कुल पेज दृश्य

contemporary hindi poetry / gazal लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
contemporary hindi poetry / gazal लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

रविवार, 24 जुलाई 2011

मुक्तिका: जानकर भी... संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:                                                                                              
जानकर भी...
संजीव 'सलिल'
*
रूठकर दिल को क्यों जलाते हो?
मुस्कुराते हो, खूब भाते हो..

एक झरना सा बहने लगता है.
जब भी खुश होते, खिलखिलाते हो..

फेरकर मुँह कहो तो क्यों खुद को
खुद ही देते सजा सताते हो?

मेरे अपने! ये कैसा अपनापन
दिल की बातें न कह, छुपाते हो?

खो गया चैन तो बेचैन न हो.
क्यों न बाँहों में हँस समाते हो?

देखते आइना चेहरा अपना
मेरे चेहरे में मिला पाते हो..

मैं 'सलिल' तुम लहर नहीं दो हम.
जानकर क्यों न जान पाते हो?

*****


Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

शुक्रवार, 24 जून 2011

मुक्तिका: आँख नभ पर जमी --- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

आँख नभ पर जमी

संजीव 'सलिल'
*
आँख नभ पर जमी तो जमी रह गई.
साँस भू की थमी तो थमी रह गई.
*
सुब्ह सूरज उगा, दोपहर में तपा.
साँझ ढलकर, निशा में नमी रह गई..
*
खेत, खलिहान, पनघट न चौपाल है.
गाँव में शेष अब, मातमी रह गई..
*
व्यस्त हैं वे बहुत, दम न ले पा रहे.
ध्यान का केंद्र केवल रमी रह गयी..
*
रंग पश्चिम का पूरब पे ऐसा चढ़ा.
असलियत छिप गई है, डमी रह गई..
*
जो कमाया गुमा, जो गँवाया मिला.
कुछ न कुछ ज़िन्दगी में, कमी रह गई..
*
माँ न मैया न माता, कहीं दिख रही.
बदनसीबी ही शिशु की, ममी रह गयी..
*
आँख में आँख डाले खुशी ना मिली.
हाथ में हाथ लेकर गमी रह गयी..
*
प्रीति भय से हुई, याद यम रह गये.
संग यादों के भी, ना यमी रह गयी..
*
दस विकारों सहित, दशहरा जब मना.
मूक ही देखती तब शमी रह गयी..
*
तर्क से आस्था ने, ये पूछा 'सलिल'.
आज छलने को क्या बस हमी रह गयी??
 *************


Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

बुधवार, 8 जून 2011

मुक्तिका: ...क्यों हो??? ---संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
...क्यों हो???
संजीव 'सलिल'
*
लोक को मूर्ख बनाते क्यों हो?
रोज तुम दाम बढ़ाते क्यों हो?

वादा करते हो बात मानोगे.
दूसरे पल ही भुलाते क्यों हो?

लाठियाँ भाँजते निहत्थों पर
लाज से मर नहीं जाते क्यों हो?

नाम तुमने रखा है मनमोहन.
मन तनिक भी नहीं भाते क्यों हो?

जो कपिल है वो कुटिल, धूर्त भी है.
करके विश्वास ठगाते क्यों हो?

ये न भूलो चुनाव फिर होंगे.
अंत खुद अपना बुलाते क्यों हो?

भोली है, मूर्ख नहीं है जनता.
तंत्र से जन को डराते क्यों हो?

घूस का धन जो विदेशों में है?
लाते वापिस न, छिपाते क्यों हो?

बाबा या अन्ना नहीं एकाकी.
संग जनगण है, भुलाते क्यों हो?

*************

मंगलवार, 31 मई 2011

मुक्तिका: ज़रा सी जिद ने --संजीव 'सलिल'

मुक्तिका
ज़रा सी जिद ने
संजीव 'सलिल'
*
ज़रा सी जिद ने इस आँगन का बटवारा कराया है.
बना घर को मकां, मालिक को बंजारा कराया है..

नहीं अब मेघदूतों या कबूतर का ज़माना है.
कलम-कासिद को मोबाइल ने नाकारा कराया है..

