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बुधवार, 22 अक्टूबर 2025

अक्टूबर २२, हास्य, मुक्तक, दोहा, लघुकथा, रिपोर्ताज, गीत, ग़ज़ल, कुण्डलिया, गोवर्धन

सलिल सृजन अक्टूबर २२
ग़ज़ल 
० 
गो वर्धन कर हों समृद्ध हम
विश्व नीड़ बन मिटा सकें तम
.
है कुटुंब सब वसुधा अपनी
हो सद्भाव न किंचित् भी कम
.
हर भाषा शारद-स्वरूप है
शब्द-शब्द भावों का हमदम
.
'गो' जाना, निर्यात-प्रवासन
'वर्धन' करें वृद्धि हरकर गम
.
युग अनुकूल बना निज भाषा
रहें स्वदेशी चमकें चम-चम
.
रुपया हो डॉलर से मँहगा
ट्रम्प ट्रम्प खो झेले मातम
.
भारत का हर नर 'नरेंद्र' हो
'निवेदिता' हो पग में पश्चिम
.
रीति-नीति है प्रीति हमारी
शक्ति साथ, अन्यायी को यम
.
हों संजीव जीव सब जग में
मार निशाचर आँख न हो नम
२२.१०.२०२५
०००
हास्य रचना
'भागवान! तू शक्कर होती
तो बेहतर होता,
कड़वीवाणी नहीं
बोल मीठे सुनकर जीता।'
पति की बात सुनी पत्नी ने
सोच-समझ झट बोली-
''प्राणनाथ! तुम मनुज न होकर
गर अदरक हो जाते
कूट डालती रोज चाय में
हर मेहमां पीता।''
•••
कुंडलिया

मंगल पर दंगल करें, चलो फाँदकर चाँद।
देख मिसाइल भीत हो, सूर्य छिपे जा माँद।।
सूर्य छिपे जा माँद, दसों दिस हो अँधियारा।
दहशतगर्दी साँड़ कहें, हँस मैदां मारा।।
धरती को शमशान, कर रहा आदम हर पल।
हुआ आप शैतान, सृष्टि का करें अमंगल।।
२२.१०.२४
•••
मानस विमर्श - मासपारायण २
*
शुभ कंचन वसुदेव का, जिसने पाया साथ।
भव सागर से तर गया, इंदिरा तजे न हाथ।।
*
छाया में श्री राम की, मिले विभा मिट क्लेश।
सरला छवि है सिया की, वसुधा वरे हमेश।।
*
दीदी ज्ञानेश्वरी जहाँ, वहाँ सर्व कल्याण।
भाव-बाधा को दूर कर, फूकें मृत में प्राण।।
*
जो है दास मुकुंद का, उसके शंकर इष्ट।
वरता पंथ अद्वैत का, होते नष्ट अनिष्ट।।
*
मिलती राम चरित्र में, सकल सृष्टि; हर तत्व।
सब कलि-मल का नाश हो, मिलता जीवन सत्व।।
*
राम कथा महिमा अमित, शाप बने वरदान।
राम नाम गाता रहे, आत्म बने रसखान।।
*
आशुतोष गुरु सृष्टि के, हैं श्रद्धा पर्याय।
उमा शुद्ध विश्वास हैं, जो समझे तर जाय।।
*
गागर में सागर लिए, मानस-तुलसीदास।
जो अंजुरी भर पी सके, वही जीव है ख़ास।।
*
राम कथा शुचि नर्मदा, है वर्मदा पुनीत।
सुनिए गुनिए धर्मदा, पढ़ शर्मदा विनीत।।
*
ज्ञानेश्वरी जी स्नेह की, अमिय नर्मदा धार।
जो पाए आशीष वह, हो जाए भव पार।।
*
वक्ता-श्रोता-काल त्रय, ज्ञान-कर्म-विश्वास।
जगह नहीं संदेह को, श्रद्धा हरति त्रास।।
*
जन-मन के संदेह का, निराकरण है इष्ट।
तुलसी ने कहकर कथा, मेटे सकल अनिष्ट।।
*
कैसा युग निर्माण हो, है यह अपने हाथ।
मानस को रख ह्रदय में, शिव सम्मुख नत माथ।।
*
मानस मानस में बसे, जन-मन हो तब धन्य।
मुकुल मना सरला मति, भज ले राम अनन्य।।
*
निराकार-साकार जो, अकथ-अनादि-अनंत।
निर्गुण-सगुण न दो हुए, एक सादि अरु सांत।।
*
भेद न अंतर है कहीं, आँख खोलकर देख।
तभी मिटे संदेह की, मन से धूमिल रेख।।
*
पूरी करते कामना, सदा भक्त की राम।
'रा'ज रहे जो 'म'ही पर, जिनका नहीं विराम।।
*
जो राक्षस मारें सतत, वे ही राम अकाम।
जिनकी छवि अभिराम है, वे मनमोहक राम।।
*
नामोच्चारण ज्ञान दे, पाप मिटाए ध्यान।
वैदेही-देही मिले, संत करें गुणगान।।
*
जिज्ञासा मैया सती, श्रद्धा उमा न भूल।
पूरक दोनों जानिए, ज्यों कलिका अरु फूल।।
२२-१०-२०२२
***
तीन मुक्तक-
*
मौजे रवां१ रंगीं सितारे, वादियाँ पुरनूर२ हैं
आफ़ताबों३ सी चमकती, हक़ाइक४ क्यों दूर हैं
माहपारे५ ज़िंदगी की बज्म६ में आशुफ्ता७ क्यों?
फिक्रे-फ़र्दा८ सागरो-मीना९ फ़िशानी१० सूर हैं
१. लहरें, २. प्रकाशित, ३. सूरजों, ४. सचाई (हक़ का बहुवचन),
५. चाँद का टुकड़ा, ६. सभा, ७. विकल, ८. अगले कल की चिंता,
९. शराब का प्याला-सुराही, १०. बर्बाद करना, बहाना।
*
कशमकश१ मासूम२ सी, रुखसार३, लब४, जुल्फें५ कमाल६
ख्वाब७ ख़ालिक८ का हुआ आमद९, ले उम्मीदो-वसाल१०
फ़खुर्दा११ सरगोशियाँ१२, आगाज़१३ से अंजाम१४ तक
माजी-ए-बर्बाद१५ हो आबाद१६ है इतना सवाल१७
१. उलझन, २. भोली, ३. गाल, ४. होंठ, ५. लटें, ६. चमत्कार, ७. स्वप्न,
८. उपयोगकर्ता, ९. साकार, १०. मिलन की आशा, ११. कल्याणकारी,
१२. अफवाहें, १३. आरम्भ, १४. अंत, १५. नष्ट अतीत, १६. हरा-भरा, १७. माँग।
*
गर्द आलूदा१ मुजस्सम२ जिंदगी के जलजले३
मुन्जमिद४ सुरखाब५ को बेआब६ कहते दिलजले७
हुस्न८ के गिर्दाब९ में जा कूदता है इश्क़१० खुद
टूटते बेताब११ होकर दिल, न मिटते वलवले१२
१. धुल धूसरित, २. साकार, ३. भूकंप, ४. बेखर, ५. दुर्लभ पक्षी,
६. आभाहीन, ७. ईर्ष्यालु, ८. सौन्दर्य, ९. भँवर, १०. प्रेम, ११. बेकाबू,
१२. अरमान।
***
***
दोहा सलिला
*
जूही-चमेली देखकर, हुआ मोगरा मस्त
सदा सुहागिन ने बिगड़, किया हौसला पस्त
*
नैन मटक्का कर रहे, महुआ-सरसों झूम
बरगद बब्बा खाँसते। क्यों? किसको मालूम?
*
अमलतास ने झूमकर, किया प्रेम-संकेत
नीम षोडशी लजाई, महका पनघट-खेत
*
अमरबेल के मोह में, फँसकर सूखे आम
कहे वंशलोचन सम्हल, हो न विधाता वाम
*
शेफाली के हाथ पर, नाम लिखा कचनार
सुर्ख हिना के भेद ने, खोदे भेद हजार
*
गुलबकावली ने किया, इन्तिज़ार हर शाम
अमन-चैन कर दिया है,पारिजात के नाम
*
गौरा हेरें आम को, बौरा हुईं उदास
मिले निकट आ क्यों नहीं, बौरा रहे उदास?
*
बौरा कर हो गया है, आम आम से ख़ास
बौरा बौराये, करे दुनिया नहक हास
***
२०-६-२०१६
lnct jabalpur
***
पुस्तक सलिला –
‘प्रेरक अर्थपूर्ण कथन एवं सूक्तियाँ’ सर्वोपयोगी कृति
आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
*
[पुस्तक विवरण – प्रेरक अर्थपूर्ण कथन एवं सूक्तियाँ, हीरो वाधवानी, हिंदी सूक्ति संग्रह, प्रथम संस्करण २०१६, ISBN९७८-८१-९२२००७०-६-९, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी, पेपरबैक, पृष्ठ १४४, मूल्य३००/-, राघव प्रकाशन ए ३२ जनता कालोनी, जयपुर]
*
मानव-जीवन में एक-दूसरे के अनुभवों से लाभ उठाने और अपने आचार-विचार को नियंत्रित करने की परंपरा चिरकाल से है. आरम्भ में बड़े-बुजुर्ग, समझदार व्यक्ति या गुरु से जीवन-सूत्र मिला करते करते थे. लिपि के आविष्कार के पश्चात लिखित विचार विनिमय संभव हो सका. घाघ-भड्डरी आदि की कहावतें, लोकोक्तियाँ वाचिक तथा लिखित दोनों रूपों में जनसामान्य का मार्गदर्शन करती रहीं. क्रमश: विचारकों तथा सुकवियों की काव्य पंक्तियाँ सार्वजनिक स्थलों पर अंकित करने के परिपाटी पुष्ट हुई. यांत्रिक मुद्रण ने स्वेड मार्टिन जैसे विदेशी विचारों की किताबों को भारत में लोकप्रियता दिलाई. संगणक और अंतर्जाल ने ब्लॉग चिट्ठों, ऑरकुट, फेसबुक, ट्विट्टर, वाट्स एप जैसे अंतरजाल स्थल सुलभ कराये हैं.
श्री हीरो वाधवानी वैचारिक अदान-प्रदान के लिए फेसबुक का नियमित उपयोग करते रहे हैं. तो से पांच पंक्तियों के विचार सूत्र समयाभाव तथा अति व्यस्तता की जीवन शैली में लिखने, पढ़ने, समझने के लिए सर्वथा उपयुक्त हैं. ‘अस्वस्थ शरीर, बुरी आदतें और द्वेष हमारी स्वयं की उपज हैं’ जैसे सद्विचार मानव-आचरण को नियंत्रित करते हैं. ‘असफलता से सफलता वर्षों की तरह दूर नहीं होती’ पढ़कर निराश मन नए सिरे से संघर्ष करने की प्रेरणा पा सकता है. ‘अच्छे इंसान पेड़ की तरह होते हैं, सबके काम आते हैं’ इस उद्धरण से अच्छा बनाने के लिए सबके काम आने तथा पेड़ न काटने के २ सद्विचार मिलते हैं.
आश्चर्यजनक किन्तु सत्य, अपूर्णता, भावना, एकता और मेलजोल, परिश्रम, सादगी, समुद्र, उदासीनता, स्वास्थ्य, भीतर का दर्द आदि शीर्षकों में उद्धरणों को विभाजित किया गया है. कविता, लघुकथा आदि विधाओं का भी उपयोग किया गया है. हीरो जी की भाषा सहज बोधगम्य, सरस प्रसाद गुण संपन्न है. सामान्य पाठक कथ्य को सुगमता से ग्रहण कर लेता है.
‘सबसे अधिक धनी वह है जो स्वास्थ्य, संतुष्ट और सदाचारी है .’, ‘सभी ताले चाबी से नहीं खुलते. कुछ प्यार, विश्वास और सूझ-बूझ से भी खुलते हैं.’, ‘परिश्रम सभी समस्याओं का हल है.’, ‘परिश्रम परस पत्थर और अलादीन का चिराग है. जैसे कथन हर मनुष्य के मन को छू पाते हैं.
पुस्तक की छपाई सुरुचिपूर्ण है, पाठ्य शुद्धि सावधानी से की गयी है. आवरण चित्र धरती को हरी चादर उढ़ाने की प्रेरणा देता है. यह पुस्तक घरों में रखने और उपहार देने के लिए सर्वथा उपयुक्त है. श्री हीरो वाधवानी को इस सर्वोपयोगी कृति को सामने लाने के लिए शुभकामनाएँ.
संपर्क- आचार्य संजीव वर्मा’सलिल’, २०४ वोजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.
