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सोमवार, 30 अक्टूबर 2023

सॉनेट, भोर, बारिश, भारत आरती, लघुकथा, मुक्तिका, नवगीत, अश'आर, दिल, अभियंता, त्रिभंगी छंद

सॉनेट

भोर
*
भोर भई जागो रे भाई!
बिदा करो, अरविंद जा रहा।
सुनो प्रभाती, सूर्य आ रहा।।
प्राची पर छाई अरुणाई।।
गौरैया मुँडेर पर चहकी।
फल कुतरे झट झपट गिलहरी।
टिट् टिट् मिलती गले टिटहरी।।
फुलबगिया मुस्काई-महकी।।
चंपा पर रीझा है गेंदा।
जुही-चमेली लख सकुँचाई
सदा सुहागिन सोहे बेंदा।।
नेह नर्मदा कूद नहाएँ
चपल रश्मियाँ छप् छपाक् कर
सोनपरी हो लहर सिहाए।।
३०-१०-२०२२, ९•११
●●●
सॉनेट
बारिश तुम फिर
१.
बारिश तुम फिर रूठ गई हो।
तरस रहा जग होकर प्यासा।
दुबराया ज्यों शिशु अठमासा।।
मुरझाई हो ठूठ गई हो।।
कुएँ-बावली बिलकुल खाली।
नेह नर्मदा नीर नहीं है।
बेकल मन में धीर नहीं है।।
मुँह फेरे राधा-वनमाली।।
दादुर बैठे हैं मुँह सिलकर।
अंकुर मरते हैं तिल-तिलकर।
झींगुर संग नहीं हिल-मिलकर।
बीरबहूटी हुई लापता।
गर्मी सबको रही है सता।
जंगल काटे, मनुज की खता।।
*
२.
मान गई हो, बारिश तुम फिर।
सदा सुहागिन सी हरियाईं।
मेघ घटाएँ नाचें घिर-घिर।।
बरसीं मंद-मंद हर्षाईं।।
आसमान में बिजली चमकी।
मन भाई आधी घरवाली।
गिरी जोर से बिजली तड़की।।
भड़क हुई शोला घरवाली।।
तन्वंगी भीगी दिल मचले।
कनक कामिनी देह सुचिक्कन।
दृष्टि न ठहरे, मचले-फिसले।।
अनगिन सपने देखे साजन।।
सुलग गई हो बारिश तुम फिर।
पिघल गई हो बारिश तुम फिर।।
*
३.
क्रुद्ध हुई हो बारिश तुम फिर।
सघन अँधेरा आया घिर घिर।।
बरस रही हो, गरज-मचल कर।
ठाना रख दो थस-नहस कर।।
पर्वत ढहते, धरती कंपित।
नदियाँ उफनाई हो शापित।।
पवन हो गया क्या उन्मादित?
जीव-जंतु-मनु होते कंपित।।
प्रलय न लाओ, कहर न ढाओ।
रूद्र सुता हे! कुछ सुस्ताओ।।
थोड़ा हरषो, थोड़ा बरसो।
जीवन विकसे, थोड़ा सरसो।।
भ्रांत न हो हे बारिश! तुम फिर।
शांत रही हे बारिश! हँस फिर।।
३०-१०-२०२२
***
भारत आरती
संजीव
*
आरती भारत माता की
पुण्य भू जग विख्याता की
*
सूर्य ऊषा वंदन करते
चाँदनी चाँद नमन करते
सितारे गगन कीर्ति गाते
पवन यश दस दिश गुंजाते
देवगण पुलक, कर रहे तिलक
ब्रह्म हरि शिव उद्गाता की
आरती भारत माता की
*
हिमालय मुकुट शीश सोहे
चरण सागर पल पल धोए
नर्मदा कावेरी गंगा
ब्रह्मनद सिंधु करें चंगा
असुर सुर मानव त्राता की
आरती भारत माता की
*
करें शृंगार सकल मौसम
कहें मैं-तू मिलकर हों हम
ऋचाएँ कहें सनातन सच
सत्य-शिव-सुंदर कह-सुन रच
अगिन जनगण सुखदाता की
आरती भारत माता की
*
द्वीप जंबू छवि मनहारी
छटा आर्यावर्ती न्यारी
गोंडवाना है हिंदुस्तान
इंडिया भारत देश महान
जीव संजीव विधाता की
आरती भारत माता की
*
मिल अनल भू नभ पवन सलिल
रचें सब सृष्टि रहें अविचल
अगिन पंछी करते कलरव
कृषक श्रम कर वरते वैभव
ज्ञान-सुख-शांति प्रदाता की
आरती भारत माता की
३०-१०-२०२०
***
लघुकथा
कौन जाने कब?
*
'बब्बा! भाग्य बड़ा होता है या कर्म?' पोते ने पूछा।
''बेटा! दोनों का अपना-अपना महत्व है, दोनों में से किसी एक को बड़ा और दूसरे को छोटा नहीं कहा जा सकता।''
'दोनों की जरूरत ही क्या है? क्या एक से काम नहीं चल सकता?'
''तुम्हारे पापा-मम्मी का बैंक में लॉकर है न?''
'हाँ, है।'
''लॉकर की क्या जरूरत है?''
'मम्मी ने बताया था कि घर में रखने से कीमती सामान की चोरी हो सकती है। इसलिए बैंक में सुरक्षित स्थान लेकर वहाँ कीमती सामान रखते हैं।'
'' शाबाश! लॉकर की चाबी किसके पास होती हैं?''
'पापा से पूछा था मैंने। पापा ने बताया कि लॉकर में दो ताले होते हैं। एक की चाबी बैंक के प्रबंधक तथा दूसरी की लॉकर खोलने वाले के पास होती है।'
''ऐसा क्यों?''
'क्या बब्बा! आपको कुछ भी नहीं मालूम क्या?, मैं आपसे पूछने आया था आप मुझसे ही पूछते जा रहे हो।'
''तुम इस सवाल का जवाब बताओ, फिर मैं तुम्हारे सवाल का जवाब दूँगा।''
'ठीक है, सवाल जरूर बताना। यह यह नहीं कि मुझसे पूछ लो और फिर मेरे सवाल का जवाब न बताओ।'
''नहीं, तुम्हारे सवाल का जवाब जरूर बताऊँगा।''
'ठीक है, फिर सुनों। मम्मी-पापा जब लॉकर खोलने जाते हैं, तब मैनेजर पहले अपनी चाबी लगाकर एक ताला खोलता है और चला जाता है, तब मम्मी-पापा अपनी चाबी से दूसरा ताला खोलकर सामान रखते-निकालते हैं, फिर लॉकर बंद कर देते हैं। तब मैनेजर अपनी चाबी से दूसरा लॉकर बंद करता है।'
''वाह, तुम तो बहुत होशियार हो। अब आखिरी प्रश्न का उत्तर दो। दो ताले क्यों जरूरी हैं?''
'इसलिए कि मम्मी-पापा सामान रख दें तो मैनेजर या कोई दूसरा चुपचाप निकल न सके। दूसरी तरफ कोइ ग्राहक चुपचाप सामान निकालकर बैंक पर चोरी का आरोप लगाकर सामान न माँगने लगे।'
''क्या बात है? अब तो तुम्हारे प्रश्न का उत्तर तुमने ही दे दिया है।''
'वह कैसे?'
''वह ऐसे कि बैंक मैनेजर के पास जो चाबी है वह है भाग्य। तुम्हारे मम्मी-पापा के पास जो चाबी है, वह है कर्म। कर्म और भाग्य दोनों चाबी एक साथ लगाए बिना लॉकर नहीं खुलता।''
