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गुरुवार, 31 जुलाई 2025

जुलाई ३१, तुहिना, हास्य, मुक्तिक, सॉनेट, समीक्षा, पंकज परिमल, सपने, दुनिया

सलिल सृजन जुलाई ३१
*
सॉनेट
सपने
*
दिन में भी दिखते हैं सपने,
सच लगते पर झूठे होते,
नहीं पराए किंतु न अपने,
मरुथल में भी फसलें बोते।
सपने बिना पैर चलते हैं,
उड़ते बिना पंख भी सपने,
बनकर मित्र नहीं छलते हैं,
उगते बिना बीज भी सपने।
शीतलता दें तपते हो तो,
पापी को कर देते पावन,
नया जन्म दें मिटते हो तो,
फागुन कभी; कभी हों सावन।
पद लय गति यति रस तुक के बिन।
सॉनेट रचते सपने निशि -दिन
३१-७-२०२३
***
पंकज परिमल की याद में माहिए
*
पंकज परिमल खोकर
नवगीत उदास हुआ
पिंजरे से उड़ा सुआ।
*
जीवट का रहा धनी
थी जिजीविषा अद्भुत
पंकज था धुनी गुनी।
*
नवगीत मिसाल बने
भाषिक-शैल्पिक नव दृष्टि
नव रूपक-बिंब घने।
*
बिन पंकज हो श्रीहीन
करता है याद सलिल
टूटी सावन में बीन।
*
नवगीत सुनेंगे इंद्र
दे शुभाशीष तुमको
होंगे खुश बहुत रवींद्र।
*
अपनी मिसाल तुम आप
छू पाए अन्य नहीं
तव सुयश सका जग व्याप।
*
भावांजलि लिए सलिल
चुप अश्रुपात करता
खो पंकज दिल दुखता
३१.७.२०२१
***
सॉनेट
दुनिया
*
दुनिया बहुत सयानी है,
मीठे को बोले तीता,
मत समझो नादानी है,
भरा कोष कहती रीता।
झंडा वही उठाती है,
जो सत्ता तक ले जाए,
गीत उसी के जाती है,
लिए बिना जो दे जाए।
मिले प्रसाद जहाँ ज्यादा,
वही देवता प्यारा है,
फर्क नहीं नर या मादा,
झूठे की पौ बारा है।
दीखते है यह प्रेम पगी।
किंतु किसी सगी।।
***
मुक्तिका:
*
याद जिसकी भुलाना मुश्किल है
याद उसको न आना मुश्किल है
.
मौत औरों को देना है आसां
मौत को झेल पाना मुश्किल है
.
खुद को कहता रहा मसीहा जो
उसका इंसान होना मुश्किल है
.
तुमने बोले हैं झूठ सौ-सौ पर
एक सच बोल सकना मुश्किल है
.
अपने अधिकार चाहते हैं सभी
गैर को हक़ दिलाना मुश्किल है
३१-७-२०१७
***
अभियंता, हाइकुकार, व्यंग्यकार, ग़ज़लकार आनंद पाठक को
जन्म दिवस की अनंत शुभ कामनायें
*
आनंद परमानंद पा रच माहिया हरते जिया
लिख व्यंग्य दें जिस पर उसी का हिला देते हैं हिया
लिख दें ग़ज़ल तो हो फसल भावों की बिन बरसात भी
कृपा है इन पर उसी की हुए ये जिसके ये पिया
*
३१-७-२०१६
समीक्षा-
"काल है संक्रांति का" आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' की अनुपम नवगीत कृति
- इंजी. संतोष कुमार माथुर, लखनऊ
*
एक कुशल अभियंता, मूर्धन्य साहित्यकार, निष्णात संपादक, प्रसिद्ध समीक्षक, कुशल छंदशास्त्री, समर्पित समाजसेवी पर्यावरणप्रेमी, वास्तुविद अर्थात बहुमुखी प्रतिभा के धनी आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी की नवीनतम पुस्तक "काल है संक्रांति का" पढ़ने का सुअवसर मिला। गीत-नवगीत का यह संग्रह अनेक दृष्टियों से अनुपम है।
'संक्रांति' का अर्थ है एक क्षेत्र, एक पद्धति अथवा एक व्यवस्था से दूसरे क्षेत्र, व्यवस्था अथवा पद्धति में पदार्पण। इंजी. सलिल की यह कृति सही अर्थों में संक्रांति की द्योतक है।
प्रथम संक्रांति- गीति
सामान्यत: किसी भी कविता संग्रह के आरम्भ में भूमिका के रूप में किसी विद्वान द्वारा कृति का मूल्यांकन एवं तदोपरांत रचनाकार का आत्म निवेदन अथवा कथन होता है। इस पुस्तक में इस प्रथा को छोड़कर नई प्रथा स्थापित करते हुए गद्य के स्थान पर पद्य रूप में कवि ने 'वंदन', 'स्मरण', 'समर्पण' और 'कथन' सम्मिलित करते हुए गीत / नवगीत के शिल्प और कथ्य के लक्षण इंगित किये हैं -
'नव्यता संप्रेषणों में जान भरती
गेयता संवेदनों का गान करती
कथ्य होता तथ्य का आधार खाँटा
सधी गति-यति अंतरों का मान बनती
अंतरों के बाद मुखड़ा आ विहँसता
.
