श्री-श्री चिंतन - दोहा गुंजन
दोहा-दोहा महोत्सव, लो जी भर आनंद।
जीवन का दुःख दो भुला, रचकर गाओ छंद।।
एकाकी रह भीड़ का अनुभव है अज्ञान।
छवि अनेक की एक में, मत देखो मतिमान।।
दिखे एकता भीड़ में, जागे बुद्धि-विवेक।
अनुभव दे एकांत का, भीड़ अगर हो नेक।।
जीवन ऊर्जा ज्ञान दे, अमित आत्म-विश्वास।
ज्ञान मृत्यु का निडर कर, देता आत्म उजास।।
शोर भीड़ हो चतुर्दिक, या घेरे एकांत।
मन हर पल उत्सव मना, सज्जन रहते शांत।।
जीवन हो उत्सव सदा, रहे मौन या शोर।
जन्म-मृत्यु उत्सव मना, रही भक्ति-विभोर।।
जीवन अग्नि समान है, जो डालें हो दग्ध।
इन्द्रिय-भट्टी में डला, जो वह हुआ विदग्ध।।
टायर जल दुर्गंध दे, चंदन जले सुगंध।
दूषित करती; शुद्ध भी, अग्नि मुक्ति-निर्बंध।।
अग्नि जले; उत्सव मने, अग्नि जले; हो शोक।
तुम बस अग्नि जला रहे, या देते आलोक?
खुद जल रौशन करें जग, होते संत कपूर।
प्रेमिल ऊष्मा बिखेंरे, जीव-मित्र भरपूर।।
निम्न अग्नि तम-धूम्र दे, मध्यम धूम्र-उजास।
उच्च अग्नि में ऊष्णता, सह प्रकाश का वास।।
करें बुराई इन्द्रियाँ, तिमिर-धुआँ हो खूब।
संयम दे प्रकृति बदल, जा तू सुख में डूब।।
करें इन्द्रियाँ भलाई, फैले खूब सुवास।
जहाँ रहें सज्जन वहाँ, सब दिश रहे उजास।।
आदत हो या वासना, बाँधें देतीं कष्ट।
तुम छोड़ो वे पकड़कर, करतीं सदा अनिष्ट।।
जीवन चाहे मुक्त हो, किन्तु न जाने राह।
शत जन्मों तक भटकती, आत्मा पाले चाह।।
छुटकारा दें आदतें, करो सुदृढ़ संकल्प।
जीवन-शक्ति दिशा गहे, संयम का न विकल्प।।
फ़िक्र व्यर्थ है लतों की, वापिस लेतीं घेर।
आत्मग्लानि दोषी बना, करें हौसला ढेर।।
लत छोड़ो; संयम रखो, मिले रोग से मुक्ति।
संयम अति को रोकता, सुख से हो संयुक्ति।।
समय-जगह का ध्यान रख, समयबद्ध संकल्प।
करो; निभाकर सफल हो, शंका रखो न अल्प।।
आजीवन संकल्प मत, करो; न होता पूर्ण।
टूटे यदि संकल्प; फिर , करो न रहे अपूर्ण।।
अल्प समय की वृद्धि कर, करना नित्य निभाव।
बंधन में लत बाँधकर, लो तुम बना स्वभाव।।
लत न तज सके तो तुम्हें, हो तकलीफ अपार।
पीड़ाएँ लत छुड़ा दें, साधक वरे सुधार।।
दुर्गुण हटा न सको तो, जाओ उनको भूल।
क्रोध; कामना; फ़िक्र; दुःख, मद को मत दो तूल।।
तुच्छ कारणों से कहो, क्यों होते नाराज़।
ब्रम्ह ईश रब खुदा गुरु, से हो रुष्ट; न लाज।।
अहंकार से तुम अगर, हो न पा रहे मुक्त।
परमेश्वर सँग तुम्हारे, सोच रहो मद-युक्त।।
मोह क्रोध आसक्ति को, अगर न पाते छोड़।
सत् के प्रति आसक्त हो, तब आएगा मोड़।।
ईर्ष्या सेवा के लिए, करो द्वेष से द्वेष।
दिव्य हेतु मदहोश हो, गुरु से राग अशेष।।
इंद्रिय-सुख इच्छा क्षणिक, विद्युत् जैसी जान।
विषय-वस्तु की ओर बढ़, खो प्रभाव अनजान।।
निज सत्ता के केंद्र-प्रति, इच्छाएँ लो मोड़।