पुस्तक सलिला –
‘रात अभी स्याह नहीं’ आशा से भरपूर गजलें
आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
*
[पुस्तक विवरण – रात अभी स्याह नहीं, अरुण अर्णव खरे, हिंदी गजल संग्रह, प्रथम संस्करण २०१५, ISBN९७८-८१-९२५२१८-५-५, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी, पेपरबैक, पृष्ठ ८०, मूल्य १५०/-, गुफ्तगू प्रकाशन१२३ ए /१, ७ हरवारा, धूमनगंज, इलाहाबाद२११०११, दूरभाष ०७५५ ४२४३४४५, रचनाकार सम्पर्क – डी १/३५ दानिश नगर, होशंगाबाद मार्ग भोपाल २६, चलभाष ९८९३००७७४४]
*
मानव और अमानव के मध्य मूल अंतर अनुभूतियों को व्यवस्थित तरीके से व्यक्त कर पण और न कर पाना है. अनुभूतियों को व्यक्त करने का माध्यम भाषा है. गद्य और पद्य दो विधाएँ हैं जिनके माध्यम से अनुभूति को व्यक्त किया जाता है. आरम्भ में वाचिक अभिव्यक्ति ही अपनी बात प्रस्तुत करने का एक मात्र तरीका था किंतु लिपि विकसित होने के साथ-साथ अभिव्यक्ति का अंकन भी संभव हो सका. क्रमश: व्याकरण और पिंगल का विकास हुआ. पिंगल ने विविध पद्य प्रारूपों और छंदों को वर्गीकृत कर लेखन के नियमादि निर्धारित किये. विद्वज्जन भले ही लेखन का मूल्यांकन नियम-पालन के आधार पर करें, जनगण तो अनुभूतियों की अभिव्यक्ति और व्यक्त अनुभूतियों की मर्मस्पर्शिता को ही अधिक महत्व देता है. ‘लेखन के लिए नियम’ या ‘नियम के लिए लेखन’? ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता’ की तरह इस विमर्श का भी कोई अंत नहीं है.
विवेच्य कृति ‘रात अभी स्याह नहीं’ गजल शिल्प की अभिव्यक्ति प्रधान ७० रचनाओं तथा कुछ दोहों को समेटे है. रचनाकार अभियंता अरुण अर्णव खरे अनुभूति के प्रागट्य को प्रधान तथा शैल्पिक विधानों को द्वितीयिक वरीयता देते हुए, हिंदी के भाषिक संस्कार के अनुरूप रचना करते हैं. गजल कई भाषाओँ में लिखी जानेवाली विधा है. अंग्रेजी, जापानी, जर्मन, रुसी, चीनी, तमिल, तेलुगु आदि भाषाओँ में गजल लिखी जाते समय तुकांत-पदांत के उच्चारण साम्य को पर्याप्त माना जाता है किन्तु हिंदी गजल की बात सामने आते ही अरबी-फारसी के अक्षरों, व्याकरण-नियमों तथा मान्यताओं के निकष पर मूल्यांकित कर विवेचक अपनी विद्वता और रचनाकार की असामर्थ्य प्रमाणित करने का प्रयास करते हैं. अरुण जी आत्म-कथन में नम्रतापूर्वक किन्तु स्पष्टता के साथ अनुभवों की अभिव्यक्ति से प्राप्त आत्म-संतोष को अपने काव्य-लेखन का उद्देश्य बताते हैं.
डॉ.राहत इंदौरी के अनुसार ‘शायरी के बनाए हुए फ्रेम और ग्रामर पर वो ज्यादा तवज्जो नहीं देते’. यह ग्रामर कौन सा है? अगर उर्दू का है तो हिंदी रचनाकार उसकी परवाह क्यों करे? यदि हिंदी का है तो उसका उल्लंघन कहाँ-कितना है? यह उर्दू शायर नहीं हिंदी व्याकरण का जानकार तय करेगा. इम्त्याज़ अहमद गाज़ी नय्यर आक़िल के हवाले से हिन्दीवालों पर ‘गज़ल के व्याकरण का पालन करने में असफल’ रहने का आरोप लगते हैं. हिंदीवाले उर्दू ग़ज़लों को हिंदी व्याकरण और पिंगल के निकष पर कसें तो वे सब दोषपूर्ण सिद्ध होंगी. उर्दू में तक्तीअ करने और हिंदी में मात्र गिनने की नियम अलग-अलग हैं. उर्दू में मात्रा गिराने की प्रथा को हिंदी में दोष है. हिंदी वर्णमाला में ‘ह’ की ध्वनि के लिए केवल एक वर्ण ‘ह’ है उर्दू में २ ‘हे’ और ‘हम्ज़ा’. दो पदांतों में दो ‘ह’ ध्वनि के दो शब्द जिनमें ‘हे’ और ‘हम्ज़ा’ हों का प्रयोग हिंदी व्याकरण के अनुसार सही है जबकि उर्दू के अनुसार गलत. हिंदी गजलकार से उर्दू-अरबी-फारसी जानने की आशा कैसे की जा सकती है?
अरुण जी की हिंदी गज़लें रस-प्रधान हैं –
सपनों में बतियानेवाले, भला बता तू कौन,
मेरी नींद चुरानेवाले, भला बता तू कौन.
बेटी’ पर २ रचनाओं में उनका वात्सल्य उभरता है-
मुझको होती है सचमुच हैरानी बेटी
इतनी जल्दी कैसे हुई सयानी बेटी?
*
गीत राग संगीत रागिनी
वीणा और सितार बेटी
सामाजिक जीवन में अनुत्तरदायित्वपूर्ण आचरण को स्वविवेक तथा आत्म-संयम से ही नियंत्रित किया जा सकता है-
मस्ती-मस्ती में दिल की मर्यादा बनी रहे
लेनी होगी तुमको भी यह जिम्मेदारी फाग में
अरुण जी की विचारप्रधानता इन रचनाओं में पंक्ति-पंक्ति पर मुखर है. वे जो होते देखते हैं, उसका मूल्यांकन कर प्रतिक्रिया रूप में कवू कविता रचते हैं. छंद के तत्वों (रस, मात्राभार, गण, अलंकार, बिम्ब, प्रतीक) आदि का सम्यक संतुलन उनकी रचनाओं में रवानगी पैदा करेगा. उर्दू के व्यामोह से मुक्त होकर हिंदी छ्न्दाधारित रचनाएँ उन्हें सहज-साध्य और सरस अभिव्यक्ति में अधिक प्रभावी बनाएगी. सहज भावाभिव्यक्ति अरुण जी की विशेषता है.
तुमने आँखों के इशारे से बुलाया होगा
तब ही वह खुद में सिमट, इतना लजाया होगा
खोल दो खिड़कियाँ ताज़ी हवा तो आये, बिचारा बूढ़ा बरगद बड़ा उदास है, ऊँचा उठा तो जमीन पर फिर लौटा ही नहीं, हर बात पर बेबाकी अच्छी नहीं लगती अदि अभिव्यक्तियाँ सम्बव्नाओं की और इंगित करती हैं.
परिशिष्ट के अंतर्गत बब्बा जी, दादी अम्मा, मम्मी, पापा और भैया से साथ न होकर बेटी सबसे विशिष्ट होने के कारण अलग है.
फूलों-बीच छिड़ी बहस, किसका मोहक रूप
कौन-कौन श्रंगार के, पूजा के अनुरूप
*
सांस-सांस केसर घुली, अंग-अंग मकरंद
अनपढ़ मन कहने लगा, गीत गजल और छंद
अरुण जी के दोहे अधिक प्रभावी हैं. अधिक लिखने पर क्रमश: निखार आयेगा.
संपर्क आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com
मुक्तक
*
नेहा हों श्वास सभी
गेहा हो आस सभी
जब भी करिये प्रयास
देहा हों ख़ास सभी
*
अरिमर्दन सौमित्र कर सके
शक-सेना का अंत कर सके
विश्वासों की फसल उगाये
अंतर्मन को सन्त कर सके
*
विश्व दीपक जलाये, तज झालरों को
हँसें ठेंगा दिखा चीनी वानरों को
कुम्हारों की झोपड़ी में हो दिवाली
सरहदों पर मार पाकी वनचरों को
*
काले कोटों को बदल, करिये कोट सफेद
प्रथा विदेश लादकर, तनिक नहीं क्यों खेद?
न्याय अँधेरा मिटाकर दे उजास-विश्वास
हो अशोक यह देश जब पूजा जाए स्वेद
*
मिलें इटावा में 'सलिल' देव और देवेश
जब-जब तब-तब हर्ष में होती वृद्धि विशेष
धर्म-कर्म के मर्म की चर्चा होती खूब
सुन श्रोता के ज्ञान में होती वृद्धि अशेष
*
मोह-मुक्ति को लक्ष्य अगर पढ़िए नित गीता
मन भटके तो राह दिखा देती परिणिता
श्वास सार्थक तभी 'सलिल' जब औरों का हित
कर पाए कुछ तभी सार्थक संज्ञा नीता
*
हरे अँधेरा फैलकर नित साहित्यलोक
प्रमुदित हो हरश्वास तब, मिठे जगत से शोक
जन्में भू पर देव भी,ले-लेकर अवतार
स्वर्गादपि होगा तभी सुन्दर भारत-लोक
*
नलिनी पुरोहित हो प्रकृति-पूजन-पथ वरतीं
सलिल-धार की सकल तरंगे वन्दन करतीं
विजय सत्य-शिव-सुंदर की तब ही हो पाती
सत-चित-आनंद की संगति जब मन को भाती
*
कल्पना जब जागती है, तभी बनते गीत सारे
कल्पना बिन आरती प्रभु की पुजारी क्यों उतारे?
कल्पना की अल्पना घुल श्वास में नव आस बनती
लास रास हास बनकर नित नए ही चित्र रचती
*
***
लघुकथा
कर्तव्य और अधिकार
*
मैं उन्हें 'गुरु' कहता हूँ, कहता ही नहीं मानता भी हूँ। मानूँ क्यों नहीं, उनसे बहुत कुछ सीखा भी है। वे स्वयं को विद्यार्थी मानते हैं। मुझ जैसे कई नौसिखियों का गद्य-पद्य की कई विधाओं में मार्गदर्शन करते हैं, त्रुटि सुधारते हैं और नयी-नयी विधाएँ सिखाते हैं,सामाजिक-पारिवारिक कर्तव्य निभाने की प्रेरणा और नए-नए विचार देते हैं। आधुनिक गुरुओं के आडम्बर से मुक्त सहज-सरल
एक दिन सन्देश मिला कि उनके आवास पर एक साहित्यिक आयोजन है। मैं अनिश्चय में पड़ गया कि मुझे जाना चाहिए या नहीं? सन्देश का निहितार्थ मेरी सहभागिता हो तो न जाना ठीक न होगा, दूसरी ओर बिना आमंत्रण उपस्थिति देना भी ठीक नहीं लग रहा था। मन असमंजस में था।
इसी ऊहापोह में करवटें बदलते-बदलते झपकी लग गयी।
जब आँख खुली तो अचानक दिमाग में एक विचार कौंधा अगर उन्हें गुरु मानता हूँ तो गुरुकुल का हर कार्यक्रम मेरा अपना है, आमंत्रण की अपेक्षा क्यों? आगे बढ़कर जिम्मेदारी से सब कार्य सम्हालूँ। यही है मेरा कर्तव्य और अधिकार।
२२.१०.२०१६
***
एक सामयिक रचना:
अपना खून खून है
*
अपना खून
खून है भैया!
औरों का पानी।
*
हम नेता राजाधिराज हैं
लोकतंत्र के नायक
कोटि-कोटि जनता के हम
अलबेले भाग्य-विधायक
लूट तिजोरी भारत की
धन धरें विदेशों में हम
वसुधा को परिवार मानते
घपले अपने सायक
जनप्रतिनिधि बन
जनहित रौंदे
करने दो मनमानी
अपना खून
खून है भैया!
औरों का पानी।
*
दाल दलें सबकी छाती पर
जन्मसिद्ध अधिकार
सारा देश बेच दें पल में
प्यारा निज परिवार
मतदाता को भूखा मारें
मिटे न अपनी भूख
स्वार्थ साध,सर्वार्थ त्याग कर
हम करते उपकार
बेशर्मी-मोटी
चमड़ी है धन
पूँजी लासानी
अपना खून
खून है भैया!
औरों का पानी।
*
भले निकम्मी संतति
थोपें तुम पर कहकर चंदन
लोफर चोर मवाली को
दे टिकिट बना दें सज्जन
ताली बजा, वोट देना ही
जनगण का अधिकार
पत्रकार को हम खरीद लें
होगा महिमा-मंडन
भूखा मार,
राहतें बाँटें
जय बोलो, हम दानीअपना खून
खून है भैया!
औरों का पानी।
२२-१०-२०१५
***
नवगीत:
दीपमालिके!
दीप बाल के
बैठे हैं हम
आ भी जाओ
अब तक जो बीता सो बीता
कलश भरा कम, ज्यादा रीता
जिसने बोया निज श्रम निश-दिन
उसने पाया खट्टा-तीता
मिलकर श्रम की
करें आरती
साथ हमारे
तुम भी गाओ
राष्ट्र लक्ष्मी का वंदन कर
अर्पित निज सीकर चन्दन कर
इस धरती पर स्वर्ग उतारें
हर मरुथल को नंदन वन कर
विधि-हरि -हर हे!
