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गुरुवार, 30 अप्रैल 2020

लेख : आचार्यों की दृष्टि में ‘मौलिकता’ बलराम अग्रवाल

रविवार, 28 अप्रैल 2019
भारतीय और भारतेतर आचार्यों की दृष्टि में ‘मौलिकता’
बलराम अग्रवाल
*
[प्रस्तुत लेख काव्य के भारतीय और भारतेतर आचार्यों के आलोचना सिद्धांतों पर आधारित है। यहाँ ‘काव्य’ से तात्पर्य साहित्य की समूची भूमि से है, कविता मात्र से नहीं। नाट्य और कथा साहित्य ने भी आलोचना के टूल्स काव्यालोचना से ही लिये हैं। ये सभी विचार पूर्व आचायों के हैं। किसी भी विचार-विशेष के पक्ष में अथवा विपक्ष में इसमें कुछ नहीं लिखा है। किसी भी विचार-विशेष से अपनी सहमति/असहमति व्यक्त करने से यथासम्भव बचा गया है।
प्रस्तुत लेख में काव्य के स्थान पर आवश्यकता और सु्विधा के अनुसार लघुकथा, कहानी, उपन्यास शब्द का प्रयोग करने को पाठक स्वत: स्वतंत्र हैं।]
संपादकीय कार्यालय अपने पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशनार्थ हमेशा ही ‘मौलिक’ रचना की माँग करते हैं। लेकिन ‘मौलिक’ सृजन से उनका तात्पर्य क्या है, इसे वे कितने व्यापक अथवा सीमित अर्थ में जानते हैं, यह एक बड़ा सवाल है। विभिन्न विद्वानों के कथन और शब्दकोशों में दिये गये अर्थों के आधार पर यदि ‘मौलिक’ शब्द पर विचार करें तो इसका मतलब होगा—विचार में स्वतंत्र सृजनात्मक कार्य। रूप और शैली में इस कार्य के भव्य तथा सर्वथा नवीन होने की अपेक्षा की जाती है। यह बात उल्लेखनीय है कि साहित्य में विचार, दृष्टि और विवेचन की नवीनता भी मौलिक ही कही जाती है।
भारतीय आलोचकों का मत :
मौलिकता के संबंध में आनन्दवर्द्धन ने अपने ग्रंथ ‘ध्वन्यालोक’ में लिखा है—‘जहाँ नवीन स्फुरित होने वाली काव्यवस्तु पुरानी यानी प्राचीन कवि द्वारा निबद्ध वस्तु आदि की रचना के समान निबद्ध की जाती है तो वह निश्चित रूप से दूषित नहीं होती।’ यानी उसे मौलिक ही माना जाता है। इसी प्रकार प्राचीन भाव को अपनी निराली नूतनता द्वारा चमत्कृत करने वाले कवि को भी आनन्दवर्धन ने मौलिक की श्रेणी में रखा है। उन्होंने कहा है कि जहाँ सहृदयों को ‘यह कोई नया स्फुरण है’, ऐसी अनुभूति होती है, तो नयी या पुरानी जो भी हो, वही वस्तु रम्य कहलाती है। उनके अनुसार, पुराने कवियों से कुछ भी अछूता नहीं रह गया है, इसलिए नये कवियों को पुरानी उक्तियों का संस्कार करना चाहिए। इसमें कोई भी बुराई वे नहीं देखते हैं।
अभिनव गुप्त के अनुसार भी—‘पूर्व प्रतिष्ठापितयोजनासु मूल प्रतिष्ठाफलमामनन्ति’ यानी पूर्व आचार्यों द्वारा स्थापित सिद्धान्तों की मूल प्रतिष्ठा तथा उनकी प्रकृत विवेचना में भी मौलिक सिद्धांतों की विवेचना जैसा फल परिलक्षित होता है।’ राजशेखर ने भी लगभग ऐसा ही मत प्रकट किया है; तथा अन्य विद्वानों ने भी राजशेखर और आनन्दवर्द्धन के सिद्धांत का समर्थन किया है। उन्होंने इसे कवि-प्रतिभा के रूप में स्वीकार किया है। वे तो यह भी मानते हैं कि शब्द भी वही रह सकते हैं, अर्थ विभूति या काव्य विषय भी वही, अन्तर केवल कहने के ढंग यानी शैली में आता है।
मौलिकता की दृष्टि से राजशेखर ने कवियों के चार प्रकार गिनाये हैं—
1॰ उत्पादक
2॰ परिवर्तक
3॰ आच्छादक, और
4॰ संवर्गक।
इनमें उत्पादक कवि अपनी प्रतिभा के बल पर काव्य में नवीन अर्थवत्ता का समावेश करता है। परिवर्तक कवि पूर्व कवि के भावों में इच्छानुरूप परिवर्तन करके उन्हें अपना लेता है। आच्छादक पूर्व कवि की उक्ति को छिपाकर उसी के अनुरूप उक्ति को अपनी रचना के रूप में प्रस्तुत करता है और संवर्गक कवि बिना किसी परिवर्तन के दूसरों की कृति को अपना लेता है। इस चौथे को राजशेखर ने चोर अथवा डकैत की संज्ञा दी है। मौलिकता की दृष्टि से राजशेखर ने उत्पादक कवि को ही श्रेष्ठ माना है। अन्य तीन प्रकार के कवियों में, उनका मानना है कि, मौलिकता का अंश नहीं होता। अर्थ का अपहरण करने वाले कवियों का भी राजशेखर ने अपने ग्रंथ में विस्तार से वर्णन किया है।
माना यह जाता है कि भाव-साम्य और अर्थ का अपहरण यदि काव्यगत उक्ति के सौंदर्य में वृद्धि करने में योग करता है, तो उसे मौलिकता की श्रेणी में रखा जा सकता है। भाव-साम्य के डॉ॰ नगेन्द्र ने तीन प्रकार गिनाये हैं—
1॰ समान मानसिक परिस्थितियाँ, संस्कार, विचार-पद्धति और सामाजिक वातावरण के कारण आया भाव-साम्य।
2॰ दो या दो से अधिक कवियों द्वारा पूर्ववर्ती भावों को ग्रहण किये जाने के कारण आया भाव-साम्य; तथा
3॰ पूर्ववर्ती साहित्य के गम्भीर अध्ययन द्वारा संस्कार ग्रहण करने के कारण आया भाव-साम्य।
कभी-कभी समान मन:स्थिति के कारण समान्तर प्रतीत होने वाली बहुत-सी रचनाओं में एक ही प्रयास और एक ही अन्त:प्रेरणा महसूस हो सकती है।
विद्वानों ने भाव-साम्य के तीन प्रभाव गिनाये हैं—
1॰ सौन्दर्य सुधार
2॰ सौन्दर्य रक्षा, और
3॰ सौन्दर्य संहार।
इनमें से प्रथम दो में भी सौंदर्य सुधार की भूरि-भूरि प्रशंसा होती है, इसलिए साहित्य मर्मज्ञों ने इन्हें ‘अच्छा’ स्वीकार किया है; लेकिन ‘सौंदर्य संहार’ को ‘साहित्यिक चोरी’ बताया है। रीति युग की काव्यगत मौलिक चेतना से असहमति जताने वाले आलोचकों ने रीति कवियों को भाव-साम्य और अर्थ-अपहरण दोनों का दोषी माना है। बावजूद इसके, पुरानी उक्तियों में अपनी सहज रसग्राहिता का समावेश करते हुए रीति-कवियों ने रस-चयन में जो कुशलता दिखायी है, वह अप्रतिम है। इस तथ्य को आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भी स्वीकार किया है।
काव्य की मौलिक चेतना का प्रादुर्भाव एक विशिष्ट जन्म-नक्षत्र में होता है; और उसी में जन्म लेकर कोई कवि या कथाकार सौंदर्यपूर्ण अभिव्यक्ति के द्वारा लोकप्रियता को प्राप्त होता है। आचार्यों ने प्रतिभा को लोकोत्तर शक्ति के रूप में चिह्नित किया है; और कवि-प्रतिभा के आधार पर ही उन्होंने किसी रचना में मौलिकता के अंश का विवेचन प्रस्तुत किया है। यह तो निश्चित है कि काव्य सृजन की नव-प्रेरणा प्रतिभा के अभाव में तनिक भी संभव नहीं है। प्रतिभा अंत:करण का वह आलोक है जिसके कारण समस्त रचना मौलिकता के सौंदर्य से जगमगा उठती है। भारतीय काव्यशास्त्रियों में रुद्रट ने प्रतिभा को ऐसी शक्ति माना है जो चित्त के सम्मिलन से अभिधेय अर्थ को अनेक प्रकार से स्फुरित करती है।
आचार्य कुन्तक ने कहा है—‘वस्तुओं में अन्तर्निहित सूक्ष्म और सुन्दर तत्व को जो अपनी वाणी से खींच लाता है, उसे; और जो वाणी द्वारा ही इस विश्व की बाह्यत: अभिव्यक्ति करता है, उसे भी मैं प्रणाम करता हूँ।’ इस कथन से स्पष्ट है कि अभिव्यक्ति के स्तर पर व्यंजना और अभिधा दोनों पुरातन काल से ही प्रणम्य रही हैं।
प्राचीन रचनाशीलता के आलोक में विद्वानों ने माना है कि विषय की सीमा और शास्त्रीयता के कड़े अंकुश के कारण रचनाकार की अन्तश्चेतना पूरी तरह स्फुटित नहीं हो पाती और भीतर ही भीतर कुण्ठित हो जाती है। ‘हिन्दी साहित्य का उद्भव और विकास’ में एक स्थान पर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि ‘शास्त्रीय मत को श्रेष्ठ और अपने मत को गौण मान लेने के कारण उनमें (यानी पूर्व काल के अनेक कवियों में) अपनी स्वाधीन चिन्ता के प्रति अवज्ञा का भाव आ गया है।’

