्यों माँ-बेटी सखी न होती?
बेटी-बेटे में अंतर कर / मन से रहते सदा खिन्न हम,
राम बचाये! (पृ.९४)
इसी क्रम में एक गीत, ख़ुशियों की मछली’ उल्लेखनीय है जिसमें समाज और सत्ता का गँठजोड़ आम आदमी को जीने नहीं दे रहा है। गीत की बुनावट में युगीन यथार्थ के साथ दार्शनिकता का पुट भी है—
ख़ुशियों की मछली को / चिंता का बगुला/खा जाता है।
श्वासों की नदिया में / आसों की लहरें
कूद रही हिरनी-सी / पल भर ना ठहरें
आँख मूँद मगन / उपवासी साधक / ठग जाता है।
....
श्वेत वसन नेता है / लेकिन मन काला
अंधे न्यायालय ने / सच झुठला डाला
निरपराध फँस जाता / अपराधी शातिर बच जाता है।। (पृ.९८)
गीत, ‘लोकतंत्र’ का पंछी’ में भी आम आदमी की व्यथा का यथार्थ चित्रांकन है। सत्ता-व्यवस्था के दो प्रमुख अंग- विधायिका और न्यायपालिका अपने उत्तरदायित्व से विमुख होते जा रहे हैं और जनमत की भूमिका भी संदिग्ध होती जा रही है। लोकतांत्रिक व्यवस्था ही ध्वस्त होती जा रही है—
लोकतंत्र का पंछी बेबस!
नेता पहले डालें दाना / फिर लेते पर नोच
अफ़सर रिश्वत-गोली मारें / करें न किंचित सोच
व्यापारी दे नाश रहा डँस!
.......
राजनीति नफ़रत की मारी / लिए नींव में पोच
जनमत बहरा-गूंगा खो दी / निज निर्णय की लोच
एकलव्य का कहीं न वारिस! (पृ.१००)
प्रकृति के उपादानों को लेकर मानवीय कार्य-व्यापार की रचना विश्वव्यापक होती है, विशेषतः जब उसमें चित्रण-भर न हो, बल्कि उसमें मार्मिकता, और संवेदनापूरित जीवन्तता हो। ‘खों-खों करते’ ऐसा ही गीत है जिसमें शीत ऋतु में एक परिवार की दिनचर्या का जीवन्त चित्र है—
खों-खों करते बादल बब्बा / तापें सूरज सिगड़ी।
आसमान का आँगन चौड़ा / चंदा नापे दौड़ा-दौड़ा
ऊधम करते नटखट तारे / बदरी दादी, ‘रुको’ पुकारे
पछुआ अम्मा बड़-बड़ करती / डाँट लगाती तगड़ी!
धरती बहिना राह हेरती / दिशा सहेली चाह घेरती
ऊषा-संध्या बहुएँ गुमसुम / रात और दिन बेटे अनुपम
पाला-शीत / न आये घर में / खोल न खिड़की अगड़ी!
सूर बनाता सबको कोहरा / ओस बढ़ाती संकट दोहरा
कोस न मौसम को नाहक़ ही / फ़सल लायगी राहत को ही
हँसकर खेलें / चुन्ना-मुन्ना / मिल चीटी-ढप- लँगड़ी! (पृ.१०३)
इन विषमताओं और विसंगतियों के बाबजूद गीतकार अपना कवि-धर्म नहीं भूलता। नकारात्मकता को विस्मृत कर वह आशा की फ़सल बोने और नये इतिहास लिखने का पक्षधर है—
आज नया इतिहास लिखें हम।
अब तक जो बीता, सो बीता
अब न आस-घट होगा रीता
अब न साध्य हो स्वार्थ सुभीता,
अब न कभी लांछित हो सीता
भोग-विलास न लक्ष्य रहे अब
हया, लाज, परिहास लिखें हम।
आज नया इतिहास लिखें हम।।
रहें न हमको कलश साध्य अब
कर न सकेगी नियति बाध्य अब
स्नेह-स्वेद- श्रम हों अराध्य अब
कोशिश होगी महज माध्य अब
श्रम-पूँजी का भक्ष्य न हो अब
शोषक हित खग्रास लिखें हम।। (पृ.१२२)