'यह तो आप ठीक कह रहे हैं, पर मेरा सवाल?'
''यही तो तुम्हारे सवाल का जवाब है। तुम्हारी तुम जो पाना चाहते हो वह है लॉकर, मेहनत एक चाबी है जो तुम्हारे पास है और भाग्य दूसरी चाबी है जो भगवान या किस्मत के पास है। चाहत का लॉकर खोलने के लिए दोनों चाबियाँ लगाना जरूरी है। भगवान या किस्मत अपनी चाबी कब लगाएगी तुम्हें नहीं मालूम। तुम उनसे चाबी लगवा भी नहीं सकते। लेकिन जब वह चाबी लगे तब भी चाहत का लॉकर नहीं खुलेगा यदि तुम्हारी कोशिश की चाबी न लगी हो।''
'समझ गया, समझ गया। आप कह रहे हो कि मैं चाहत का लॉकर खोलने के लिए, कोशिश की चाबी बार-बार लगाता रहूँ। जैसे ही किस्मत की चाबी लगेगी, चाहत का लॉकर खुल जाएगा। समझ गया, अच्छा बब्बा चलता हूँ।'
''कहाँ चल दिए?''
'और कहाँ?, अपना बस्ता लेकर गणित का सवाल हल करने की कोशिश करने। परीक्षा परिणाम का लॉकर खोलना है न। खुलेगा ही लेकिन कौन जाने कब?'
***
लघु कथा:
सच्चा उत्सव
*
उपहार तथा शुभकामना देकर स्वरुचि भोज में पहुँचा, हाथों में थमी प्लेटों में कहीं मुरब्बा दही-बड़े से गले मिल रहा था, कहीं रोटी पापड़ के गाल पर दाल मल रही थी, कहीं भटा भिन्डी से नैन मटक्का कर रहा था और कहीं इडली-सांभर को गुत्थमगुत्था देखकर डोसा मुँह फुलाये था।
इनकी गाथा छोड़ चले हम मीठे के मैदान में वहाँ रबड़ी के किले में जलेबी सेंध लगा रही थी, दूसरे दौने में गोलगप्पे आलूचाप को ठेंगा दिखा रहे थे।
जितने अतिथि उतने प्रकार की प्लेटें और दौने, जिस तरह सारे धर्म एक ईश्वर के पास ले जाते हैं वैसे ही सब प्लेटें और दौने कम खाकर अधिक फेंके गये स्वादिष्ट सामान को वेटर उठाकर बाहर कचरे के ढेर पर पहुँचा रहे थे।
हेलो-हाय करते हुए बाहर निकला तो देखा चिथड़े पहने कई बड़े-बच्चे और श्वान-शूकर उस भंडारे में अपना भाग पाने में एकाग्रचित्त निमग्न थे, उनके चेहरों की तृप्ति बता रही थी की यही है सच्चा उत्सव।
***
नव प्रयोग
*
छंद सूत्र: य न ल
*
मुक्तक-
मिलोगी जब तुम,
मिटेंगे तब गम।
खिलेंगे नित गुल
हँसेंगे मिल हम।।
***
मुक्तिका -
हँसा है दिनकर
उषा का गह कर।
*
कहेगी सरगम
चिरैया छिपकर।
*
अँधेरा डरकर
गया है मरकर।
*
पियेगा जल नित
मजूरा उठकर।
*
न नेता सुखकर
न कोई अफसर।
*
सुसिंधु सलिलज
सुमेघ जलधर।
*
कबीर सच कह
अमीर धन धर।
३०-१०-२०१८
***
:नवगीत:
राम रे!
*
राम रे!
तनकऊ नई मलाल???
*
भोर-साँझ लौ
गोड़ तोड़ रै
काम चोर बे कैते
पसरे रैत
ब्यास गादी पे
भगतन संग लपेटे
काम-पुजारी
गीता बाँचे
हेरें गोप निहाल।
आँधर ठोकें ताल
राम रे!
बारो डाल पुआल।
राम रे!
तनकऊ नई मलाल???
*
झिमिर-झिमिर-झम
बूँदें टपकें
रिस रए छप्पर-छानी
मैली कर दई रैटाइन की
किन्नें धोती धानी?
लज्जा ढाँपे
सिसके-कलपे
ठोंके आप कपाल
मुए हाल-बेहाल
राम रे!
कैसा निर्दय काल?
राम रे!
तनकऊ नई मलाल???
*
भट्टी-देह न देत दबाई
पैले मांगें पैसा
अस्पताल मा
घुसे कसाई
ठाणे-अरना भैंसा
काले कोट
कचैरी घेरे
बकरा करें हलाल
नेता भए बबाल
राम रे!
लूट बजा रए गाल
राम रे!
तनकऊ नई मलाल???
३०-१०-२०१५
***
चंद अश'आर
दिल
*
इस दिल की बेदिली का आलम न पूछिए
तूफ़ान सह गया मगर क़तरे में बह गया
*
दिलदारों की इस बस्ती में दिलवाला बेमौत मरा
दिल के सौदागर बन हँसते मिले दिलजले हमें यहाँ
*
दिल पर रीझा दिल लेकिन बिल देख नशा काफूर हुआ
दिए दिवाली के जैसे ही बुझे रह गया शेष धुँआ
*
दिलकश ने ही दिल दहलाया दिल ले कर दिल नहीं दिया
बैठा है हर दिल अज़ीज़ ले चाक गरेबां नहीं सिया
*
नवगीत:
सांध्य सुंदरी
तनिक न विस्मित
न्योतें नहीं इमाम
जो शरीफ हैं नाम का
उसको भेजा न्योता
सरहद-करगिल पर काँटों की
फसलें है जो बोता
मेहनतकश की
थकन हरूँ मैं
चुप रहकर हर शाम
नमक किसी का, वफ़ा किसी से
कैसी फितरत है
दम कूकुर की रहे न सीधी
यह ही कुदरत है
खबरों में
लाती ही क्यों हैं
चैनल उसे तमाम?
साथ न उसके मुसलमान हैं
बंदा गंदा है
बिना बात करना विवाद ही
उसका धंधा है
थूको भी मत
उसे देख, मत
करना दुआ-सलाम
***
नवगीत:
राष्ट्रलक्ष्मी!
श्रम सीकर है
तुम्हें समर्पित
खेत, फसल, खलिहान
प्रणत है
अभियन्ता, तकनीक
विनत है
बाँध-कारखाने
नव तीरथ
हुए समर्पित
कण-कण, तृण-तृण
बिंदु-सिंधु भी
भू नभ सलिला
दिशा, इंदु भी
सुख-समृद्धि हित
कर-पग, मन-तन
समय समर्पित
पंछी कलरव
सुबह दुपहरी
संध्या रजनी
कोशिश ठहरी
आसें-श्वासें
झूमें-खांसें
अभय समर्पित
शैशव-बचपन
यौवन सपने
महल-झोपड़ी
मानक नापने
सूरज-चंदा
पटका-बेंदा
मिलन समर्पित
***
नवगीत:
हर चेहरा है
एक सवाल
शंकाकुल मन
राहत चाहे
कहीं न मिलती.
शूल चुभें शत
आशा की नव
कली न खिलती
प्रश्न सभी
देते हैं टाल
क्या कसूर,
क्यों व्याधि घेरती,
बेबस करती?
तन-मन-धन को
हानि अपरिमित
पहुँचा छलती
आत्म मनोबल
बनता ढाल
मँहगा बहुत
दवाई-इलाज
दिवाला निकले
कोशिश करें
सम्हलने की पर
पग फिर फिसले
किसे बताएं
दिल का हाल?
***
संजीवनी अस्पताल, रायपुर