छंद से संबंध दिखता या न दिखता
किंतु बन आरोह या अवरोह पलता'
.
'स्मरण' के अंतर्गत सृष्टि आरम्भ से अब तक अपने पूर्व हुए सभी पूर्वजों को प्रणिपात कर सलिल धरती के हिंदी-धाम होने की कामना करने के साथ-साथ नवरचनाकारों को अपना स्वजन मानते हुए उनसे जुड़कर मार्गदर्शन करने का विचार व्यक्त करते हैं-
'मिटा दूरियाँ, गले लगाना
नवरचनाकारों को ठानें
कलश नहीं, आधार बन सकें
भू हो हिंदी धाम'
'समर्पण' में सलिल जी ने यह संग्रह अनंत शक्ति स्वरूपा नारी के भगिनी रूप को समर्पित किया है। नारी शोषण की प्रवृत्ति को समाप्त कर नारी सशक्तिकरण के इस युग में यह प्रवृत्ति अभिनंदनीय है।
'बनीं अग्रजा या अनुजा तुम
तुमने जीवन सरस बनाया
अर्पित शब्द-सुमन स्वीकारे
नेहिल नाता मन को भाया'
द्वितीय संक्रांति-विधा
बहुधा काव्य संग्रह या तो पारंपरिक छंदों में रचित 'गीत संग्रह' होता है, या नये छंदों में रचित 'नवगीत संग्रह' अथवा छंदहीन कविताओं का संग्रह होता है। इंजी. सलिल जी ने पुस्तक के शीर्षक के साथ ही गीत-नवगीत लिखकर एक नयी प्रथा में पदार्पण किया है कि गीत-नवगीत एक दूसरे से सर्वथा भिन्न नहीं, एक दूसरे के पूरक हैं और इसलिए एक घर में रहते पिता-पुत्र की तरह उन्हें एक संकलन में रखा जा सकता हैं। उनके इस कदम का भविष्य में अन्यों द्वारा अनुकरण होगा।
तृतीय संक्रांति- भाषा
एक संकलन में अपनी रचनाओं हेतु कवि बहुधा एक भाषा-रूप का चयन कर उसी में कविता रचते हैं। सलिल जी ने केवल 'खड़ी बोली' की रचनाएँ सम्मिलित न कर 'बुंदेली' तथा लोकगीतों के उपयुक्त देशज भाषा-रूप में रचित गीति रचनाएँ भी इस संकलन में सम्मिलित की हैं तथा तदनुसार ही छन्द-विधान का पालन किया है। यह एक नयी सोच और परंपरा की शुरुआत है। इस संग्रह की भाषा मुख्यत: सहज एवं समर्थ खड़ी बोली है जिसमें आवश्यकतानुसार उर्दू, अंग्रेजी एवं बुंदेली के बोलचाल में प्रचलित शब्दों का निस्संकोच समावेश किया गया है।
प्रयोग के रूप में पंजाब के दुल्ला भट्टी को याद करते हुई गाये जानेवाले लोकगीतों की तर्ज पीर 'सुंदरिये मुंदरिये होय' रचना सम्मिलित की गयी है। इसी प्रकार बुंदेली भाषा में भी तीन रचनाएँ जिसमें 'आल्हा' की तर्ज पर लिखी गयी रचना भी है, इस संग्रह में संग्रहीत हैं।
इस संग्रह में काव्यात्मक 'समर्पण' एवं 'कथन' को छोड़कर ६३ रचनाएँ हैं।यह एक सुखद संयोग ही है कि इस पुस्तक के प्रकाशन के समय कविवर सलिल जी की आयु भी ६३ वर्ष ही है।
चतुर्थ संक्रांति- विश्वात्म दृष्टि और विज्ञान
कवि ने आरम्भ में निराकार परात्पर परब्रम्ह का 'वन्दन' करते हुए महानाद के विस्फोट से व्युत्पन्न ध्वनि तरंगों के सम्मिलन-घर्षण के परिणामस्वरूप बने सूक्ष्म कणों से सृष्टि सृजन के वैज्ञानिक सत्य को इंगित कर उसे भारतीय दर्शन के अनुसार अनादि-अनंत, अक्षय-अक्षर कहते हुए सुख-दुःख के प्रति समभाव की कामना की है-
'आदि-अंत, क्षय-क्षर विहीन हे!