न खूँटे से बँधे हैं, ना बँधेंगे, लाख हो कोशिश.
कलमकारों ने हर ज़ज्बे को आवारा कराया है..

छिपाकर अपनी गलती, गैर की पगड़ी उछालो रे. 
न तूती सच की सुन, झूठों का नक्कारा कराया है..

चढ़े जो देश की खातिर, विहँस फाँसी के तख्ते पर
समय ने उनके बलिदानों का जयकारा कराया है..

हुआ मधुमेह जबसे डॉक्टर ने लगाई बंदिश
मधुर मिष्ठान्न का भी स्वाद अब खारा कराया है..

सुबह उठकर महलवाले टपरियों को नमन करिए.
इन्हीं ने पसीना-माटी मिला गारा कराया है..

निरंतर सेठ, नेता, अफसरों ने देश को लूटा.
बढ़ा मँहगाई इस जनगण को बेचारा कराया है..

न जनगण और प्रतिनिधि में रहा विश्वास का नाता.
लड़ाया 'सलिल' आपस में, न निबटारा कराया है..

कटे जंगल, खुदे पर्वत, सरोवर पूर डाले हैं.
'सलिल' बिन तप रही धरती को अंगारा कराया है..
********

सोमवार, 30 मई 2011

मुक्तिका : संजीव 'सलिल' भंग हुआ हर सपना

मुक्तिका :
संजीव 'सलिल'
भंग हुआ हर सपना
*
भंग हुआ हर सपना,
टूट गया हर नपना.

माया जाल में उलझे
भूले माला जपना..

तम में साथ न कोई
किसे कहें हम अपना?

पिंगल-छंद न जाने
किन्तु चाहते छपना..

बर्तन बनने खातिर
पड़ता माटी को तपना..
************

मुक्तिका: है भारत में महाभारत... -- संजीव 'सलिल'


  है भारत में महाभारत...
  संजीव 'सलिल'
ये भारत है, महाभारत समय ने ही कराया है.
लड़ा सत से असत सिर असत का नीचा कराया है..  

निशा का पाश तोड़ा, साथ ऊषा के लिये फेरे.
तिमिर हर सूर्य ने दुनिया को उजयारा कराया है..

रचें सदभावमय दुनिया, विनत लेकिन सुदृढ़ हों हम.
लदेंगे दुश्मनों के दिन, तिलक सच का कराया है..

मिली संजय की दृष्टि, पर रहा धृतराष्ट्र अंधा ही.
न सच माना, असत ने नाश सब कुल का कराया है..

बनेगी प्रीत जीवन रीत, होगी स्वर्ग यह धरती.
मिटा मतभेद, श्रम-सहयोग ने दावा कराया है..

रहे रागी बनें बागी, विरागी हों न कर मेहनत.
अँगुलियों से बनें मुट्ठी, अहद पूरा कराया है..

जरा सी जिद ने इस आँगन का बंटवारा कराया हैं.
हुए हैं एक फिर से नेक, अँकवारा कराया है..

बने धर्मेन्द्र जब सिंह तो, मने जंगल में भी मंगल.
हरी हो फिर से यह धरती, 'सलिल' वादा कराया है..

**********
अँकवारा = अंक में भरना, स्नेह से गोद में बैठाना, आलिगन करना.

रविवार, 29 मई 2011

मुक्तिका : आज बिदा का दिन है __संजीव 'सलिल'

मुक्तिका
आज बिदा का दिन है
-- संजीव 'सलिल'
*
आज बिदा का दिन है देखूँ जी भर के.
क्या मालूम कल किसका दिल टूटे-दरके..

बिम्ब आँख में भर लूँ आज तुम्हारा फिर.
जिसे देख जी पाऊँ मैं हँस मर-मर के..

अमन-चैन के दुश्मन घेरे, कहते है:
दूर न जाओ हम न बाहरी, हैं घर के..

पाप मुझे कुछ जीवन में कर लेने दो.
लौट सकूँ, चाहूँ न दूर जाना तर के..

पूज रहा है शक्ति-लक्ष्मी को सब जग.
कोई न आशिष चाह रहा है हरि-हर के..