२९-११-२०१४ 

***
गीत:
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए…
*
पलो आँख में स्वप्न बनकर सदा तुम
नयन-जल में काजल कहीं बह न जाए.
जलो दीप बनकर अमावस में ऐसे
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए…
*
अपनों ने अपना सदा रंग दिखाया,
न नपनों ने नपने को दिल में बसाया.
लगन लग गयी तो अगन ही सगन को
सहन कर न पायी पलीता लगाया.
दिलवर का दिल वर लो, दिल में छिपा लो
जले दिलजले जलजले आ न पाए...
*
कुटिया ही महलों को देती उजाला
कंकर के शंकर को पूजे शिवाला.
मुट्ठी बँधी बाँधती कर्म-बंधन
खोलो न मोले तनिक काम-कंचन.
बहो, जड़ बनो मत शिलाओं सरीखे
नरमदा सपरना न मन भूल जाए...
*
सहो पीर धर धीर बनकर फकीरा
तभी हो सको सूर मीरा कबीरा.
पढ़ो ढाई आखर, नहा स्नेह-सागर
भरो फेफड़ों में सुवासित समीरा.
मगन हो गगन को निहारो, सुनाओ
'सलिल' नाद अनहद कहीं खो जाए...
*
सगन = शगुन, जलजला = भूकंप, नरमदा = नर्मदा, सपरना = स्नान करना
त्रिभंगी सलिला:
हम हैं अभियंता
*
(छंद विधान: १० ८ ८ ६ = ३२ x ४)
*
हम हैं अभियंता नीति नियंता, अपना देश सँवारेंगे
हर संकट हर हर मंज़िल वर, सबका भाग्य निखारेंगे
पथ की बाधाएँ दूर हटाएँ, खुद को सब पर वारेंगे
भारत माँ पावन जन मन भावन, श्रम-सीकर चरण पखारेंगे
*
अभियंता मिलकर आगे चलकर, पथ दिखलायें जग देखे
कंकर को शंकर कर दें हँसकर मंज़िल पाएं कर लेखे
शशि-मंगल छूलें, धरा न भूलें, दर्द दीन का हरना है
आँसू न बहायें , जन-गण गाये, पंथ वही तो वरना है
*
श्रम-स्वेद बहाकर, लगन लगाकर, स्वप्न सभी साकार करें
गणना कर परखें, पुनि-पुनि निरखें, त्रुटि न तनिक भी कहीं वरें
उपकरण जुटाएं, यंत्र बनायें, नव तकनीक चुनें न रुकें
आधुनिक प्रविधियाँ, मनहर छवियाँ, उन्नत देश करें
*
नव कथा लिखेंगे, पग न थकेंगे, हाथ करेंगे काम काम सदा
किस्मत बदलेंगे, नभ छू लेंगे, पर न कहेंगे 'यही बदा'
प्रभु भू पर आयें, हाथ बटायें, अभियंता संग-साथ रहें
श्रम की जयगाथा, उन्नत माथा, सत नारायण कथा कहें
३०-१०-२०१३
***

शनिवार, 15 जुलाई 2023

अनुगीत छंद, सवर्ण, मुक्तक, हास्य, दिल, सोनेट, कविता, गुरु

सॉनेट
जिजीविषा
(नवान्वेषित चंद्रारोहण सवैया, पदभार ३२ मात्रा, यति १६-१६, पादांत यगण)   
जिजीविषा जीवट की जय जो संघर्षों से हार न माने,
दोष न दे ईश्वर को किंचित, और नहीं किस्मत को रोए,
साहस और हौसला रखकर, संकट को जय करना ठाने,
कलपे नहीं, न पीछे देखे, और न अपना धीरज खोए।

शक्ति समूची जुटा यत्न कर, ले संकल्प न समय गँवाए,
मंजिल तयकर दौड़ लगाए,नहीं भटककर, एक दिशा में,
आश्रय-मदद न चाह किसी से नहीं याचना-टेर लगाए,
करे भरोसा निज मति-गति पर, ध्यान न जाए क्षुधा-तृषा में।

करे प्रयास प्राण-प्रण से जब, तब हो अपना भाग्य विधाता,
मलता हाथ अहेरी नत शिर, मृगया से बच मृग जय पाए,
शुभ संकल्पों की जय होती, तब जग जय-जयकार गुँजाता,
नहीं फूलकर होता कुप्पा, जयी सँकुच मन में मुस्काए।

