कुल पेज दृश्य

आल्हा छंद लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
आल्हा छंद लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

सोमवार, 26 जून 2023

आल्हा छंद, सरस्वती, गंगोजमुन छंद,सत्यमित्रानंद सवैया, मुक्तक, दोहा, आल्हा छंद, हाइकु गीत


शारद वंदन
(मात्रिक लौकिक जातीय
वर्णिक सुप्रतिष्ठा जातीय
नवाविष्कृत गंगोजमुन छंद)
सूत्र - त ल ल।
*
मैया नमन
चाहूँ अमन...
ऊषा विहँस
आ सूर्य सँग
आकाश रँग
गाए यमन...
पंछी हुलस
बोलें सरस
झूमे धरणि
नाचे गगन...
माँ! हो सदय
संतान पर
दो भक्ति निज
होऊँ मगन...
माते! दरश
दे आज अब
दीदार बिन
माने न मन...
वीणा मधुर
गूँजे सतत
आनंदमय
हो शांत मन...
***
२५-६-२०२०
अभिनव प्रयोग
नवान्वेषित सवैया
सत्यमित्रानंद सवैया
*
विधान -
गणसूत्र - य न त त र त र भ ल ग।
पदभार - १२२ १११ २२१ २२१ २१२ २२१ २१२ २११ १२ ।
यति - ७-६-६-७ ।
*
गए हो तुम नहीं, हो दिलों में बसे, गई है देह ही, रहोगे तुम सदा।
तुम्हीं से मिल रही, है हमें प्रेरणा, रहेंगे मोह से, हमेशा हम जुदा।
तजेंगे हम नहीं, जो लिया काम है, करेंगे नित्य ही, न चाहें फल कभी।
पुराने वसन को, है दिया त्याग तो, नया ले वस्त्र आ, मिलेंगे फिर यहीं।
*
तुम्हारा यश सदा, रौशनी दे हमें, रहेगा सूर्य सा, घटेगी यश नहीं।
दिये सा तुम जले, दी सदा रौशनी, बँधाई आस भी, न रोका पग कभी।
रहे भारत सदा, ही तुम्हारा ऋणी, तुम्हीं ने दी दिशा, तुम्हीं हो सत्व्रती।
कहेगा युग कथा, ये सन्यासी रहे, हमेशा कर्म के, विधाता खुद जयी।
*
मिला जो पद तजा, जा नई लीक पे, लिखी निर्माण की, नयी ही पटकथा।
बना मंदिर नया, दे दिया तीर्थ है, नया जिसे कहें, सभी गौरव कथा।
महामानव तुम्हीं, प्रेरणास्रोत हो, हमें उजास दो, गढ़ें किस्मत नयी।
खड़े हैं सुर सभी, देवतालोक में, प्रशस्ति गा रहे, करें स्वागत सभी।
*
२६-६-२०१९
***
पुस्तक सलिला:
'अंधी पीले कुत्ते खाएँ' खोट दिखाती हैं क्षणिकाएँ
समीक्षक: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
(पुस्तक विवरण: 'अंधी पीसे कुत्ते खाएँ' क्षणिका संग्रह, अविनाश ब्यौहार, प्रथम संस्करण २०१७, आकार डिमाई, आवरण पेपरबैक बहुरंगी, पृष्ठ १३७, मूल्य १००/-, प्रज्ञा प्रकाशन २४ जगदीशपुरम्, रायबरेली, कवि संपर्क: ८६,रॉयल एस्टेट कॉलोनी, माढ़ोताल, जबलपुर, चलभाष: ९८२६७९५३७२, ९५८४०५२३४१।)
*
सुरवाणी संस्कृत से विरासत में काव्य-परंपरा ग्रहण कर विश्ववाणी हिंदी उसे सतत समृद्ध कर रही है। हिंदी व्यंग्य काव्य विधा की जड़ें संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश तथा लोक-भाषाओं के लोक-काव्य में हैं। व्यंग्य चुटकी काटने से लेकर तिलमिला देने तक का कार्य कुछ शब्दों में कर देता है। गागर में सागर भरने की तरह दुष्कर क्षणिका विधा में पाठक-मन को बाँध लेने की सामर्थ्य है। नवोदित कवि अविनाश ब्यौहार की यह कृति 'पूत के पाँव पालने में दिखते हैं' कहावत को चरितार्थ करती है। कृति का शीर्षक उन सामाजिक कुरीतियों को लक्ष्य करता है जो नेत्रहीना द्वारा पीसे गए को कुत्ते द्वारा खाए जाने की तरह निष्फल और व्यर्थ हैं।
बुद्धिजीवी कायस्थ परिवार में जन्मे और उच्च न्यायालय में कार्यरत कवि में औचित्य-विचार सामर्थ्य होना स्वाभाविक है। अविनाश पारिस्थितिक वैषम्य को 'सर्वजनहिताय' के निकष पर कसते हैं, भले ही 'सर्वजनसुखाय' से उन्हें परहेज नहीं है किंतु निज-हित या वर्ग-हित उनका इष्ट नहीं है। उनकी क्षणिकाएँ व्यवस्था के नाराज होने का खतरा उठाकर भी; अनुभूति को अभिव्यक्त करती हैं। भ्रष्टाचार, आरक्षण, मँहगाई, राजनीति, अंग प्रदर्शन, दहेज, सामाजिक कुरीतियाँ, चुनाव, न्याय प्रणाली, चिकित्सा, पत्रकारिता, बिजली, आदि का आम आदमी के दैनंदिन जीवन पर पड़ता दुष्प्रभाव अविनाश की चिंता का कारण है। उनके अनुसार 'आजकल/लोगों की / दिमागी हालत / कमजोर पड़ / गई है / शायद इसीलिए / क्षणिकाओं की / माँग बढ़ / गई है।' विनम्र असहमति व्यक्त करना है कि क्षणिका रचना, पढ़ना और समझना कमजोर नहीं सजग दिमाग से संभव होता है। क्षणिका, दोहा, हाइकु, माहिया, लघुकथा जैसी लघ्वाकारी लेखन-विधाओं की लोकप्रियता का कारण पाठक का समयाभाव हो सकता है।अविनाश की क्षणिकाएँ सामयिक, सटीक, प्रभावी तथा पठनीय-मननीय हैं। उनकी भाषा प्रवाहपूर्ण, प्रसाद गुण संपन्न, सहज तथा सटीक है किंतु अनुर्वर और अनुनासिक की गल्तियाँ खीर में कंकर की तरह खटकती हैं। 'हँस' क्रिया और 'हंस' पक्षी में उच्चारण भेद और एक के स्थान पर दूसरे के प्रयोग से अर्थ का अनर्थ होने के प्रति सजगता आवश्यक है चूँकि पुस्तक में प्रकाशित को पाठक सही मानकर प्रयोग करता है।