भारतेतर आलोचकों का मत :
लगभग इसी मत का प्रतिपादन ‘द्विवेदी अभिनन्दन ग्रंथ’ के अपने एक अंग्रेजी लेख में मि॰ ग्रीव्स ने भी किया है। वे लिखते हैं—‘मौलिक सृजन की अपेक्षा संस्कृत अनुवाद के कार्यों में अनेक (पूर्वकालीन कवियों) ने अपनी प्रतिभा को प्राय: नष्ट कर दिया।’
ग्रियर्सन का कहना है कि कवि यदि प्रतिभा सम्पन्न है और उसमें मौलिक रचने की क्षमता है, तो उसे अधिकार है कि वह दूसरों की रचना का उपयोग अपनी इच्छा के अनुसार कर ले। वह प्रतिभा-शक्ति के अभाव में मौलिकता को अस्वीकार करते हैं। कान्ट और कॉलरिज ने प्रतिभा को ‘कल्पना’ शक्ति (इमेजिनेशन पॉवर) के रूप में स्वीकार किया है।
19वीं सदी के अंतिम चरण की अंग्रेजी समीक्षा, कृति के बजाय कवि और उसकी वैयक्तिकता को महत्व देती थी। वाल्टर पीटर और ऑस्कर वाइल्ड ने ‘कलावाद’ को ही महत्व दिया। टी॰ एस॰ इलियट का मानना था कि ‘परम्परा के अभाव में कवि छाया मात्र है और उसका कोई अस्तित्व नहीं होता।’ उसने कहा कि ‘परम्परा को छोड़ देने पर वर्तमान भी हमसे छूट जाता है।’ परम्परा की परिभाषा करते हुए इलियट ने कहा—‘इसके अंतर्गत उन सभी स्वाभाविक कार्यों, स्वभावों, रीति-रिवाजों का समावेश होता है जो स्थान-विशेष पर रहने वाले लोगों के सह-संबंध का प्रतिनिधित्व करते हैं। परंपरा के भीतर विशिष्ट धार्मिक आचारों से लेकर आगन्तुक के स्वागत की पद्धति और उसको संबोधित करने का ढंग, सब-कुछ समाहित है। परंपरा अतीत की वह जीवन-शक्ति है जिससे वर्तमान का निर्माण होता है और भविष्य का अंकुर फूटता है।’ अपनी इसी विचारधारा के आधार पर उसने कहा कि कोई भी रचनाकार स्वयं में महत्वपूर्ण नहीं होता, उसका मूल्यांकन परम्परा की सापेक्षता में किया जाना चाहिए। वह अपने पूर्ववर्ती रचनाकार की तुलना में ही अपनी महत्ता सिद्ध कर सकता है। लेकिन ध्यातव्य यह है परम्परा से इलियट का तात्पर्य प्राचीन रूढ़ियों का मूक अनुमोदन या अनुमोदन कभी नहीं रहा, बल्कि परम्परा से उसका तात्पर्य वस्तुत: प्राचीन काल के इतिहास और धारणाओं का सम्यक् बोध रहा है। वह परम्परा से प्राप्त ज्ञान के अर्जन और उसके विकास का पक्षधर है। यही परम्परा का गत्यात्मक रूप है। इसके अभाव में हम नहीं जान सकते कि मौलिकता क्या है, कहाँ है? इस सिद्धांत के अनुसार, अतीत को वर्तमान में देखना रूढ़ि नहीं, मौलिकता की तलाश है। रचना की मौलिकता और श्रेष्ठता का आकलन तत्संबंधी अतीत को जाने बिना संभव नहीं है। इसी बिंदु पर परम्परा का संबंध संस्कृति से जुड़ता है जिसमें किसी जाति या समुदाय के जीवन, कला, दर्शन आदि के उत्कृष्ट अंश समाहित रहते हैं। परम्परा बोध से ही साहित्यकार को अपने कर्तव्य तथा दायित्व का बोध, और लेखन का मूल्य मालूम रहता है।
इस तरह, इलियट ने मौलिकता को परम्परा-सापेक्ष माना है। उनका कहना है कि परम्परा अपने आप में व्यापक अर्थ से युक्त है। उससे विहीन मौलिकता मूल्यहीन है। अपने सुप्रसिद्ध निबंध ‘परम्परा और वैयक्तिक प्रतिभा’ में उसने स्पष्ट संकेत किया है, कि ‘परम्परा को उत्तराधिकार में प्राप्त नहीं किया जा सकता; इसे कड़े श्रम से कमाना पड़ता है, अर्जित करना पड़ता है’ तथा ‘परम्परा के मूल में एक ऐतिहासिक चेतना (हिस्टोरिकल सेंस) गुँथी रहती है।’
इलियट का सवाल है कि परम्परा की समग्र मान्यताओं को जाने बिना कोई भी व्यक्ति उनके रूढ़ और गलित अंशों को हटाने के बारे में सोच भी कैसे सकता है?
* संपर्क : एम-70, नवीन शाहदरा, दिल्ली मो॰ : 8826499115 ई-मेल : 2611ableram@gmail.com
साभार: 'लघुकथा-वार्ता'

लघुकथा भवानी

लघुकथा
भवानी
*
वह महाविद्यालय में अध्ययन कर रही थी। अवकाश में दादा-दादी से मिलने गाँव आई तो देखा जंगल काटकर, खेती नष्ट कर ठेकेदार रेत खुदाई करवा रहा है। वे वृक्ष जिनकी छाँह में उसने गुड़ियों को ब्याह रचाए थे, कन्नागोटी, पिट्टू और टीप रेस खेले थे, नौ दुर्गा व्रत के बाद कन्या भोज किया था और सदियों की शादी के बाद रो-रोकर उन्हें बिदा किया था अब कटनेवाले थे। इन्हीं झाड़ों की छाँह में पंचायत बैठती थी, गर्मी के दिनों में चारपाइयाँ बिछतीं तो सावन में झूल डल जाते थे।
हर चेहरे पर छाई मुर्दनी उसके मन को अशांत किए थी। रात भर सो नहीं सकी वह, सोचता रही यह कैसा लोकतंत्र और विकास है जिसके लिए लोक की छाती पर तंत्र दाल दल रहा है। कुछ तो करना है पर कब, कैसे?
सवेरे ऊगते सूरज की किरणों के साथ वह कर चुकी थी निर्णय। झटपट महिलाओं-बच्चों को एकत्र किया और रणनीति बनाकर हर वृक्ष के निकट कुछ बच्चे एकत्र हो गए। वृक्ष कटने के पूर्व ही नारियाँ और बच्चे उनसे लिपट जाते। ठेकेदार के दुर्गेश ने बल प्रयोग करने का प्रयास किया तो अब तक चुप रहे पुरुष वर्ग
का खून खौल उठा। वे लाठियाँ लेकर निकल आए।
उसने जैसे-तैसे उन्हें रोका और उन्हें बाकी वृक्षों की रक्षा हेतु भेज दिया। खबर फैला अखबारनवीस और टी. वी. चैनल के नुमाइंदों ने समाचार प्रसारित कर दिया।
एक जग-हितकारी याचिका की सुनवाई को बाद न्यायालय ने परियोजना पर स्थगन लगा गिया। जनतंत्र में जनमत की जीत हुई।
उसने विकास के नाम पर किए जा रहे विनाश का रथ रोक दिया था और जनगण ने उसे दे दिया था एक नया नाम भवानी।
***
संवस
३०-४-२०१९
७९९९५५९६१८

राजीव छंद

मुक्तिका
पंच मात्रिक राजीव छंद
गण सूत्र: तगण
मापनी २२१
*
दो तीन
क्यों दीन?
.
खो चैन
हो चीन
.
दो झेल
दे तीन
.
पा नाग
हो बीन
.
दीदार
हो लीन
.
गा रोज
यासीन
.
जा बोल
आमीन
.
यासीन कुरआन की एक आयत
***
संवस
३०-४-२०१९

साधना छंद

 मुक्तिका
छंद: साधना छंद
विधान: पंचमात्रिक, पदांत गुरु।
गण सूत्र: रगण
*
एक दो
मूक हो
भक्त हो?
वोट दो
मन नहीं?
नोट लो
दोष ही
'कोट' हो
हँस छिपा
खोट को
विमत को
सोंट दो
बात हर
चोट हो
*