कमा-जोड़ता रहूँ चाहते हैं अपने.
कमा न पाये जो चाहें जल्दी सरके..

खलिश 'सलिल' का साथ न छूटे कभी कहीं.
रहें सुनाते गीत-ग़ज़ल मिल जी भर के..
********

शनिवार, 28 मई 2011

मुक्तिका: सुबह को, शाम को, रातों को -- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
सुबह को, शाम को,  रातों को
संजीव 'सलिल'
*


सुबह को, शाम को,  रातों को कैसे तू सुहाया है?
सितारे पूछते, सूरज ने गुर अपना छिपाया है..

जिसे देखो उसी ने ख्वाब निज हित का सजाया है.
गुलिस्तां को उजाड़ा, फर्श काँटों का बिछाया है..

तेरे घर में जले ईमान का हरदम दिया लेकिन-
मुझे फानूस दौलत के मिलें, सबने मनाया है..

न मन्दिर और न मस्जिद में तुझको मिल सकेगा वह.
उसे लेकर कटोरा राह में तूने बिठाया है..

वो चूहा पूछता है 'एक दाना भी नहीं जब तो-
बता इंसां रसोईघर में चूल्हा क्यों बनाया है?.

दिए सरकार ने पैसे मदरसे खूब बन जाएँ.
मगर अफसर औ' ठेकेदार ने बंगला बनाया है..

रहनुमा हैं गरीबों के मगर उड़ते जहाजों में.
जमूरों ने मदारी और मजमा बेच खाया है..

भ्रमर की, तितलियों की बात सुनते ही नहीं माली.
जरा सी जिद ने इस आँगन का बंटवारा कराया है..

वो राधा हो या रज़िया हो, नहीं उसका सगा कोई.
हरेक अपने को उसने घूरते ही 'सलिल' पाया है.

'सलिल' पत्थर की छाती फाड़, हरने प्यास आया है -
इसे भी बेच पत्थर दिलों ने धंधा बनाया है.

रविवार, 1 मई 2011

मुक्तिका: मौन क्यों हो? संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
मौन क्यों हो?
संजीव 'सलिल'
*
मौन क्यों हो पूछती हैं कंठ से अब चुप्पियाँ.
ठोकरों पर स्वार्थ की, आहत हुई हैं गिप्पियाँ..
टँगा है आकाश, बैसाखी लिये आशाओं की.
थक गये हैं हाथ, ले-दे रोज खाली कुप्पियाँ..
शहीदों ने खून से निज इबारत मिटकर लिखी.
सितासत चिपका रही है जातिवादी चिप्पियाँ..
बादशाहों को किया बेबस गुलामों ने 'सलिल'
बेगमों की शह से इक्के पर हैं हावी दुप्पियाँ..
तमाचों-मुक्कों ने मानी हार जिद के सामने.
मुस्कुराकर 'सलिल' जीतीं, प्यार की कुछ झप्पियाँ..
******************************

मंगलवार, 26 अप्रैल 2011

मुक्तिका : माँ ______- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका
माँ
संजीव 'सलिल'
*
बेटों के दिल पर है माँ का राज अभी तक.
माँ के आशिष का है सिर पर ताज अभी तक..

प्रभू दयालु हों इसी तरह हर एक बेटे पर
श्री वास्तव में माँ है, है अंदाज़ अभी तक..

बेटे जो स्वर-सरगम जीवन भर गुंजाते.
सत्य कहूँ माँ ही है उसका साज अभी तक..

बेटे के बिन माँ का कोई काम न रुकता.
माँ बिन बेटों का रुकता हर काज अभी तक..

नहीं रही माँ जैसे ही बेटा सुनता है.
बेटे के दिल पर गिरती है गाज अभी तक..

माँ गौरैया के डैने, ममता की छाया.
पा बेटे हो जाते हैं शहबाज़ अभी तक..

कोई गलती हो जाये तो आँख न उठती.
माँ से आती 'सलिल' सुतों को लाज अभी तक..

नानी तो बन गयी, कभी दादी बन जाऊँ.
माँ भरती है 'सलिल' यही परवाज़ अभी तक..

********