रचनाकार को अपने लक्ष्य में अपेक्षित सफलता मिली है, पर उसने शिल्प में थोड़ी छूट ली है, यथा तुकांत के मामले में, अकारांत शब्दों का तुक इकारांत या उकारांत शब्दों से (उलट स्थिति भी)। इसी प्रकार, उसने अनुस्वार वाले शब्दों को भी तुक के रूप में प्रयुक्त कर लिया है, जैसे- गुइयाँ / भइया (पृ.५१), प्रसन्न / खिन्न (पृ.९४) सिगड़ी / तगड़ी / लंगड़ी (पृ.१०३)। एकाध स्थलों पर भाषा की त्रुटि भी दिखायी पड़ी है, जैसे- पृष्ठ १२७ पर एक गीत में‘दम’ शब्द को स्त्रीलिंग मानकर ‘अपनी’ विशेषण प्रयुक्त हुआ है। तथापि, इन छोटी-मोटी बातों से संग्रह का मूल्य कम नहीं हो जाता।
गीतकार ने गीतों की भाषा में अपेक्षित लय सुनिश्चित करने के लिए हिंदी-उर्दू के बोलचाल शब्दों को प्राथमिकता दी है; कहीं-कहीं भावानुसार तत्सम शब्दावली का चयन किया है। अधिकांश गीतों में लोक का पुट दिखलायी देता है जिससे पाठक को अपनापन महसूस होता है। आज हम गद्य की औपचारिक शब्दावली से गीतों की सर्जना करने में अधिक लगे हैं, जिसका परिणाम यह हो रहा है कि उनमें मार्मिकता और अपेक्षित संवेदना का स्तर नहीं आ पाता है। भोथरी संवेदनावाली कविता से हमें रोमावलि नहीं हो सकती, जबकि आज उसकी आवश्यकता है। ‘सलिल’ जी ने इसकी भरपाई की पुरज़ोर कोशिश की है जिसका हिंदी नवगीत संसार द्वारा स्वागत किया जाना चाहिए।
वर्तमान संग्रह निःसंदेह नवगीत के प्रसार में अपनी सशक्त भूमिका निभा रहा है और आने वाले समय में उसका स्थान इतिहास में अवश्य लिया जाएगा, यह मेरा विश्वास है।... लोक की शक्ति को सोद्देश्य नवगीतों में ढालने हेतु ‘सलिल’ जी साधुवाद के पात्र है।
- 3/29, विकास नगर, लखनऊ-226 022 (मो.80096 60096)
*
[कृति विवरण- पुस्तक का नाम- काल है संक्रांति का (नवगीत-संग्रह); नवगीतकार- आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’, प्रकाशक- समन्वय प्रकाशन अभियान, २०४ विजय अपार्टमेन्ट, सुभद्रा वार्ड, नेपियर टाउन, जबलपुर- ४८२००१ संस्करण- प्रथम, २०१६; पृष्ठ संख्या- १२८, मूल्य- पुस्तकालय संस्करण: तीन सौ रुपये; जनसंस्करण: दो सौ रुपये।]
***
***
एक रचना-
*
शिव-राज में
शव-राज की
जयकार कीजिए.
*
मर्ज कर्ज का बढ़ाकर
करें नहीं उपचार.
उत्पादक को भिखारी
बना करें सत्कार.
गोली मारें फिर कहें
अन्यों का है काम.
लोकतंत्र का हो रहा
पल-पल काम तमाम.
दे सर्प-दंश
रोग का
उपचार कीजिए.
शिव-राज में
शव-राज की
जयकार कीजिए.
*
व्यापम हुआ गवाह रहे
हैं नहीं बाकी.
सत्ता-सुरा सुरूर चढ़ा,
गुंडई साकी.
खाकी बनी चेरी कुचलती
आम जन को नित्य.
झूठ को जनप्रतिनिधि ही
कह रहे हैं सत्य.
बाजीगरी ही
आंकड़ों की
आप कीजिए.
शिव-राज में
शव-राज की
जयकार कीजिए.
*
कर-वृद्धि से टूटी कमर
कर न सके कर.
बैंकों की दे उधार,गड़ी
जमीन पे नजर.
पैदा करो, न दाम पा
सूली पे जा चढ़ो.
माला खरीदो, चित्र अपना
आप ही मढ़ो.
टूटे न नींद,
हो न खलल
ज़हर पीजिए.
