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सोमवार, 13 फ़रवरी 2017

samaroh

अखिल भारतीय गीतिका काव्योत्सव् एवं सम्मान समारोह








भोपाल २१२-२-२०१७. स्वराज भवन भोपाल में अखिल भारतीय गीतिका काव्योत्सव् एवं सम्मान समारोह के प्रथम सत्र में संक्षिप्त वक्तव्य के साथ तुरंत रची मुक्तिका का मुक्तक का पाठ किया-

गीतिका उतारती है भारती की आरती
नर्मदा है नेह की जो विश्व को है तारती

वास है 'कैलाश' पे 'उमेंश' को नमन करें
'दीपक' दें बाल 'कांति' शांति-दीप धारती

'शुक्ल विश्वम्भर' 'अरुण' के तरुण शब्द
दृगों में समंदर है गीतिका पुकारती

मुक्तिका मनोरम है शोभा 'मुख पुस्तक' की
घनश्याम अभिराम हो अखंड भारती

गीतिका है मापनी से युक्त-मुक्त दोनों ही
छवि है बसंत की अनंत जो सँवारती
*
मुक्तक
अपनी जड़ों से टूटकर मत अधर में लटकें कभी
गोद माँ की छोड़कर परिवेश में भटकें नहीं
जो हित सहित है सर्व के साहित्य है केवल वही
रच कल्पना में अल्पना रस-भाव-लय का संतुलन
*
मुख पुस्तक पर पढ़ रहे, मन के अंतर्भाव
रच-पढ़-बढ़ते जो सतत, रखकर मन में चाव
वे कण-कण को जोड़ते, सन्नाटे को तोड़
क्षर हो अक्षर का करे, पूजन 'सलिल' सुभाव
***
टीप- श्री कैलाश चंद्र पंत मंत्री राष्ट्र भाषा प्रचार समिति विशेष अतिथि, डॉ. उमेश सिंह अध्यक्ष साहित्य अकादमी म. प्र. मुख्य अतिथि, डॉ. देवेन्द्र दीपक निदेशक निराला सर्जन पीठ अध्यक्ष , डॉ. कांति शुक्ल प्रदेश अध्यक्ष मुक्तिका लोक, डॉ. विश्वम्भर शुक्ल संयोजक मुक्तक लोक, अरुण अर्णव खरे संयोजक, घनश्याम मैथिल 'अमृत', अखंड भारती संचालक, बसंत शर्मा अतिथि कवि.
***

भोपाल २१२-२-२०१७. स्वराज भवन भोपाल में अखिल भारतीय गीतिका काव्योत्सव् एवं सम्मान समारोह के द्वितीय सत्र की अध्यक्षता की. लगभग ३५ कवियों द्वारा काव्य पाठ में निर्धारित से अधिक समय लेने का मोह न छोड़ने और सभागार रिक्त करने की बाध्यता के कारण अध्यक्षीय वक्तव्य न देकर तुरंत रची मुक्तिका का पाठ किया. क्या कविगण निर्धारित से अधिक समय लेने की लत छोड़ेंगे???
गीतिका है मनोरम सभी के लिये 
दृग में है रस समुंदर सभी के लिए

सत्य, शिव और सुंदर सृजन नित करें 
नव सृजन मंत्र है यह सभी के लिए

छंद की गंधवाही मलय हिन्दवी 
भाव-रस-लय सुवासित सभी के लिए

बिम्ब-प्रतिबिम्ब हों हम सुनयने सदा 
साध्य है, साधना है, सभी के लिए
भाव ना भावना, काम ना कामना 
तालियाँ अनगिनत गीतिका के लिए
गीत गा गीतिका मु क्तिका से कहे 
तेवरी, नव गजल है सभी के लिए 
 ***