नमन तुम्हें शत
सुख-संतोष
तनिक दे जाओ
अंदर-बाहर असुरवृत्ति जो
मचा रही आतंक मिटा दो
शक्ति-शारदे तम हरने को
रवि-शशि जैसा हमें बना दो
चित्र गुप्त जो
रहा अभी तक
झलक दिव्य हो
सदय दिखाओ
***
नवगीत:
डॉक्टर खुद को
खुदा समझ ले
तो मरीज़ को
राम बचाये
लेते शपथ
न उसे निभाते
रुपयों के
मुरीद बन जाते
अहंकार की
कठपुतली हैं
रोगी को
नीचा दिखलाते
करें अदेखी
दर्द-आह की
हरना पीर न
इनको भाये
अस्पताल या
बूचड़खाने?
डॉक्टर हैं
धन के दीवाने
अड्डे हैं ये
यम-पाशों के
मँहगी औषधि
के परवाने
गैरजरूरी
होने पर भी
चीरा-फाड़ी
बेहद भाये
शंका-भ्रम
घबराहट घेरे
कहीं नहीं
राहत के फेरे
नहीं सांत्वना
नहीं दिलासा
शाम-सवेरे
सघन अँधेरे
गोली-टॉनिक
कैप्सूल दें
आशा-दीप
न कोई जलाये
***
नव गीत:
कम लिखता हूँ
अधिक समझना
अक्षर मिलकर
अर्थ गह
शब्द बनें कह बात
शब्द भाव-रस
लय गहें
गीत बनें तब तात
गीत रीत
गह प्रीत की
हर लेते आघात
झूठ बिक रहा
ठिठक निरखना
एक बात
बहु मुखों जा
गहती रूप अनेक
एक प्रश्न के
हल कई
देते बुद्धि-विवेक
कथ्य एक
बहु छंद गह
ले नव छवियाँ छेंक
शिल्प
विविध लख
नहीं अटकना
एक हुलास
उजास एक ही
विविधकारिक दीप
मुक्तामणि बहु
समुद एक ही
अगणित लेकिन सीप
विषम-विसंगत
कर-कर इंगित
चौक डाल दे लीप
भोग
लगाकर
आप गटकना
२२-१०-२०१४
***
गीत:
कौन रचनाकार है?....
*
कौन है रचना यहाँ पर?,
कौन रचनाकार है?
कौन व्यापारी? बताओ-
क्या-कहाँ व्यापार है?.....
*
रच रहा वह सृष्टि सारी
बाग़ माली कली प्यारी.
भ्रमर ने मधुरस पिया नित-
नगद कितना?, क्या उधारी?
फूल चूमे शूल को,
क्यों तूल देता है ज़माना?
बन रही जो बात वह
बेबात क्यों-किसने बिगारी?
कौन सिंगारी-सिंगारक
कर रहा सिंगार है?
कौन है रचना यहाँ पर?,
कौन रचनाकार है?
*
कौन नट-नटवर नटी है?
कौन नट-नटराज है?
कौन गिरि-गिरिधर कहाँ है?
कहाँ नग-गिरिराज है?
कौन चाकर?, कौन मालिक?
कौन बन्दा? कौन खालिक?
कौन धरणीधर-कहाँ है?
कहाँ उसका ताज है?
करी बेगारी सभी ने
हर बशर बेकार है.
कौन है रचना यहाँ पर
कौन रचनाकार है?....
*
कौन सच्चा?, कौन लबरा?
है कसाई कौन बकरा?
कौन नापे?, कहाँ नपना?
कौन चौड़ा?, कौन सकरा?.
कौन ढांके?, कौन खोले?
राज सारे बिना बोले.
काज किसका?, लाज किसकी?
कौन हीरा?, कौन कचरा?
कौन संसारी सनातन
पूछता संसार है?
कौन है रचना यहाँ पर?
कौन रचनाकार है?
२२.१०.२०१०
***
रिपोर्ताज-
रिपोर्ताज गद्य-लेखन की एक विधा है। रिपोर्ताज फ्रांसीसी भाषा का शब्द है।
रिपोर्ट अंग्रेजी भाषा का शब्द है। रिपोर्ट किसी घटना के यथातथ्य वर्णन को कहते हैं। रिपोर्ट सामान्य रूप से समाचारपत्र के लिये लिखी जाती है और उसमें साहित्यिकता नहीं होती है। रिपोर्ट के कलात्मक तथा साहित्यिक रूप को रिपोर्ताज कहते हैं। रिपोर्ट का अर्थ सिर्फ़ सूचना देने तक ही सीमित भी किया जा सकता हैं, जबकि रिपोर्ताज हिंदी गद्य की एक प्रकीर्ण विधा हैं। इसके लेखन का भी एक विशिष्ट तरीका है। वास्तव में रेखाचित्र की शैली में प्रभावोत्पादक ढंग से लिखे जाने में ही रिपोर्ताज की सार्थकता है। आँखों देखी और कानों सुनी घटनाओं पर भी रिपोर्ताज लिखा जा सकता है। कल्पना के आधार पर रिपोर्ताज नहीं लिखा जा सकता है। घटना प्रधान होने के साथ ही रिपोर्ताज को कथातत्त्व से भी युक्त होना चाहिये। रिपोर्ताज लेखक पत्रकार तथा कलाकार दोनों होता है। रिपोर्ताज लेखक के लिये आवश्यक है कि वह जनसाधारण के जीवन की सच्ची और सही जानकारी रखे। तभी रिपोर्ताज लेखक प्रभावोत्पादक ढंग से जनजीवन का इतिहास लिख सकता है।यह किसी घटना को अपनी मानसिक छवि में ढालकर प्रस्तुत करने का तरीका है। रिपोर्ताज में घटना को कलात्मक और साहित्यिक रूप दिया जाता है। द्वितीय महायुद्ध में रिपोर्ताज की विधा पाश्चात्य साहित्य में बहुत लोकप्रिय हुई। विशेषकर रूसी तथा अंग्रेजी साहित्य में इसका प्रचलन रहा। हिन्दी साहित्य में विदेशी साहित्य के प्रभाव से रिपोर्ताज लिखने की शैली अधिक परिपक्व नहीं हो पाई है। शनैः-शनैः इस विधा में परिष्कार हो रहा है। सर्वश्री प्रकाशचन्द्र गुप्त, रांगेय राघव, प्रभाकर माचवे तथा अमृतराय आदि ने रोचक रिपोर्ताज लिखे हैं। हिन्दी में साहित्यिक, श्रेष्ठ रिपोर्ताज लिखे जाने की पूरी संभावनाएँ हैं।
रिपोर्ताज लिखते समय, इन बातों का ध्यान रखना चाहिए-
रिपोर्ताज में घटना प्रधान होना चाहिए, व्यक्ति नहीं।
रिपोर्ताज केवल वर्णनात्मक नहीं, कथात्मकता से भी युक्त होना चाहिए।
रिपोर्ताज में बहुमुखी कथ्य, चरित्र, संवाद, और प्रामाणिकता आवश्यक है।
रिपोर्ताज में भाषा और शैली प्रसंगानुकूल हो।
रिपोर्ताज के कुछ उदाहरण:
'लक्ष्मीपुरा' हिन्दी का पहला रिपोर्ताज माना गया है। इसका प्रकाशन सुमित्रानंदन पंत के संपादन में निकलने वाली 'रूपाभ' पत्रिका के दिसंबर, १९३८ ई. के अंक में हुआ था।
'भूमिदर्शन की भूमिका' शीर्षक रिपोर्ताज सन् १९६६ ई. में दक्षिण बिहार में पड़े सूखे से संबंधित है। यह रिपोर्ताज ६ टुकड़ों में ९ दिसम्बर १९६६ से लेकर १३ जनवरी १९६७ तक 'दिनमान' पत्र में छपा है।
हिंदी के प्रमुख रिपोर्ताज मे 'तूफानों के बीच' (रांगेय राघव), प्लाट का मोर्चा (शमशेर बहादुर सिंह), युद्ध यात्रा (धर्मवीर भारती) आदि हैं। कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर', विष्णु प्रभाकर, प्रभाकर माचवे, श्याम परमार, अमृतराय, रांगेय राघव तथा प्रकाश चन्द्र गुप्त आदि प्रसिद्ध रिपोर्ताजकार हैं
रिपोर्ट, किसी भी घटना का आंखों देखा वर्णन होता हैं। यह लिखित या मौखिक किसी भी रूप मे एवं भिन्न प्रारूप मे हो सकती हैं किंतु साहित्य के एक विशिष्ट प्रारूप मे लिखी गई रिपोर्ट को रिपोर्ताज कहा जाता हैं। रिपोर्ताज हिंदी पत्रकारिता से संबंधित विधा है।
रिपोर्ट किसी भी घटना का सिर्फ तथ्यात्मक वर्णन होता हैं, जबकि रिपोर्ताज घटना का कलात्मक वर्णन हैं।
रिपोर्ताज साहित्य के निश्चित प्रारूप मे लिखे जाते हैं ताकि इसको पढ़ते समय पाठकों की रुचि बनी रहे।
रिपोर्ट नीरस भी हो सकती हैं, जबकि रिपोर्ताज मे लेखन की कलात्मकता इसे सरस बना देती हैं।
रिपोर्ट के लेखन की शैली सामान्य होती हैं, जबकि रिपोर्ताज लेखन की विशिष्ट शैली उसकी विषयवस्तु मे चित्रात्मकता का गुण उत्पन्न कर देती हैं।
लेखन मे चित्रात्मकता, वह गुण होता हैं जिसके कारण रिपोर्ताज पढ़ते समय पाठकों के मस्तिष्क पटल पर घटना के चित्र उभरने लगते हैं। चित्रात्मकता पाठकों के कौतूहल को बढ़ा देती हैं, जिससे पाठक एक बार पढ़ना प्रारम्भ करने के बाद पूरा वृत्तांत पढ़कर ही चैन लेता हैं।
रिपोर्ताज, किसी घटना का रोचक एवं सजीव वर्णन होता हैं। लेखन में सजीवता एवं रोचकता उत्पन्न करने के लिए ही लेखक चित्रात्मक शैली का प्रयोग करते हैं।
सहसा घटित होने वाली अत्यन्त महत्वपूर्ण घटना ही इस विधा को जन्म देने का मुख्य कारण बन जाती है। रिपोर्ताज विधा पर सर्वप्रथम शास्त्रीय विवेचन श्री शिवदान सिंह चौहान ने मार्च 1941 मे प्रस्तुत किया था। हिन्दी मे रिपोर्ताज की विधा प्रारंभ करने का श्रेय हंस पत्रिका को है। जिसमें समाचार और विचार शीर्षक एक स्तम्भ की सृष्टि की गई। इस स्तम्भ मे प्रस्तुत सामग्री रिपोर्ताज ही होती हैं।
रिपोर्ताज का जन्म हिंदी में बहुत बाद में हुआ लेकिन भारतेंदुयुगीन साहित्य में इसकी कुछ विशेषताओं को देखा जा सकता है। उदाहरणस्वरूप, भारतेंदु ने स्वयं जनवरी, 1877 की ‘हरिश्चंद्र चंद्रिका’ में दिल्ली दरबार का वर्णन किया है, जिसमें रिपोर्ताज की झलक देखी जा सकती है। रिपोर्ताज लेखन का प्रथम सायास प्रयास शिवदान सिंह चौहान द्वारा लिखित ‘लक्ष्मीपुरा’ को मान जा सकता है। यह सन् 1938 में ‘रूपाभ’ पत्रिका में प्रकाशित हुआ। इसके कुछ समय बाद ही ‘हंस’ पत्रिका में उनका दूसरा रिपोर्ताज ‘मौत के खिलाफ ज़िन्दगी की लड़ाई’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ। हिंदी साहित्य में यह प्रगतिशील साहित्य के आरंभ का काल भी था। कई प्रगतिशील लेखकों ने इस विधा को समृद्ध किया। शिवदान सिंह चौहान के अतिरिक्त अमृतराय और प्रकाशचंद गुप्त ने बड़े जीवंत रिपोर्ताजों की रचना की।
रांगेय राघव रिपोर्ताज की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ लेखक कहे जा सकते हैं। सन् 1946 में प्रकाशित ‘तूफानों के बीच में’ नामक रिपोर्ताज में इन्होंने बंगाल के अकाल का बड़ा मार्मिक चित्रण किया है। रांगेय राघव अपने रिपोर्ताजों में वास्तविक घटनाओं के बीच में से सजीव पात्रों की सृष्टि करते हैं। वे गरीबों और शोषितों के लिए प्रतिबद्ध लेखक हैं। इस पुस्तक के निर्धन और अकाल पीड़ित निरीह पात्रों में उनकी लेखकीय प्रतिबद्धता को देखा जा सकता है। लेखक विपदाग्रस्त मानवीयता के बीच संबल की तरह खड़ा दिखाई देता है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के रिपोर्ताज लेखन का हिंदी में चलन बढ़ा। इस समय के लेखकों ने अभिव्यक्ति की विविध शैलियों को आधार बनाकर नए प्रयोग करने आरंभ कर दिए थे। रामनारायण उपाध्याय कृत ‘अमीर और गरीब’ रिपोर्ताज संग्रह में व्यंग्यात्मक शैली को आधार बनाकर समाज के शाश्वत विभाजन को चित्रित किया गया है। फणीश्वरनाथ रेणु के रिपोर्ताजों ने इस विधा को नई ताजगी दी। ‘)ण जल धन जल’ रिपोर्ताज संग्रह में बिहार के अकाल को अभिव्यक्ति मिली है और ‘नेपाली क्रांतिकथा’ में नेपाल के लोकतांत्रिक आंदोलन को कथ्य बनाया गया है।
अन्य महत्वपूर्ण रिपोर्ताजों में भंदत आनंद कौसल्यायन कृत ‘देश की मिट्टी बुलाती है’, धर्मवीर भारती कृत ‘युद्धयात्रा’ और शमशेर बहादुर सिंह कृत ‘प्लाट का मोर्चा’ का नाम लिया जा सकता है।
संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि अपने समय की समस्याओं से जूझती जनता को हमारे लेखकों ने अपने रिपोर्ताजों में हमारे सामने प्रस्तुत किया है। लेकिन हिंदी रिपोर्ताज के बारे में यह भी सच है कि इस विधा को वह ऊँचाई नहीं मिल सकी जो कि इसे मिलनी चाहिए थी।
***

सोमवार, 22 सितंबर 2025

सितंबर २२, दोहा, गाँधी, स्वर्ण चम्पा, सीता-राम, गीत, मुक्तक, श्रम-बुद्धि, बेटियाँ, हास्य, चना जोर गरम

सलिल सृजन सितंबर २२
स्वर्ण चम्पा
स्वर्ण चम्पा से सुवासित बाग 
सोनपरियाँ झुलसतीं ले आग 
० 
ज्योत्सना आकर रही है छेड़
जगाती है संत में अनुराग 
० 
फागुनी हैं हवाएँ मदमस्त
रंग ले आईं लगाएँ दाग 
० 
उषा किरणें लिपटतीं ले मोह
जलन से काला हुआ है काग 
० 
शीत छेदे बदन, मारे तीर  
सिहरता ज्यों डँस रहा हो नाग
० 
दामिनी हो कामिनी गिरती
बिन दिए कंधा रही है दाग 
० 
कर 'सलिल' में  स्नान हो शीतल      
नर्मदा को नमन कर झट जाग 
२२.९.२०२५
***
आव्हान गीत 
जागो माँ
*
जागो माँ! जागो माँ!!