असि-मसि, कलम-तूलिका हो तुम
गैर न कोई सब अपने हैं-
काया में हैं आत्म सभी हम
जन्म-मरण, यश-अपयश चक्रित
छाया-माया, सुख-दुःख हो सम'
पंचम संक्रांति- छंद वैविध्य
कवि ने अपनी नवगीत रचनाओं में छन्द एवं लयबद्धता का विशेष ध्यान रखा है जिससे हर रचना में एक अविकल भाषिक प्रवाह परिलक्षित होता है। प्रचलित छन्दों यथा दोहा-सोरठा के अतिरिक्त कवि ने कतिपय कम प्रचलित छंदों में भी रचनाएँ प्रस्तुत की हैं। आचार्यत्व का निर्वहन करते हुए कवि ने जहाँ विशिष्ट छंदों का उपयोग किया है वहाँ जिज्ञासु पाठकों एवं छात्रों के हितार्थ उनका स्पष्ट उल्लेख भी रचना के अंत में नीचे कर दिया है। यथा महाभागवत जातीय सार छंद, हरिगीतिका छंद, आल्हा छंद, मात्रिक करुणाकर छंद, वार्णिक सुप्रतिष्ठा छंद आदि। कुछ रचनाओं में कवि ने एकाधिक छन्दों का प्रयोग कर अपनी असाधारण प्रतिभा का परिचय दिया है। यथा एक रचना में मात्रिक करुणाकर तथा वार्णिक सुप्रतिष्ठा छंद दोनों के मानकों का पालन किया है जबकि दो अन्य रचनाओं में मुखड़े में दोहा तथा अंतरे में सोरठा छंद का समन्वय किया है।
विषयवस्तु-
विषय की दृष्टि से कवि की रचनाओं यथा 'इतिहास लिखें हम', 'मन्ज़िल आकर' एवं 'तुम बन्दूक चलाओ' में आशावादिता स्पष्ट परिलक्षित होती है।
'समाजवादी', 'अगले जनम', 'लोकतन्त्र का पंछी', 'ग्रंथि श्रेष्ठता की', 'जिम्मेदार नहीं हैं नेता' एवं 'सच की अर्थी' में व्यवस्था के प्रति आक्रोश है। जीवन का कड़वा सच 'मिली दिहाड़ी' एवं 'वेश सन्त का' जैसी रचनाओं में भी उजागर हुआ है। 'राम बचाये' एवं 'हाथों में मोबाइल' रचनाएँ आधुनिक जीवनशैली पर कटाक्ष हैं। 'समर्पण' एवं 'काम तमाम' में नारी-प्रतिभा को उजागर किया गया है। कुछ रचनाओं यथा 'छोड़ो हाहाकार मियाँ', 'खों-खों करते' तथा 'लेटा हूँ' आदि में तीखे व्यंग्य बाण भी छोड़े गये हैं। सामयिक घटनाओं से प्रभावित होकर कवि ने 'ओबामा आते', पेशावर के नरपिशाच' एवं 'मैं लड़ूँगा' जैसी रचनाएँ भी लिपिबद्ध की हैं।
विषयवस्तु के संबंध में कवि की विलक्षण प्रतिभा का उदाहरण है एक ही विषय 'सूरज' पर लिखे सात तथा अन्य विषय 'नव वर्ष' पर रचित पाँच नवगीत। इस रचनाओं में यद्यपि एकरसता परिलक्षित नहीं होती तथापि लगातार एक ही विषय पर अनेक रचनाएँ पाठक को विषय की पुनरावृत्ति का अभ्यास अवश्य कराती हैं।
कुछ अन्य रचनाओं में भी शब्दों की पुरावृत्ति दृष्टिगोचर होती है। उदाहरणार्थ पृष्ठ १८ पर 'उठो पाखी' के प्रथम छंद में 'शराफत' शब्द का प्रयोग खटकता है। पृष्ठ ४३ पर 'सिर्फ सच' की १० वीं व ११ वीं पंक्ति में 'फेंक दे' की पुनरावृत्ति छपाई की भूल है।
कुल मिलाकर कवि-आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' का यह संग्रह अनेक प्रकार से सराहनीय है। ज्ञात हुआ है कि संग्रह की अनेक रचनाएँ अंतर्जाल पर बहुप्रशंसित और बहुचर्चित हो चुकी हैं। सलिल जी ने अंतरजाल पर हिंदी भाषा, व्याकरण और पिंगल के प्रसार-प्रचार और युवाओं में छन्द के प्रति आकर्षण जगाने की दिशा में सराहनीय प्रयास किया है। छन्द एवं विषय वैविध्य, प्रयोगधर्मिता, अभिनव प्रयोगात्मक गीतों-नवगीतों से सुसज्जित इस संग्रह 'काल है संक्रांति का' के प्रकाशन हेतु इंजी, कवि आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' बधाई के पात्र हैं।
*****
समीक्षक सम्पर्क- अभियंता संतोष कुमार माथुर, कवि-गीतकार, सेवा निवृत्त मुख्य अभियंता, लखनऊ।
***
पुस्तक चर्चा -
'मैं पानी बचाता हूँ' सामयिक युगबोध की कवितायेँ
*
[पुस्तक विवरण- मैं पानी बचाता हूँ, काव्य संग्रह, राग तेलंग, वर्ष २०१६, ISBN ९७८-९३-८५९४२-२३-५, पृष्ठ १४४, मूल्य १२०/-, आकार २०.५ से.मी. x १४ से.मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक, बोधि प्रकाशन, ऍफ़ ७७, सेक्टर ९, मार्ग ११, करतारपुरा औद्योगिक क्षेत्र, बाईस गोदाम, जयपुर ३०२००६]
*