शिव-राज में
शव-राज की
जयकार कीजिए.
७-६-२०१७
***
गीता छंद
*
छंद-लक्षण: जाति महाभागवत, प्रति पद - मात्रा २६ मात्रा, यति १४ - १२, पदांत गुरु लघु.
लक्षण छंद:
चौदह भुवन विख्यात है , कुरु क्षेत्र गीता-ज्ञान
आदित्य बारह मास नित , निष्काम करे विहान
अर्जुन सदृश जो करेगा , हरी पर अटल विश्वास
गुरु-लघु न व्यापे अंत हो , हरि-हस्त का आभास
संकेत: आदित्य = बारह
उदाहरण:
१. जीवन भवन की नीव है , विश्वास- श्रम दीवार
दृढ़ छत लगन की डालिये , रख हौसलों का द्वार
ख्वाबों की रखें खिड़कियाँ , नव कोशिशों का फर्श
सहयोग की हो छपाई , चिर उमंगों का अर्श
२. अपने वतन में हो रहा , परदेश का आभास
अपनी विरासत खो रहे , किंचित नहीं अहसास
होटल अधिक क्यों भा रहा? , घर से हुई क्यों ऊब?
सोचिए! बदलाव करिए , सुहाये घर फिर खूब
३. है क्या नियति के गर्भ में , यह कौन सकता बोल?
काल पृष्ठों पर लिखा क्या , कब कौन सकता तौल?
भाग्य में किसके बदा क्या , पढ़ कौन पाया खोल?
कर नियति की अवमानना , चुप झेल अब भूडोल।
४. है क्षितिज के उस ओर भी , सम्भावना-विस्तार
है ह्रदय के इस ओर भी , मृदु प्यार लिये बहार
है मलयजी मलय में भी , बारूद की दुर्गंध
है प्रलय की पदचाप सी , उठ रोक- बाँट सुगंध
*********
७-६-२०१४
***
कामरूप छंद
*
लक्षण छंद:
कामरूप छंद , दे आनंद , रचकर खुश रहिए
मुँहदेखी नहीं , बात हमेशा , खरी-खरी कहिए
नौ निधि सात सुर , दस दिशाएँ , कीर्ति गाथा कहें
अंत में अंतर , भुला लघु-गुरु , तज- रिक्त कर रहें
संकेत: आदित्य = बारह
उदाहरण:
१. गले लग जाओ , प्रिये! आओ , करो पूरी चाह
गीत मिल गाओ , प्रिये! आओ , मिटे सारी दाह
दूरियाँ कम कर , मुस्कुराओ , छिप भरो मत आह
मन मिले मन से , खिलखिलाओ , करें मिलकर वाह
२. चलें विद्यालय , पढ़ें-लिख-सुन , गुनें रहकर साथ
करें जुटकर श्रम , रखें ऊँचा , हमेशा निज माथ
रोप पौधे कुछ , सींच हर दिन , करें भू को हरा
प्रदूषण हो कम , हँसे जीवन / हर मनुज हो खरा
३. ईमान की हो , फिर प्रतिष्ठा , प्रयासों की जीत
दुश्मनों की हो , पराजय ही / विजय पायें मीत
आतंक हो अब , खत्म नारी , पा सके सम्मान
मुनाफाखोरी , न रिश्वत हो , जी सके इंसान
४. है क्षितिज के उस ओर भी , सम्भावना-विस्तार
है ह्रदय के इस ओर भी , मृदु प्यार लिये बहार
है मलयजी मलय में भी , बारूद की दुर्गंध
है प्रलय की पदचाप सी , उठ रोक- बाँट सुगंध
७-६-२०१४
***
अंतरजाल पर पहली बार :
त्रिपदिक नवगीत :
नेह नर्मदा तीर पर
 *
नेह नर्मदा तीर पर,
अवगाहन कर धीर धर,
पल-पल उठ-गिरती लहर...
*
कौन उदासी-विरागी,
विकल किनारे पर खड़ा?
किसका पथ चुप जोहता?
निष्क्रिय, मौन, हताश है.
या दिलजला निराश है?
जलती आग पलाश है.
जब पीड़ा बनती भँवर,
खींचे तुझको केंद्र पर,
रुक मत घेरा पार कर...