*
सीमा पर अरिदल ने भारत को घेरा है
सत्ता पर स्वार्थों ने जमा लिया डेरा है
जनमत की अनदेखी, चिंतन पर पहरा है
भक्तों ने गाली का पढ़ लिया ककहरा है
सैनिक का खून अब न बहे मौन त्यागो माँ
जागो माँ! जागो माँ!!
*
जनगण है दीन-हीन, रोटी के लाले हैं
चिड़ियों की रखवाली, बाज मिल सम्हाले हैं
नेता के वसन श्वेत, अंतर्मन काले हैं
सेठों के स्वार्थ भ्रष्ट तंत्र के हवाले हैं
रिश्वत-मँहगाई पर ब्रम्ह अस्त्र दागो माँ
जागो माँ! जागो माँ!!
*
जन जैसे प्रतिनिधि को औसत ही वेतन हो
मेहनत का मोल मिले, खुश मजूर का मन हो
नेता-अफसर सुत के हाथों में भी गन हो
मेहनत कर सेठ पले, जन नायक सज्जन हो
राजनीति नैतिकता एक साथ पागो माँ
*
सीमा पर अरिदल ने भारत को घेरा है
सत्ता पर स्वार्थों ने जमा लिया डेरा है
जनमत की अनदेखी, चिंतन पर पहरा है
भक्तों ने गाली का पढ़ लिया ककहरा है
सैनिक का खून अब न बहे मौन त्यागो माँ
जागो माँ! जागो माँ!!
*
दोहा सलिला:
गाँधी के इस देश में...
संजीव 'सलिल'
गाँधी के इस देश में, गाँधी की जयकार.
सत्ता पकड़े गोडसे, रोज कर रहा यार..
गाँधी के इस देश में, गाँधी की सरकार.
हाय गोडसे बन गया, है उसका सरदार..
गाँधी के इस देश में, गाँधी की है मौत.
सत्य अहिंसा सिसकती, हुआ स्वदेशी फौत..
गाँधी के इस देश में, हिंसा की जय बोल.
बाहुबली नेता बने, जन को धन से तोल..
गाँधी के इस देश में, गाँधी की दरकार.
सिर्फ डाकुओं को रही, शेष कहें बेकार..
गाँधी के इस देश में, हुआ तमाशा खूब.
गाँधीवादी पी सुरा, राग अलापें खूब..
गाँधी के इस देश में, डंडे का है जोर.
खेल रहे हैं डांडिया, विहँस पुलिसिए-चोर..
गाँधी के इस देश में, अंग्रेजी का दौर.
किसको है फुर्सत करे, हिन्दी पर कुछ गौर..
गाँधी के इस देश में, बोझ हुआ कानून.
न्यायालय में हो रहा, नित्य सत्य का खून..
गाँधी के इस देश में, धनी-दरिद्र समान.
उनकी फैशन ये विवश, देह हुई दूकान..
गाँधी के इस देश में, 'सलिल 'न कुछ भी ठीक.
दुनिया का बाज़ार है, देश तोड़कर लीक..
*
नवगीत:
*
गाँधी को मारा
आरोप
गाँधी को भूले
आक्रोश
भूल सुधारी
गर वंदन कर
गाँधी को छीना
प्रतिरोध
गाँधी नहीं बपौती
मानो
गाँधी सद्विचार
सच जानो
बाँधो मत सीमा में
गाँधी
गाँधी परिवर्तन की
आँधी
स्वार्थ साधते रहे
अबोध
गाँधी की मत
नकल उतारो
गाँधी को मत
पूज बिसारो
गाँधी बैठे मन
मंदिर में
तन से गाँधी को
मनुहारो
कर्म करो सत
है अनुरोध
***
हास्य रचना:
सीता-राम
*
लालू से
कालू मिला,
खुश हो किया सलाम।
बोला-
"जोड़ी जँच रही
जैसे सीता-राम।
लालू बोला-
सच?
न क्यों, रावण हरता बोल?
समा न लेती भू कहो,
क्यों लाकर भूडोल??
२२.९.२०१८
***
एक गीत,
*
अनसुनी रही अब तक पुकार
मन-प्राण रहे जिसको गुहार
वह आकर भी क्यों आ न सका?
जो नहीं सका पल भर बिसार
*
वह बाहर हो तब तो आए
मनबसिया भरमा पछताए
जो खुद परवश ही रहता है
वह कैसे निज सुर में गाए?
*
जब झुका दृष्टि मन में देखा
तब उसको नयनों ने लेखा
जग समझ रहा हम रोये हैं
सुधियाँ फैलीं कज्जल-रेखा
*
बिन बोले वह क्या बोल गया
प्राणों में मिसरी घोल गया
मैं रही रोकती लेकिन मन
पल भर न रुका झट डोल गया
*
जिसको जो कहना है कह ले
खुश हो यो गुपचुप छिप दह ले
बासंती पवन झकोरा आ
मेरी सुधियाँ गह ले, तह ले
*
कर वाह न भरना अरे! आह
मन की ले पाया कौन थाह?
जो गले मिले, भुज पाश बाँध
उनके उर में ही पली डाह
*
जो बने भक्त गह चरण कभी
कर रहे भस्म दे शाप अभी
वाणी में नहीं प्रभाव बचा
सर पीट रहे निज हाथ तभी
*
मन मीरा सा, तन राधा सा,
किसने किसको कब साधा सा?
कह कौन सकेगा करुण कथा
किसने किसको आराधा सा
*
मिट गया द्वैत, अंतर न रहा
अंतर में जो मंतर न रहा
नयनों ने पुनि मन को रोका
मत बोल की प्रत्यंतर न रहा
***
मुक्तक
खुद जलकर भी सदा उजाला ज्योति जगत को देती है
जीत निराशा तरणि नित्य नव आशा की वह खेती है
रश्मि बिम्ब से सलिल-लहर भी ज्योतिमयी हो जाती है
निबिड़ तिमिर में हँस ऊषा का बीज वपन कर आती है
*
हम चाहें तो सरकारों के किरदारों को झुकना होगा
हम चाहें तो आतंकों को पीठ दिखाकर मुडना होगा
कहे कारगिल हार न हिम्मत, टकरा जाना तूफानों से-
गोरखनाथ पुकार रहे हैं,अब दुश्मन को डरना होगा
*
मजा आता न गर तो कल्पना करता नहीं कोई
मजा आता न गर तो जगत में जीता नहीं कोई
मजे में कट गयी जो शुक्रिया उसका करों यारों-
मजा आता नहीं तो मौन हो मरता नहीं कोई
*
करो मत द्वंद, काटो फंद, रचकर छंद पल-पल में
न जो मति मंद, ले आनंद, सुनकर छंद पल-पल में
रसिक मन डूबकर रस में, बजाता बाँसुरी जब-जब
बने तन राधिका, सँग श्वास गोपी नाचें पल-पल में
*
पता है लापता जिसका उसे सब खोजते हैं क्यों?
खिली कलियाँ सवेरे बाग़ में जा नोचते हैं क्यों?
चढ़ें मन्दिर में जाती सूख, खुश हो देवता कैसे?
कहो तो हाथ को अपने नहीं तुम रोकते हो क्यों?
***
एक गीत
बातें हों अब खरी-खरी
*
मुँह देखी हो चुकी बहुत
अब बातें हों कुछ खरी-खरी
जो न बात से बात मानता
लातें तबियत करें हरी
*
पाक करे नापाक हरकतें
बार-बार मत चेताओ
दहशतगर्दों को घर में घुस
मार-मार अब दफनाओ
लंका से आतंक मिटाया
राघव ने यह याद रहे
काश्मीर को बचा-मिलाया
भारत में, इतिहास कहे
बांगला देश बनाया हमने
मत भूले रावलपिडी
कीलर-सेखों की बहादुरी
देख सरहदें थीं सिहरी
मुँह देखी हो चुकी बहुत
अब बातें हों कुछ खरी-खरी
*
करगिल से पिटकर भागे थे
भूल गए क्या लतखोरों?
सेंध लगा छिपकर घुसते हो
क्यों न लजाते हो चोरों?
पाले साँप, डँस रहे तुझको
आजा शरण बचा लेंगे
ज़हर उतार अजदहे से भी
तेरी कसम बचा लेंगे
है भारत का अंग एक तू
दुहराएगा फिर इतिहास
फिर बलूच-पख्तून बिरादर
के होंठों पर होगा हास
'जिए सिंध' के नारे खोदें
कब्र दुश्मनी की गहरी
मुँह देखी हो चुकी बहुत
अब बातें हों कुछ खरी-खरी
२१-९-२०१६
***
विमर्श: श्रम और बुद्धि
ब्राम्हणों ने अपनी श्रेष्ठता स्थापित करने के लिये ग्रंथों में अनेक निराधार, अवैज्ञानिक, समाज के लिए हानिप्रद और सनातन धर्म के प्रतिकूल बातें लिखकर सबका कितना अहित किया? तो पढ़िए व्यास स्मृति विविध जातियों के बारे में क्या कहती है?
जानिए और बताइये क्या हमें व्यास का सम्मान कारण चाहिए???