इन क्षणिकाओं का वैशिष्ट्य मुहावरे का सटीक प्रयोग है। इससे भाषा जीवंत, प्रवाहपूर्ण, सहज ग्राह्य तथा 'कम में अधिक' कह सकी है। 'पक्ष हो /या विपक्ष / दोनों एक / थैली के / चट्टे-बट्टे हैं। / जीते तो / आँधी के आम / हारे तो / अंगूर खट्टे हैं।' यहाँ कवि दो प्रचलित मुहावरे का प्रयोग करने के साथ 'आँधी के आम' एक नए मुहावरे की रचना करता है। इस कृति में कुछ और नए मुहावरे रच-प्रयोगकर कवि ने भाषा की श्रीवृद्धि की है। यह प्रवृत्ति स्वागतेय है।
'चित्रगुप्त ने यम-सभा से / दे दिया स्तीफा / क्योंकि उन्हें मुँह / चिढ़ा रहा था / आतंक का खलीफा।' पंगु सिद्ध हो रही व्यवस्था पर कटाक्ष है। 'मैं अदालत / गया तो / मैंने ऐसा / किया फील / कि / झूठे मुकदमों / की पैरवी / बड़ी ईमानदारी / से करते / हैं वकील।' यहाँ तीखा व्यंग्य दृष्टव्य है। अंग्रेजी शब्द 'फील' का प्रयोग सहज है, खटकता नहीं किंतु 'ईमानदारी' के साथ 'बड़ी' विशेषण खटकता है। ईमानदारी कम-अधिक तो हो सकती है, छोटी-बड़ी नहीं।
अविनाश ने अपनी पहली कृति से अपनी पैठ की अनुभूति कराई है, इसलिए उनसे 'और अच्छे' की आशा है।
*
मुक्तक:
दर्द हों मेहमां तो हँसकर मेजबानी कीजिए
मेहमानी का मजा कुछ ग़मों को भी दीजिए
बेजुबां हो बेजुबानों से करें कुछ गुफ्तगू
जिंदगी की बंदगी का मजा हँसकर लीजिए
***
दाना देते परीक्षा, नादां बाँटे ज्ञान
रट्टू तोते आ रहे, अव्वल हैं अनजान
समझ-बूझ की है कमी, सिर्फ किताबी लोग
चला रहे हैं देश को, मनमर्जी भगवान
***
गौ माता के नाम पर, लड़-मरते इंसान
गौ बेबस हो देखती, आप बहुत हैरान
शरण घोलकर पी गया, भूल गया तहजीब
पूत आप ही लूटते भारत माँ की आन
***
*GST सार*
हे पार्थ, परिवर्तन संसार का नियम है।
जो कल Sales Tax था, आज VAT है, कल GST होगा ।
तुम्हारा क्या गया जो तुम रोते हो ।
जो लिया customer से लिया ।
जो दिया, दूकान मे देश की सरकार को दिया ,
जो बचा वो घर आकर पत्नी ( *घर की सरकार* ) को दे दिया ।
तुम्हारे पास तो पहले भी कुछ नही था, अभी भी कुछ नही रहेगा ।
अतएव, हे वत्स, व्यर्थ विक्षोभ एवं विलाप मत करो । निष्काम भाव से कर्म किये जाओ । रण दुन्दुभि बज गई है ।
*उठ, आॅख - नाक पोंछ , हे भारत माता के लाल* ,
*वीर योद्धा की तरह हथियार सम्हाल* ।
*गोदाम मे जितना भी है माल*
*वो सारा 30 June से पहले पहले निकाल*
बाकी बाद मे देखेंगे!
तनिक समझे हो की नाही?
***
दोहा सलिला
*
काम और आराम में, ताल-मेल ले सीख
जो वह ही मंजिल वरे, सबसे आगे दीख
*
सुबह उषा फिर साँझ से, खूब लड़ाया लाड़
छिपा निशा की गोद में, सूरज लेकर आड़
*
तर्क वितर्क कुतर्क से, ठगा गया विश्वास
बिन श्रद्धा के ज्ञान का, कैसे हो आभास?
*
लगा-लगा दम, आदमी, हो बेदम मजबूर
कोई न कहता आ दमी, सभी भागते दूर
*
अपने अपने है नहीं, गैर नहीं हैं गैर
खुद को खुद ही परख लें, तभी रहेगी खैर
*
पेड़ कभी लगते नहीं, रोपी जाती पौध
अब जमीन ही है नहीं, खड़े सहस्त्रों सौध
*
खेत ख़त्म कर बना लें, सडक शहर सरकार
खेती करने चाँद पर, जाओ कहे दरबार
*
पल-पल पल जीता रहा, पल-पल मर पल मौन
पल-पल मानव पूछता, पालक से तू कौन?
*
प्रथम रश्मि रवि की हँसी, लपक धरा को चूम
धरा-पुत्र सोता रहा, सुख न उसे मालूम
*
दल के दलदल में फँसा, नेता देता ज्ञान
जन की छाती पर दले, दाल- स्वार्थ की खान
*
खेल रही है सियासत, दलित-दलित का खेल
भूल सिया-सत छल रही, देश रहा चुप झेल
*
मीरा मत आ दौड़कर, ये तो हैं कोविंद
भूल भई तूने इन्हें, समझ लिया गोविन्द
*
लाल कृष्ण पीछे हुए, सम्मुख है अब राम
मीरा-यादव दुखी हैं, भला करेंगे राम
*
जो जनता के वक्ष पर दले स्वार्थ की दाल
वही दलित कलिकाल में, बनता वही भुआल
*
हिंदी घरवाली सुघड़, हुई उपेक्षित मीत
अंग्रेजी बन पड़ोसन, लुभा रही मन रीत
*
चाँद-चाँदनी नभ मकां, तारे पुत्र हजार
हम दो, दो हों हमारे, भूले बंटाढार
*
काम और आराम में, ताल-मेल ले सीख
जो वह ही मंजिल वारे, सबसे आगे दीख
*
अधकचरा मस्तिष्क ही, लेता शब्द उधार
निज भाषा को भूलकर, परभाषा से प्यार
*
मन तक जो पहुँचा सके, अंतर्मन की बात
'सलिल' सफल साहित्य वह, जिसमें हों ज़ज्बात
*
हिंदी-उर्दू सहोदरी, अंग्रेजी है मीत
राम-राम करते रहे, घुसे न घर में रीत
*
घुसी वजह बेवजह में, बिना वजह क्यों बोल?
नामुमकिन मुमकिन लिए, होता डाँवाडोल
*
खुदी बेखुदी हो सके, खुद के हों दीदार
खुदा न रहता दूर तब, नफरत बनती प्यार
*
एक द्विपदी:
मैं सपनों में नहीं जी रहा, सपने मुझमें जीते हैं
कोशिश की बोतल में मदिरा, संघर्षों की पीते हैं.
*
पर्यावरण गीत
*
नहा रहे हैं
बरसातों में
हरे-भरे बतियाते झाड़
अपनी जगह
हमेशा ठांड़े
झूम-झूम मस्ताते झाड़
*