साहित्य को समाज का दर्पण कहा गया है किन्तु दर्पण संवेदनहीन होता है जो यथास्थिति को प्रतिबिंबित मात्र करता है जबकि साहित्य सामयिक सत्य को भावी शुभत्व के निकष पर कसते हुए परिवर्तित रूप में प्रस्तुत कर समाज के उन्नयन का पथ प्रशस्त करता है। दर्पण का प्रतिबिम्ब निरुद्देश्य होता है जबकि साहित्य का उद्देश्य सर्व जन हिताय, सर्व जन सुखाय माना गया है। विविध विधाओं में सर्वाधिक संवेदनशीलता के कारण कविता यथार्थ और सत्य के सर्वाधिक निकट होती है। छन्दबद्ध हो या छन्दमुक्त कविता का चयन कवि अपनी रुचि अनुरूप करता है। बहुधा कवि प्रसंग तथा लक्ष्य पाठक/श्रोता के अनुरूप शिल्प का चयन करता है।
'मैं पानी बचाता हूँ' हिंदी कविता के समर्थ हस्ताक्षर राग तेलंग की छोटी-मध्यम कविताओं का पठनीय संग्रह है। बिना किसी भूमिका के कवि पाठकों को कविता से मिलाता है, यह उसकी सामर्थ्य और आत्म विश्वास का परिचायक है। पाठक पढ़े और मत बनाये, कोई पाठक के अभिमत को प्रभावित क्यों करे? यह एक सार्थक सोच है। इसके पूर्व 'शब्द गुम हो जाने के खतरे', 'मिट्टी में नमी की तरह', 'बाजार से बेदखल', 'कहीं किसी जगह कई चेहरों की एक आवाज़', कविता ही आदमी को बचायेगी' तथा 'अंतर्यात्रा' ६ काव्य संकलनों के माध्यम से अपना पाठक वर्ग बना चुके और साहित्य में स्थापित हो चुके राग तेलंग जी समय की नब्ज़ टटोलना जानते हैं। वे कहते हैं- 'अब नहीं कहता / जानता कुछ नहीं / न ही / जानता सब कुछ / बस / समझता हूँ कुछ-कुछ।' यह कुछ-कुछ समझना ही आदमी का आदमी होना है। सब कुछ जानने और कुछ न जानने के गर्व और हीनता से दूर रहने की स्थिति ही सृजन हेतु आदर्श है।
कवि अनावश्यक टकराव नहीं चाहता किन्तु अस्मिता की बात हो तो पैर पीछे भी नहीं हटाता। भाषा तो कवि की माँ है। जब भाषा की अस्मिता का सवाल हो तोवह पीछे कैंसे रह सकता है।
'अब अगर / अपनी जुबां की खातिर / छीनना ही पड़े उनसे मेरी भाषा तो / मुझे पछाड़ना ही होगा उन्हें '
काश यह संकल्प भारत के राजनेता कर सकते तो हिंदी जगवाणी हो जाती। तेलंग आस्तिकता के कवि हैं। तमाम युगीन विसंगतियों और सामाजिक विडंबनाओं के बावजूद वह मनुष्यता पर विश्वास रखते है। इसलिए वह लिखते हैं- 'मैं प्रार्थनाओं में / मनुष्य के मनुष्य रहने की / कामना करता हूँ। '
'लता-लता हैं और आशा-आशा' शीर्षक कविता राग जी की असाधारण संवेदनशीलता की बानगी है। इस कविता में वे लता, आशा, जगजीत, गुलज़ार, खय्याम, जयदेव, विलायत खां, रविशंकर, बिस्मिल्ला खां, अमजद अली खां, अल्लारक्खा खां, जाकिर हुसैन, बेगम अख्तर, फरीद खानम,परवीन सुल्ताना सविता देवी आदि को किरदार बनाकर उनके फन में डूबकर गागर में सागर भरते हुए उनकी खासियतों से परिचित कराकर निष्कर्षतः: कहते हैं- "सब खासमखास हैं / किसी का किसी से / कोई मुकाबला नहीं।"
यही बात इस संग्रह की लगभग सौ कविताओं के बारे में भी सत्य है। पाठक इन्हें पढ़ें, इनमें डूबे और इन्हें गुने तो आधुनिक कविता के वैशिष्ट्य को समझ सकेगा। नए कवियों के लिए यह पाठ्य पुस्तक की तरह है। कब कहाँ से कैसे विषय उठाना, उसके किस पहलू पर ध्यान केंद्रित करना और किस तरह सामान्य दिखती घटना में किस कोण से असाधारणता की तलाश कर असामान्य बात कहना कि पाठक-श्रोता के मन को छू जाए, पृष्ठ-पृष्ठ पर इसकी बानगी है। ग्रामीण क्षेत्रों में पत्र लेखन परंपरा में 'कम लिखे से ज्यादा समझना' की बानगी 'मार' शीर्षक कविता में देखें-
"देखना / बिना छुए / छूना है
सोचना / बिना पहुँचे / पहुँचना है
सोचकर देखना / सोचकर / देखना नहीं है
सोचकर देखो / फिर उस तक पहुँचो
गागर में सागर की तरह कविता में एक भी अनावश्यक शब्द न रहने देना और हर शब्द से कुछ न कुछ कहना राग तेलंग की कविताओं का वैशिष्ट्य है। उनके आगामी संकलन की बेसब्री से प्रतीक्षा की ही जाना चाहिए अन्यथा कविता की सामर्थ्य और पाठक की समझ दोनों पर प्रश्न चिन्ह लगने की आशंका होगी।
***
अभियंता, हाइकुकार, व्यंग्यकार, ग़ज़लकार आनंद पाठक को