गुरुवार, 13 अक्टूबर 2016

hindigazal / muktika

​हिंदी ग़ज़ल - 

बहर --- २२-२२  २२-२२  २२२१  १२२२ 
*
है वह ही सारी दुनिया में, किसको गैर कहूँ बोलो?
औरों के क्यों दोष दिखाऊँ?, मन बोले 'खुद को तोलो' 
*
​खोया-पाया, पाया-खोया, कर्म-कथानक अपना है 
क्यों चंदा के दाग दिखाते?, मन के दाग प्रथम धो लो 
*
जो बोया है काटोगे भी, चाहो या मत चाहो रे!
तम में, गम में, सम जी पाओ, पीड़ा में कुछ सुख घोलो 
*
जो होना है वह होगा ही, जग को सत्य नहीं भाता
छोडो भी दुनिया की चिंता,  गाँठें निज मन की खोलो 
*
राजभवन-शमशान न देखो, पल-पल याद करो उसको 
आग लगे बस्ती में चाहे, तुम हो मगन 'सलिल' डोलो 
***

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2016

gitika chhand


​                                                            
रसानंद दे छंद नर्मदा १
​७
 : 
​गीतिका
 
 

दोहा, आल्हा, सार
​,​
 ताटंक,रूपमाला (मदन), चौपाई
​ 
तथा  
उल्लाला
 छंदों से साक्षात के पश्चात् अब मिलिए
​​
गीतिका
​ ​
से.

लक्षण :                                                                                                                                     गीतिका मात्रिक सम छंद है जिसमें 
​२६
 मात्राएँ होती हैं
​​
​ १४​
 और 
​१२
 पर यति तथा 
अंत में लघु -गुरु 
​आवश्यक 
है
। ​इस छंद की तीसरी, दसवीं, सत्रहवीं और चौबीसवीं अथवा दोनों चरणों के तीसरी-दसवीं मात्राएँ लघु हों तथा अंत में रगण हो तो छंद निर्दोष व मधुर होता है
अपवाद- इसमें कभी-कभी यति शब्द की पूर्णता  के आधार पर १२-१४ में भी आ पडती है
​ यथा-​
​राम ही की भक्ति में, अपनी भलाई जानिए
 
- जगन्नाथ प्रसाद 'भानु', छंद प्रभाकर
लक्षण छंद:
सूर्य-धरती के मिलन की, छवि मनोहर देखिए 
गीतिका में नर्मदा सी, 'सलिल'-ध्वनि अवरेखिए
तीसरा-दसवाँ सदा लघु, हर चरण में वर्ण हो
रगण रखिये अंत में सुन, झूमिये ऋतु-पर्ण हो
*
तीन-दो-दो बार तीनहिं, तीन-दो धुज अंत हो
रत्न वा रवि मत्त पर यति, चंचरी लक्षण कहो।   -नारायण दास, हिंदी छन्दोलक्षण 

टीप-  छंद प्रभाकर में भानु जी ने छब्बीस मात्रिक वर्णवृत्त चंचरी (चर्चरी) में 'र स ज ज भ र' वर्ण (राजभा सलगा जभान जभान भानस राजभा) बताये हैं। इसमें कुल मात्राएँ २६ तथा तीसरी, दसवीं, सत्रहवीं और चौबीसवीं अथवा दोनों चरणों के तीसरी-दसवीं मात्राएँ लघु  हैं किंतु दूसरे जगण को तोड़े बिना चौदह मात्रा पर यति नहीं आती। डॉ. पुत्तूलाल ने दोनों छंदों को अभिन्न बताया है। भिखारीदास और केशवदास ने २८ मात्रिक हरिगीतिका को ही गीतिका तथा २६ मात्रिक वर्णवृत्त को चंचरी बताया है। डॉ. पुत्तूलाल के अनुसार  के द्विकल को कम कर यह छंद बनता है। सम्भवत: इसी कारण इसे हरिगीतिका के आरम्भ के दो अक्षर हटा कर 'गीतिका' नाम दिया गया। इसकी मात्रा बाँट (३+२+२) x ३+ (३+२)  बनती है        
मात्रा बाँट:
​ ​
। ऽ 
​ ​
​ ​   
​ ​
। 
​ ​
ऽ 
​ ​
ऽ 
​    ​
​ ​
। ऽ 
​  ​
ऽ 
​  ​
​ ​
। ऽ
हे दयामय दीनबन्धो, प्रार्थना मे श्रूयतां​।
यच्च दुरितं दीनबन्धो, पूर्णतो व्यपनीयताम्
चञ्चलानि मम चेन्द्रियाणि, मानसं मे पूयतां
शरणं याचेऽहं सदा हि, सेवकोऽस्म्यनुगृह्यताम्​।  
उदाहरण:
०१. रत्न रवि कल धारि कै लग, अंत रचिए गीतिका।
     क्यों बिसारे श्याम सुंदर, यह धरी अनरीतिका।।
     पायके नर जन्म प्यारे, कृष्ण के गुण गाइये।
     पाद पंकज हीय में धर, जन्म को फल पाइये।। - जगन्नाथ प्रसाद 'भानु', छंद प्रभाकर  
 