खबर - शराब दुकान ठेका

खबर: ३०-४-२०१०
शराब की दूकानों का ठेका लेने महिलाओं के हजारों आवेदन. आपकी राय ?
*
मधुशाला को मधुबाला ने निशा निमंत्रण भेजा है.
पीनेवालों समाचार क्या तुमने देख सहेजा है?
दूना नशा मिलेगा तुमको आँखों से औ' प्याले से.
कैसे सम्हल सकेगा बोलो इतना नशा सम्हाले से?
*
खबर २०१७
शराब की दुकानों के विरोध में महिलाओं द्वारा हमला
*
शासक बदला, शासन बदला, जनता बदली जागी है
साकी ने हाथों में थमाई है मशाल, खुद आगी है
मधुशाला के मादक भागे, मंदिर में जा गहो शरण
'तीन तलाकी' सम्हलो, 'खुला' ही तुम लुच्चों की चावी है
***

मुक्तिका

मुक्तिका: ग़ज़ल
miktika/gazal
संजीव वर्मा 'सलिल'
sanjiv verma 'salil'
*
निर्जीव को संजीव बनाने की बात कर
हारे हुओं को जंग जिताने की बात कर
nirjeev ko sanjeev banane ki baat kar
hare huon ko jang jitane ki baat kar
'भू माफिये'! भूचाल कहे: 'मत जमीं दबा
जो जोड़ ली है उसको लुटाने की बात कर'
'bhoo mafiye' bhoochal kahe: mat jameen daba
jo jod li hai usko lutane kee baat kar
'आँखें मिलायें' मौत से कहती है ज़िंदगी
आ मारने के बाद जिलाने की बात कर
aankhen milayen maut se kahtee hai zindagi
'aa, marne ke baad jilaane ki baat kar'
तूने गिराये हैं मकां बाकी हैं हौसले
काँटों के बीच फूल खिलाने की बात कर
toone giraye hain makan, baki hain hausale
kaanon ke beech fool khilane kee baat kar
हे नाथ पशुपति! रूठ मत तू नीलकंठ है
हमसे ज़हर को अमिय बनाने की बात कर
he nath pashupati! rooth mat too neelkanth hai
hmse zar ko amiy banane kee baat kar
पत्थर से कलेजे में रहे स्नेह 'सलिल' भी
आ वेदना से गंग बहाने की बात कर
patthar se kaleje men rahe sneh salil bhee
aa vedana se gng bahane kee baat kar
नेपाल पालता रहा विश्वास हमेशा
चल इस धरा पे स्वर्ग बसाने की बात कर
nepaal palta raha vishwas hamesha
chal is dhara pe swarg basane kee baat kar
***
३०-४-२०१५

रासलीला : संजीव 'सलिल'

रासलीला :
संजीव 'सलिल'
*
आँख में सपने सुनहरे झूलते हैं.
रूप लख भँवरे स्वयं को भूलते हैं.
झूमती लट नर्तकी सी डोलती है.
फिजा में रस फागुनी चुप घोलती है.
कपोलों की लालिमा प्राची हुई है.
कुन्तलों की कालिमा नागिन मुई है.
अधर शतदल पाँखुरी से रसभरे हैं.
नासिका अभिसारिका पर नग जड़े हैं.
नील आँचल पर टके तारे चमकते.
शांत सागर मध्य दो वर्तुल उमगते.
खनकते कंगन हुलसते गीत गाते.
राधिका है साधिका जग को बताते.
कटि लचकती साँवरे का डोलता मन.
तोड़कर चुप्पी बजी पाजेब बैरन.
सिर्फ तू ही तो नहीं मैं भी यहाँ हूँ.
खनखना कह बज उठी कनकाभ करधन.
चपल दामिनी सी भुजाएँ लपलपातीं.
करतलों पर लाल मेंहदी मुस्कुराती.
अँगुलियों पर मुन्दरियाँ नग जड़ी सोहें.
कज्जली किनार सज्जित नयन मोहें.
भौंह बाँकी, मदिर झाँकी नटखटी है.
मोरपंखी छवि सुहानी अटपटी है.
कौन किससे अधिक, किससे कौन कम है.
कौन कब दुर्गम-सुगम है?, कब अगम है?
पग युगल द्वय कब धरा पर?, कब अधर में?
कौन बूझे?, कौन-कब?, किसकी नजर में?
कौन डूबा?, डुबाता कब-कौन?, किसको?
कौन भूला?, भुलाता कब-कौन?, किसको?
क्या-कहाँ घटता?, अघट कब-क्या-कहाँ है?
क्या-कहाँ मिटता?, अमिट कुछ-क्या यहाँ है?
कब नहीं था?, अब नहीं जो देख पाये.
सब यहीं था, सब नहीं थे लेख पाये.
जब यहाँ होकर नहीं था जग यहाँ पर.
कब कहाँ सोता-न-जगता जग कहाँ पर?
ताल में बेताल का कब विलय होता?
नाद में निनाद मिल कब मलय होता?
थाप में आलाप कब देता सुनायी?
हर किसी में आप वह देता दिखायी?
अजर-अक्षर-अमर कब नश्वर हुआ है?
कब अनश्वर वेणु गुंजित स्वर हुआ है?
कब भँवर में लहर?, लहरों में भँवर कब?
कब अलक में पलक?, पलकों में अलक कब?
कब करों संग कर, पगों संग पग थिरकते?
कब नयन में बस नयन नयना निरखते?
कौन विधि-हरि-हर? न कोई पूछता कब?
नट बना नटवर, नटी संग झूमता जब.
भिन्न कब खो भिन्नता? हो लीन सब में.
कब विभिन्न अभिन्न हो? हो लीन रब में?
द्वैत कब अद्वैत वर फिर विलग जाता?
कब निगुण हो सगुण आता-दूर जाता?
कब बुलाता?, कब भुलाता?, कब झुलाता?
कब खिझाता?, कब रिझाता?, कब सुहाता?
अदिख दिखता, अचल चलता, अनम नमता.
अडिग डिगता, अमिट मिटता, अटल टलता.
नियति है स्तब्ध, प्रकृति पुलकती है.
गगन को मुँह चिढ़ा, वसुधा किलकती है.
आदि में अनादि बिम्बित हुआ कण में.
साsदि में फिर सांsत चुम्बित हुआ क्षण में.
अंत में अनंत कैसे आ समाया?
दिक् में दिगंत जैसे था समाया.
कंकरों में शंकरों का वास देखा.
और रज में आज बृज ने हास देखा.
मरुस्थल में महकता मधुमास देखा.
नटी नट में, नट नटी में रास देखा.
रास जिसमें श्वास भी था, हास भी था.
रास जिसमें आस, त्रास-हुलास भी था.
रास जिसमें आम भी था, खास भी था.
रास जिसमें लीन खासमखास भी था.
रास जिसमें सम्मिलित खग्रास भी था.
रास जिसमें रुदन-मुख पर हास भी था.
रास जिसको रचाता था आत्म पुलकित.
रास जिसको रचाता परमात्म मुकुलित.
रास जिसको रचाता था कोटि जन गण.
रास जिसको रचाता था सृष्टि-कण-कण.
रास जिसको रचाता था समय क्षण-क्षण.
रास जिसको रचाता था धूलि तृण-तृण..
रासलीला विहारी खुद नाचते थे.
रासलीला सहचरी को बाँचते थे.
राधिका सुधि-बुधि बिसारे नाचतीं थीं.
'सलिल' ने निज बिंदु में वह छवि निहारी.
जग जिसे कहता है श्रीबांकेबिहारी.
*******************************
३०-४-२०१०
दिव्यनर्मदा.ब्लॉगस्पोट.कॉम

बुंदेली कहानी कचोंट डॉ. सुमन श्रीवास्तव

बुंदेली कहानी
कचोंट
डॉ. सुमन श्रीवास्तव
*
सत्तनारान तिबारीजी बराण्डा में बैठे मिसराजी के घर की तरपीं देख रअे ते और उनें कल्ल की खुसयाली सिनेमा की रील घाईं दिखा रईं तीं। मिसराजी के इंजीनियर लड़का रघबंस को ब्याओ आपीसर कालोनी के अवस्थी तैसीलदार की बिटिया के संगें तै हो गओ तो। कल्ल ओली-मुंदरी के लयं लड़का के ममआओरे-ददयाओरे सब कहुँ सें नाते-रिस्तेदारों को आबो-जाबो लगो रओ। बे ओंरें तिबारीजी खों भी आंगें करकें समद्याने लै गअे ते। लहंगा-फरिया में सजी मोड़ी पूजा पुतरिया सी लग रई ती। जी जुड़ा गओ। आज मिसराजी कें सूनर मची ती। खबास ने बंदनबार बाँदे हते, सो बेई उतरत दुफैरी की ब्यार में झरझरा रअे ते।