जन्म दिवस की अनंत शुभ कामनायें
*
आनंद परमानंद पा रच माहिया हरते जिया
लिख व्यंग्य दें जिस पर उसी का हिला देते हैं हिया
लिख दें ग़ज़ल तो हो फसल भावों की बिन बरसात भी
कृपा है इन पर उसी की हुए ये जिसके ये पिया
३१-७-२०१६
***
कृति-चर्चा:
चीखती टिटहरी हाँफता अलाव : नवगीत का अनूठा रचाव
*
[कृति-विवरण: चीखती टिटहरी हाँफता अलाव, नवगीत संग्रह, डॉ. रामसनेहीलाल शर्मा 'यायावर', आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी सजिल्द जैकेट सहित, पृष्ठ १३१, १८०/-, वर्ष २०११, अयन प्रकाशन महरौली नई दिल्ली, नवगीतकार संपर्क: ८६ तिलक नगर, बाई पास मार्ग फीरोजाबाद २८३२०३, चलभाष ९४१२३ १६७७९, ई मेल: dr.yayavar@yahoo.co.in]
*
डॉ. रामसनेहीलाल शर्मा 'यायावर' ने मन पलाशवन, गलियारे गंध के तथा अँधा हुआ समय का दर्पण के पश्चात चीखती टिटहरी हाँफता अलाव शीर्षक से चौथा नवगीत संग्रह लेकर माँ शारदा के चरणों में समर्पित किया है. नवगीत दरबार पूरी दबंगता के साथ अपनी बात शिष्ट-शालीन-संस्कारिक शब्दावली में कहने में यायावर जी का सानी नहीं है. ठेठ भदेसी शब्दावली की अबूझता, शब्दकोशी क्लिष्ट शब्दों की बोझिलता तथा अंग्रेजी शब्दों की अनावश्यक घुसपैठ की जो प्रवृत्ति समकालीन नवगीतों में वैशिष्ट्य कहकर आरोपित की गयी है, डॉ. यायावर के नवगीत उससे दूर रहते हुए हिंदी भाषा की जीवंतता, सहजता, सटीकता, सरसता तथा छान्दसिकता बनाये रखते हुए पाठक-श्रोता का मर्म छू पाते हैं.
कवि पिंगल की मर्यादानुसार प्रथम नवगीत 'मातरम् मातरम्' वंदना में भी युगीन विसंगतियों को समाहित करते हुए शांति की कामना करता है: 'झूठ ही झूठ है / पूर्ण वातावरण / खो गया है कहीं / आज सत्याचरण / बाँटते विष सभी / आप, वे और मैं / बंधु बांधव सखा / भ्रातरम् भ्रातरम्' तथा 'हो चतुर्दिक / तेरे हंस की धवलिमा / जाय मिट / हर दिशा की / गहन कालिमा / बाँसुरीi में / नये स्वर / बजें प्रीति के / / शांति, संतोष, सुख / मंगलम् मंगलम्' . 'कालिमा' की तर्ज पर 'धवलिमा' शब्द को गढ़ना और उसका सार्थक प्रयोग करना यायावर जी की प्रयोगशील वृत्ति का परिचायक है.
श्रेष्ठ-ज्येष्ठ नवगीतकार डॉ. महेंद्र भटनागर ने ठीक ही परिलक्षित किया है: 'डॉ. यायावर के नवगीतों की सबसे बड़ी विशेषता है कि उनमें जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टि अपनायी गयी है. ये वातावरण की रिक्तता, मूल्यहीनता के घटाटोप अन्धकार के दुर्दमनीय फैलाव और निराशा के अछोर विस्तार से भले ही गीत का प्रारंभ करते हों परन्तु अंत सदैव आशावाद और आशावादी संदेश के साथ करते हैं.'
डॉ. यायावर हिंदी के असाधारण विद्वान, छंद शास्त्री, प्राध्यापक, शोध निदेशक होने के साथ-साथ नवदृष्टि परकता के लिये ख्यात हैं. वे नवगीत के संदर्भ में प्रचलित से हटकर कहते हैं: 'नवगीत खौलाती संवेदनाओं की वर्ण-व्यंजना है, दर्द की बाँसुरी पर धधकते परिवेश में भुनती ज़िंदगी का स्वर संधान है, वह पछुआ के अंधड़ में तिनके से उड़ते स्वस्तिक की विवशता है, अपशकुनी टिटहरियों की भुतहा चीखों को ललकारने का हौसला है, गिरगिटों की दुनिया में प्रथम प्रगीत के स्वर गुंजाने का भगीरथ प्रयास है, शर-शैया पर भीष्म के स्थान पर पार्थ को धार देनेवाली व्यवस्था का सर्जनात्मक प्रतिवाद है, अंगुलिमालों की दुनिया में बुद्ध के अवतरण की ज्योतिगाथा है, लाफ्टर चैनल के पंजे में कराहती चौपाई को स्वतंत्र करने का प्रयास है, 'मूल्यहन्ता' और 'हृदयहन्ता' समय की छाती पर कील गाड़ने की चेष्टा है, बुधिया के आँचल में डर-डर कर आते हुए सपनों को झूठी आज़ादी से आज़ाद करने का गुरुमंत्र है, ट्रेक्टर के नीचे रौंदे हुए सपनों के चकरोड की चीख है, झूठ के कहकहों को सुनकर लचर खड़े सच को दिया गया आश्वासन है और रचनाकार द्वारा किसी भी नहुष की पालकी न ढोने का सर्जनात्मक संकल्प है. वस्तुत: नवगीत समय का सच है.'