सूर्य-बल्ब
जब होता रौशन
मेक'प करते बिना छिपे.
शाखाओं,
कलियों फूलों से
मिलते, नहीं लजाते झाड़
नहा रहे हैं
बरसातों में
हरे-भरे बतियाते झाड़
अपनी जगह
हमेशा ठांड़े
झूम-झूम मस्ताते झाड़
*
बऊ धरती
आँखें दिखलाये
बहिना हवा उड़ाये मजाक
पर्वत दद्दा
आँख झुकाये,
लता संग इतराते झाड़
नहा रहे हैं
बरसातों में
हरे-भरे बतियाते झाड़
अपनी जगह
हमेशा ठांड़े
झूम-झूम मस्ताते झाड़
*
कमसिन सपने
देख थिरकते
डेटिंग करें बिना हिचके
बिना गये
कर रहे आउटिंग
कभी नहीं पछताते
नहा रहे हैं
बरसातों में
हरे-भरे बतियाते झाड़
अपनी जगह
हमेशा ठांड़े
झूम-झूम मस्ताते झाड़
२६-६-२०१७
***
मुक्तिका:
*
गये जब से दिल्ली भटकने लगे हैं.
मिलीं कुर्सियाँ तो बहकने लगे हैं
कहाँ क्या लिखेंगे न ये राम जाने
न पूछो पढ़ा क्या बिचकने लगे हैं
रियायत का खाना खिला-खा रहे हैं
न मँहगाई जानें मटकने लगे हैं
बने शेर घर में पिटे हर कहीं वे
कभी जीत जाएँ तरसने लगे हैं
भगोड़ों के साथी न छोड़ेंगे सत्ता
न चूकेंगे मौका महकने लगे हैं
न भूली है जनता इमरजेंसी को
जो पूछा तो गुपचुप सटकने लगे हैं
किये पाप कितने कहाँ और किसने
किसे याद? सोचें चहकने लगे हैं
चुनावी है यारी हसीं खूब मंज़र
कि काँटे भी पल्लू झटकने लगे हैं
न संध्या न वंदन न पूजा न अर्चन
'सलिल' सूट पहने सरसने लगे हैं.
२६-६-२०१५
***
छंद सलिला:
आल्हा/वीर/मात्रिक सवैया छंद
संजीव
*
छंद-लक्षण: जाति , अर्ध सम मात्रिक छंद, प्रति चरण मात्रा ३१ मात्रा, यति १६ -१५, पदांत गुरु गुरु, विषम पद की सोलहवी मात्रा गुरु (ऽ) तथा सम पद की पंद्रहवीं मात्रा लघु (।),
लक्षण छंद:
आल्हा मात्रिक छंद सवैया, सोलह-पन्द्रह यति अनिवार्य.
गुरु-लघु चरण अंत में रखिये, सिर्फ वीरता हो स्वीकार्य..
अलंकार अतिशयता करता बना राई को 'सलिल' पहाड़.
ज्यों मिमयाती बकरी सोचे, गुँजा रही वन लगा दहाड़..
उदाहरण:
१. बुंदेली के नीके बोल... संजीव 'सलिल'
*
तनक न चिंता करो दाऊ जू, बुंदेली के नीके बोल.
जो बोलत हैं बेई जानैं, मिसरी जात कान मैं घोल..
कबू-कबू ऐसों लागत ज्यौं, अमराई मां फिररै डोल.
आल्हा सुनत लगत हैं ऐसो, जैसें बाज रए रे ढोल..
अंग्रेजी खों मोह ब्याप गौ, जासें मोड़ें जानत नांय.
छींकें-खांसें अंग्रेजी मां, जैंसें सोउत मां बर्रांय..
नीकी भासा कहें गँवारू, माँ खों ममी कहत इतरांय.
पाँव बुजुर्गों खें पड़ने हौं, तो बिनकी नानी मर जांय..
फ़िल्मी धुन में टर्राउट हैं, आँय-बाँय फिर कमर हिलांय.
बन्ना-बन्नी, सोहर, फागें, आल्हा, होरी समझत नांय..
बाटी-भर्ता, मठा-महेरी, छोड़ केक बिस्कुट बें खांय.
अमराई चौपाल पनघटा, भूल सहर मां फिरें भुलांय..
*
२. कर में ले तलवार घुमातीं, दुर्गावती करें संहार.
यवन भागकर जान बचाते गिर-पड़ करते हाहाकार.
सरमन उठा सूँढ से फेंके, पग-तल कुचले मुगल-पठान.
आसफ खां के छक्के छूटे, तोपें लाओ बचे तब जान.
३. एक-एक ने दस-दस मारे, हुआ कारगिल खूं से लाल
आये कहाँ से कौन विचारे, पाक शिविर में था भूचाल
या अल्ला! कर रहम बचा जां, छूटे हाथों से हथियार
कैसे-कौन निशाना साधे, तजें मोर्चा हो बेज़ार
__________
*********
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अवतार, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उड़ियाना, उपमान, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, कुकुभ, कज्जल, कमंद, कामिनीमोहन, काव्य, कीर्ति, कुण्डल, कुडंली, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जग, जाया, तांडव, तोमर, त्रिलोकी, दिक्पाल, दीप, दीपकी, दोधक, दृढ़पद, नित, निधि, निश्चल, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रभाती, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदन,मदनावतारी, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, मृदुगति, योग, ऋद्धि, रसामृत, रसाल, राजीव, राधिका, रामा, रूपमाला, लीला, वस्तुवदनक, वाणी, विरहणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, शोभन, सरस, सार, सारस, सिद्धि, सिंहिका, सुखदा, सुगति, सुजान, सुमित्र, संपदा, हरि, हेमंत, हंसगति, हंसी)
***
हाइकु गीत:
आँख का पानी
*
आँख का पानी,
मर गया तो कैसे
धरा हो धानी?...
*
तोड़ बंधन
आँख का पानी बहा.
रोके न रुका.
आसमान भी
हौसलों की ऊँचाई
के आगे झुका.
कहती नानी
सूखने मत देना
आँख का पानी....
*
रोक न पाये
जनक जैसे ज्ञानी
आँसू अपने.
मिट्टी में मिला
रावण जैसा ध्यानी
टूटे सपने.
आँख से पानी
न बहे, पर रहे
आँख का पानी...
*
पल में मरे
हजारों बेनुगाह
गैस में घिरे.
गुनहगार
हैं नेता-अधिकारी
झूठे-मक्कार.
आँख में पानी
देखकर रो पड़ा
आँख का पानी...
२६-६-२०१०
***