                                                 
०२.
  ​
मातृ भू सी मातृ भू है , अन्य से तुलना नहीं
​​

०३. उस रुदंती विरहिणी के, रुदन रस के लेप से
     और पाकर ताप उसके, प्रिय विरह-विक्षेप से
     वर्ण-वर्ण सदैव जिनके, हों विभूषण कर्ण 
​के
     क्यों न बनते कवि जनों के, ताम्र पत्र सुवर्ण के
​    - मैथिलीशरण गुप्त, साकेत
 

३, ७, १० वीं मात्रा पूर्ववर्ती शब्द के साथ जुड़कर गुरु हो किन्तु लय-भंग न हो तो मान्य की जा सकती है-  
 
०४. कहीं औगुन किया तो पुनि वृथा ही पछताइये - जगन्नाथ प्रसाद 'भानु', छंद प्रभाकर  

०५. हे प्रभो! आनंददाता, ज्ञान हमको दीजिए 
     शीघ्र सारे दुर्गुणों से, दूर हमको कीजिए 
     लीजिए हमको शरण में, हम सदाचारी बनें 
     ब्रम्हचारी धर्मरक्षक, वीर व्रतधरी बनें       -रामनरेश त्रिपाठी 
  
०६. लोक-राशि गति-यति भू-नभ, साथ-साथ ही रहते
     लघु-गुरु गहकर हाथ-अंत, गीतिका छंद कहते

०७. चौपालों में सूनापन, खेत-मेड में झगड़े
      उनकी जय-जय होती जो, धन-बल में हैं तगड़े
      खोट न अपनी देखें, बतला थका आइना
      कोई फर्क नहीं पड़ता, अगड़े हों या पिछड़े
०८. आइए, फरमाइए भी, ह्रदय में जो बात है
      क्या पता कल जीत किसकी, और किसकी मात है
      झेलिये धीरज धरे रह, मौन जो हालात है
     एक सा रहता समय कब?, रात लाती प्रात है

०९. सियासत ने कर दिया है , विरासत से दूर क्यों?
     हिमाकत ने कर दिया है , अजाने मजबूर यों
     विपक्षी परदेशियों से , अधिक लगते दूर हैं
     दलों की दलदल न दल दे, आँख रहते सूर हैं
     *****

शुक्रवार, 22 जनवरी 2010

ग़ज़ल बहुत हैं मन में लेकिन --'सलिल'

ग़ज़ल

'सलिल'

बहुत हैं मन में लेकिन फिर भी कम अरमान हैं प्यारे.
पुरोहित हौसले हैं मंजिलें जजमान हैं प्यारे..

लिये हम आरसी को आरसी में आरसी देखें.
हमें यह लग रहा है खुद से ही अनजान हैं प्यारे..

तुम्हारे नेह का नाते न कोई तोड़ पायेगा.
दिले-नादां को लगते हिटलरी फरमान हैं प्यारे..

छुरों ने पीठ को घायल किया जब भी तभी देखा-
'सलिल' पर दोस्तों के अनगिनत अहसान हैं प्यारे..

जो दाना होने का दावा रहा करता हमेशा से.
'सलिल' से ज्यादा कोई भी नहीं नादान है प्यारे..

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