इत्ते में भरभरा कें एक मोटर-साइकल मिसराजी के घर के सामनें रुकी। मिसराजी अपनी दिल्लान में बाहर खों निकर कें आय, के, को आय ? तबई्र एक लड़किनी जीन्स-सर्ट-जूतों में उतरी और एक हांत में चाबी घुमात भई मिसराजी के पाँव-से परबे खों तनक-मनक झुकी और कहन लगी - ‘पापाजी, रघुवंश है ?’ मिसराजी तो ऐंसे हक्के-बक्के रै गअे के उनको बकइ नैं फूटो। मों बांयं, आँखें फाड़ें बिन्नो बाई खों देखत रै गये। इत्ते में रघबंस खुदई कमीज की बटनें लगात भीतर सें निकरे और बोले - ‘पापा, मैं पूजा के साथ जा रहा हूँ। हम बाहर ही खा लेंगे। लौटने में देर होगी।’ मिसराजी तो जैंसई पत्थर की मूरत से ठांड़े हते, ऊँसई ठांडे़ के ठांड़े रै गय। मोटरसाइकल हबा हो गई। तब लौं मिसराइन घुंघटा सम्हारत बाहरै आ गईं - काय, को हतो ? अब मिसराजी की सुर्त लौटी - अरे, कोउ नईं, तुम तो भीतरै चलो। कहकैं मिसराइन खों ढकेलत-से भीतरैं लोआ लै गअे। तिबारी जी चीन्ह गअे के जा तो बई कन्या हती, जीके सगुन-सात के लयं गअे हते। तिबारी जी जमाने को चलन देखकैं मनइं मन मुस्कान लगे। नांय-मांय देखो, कोउ नैं हतौ कै बतया लेते। आज की मरयादा तो देखो। कैंसी बेह्याई है ? फिर कुजाने का खेयाल आ गओ के तिलबिला-से गअे। उनकें सामनें सत्तर साल पैलें की बातें घूम गईं। आज भलेंईं तिबारीजी को भरौ-पूरौ परिबार हतो, बेटा-बेटी-नाती-पोता हते, उनईं की सूद पै चलबे बारीं गोरी-नारी तिबारन हतीं, मनां बा कचोंट आज लौं कसकत ती।
सत्तनारान तिबारी जी को पैलो ब्याओ हो गओ तो, जब बे हते पन्दरा साल के। दसमीं में पड़त ते। आजी की जिद्द हती, जीके मारें; मनों दद्दा ने कड़क कें कै दइ ती कै हमाये सत्तू पुरोहितयाई नैं करहैं। जब लौं बकालत की पड़ाई नैं कर लैंहैं, बहू कौ मों नैं देखहैं। आज ब्याओ भलेंईं कल्लो, मनों गौनौ हूहै, जब सही समौ आहै। सो, ब्याओ तो हो गओ। खूब ढपला बजे, खूब पंगतें भईं। मनों बहू की बिदा नैं कराई गई। सत्तू तिबारी मेटरिक करकें गंजबसौदा सें इन्दौर चले गअे और कमरा लें कें कालेज की पड़ाई में लग गअे। उनके संग के और भी हते दो चार गाँव-खेड़े के लड़का, जिनके ब्याओ हो गअे हते, कइअक तो बाप सुंदां बन गअे हते। सत्तू तो बहू की मायाजाल में नैं परे ते, मनो समजदार तो हो गय ते। कभउँ-कभउँ सोच जरूर लेबें कै कैंसो रूप-सरूप हुइये देबासबारी को, हमाय लयं का सोचत हुइये, अब तो चाय स्यानी हो गई हुइये।
खबर परी कै देबास बारी खूबइ बीमार है और इन्दौर की बड़ी अस्पताल में भरती है। अब जौन भी आय, चाय देबास सें, चाय गंजबसौदा सें, सत्तू केइ कमरा पै ठैरै। सत्तू सुनत रैबें के तबीअत दिन पै दिन गिरतइ जा रइ है, सेबा-सम्हार सब बिरथां जा रइ है। सत्तू फड़फड़ायं कै हमइ देख आबें, मनों कौनउ नें उनसें नईं कई, कै तुमइ चलो। दद्दा आय, कक्का आय, बड़े भैया आय मनों आहाँ। जे सकोच में रय आय और महिना-दो महिना में सुनी कै डाकटरों ने सबखां लौटार दओ। फिर महीना खाँड़ में देबास सें जा भी खबर आ गई कै दुलहन नईं रई। जे गतको-सो खाकैं रै गअे।
एइ बात की कचोंट आज तलक रै गई कै जीखौं अरधांगनी बनाओ, फेरे डारे, सात-पाँच बचन कहे-सुने, ऊ ब्याहता को हम मों तक नैं देख पाय। बा सुइ पति के दरसनों खों तरसत चली गई और हम पोंचे लौं नईं, नैं दो बोल बोल पाय। हम सांगरे मरयादइ पालत रै गअे। ईसें तो आजइ को जमानो अच्छो है। संग-साथ क बचन तो निभा रय। हमें तो बस, बारा-तेरा साल की बहू को हांत छूबो याद रै गओ जिन्दगी-भर के लयं, जब पानीग्रहन में देबास बारी को हाथ छुओ तो।,,,,,,और बोइ आज लौं कचोंट रओ।
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बुंदेली कहानी स्वयंसिद्धा डॉ. सुमन श्रीवास्तव