नेह नर्मदा तीर पर,
अवगाहन का धीर धर,
पल-पल उठ-गिरती लहर...
*
सुन पंछी का मशविरा,
मेघदूत जाता फिरा-
'सलिल'-धार बनकर गिरा.
शांति दग्ध उर को मिली.
मुरझाई कलिका खिली.
शिला दूरियों की हिली.
मन्दिर में गूँजा गजर,
निष्ठां के सम्मिलित स्वर,
'हे माँ! सब पर दया कर...
*
पग आये पौधे लिये,
ज्यों नव आशा के दिये.
नर्तित थे हुलसित हिये.
सिकता कण लख नाचते.
कलकल ध्वनि सुन झूमते.
पर्ण कथा नव बाँचते.
बम्बुलिया के स्वर मधुर,
पग मादल की थाप पर,
लिखें कथा नव थिरक कर...
७-६-२०१०
***
एक रचना
*
कथा-गीत:
मैं बूढा बरगद हूँ यारों...
है याद कभी मैं अंकुर था.
दो पल्लव लिए लजाता था.
ऊँचे वृक्षों को देख-देख-
मैं खुद पर ही शर्माता था.
धीरे-धीरे मैं बड़ा हुआ.
शाखें फैलीं, पंछी आये.
कुछ जल्दी छोड़ गए मुझको-
कुछ बना घोंसला रह पाये.
मेरे कोटर में साँप एक
आ बसा हुआ मैं बहुत दुखी.
चिड़ियों के अंडे खाता था-
ले गया सपेरा, किया सुखी.
वानर आ करते कूद-फांद.
झकझोर डालियाँ मस्ताते.
बच्चे आकर झूला झूलें-
सावन में कजरी थे गाते.
रातों को लगती पंचायत.
उसमें आते थे बड़े-बड़े.
लेकिन वे मन के छोटे थे-
झगड़े ही करते सदा खड़े.
कोमल कंठी ललनाएँ आ
बन्ना-बन्नी गाया करतीं.
मागरमाटी पर कर प्रणाम-
माटी लेकर जाया करतीं.
मैं सबको देता आशीषें.
सबको दुलराया करता था.
सबके सुख-दुःख का साथी था-
सबके सँग जीता-मरता था.
है काल बली, सब बदल गया.
कुछ गाँव छोड़कर शहर गए.
कुछ राजनीति में डूब गए-
घोलते फिजां में ज़हर गए.
जंगल काटे, पर्वत खोदे.
सब ताल-तलैयाँ पूर दिए.
मेरे भी दुर्दिन आये हैं-
मानव मस्ती में चूर हुए.
अब टूट-गिर रहीं शाखाएँ.
गर्मी, जाड़ा, बरसातें भी.
जाने क्यों खुशी नहीं देते?
नव मौसम आते-जाते भी.
बीती यादों के साथ-साथ.
अब भी हँसकर जी लेता हूँ.
हर राही को छाया देता-
गुपचुप आँसू पी लेता हूँ.
भूले रस्ता तो रखो याद
मैं इसकी सरहद हूँ प्यारों.
दम-ख़म अब भी कुछ बाकी है-
मैं बूढा बरगद हूँ यारों..
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बाल कविता :
तुहिना-दादी
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तुहिना नन्हीं खेल कूदती.
खुशियाँ रोज लुटाती है.
मुस्काये तो फूल बरसते-
सबके मन को भाती है.
बात करे जब भी तुतलाकर
बोले कोयल सी बोली.
ठुमक-ठुमक चलती सब रीझें
बाल परी कितनी भोली.
दादी खों-खों करतीं, रोकें-
टोंकें सबको : 'जल्द उठो.
हुआ सवेरा अब मत सोओ-
काम बहुत हैं, मिलो-जुटो.
काँटें रुकते नहीं घड़ी के
आगे बढ़ते जायेंगे.
जो न करेंगे काम समय पर
जीवन भर पछतायेंगे.'
तुहिना आये तो दादी जी
राम नाम भी जातीं भूल.
कैयां लेकर, लेंय बलैयां
झूठ-मूठ जाएँ स्कूल.
यह रूठे तो मना लाये वह
वह गाये तो यह नाचे.
दादी-गुड्डो, गुड्डो-दादी
उल्टी पुस्तक ले बाँचें.
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७-६-२०१०