शुक्रवार, 5 अगस्त 2016

alha chhand

विशेष लेख-

                                                        आल्हा रचें सुजान 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
                                                      *

                          छंद ओज बलिदान का, आल्हा रचें सुजान। 
                          सुन वीरों के भुज फड़क, कहें लड़ा दे जान।। 
                         सोलह-पन्द्रह यति रखें, गा अल्हैत रस-वान।
                           मुर्दों में भी फूँकता, छंद वीर नव जान।।
*
       
संस्कृत वांग्मय से वीर काव्य परंपरा ग्रहण कर हिंदी में रचित वीर-काव्य में प्रयुक्त तथा मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में सर्वाधिक लोकप्रिय छंदों में गणनीय  आल्हा या वीर छंद को इतिहास में महती भूमिका निभाने के अनेक अवसर मिले और इस छंद ने जहाँ मातृभूमि के रक्षार्थ जूझ रहे नर-नाहरों में प्राणोत्सर्ग का भाव भरा, वही शत्रुओं के मन में मौत का भय पैदा किया। 

          बुंदेलखंड-बघेलखंड-रुहेलखंड में गाँव-गाँव में चौपालों पर सावन के पदार्पण के साथ ही अल्हैतों (आल्हा गायकों) की टोलियाँ ढोल-मंजीरा के साथ आल्हा गाती हैं। प्राचीन काल में युद्धों के समय सेना में, शांति काल में  दरबारों में तथा दैनंदिन जीवन में गाँवों में अल्हैत होते थे जो अपने राज्य, सेना प्रमुख अथवा किसी महावीर की कीर्ति का बखान आल्हा गाकर करते थे। इससे जवानों में लड़ने का जोश बढ़ता, जान की बजी लगाने की भावना पैदा होथी थी, शत्रु सेना के उत्साह में कमी आती थी।

          इस छंद का ’यथा नाम तथा गुण’ की तरह इसके कथ्य ओज भरे होते हैं और सुनने वाले के मन में उत्साह और उत्तेजना पैदा करते हैं। अतिरेकी अभिव्यंजनाएँ इस छंद का दोष न होकर मौलिक गुण हो जाता है।आल्हा छंद में अतिशयोक्ति अलंकार विशाल भण्डार है जिसकी बानगी पंक्ति-पंक्ति में देखि जा सकती है। आधुनिक काल में आल्हा छंद में हास्य रचनाएँ भी की गयीं हैं।

                                                     * 

छंद विधान:

                              विषम चरण के अंत में, गुरु या दो लघु श्रेष्ठ।
                             गुरु लघु सम चरणांत में, रखते आये ज्येष्ठ।। 
                               जगनिक आल्हा छंद के रचनाकार महान।
                             आल्हा-ऊदल की कथा, गा-सुन मिटता नेष्ठ।।

          आल्हा या वीर छंद भी दोहा की ही तरह अर्ध सम मात्रिक छंद है। इसे मात्रिक सवैया भी कहा जाता है। आल्हा दो पदों (पंक्तियों) तथा चार चरणों (अर्धाली) में रचा जाता है किन्तु दोहे की १३-११ पर यति के स्थान पर आल्हा छंद में १६-१५ पर यति होती है। 

          यह भी कह सकते हैं कि दोहा के ग्यारह मात्रीय सम चरण में ४ मात्रिक शब्द जोड़कर आल्हा या वीर छंद बन जाता है। इसके विपरीत आल्हा या वीर छंद के १५ मात्री सम चरण में से चार मात्राएँ कम करने पर दोहा का सम अंश शेष रहता है।वीर छंद में विषम चरण का अंत गुरु अथवा २ लघु से तथा सम चरण का अंत गुरु लघु से होता है।