विवेच्य संग्रह के नवगीत सच की अभ्यर्थना ही नहीं करते, सच को जीवन में उतारने का आव्हान भी करते हैं:
'भ्रम ही भ्रम
लिखती रही उमर
आओ!
अब प्रथम प्रगीत लिखें
मन का अनहद संगीत लिखें' (संस्कारी छंद)
जनहित की पक्षधरता नवगीत का वैशिष्ट्य नहीं, उद्देश्य है. आम जन की आवाज़ बनकर नवगीत आसमान नहीं छूता, जमीन से अँकुराता और जमीन में जड़ें जमाता है. आपातकाल में दुष्यंत कुमार ने लिखा था: 'कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं / गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं'. यायावर का स्वर दुष्यंत से भिन्न नहीं है. वे विसंगति, किंकर्तव्यविमूढ़ता तथा आक्रोश तीनों मन:स्थितियों को नवगीतों में ढालते हैं:
विसंगति:
बुढ़िया के आँचल में / सपने आते डरे-डरे.
भकुआ बना हुआ / अपनापन / हँसती है चालाकी
पंच नहीं परमेश्वर / हारी / पंचायत में काकी
तुलसीचौरे पर दियना अब / जले न साँझ ढरे.' (महाभागवतजातीय छंद)
.
पैरों में जलता मरुथल है (संस्कारी छंद)
और पीठ पर चिथड़ा व्योम
हम सच के हो गए विलोम (तैथिक जातीय छंद)
.
आँगन तक आ पहुँची / रक्त की नदी
सूली पर लटकी है / बीसवीं सदी (महादेशिक जातीय छंद)
.
किंकर्तव्यविमूढ़ता:
हो गया गंदा / नदी का जल / यहाँ पर
डाँटती चौकस निगाहें / अब कहाँ पर? (त्रैलोक जातीय छंद)
घुन गयी वह / घाटवाली नाव / कोई क्या करे? (महाभागवतजातीय छंद)
.
चाँदनी में / जल रहे हैं पाँव / कोई क्या करे?
कट गया वट / कटा पीपल / कटी तुलसी
थी यहाँ / छतनार इमली / बात कल सी (त्रैलोक जातीय छंद)
अब हुई गायब / यहां की छाँव / कोई क्या करे? (महाभागवतजातीय छंद)
.
आव्हान :
भ्रम ही भ्रम / लिखती रही उमर
आओ! अब / प्रथम प्रगीत लिखें
मन का अनहद संगीत लिखें।
.
अर्थहीन कोलाहल में / हम वंशी नाद भरें
चलो, चलें प्रिय!
इस मौसम में / कुछ तो नया करें
.
यायावर जी रचित ' ऊर्ध्वगामी चिंतन से संपृक्त इन गीतों में जीवन अपनी पूर्ण इयत्ता के साथ जीवंत हो उठा है. ये गीत लोक जीवन के अनुभवों-अनुभूतियों एवं आवेगों-संवेगों के गीतात्मक अभिलेख हैं. ये गीत मानवीय संवेदनाओं की ऐसी अभिव्यंजना हैं जो मन के अत्यंत समीप आकर कोमल स्पर्श की अनुभूति कराते हैं.सहजता इन गीतों की विशिष्ट है और मर्मस्पर्शिता इनकी पहचान. प्राय: सभी गीत सहज अनुभूति के ताने-बाने से बने हुए हैं. वे कब साकार होकर हमसे बतियाते हुए मर्मस्थल को बेध जाते हैं, पता ही नहीं चलता।' वरिष्ठ समीक्षक दिवाकर वर्मा का यह मत नव नवगीतकारों के लिये संकेत है की नवगीत का प्राण कहाँ बसता है?
डॉ. यायावर के ये नवगीत लक्षणा शक्ति से लबालब भरे हैं. जीवंत बिम्ब विधान तथा सरस प्रतीकों की आधारशिला पर निर्मित नवगीत भवन में छांदस वैविध्य के बेल बूटों की मनोहर कलाकारी हृदयहारी है. यायावर जी का शब्द भण्डार समृद्ध होना स्वाभाविक है. असाधारण साधारणता से संपन्न ये नवगीत भाषिक संस्कार का अनुपम उदाहरण हैं. यायावर जी की विशेषता मिथकीय प्रयोगों के माध्यम से युगीन विसंगतियों को इंगित करने के साथ-साथ उनके प्रतिकार की चेतना उत्पन्न करना है.