वही जयी होता जीवन में, अपना आप सहायक हो जो।
दिखता भले जीव इस जग का, सच ही भाग्य विधायक वह हो
१५-७-२०२३
•••
सॉनेट
जलसा घर
घर में जलसा घर घुस बैठा
साया ही हो गया पराया
मन को मोहे तन की माया
मानव में दानव है पैठा
पल में ऐंठे, पल में अकड़े
पल में माशा, पल में तोला
स्वार्थ साधने हो मिठबोला
जाने कितने करता लफड़े
जल सा घर रिस-रिसकर गीला
हर नाता हो रहा पनीला
कसकर पकड़ा फिर भी ढीला
सीली माचिस जैसे रिश्ते
हारे चकमक पत्थर घिसते
जलते ही झट चटपट बुझते
१४-७-२०२१
ए२/३ अमरकंटक एक्सप्रेस
•••
सॉनेट
मैं-तुम
मैं-तुम, तू तू मैं मैं करते
जैसे हों संसद में नेता
मरुथल में छिप नौका खेता
इसकी टोपी उस सिर धरते
सहमत हुए असहमत होने
केर-बेर का संग सुहाए
हर ढपली निज राग बजाए
मतभेदों की फसलें बोने
इससे लेकर उसको देना
आप चबाना चुप्प चबेना
जो बच जाए खुद धर लेना
ठेंगा दिखा ठीक सब कहते
मुखपोथी पर नाते तहते
पानी पर पत्ते सम बहते
१४-७-२०२२, २१•४६
ए २/३ अमरकंटक एक्सप्रेस
•••
सॉनेट
गुरु
गुरु को नतशिर नमन करो रे!
गुरु की महिमा कही न जाए
गुरु ही नैया पार लगाए
गुरु पग रज पा अमन वरो रे!
गुरु वचनामृत पान करो रे!
गुरु शब्दों में सत्य समाहित
गुरु वाणी में अर्थ विराजित
गुरु का महिमा-गान करो रे!
गुरु का मन में मान करो रे!
गुरु-दर्पण में निज छवि देखो
गुरु-परखे तो निज सच लेखो
गुर-वचनों का ध्यान धरो रे!
गुरु को सत्-शिव सुंदर मानो
गुरु का खुद को चाकर मानो
१३-७-२०२२
रुद्राक्ष, गुलमोहर, भोपाल
•••
सॉनेट
गुरु
गुरु गुर सिखलाता है उत्तम
दिखलाता है राह हमेशा
हरता है अज्ञानजनित तम
दिलवाता है वाह हमेशा
लेता है गुरु कड़ी परीक्षा
ठोंक-पीटकर खोट निकाले
देता केवल तब ही दीक्षा
दीप-ज्योति अंतर में बाले
कहे दीप अपना खुद होओ
गिरकर रुको न, उठ फिर भागो
तम पी, उजियारा बो जाओ
खुद समर्थ हो भीख न माँगो
गुरु-वंदन कर शिष्य तर सके
अपनी मंजिल आप वर सके
१३-७-२०२२
रुद्राक्ष, गुलमोहर, भोपाल
•••
सॉनेट
बहाना
बिना बताए सबने ठाना
अपनी ढपली अपना राग
सावन में गाएँगे फाग
बना बनाकर नित्य बहाना
भूले नाते बना निभाना
घर-घर पलते-डँसते नाग
अपने ही देते हैं दाग
आँख मूँदकर साध निशाना
कौआ खुद को मान सयाना
सेता अंडा जो बेगाना
सीख न पाए मीठा गाना
रहे रात-दिन नाहक भाग
भूले धरना सिर पर पाग
सो औरों से कहते जाग
१४-७-२०२२, २१•२५
ए २/३ अमरकंटक एक्सप्रेस
•••
दोहा सलिला
दिल ने दिल को तौलकर, दिल से की पहचान.
दिल ने दिल का दिल दुखा, कहा न तू अरमान.
भुखमरी पेट में, लगी हुई है आग.
उधर न वे खा पा रहे, इतना पाया भाग.
दूब नहीं असली बची, नकली है मैदान.
गायब होंगे शीघ्र ही, धरती से इंसान.
नाले सँकरे कर दिए, जमीं दबाई खूब.
धरती टाइल से पटी, खाक उगेगी दूब.
नित्य नई कर घोषणा, जीत न सको चुनाव.
गर न पेंशनर का मिटा, सकता तंत्र अभाव.
नहीं पेंशनर को मिले,सप्तम वेतनमान.
सत्ता सुख में चूर जो, पीड़ा से अनजान.
गगरी कहीं उलट रहे, कहीं न बूँद-प्रसाद.
शिवराजी सरकार सम, बादल करें प्रमाद.
मन में क्या है!; क्यों कहें?, आप करें अनुमान.
सच यह है खुद ही हमें, पता नहीं श्रीमान.
झलक दिखा बादल गए, दूर क्षितिज के पार.
जैसे अच्छे दिन हमें , दिखा रही सरकार.***
*
दिल ने दिल को तौलकर, दिल से की पहचान.
दिल ने दिल का दिल दुखा, कहा न तू अरमान.
*
इधर भुखमरी पेट में, लगी हुई है आग.
उधर न वे खा पा रहे, इतना पाया भाग.
*
खूं के आँसू रोय हम, वे ले लाल गुलाब.
कहते हुआ विकास अब, हँस लो जरा जनाब.
*
धरती का मंगल न कर,, मंगल भेजें यान.
करें अमंगल लड़-झगड़, दंगल कर इंसान.
*
पत्ता-पत्ता चीखकर, कहता: काट न वृक्ष.
निज पैरों पर कुल्हाड़ी, चला रहे हम दक्ष.
*
आवश्यकता से अधिक, पा न कहें: पर्याप्त
जो वे दनुज, मनुज नहीं, सत्य वचन है आप्त.
*
सादा जीवन अब नहीं रहा हमारा साध्य.
उच्च विचार न रुच रहे स्वार्थ कर रहा बाध्य.
*
पौध लगा मत; पेड़ जो काट सके तो काट.
मानव कर ले तू खड़ी खुद ही अपनी खाट.
*
दूब नहीं असली बची, नकली है मैदान.
गायब होंगे शीघ्र ही, धरती से इंसान.
*
नाले सँकरे कर दिए, जमीं दबाई खूब.
धरती टाइल से पटी, खाक उगेगी दूब.
*
चीन्ह-चीन्ह कर रेवड़ी, बाँटें अंधे रोज.
देते सिर्फ अपात्र को, क्यों इसकी हो खोज.
*
नित्य नई कर घोषणा, जीत न सको चुनाव.
गर न पेंशनर का मिटा, सकता तंत्र अभाव.
*
नहीं पेंशनर को मिले, सप्तम वेतनमान.
सत्ता सुख में चूर जो, पीड़ा से अनजान.
*
गगरी कहीं उलट रहे, कहीं न बूँद-प्रसाद.
शिवराजी सरकार सम, बादल करें प्रमाद.
*
मन में क्या है!; क्यों कहें?,आप करें अनुमान.
सच यह है खुद ही हमें, पता नहीं श्रीमान.
*
झलक दिखा बादल गए, दूर क्षितिज के पार.


जैसे अच्छे दिन हमें , दिखा रही सरकार.