   संध्या घनमाला की ओढे, सुन्दर रंग-बिरंगी छींट।
   गगन चुम्बिनी शैल श्रेणियाँ, पहने हुए तुषार-किरीट।। 


टीप - सम पदों मे से 'सुन्दर' तथा 'पहने' हटाने पर दोहा के सम पदांत 'रंग-बिरंगी छींट' तथा 'हुए तुषार-किरीट' शेष रहता है जो दोहा के सम पद हैं।

वीर छंद या आल्हा में ही वीर छंद की परिभाषा

                             मात्रा सोलह पन्द्रह आल्हाअतिशयोक्ति आभूषण भाय|
                                 अंत सदा गुरु लघु से होवैवीर छंद ही नाम सुहाय||
                                 आल्हा-ऊदल बड़े लड़ैयापहुँचे कूदि-कूदि  आकाश|
                                एक फूंक मा बैरी उड़िगेकै डारिनि  बैरिनि का नाश||

संरचना-
          चार चरण, प्रत्येक चरण में १६ + १५ मात्रा कुल ३१ मात्राएँ। विषम चरण में १६ मात्रा पर यति, सैम चरण में १५ मात्रा पर यति, चरणान्त में गुरु-लघु, विषम चरण की सोलहवी मात्रा गुरु तथा सम चरण की पंद्रहवी मात्र लघु। 
                आल्हा मात्रिक छंद सवैया, सोलह-पन्द्रह यति अनिवार्य। 
            गुरु या दो लघु विषम, सम रखें, गुरु-लघु तब ही हो स्वीकार्य।।
                अलंकार अतिशयताकारक, करे राई को तुरत पहाड़।
                ज्यों मिमयाती बकरी सोचे, गुँजा रही वन लगा दहाड़।। -सौरभ पाण्डेय


आल्हा खण्ड के महानायक आल्हा - ऊदल

          महाकाव्य आल्हा-खण्ड में दो महावीर बुन्देला युवाओं आल्हा-ऊदल के पराक्रम की गाथा है. विविध प्रसंगों में विविध रसों की कुछ पंक्तियाँ देखें-

पहिल बचनियां है माता की, बेटा बाघ मारि घर लाउ।
आजु बाघ कल बैरी मारउ, मोर छतिया कै डाह बुझाउ।। ('मोर' का उच्चारण 'मुर' की तरह)
बिन अहेर के हम ना जावैं, चाहे कोटिन करो उपाय।
जिसका बेटा कायर निकले, माता बैठि-बैठि मर जाय।।

*


टँगी खुपड़िया बाप-चचा की, मांडौगढ़ बरगद की डार।
आधी रतिया की बेला में, खोपड़ी कहे पुकार-पुकार।।  ('खोपड़ी' का उच्चारण 'खुपड़ी')
कहवाँ आल्हा कहवाँ मलखे, कहवाँ ऊदल लडैते लाल।  ('ऊदल' का उच्चारण 'उदल')
बचि कै आना मांडौगढ़ में, राज बघेल जिए कै काल।।
*
अभी उमर है बारी भोरी, बेटा खाउ दूध औ भात।
चढ़ै जवानी जब बाँहन पै, तब के दैहै तोके मात।।
*
एक तो सूघर लड़कैंयां कै, दूसर देवी कै वरदान। ('एक' का उच्चारण 'इक')
नैन सनीचर है ऊदल के, औ बेह्फैया बसे लिलार।।
महुवरि बाजि रही आँगन मां, जुबती देखि-देखि ठगि जाँय।
राग-रागिनी ऊदल गावैं, पक्के महल दरारा खाँय।।
*
सावन चिरैया ना घर छोडे, ना बनिजार बनीजी जाय।
टप-टप बूँद पडी खपड़न पर, दया न काहूँ ठांव देखाय।
आल्हा चलिगे ऊदल चलिगे, जइसे राम-लखन चलि जायँ।
राजा के डर कोइ न बोले, नैना डभकि-डभकि रहि जायँ।।
*
बारह बरिस ल कुक्कुर जीऐं, औ तेरह लौ जिये सियार।
बरिस अठारह छत्री जीयें, आगे जीवन को धिक्कार।।


चित्र परिचय: आल्हा-उदल की उपास्य माँ शारदा का मंदिर, आल्हा-उदल का अखाड़ा तथा तालाब. जनश्रुति है कि आल्हा-उदल आज भी मंदिर खुलने के पूर्व तालाब में स्नान कर माँ शारदा का पूजन करते हैं. चित्र आभार: गूगल.

                             
सलिल रचित आल्हा छंद के अन्य उदाहरण:

. बड़े लालची हैं नेतागण, रिश्वत-चारा खाते रोज।
    रोज-रोज बढ़ता जाता है, कभी न घटता इनका डोज़।।
    'सलिल' किस तरह ये सुधरेंगे?, मिलकर करें सभी हम खोज।
    नोच रहे हैं लाश देश की, जैसे गिद्ध कर रहे भोज।।

२. छप्पन इंची सीना देखें, पाकी-आतंकी घबराँय।   
    मिया मुशर्रफ भूल हेकड़ी,सोते में भी लात चलाँय
    भौंक रहे हैं खुद शरीफ भी, भुला शराफत जात दिखाँय
    घोल न शर्बत में पी जाएँ, सोच-सोच चीनी डर जाँय 

३. लोकतंत्र के पीपल बैठे, नेता काटें निश-दिन डाल
   लोक हितों की अनदेखी कर,मचा रहे हैं रोज बवाल
   रुष्ट देश की जनता सोचे,जिसे चुनो वह खींचे खाल। 
   हाय राम रे! हमें बचाओ, जीना भी अब हुआ मुहाल 