बुंदेली कहानी
स्वयंसिद्धा
डॉ. सुमन श्रीवास्तव
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पंडत कपिलनरायन मिसरा कोंरजा में संसकिरित बिद्यालय के अध्यापक हते। सूदो सरल गउ सुभाव। सदा सरबदा पान की लाली सें रचौ, हँसत मुस्कात मुँह। एकइ बिटिया, निरमला, देखबे दिखाबे में और बोलचाल में बिलकुल ‘निर्मला’। मिसराजी मोड़ी के मताई-दद्दा दोइ। मिसराजी की पहली ब्याहीं तो गौना होकें आईं आईं हतीं, कै मोतीझिरा बब्बा लै गए और दूसरी निरमला की माता एक बालक खों जनम देत में ओइ के संगे सिधार गईं तीं। ईके बाद तीसरी बार हल्दी चढ़वाबे सें नाहीं कर दई मिसराजी ने।
निरमला ब्याह जोग भईं, तो बताबे बारे ने खजरा के पंडत अजुद्धा परसाद पुरोहित के इतै बात चलाबे की सलाय दइ। जानत ते मिसराजी उनें। अपनेइं गाँव में नईं, बीस कोस तक के गांवों में बड़ो मान हतो पुरोहिज्जी को। जे बखत तिरपुण्ड लगाएं गैल में निकर परैं, सो आबे-जाबे बारे नोहर-नोहर के ‘पाय लागौं पंडज्जी’ कहत भए किनारे ठांड़े हो जाएं। बे पंचों में भी सामिल हते। देख भर लेबें कौनउ अन्नाय, दलांक परैं। मों बन्द कर देबैं सबके। चाय कौनउ नेता आए, चाय कौनउ आफीसर, बिना पुरोहिज्जी की मत लयं बात नइं बढ़ सकै।
ऊँचो ग्यान हतो उनको। जित्ते पोथी-पत्तर पढ़े ते, उत्तइ बेद-पुरान। मनों, बोलत ते बुंदेली। जब मौज में आ जायं, तो खूब सैरा-तैया, ईसुरी की फागें छेड़ देबैं। कहैं कै अपनी बुंदेली में बीररस के गीत फबत हैं और सिंगार रस के भी। बुंदेली के हिज्जे में जोन ऊपर बुंदी लगी है, बइ है सिंगार के लयं। मिसराजी ने पुरोहिज्जी खों सागर जिले के ‘बुंदेलखण्डी समारोह’ में देखो हतो। मंच पै जब उनें माला-आला डर गई, तो ठांड़े होकें पैलें उनने संचालकों खोंइ दो सुना दईं। अरे, बातें बुंदेलखंड की करबे आए हो, मनों बता रय हो खड़ी बोली में। बुंदेली कौ उद्धार चाहत हो, तो बोल-चाल में लाओ। जित्ती मिठास और जित्तो अपनोपन ई बोली में मिलहै, कहुँ नें मिलहै। किताब में लिख देबै सें बोली कौ रस नइ समज में आत। हर बोली बोलबे कौ अलग ढंग होत है। अलग भांस होत है हर भासा की, अलग लटका। कब ‘अे’ कहनें है, कब ‘अै’, कब ‘ओ’ कब ‘औ’। जा बात बिना बोलें, नइंर् समजाइ जा सकत। फिर नैं कहियो के नई पीढ़ी सीख नईं रइ, अरे तुम सिखाओ तो। और नइं तो तुमाय जे सब समारोह बेकार हैं। उनके हते तीन लड़का- राधाबल्लभ, स्यामबल्लभ और रमाबल्लभ। राधाबल्लभ के ब्याह के बाद
स्यामबल्लभ के लयं संबंध आन लगे ते। मजे की बात एेंसी भई; कै पुरोहिज्जी खों कोंरजइ बुलाओ गऔ भागवत बांचबे। बे भागवत भी बांचत हते और रामान भी। चाए किसन भगवान को द्वारकापिरस्तान होय, चाय सीतामैया की अग्निपरिच्छा, सुनबे बारों के अंसुआ ढरकन लगें। सत्तनारान की कथा तो ऐंसी, कै लगै मानों लीलाबती कलाबती अपनी महतारी-बिटियें होयं।
मिसराजी प्रबचन के बाद पुरोहिज्जी खों अपने घरै लै गए। घर की देख-संभार तौ निरमलइ करत ती। घिनौची तो, बासन तो, उन्ना-लत्ता तो, सब नीचट मांज-चमका कें, धो-धोधा कैं रखत ती। छुइ की ढिग सुंदा उम्दा गोबर से लिपौ आंगन देखकें पुरोहिज्जी की आत्मा पिरसन्न हो गई। दोइ पंडत बैठकें बतयान लगे कै बालमीकी की रामान और तुलसी की रामान में का-कित्तो फरक है। मौका देखकें मिसराजी बात छेडबे की बिचारइ रय ते; कै ओइ समै निरमला छुइ-गेरु सें जगमग तुलसी-चौरा में दिया बारबे आई। दीपक के उजयारे में बिन्नाबाई को मुँह चंदा-सो दमक उठौ। पुरोहिज्जी ने ‘संध्याबन्दन’ में हांत जोरे और निरमला खों अपने घर की बहू बनाबे को निस्चै कर लओ। कुंडलीमिलान के चक्कर में सोनचिरैया सी कन्या नें हांत से निकर जाय, सो कुंडली की बातइ नइं करी और पंचांग देखकें निरमला सें स्यामबल्लभ को ब्याओ करा दओ।
मंजले स्यामबल्लभ खों पुरोहिज्जी ने अपनो चेला बनाकें अपनेइ पास रक्खौ हतौ। एकदम गोरौ रंग, ऊँचो माथो, घुंघरारे बाल और बड़ी-बड़ी आँखें। गोल-मटोल धरे ते, जैंसे मताइ ने खूब माखन-मिसरी खबाइ होय। जब पुरोहिज्जी भागवत सुनांय, तो स्यामबल्लभ बीच-बीच में तान छेड़ देबैं। मीठो गरो, नइ-नइ रागें।
हरमुनियां पै ऐंसे-ऐंसे लहरा छेड़ें कै लगै करेजौ निकर परहै। सोइ रामान में एक सें एक धुनों में चौपाइएं। जब नारज्जी बन्दर बन गए, तो अलग लै-राग-ताल, कै पेट में हँसी कुलबुलान लगै और जब राम बनबास खों निकरन लगे, तो अलग कै रुहाइ छूट जाए।
बड़े राधाबल्लभ ने धुप्पल में रेलबइ को फारम भर दऔ और नौकरी पा गए। अपने बाल-बच्चा समेट कें, पेटी दबाकें निकर गए भुसावल। एकाद साल बाद लौटे, तो हुलिया बदल गई हती, बोली बदल गई हती। सो कछु नईं। मनों जब पुरोहिज्जी ने सुनी के बे खात-खोआत हैं, बस बिगर गए। बात जादई बढ़ गई, पिता ने चार जनों के सामनें थुक्का-फजीहत कर दई, सो राधाबल्लभ ने घरइ आबो छोड़ दओ।
छोटे रमाबल्लभ की अंगरेजी की समज ठीक हती, सो उनइं खों जमीन-जायदाद, खेती-बाड़ी, ढोर-जनावर, अनाज-पानी, कोर्ट-कचैरी की जिम्मेदारी दइ गई। रमाबल्लभ भी राजी हते, कायसें के ई बहाने, कछु रुपैया-पैसा उनके हांत में रैन लगौ तो।
निरमला खों तो सास के दरसनइ नईं मिले। बउ तो तीनइ चार दिनां के बुखार में चट्ट-पट्ट हो गईं तीं। बड़ी बहू घर की मालकन हती। मनों, जब बे बाहरी हो गईं, तो एइ ने हुसियारी सें घर सम्हार लओ। सुघर तौ हती; ऊपर सें भगवान नैं रूप ऐंसो दओ तो कै सेंदुर भरी मांग, लाल बड़ी टिबकी, सुन्ने के झुमकी, नाक की पुंगरिया, चुड़ियों भरे हांत, पांवों में झमझमात तोड़ल-बिछिया और सूदे पल्ले को घुंघटा देखकें लगै कै बैभोलच्छमी माता की खास किरपा ऐइ पै परी है। पुरोहिज्जी ने बहुओं खों खूब चाँदी-सोना चढ़ाओ हतौ।
छोटे रमाबल्लभ की बहू सुसमा सो निरमला केइ पीछें-पीछें लगी रहै और छोटी बहन घाईं दबी रहै। ओकी तीसरी जचकी निरमला नेंइं संभारीं, हरीरा सें, लड़ुअन सें, घी-हल्दी सें, मालिस-सिंकाई सें, कहूं कमी नैं रैन दइ। हाली-फूली निरमला ने खुदइ चरुआ चढ़ा लओ, खुदइ छठमाता पूज लइं, खुदइ सतिया बना लय, खुदइ दस्टौन, कुआपुजाइ, मातापूजा, झूला, पसनी सब कर लओ। कच्छु नैं छोड़ो। अपने दोइ लड़कों, माधवकान्त और केसवकान्त खों बिठार दओ कै पीले और गुलाबी झिलमिल कागज के चौखुट्टे टुकड़ों में दो-दो बड़े बतासा ध्ा रत जावें और धागा बांध कें पुड़ियें बनावें। निरमला ने खूब बुलौआ करे, बतासा बांटे, न्यौछावरें करीं। ढुलकिया तो ऐंसी ठनकी के चार गांव सुनाइ दइ -‘मोरी ढोलक लाल गुलाल, चतुर गावनहारी।’ एक सें एक हंसी-मजाक कीं, खुसयाली कीं, दुनियांदारी कीं, नेग-दस्तूर कीं जच्चा, सोहर, बधाईं। दाइ-खबासन सब खुस। निरमला-सुसमा दोइ के पैले जापे तो जिठानी ने जस-तस निबटा लय ते। एक बे तो फूहड़ हतीं, दूसरें भण्डारे की चाबी धोती के छुड्डा सें छूट नै सकत ती। मनों निरमला की देखादेखी सुसमा ने भी कभउँ उनकी सिकायत नें करी। बड़ी सबर बारी कहाईं। तबइ तो पुरोहिज्जी के घर में लच्छमी बरसत ती।
पुरोहिज्जी निरमला खों इत्ते मुकते काम एक संगे निबटात देख कें मनइ-मन सोचन लगें कै जा बहू तो अस्टभुजाधारी दुरगामैया को औतार है - नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः। गांव-बस्ती में भी खूब जस हो गओ निरमला को। कहूं सुहागलें होयं, कहूं सात सुहागलों के हातों ब्याओ के बरी-पापर बनन लगें, बर-बधू खों हल्दी-तेल चढ़न लगै, तो सगुन-सात के कामों में निरमला को हांत सबसे पहले लगवाओ जाए। एक तो बाम्हनों के घर कीं, फिर उनके गुन-ढंग लच्छमी से।
मनों का सब दिन एकइ से रहत हैं ? बिधि को बिधान। पुरोहिज्जी मों-अंधेरें खेतों की तरप जात हते। एक दिन लौटे नइं। निरमला खों फिकर मच गई। इत्ते बखत तक तो उनके इस्नान-ध्यान, पाठ-पूजा, आरती-परसाद सब हो जात तो, आज कितै अटक गए ? स्याम, रमा, माधव, केसव सब दौर परे। देखत का हैं के खेत की मेंड़ पे ओंधे मों डरे हैं, बदन नीलो पर गओ है, मुँह सें फसूकर निकर रओ है। तब लौं गांव के और आदमी भी उतइं पोंच गए। समज गए कै नागराज डस गए। पूरे दिन गुनिया, झरैया, फुंकैया सब लगे रहे कै नागदेवता आएं और अपनौ जहर लौटार लयं। गांव भर में चूल्हो नइं जरौ उदिना। सब हाहाकार करें, मनों आहाँं; कुजाने कौन से बिल में बिला गओ बो नांग। संझा लौं एक जनो तहसील सें डाक्टर खों बुला लै आओ, मनों ऊने आतइं इसारा कर दओ कै अब देर हो गई।