*
कविता पर दोहे़:
*
कविता कवि की प्रेरणा, दे पल-पल उत्साह।
कभी दिखाती राह यह, कभी कराती वाह।।
*
कविता में ही कवि रहे, आजीवन आबाद।
कविता में जीवित रहे, श्वास-बंद के बाद।।
*
भाव छंद लय बिंब रस, शब्द-चित्र आनंद।
गति-यति मिथक प्रतीक सँग, कविता गूँथे छंद।।
*
कविता कवि की वंशजा, जीवित रखती नाम।
धन-संपत्ति न माँगती, जिंदा रखती काम।।
*
कवि कविता तब रचे जब, उमड़े मन में कथ्य।
कुछ सार्थक संदेश हो, कुछ मनरंजन; तथ्य।।
*
कविता सविता कथ्य है, कलकल सरिता भाव।
गगन-बिंब; हैं लहरियाँ चंचल-चपल स्वभाव।।
*
करे वंदना-प्रार्थना, भजन बने भजनीक।
कीर्तन करतल ध्वनि सहित, कविता करे सटीक।।
*
जस-भगतें; राई सरस, गिद्दा, फागें; रास।
आल्हा-सड़गोड़ासनी, हर कविता है खास।।
*
सुनें बंबुलिया माहिया, सॉनेट-कप्लेट साथ।
गीत-गजल, मुक्तक बने, कविता कवि के हाथ।।
१५-७-२०१८
***
मुक्तक
*
कौन है सवर्ण यह बताइए?
*
यह कायथ है, वह बामन
यह ठकुरा है, वह बनिया
एक दूसरे के सर पर-
फोड़ रहे हम ही ठीकरा
मित्रता-बन्धुत्व कुछ दिखाइए
कौन है सवर्ण यह बताइए?
*
अवसरवादी हावी हैं
मिले न श्रम को चाबी है
आम आदमी मुश्किल में
जीवन आपाधापी है
कैसे हों सफल?, जरा सिखाइए
कौन है सवर्ण यह बताइए?
*
क्यों पूजा पाखंड बनी?
क्यों आपस में ठनाठनी?
इसे चाहिए आरक्षण
उसे न मिलता, पीर घनी
नीति क्यों समान न बनाइये?
कौन है सवर्ण यह बताइए?
*
राजनीति ने डाली फूट
शासक दल करता है लूट
करे विपक्षी दल नाटक
धन-बलशाली करते शूट
काम एक-दूसरे के आइये
कौन है सवर्ण यह बताइए?
*
क्यों जातीय संस्थाएँ
हों न सवर्णी अब जाएँ?
रोटी-बेटी के सम्बन्ध
बाँध सवर्णी जुड़ जाएँ.
भेद-भाव दूरियाँ मिटाइये
कौन है सवर्ण यह बताइए?
१५-७-२०१७
***
रसानंद दे छंद नर्मदा ३८ : छन्द
दोहा, सोरठा, रोला, आल्हा, सार, ताटंक, रूपमाला (मदन), चौपाई, हरिगीतिका, उल्लाला,गीतिका,घनाक्षरी, बरवै, त्रिभंगी, सरसी, छप्पय, भुजंगप्रयात, कुंडलिनी, सवैया, शोभन या सिंहिका, सुमित्र, सुगीतिका, शंकर, मनहरण (कवित्त/घनाक्षरी), उपेन्द्रवज्रा, इंद्रवज्रा, सखी, वासव, अचल धृति, अचल छंदों से साक्षात के पश्चात् मिलिए अनुगीत छंद से
अनुगीत छंद
संजीव
*
छंद लक्षण: जाति महाभागवत, प्रति पद २६ मात्रा,
यति१६-१०, पदांत लघु
लक्षण छंद:
अनुगीत सोलह-दस कलाएँ , अंत लघु स्वीकार
बिम्ब रस लय भाव गति-यतिमय , नित रचें साभार
उदाहरण:
१. आओ! मैं-तुम नीर-क्षीरवत , एक बनें मिलकर
देश-राह से शूल हटाकर , फूल रखें चुनकर
आतंकी दुश्मन भारत के , जा न सकें बचकर
गढ़ पायें समरस समाज हम , रीति नयी रचकर
२. धर्म-अधर्म जान लें पहलें , कर्तव्य करें तब
वर्तमान को हँस स्वीकारें , ध्यान धरें कल कल
किलकिल की धारा मोड़ें हम , धार बहे कलकल
कलरव गूँजे दसों दिशा में , हरा रहे जंगल
३. यातायात देखकर चलिए , हो न कहीं टक्कर
जान बचायें औरों की , खुद आप रहें बचकर
दुर्घटना त्रासद होती है , सहें धीर धरकर
पीर-दर्द-दुःख मुक्त रहें सब , जीवन हो सुखकर
*********
अलंकार सलिला: ३३
प्रतिवस्तूपमा अलंकार
*
एक धर्म का शब्द दो, करते अगर बखान.
'प्रतिवस्तुपमा' हो 'सलिल', अलंकार रस-खान..
'प्रतिवस्तुपमा' में कहें, एक धर्म दो शब्द.
चमत्कार लख काव्य का, होते रसिक निशब्द..
जहाँ उपमेय और उपमान वाक्यों का विभिन्न शब्दों द्वारा एक ही धर्म कहा जाता है, वहाँ
प्रतिवस्तूपमा अलंकार होता है.
जब उपमेय और उपमान वाक्यों का एक ही साधारण धर्म भिन्न-भिन्न शब्दों द्वारा कहा
जाय अथवा जब दो वाक्यों में वस्तु-प्रति वस्तु भाव हो तो वहाँ प्रतिवस्तूपमा अलंकार होता
है.
प्रतिवस्तूपमा में दो वाक्य होते हैं- १) उपमेय वाक्य, २) उपमान वाक्य. इन दोनों वाक्यों का
एक ही साधारण धर्म होता है. यह साधारण धर्म दोनों वाक्यों में कहा जाता है पर अलग-
अलग शब्दों से अर्थात उपमेय वाक्य में जिस शब्द का प्रयोग किया जाता है उपमान वाक्य
में उस शब्द का प्रयोग न कर किसी समानार्थी शब्द द्वारा समान साधारण धर्म की
अभिव्यक्ति की जाती है.
प्रतिवस्तूपमा अलंकार का प्रयोग करने के लिए प्रबल कल्पना शक्ति, सटीक बिम्ब-विधान
चयन-क्षमता तथा प्रचुर शब्द-ज्ञान की पूँजी कवि के पास होना अनिवार्य है किन्तु प्रयोग में
यह अलंकार कठिन नहीं है.
उदाहरण:
१. पिसुन बचन सज्जन चितै, सकै न फेरि न फारि.
कहा करै लगि तोय मैं, तुपक तीर तरवारि..
२. मानस में ही हंस किशोरी सुख पाती है.
चारु चाँदनी सदा चकोरी को भाती है.
सिंह-सुता क्या कभी स्यार से प्यार करेगी?
क्या पर नर का हाथ कुलस्त्री कभी धरेगी?
यहाँ प्रथम व चतुर्थ पंक्ति में उपमेय वाक्य और द्वितीय-तृतीय पंक्ति में उपमान वाक्य है.
३. मुख सोहत मुस्कान सों, लसत जुन्हैया चंद.
यहाँ 'मुख मुस्कान से सोहता है' यह उपमेय वाक्य है और 'चन्द्र जुन्हाई(चाँदनी) से लसता
(अच्छा लगता) है' यह उपमान वाक्य है. दोनों का साधारण धर्म है 'शोभा देता है'. यह
साधारण धर्म प्रथम वाक्य में 'सोहत' शब्द से तथा द्वितीय वाक्य में 'लसत' शब्द से कहा
गया है.
४. सोहत भानु-प्रताप सों, लसत सूर धनु-बान.
यहाँ प्रथम वाक्य उपमान वाक्य है जबकि द्वितीय वाक्य उपमेय वाक्य है.
५. तिन्हहि सुहाव न अवध-बधावा, चोरहिं चाँदनि रात न भावा.
यहाँ 'न सुहाना साधारण धर्म है जो उपमेय वाक्य में 'सुहाव न ' शब्दों से और उपमान वाक्य
में 'न भावा' शब्दों से व्यक्त किया गया है.
पाठकगण कारण सहित बताएँ कि निम्न में प्रतिवस्तूपमा अलंकार है या नहीं?
६. नेता झूठे हो गए, अफसर हुए लबार.
७. हम अनुशासन तोड़ते, वे लाँघे मर्याद.
८. पंकज पंक न छोड़ता, शशि ना ताजे कलंक.
९. ज्यों वर्षा में किनारा, तोड़े सलिला-धार.
त्यों लज्जा को छोड़ती, फिल्मों में जा नार..
१०. तेज चाल थी चोर की, गति न पुलिस की तेज
२९-१२-२०१५


***
हास्य रचनाः
नियति
*
सहते मम्मी जी का भाषण, पूज्य पिताश्री का फिर शासन
भैया जीजी नयन तरेरें, सखी खूब लगवाये फेरे
बंदा हलाकान हो जाये, एक अदद तब बीबी पाये
सोचे धौन्स जमाऊं इस पर, नचवाये वह आंसू भरकर
चुन्नू-मुन्नू बाल नोच लें, मुन्नी को बहलाये गोद ले
कही पड़ोसी कहें न द्ब्बू, लड़ता सिर्फ इसलिये बब्बू
१५-७-२०१४
***