४. कौन किसी का कभी हुआ है,मरघट में सब जाते छोड़
    साथ चलेंगे नहीं लगाता, कोई भी थोड़ी भी होड़
    सुख-समृद्धि में भागीदारी, कंगाली में रहते दूर। 
    रिश्ते-नाते भरमाते हैं, जो न समझता सच वह सूर 

५. जा न सड़क पर आम आदमी, अभिनेता आये ले कार। 
    रौंद सड़क पर तुझे जाएगा, गरियाए कह मूर्ख-गँवार
    न्यायालय निर्दोष कहेगा, उसे- तुझे ही देगा दोष-
    मदद न कोई कहीं मिलेगी, मरे भूख से रो परिवार

६. तनक न चिंता करो दाउ जू, बुंदेली के नीके बोल।
    जो बोलत हैं बेई जानैं, मिसरी जात कान मैं घोल।।
    कबू-कबू ऐसों लागत ज्यौं, अमराई मां फिररै डोल।
    आल्हा सुनत लगत हैं ऐसो, जैसें बाज रए रे ढोल।।
                                                    
७. अंग्रेजी खों मोह ब्याप गौ, जासें मोड़ें जानत नांय।
    छींकें-खांसें अंग्रेजी मां, जैंसें सोउत मां बर्रांय।।
    नीकी भासा कहें गँवारू, माँ खों ममी कहत इतरांय।
    पाँव बुजुर्गों खें पड़ने हौं, तो बिनकी नानी मर जांय।।

८. फ़िल्मी धुन में टर्राउट हैं, आँय-बाँय फिर कमर हिलांय।
    बन्ना-बन्नी, सोहर, फागें, आल्हा, होरी समझत नांय।।
    बाटी-भर्ता, मठा-महेरी, छोड़ केक बिस्कुट बें खांय।
    अमराई चौपाल पनघटा, भूल सहर मां फिरें भुलांय।।

९. नव प्रयोग :
    भारतवारे बड़े लड़ैया
    बिनसें हारे पाक सियार 
    .
    घेर लओ बदरन नें सूरज
    मचो सब कऊँ हाहाकार
    ठिठुरन लगें जानवर-मानुस
    कौनौ आ करियो उद्धार
    बही बयार बिखर गै बदरा
    धूप सुनैरी कहे पुकार
    सीमा पार छिपे बनमानुस
    कबऊ न पइयो हमसें पार
    .
    एक सिंग खों घेर भलई लें
    सौ वानर-सियार हुसियार
    गधा ओढ़ ले खाल सेर की
    देख सेर पोंके हर बार
    ढेंचू-ढेचूँ रेंक भाग रओ
    करो सेर नें पल मा वार
    पोल खुल गयी, हवा निकर गयी
    जान बखस दो करें पुकार
   (भाषा रूप- बुंदेली)
     . 
१०. घर मा आग लगी बाग़त हैं, देस-बिदेस न देखें हाल
     कहूँ न पानी, कहूँ बाढ़ है, जनगण रोता हो बेहाल
     कौनउ लेत न जिम्मेदारी, एक-दूसरे पे दें टाल
   अफसर-नेता मौज उड़ाउत, सेठ तिजोरी भरते माल

११. हरिगंधा कुरुक्षेत्र की धरा, पुण्य कमाओ करो प्रणाम
    सुन गीता की वाणी मानो, कर्म-धर्म बिसरा परिणाम
    कलम थाम बैठे रामेश्वर, सत-शिव-सुंदर रच अभिराम
    सत-चित-आनंद दर्शन पाओ, मोह खास का तज हो आम

टिप्पणी-  पारंपरिक आल्हा छंद में  २-२ पंक्तियों में समान तुकांत होते हैं। उक्त में तुकांत संबंधी विविध प्रयोग किये गए हैं, इनसे छंद की लय, कथ्य आदि  विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता। अत:, आल्हा मुक्तक, आल्हा गीत, आल्हा ग़ज़ल, आल्हा फाग, आल्हा बाल गीत जैसे प्रयोग छंद प्रासंगिकता और उपादेयता बढ़ाने के लिए स्वागतेय हैं। 
   
**********
संदेश में फोटो देखें
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
204 विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर 482001 
दूर वार्ता-  ​94251 83244 / 0761 2411131
दूरलेख- 
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.in
facebook: sahiyta salila / sanjiv verma 'salil' 

alha chhand

विशेष लेख-

                                                        आल्हा रचें सुजान 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
                                                      *

                          छंद ओज बलिदान का, आल्हा रचें सुजान। 
                          सुन वीरों के भुज फड़क, कहें लड़ा दे जान।। 
                         सोलह-पन्द्रह यति रखें, गा अल्हैत रस-वान।
                           मुर्दों में भी फूँकता, छंद वीर नव जान।।
*
       
संस्कृत वांग्मय से वीर काव्य परंपरा ग्रहण कर हिंदी में रचित वीर-काव्य में प्रयुक्त तथा मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में सर्वाधिक लोकप्रिय छंदों में गणनीय  आल्हा या वीर छंद को इतिहास में महती भूमिका निभाने के अनेक अवसर मिले और इस छंद ने जहाँ मातृभूमि के रक्षार्थ जूझ रहे नर-नाहरों में प्राणोत्सर्ग का भाव भरा, वही शत्रुओं के मन में मौत का भय पैदा किया। 

          बुंदेलखंड-बघेलखंड-रुहेलखंड में गाँव-गाँव में चौपालों पर सावन के पदार्पण के साथ ही अल्हैतों (आल्हा गायकों) की टोलियाँ ढोल-मंजीरा के साथ आल्हा गाती हैं। प्राचीन काल में युद्धों के समय सेना में, शांति काल में  दरबारों में तथा दैनंदिन जीवन में गाँवों में अल्हैत होते थे जो अपने राज्य, सेना प्रमुख अथवा किसी महावीर की कीर्ति का बखान आल्हा गाकर करते थे। इससे जवानों में लड़ने का जोश बढ़ता, जान की बजी लगाने की भावना पैदा होथी थी, शत्रु सेना के उत्साह में कमी आती थी।