व्यास स्मृति, अध्याय १
वर्द्धकी नापितो गोपः आशापः कुम्भकारकः
वीवक किरात कायस्थ मालाकर कुटिम्बिनः
एते चान्ये च वहवः शूद्रा भिन्नः स्वकर्मभिः -१०
चर्मकारः भटो भिल्लो रजकः पुष्ठकारो नट:
वरटो भेद चाण्डाल दासं स्वपच कोलकाः -११
एते अन्त्यज समाख्याता ये चान्ये च गवारान:
आशाम सम्भाषणाद स्नानं दशनादरक वीक्षणम् -१२
अर्थ: बढ़ई, नाई, अहीर, आशाप, कुम्हार, वीवक, किरात, कायस्थ, मालाकार कुटुम्बी हैं। ये भिन्न-भिन्न कर्मों के कारण शूद्र हैं. चमार, भाट, भील, धोबी, पुस्तक बांधनेवाले, नट, वरट, चाण्डालों, दास, कोल आदि माँसभक्षियों अन्त्यज (अछूत) हैं. इनसे बात करने के बाद स्नान तथा देख लेने पर सूर्य दर्शन करना चाहिए।
उल्लेख्य है कि मूलतः ब्राम्हण और कायस्थ दोनों की उत्पत्ति एक ही मूल ब्रम्ह या परब्रम्ह से है। दोनों बुद्धिजीवी रहे हैं. बुद्धि का प्रयोग कर समाज को व्यवस्थित और शासित करनेवाले अर्थात राज-काज को मानव की उन्नति का माध्यम माननेवाले कायस्थ (कार्यः स्थितः सह कायस्थः) तथा बुद्धि के विकास और ज्ञान-दान को मानवोन्नति का मूल माननेवाले ब्राम्हण (ब्रम्हं जानाति सः ब्राम्हणाः) हुए।
ये दोनों पथ एक-दूसरे के पूरक हैं किन्तु अपनी श्रेष्ठता स्थापित करने के लिए ब्राम्हणों ने वैसे ही निराधार प्रावधान किये जैसे आजकल खाप के फैसले और फतवे कर रहे हैं. उक्त उद्धरण में व्यास ने ब्राम्हणों के समकक्ष कायस्थों को श्रमजीवी वर्ग के समतुल्य बताया और श्रमजीवी कर्ज को हीन कह दिया। फलतः, समाज विघटित हुआ। बल और बुद्धि दोनों में श्रेष्ठ कायस्थों का पराभव केवल भुज बल को प्रमुख माननेवाले क्षत्रियों के प्रभुत्व का कारण बना। श्रमजीवी वर्ग ने अपमानित होकर साथ न दिया तो विदेशी हमलावर जीते, देश गुलाम हुआ।
इस विमर्श का आशय यह कि अतीत से सबक लें। समाज के उन्नयन में हर वर्ग का महत्त्व समझें, श्रम को सम्मान देना सीखें। धर्म-कर्म पर केवल जन्मना ब्राम्हणों का वर्चस्व न हो। होटल में ५० रु. टिप देनेवाला रिक्शेवाले से ५-१० रु. का मोल-भाव न करे, श्रमजीवी को इतना पारिश्रमिक मिले कि वह सम्मान से परिवार पाल सके। पूंजी पे लाभ की दर से श्रम का मोल अधिक हो। आपके अभिमत की प्रतीक्षा है।
२२.९.२०१४
***
मुक्तक सलिला :
बेटियाँ
*
आस हैं, अरमान हैं, वरदान हैं ये बेटियाँ
सच कहूँ माता-पिता की शान हैं ये बेटियाँ
पैर पूजो या कलेजे से लगाकर धन्य हो-
एक क्या दो-दो कुलों की आन हैं ये बेटियाँ
*
शोरगुल में कोकिला का गान हैं ये बेटियाँ
नदी की कलकल सुरीली तान हैं ये बेटियाँ
माँ, सुता, भगिनी, सखी, अर्धांगिनी बन साथ दें-
फूँक देतीं जान देकर जान भी ये बेटियाँ
*
मत कहो घर में महज मेहमान हैं ये बेटियाँ
यह न सोचो सत्य से अनजान हैं ये बेटियाँ
लेते हक लड़ के हैं लड़के, फूँक भी देते 'सलिल'-
नर्मदा जल सी, गुणों की खान हैं ये बेटियाँ
*
ज़िन्दगी की बन्दगी, पहचान हैं ये बेटियाँ
लाज की चादर, हया का थान हैं ये बेटियाँ
चाहते तुमको मिले वरदान तो वर-दान दो
अब न कहना 'सलिल कन्या-दान हैं ये बेटियाँ
*
सभ्यता की फसल उर्वर, धान हैं ये बेटियाँ
महत्ता का, श्रेष्ठता का भान हैं ये बेटियाँ
धरा हैं पगतल की बेटे, बेटियाँ छत शीश की-
भेद मत करना, नहीं असमान हैं ये बेटियाँ
***
हास्य रचना:
चना जोर गरम
*
चना जोर गरम
बाबू ! मैं लाया मजेदार
चना जोर गरम…
*
ममो मुट्ठी भर चना चबाये
संसद को नित धता बताये
रूपया गिरा देख मुस्काये-
अमरीका को शीश नवाये
चना जोर गरम…
*
नमो ने खाकर चना डकारा
शनी मिमयाता रहा बिचारा
लाम का उतर गया है पारा
लाल सियापा कर कर हांरा
चना जोर गरम…
*
मुरा की नूरा-कुश्ती नकली
शामत रामदेव की असली
चना बापू ने नहीं चबाये-
चदरिया मैली ले पछताये
चना जोर गरम…
*
मेरा चना मसालेवाला
अन्ना को करता मतवाला
जनगण-मन जपता है माला-
मेहनतकश का यही निवाला
चना जोर गरम…
२२-९-२०१३
*
ममो = मनमोहन सिंह
नमो = नरेन्द्र मोदी,
शनी = शरद यादव-नीतीश कुमार
लाम = लालू यादव-ममता
लाल = लालकृष्ण अडवानी
मुरा = मुलायम सिंह-राहुल गाँधी बापू = आसाराम

सोमवार, 4 अगस्त 2025

अगस्त ४, गीत, हक, मुक्तक, हिंदी, हास्य, याद, महका महका

 दोहा सलिला

*
गीत-
आ! दुख को तकिया कर,
यादों को बिस्तर कर,
खुशियों के हो लें हम।
*
जब-जब खाई ठोकर,
तब-तब भूलें रोकर।
उठें-बढ़ें, मंजिल पा-
सपने नव बोलें हम।
*
मौज, मजा, मस्ती ही
ज़िंदगी नहीं होती।
चलो! श्रम, प्रयासों की-
राहें हँस खोलें हम।
*
तू-मैं को बिसराकर,
आजा हम हो जाएँ।
तू-तू-मैं-मैं भूलें-
स्नेह-प्रेम घोलें हम।
*
बीजे शत उगने दें,
अंकुर हर बढ़ने दें।
पल्लव हों कली-पुष्प-
फल पाएँ तौलें हम।
*
गुल सूखे थामे तू,
खत पीला बाँचूं मैं
फिर डूबें यादो में-
नींद मग्न हो लें हम।
२७.२.२०१८
***
मुक्तक
*
हिंदी कहो, हिंदी पढ़ो, हिंदी लिखो, नित जाल पर
हिंदी- तिलक हँसकर लगाओ, भारती के भाल पर
विश्व वाणी है यही, कल सब कहेंगे सत्य यह
मीडिया-मित्रों कहो 'जय हिन्द-हिंदी' जाल पर
*
हिंदी में हिंदी नहीं तो, सब दुखी हो जाएँगे
बधावा या मर्सिया इंग्लिश में रटकर गाएँगे?
आरती या भजन समझेंगे नहीं जब देवता-
कहो कोंवेंट-प्रेमियों वरदान कैसे पाएँगे?
*
किस तरह मोती मिले बिन सीपिका
किस तरह तम से लड़ें बिन दीपिका
हो न शशि त्यागी, गुमेगी चाँदनी
अमावस में दिखे कैसे वीथिका
*
गले मिल, झगड़ा करो स्वीकार है
अधर पर रख अधर सिल, स्वीकार है
छोड़ दें हिंदी किसी भी शर्त पर
है असंभव यही अस्वीकार है
४.८.२०१८
***
नवगीत:
महका-महका
महका-महका
मन-मंदिर रख सुगढ़-सलौना
चहका-चहका
आशाओं के मेघ न बरसे
कोशिश तरसे
फटी बिमाई, मैली धोती
निकली घर से
बासन माँजे, कपड़े धोए
काँख-काँखकर
समझ न आए पर-सुख से
हरसे या तरसे
दहका-दहका
बुझा हौसलों का अंगारा
लहका-लहका
एक महल, सौ यहाँ झोपड़ी
कौन बनाए
ऊँच-नीच यह, कहो खोपड़ी
कौन बताए
मेहनत भूखी, चमड़ी सूखी
आँखें चमकें
कहाँ जाएगी मंजिल
सपने हों न पराए
बहका-बहका
सम्हल गया पग, बढ़ा राह पर
ठिठका-ठहका
लख मयंक की छटा अनूठी
सज्जन हरषे.
नेह नर्मदा नहा नवेली
पायस परसे.
नर-नरेंद्र अंतर से अंतर
बिसर हँस रहे.
हास-रास मधुमास न जाए-
घर से, दर से.
दहका-दहका
सूर्य सिंदूरी, उषा-साँझ संग
धधका-दहका...
***
हास्य सलिला:
संवाद
*
'ए जी! कितना त्याग किया करती हैं हम बतलाओ
तुम मर्दों ने कभी नहीं कुछ किया तनिक शरमाओ
षष्ठी, करवाचौथ कठिन व्रत करते हम चुपचाप
फिर भी मर्द मियाँ मिट्ठू बनते हैं अपने आप'
"लाली की महतारी! नहीं किसी से कम हम मर्द
करें न परवा निज प्राणों की चुप सहते हर दर्द
माँ-बीबी दो पाटों में फँस पिसते रहते मौन
दोनों दावा करें अधिक हक़ उसका, टोंके कौन?
व्रत कर इतने वर माँगे, हैं प्रभु जी भी हैरान
कन्याएँ कम हुईं, न माँगी तुमने क्यों नादान?
कह कम ज्यादा सुनो हमेशा तभी बनेगी बात
जीभ कतरनी बनी रही तो बात बढ़े बिन बात
सास-बहू, भौजाई-ननद, सुत-सुता रहें गर साथ
किसमें दम जो रोक-टोंक दे?, जगत झुकाये माथ"
' कहते तो हो ठीक न लेकिन अगर बनाएँ बात
खाना कैसे पचे बताओ? कट न सकेगी रात
तुम मर्दों के जैसे हम हो सके नहीं बेदर्द
पहले देते दर्द, दवाकर होते हम हमदर्द
दर्द न होता मर्दों को तुम कहते, करें परीक्षा
राज्य करें पर घर आ कैसे? शिक्षा लो दे दीक्षा'
४.८.२०१५ 
***
मुक्तक
हिंदी कहो, हिंदी पढ़ो, हिंदी लिखो, नित जाल पर
चन्दन तिलक हँसकर लगाओ, भारती के भाल पर
विश्व वाणी है यही, कल सब कहेंगे सत्य यह
मीडिया-मित्रों कहो 'जय हिन्द" अंतर्जाल पर
***
दोहा सलिला
मेघदूत संदेश ले, आए भू के द्वार
स्नेह-रश्मि पा सु-मन हँस, उमड़े बन जल-धार
*
पल्लव झूमे गले मिल, कभी करें तकरार
कभी गले मिलकर 'सलिल', करें मान-मनुहार
*
आदम दुबका नीड़ में, हुआ प्रकृति से दूर
वर्षा-मंगल भूलकर, कोसे प्रभु को सूर
४.८.२०१४
***
एक गीत:
हक
*
खफा होना तुम्हारा हक है, जाना दूर मेरा हक.
न मन मिल पायें तो क्यों बन्धनों को ढोयें हम नाहक.....
*
न मैं नाज़ुक कि अपने पग पे आगे बढ़ नहीं सकता.
न तुम बेबस कि जो खुद ही गगन तक चढ़ नहीं सकता.
भले टेढ़ा जमाना हो, रुका है कब कहो चातक.
खफा होना तुम्हारा हक है, जाना दूर मेरा हक.....
*
न दिल कमजोर है इतना कि सच को सह नहीं पाए.
विरह की आग हो कितनी प्रबल यह दह नहीं पाए..
अलग हों रास्ते अपने मगर हों सच के हम वाहक.
खफा होना तुम्हारा हक है, जाना दूर मेरा हक.....
*
जियो तुम सिर उठाकर, कहो- 'गलती को मिटाया है.'
जिऊँ मैं सिर उठाकर कहूँ- 'मस्तक ना झुकाया है.'
उसूलों का करें सौदा कहो क्यों?, राह यह घातक.
खफा होना तुम्हारा हक है, जाना दूर मेरा हक.....
*
भटक जाए, न गम होगा, तलाशेगा 'सलिल' मंजिल.
खलिश किंचित न होगी, मिल ही जाएगा कभी साहिल..
बहुत छोटी सी दुनिया है, मिलेंगे फिर कभी औचक.
खफा होना तुम्हारा हक है, जाना दूर मेरा हक.....