पुरोहिज्जी के जाबे सें अंधयारो सो छा गओ। पूजा-रचा, उपास-तिरास, जग्ग-हबन को बो आनन्द खतम हो गओ। सबने स्यामबल्लभ खोंइ समजाओ कै बेइ पुरोहताई संभारें। निरमला नें बाम्हनों के नेम-धरम और घर की मान-मर्जादा की बातें समजाईं। सो उनने बांध लई हिम्मत। अब बेइ पूजन-पुजन लगे। निरमला को नाम पर गओ, पंडतान बाई।
निरमला पंडतान को पूरो खेयाल ए बात पै रहत हतो कै ओके लड़का का पढ़ रय, का लिख रय, किते जात हैं, कौन के संगे खेलत-फिरत हैं, बड़ों के सांमने कैंसो आचरन करत हैं। तनक इतै उतै होयं, तो साम दाम दंड भेद सब बिध से रस्ता पे लै आय। निरमला ने अपने पिता के घर में सीखे नर्मदाष्टक, गोविन्दाष्टक, शिवताण्डवस्तोत्र, दुर्गाकवच, रामरक्षास्तोत्र, गीता के इस्लोक सबइ कछु बिल्लकुल किताब घाईं मुखाग्र करवा दय लड़कों खों। बड़े तेज हते बालक। स्यामबल्लभ ने बच्चों की कभउँ सुर्त नैं लइ। अपनी बन-ठन, तिलक-चन्दन मेंइं घंटाक निकार देबैं। नैं लड़कों खो उनसें मतलब, नैं उनें लड़कों सें। हाँ घर लौटें, सो जरूर लड़कों में आरती-दच्छना की चिल्लर गिनबे की होड़ लग जाए। निरमला भोग के फल-मिठाई संभार कें रख लेबै और सबखों परस कें ख्वा देबै। ओके मन में अपने लड़कों और सुसमा के बाल-बच्चों में भेद नैं हतो।
होत-होत, कहुँ सें साधुओं कौ एक दल गाँव में आ गऔ। गांवबारों नै खूब आव-भगत करी, प्रबचन सुने, दान-दच्छना दइ। खूब धूनी रमत ती। स्यामबल्लभ उनके संगे बैठें, तो बड़ो अच्छौ लगै। मंडली खों हती गांजा-चरस की लत। सो बइ लत लगा दइ स्यामबल्लभ खों। अब बे सग्गे लगन लगे और घर-संसार मोहमाया। निरमला ने ताड़ लओ, मनों स्यामबल्लभ नें घरबारी की बात नैं सुनीं। हटकत-हटकत उनइं के महन्त के सामनें भभूत लपेट कें गंगाजली उठा लइ और हो गए साधू। गाँव बारों ने खूब जैकारो करौ। धन्न-धन्न मच गई। गतकौ सो लगौ निरमला खों। कछू नैं समज परौ। तकदीर खों कोस कें रै गई। साधुओं कौ दल स्यामबल्लभानन्द महाराज खों लैकें आंगें निकर गओ। गांव में निरमला कौ मान और बढ़ गओ। जा कौ पति साधु-सन्त हो जाए, तो बा भी सन्तां से कम नइं। ठकरान, ललयान, बबयान, मिसरान सब पाँव परन लगीं। मनों निरमला के मन पै का बीत रइ हती ? लड़काबारे छोटे-छोटे, कमैया छोडकें चलौ गओ। कछू दिनां तो धरे-धराय सें काम चलत रहौ, मनों बैठ के खाओ तौ कुबेर कौ धन सुइ ओंछ जाय। एक-एक करकें चीजें-बसत बिकन लगीं। आठ-दस बासन भी निकार दय। उतै रमाकान्त ने पटवारी सें मिलीभगत करकें जमीन और घर अपने नाम करवा लओ। कोइ हतौ नइं देखबे बारौ, सो कर लइ मनमरजी। कहबै खों तो निरमला और बच्चों की मूड़ पै छत्त नैं रइ ती, मनों सुसमा अड़ गई कै जिज्जी एइ घर में रैहें, भलें तुम और जो चाहे मनमानी कर लो।
चलो, एक कुठरिया तौ मिल गई, मनों खरचा-पानी कैंसें चलत ? रमाबल्लभ ने पूंछो भी नइं और पूंछते तो का इत्ते छल-कपट के बाद निरमला उनको एसान लेती ? लड़का बोले, माइ! अब हम इस्कूल नैं जैहैं।
बस, निरमला पंडतान की इत्ते दिनों की भड़ास निकर परी - काय, तौ का बाप घाईं भभूत चुपर कें साधू बन जैहौ ? दुआर-दुआर जाकें मांगे की खैहौ ? दूसरों के दया पै पलहौ ? अरे हौ, सो तुमइं भांग में डूबे रइयो, गांजा-चरस के सुट्टा लगइयो, गैरहोस होकें परे रइयो, कै जनता समजे महात्माजी समादी में हैं। झूंठो छल, झूंठो पिरपंच। अपने आलसीपने खों, निकम्मेपने खों धरम को नाम दै दऔ; सो मुफत की खा रय और गर्रा रय।
सब ठठकरम, सब ढकोसला। साधुओं की जमात में भगत हैं, भगतनें हैं, कमी कौन बात की उनें ? नें बे देस के काम आ रय, नें समाज के, नें परिबार के। अपनौ पेट भर रय और जनता खों उल्लू बना रय। ऊँसइ बेअकल बे भक्त, अंधरया कें कौनउ खों भी पूजन लगत हैं। और सच्ची पूंछो तो, कइयक तो अपनी उल्टी-सूदी कमाई लुकाबे के लानें धरम को खाता खोल लेत हैं और धरमात्मा कहान लगत हैं।
कान खोल कें सुन लो, माधोकान्त और केसोकान्त! तुमें जनम देबै बारो तो अपनी जिम्मेबारियों सें भग गओ कै उनकी औलाद खों हम पालैं, कायसें के हमाए पेट सें निकरे हो। मनों बे हमें कम नैं समजें। अबे समै खराब है, सो चलन दो। कल्ल खों हम अपने हीरा-से लड़कों खों एैसो बना दैहें के फिर पुरोहिज्जी की इज्जत इ घर में लौट्याये। अपन मेहनत मजूरी कर लैहें, बेटा। मनों, लाल हमाय ! तुम दोइ जनें पढ़बो लिखबो नें छोड़ियो। तुम दोइ जनों खों अपने नाना की सूद पकर कें सिक्छक बनने है।’ निरमला दोइ कुल को मान बढ़ाबो चहत ती।
निरमला ने ठाकुरों के घरों में दोइ बखत की रोटी को काम पकर लओ। कभउँ सेठों के घरों के पापर बेल देबै। हलवाइयों के समोसा बनवा देबै। कहुँ पे बुलाओ जाय, तो तीज-त्यौहार के पकवान बनवा देबै।
कभउँ घरइ में गुजिया, पपरिया बनाकें बेंच देबै। कहूँ बीनबे-पीसबे, छानबे-फटकबे खों चली जाय। एक घड़ी की फुरसत नइं, आराम नइं। बस, मन में संकल्प कर लओ हतो कै लड़कों खों मास्टर बनानै है और बो भी कालेज को। गर्मियों में माधोकान्त और केसोकान्त लग जायं मालगुजार साहब खों पंखा डुलाबे के काम में। मालगुजारी तौ नें रही हती, मनों ठाठ बेइ। उनें बिजली के पंखा की हवा तेज लगत ती। अपनी बैठक की छत्त सें एक बल्ली में दो थान कपड़ा को पंखा झुलवाएं हते, ओइ खों पूरे-पूरे दिन रस्सी सें डुलाने परत हतो। जित्ते पैसा मिलें, सो माधव केसव किताब-कापियों के लानें अलग धर लेबैं। इतै-उतै की उसार कर देबैं, सो बो पैसा अलग मिल जाय। बाकी दिनों में बनिया की अनाज-गल्ले की दुकान पे लग जायं। इस्कूल के लयं सात-सात कोस को पैदल आबो-जाबो अलग। उनकी मताइ हती उनकी गुरु। जैंसी कहै, सो बे राम लछमन मानत जायं। दोइ भइयों ने महतारी की लाज रक्खी। माधव कान्त पुरोहित दसमीं के बोर्ड में और केशव कान्त पुरोहित आठमीं के बोर्ड में प्रथम स्रेनी में आ गए। मैडल मिले। कलेक्टर ने खुद बुलवा कें उनकी इस्कालरशिप बँधवा दइ। पेपरों में नाम छपो, फोटो निकरी। सब कहैं, साधु महात्मा की संतान है। काय नें नाम करहैं ?
स्यामबल्लभ महाराज को पुन्न-परताप है के ऐंसे नोंने लड़का भए। सुई के छेद सें निकर जायं, इत्तो साफ-सुथरौ चाल-चलन। धन्य हैं स्यामबल्लभ! निरमला जब सुनै कै पूरी बाहबाही तौ स्यामबल्लभ खों दइ जा रइ है, सो आग लग जाए ओ के बदन में। हम जो हाड़ घिसत रय, सो कछु नइं ? सीत गरमी बरसात नैं देखी, सो कछु नइं? गहना-गुरिया बेंच डारे, सो कछु नइं। दो कपड़ों में जिन्दगी काट रय, सो कछु नइं ? भूंके रह कें खरचा चलाओ हमनें, पेट काटो हमनें, लालटेन में गुजारा करौ हमनें, और नाम हो रओ उनको ! जित्तो सोचै, उत्तोइ जी कलपै। स्यामबल्लभ के नाम सें चेंहेक जाय। नफरत भर गई। का दुनियां है, औरतों की गत-गंगा होत रैहै, बोलबाला आदमियों को हूहै।
कहत कछु नैं हती। अपने पति की का बुराई करनै ? संस्कार इजाजत नइं देत ते। मन मार कैं रह जाय। इज्जत जित्ती ढंकी-मुंदी रहै, अच्छी। देखत-देखत लड़का कालेज पोंच गए। उतै भी अब्बल। सौ में सें सौ के लिघां नम्बर। कालेज को नाम पूरे प्रदेस में हो गओ। कालेज बारों ने सब फीसें माफ कर दइं। कालेज पधार कें मुख्यमंत्री ने घोसना कर दई कै इन होनहार छात्रों की ऊँची सें ऊँची पढ़ाई कौ खरचा सरकार उठैहै। उनने खुद निरमला पंडतान को स्वागत करौ -
‘हम इन स्वयंसिद्धा महिला श्रीमती निर्मला देवी पुरोहित का अभिनन्दन करते हैं, जिन्होंने नाना कष्टों को उठाकर अपने पुत्रों को योग्य विद्यार्थी एवं योग्य नागरिक बनाने का संकल्प लिया है।’ अब निरमला के कानों में बेर-बेर गूँजै, ‘स्वयंसिद्धा’ और मन के तार झनझना जायं। देबीमैया के सामने हांत जोड़ै, हे भगवती! तुमाइ किरपा नै होती, तो मैं अबला का कर लेती ?
एंसइ में एक दिना सिपाही ने आकें खबर दइ कै ‘स्यामबल्लभानन्द खों कतल के जुर्म में फांसी होबे बारी है। नसे की झोंक में रुपैयों के ऊपर सें अपनेइ साथी से लठा-लठी कर लई हती। इनने ऐंसो घनघना कें लट्ठ हन दओ ओकी मूड़ पे, कै बो तुरतइं बिल्ट गओ। उनने अपने घर को पतो जोइ दओ है। आप औरें उनकी ल्हास लै सकत हो।’ निरमला ने आव देखो नैं ताव। दस्खत करकें चिट्ठी तो लै लइ, मनों फाड़ कें मेंक दइ और कह दइ - ‘हम नइं जानत, कौन स्यामबल्लभानन्द ?’
दो-तीन दिना बाद माधवकान्त ने महतारी कौ सूनो माथो देखकें टोक दओ - ‘काय माइ, आज बूंदा नइं लगाओ ?’ निरमला सकपका गई, मनो कर्री आवाज में बोली - ‘बेटा, सपरत-खोरत में निकर-निकर जात है। अब रहन तो दो। को लगाय ?’
साभार- जिजीविषा कहानी संग्रह