कितने चक्रव्यूह / तोड़ेगा? / यह अभिमन्यु अकेला?
यह कुरुक्षेत्र / अधर्म क्षेत्र है / कलियुग का महाभारत
यहाँ स्वार्थ के / चक्रोंवाले / दौड़ रहे सबके रथ
छल, प्रपंच, दुर्बुद्धि / क्रोध का लगा हुआ है मेला
(यौगिक जातीय छंद)
.
डलहौजी की हड़पनीति / मौसम ने अपनायी
अपने खाली हाथों में यह ख़ामोशी आयी
(महाभागवत जातीय छंद)
.
एक मान्यता यह रही है कि किसी घटना विशेष पर प्रतिक्रियास्वरूप नवगीत नहीं रचा जाता। यायावर जी ने इस मिथ को तोडा है. इस संकलन में बहुचर्चित निठारी कांड, २००९ में मुंबई पर आतंकी हमले आदि पर रचे गये नवगीत मर्मस्पर्शी हैं.
काँप रहे हैं / गोली कंचे
इधर कटारी / उधर तमंचे
क्यों रोता है? / बोल कबीरा
कोमल कलियाँ / बनी नसैनी
नर कंकाल / कुल्हाड़ी पैनी
भोले सपने / हँसी दूधिया
अट्टहास कर / हँसता बनिया
आँख जलाकर / बना ममीरा
(वासव जातीय छंद)
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अर्थहीन / शब्दों की तोपें / लिए बिजूके
शब्दबेध चौहानी धनु के / चूके-चूके
शांति कपोत / बंद आँख से करें प्रतीक्षा
रक्त पियें मार्जार / उड़े / सतर्क प्रतिहिंसक
(महावतारी जातीय छंद)
( यहाँ 'आँख' में वचन दोष है, 'आँखों' होना चाहिए)
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चंद्रपाल शर्मा 'शीलेश' के अनुसार 'संगीत से सराबोर इन गीतों का हर चरण भारतीय संस्कृति और लोक रस का सरस प्रक्षेपण करता है. नई प्रयोगधर्मिता, लक्षणा से भरपूर विचलन, जीवंत बिम्बात्मकता, रसात्मक प्रतीकात्मकता तथा राग-रागिनियों से हाथ मिलाता हुआ छंद विधान इन गीतों की साँसों का सञ्चालन करते हैं.''
यायावर जी ने दोहा नवगीत का भी प्रयोग किया है. इसमें वे मुखड़ा दैशिक जातीय छंद का रखते हैं जबकि अंतरे एक दोहा रखकर, पदांत में मुखड़े की समतुकान्ती देशिक जातीय गीत-पंक्ति रखते हैं:
न युद्ध विराम है / सतत संग्राम है (दैशिक जातीय छंद)
बाहर-बाहर कुटिल रास, भीतर कुटिल प्रहार
मिला ज़िंदगी से हमें, बस इतना उपहार (दोहा)
न खनिक विराम है / सतत संग्राम है (दैशिक जातीय छंद)
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यायावर जी का शब्द-भण्डार समृद्ध है. इन नवगीतों में तत्सम शब्द: चीनांशुक, अभीत, वातायन, मधुयामिनी, पिपिलिकाएँ, अंगराग, भग्न चक्र, प्रत्यंचा, कंटकों, कुम्भज, पोष्य, परिचर्या, स्वयं आदि, तद्भव शब्द: सांस, दूध, सांप, गाँव, घर, आग आदि, देशज शब्द: सुअना, मछुआरिन, कित्ता, रचाव, समंदर, चूनर, मछरी, फोटू, बुड़बक, जनम, बबरीवन, पीपरपांती, सतिया, कबिरा, ढूह, ढैया, मड़ैया, तलैया आदि शब्द-युग्म: छप्पर-छानी, शब्द-साधना, ऐरों-गैरों, नाम-निशान, मंदिर-मस्जिद, गत-आगत, चमक-दमक, काक-राग, सृजन-मंत्र, ताने-बाने, रवि-शशि, खिले-खिलाये, ताता-थैया, लय-ताल, धूल-धूसरित, भूखी-प्यासी, छल-बल आदि उर्दू शब्द: अमीन, ऐरे-गैरे-नत्थू खैरे, काबिज़, परचम, फ़िज़ाओं, मजबूरी, तेज़ाबी, सड़के, ममीरा, फ़क़ीरा, रोज़, दफ्तर, फौजी, निजाम आदि, अंग्रेजी शब्द: बैंक-लॉकर, ओवरब्रिज, बूट, पेंटिंग, लिपस्टिक, ट्रैक्टर, बायो गैस, आदि पूरी स्वाभाविकता से प्रयोग हुए हैं. एक शब्द की दो आवृत्तियाँ सहज द्रष्टव्य हैं. जैसे: डरे-डरे, राम-राम, पर्वत-पर्वत, घाटी-घाटी, चूके-चूके, चुप-चुप, प्यासी-प्यासी, पकड़े-पकड़े, मारा-मारा, अकड़े-अकड़े, जंगल-जंगल, बित्ता-बित्ता, सांस-सांस आदि.