          इस छंद का ’यथा नाम तथा गुण’ की तरह इसके कथ्य ओज भरे होते हैं और सुनने वाले के मन में उत्साह और उत्तेजना पैदा करते हैं। अतिरेकी अभिव्यंजनाएँ इस छंद का दोष न होकर मौलिक गुण हो जाता है।आल्हा छंद में अतिशयोक्ति अलंकार विशाल भण्डार है जिसकी बानगी पंक्ति-पंक्ति में देखि जा सकती है। आधुनिक काल में आल्हा छंद में हास्य रचनाएँ भी की गयीं हैं।

                                                     * 

छंद विधान:

                              विषम चरण के अंत में, गुरु या दो लघु श्रेष्ठ।
                             गुरु लघु सम चरणांत में, रखते आये ज्येष्ठ।। 
                               जगनिक आल्हा छंद के रचनाकार महान।
                             आल्हा-ऊदल की कथा, गा-सुन मिटता नेष्ठ।।

          आल्हा या वीर छंद भी दोहा की ही तरह अर्ध सम मात्रिक छंद है। इसे मात्रिक सवैया भी कहा जाता है। आल्हा दो पदों (पंक्तियों) तथा चार चरणों (अर्धाली) में रचा जाता है किन्तु दोहे की १३-११ पर यति के स्थान पर आल्हा छंद में १६-१५ पर यति होती है। 

          यह भी कह सकते हैं कि दोहा के ग्यारह मात्रीय सम चरण में ४ मात्रिक शब्द जोड़कर आल्हा या वीर छंद बन जाता है। इसके विपरीत आल्हा या वीर छंद के १५ मात्री सम चरण में से चार मात्राएँ कम करने पर दोहा का सम अंश शेष रहता है।वीर छंद में विषम चरण का अंत गुरु अथवा २ लघु से तथा सम चरण का अंत गुरु लघु से होता है।


   संध्या घनमाला की ओढे, सुन्दर रंग-बिरंगी छींट।
   गगन चुम्बिनी शैल श्रेणियाँ, पहने हुए तुषार-किरीट।। 


टीप - सम पदों मे से 'सुन्दर' तथा 'पहने' हटाने पर दोहा के सम पदांत 'रंग-बिरंगी छींट' तथा 'हुए तुषार-किरीट' शेष रहता है जो दोहा के सम पद हैं।

वीर छंद या आल्हा में ही वीर छंद की परिभाषा

                             मात्रा सोलह पन्द्रह आल्हाअतिशयोक्ति आभूषण भाय|
                                 अंत सदा गुरु लघु से होवैवीर छंद ही नाम सुहाय||
                                 आल्हा-ऊदल बड़े लड़ैयापहुँचे कूदि-कूदि  आकाश|
                                एक फूंक मा बैरी उड़िगेकै डारिनि  बैरिनि का नाश||

संरचना-
          चार चरण, प्रत्येक चरण में १६ + १५ मात्रा कुल ३१ मात्राएँ। विषम चरण में १६ मात्रा पर यति, सैम चरण में १५ मात्रा पर यति, चरणान्त में गुरु-लघु, विषम चरण की सोलहवी मात्रा गुरु तथा सम चरण की पंद्रहवी मात्र लघु। 
                आल्हा मात्रिक छंद सवैया, सोलह-पन्द्रह यति अनिवार्य। 
            गुरु या दो लघु विषम, सम रखें, गुरु-लघु तब ही हो स्वीकार्य।।
                अलंकार अतिशयताकारक, करे राई को तुरत पहाड़।
                ज्यों मिमयाती बकरी सोचे, गुँजा रही वन लगा दहाड़।। -सौरभ पाण्डेय


आल्हा खण्ड के महानायक आल्हा - ऊदल

          महाकाव्य आल्हा-खण्ड में दो महावीर बुन्देला युवाओं आल्हा-ऊदल के पराक्रम की गाथा है. विविध प्रसंगों में विविध रसों की कुछ पंक्तियाँ देखें-

पहिल बचनियां है माता की, बेटा बाघ मारि घर लाउ।
आजु बाघ कल बैरी मारउ, मोर छतिया कै डाह बुझाउ।। ('मोर' का उच्चारण 'मुर' की तरह)
बिन अहेर के हम ना जावैं, चाहे कोटिन करो उपाय।
जिसका बेटा कायर निकले, माता बैठि-बैठि मर जाय।।

*


टँगी खुपड़िया बाप-चचा की, मांडौगढ़ बरगद की डार।
आधी रतिया की बेला में, खोपड़ी कहे पुकार-पुकार।।  ('खोपड़ी' का उच्चारण 'खुपड़ी')
कहवाँ आल्हा कहवाँ मलखे, कहवाँ ऊदल लडैते लाल।  ('ऊदल' का उच्चारण 'उदल')
बचि कै आना मांडौगढ़ में, राज बघेल जिए कै काल।।
*
अभी उमर है बारी भोरी, बेटा खाउ दूध औ भात।
चढ़ै जवानी जब बाँहन पै, तब के दैहै तोके मात।।
*
एक तो सूघर लड़कैंयां कै, दूसर देवी कै वरदान। ('एक' का उच्चारण 'इक')
नैन सनीचर है ऊदल के, औ बेह्फैया बसे लिलार।।
महुवरि बाजि रही आँगन मां, जुबती देखि-देखि ठगि जाँय।
राग-रागिनी ऊदल गावैं, पक्के महल दरारा खाँय।।
*
सावन चिरैया ना घर छोडे, ना बनिजार बनीजी जाय।
टप-टप बूँद पडी खपड़न पर, दया न काहूँ ठांव देखाय।
आल्हा चलिगे ऊदल चलिगे, जइसे राम-लखन चलि जायँ।
राजा के डर कोइ न बोले, नैना डभकि-डभकि रहि जायँ।।
*
बारह बरिस ल कुक्कुर जीऐं, औ तेरह लौ जिये सियार।
बरिस अठारह छत्री जीयें, आगे जीवन को धिक्कार।।


चित्र परिचय: आल्हा-उदल की उपास्य माँ शारदा का मंदिर, आल्हा-उदल का अखाड़ा तथा तालाब. जनश्रुति है कि आल्हा-उदल आज भी मंदिर खुलने के पूर्व तालाब में स्नान कर माँ शारदा का पूजन करते हैं. चित्र आभार: गूगल.