-इति-
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गीत

गीत:
समय की करवटों के साथ
संजीव
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गले सच को लगा लूँ मैँ समय की करवटों के साथ
झुकाया, ना झुकाऊँगा असत के सामने मैं माथ...
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करूँ मतदान तज मत-दान बदलूँगा समय-धारा
व्यवस्था से असहमत है, न जनगण किंतु है हारा
न मत दूँगा किसी को यदि नहीं है योग्य कोई भी-
न दलदल दलोँ की है साध्य, हमकों देश है प्यारा
गिरहकट, चोर, डाकू, मवाली दल बनाकर आये
मिया मिट्ठू न जनगण को तनिक भी क़भी भी भाये
चुनें सज्जन चरित्री व्यक्ति जो घपला प्रथा छोड़ें
प्रशासन को कसे, उद्यम-दिशा को जमीं से जोड़े
विदेशी ताकतों से ले न कर्जे, पसारे मत हाथ.…
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लगा चौपाल में संसद, बनाओ नीति जनहित क़ी
तजो सुविधाएँ-भत्ते, सादगी से रहो, चाहत की
धनी का धन घटे, निर्धन न भूखा कोई सोयेगा-
पुलिस सेवक बने जन की, न अफसर अनय बोयेगा
सुनें जज पंच बन फ़रियाद, दें निर्णय न देरी हो
वकीली फ़ीस में घर बेच ना दुनिया अँधेरी हो
मिले श्रम को प्रतिष्ठा, योग्यता ही पा सके अवसर
न मँहगाई गगनचुंबी, न जनता मात्र चेरी हो
न अबसे तंत्र होगा लोक का स्वामी, न जन का नाथ…

३०-४-२०१४
*

गीत : विश्वास अमरेन्द्र नारायण

गीत : विश्वास
अमरेन्द्र नारायण
*
है परीक्षा की घड़ी, विश्वास पर अपना अडिग है
बादलों की ओट से सूरज निकल कर आ रहा है!

जाने कितनी बार विपदा ने चुनौती दी मनुज को
जाने कितनी बार उसकी शक्ति को झकझोर डाला
जाने कितनी बार नर को नाश की धमकी दिखाई
जाने कितनी बार उसको कष्ट में घनघोर डाला

पर मनुज भी तो मनुज है, उठ खड़ा होता है कहता-
“देखता हूँ कौन अब कितने अँधेरे ला रहा है!”
है परीक्षा की घड़ी, विश्वास पर अपना अडिग है
बादलों की ओट से सूरज निकल कर आ रहा है!

तमस कहता है मनुज से –“ध्वंस की क्षमता हमारी
तुम भला कैसे लड़ोगे कितनी ताकत है तुम्हारी?
आज तुम किस के भरोसे पर यहाँ इतरा रहे हो?
कुछ नहीं तुम कर सकोगे, चाहे झोंको शक्ति सारी!”

पर मनुज भी तो मनुज है,उठ खड़ा देता चुनौती -
“है अँधेरा किन्तु दीपक ज्योति -पथ दिखला रहा है!”
है परीक्षा की घड़ी, विश्वास पर अपना अडिग है
बादलों की ओट से सूरज निकल कर आ रहा है!
*
भूतपूर्व महासचिव,एशिया पसिफ़िक टेलीकॉम्युनिटी,बैंगकॉक
शुभा आशीर्वाद, १०५५, रिज़ रोड, साउथ सिविल लाइन्स, जबलपुर ४८२००१,(मध्य प्रदेश)

चित्रगुप्त भजन सलिला

चित्रगुप्त भजन सलिला:
संजीव 'सलिल'
*
१. शरणागत हम
शरणागत हम चित्रगुप्त प्रभु!
हाथ पसारे आये
*
अनहद; अक्षय; अजर; अमर हे!
अमित; अभय; अविजित; अविनाशी
निराकार-साकार तुम्ही हो
निर्गुण-सगुण देव आकाशी
पथ-पग; लक्ष्य-विजय-यश तुम हो
तुम मत-मतदाता-प्रत्याशी
तिमिर मिटाने अरुणागत हम
द्वार तिहारे आये
*
वर्ण; जात; भू; भाषा; सागर
अनिल;अनल; दिश; नभ; नद ; गागर
तांडवरत नटराज ब्रह्म तुम
तुम ही बृज रज के नटनागर
पैगंबर ईसा गुरु तुम ही
तारो अंश सृष्टि हे भास्वर!
आत्म जगा दो; चरणागत हम
झलक निहारें आये
*
आदि-अंत; क्षय-क्षर विहीन हे!
असि-मसि-कलम-तूलिका हो तुम
गैर न कोई सब अपने हैं
काया में हैं आत्म सभी हम
जन्म-मरण; यश-अपयश चक्रित
छाया-माया; सुख-दुःख सम हो
द्वेष भुला दो; करुणाकर हे!
सुनो पुकारें आये
***
२. चित्रगुप्त का ध्यान धरे जो...
*
चित्रगुप्त का ध्यान धरे जो
भवसागर तर जाए रे...
*
जा एकांत भुवन में बैठे,
आसन भूमि बिछाए रे.
चिंता छोड़े, त्रिकुटि महल में
गुपचुप सुरति जमाए रे.
चित्रगुप्त का ध्यान धरे जो
निश-दिन धुनि रमाए रे...
*
रवि शशि तारे बिजली चमके,
देव तेज दरसाए रे.
कोटि भानु सम झिलमिल-झिलमिल-
गगन ज्योति दमकाए रे.
चित्रगुप्त का ध्यान धरे तो
मोह-जाल कट जाए रे.
*
धर्म-कर्म का बंध छुडाए,
मर्म समझ में आए रे.
घटे पूर्ण से पूर्ण, शेष रह-
पूर्ण, अपूर्ण भुलाए रे.
चित्रगुप्त का ध्यान धरे तो
चित्रगुप्त हो जाए रे...
*
३. समय महा बलवान...
*
समय महा बलवान
लगाये जड़-चेतन का भोग...
*
देव-दैत्य दोनों को मारा,
बाकी रहा न कोई पसारा.
पल में वह सब मिटा दिया जो-
बरसों में था सृजा-सँवारा.
कौन बताये घटा कहाँ-क्या?
कहाँ हुआ क्या योग?...
*
श्वास -आस की रास न छूटे,
मन के धन को कोई न लूटे.
शेष सभी टूटे जुड़ जाएं-
जुड़े न लेकिन दिल यदि टूटे.
फूटे भाग उसी के जिसको-
लगा भोग का रोग...
*
गुप्त चित्त में चित्र तुम्हारा,
कितना किसने उसे सँवारा?
समय बिगाड़े बना बनाया-
बिगड़ा 'सलिल' सुधार-सँवारा.
इसीलिये तो महाकाल के
सम्मुख है नत लोग...
*
४. प्रभु चित्रगुप्त नमस्कार...
*
प्रभु चित्रगुप्त! नमस्कार
बार-बार है...
*
कैसे रची है सृष्टि प्रभु!
कुछ बताइए.
आये कहाँ से?, जाएं कहाँ??
मत छिपाइए.
जो गूढ़ सच न जान सके-
वह दिखाइए.
सृष्टि का सकल रहस्य
प्रभु सुनाइए.
नष्ट कर ही दीजिए-
जो भी विकार है...
*
भाग्य हम सभी का प्रभु!
अब जगाइए.
जाई तम पर उजाले को
विधि! बनाइए.
कंकर को कर शंकर जगत में
हरि! पुजाइए.
अमिय सम विष पी सकें-
'हर' शक्ति लाइए.
चित्र सकल सृष्टि
गुप्त चित्रकार है...
*

