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सोमवार, 13 अगस्त 2012

कविता मत बाँटो इन्सान -- कुसुम वीर

कविता :

मत बाँटो इन्सान 


 
कुसुम वीर
आदिकाल से
युगों -युगान्तरों तक
हम सिर्फ मानव थे
आपस में सब बराबर थे

कालांतर में
सत्ता की लालसा, महत्वाकांक्षा
धन की लोलुपता
अहम् , तुष्टि और स्वार्थ
इन सबने मिलकर
बिछाई एक कूटनीतिक बिसात

व्यवस्था के नाम पर
मोहरा बना मानव
बांटा गया उसे
जातियों में,वर्णों में,
धर्मों में, पंथों में
अनेक संस्कृतियो में

खड़ी कर दीं  आपस में
नफरत की दीवारें
डालीं दिलों में
फूट की दरारें
जहाँ -तहाँ तानीं अनगिन सीमाएं
हिंसा की आग में
जलीं कई चिताएं

दिलों में जलाई जो
नफरत की आग
 लपटों में झुलसे
अनेकों परिवार

शून्य में फिर ये
उछलता सवाल
कब रुकेगी ये हिंसा
बुझेगी ये आग

बनती यहाँ है
सर्वदलीय समिति
फैसलों से उसके
न मिलती तसल्ली

आरक्षण की पैबंद
लगाते हैं वो
उसीके भरोसे बंटोरेंगे वोट
मलते हैं वादों के
दिखावटी मलहम
दिलों में न चिंता,
नहीं कोई गम

ये मज़हब, ये जात-पांत
ऊँच-नीच, भेद-भाव
बनाये नहीं थे,
परब्रह्म सत्ता ने
फिर क्यूँ ये अलगाव,
फूटें हैं मन में

कब तक खरीदोगे
इन्सान को तुम
बाँटोगे कब तक
हर रूह को तुम
नफरत, ये अलगाव,
मत तुम फैलाओ
चलो, सबको मिलकर,
गले से लगाओ



 

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kusumvir@gmail.com