शनिवार, 13 मई 2023

मुक्तक, दिल, लघुकथा, नवगीत, सोनेट, हरिजन दोहा, जबलपुर

सॉनेट
हरिजन 
हरि! जन को हरिजन मत करना
आम आदमी कोई तो हो
जिसकी राह अलग थोड़ी हो
भाव-ताव देखो मत डरना
अंतर में अंतर रख हँसना
कथनी-करनी एक न भाए
ठकुरसुहाती खूब सुहाए
ले अवतार न नाहक फँसना
मीठा भोग मिले हँस चखना
खट्टा कड़वा तीखा तजना
अन्य न तो खुद निज जय करना
पापी तार पार भव करना
अपने मन की रास न कसना
हर सुंदर तन के मन बसना
१३-५-२०२२
•••
दोहा सलिला
जबलपुर में शुभ प्रभात
*
रेवा जल में चमकतीं, रवि-किरणें हँस प्रात।
कहतीं गौरीघाट से, शुभ हो तुम्हें प्रभात।।१।।
*
सिद्धघाट पर तप करें, ध्यान लगाकर संत।
शुभप्रभात कर सूर्य ने, कहा साधना-तंत।।२।।
*
खारी घाट करा रहा, भवसागर से पार।
सुप्रभात परमात्म से, आत्मा कहे पुकार।।३।
*
साबुन बिना नहाइए, करें नर्मदा साफ़।
कचरा करना पाप है, मैया करें न माफ़।।४।।
*
मिलें लम्हेटा घाट में, अनगिन शिला-प्रकार।
देख, समझ पढ़िये विगत, आ आगत के द्वार।।५।।
*
है तिलवारा घाट पर, एक्वाडक्ट निहार।
नदी-पाट चीरे नहर, सेतु कराए पार।।६।।
*
शंकर उमा गणेश सँग, पवनपुत्र हनुमान।
देख न झुकना भूलना, हाथ जोड़ मति मान।।७।।
*
पोहा-गरम जलेबियाँ, दूध मलाईदार।
सुप्रभात कह खाइए, कवि हो साझीदार।।८।।
*
धुआँधार-सौन्दर्य को, देखें भाव-विभोर।
सावधान रहिए सतत, फिसल कटे भव-डोर।।९।।
*
गौरीशंकर पूजिए, चौंसठ योगिन सँग।
भोग-योग संयोग ने, कभी बिखेरे रंग।।१०।।
*
नौकायन कर देखिये, संगमरमरी रूप।
शिखर भुज भरे नदी को, है सौन्दर्य अनूप।११।।
*
बहुरंगी चट्टान में, हैं अगणित आकार।
भूलभुलैयाँ भुला दे, कहाँ गई जलधार?।१२।।
*
बंदरकूदनी देख हो, लघुता की अनुभूति।
जब गहराई हो अधिक, करिए शांति प्रतीति।।१३।।
*
कमल, मगर, गज, शेर भी, नहीं रहे अब शेष।
ध्वंस कर रहा है मनुज, सचमुच शोक अशेष।।१४।।
*
मदनमहल अवलोकिए, गा बम्बुलिया आप।
थके? करें विश्राम चल, सुख जाए मन-व्याप।।१५।।
१३-५-२०१७
***
मुक्तिका
*
जितने चेहरे उतने रंग
सबकी अलग-अलग है जंग
*
ह्रदय एक का है उदार पर
दिल दूजे का बेहद तंग
*
यह जिसका हो रहा सहायक
वह इससे है बेहद तंग
*
चिथड़ों में भी लाज ढकी है
आधुनिका वस्त्रों में नंग
*
जंग लगी जिसके दिमाग में
वह औरों से छेड़े जंग
*
बेढंगे में छिपा न दिखता
खोज सको तो खोजो ढंग
*
नेह नर्मदा 'सलिल' स्वच्छ है
मलिन हो गयी सुरसरि गंग
***
***
लघुकथा
कानून के रखवाले
*
'हमने आरोपी को जमकर सबक सिखाया, उसके कपड़े तक ख़राब हो गये, बोलती बंद हो गयी। अब किसी की हिम्मत नहीं होगी हमारा विरोध करने की। हम किसी को अपना विरोध नहीं करने देंगे।' वक्ता की बात पूर्ण होने के पूर्व हो एक जागरूक श्रोता ने पूछा- ''आपका संविधान और कानून के जानकार है और अपने मुवक्किलों को उसके न्याय दिलाने का पेशा करते हैं। कृपया, बताइये संविधान के किस अनुच्छेद या किस कानून की किस कंडिका के तहत आपको एक सामान्य नागरिक होते हुए अन्य नागरिक विचाराभिव्यक्ति से रोकने और खुद दण्डित करने का अधिकार प्राप्त है? क्या आपसे असहमत अन्य नागरिक आपके साथ ऐसा ही व्यवहार करे तो वह उचित होगा? यदि नागरिक विवेक के अनुसार एक-दूसरे को दण्ड देने के लिए स्वतंत्र हैं तो शासन, प्रशासन और न्यायालय किसलिए है? ऐसी स्थिति में आपका पेशा ही समाप्त हो जायेगा। आप क्या कहते हैं?
प्रश्नों की बौछार के बीच निरुत्तर-नतमस्तक खड़े थे कानून के तथाकथित रखवाले।
१३-५-२०१६
***
नवगीत:
.
खून-पसीने की कमाई
कर में देते जो
उससे छपते विज्ञापन में
चहरे क्यों हों?
.
जिन्हें रात-दिन
काटा करता
सत्ता और कमाई कीड़ा
आँखें रहते
जिन्हें न दिखती
आम जनों को होती पीड़ा
सेवा भाव बिना
मेवा जी भर लेते हैं
जन के मन में ऐसे
लोलुप-बहरे क्यों हों?
.
देश प्रेम का सलिल
न चुल्लू भर
जो पीते
मतदाता को
भूल स्वार्थ दुनिया
में जीते
जन-जीवन है
बहती 'सलिला'
धार रोकते बाधा-पत्थर
तोड़ी-फेंको, ठहरे क्यों हों?
१३-५-२०१५
*
मुक्तक:
दिल ही दिल
*
तुम्हें देखा, तुम्हें चाहा, दिया दिल हो गया बेदिल
कहो चाहूँगा अब कैसे, न होगा पास में जब दिल??
तुम्हें दिलवर कहूँ, तुम दिलरुबा, तुम दिलनशीं भी हो
सनम इंकार मत करना, मिले परचेज का जब बिल
*
न देना दिल, न लेना दिल, न दिलकी डील ही करना
न तोड़ोगे, न टूटेगा, नहीँ कुछ फ़ील ही करना
अभी फर्स्टहैंड है प्यारे, तुम सैकेंडहैंड मत करना
न दरवाज़ा खुल रख्नना, न कोई दे सके धऱना
*
न दिल बैठा, न दिल टूटा, न दहला दिल, कहूँ सच सुन
न पूछो कैसे दिल बहला?, न बोलूँ सच , न झूठा सुन,
रहे दिलमें अगर दिलकी, तो दर्दे-दिल नहीं होगा
कहो संगदिल भले ही तुम, ये दिल कातिल नहीँ होगा
*
लगाना दिल न चाहा, दिल लगा कब? कौन बतलाये??
सुनी दिल की, कही दिल से, न दिल तक बात जा पाये।
ये दिल भाया है जिसको, उसपे क्यों ये दिल नहीं आया?
ये दिल आया है जिस पे, हाय! उसको दिल नहीं भाया।
१३-५-२०१४
***

गुरुवार, 7 जुलाई 2022

सॉनेट, ग्रामीण संस्कृति, नागर संस्कृति, दोहे, दिल, हाइकु गीत, गीत

सॉनेट
अँगुली
*
ठेंगा देखा-दिखा रहे हम
पा आजादी, मोल न जानें
लगा अँगूठा अँखियाँ थीं नम
पढ़-लिख बढ़ना मन में ठानें

दादागिरी अँगूठा करता
अंगुलियों को रही शिकायत
एक दबाए चार-चार को
आओ! हम मिल करें बगावत

लोकतंत्र मतदान दिवस पर
उठी तर्जनी नेता चुनने
पहन अँगूठी झट अनामिका
सपने लगी ब्याह के बुनने

मिली कनिष्ठा अरु अनामिका
राज्य हो गया साम-दाम का
७-७-२०२२
•••
विमर्श
ग्रामीण संस्कृति नागर संस्कृति