४.८.२०१० 
*** 

गुरुवार, 31 जुलाई 2025

जुलाई ३१, तुहिना, हास्य, मुक्तिक, सॉनेट, समीक्षा, पंकज परिमल, सपने, दुनिया

सलिल सृजन जुलाई ३१
*
सॉनेट
सपने
*
दिन में भी दिखते हैं सपने,
सच लगते पर झूठे होते,
नहीं पराए किंतु न अपने,
मरुथल में भी फसलें बोते।
सपने बिना पैर चलते हैं,
उड़ते बिना पंख भी सपने,
बनकर मित्र नहीं छलते हैं,
उगते बिना बीज भी सपने।
शीतलता दें तपते हो तो,
पापी को कर देते पावन,
नया जन्म दें मिटते हो तो,
फागुन कभी; कभी हों सावन।
पद लय गति यति रस तुक के बिन।
सॉनेट रचते सपने निशि -दिन
३१-७-२०२३
***
पंकज परिमल की याद में माहिए
*
पंकज परिमल खोकर
नवगीत उदास हुआ
पिंजरे से उड़ा सुआ।
*
जीवट का रहा धनी
थी जिजीविषा अद्भुत
पंकज था धुनी गुनी।
*
नवगीत मिसाल बने
भाषिक-शैल्पिक नव दृष्टि
नव रूपक-बिंब घने।
*
बिन पंकज हो श्रीहीन
करता है याद सलिल
टूटी सावन में बीन।
*
नवगीत सुनेंगे इंद्र
दे शुभाशीष तुमको
होंगे खुश बहुत रवींद्र।
*
अपनी मिसाल तुम आप
छू पाए अन्य नहीं
तव सुयश सका जग व्याप।
*
भावांजलि लिए सलिल
चुप अश्रुपात करता
खो पंकज दिल दुखता
३१.७.२०२१
***
सॉनेट
दुनिया
*
दुनिया बहुत सयानी है,
मीठे को बोले तीता,
मत समझो नादानी है,
भरा कोष कहती रीता।
झंडा वही उठाती है,
जो सत्ता तक ले जाए,
गीत उसी के जाती है,
लिए बिना जो दे जाए।
मिले प्रसाद जहाँ ज्यादा,
वही देवता प्यारा है,
फर्क नहीं नर या मादा,
झूठे की पौ बारा है।
दीखते है यह प्रेम पगी।
किंतु किसी सगी।।
***
मुक्तिका:
*
याद जिसकी भुलाना मुश्किल है
याद उसको न आना मुश्किल है
.
मौत औरों को देना है आसां
मौत को झेल पाना मुश्किल है
.
खुद को कहता रहा मसीहा जो
उसका इंसान होना मुश्किल है
.
तुमने बोले हैं झूठ सौ-सौ पर
एक सच बोल सकना मुश्किल है
.
अपने अधिकार चाहते हैं सभी
गैर को हक़ दिलाना मुश्किल है
३१-७-२०१७
***
अभियंता, हाइकुकार, व्यंग्यकार, ग़ज़लकार आनंद पाठक को
जन्म दिवस की अनंत शुभ कामनायें
*
आनंद परमानंद पा रच माहिया हरते जिया
लिख व्यंग्य दें जिस पर उसी का हिला देते हैं हिया
लिख दें ग़ज़ल तो हो फसल भावों की बिन बरसात भी
कृपा है इन पर उसी की हुए ये जिसके ये पिया
*
३१-७-२०१६
समीक्षा-
"काल है संक्रांति का" आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' की अनुपम नवगीत कृति
- इंजी. संतोष कुमार माथुर, लखनऊ
*
एक कुशल अभियंता, मूर्धन्य साहित्यकार, निष्णात संपादक, प्रसिद्ध समीक्षक, कुशल छंदशास्त्री, समर्पित समाजसेवी पर्यावरणप्रेमी, वास्तुविद अर्थात बहुमुखी प्रतिभा के धनी आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी की नवीनतम पुस्तक "काल है संक्रांति का" पढ़ने का सुअवसर मिला। गीत-नवगीत का यह संग्रह अनेक दृष्टियों से अनुपम है।
'संक्रांति' का अर्थ है एक क्षेत्र, एक पद्धति अथवा एक व्यवस्था से दूसरे क्षेत्र, व्यवस्था अथवा पद्धति में पदार्पण। इंजी. सलिल की यह कृति सही अर्थों में संक्रांति की द्योतक है।
प्रथम संक्रांति- गीति
सामान्यत: किसी भी कविता संग्रह के आरम्भ में भूमिका के रूप में किसी विद्वान द्वारा कृति का मूल्यांकन एवं तदोपरांत रचनाकार का आत्म निवेदन अथवा कथन होता है। इस पुस्तक में इस प्रथा को छोड़कर नई प्रथा स्थापित करते हुए गद्य के स्थान पर पद्य रूप में कवि ने 'वंदन', 'स्मरण', 'समर्पण' और 'कथन' सम्मिलित करते हुए गीत / नवगीत के शिल्प और कथ्य के लक्षण इंगित किये हैं -
'नव्यता संप्रेषणों में जान भरती
गेयता संवेदनों का गान करती
कथ्य होता तथ्य का आधार खाँटा
सधी गति-यति अंतरों का मान बनती
अंतरों के बाद मुखड़ा आ विहँसता
.
छंद से संबंध दिखता या न दिखता
किंतु बन आरोह या अवरोह पलता'
.
'स्मरण' के अंतर्गत सृष्टि आरम्भ से अब तक अपने पूर्व हुए सभी पूर्वजों को प्रणिपात कर सलिल धरती के हिंदी-धाम होने की कामना करने के साथ-साथ नवरचनाकारों को अपना स्वजन मानते हुए उनसे जुड़कर मार्गदर्शन करने का विचार व्यक्त करते हैं-
'मिटा दूरियाँ, गले लगाना
नवरचनाकारों को ठानें
कलश नहीं, आधार बन सकें
भू हो हिंदी धाम'
'समर्पण' में सलिल जी ने यह संग्रह अनंत शक्ति स्वरूपा नारी के भगिनी रूप को समर्पित किया है। नारी शोषण की प्रवृत्ति को समाप्त कर नारी सशक्तिकरण के इस युग में यह प्रवृत्ति अभिनंदनीय है।
'बनीं अग्रजा या अनुजा तुम
तुमने जीवन सरस बनाया
अर्पित शब्द-सुमन स्वीकारे
नेहिल नाता मन को भाया'
द्वितीय संक्रांति-विधा
बहुधा काव्य संग्रह या तो पारंपरिक छंदों में रचित 'गीत संग्रह' होता है, या नये छंदों में रचित 'नवगीत संग्रह' अथवा छंदहीन कविताओं का संग्रह होता है। इंजी. सलिल जी ने पुस्तक के शीर्षक के साथ ही गीत-नवगीत लिखकर एक नयी प्रथा में पदार्पण किया है कि गीत-नवगीत एक दूसरे से सर्वथा भिन्न नहीं, एक दूसरे के पूरक हैं और इसलिए एक घर में रहते पिता-पुत्र की तरह उन्हें एक संकलन में रखा जा सकता हैं। उनके इस कदम का भविष्य में अन्यों द्वारा अनुकरण होगा।
तृतीय संक्रांति- भाषा
एक संकलन में अपनी रचनाओं हेतु कवि बहुधा एक भाषा-रूप का चयन कर उसी में कविता रचते हैं। सलिल जी ने केवल 'खड़ी बोली' की रचनाएँ सम्मिलित न कर 'बुंदेली' तथा लोकगीतों के उपयुक्त देशज भाषा-रूप में रचित गीति रचनाएँ भी इस संकलन में सम्मिलित की हैं तथा तदनुसार ही छन्द-विधान का पालन किया है। यह एक नयी सोच और परंपरा की शुरुआत है। इस संग्रह की भाषा मुख्यत: सहज एवं समर्थ खड़ी बोली है जिसमें आवश्यकतानुसार उर्दू, अंग्रेजी एवं बुंदेली के बोलचाल में प्रचलित शब्दों का निस्संकोच समावेश किया गया है।
प्रयोग के रूप में पंजाब के दुल्ला भट्टी को याद करते हुई गाये जानेवाले लोकगीतों की तर्ज पीर 'सुंदरिये मुंदरिये होय' रचना सम्मिलित की गयी है। इसी प्रकार बुंदेली भाषा में भी तीन रचनाएँ जिसमें 'आल्हा' की तर्ज पर लिखी गयी रचना भी है, इस संग्रह में संग्रहीत हैं।
इस संग्रह में काव्यात्मक 'समर्पण' एवं 'कथन' को छोड़कर ६३ रचनाएँ हैं।यह एक सुखद संयोग ही है कि इस पुस्तक के प्रकाशन के समय कविवर सलिल जी की आयु भी ६३ वर्ष ही है।
चतुर्थ संक्रांति- विश्वात्म दृष्टि और विज्ञान
कवि ने आरम्भ में निराकार परात्पर परब्रम्ह का 'वन्दन' करते हुए महानाद के विस्फोट से व्युत्पन्न ध्वनि तरंगों के सम्मिलन-घर्षण के परिणामस्वरूप बने सूक्ष्म कणों से सृष्टि सृजन के वैज्ञानिक सत्य को इंगित कर उसे भारतीय दर्शन के अनुसार अनादि-अनंत, अक्षय-अक्षर कहते हुए सुख-दुःख के प्रति समभाव की कामना की है-
'आदि-अंत, क्षय-क्षर विहीन हे!
असि-मसि, कलम-तूलिका हो तुम
गैर न कोई सब अपने हैं-
काया में हैं आत्म सभी हम
जन्म-मरण, यश-अपयश चक्रित
छाया-माया, सुख-दुःख हो सम'
पंचम संक्रांति- छंद वैविध्य
कवि ने अपनी नवगीत रचनाओं में छन्द एवं लयबद्धता का विशेष ध्यान रखा है जिससे हर रचना में एक अविकल भाषिक प्रवाह परिलक्षित होता है। प्रचलित छन्दों यथा दोहा-सोरठा के अतिरिक्त कवि ने कतिपय कम प्रचलित छंदों में भी रचनाएँ प्रस्तुत की हैं। आचार्यत्व का निर्वहन करते हुए कवि ने जहाँ विशिष्ट छंदों का उपयोग किया है वहाँ जिज्ञासु पाठकों एवं छात्रों के हितार्थ उनका स्पष्ट उल्लेख भी रचना के अंत में नीचे कर दिया है। यथा महाभागवत जातीय सार छंद, हरिगीतिका छंद, आल्हा छंद, मात्रिक करुणाकर छंद, वार्णिक सुप्रतिष्ठा छंद आदि। कुछ रचनाओं में कवि ने एकाधिक छन्दों का प्रयोग कर अपनी असाधारण प्रतिभा का परिचय दिया है। यथा एक रचना में मात्रिक करुणाकर तथा वार्णिक सुप्रतिष्ठा छंद दोनों के मानकों का पालन किया है जबकि दो अन्य रचनाओं में मुखड़े में दोहा तथा अंतरे में सोरठा छंद का समन्वय किया है।
विषयवस्तु-
विषय की दृष्टि से कवि की रचनाओं यथा 'इतिहास लिखें हम', 'मन्ज़िल आकर' एवं 'तुम बन्दूक चलाओ' में आशावादिता स्पष्ट परिलक्षित होती है।
'समाजवादी', 'अगले जनम', 'लोकतन्त्र का पंछी', 'ग्रंथि श्रेष्ठता की', 'जिम्मेदार नहीं हैं नेता' एवं 'सच की अर्थी' में व्यवस्था के प्रति आक्रोश है। जीवन का कड़वा सच 'मिली दिहाड़ी' एवं 'वेश सन्त का' जैसी रचनाओं में भी उजागर हुआ है। 'राम बचाये' एवं 'हाथों में मोबाइल' रचनाएँ आधुनिक जीवनशैली पर कटाक्ष हैं। 'समर्पण' एवं 'काम तमाम' में नारी-प्रतिभा को उजागर किया गया है। कुछ रचनाओं यथा 'छोड़ो हाहाकार मियाँ', 'खों-खों करते' तथा 'लेटा हूँ' आदि में तीखे व्यंग्य बाण भी छोड़े गये हैं। सामयिक घटनाओं से प्रभावित होकर कवि ने 'ओबामा आते', पेशावर के नरपिशाच' एवं 'मैं लड़ूँगा' जैसी रचनाएँ भी लिपिबद्ध की हैं।
विषयवस्तु के संबंध में कवि की विलक्षण प्रतिभा का उदाहरण है एक ही विषय 'सूरज' पर लिखे सात तथा अन्य विषय 'नव वर्ष' पर रचित पाँच नवगीत। इस रचनाओं में यद्यपि एकरसता परिलक्षित नहीं होती तथापि लगातार एक ही विषय पर अनेक रचनाएँ पाठक को विषय की पुनरावृत्ति का अभ्यास अवश्य कराती हैं।
कुछ अन्य रचनाओं में भी शब्दों की पुरावृत्ति दृष्टिगोचर होती है। उदाहरणार्थ पृष्ठ १८ पर 'उठो पाखी' के प्रथम छंद में 'शराफत' शब्द का प्रयोग खटकता है। पृष्ठ ४३ पर 'सिर्फ सच' की १० वीं व ११ वीं पंक्ति में 'फेंक दे' की पुनरावृत्ति छपाई की भूल है।