यायावर जी ने पारम्परिक गीत और छंद के शिल्प और कलेवर में प्रयोग किये हैं किन्तु मनमानी नहीं की है. वे गीत और छंद की गहरी समझ रखते हैं इसलिए इन नवगीतों का रसास्वादन करते हुए सोने में सुगंध की प्रतीति होती रहती है.
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हास्य सलिला:
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लालू जी बाजार गये, उस दिन लाली के साथ
पल भर भी छोड़ा नहीं, थे लिये हाथ में हाथ
हो खूब' थ था हुआ चमत्कृत बोला: 'तुम हो खूब
दिन भर भउजी के ख्याल में कैसे रहते डूब?
इतनी रहती फ़िक्र न करते पल भर को भी दूर'
लालू बोले: ''गलत न समझो, हूँ सचमुच मजबूर
गर हाथ छोड़ा तो मेरी आ जाएगी शामत
बिना बात क्यों कहो बुलाऊँ खुदही अपनी आफत?
जैसे छोड़ा हाथ खरीदी कर लेगी यह खूब
चुका न पाऊँ इतने कर्जे में जाऊँगा डूब''
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मुक्तिका:
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कैसा लगता काल बताओ
तनिक मौत को गैर लगाओ
मारा है बहुतों को तड़पा
तड़प-तड़पकर मारे जाओ
सलमानों के अरमानों की
चिता आप ही आप जलाओ
समय न माफ़ करेगा तुमको
काम देश के अगर न आओ
३१-७-२०१५
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हास्य रचना
स्वादिष्ट निमंत्रण
तुहिना वर्मा 'तुहिन'
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''खट्टे-मिट्ठे जिज्जाजी को चटपटी साली जी यानी आधी घरवाली जी की ताज़ा-ताज़ा गरमागरम मीठी-मीठी नमस्ते।
यह कुरकुरी पाती पाकर आपके मन में पानी - बतासे की तरह मोतीचूर के लड्डू फूटने लगेंगे क्योंकि हम आपको आपकी ससुराल में तशरीफ़ लाने की दावत दे रहे हैं।
मौका? अरे हुजूर मौका तो ऐसा है कि जो आए वो भी पछताए...जो न आए वह भी पछताए क्योंकि आपकी सिर चढ़ी सिरफिरी साली इमरतिया की शादी यानी बर्बादी का जश्न बार-बार तो होगा नहीं।
ये रसमलाई जैसा मिठास भरा रिश्ता पेड़ा शहर, कचौड़ी नगर के खीरपुर मोहल्ले के मोटे-ताजे सेठ समोसामल मिंगौड़ीलाल के हरे-भरे साहिबजादे, खीरमोहन सिवईं प्रसाद के साथ होना तय हुआ है।
चाँदनी चौक में चमचम चाची को चाँदी की चमचमाती चम्मच से चिरपिरी चटनी चटाकर चर्चा में आ चुके चालू चाचा अपने आलूबंडे बेटे और भाजीबड़ा बिटिया के साथ चटखारे लेते हुए यहाँ आकर डकार ले रहे हैं।
जलेबी जिज्जी, काजू कक्का, किशमिश काकी, बादाम बुआ, फुल्की फूफी, छुहारा फूफा, चिरौंजी चाची, चिलगोजा चाचा, मखाना मौसा, मुसम्बी मौसी, दहीबड़ा दादा, दाल-भात दादी, आज गुलाब जामुन-मैसूरपाग एक्सप्रेस से आइसक्रीम खाते हुए, अखरोटगंज स्टेशन पर उतरेंगे।
रसमलाई धरमशाला में संदेश बैंड, बर्फी आर्केस्ट्रा, सिवईया बानो की कव्वाली, बूंदी बेगम का मुजरा, आपको दिल थामकर आहें भरने पर मजबूर कर देगा।
शरबती बी के बदबख्त हाथों से विजया भवानी यानी भांग का भोग लगाकर आप पोंगा पंडित की तरह अंगुलियाँ चाटते हुए कार्टून या जोकर नजर आयेंगे. पत्थर हज़म हजम हाजमा चूर्ण, मुंह जलाऊ मुनक्का बाटी के साथ मीठे मसालेवाला पान और नशीला पानबहार लिये आपके इन्तेज़ार में आपकी नाक में दम करनेवाली रस की प्याली
-- रबडी मलाई
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शनिवार, 31 जुलाई 2021

पंकज परिमल की याद में माहिए

पंकज परिमल की याद में माहिए
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पंकज परिमल खोकर
नवगीत उदास हुआ
पिंजरे से उड़ा सुआ।
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जीवट का रहा धनी
थी जिजीविषा अद्भुत
पंकज था धुनी गुनी।
*
नवगीत मिसाल बने
भाषिक-शैल्पिक नव दृष्टि
नव रूपक-बिंब घने।
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बिन पंकज हो श्रीहीन
करता है याद सलिल
टूटी सावन में बीन।
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नवगीत सुनेंगे इंद्र
दे शुभाशीष तुमको
होंगे खुश बहुत रवींद्र।
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अपनी मिसाल तुम आप
छू पाए अन्य नहीं
तव सुयश सका जग व्याप।
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भावांजलि लिए सलिल
चुप अश्रुपात करता
खो पंकज दिल दुखता
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