यह बहुत समीचीन और सामाजिक विषय है भारत माता ग्रामवासिनी कवि सुमित्रानंदन पंत ने कहा था क्या आज हम यह कह सकते हैं क्या हमारे ग्राम अब वैसे ग्राम बचे हैं जिन्हें ग्राम कहा जाए गांव की पहचान पनघट चौपाल खलिहान वनडे घुंघरू पायल कंगन बेंदा नथ चूड़ी कजरी आल्हा पूरी राई अब कहां सुनने मिलते हैं इनके बिना गांव-गांव नहीं रहे गांव शरणार्थी होकर शहर की ओर आ रहा है और शहर क्या है जिनके बारे में अज्ञ लिखते हैं सांप तुम सभ्य तो हुए नहीं शहर में बसना तुम्हें नहीं आया एक बात पूछूं उत्तर दोगे डसना कहां से सीखा जहर कहां से पाया तो शहर में जहां आदमी आदमी को डसना सीखता है जहां आदमी जहर पालना सीखता है तो वह गांव जो पुरवइया और पछुआ से संपन्न था वह गांव जो अपनेपन से सराबोर था वह गांव जो रिश्ते नातों को जीना जानता था वह गांव जहां एक कमाता वह खा लेते थे वह भागकर चेहरा रहा है कौन से शहर में जहां 6 काम आए तो 1 को नहीं पाल सकते जहां सांस लेने के लिए ताजी हवा नहीं है जहां रास्तों की मौत हो रही है जहां माता-पिता के लिए वृद्ध आश्रम बनाए जाते हैं जहां नौनिहालों के लिए अनाथालय बनाए जाते हैं जहां निर्मल ओं के लिए महिला आश्रम आश्रम रैन बसेरों की व्यवस्था की जाती है हम जीवन को कहां से कहां ले जा रहे हैं यह सोचने की बात है क्या हम इन चेहरों को वैसा बना पाएंगे जहां कोई राधा किसी का ना के साथ राजा पाए क्या यह शहर कभी ऐसे होंगे जहां किसी मीरा को कष्ट का नाम लेने पर विश्वास न करना पड़े शहरों में कोई पार्वती कवि किशन कर पाएगी हम ना करें लेकिन सत्य को भी ना करें हम अपनों को ऐसा शहर कब बना सकते हैं अपने गांव को शहर की ओर भागने से कैसे रोक सकते हैं यह हमारे चिंतन का विषय होना चाहिए हमारी सरकारें लोकतंत्र के नाम पर चन्द्र के द्वारा लोक का गला घोट रहे हैं जिनके नाम पर उनके द्वारा जनमत को कुचल रही हैं हमारे तंत्र की कोई जगह नहीं है हमारा को केवल गुलाम समझता है आप किसी भी सरकारी कार्यालय में जाकर देखें आपको एक मेज और कुर्सी मिलेगी कुर्सी पर बैठा व्यक्ति के सामने खड़े व्यक्ति को क्या अपना अन्नदाता समझता है यह व्यक्ति है उसके द्वारा दी कुर्सी पर बैठे व्यक्ति की तनखा का भुगतान होता है लेकिन मानसिकता की कुर्सी पर बैठा व्यक्ति अपने आपको राजा समझता है गुलाम शायद पराधीनता काल में हम इतने पराधीन नहीं थे जितने अभय हमारे गांव स्वतंत्रता पूर्वक ने बेबस नहीं थे जितने अब हैं स्वतंत्रता के पूर्व हमारे आदिवासी का वनों पर अधिकार था जो अब नहीं है पहले वह महुआ तोड़ कर बैठ सकता था पेट पाल सकता था अपराधी नहीं था अब वह वनोपज तोड़ नहीं सकता वह वन विभाग की संपत्ति है पहले सरकारी जमीन पर आप पेड़ होए तो जमीन भले सरकार की हो पेड़ की फसल आपकी होती थी आप का मालिकाना हक होता था अब नहीं पहले किसान फसल उगाता था घर के पन्नों में भर लेता था विजय बना लेता था जब जितने पैसे की जरूरत है उतनी फसल निकालकर भेजता था और अपना काम चलाता था अब किसान बीज नहीं बना सकता यह अपराधी अपनी फसल नहीं सकता बंधुआ मजदूर की तरह कृषि उपज मंडी में ले जाने के लिए विवश है जहां उसे फसल को गेहूं को खोलने के लिए रिश्वत देनी पड़ती जहां रिश्वत देने पर घटिया गेहूं के दाम ज्यादा लग जाते हैं जहां रिश्वत न देने पर लगते हैं हम हम शहरों की ओर जा सके हमारा शहरीकरण कम हो गांधी ने कहा था कि हम कुटीर उद्योगों की बात करें उद्योगों की बात करें हमारे गांव आत्मनिर्भर आज उन्होंने हमें यही सबक दिया कि गांव के शहरों में जाकर अपना पसीना बहाकर सेठ साहूकारों उद्योग पतियों की बिल्डिंग खड़ी करते हैं उन्हें अरबपति बनाते हैं उद्योगपति हैं कि संकट आने पर अपनों को अपनों को 2 महीने 4 महीने भी नहीं सकते गांव के बेटे को सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलना पड़ेगा उस गांव में रोजी-रोटी ना होने के कारण छोड़ कर गया था अब जब ढलान पर है उसे क्या काम मिलेगा लेकिन मुझे विश्वास है उसे पा लेगा क्योंकि गांव के मन में उदारता है शहर में पड़ता है शहर में कुटिलता है गांव में सरलता है लेकिन हमारे को भी राजनीति राजनीति सामाजिक जीवन सुखद हो पाएगा हमारे मन में बसे निर्मल हो।
७-७-२०२०
***
हाइकु गीत
*
बोल रे हिंदी
कान में अमरित
घोल रे हिंदी
*
नहीं है भाषा
है सभ्यता पावन
डोल रे हिंदी
*
कौन हो पाए
उऋण तुझसे, दे
मोल रे हिंदी?
*
आंग्ल प्रेमी जो
तुरत देना खोल
पोल रे हिंदी
*
झूठा है नेता
कहाँ सच कितना?
तोल रे हिंदी
७-७-२०१९
***
दोहा सलिला:
*
अधिक कोण जैसे जिए, नाते हमने मीत।
न्यून कोण हैं रिलेशन, कैसे पाएँ प्रीत।।
*
हाथ मिला; भुज भेंटिए, गले मिलें रह मौन।
किसका दिल आया कहाँ बतलायेगा कौन?
*
रिमझिम को जग देखता, रहे सलिल से दूर।
रूठ गया जब सलिल तो, उतरा सबका नूर।।
*
माँ जैसा दिल सलिल सा, दे सबको सुख-शांति।
ममता के आँचल तले, शेष न रहती भ्रांति।।
*
वाह, वाह क्या बात है, दोहा है रस-खान।
पढ़; सुन-गुण कर बन सके, काश सलिल गुणवान।।
*
आप कहें जो वह सही, एक अगर ले मान।
दूजा दे दूरी मिटा, लोग कहें गुणवान।।
*
यह कवि सौभाग्य है, कविता हो नित साथ।
चले सृजन की राह पर, लिए हाथ में हाथ।।
*
बात राज की एक है, दीप न हो नाराज।
ज्योति प्रदीपा-वर्तिका, अलग न करतीं काज।।
*
कभी मान-सम्मान दें, कभी लाड़ या प्यार।
जिएँ ज़िंदगी साथ रह, करें मान-मनुहार।।
*
साथी की सब गलतियाँ, विहँस कीजिए माफ़।
बात न दिल पर लें कभी, कर सच्चा इंसाफ।।
*
साथ निभाने का यही, पाया एक उपाय।
आपस में बातें करें, बंद न हो अध्याय।।
*
खुद को जो चाहे कहो, दो न और को दोष।
अपना गुस्सा खुद पियो, व्यर्थ गैर पर रोष।।
*
सबक सृजन से सच मिला, आएगा नित काम।
नाम मिले या मत मिले, करे न प्रभु बदनाम।।
*
जो न सके कुछ जान वह, सब कुछ लेता जान।
जो भी शब्दातीत है, सत्य वही लें मान।।
*
ममता छिप रहती नहीं, लिखा न जाता प्यार।
जिसका मन खाली घड़ा, करे शब्द-व्यवहार।।
***
दोहा सलिला:
*
दिल ने दिल को दे दिया, दिल का लाल सलाम।
दिल ने बेदिल हो कहा, सुनना नहीं कलाम।।
*
दिल बुजदिल का क्या हुआ, खुशदिल रहा न आप।
था न रहा अब जवां दिल, गीत न सुन दे थाप।।
*
कौन रहमदिल है यहाँ?, दिल का है बाज़ार।
पाया-खोया ने किया, हर दिल को बेज़ार।।
*
दिलवर दिल को भुलाकर, जब बनता दिलदार।
सह न सके तब दिलरुबा, कैसे हो आज़ार।।
*
टूट गया दिल पर न की, किंचित भी आवाज़।
दिल जुड़ता भी किस तरह, भर न सका परवाज़।।
*
दिल दिल ने ले तो लिया पर, दिया न दिल क्यों बोल?
दिल ही दिल में दिल रहा, मौन लगता बोल।।
*
दिल दिल पल-पल दुखता रहा, दिल चल-चल बेचैन।
थक-थककर दिल रुक गया, दिल ने पाया चैन।।
*
दिल के हाथों हो गया, जब-जब दिल मजबूर।
दिल ने अन्देखी करी, दिल का मिटा गुरूर।।
*
दिल के संग न संगदिल, का हो यारां साथ।
दिल को रुचा न तंगदिल, थाम न पाया हाथ।।
*
जब भी 'मैं' की छूटती, 'हम' की हो अनुभूति।
तब ही 'उस' से मिलन हो, दिल को हुई प्रतीति।।
***
७.७.२०१८, ७९९९५५९६१८
गीत
रचना और रचयिता
संजीव 'सलिल'
*
किस रचना में नहीं रचयिता,
कोई मुझको बतला दो.
मात-पिता बेटे-बेटी में-
अगर न हों तो दिखला दो...
*
बीज हमेशा रहे पेड़ में,
और पेड़ पर फलता बीज.
मुर्गी-अंडे का जो रिश्ता
कभी न किंचित सकता छीज..
माया-मायापति अभिन्न हैं-
नियति-नियामक जतला दो...
*
कण में अणु है, अणु में कण है
रूप काल का- युग है, क्षण है.
कंकर-शंकर एक नहीं क्या?-
जो विराट है, वह ही तृण है..
मत भरमाओ और न भरमो-
सत-शिव-सुन्दर सिखला दो...
*
अक्षर-अक्षर शब्द समाये.
शब्द-शब्द अक्षर हो जाये.
भाव बिम्ब बिन रहे अधूरा-
बिम्ब भाव के बिन मर जाये.
साहुल राहुल तज गौतम हो
बुद्ध, 'सलिल' मत झुठला दो...
७-७-२०१०