कुल मिलाकर कवि-आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' का यह संग्रह अनेक प्रकार से सराहनीय है। ज्ञात हुआ है कि संग्रह की अनेक रचनाएँ अंतर्जाल पर बहुप्रशंसित और बहुचर्चित हो चुकी हैं। सलिल जी ने अंतरजाल पर हिंदी भाषा, व्याकरण और पिंगल के प्रसार-प्रचार और युवाओं में छन्द के प्रति आकर्षण जगाने की दिशा में सराहनीय प्रयास किया है। छन्द एवं विषय वैविध्य, प्रयोगधर्मिता, अभिनव प्रयोगात्मक गीतों-नवगीतों से सुसज्जित इस संग्रह 'काल है संक्रांति का' के प्रकाशन हेतु इंजी, कवि आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' बधाई के पात्र हैं।
*****
समीक्षक सम्पर्क- अभियंता संतोष कुमार माथुर, कवि-गीतकार, सेवा निवृत्त मुख्य अभियंता, लखनऊ।
***
पुस्तक चर्चा -
'मैं पानी बचाता हूँ' सामयिक युगबोध की कवितायेँ
*
[पुस्तक विवरण- मैं पानी बचाता हूँ, काव्य संग्रह, राग तेलंग, वर्ष २०१६, ISBN ९७८-९३-८५९४२-२३-५, पृष्ठ १४४, मूल्य १२०/-, आकार २०.५ से.मी. x १४ से.मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक, बोधि प्रकाशन, ऍफ़ ७७, सेक्टर ९, मार्ग ११, करतारपुरा औद्योगिक क्षेत्र, बाईस गोदाम, जयपुर ३०२००६]
*
साहित्य को समाज का दर्पण कहा गया है किन्तु दर्पण संवेदनहीन होता है जो यथास्थिति को प्रतिबिंबित मात्र करता है जबकि साहित्य सामयिक सत्य को भावी शुभत्व के निकष पर कसते हुए परिवर्तित रूप में प्रस्तुत कर समाज के उन्नयन का पथ प्रशस्त करता है। दर्पण का प्रतिबिम्ब निरुद्देश्य होता है जबकि साहित्य का उद्देश्य सर्व जन हिताय, सर्व जन सुखाय माना गया है। विविध विधाओं में सर्वाधिक संवेदनशीलता के कारण कविता यथार्थ और सत्य के सर्वाधिक निकट होती है। छन्दबद्ध हो या छन्दमुक्त कविता का चयन कवि अपनी रुचि अनुरूप करता है। बहुधा कवि प्रसंग तथा लक्ष्य पाठक/श्रोता के अनुरूप शिल्प का चयन करता है।
'मैं पानी बचाता हूँ' हिंदी कविता के समर्थ हस्ताक्षर राग तेलंग की छोटी-मध्यम कविताओं का पठनीय संग्रह है। बिना किसी भूमिका के कवि पाठकों को कविता से मिलाता है, यह उसकी सामर्थ्य और आत्म विश्वास का परिचायक है। पाठक पढ़े और मत बनाये, कोई पाठक के अभिमत को प्रभावित क्यों करे? यह एक सार्थक सोच है। इसके पूर्व 'शब्द गुम हो जाने के खतरे', 'मिट्टी में नमी की तरह', 'बाजार से बेदखल', 'कहीं किसी जगह कई चेहरों की एक आवाज़', कविता ही आदमी को बचायेगी' तथा 'अंतर्यात्रा' ६ काव्य संकलनों के माध्यम से अपना पाठक वर्ग बना चुके और साहित्य में स्थापित हो चुके राग तेलंग जी समय की नब्ज़ टटोलना जानते हैं। वे कहते हैं- 'अब नहीं कहता / जानता कुछ नहीं / न ही / जानता सब कुछ / बस / समझता हूँ कुछ-कुछ।' यह कुछ-कुछ समझना ही आदमी का आदमी होना है। सब कुछ जानने और कुछ न जानने के गर्व और हीनता से दूर रहने की स्थिति ही सृजन हेतु आदर्श है।
कवि अनावश्यक टकराव नहीं चाहता किन्तु अस्मिता की बात हो तो पैर पीछे भी नहीं हटाता। भाषा तो कवि की माँ है। जब भाषा की अस्मिता का सवाल हो तोवह पीछे कैंसे रह सकता है।
'अब अगर / अपनी जुबां की खातिर / छीनना ही पड़े उनसे मेरी भाषा तो / मुझे पछाड़ना ही होगा उन्हें '
काश यह संकल्प भारत के राजनेता कर सकते तो हिंदी जगवाणी हो जाती। तेलंग आस्तिकता के कवि हैं। तमाम युगीन विसंगतियों और सामाजिक विडंबनाओं के बावजूद वह मनुष्यता पर विश्वास रखते है। इसलिए वह लिखते हैं- 'मैं प्रार्थनाओं में / मनुष्य के मनुष्य रहने की / कामना करता हूँ। '
'लता-लता हैं और आशा-आशा' शीर्षक कविता राग जी की असाधारण संवेदनशीलता की बानगी है। इस कविता में वे लता, आशा, जगजीत, गुलज़ार, खय्याम, जयदेव, विलायत खां, रविशंकर, बिस्मिल्ला खां, अमजद अली खां, अल्लारक्खा खां, जाकिर हुसैन, बेगम अख्तर, फरीद खानम,परवीन सुल्ताना सविता देवी आदि को किरदार बनाकर उनके फन में डूबकर गागर में सागर भरते हुए उनकी खासियतों से परिचित कराकर निष्कर्षतः: कहते हैं- "सब खासमखास हैं / किसी का किसी से / कोई मुकाबला नहीं।"
यही बात इस संग्रह की लगभग सौ कविताओं के बारे में भी सत्य है। पाठक इन्हें पढ़ें, इनमें डूबे और इन्हें गुने तो आधुनिक कविता के वैशिष्ट्य को समझ सकेगा। नए कवियों के लिए यह पाठ्य पुस्तक की तरह है। कब कहाँ से कैसे विषय उठाना, उसके किस पहलू पर ध्यान केंद्रित करना और किस तरह सामान्य दिखती घटना में किस कोण से असाधारणता की तलाश कर असामान्य बात कहना कि पाठक-श्रोता के मन को छू जाए, पृष्ठ-पृष्ठ पर इसकी बानगी है। ग्रामीण क्षेत्रों में पत्र लेखन परंपरा में 'कम लिखे से ज्यादा समझना' की बानगी 'मार' शीर्षक कविता में देखें-
"देखना / बिना छुए / छूना है
सोचना / बिना पहुँचे / पहुँचना है
सोचकर देखना / सोचकर / देखना नहीं है
सोचकर देखो / फिर उस तक पहुँचो
गागर में सागर की तरह कविता में एक भी अनावश्यक शब्द न रहने देना और हर शब्द से कुछ न कुछ कहना राग तेलंग की कविताओं का वैशिष्ट्य है। उनके आगामी संकलन की बेसब्री से प्रतीक्षा की ही जाना चाहिए अन्यथा कविता की सामर्थ्य और पाठक की समझ दोनों पर प्रश्न चिन्ह लगने की आशंका होगी।
***
अभियंता, हाइकुकार, व्यंग्यकार, ग़ज़लकार आनंद पाठक को
जन्म दिवस की अनंत शुभ कामनायें
*
आनंद परमानंद पा रच माहिया हरते जिया
लिख व्यंग्य दें जिस पर उसी का हिला देते हैं हिया
लिख दें ग़ज़ल तो हो फसल भावों की बिन बरसात भी
कृपा है इन पर उसी की हुए ये जिसके ये पिया
३१-७-२०१६
***
कृति-चर्चा:
चीखती टिटहरी हाँफता अलाव : नवगीत का अनूठा रचाव
*
[कृति-विवरण: चीखती टिटहरी हाँफता अलाव, नवगीत संग्रह, डॉ. रामसनेहीलाल शर्मा 'यायावर', आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी सजिल्द जैकेट सहित, पृष्ठ १३१, १८०/-, वर्ष २०११, अयन प्रकाशन महरौली नई दिल्ली, नवगीतकार संपर्क: ८६ तिलक नगर, बाई पास मार्ग फीरोजाबाद २८३२०३, चलभाष ९४१२३ १६७७९, ई मेल: dr.yayavar@yahoo.co.in]
*
डॉ. रामसनेहीलाल शर्मा 'यायावर' ने मन पलाशवन, गलियारे गंध के तथा अँधा हुआ समय का दर्पण के पश्चात चीखती टिटहरी हाँफता अलाव शीर्षक से चौथा नवगीत संग्रह लेकर माँ शारदा के चरणों में समर्पित किया है. नवगीत दरबार पूरी दबंगता के साथ अपनी बात शिष्ट-शालीन-संस्कारिक शब्दावली में कहने में यायावर जी का सानी नहीं है. ठेठ भदेसी शब्दावली की अबूझता, शब्दकोशी क्लिष्ट शब्दों की बोझिलता तथा अंग्रेजी शब्दों की अनावश्यक घुसपैठ की जो प्रवृत्ति समकालीन नवगीतों में वैशिष्ट्य कहकर आरोपित की गयी है, डॉ. यायावर के नवगीत उससे दूर रहते हुए हिंदी भाषा की जीवंतता, सहजता, सटीकता, सरसता तथा छान्दसिकता बनाये रखते हुए पाठक-श्रोता का मर्म छू पाते हैं.
कवि पिंगल की मर्यादानुसार प्रथम नवगीत 'मातरम् मातरम्' वंदना में भी युगीन विसंगतियों को समाहित करते हुए शांति की कामना करता है: 'झूठ ही झूठ है / पूर्ण वातावरण / खो गया है कहीं / आज सत्याचरण / बाँटते विष सभी / आप, वे और मैं / बंधु बांधव सखा / भ्रातरम् भ्रातरम्' तथा 'हो चतुर्दिक / तेरे हंस की धवलिमा / जाय मिट / हर दिशा की / गहन कालिमा / बाँसुरीi में / नये स्वर / बजें प्रीति के / / शांति, संतोष, सुख / मंगलम् मंगलम्' . 'कालिमा' की तर्ज पर 'धवलिमा' शब्द को गढ़ना और उसका सार्थक प्रयोग करना यायावर जी की प्रयोगशील वृत्ति का परिचायक है.
श्रेष्ठ-ज्येष्ठ नवगीतकार डॉ. महेंद्र भटनागर ने ठीक ही परिलक्षित किया है: 'डॉ. यायावर के नवगीतों की सबसे बड़ी विशेषता है कि उनमें जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टि अपनायी गयी है. ये वातावरण की रिक्तता, मूल्यहीनता के घटाटोप अन्धकार के दुर्दमनीय फैलाव और निराशा के अछोर विस्तार से भले ही गीत का प्रारंभ करते हों परन्तु अंत सदैव आशावाद और आशावादी संदेश के साथ करते हैं.'
डॉ. यायावर हिंदी के असाधारण विद्वान, छंद शास्त्री, प्राध्यापक, शोध निदेशक होने के साथ-साथ नवदृष्टि परकता के लिये ख्यात हैं. वे नवगीत के संदर्भ में प्रचलित से हटकर कहते हैं: 'नवगीत खौलाती संवेदनाओं की वर्ण-व्यंजना है, दर्द की बाँसुरी पर धधकते परिवेश में भुनती ज़िंदगी का स्वर संधान है, वह पछुआ के अंधड़ में तिनके से उड़ते स्वस्तिक की विवशता है, अपशकुनी टिटहरियों की भुतहा चीखों को ललकारने का हौसला है, गिरगिटों की दुनिया में प्रथम प्रगीत के स्वर गुंजाने का भगीरथ प्रयास है, शर-शैया पर भीष्म के स्थान पर पार्थ को धार देनेवाली व्यवस्था का सर्जनात्मक प्रतिवाद है, अंगुलिमालों की दुनिया में बुद्ध के अवतरण की ज्योतिगाथा है, लाफ्टर चैनल के पंजे में कराहती चौपाई को स्वतंत्र करने का प्रयास है, 'मूल्यहन्ता' और 'हृदयहन्ता' समय की छाती पर कील गाड़ने की चेष्टा है, बुधिया के आँचल में डर-डर कर आते हुए सपनों को झूठी आज़ादी से आज़ाद करने का गुरुमंत्र है, ट्रेक्टर के नीचे रौंदे हुए सपनों के चकरोड की चीख है, झूठ के कहकहों को सुनकर लचर खड़े सच को दिया गया आश्वासन है और रचनाकार द्वारा किसी भी नहुष की पालकी न ढोने का सर्जनात्मक संकल्प है. वस्तुत: नवगीत समय का सच है.'
विवेच्य संग्रह के नवगीत सच की अभ्यर्थना ही नहीं करते, सच को जीवन में उतारने का आव्हान भी करते हैं:
'भ्रम ही भ्रम
लिखती रही उमर
आओ!