बुधवार, 29 अप्रैल 2020

सृजन चर्चा सुमित्र जी के जिजीविषाजयी व्यंग्य दोहे

सृजन चर्चा
सुमित्र जी के जिजीविषाजयी व्यंग्य दोहे
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
सनातन सलिल नर्मदा का अंचल सनातन काल से सृजनधर्मियों का साधना क्षेत्र रहा है. सम-सामयिक साहित्य सर्जकों में अग्रगण्य डॉ. राजकुमार तिवारी 'सुमित्र' विविध विधाओं में अपने श्रेष्ठ सृजन से सर्वत्र सतत समादृत हो रहे हैं।
दोहा हिंदी साहित्य कोष का दैदीप्यमान रत्न है। कथ्य की संक्षिप्तता, शब्दों की सटीकता, कहन की लयबद्धता , बिम्बों-प्रतीकों की मर्मस्पर्शिता तथा भाषा की लोक-ग्राह्यता के पञ्चतत्वी निकष पर खरे दोहे रचना सुमित्र जी के लिए सहज-साध्य है। सामयिकता, विसंगतियों का संकेतन, विडंबनाऑं पर प्रहार, जनाक्रोश की अभिव्यक्ति और परोक्षतः ही सही पारिस्थितिक वैषम्य निदान की प्रेरणा व्यंग्य विधा के पाँच सोपान हैं। सुमित्र की दशरथी कलम ''विगतं वा अगं यस्य'' की कसौटी पर खरे उतारनेवाले व्यंग्य दोहे रचकर अपनी सामर्थ्य का लोहा मनवाती है।
''आएगा, वह आयेगा, राह देखती नित्य / कहाँ न्याय का सिंहासन, कहाँ विक्रमादित्य'' कहकर दोहाकार आम आदमी की आशावादिता और उसकी निष्फलता दोनों को पूरी शिद्दत से बयां करता है।
समाज में येन-केन-प्रकारेण धनार्जन कर स्वयं को सकल संवैधानिक प्रावधानों से ऊपर समझनेवाले नव धनाढ्य वर्ग की भोगवादी मनोवृत्ति पर तीक्ष्ण कटाक्ष करते हुए निम्न दोहे में दोहाकार 'रसलीन' शब्द का सार्थक प्रयोग करता है- ''दिन को राहत बाँटकर, रात हुई रसलीन / जिस्म गरम करता रहा, बँगले का कालीन'' ।
राजनीति का ध्येय जनकल्याण से बदलकर पद-प्राप्ति और आत्म कल्याण होने की विडम्बना पर सुमित्र का कवि-ह्रदय व्यथित होकर कहता है-
नीतिहीन नेतृत्व है, नीतिबद्ध वक्तव्य।
चूहों से बिल्ली कहे, गलत नहीं मंतव्य।।
*
सेवा की संकल्पना, है अतीत की बात।
फोटो माला नोट है, नेता की औकात।।
*
शैक्षणिक संस्थाओं में व्याप्त अव्यवस्था पर व्यंग्य दोहा सीधे मन को छूता है-
पैर रखा है द्वार पर, पल्ला थामे पीठ।
कोलाहल का कोर्स है, मन का विद्यापीठ।।
*
पात्रता का विचार किये बिना पुरस्कार चर्चित होने की यशैषणा की निरर्थकता पर सुमित्र दोहा को कोड़े की तरह फटकारते हैं-
अकादमी से पुरस्कृत, गजट छपी तस्वीर।
सम्मानित यों कब हुए, तुलसी सूर कबीर।।
*
अति समृद्धि और अति सम्पन्नता के दो पाटों के बीच पिसते आम जन की मनस्थिति सुमित्र की अपनी है-
सपने में रोटी दिखे, लिखे भूख तब छंद।
स्वप्न-भूख का परस्पर, हो जाए अनुबंध।।
*
आँखों के आकाश में, अन्तःपुर आँसू बसें, नदी आग की, यादों की कंदील, तृष्णा कैसे मृग बनी, दरस-परस छवि-भंगिमा, मन का मौन मजूर, मौसम की गाली सुनें, संयम की सीमा कहाँ, संयम ने सौगंध ली, आँसू की औकात क्या, प्रेम-प्यास में फर्क, सागर से सरगोशियाँ, जैसे शब्द-प्रयोग और बिम्ब-प्रतीक दोहाकार की भाषिक सामर्थ्य की बानगी बनने के साथ-साथ नव दोहकारों के लिए सृजन का सबक भी हैं।
सुमित्र के सार्थक, सशक्त व्यंग्य दोहों को समर्पित हैं कुछ दोहे-
पंक्ति-पंक्ति शब्दित 'सलिल', विडम्बना के चित्र।
संगुम्फित युग-विसंगति, दोहा हुआ सुमित्र।।
*
लय भाषा रस भाव छवि, बिम्ब-प्रतीक विधान।
है दोहा की खासियत, कम में अधिक बखान।।
*
सलिल-धार की लहर सम, द्रुत संक्षिप्त सटीक।
मर्म छुए दोहा कहे, सत्य हिचक बिन नीक।।
*
व्यंग्य पहन दोहा हुआ, छंदों का सरताज।
बन सुमित्र हृद-व्यथा का, कहता त्याग अकाज।।
*
२९-४-२०१९
Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
094251 83244

छंद पहचानिए

छंद पहचानिए
*
विधान
मापनी- २१२ २११ १२१ १२१ १२१ १२१ १२१ १२।
२३ वार्णिक, ३२ मात्रिक छंद।
गण सूत्र- रभजजजजजलग।
मात्रिक यति- ८-८-८-८, पदांत ११२।
वार्णिक यति- ५-६-६-६, पदांत सगण।
*
उदाहरण
हो गयी भोर, मतदान करों, मत-दान करो, सुविचार करो।
हो रहा शोर, उठ आप बढ़ो, दल-धर्म भुला, अपवाद बनो।।
है सही कौन, बस सोच यही, चुन काम करे, न प्रचार वरे।
जो नहीं गैर, अपना लगता, झट आप चुनें, नव स्वप्न बुनें।।
*
हो महावीर, सबसे बढ़िया, पर काम नहीं, करता यदि तो।
भूलिए आज, उसको न चुनें, पछता मत दे, मत आज उसे।।
जो रहे साथ, उसको चुनिए, कब क्या करता, यह भी गुनिए।
तोड़ता नित्य, अनुशासन जो, उसको हरवा, मन की सुनिए।।
*
नर्मदा तीर, जनतंत्र उठे, नव राह बने, फिर देश बढ़े।
जागिए मीत, हम हाथ मिला, कर कार्य सभी, निज भाग्य गढ़ें।।
मुश्किलें रोक, सकतीं पथ क्या?, पग साथ रखें, हम हाथ मिला।
माँगिए खैर, सबकी रब से, खुद की खुद हो, करना न गिला।।
***
संवस
२९-४-२०१९
७९९९५५९६१८
[छंद कोष से एक नया छंद ]

मुक्तिका चाँदनी फसल

मुक्तिका
चाँदनी फसल..
संजीव 'सलिल'
*
इस पूर्णिमा को आसमान में खिला कमल.
संभावना की ला रही है चाँदनी फसल..
*
वो ब्यूटी पार्लर से आयी है, मैं क्या कहूँ?
है रूप छटा रूपसी की असल या नक़ल?
*
दिल में न दी जगह तो कोई बात नहीं है.
मिलने दो गले, लोगी खुदी फैसला बदल..
*
तुम 'ना' कहो मैं 'हाँ' सुनूँ तो क्यों मलाल है?
जो बात की धनी थी, है बाकी कहाँ नसल?
*
नेता औ' संत कुछ कहें न तू यकीन कर.
उपदेश रोज़ देते न करते कभी अमल..
*
मन की न कोई भी करे है फ़िक्र तनिक भी.
हर शख्स की है चाह संवारे रहे शकल..
*
ली फेर उसने आँख है क्यों ताज्जुब तुझे.?
होते हैं विदा आँख फेरकर कहे अज़ल..
*
माया न किसी की सगी थी, है, नहीं होगी.
क्यों 'सलिल' चाहता है, संग हो सके अचल?
*
२८-४-२०१५
-sanjiv ९४२५१८३२४४ salil.sanjiv@gmail.com