गुरुवार, 3 दिसंबर 2020

मुक्तिका

कार्यशाला
मुक्तिका
दिल लगाना सीखना है आपसे
२१२२ २१२२ २१२
*
दिल लगाना सीखना है आपसे
जी चुराना सीखना है आपसे
*
वायदे को आप जुमला कह गए
आ, न आना सीखना है आपसे
*
आस मन में जगी लेकिन बैंक से
नोट लाना सीखना है आपसे
*
बस गए मन में निकलते ही नहीं
हक जमाना सीखना है आपसे
*
देशसेवा कर रहे हम भी मगर
वोट पाना सीखना है आपसे
*
सिखाने के नाम पर ले सीख खुद
गुरु बनाना सीखना है आपसे
*
ध्यान कर, कुछ ध्यान ही करना नहीं
ध्येय ध्याना सीखना है आपसे
*
मूँद नैना, दिखा ठेंगा हँस रहे
मुँह बनाना सीखना है आपसे
*
आह भरते देख, भरना आह फिर
आजमाना सीखना है आपसे
*****
४-१२-२०१६ 

सोमवार, 3 अगस्त 2020

मुक्तक

मुक्तक
बह्रर 2122-2122-2122-212
*
हो गए हैं धन्य हम तो आपका दीदार कर
थे अधूरे आपके बिन पूर्ण हैं दिल हार कर
दे दिया दिल आपको, दिल आपसे है ले लिया
जी गए हैं आप पर खुद को 'सलिल' हम वार कर
*
बोलिये भी, मौन रहकर दूर कब शिकवे हुए
तोलिये भी, बात कह-सुन आप-मैं अपने हुए
मैं सही हूँ, तू गलत है, यह नज़रिया ही गलत
जो दिलों को जोड़ दें, वो ही सही नपने हुए
*

३-८-२०१६ 

मंगलवार, 7 जुलाई 2020

दोहा सलिला: दिल

दोहा सलिला:
*
दिल ने दिल को दे दिया, दिल का लाल सलाम।
दिल ने बेदिल हो कहा, सुनना नहीं कलाम।।
*
दिल बुजदिल का क्या हुआ, खुशदिल रहा न आप।
था न रहा अब जवां दिल, गीत न सुन दे थाप।।
*
कौन रहमदिल है यहाँ?, दिल का है बाज़ार।
पाया-खोया ने किया, हर दिल को बेज़ार।।
*
दिलवर दिल को भुलाकर, जब बनता दिलदार।
सह न सके तब दिलरुबा, कैसे हो आज़ार।।
*
टूट गया दिल पर न की, किंचित भी आवाज़।
दिल जुड़ता भी किस तरह, भर न सका परवाज़।।
*
दिल दिल ने ले तो लिया , दिया न दिल क्यों बोल?
दिल ही दिल में दिल रहा, मौन न बोले बोल।।
*
दिल पल-पल दुखता रहा, दिल चल-चल बेचैन।
थक-थककर दिल रुक गया, दिल ने पाया चैन।।
*
दिल के हाथों हो गया, जब-जब दिल मजबूर।
दिल ने अनदेखी करी, दिल का मिटा गुरूर।।
*
दिल के संग न संगदिल, का हो यारां साथ।
दिल को रुचा न तंगदिल, थाम न पाया हाथ।।
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७.७.२०१८, ७९९९५५९६१८

बुधवार, 13 मई 2020

मुक्तक

मुक्तक सलिला:
दिल ही दिल
संजीव
*
तुम्हें देखा, तुम्हें चाहा, दिया दिल हो गया बेदिल
कहो चाहूँगा अब कैसे, न होगा पास में जब दिल??
तुम्हें दिलवर कहूँ, तुम दिलरुबा, तुम दिलनशीं भी हो
सनम इंकार मत करना, मिले परचेज का जब बिल
*
न देना दिल, न लेना दिल, न दिलकी डील ही करना
न तोड़ोगे, न टूटेगा, नहीँ कुछ फ़ील ही करना
अभी फर्स्टहैंड है प्यारे, तुम सैकेंडहैंड मत करना
न दरवाज़ा खुल रख्नना, न कोई दे सके धऱना
*
न दिल बैठा, न दिल टूटा, न दहला दिल, कहूँ सच सुन
न पूछो कैसे दिल बहला?, न बोलूँ सच , न झूठा सुन,
रहे दिलमें अगर दिलकी, तो दर्दे-दिल नहीं होगा
कहो संगदिल भले ही तुम, ये दिल कातिल नहीँ होगा
*
लगाना दिल न चाहा, दिल लगा कब? कौन बतलाये??
सुनी दिल की, कही दिल से, न दिल तक बात जा पाये।
ये दिल भाया है जिसको, उसपे क्यों ये दिल नहीं आया?
ये दिल आया है जिस पे, हाय! उसको दिल नहीं भाया।
१३-५-२०१४ 
***

मंगलवार, 7 अप्रैल 2020

क्षणिकाएँ

क्षणिकाएँ...
संजीव 'सलिल'
*
कर पाता दिल
अगर वंदना
तो न टूटता
यह तय है.
*
निंदा करना
बहुत सरल है.
समाधान ही
मुश्किल है.
*
असंतोष-कुंठा कब उपजे?
बूझे कारण कौन?
'सलिल' सियासत स्वार्थ साधती
जनगण रहता मौन.
*
मैं हूँ अदना
शब्द-सिपाही.
अर्थ सहित दें
शब्द गवाही..
*

मुक्तक

मुक्तक
संजीव
*
दिल लगाकर दिल्लगी हमने न की.
दिल जलाकर बंदगी तुमने न की..
दिल दिया ना दिला लिया, बस बात की-
दिल दुखाया सबने हमने उफ़ न की..
*
दोस्तों की आजमाइश क्यों करें?
मौत से पहले ही बोलो क्यों मरें..
नाम के ही हैं. मगर हैं साथ जो-
'सलिल' उनके बिन अकेले क्यों रहें?.
*