अब प्रथम प्रगीत लिखें
मन का अनहद संगीत लिखें' (संस्कारी छंद)
जनहित की पक्षधरता नवगीत का वैशिष्ट्य नहीं, उद्देश्य है. आम जन की आवाज़ बनकर नवगीत आसमान नहीं छूता, जमीन से अँकुराता और जमीन में जड़ें जमाता है. आपातकाल में दुष्यंत कुमार ने लिखा था: 'कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं / गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं'. यायावर का स्वर दुष्यंत से भिन्न नहीं है. वे विसंगति, किंकर्तव्यविमूढ़ता तथा आक्रोश तीनों मन:स्थितियों को नवगीतों में ढालते हैं:
विसंगति:
बुढ़िया के आँचल में / सपने आते डरे-डरे.
भकुआ बना हुआ / अपनापन / हँसती है चालाकी
पंच नहीं परमेश्वर / हारी / पंचायत में काकी
तुलसीचौरे पर दियना अब / जले न साँझ ढरे.' (महाभागवतजातीय छंद)
.
पैरों में जलता मरुथल है (संस्कारी छंद)
और पीठ पर चिथड़ा व्योम
हम सच के हो गए विलोम (तैथिक जातीय छंद)
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आँगन तक आ पहुँची / रक्त की नदी
सूली पर लटकी है / बीसवीं सदी (महादेशिक जातीय छंद)
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किंकर्तव्यविमूढ़ता:
हो गया गंदा / नदी का जल / यहाँ पर
डाँटती चौकस निगाहें / अब कहाँ पर? (त्रैलोक जातीय छंद)
घुन गयी वह / घाटवाली नाव / कोई क्या करे? (महाभागवतजातीय छंद)
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चाँदनी में / जल रहे हैं पाँव / कोई क्या करे?
कट गया वट / कटा पीपल / कटी तुलसी
थी यहाँ / छतनार इमली / बात कल सी (त्रैलोक जातीय छंद)
अब हुई गायब / यहां की छाँव / कोई क्या करे? (महाभागवतजातीय छंद)
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आव्हान :
भ्रम ही भ्रम / लिखती रही उमर
आओ! अब / प्रथम प्रगीत लिखें
मन का अनहद संगीत लिखें।
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अर्थहीन कोलाहल में / हम वंशी नाद भरें
चलो, चलें प्रिय!
इस मौसम में / कुछ तो नया करें
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यायावर जी रचित ' ऊर्ध्वगामी चिंतन से संपृक्त इन गीतों में जीवन अपनी पूर्ण इयत्ता के साथ जीवंत हो उठा है. ये गीत लोक जीवन के अनुभवों-अनुभूतियों एवं आवेगों-संवेगों के गीतात्मक अभिलेख हैं. ये गीत मानवीय संवेदनाओं की ऐसी अभिव्यंजना हैं जो मन के अत्यंत समीप आकर कोमल स्पर्श की अनुभूति कराते हैं.सहजता इन गीतों की विशिष्ट है और मर्मस्पर्शिता इनकी पहचान. प्राय: सभी गीत सहज अनुभूति के ताने-बाने से बने हुए हैं. वे कब साकार होकर हमसे बतियाते हुए मर्मस्थल को बेध जाते हैं, पता ही नहीं चलता।' वरिष्ठ समीक्षक दिवाकर वर्मा का यह मत नव नवगीतकारों के लिये संकेत है की नवगीत का प्राण कहाँ बसता है?
डॉ. यायावर के ये नवगीत लक्षणा शक्ति से लबालब भरे हैं. जीवंत बिम्ब विधान तथा सरस प्रतीकों की आधारशिला पर निर्मित नवगीत भवन में छांदस वैविध्य के बेल बूटों की मनोहर कलाकारी हृदयहारी है. यायावर जी का शब्द भण्डार समृद्ध होना स्वाभाविक है. असाधारण साधारणता से संपन्न ये नवगीत भाषिक संस्कार का अनुपम उदाहरण हैं. यायावर जी की विशेषता मिथकीय प्रयोगों के माध्यम से युगीन विसंगतियों को इंगित करने के साथ-साथ उनके प्रतिकार की चेतना उत्पन्न करना है.
कितने चक्रव्यूह / तोड़ेगा? / यह अभिमन्यु अकेला?
यह कुरुक्षेत्र / अधर्म क्षेत्र है / कलियुग का महाभारत
यहाँ स्वार्थ के / चक्रोंवाले / दौड़ रहे सबके रथ
छल, प्रपंच, दुर्बुद्धि / क्रोध का लगा हुआ है मेला
(यौगिक जातीय छंद)
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डलहौजी की हड़पनीति / मौसम ने अपनायी
अपने खाली हाथों में यह ख़ामोशी आयी
(महाभागवत जातीय छंद)
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एक मान्यता यह रही है कि किसी घटना विशेष पर प्रतिक्रियास्वरूप नवगीत नहीं रचा जाता। यायावर जी ने इस मिथ को तोडा है. इस संकलन में बहुचर्चित निठारी कांड, २००९ में मुंबई पर आतंकी हमले आदि पर रचे गये नवगीत मर्मस्पर्शी हैं.
काँप रहे हैं / गोली कंचे
इधर कटारी / उधर तमंचे
क्यों रोता है? / बोल कबीरा
कोमल कलियाँ / बनी नसैनी
नर कंकाल / कुल्हाड़ी पैनी
भोले सपने / हँसी दूधिया
अट्टहास कर / हँसता बनिया
आँख जलाकर / बना ममीरा
(वासव जातीय छंद)
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अर्थहीन / शब्दों की तोपें / लिए बिजूके
शब्दबेध चौहानी धनु के / चूके-चूके
शांति कपोत / बंद आँख से करें प्रतीक्षा
रक्त पियें मार्जार / उड़े / सतर्क प्रतिहिंसक
(महावतारी जातीय छंद)
( यहाँ 'आँख' में वचन दोष है, 'आँखों' होना चाहिए)
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चंद्रपाल शर्मा 'शीलेश' के अनुसार 'संगीत से सराबोर इन गीतों का हर चरण भारतीय संस्कृति और लोक रस का सरस प्रक्षेपण करता है. नई प्रयोगधर्मिता, लक्षणा से भरपूर विचलन, जीवंत बिम्बात्मकता, रसात्मक प्रतीकात्मकता तथा राग-रागिनियों से हाथ मिलाता हुआ छंद विधान इन गीतों की साँसों का सञ्चालन करते हैं.''
यायावर जी ने दोहा नवगीत का भी प्रयोग किया है. इसमें वे मुखड़ा दैशिक जातीय छंद का रखते हैं जबकि अंतरे एक दोहा रखकर, पदांत में मुखड़े की समतुकान्ती देशिक जातीय गीत-पंक्ति रखते हैं:
न युद्ध विराम है / सतत संग्राम है (दैशिक जातीय छंद)
बाहर-बाहर कुटिल रास, भीतर कुटिल प्रहार
मिला ज़िंदगी से हमें, बस इतना उपहार (दोहा)
न खनिक विराम है / सतत संग्राम है (दैशिक जातीय छंद)
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यायावर जी का शब्द-भण्डार समृद्ध है. इन नवगीतों में तत्सम शब्द: चीनांशुक, अभीत, वातायन, मधुयामिनी, पिपिलिकाएँ, अंगराग, भग्न चक्र, प्रत्यंचा, कंटकों, कुम्भज, पोष्य, परिचर्या, स्वयं आदि, तद्भव शब्द: सांस, दूध, सांप, गाँव, घर, आग आदि, देशज शब्द: सुअना, मछुआरिन, कित्ता, रचाव, समंदर, चूनर, मछरी, फोटू, बुड़बक, जनम, बबरीवन, पीपरपांती, सतिया, कबिरा, ढूह, ढैया, मड़ैया, तलैया आदि शब्द-युग्म: छप्पर-छानी, शब्द-साधना, ऐरों-गैरों, नाम-निशान, मंदिर-मस्जिद, गत-आगत, चमक-दमक, काक-राग, सृजन-मंत्र, ताने-बाने, रवि-शशि, खिले-खिलाये, ताता-थैया, लय-ताल, धूल-धूसरित, भूखी-प्यासी, छल-बल आदि उर्दू शब्द: अमीन, ऐरे-गैरे-नत्थू खैरे, काबिज़, परचम, फ़िज़ाओं, मजबूरी, तेज़ाबी, सड़के, ममीरा, फ़क़ीरा, रोज़, दफ्तर, फौजी, निजाम आदि, अंग्रेजी शब्द: बैंक-लॉकर, ओवरब्रिज, बूट, पेंटिंग, लिपस्टिक, ट्रैक्टर, बायो गैस, आदि पूरी स्वाभाविकता से प्रयोग हुए हैं. एक शब्द की दो आवृत्तियाँ सहज द्रष्टव्य हैं. जैसे: डरे-डरे, राम-राम, पर्वत-पर्वत, घाटी-घाटी, चूके-चूके, चुप-चुप, प्यासी-प्यासी, पकड़े-पकड़े, मारा-मारा, अकड़े-अकड़े, जंगल-जंगल, बित्ता-बित्ता, सांस-सांस आदि.
यायावर जी ने पारम्परिक गीत और छंद के शिल्प और कलेवर में प्रयोग किये हैं किन्तु मनमानी नहीं की है. वे गीत और छंद की गहरी समझ रखते हैं इसलिए इन नवगीतों का रसास्वादन करते हुए सोने में सुगंध की प्रतीति होती रहती है.
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हास्य सलिला:
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लालू जी बाजार गये, उस दिन लाली के साथ
पल भर भी छोड़ा नहीं, थे लिये हाथ में हाथ
हो खूब' थ था हुआ चमत्कृत बोला: 'तुम हो खूब
दिन भर भउजी के ख्याल में कैसे रहते डूब?
इतनी रहती फ़िक्र न करते पल भर को भी दूर'
लालू बोले: ''गलत न समझो, हूँ सचमुच मजबूर
गर हाथ छोड़ा तो मेरी आ जाएगी शामत
बिना बात क्यों कहो बुलाऊँ खुदही अपनी आफत?
जैसे छोड़ा हाथ खरीदी कर लेगी यह खूब
चुका न पाऊँ इतने कर्जे में जाऊँगा डूब''
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मुक्तिका:
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कैसा लगता काल बताओ
तनिक मौत को गैर लगाओ
मारा है बहुतों को तड़पा
तड़प-तड़पकर मारे जाओ
सलमानों के अरमानों की
चिता आप ही आप जलाओ
समय न माफ़ करेगा तुमको
काम देश के अगर न आओ
३१-७-२०१५
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हास्य रचना
स्वादिष्ट निमंत्रण
तुहिना वर्मा 'तुहिन'
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''खट्टे-मिट्ठे जिज्जाजी को चटपटी साली जी यानी आधी घरवाली जी की ताज़ा-ताज़ा गरमागरम मीठी-मीठी नमस्ते।
यह कुरकुरी पाती पाकर आपके मन में पानी - बतासे की तरह मोतीचूर के लड्डू फूटने लगेंगे क्योंकि हम आपको आपकी ससुराल में तशरीफ़ लाने की दावत दे रहे हैं।
मौका? अरे हुजूर मौका तो ऐसा है कि जो आए वो भी पछताए...जो न आए वह भी पछताए क्योंकि आपकी सिर चढ़ी सिरफिरी साली इमरतिया की शादी यानी बर्बादी का जश्न बार-बार तो होगा नहीं।
ये रसमलाई जैसा मिठास भरा रिश्ता पेड़ा शहर, कचौड़ी नगर के खीरपुर मोहल्ले के मोटे-ताजे सेठ समोसामल मिंगौड़ीलाल के हरे-भरे साहिबजादे, खीरमोहन सिवईं प्रसाद के साथ होना तय हुआ है।
चाँदनी चौक में चमचम चाची को चाँदी की चमचमाती चम्मच से चिरपिरी चटनी चटाकर चर्चा में आ चुके चालू चाचा अपने आलूबंडे बेटे और भाजीबड़ा बिटिया के साथ चटखारे लेते हुए यहाँ आकर डकार ले रहे हैं।
जलेबी जिज्जी, काजू कक्का, किशमिश काकी, बादाम बुआ, फुल्की फूफी, छुहारा फूफा, चिरौंजी चाची, चिलगोजा चाचा, मखाना मौसा, मुसम्बी मौसी, दहीबड़ा दादा, दाल-भात दादी, आज गुलाब जामुन-मैसूरपाग एक्सप्रेस से आइसक्रीम खाते हुए, अखरोटगंज स्टेशन पर उतरेंगे।
रसमलाई धरमशाला में संदेश बैंड, बर्फी आर्केस्ट्रा, सिवईया बानो की कव्वाली, बूंदी बेगम का मुजरा, आपको दिल थामकर आहें भरने पर मजबूर कर देगा।
शरबती बी के बदबख्त हाथों से विजया भवानी यानी भांग का भोग लगाकर आप पोंगा पंडित की तरह अंगुलियाँ चाटते हुए कार्टून या जोकर नजर आयेंगे. पत्थर हज़म हजम हाजमा चूर्ण, मुंह जलाऊ मुनक्का बाटी के साथ मीठे मसालेवाला पान और नशीला पानबहार लिये आपके इन्तेज़ार में आपकी नाक में दम करनेवाली रस की प्याली
-- रबडी मलाई
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