                             
सलिल रचित आल्हा छंद के अन्य उदाहरण:

. बड़े लालची हैं नेतागण, रिश्वत-चारा खाते रोज।
    रोज-रोज बढ़ता जाता है, कभी न घटता इनका डोज़।।
    'सलिल' किस तरह ये सुधरेंगे?, मिलकर करें सभी हम खोज।
    नोच रहे हैं लाश देश की, जैसे गिद्ध कर रहे भोज।।

२. छप्पन इंची सीना देखें, पाकी-आतंकी घबराँय।   
    मिया मुशर्रफ भूल हेकड़ी,सोते में भी लात चलाँय
    भौंक रहे हैं खुद शरीफ भी, भुला शराफत जात दिखाँय
    घोल न शर्बत में पी जाएँ, सोच-सोच चीनी डर जाँय 

३. लोकतंत्र के पीपल बैठे, नेता काटें निश-दिन डाल
   लोक हितों की अनदेखी कर,मचा रहे हैं रोज बवाल
   रुष्ट देश की जनता सोचे,जिसे चुनो वह खींचे खाल। 
   हाय राम रे! हमें बचाओ, जीना भी अब हुआ मुहाल 

४. कौन किसी का कभी हुआ है,मरघट में सब जाते छोड़
    साथ चलेंगे नहीं लगाता, कोई भी थोड़ी भी होड़
    सुख-समृद्धि में भागीदारी, कंगाली में रहते दूर। 
    रिश्ते-नाते भरमाते हैं, जो न समझता सच वह सूर 

५. जा न सड़क पर आम आदमी, अभिनेता आये ले कार। 
    रौंद सड़क पर तुझे जाएगा, गरियाए कह मूर्ख-गँवार
    न्यायालय निर्दोष कहेगा, उसे- तुझे ही देगा दोष-
    मदद न कोई कहीं मिलेगी, मरे भूख से रो परिवार

६. तनक न चिंता करो दाउ जू, बुंदेली के नीके बोल।
    जो बोलत हैं बेई जानैं, मिसरी जात कान मैं घोल।।
    कबू-कबू ऐसों लागत ज्यौं, अमराई मां फिररै डोल।
    आल्हा सुनत लगत हैं ऐसो, जैसें बाज रए रे ढोल।।
                                                    
७. अंग्रेजी खों मोह ब्याप गौ, जासें मोड़ें जानत नांय।
    छींकें-खांसें अंग्रेजी मां, जैंसें सोउत मां बर्रांय।।
    नीकी भासा कहें गँवारू, माँ खों ममी कहत इतरांय।
    पाँव बुजुर्गों खें पड़ने हौं, तो बिनकी नानी मर जांय।।

८. फ़िल्मी धुन में टर्राउट हैं, आँय-बाँय फिर कमर हिलांय।
    बन्ना-बन्नी, सोहर, फागें, आल्हा, होरी समझत नांय।।
    बाटी-भर्ता, मठा-महेरी, छोड़ केक बिस्कुट बें खांय।
    अमराई चौपाल पनघटा, भूल सहर मां फिरें भुलांय।।

९. नव प्रयोग :
    भारतवारे बड़े लड़ैया
    बिनसें हारे पाक सियार 
    .
    घेर लओ बदरन नें सूरज
    मचो सब कऊँ हाहाकार
    ठिठुरन लगें जानवर-मानुस
    कौनौ आ करियो उद्धार
    बही बयार बिखर गै बदरा
    धूप सुनैरी कहे पुकार
    सीमा पार छिपे बनमानुस
    कबऊ न पइयो हमसें पार
    .
    एक सिंग खों घेर भलई लें
    सौ वानर-सियार हुसियार
    गधा ओढ़ ले खाल सेर की
    देख सेर पोंके हर बार
    ढेंचू-ढेचूँ रेंक भाग रओ
    करो सेर नें पल मा वार
    पोल खुल गयी, हवा निकर गयी
    जान बखस दो करें पुकार
   (भाषा रूप- बुंदेली)
     . 
१०. घर मा आग लगी बाग़त हैं, देस-बिदेस न देखें हाल
     कहूँ न पानी, कहूँ बाढ़ है, जनगण रोता हो बेहाल
     कौनउ लेत न जिम्मेदारी, एक-दूसरे पे दें टाल
   अफसर-नेता मौज उड़ाउत, सेठ तिजोरी भरते माल

११. हरिगंधा कुरुक्षेत्र की धरा, पुण्य कमाओ करो प्रणाम
    सुन गीता की वाणी मानो, कर्म-धर्म बिसरा परिणाम
    कलम थाम बैठे रामेश्वर, सत-शिव-सुंदर रच अभिराम
    सत-चित-आनंद दर्शन पाओ, मोह खास का तज हो आम

टिप्पणी-  पारंपरिक आल्हा छंद में  २-२ पंक्तियों में समान तुकांत होते हैं। उक्त में तुकांत संबंधी विविध प्रयोग किये गए हैं, इनसे छंद की लय, कथ्य आदि  विआप्रीत प्रभाव नहीं पड़ता। अत:, आल्हा मुक्तक, आल्हा गीत, आल्हा ग़ज़ल, आल्हा फाग, आल्हा बाल गीत जैसे प्रयोग छंद प्रासंगिकता और उपादेयता बढ़ाने के लिए स्वागतेय हैं। 
   
**********
संदेश में फोटो देखें
​आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

204 विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर 482001 

दूर वार्ता-  ​94251 83244 / 0761 2411131
दूरलेख- 
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.in
facebook: sahiyta salila / sanjiv verma 'salil'