हो रोमांचित चिरंतन, सुख पा तजकर होड़।।
अपने अंदर मिलेगा, तुम्हें नया आयाम।
प्रेम सनातन शाश्वत, परमानंद अनाम।।
लोभ-ईर्ष्या; वासना, ऊर्जा सबल अपार।
स्रोत तुम्हीं कर शुद्ध दे, निष्ठा-भक्ति सुधार।।
सुख की विद्युत्-धार हो, तुम्हीं समझ लो आप।
घटे लालसा शांति आ, जाती जीवन-व्याप।।
मृत्यु सुनिश्चित याद रख, जिओ आज में आज।
राग-द्वेष से मुक्त हो, प्रभु-अर्पितकर काज।।
इच्छाओं का लक्ष्य है, खुशियाँ सब हों नष्ट।
मन में झाँको; देख लो, इच्छा करे अनिष्ट।।
इच्छा करते ख़ुशी की, दुःख की तनिक न चाह।
कभी न थी; होगी नहीं, मन रह बेपरवाह।।
भाग-भाग जब क्लांत हो, नन्हा मन तब आप।
इच्छाएँ छीनें खुशी, सच जानें पा आप।।
मोह-अंध गुरु नैन खो, खड़ी करे निज खाट।
दानी में हो अहं तो, वामन बने विराट।।
क्षत्रिय में विप्रत्व के, भार्गव बोते बीज।
यही नाश क्षत्रियों का, अहं गया जब छीज।।
राम-श्याम दो छोर हैं, रख दोनों को थाम।
तजा एक को भी अगर, लगे विधाता वाम।।
कलकिन कल अब के लिए, रखें ज्ञान-तलवार।
काट रहे अज्ञान-सर, कर मानव उद्धार।।
खुशी हेतु इच्छा करें, इच्छाएँ हों लक्ष।
पहुँचा देगी लक्ष्य तक, इच्छा यदि तुम दक्ष।।
इच्छाओं की प्रकृति क्या, करिए कभी विचार।
इच्छा कल, आनंद है, अब में निहित अपार।।
तुम हो यदो आनंदमय, इच्छाएँ हों दूर।
इच्छा मन में हो नहीं, हो आनंद जरूर।।
इच्छा से आनंद का, होता है आभास।
मिल न सके आनंद है, यह माया-अहसास।।
यादें या अनुभव सुखद, हैं इच्छा का मूल।
मिलना सुनना देखना, दे इच्छा को तूल।।
निश्चित घटना या नियति, से इच्छाएँ जाग।
प्रेरित करतीं; कार्यरत, हो लेते तुम भाग।।
भूखे को भोजन दिला, करी किसी से बात।
काम किया कोई कभी, इच्छावश ही तात।।
इच्छाएँ पूछें नहीं, उपजें अपने आप।
'करूँ न इच्छा चाह में, जाती इच्छा व्याप।।
इच्छा को पकड़ो नहीं, करो समर्पित भूल।
होंगी तब उत्पन्न कम, नाहक मत दो तूल।।
आवेदन दो यदि नहीं, हो किस तरह प्रवेश।
इच्छा-टिकिटें द्ववार पर, देना पड़ें हमेश।।
सदा कामना कर रहे, जो उनका दुर्भाग्य।
इच्छा-पूर्ति विलंब से, तो सच्चा सौभाग्य।।
इच्छा होते पूर्ण हो, तो बेहतर है भाग्य।
इच्छा यदि हो ही नहीं, तो सच्चा सौभाग्य।।
इच्छा कारण दुखों का, कहते गौतम बुद्ध।
पूर्ण न हो कुंठित करे, जैसे दुःख दे युद्ध।।
पूर्ण हुई इच्छा अगर, तृप्ति न पाते आप।
खाली हाथों ही तुम्हें, छोड़े मानो शाप।।
इच्छा कारण सुखों का, कहते रहे वशिष्ठ।
व्यक्ति-वस्तु की कामना, कर सुख मिलता मिष्ट।।
चाह नहीं तो सुख नहीं, थके; लगी हो प्यास।
शीतल जल दे सुख तभी, खिले अधर पर हास।।
प्यास न हो तो जल नहीं, कर पाता है तृप्त।
सुखदा बाँधे दुखितकर, बंधन रखे अतृप्त।।
इच्छा हो यदि सत्य की, शेष सभी हों दूर।
जो न मिला इच्छा वही, करते होकर सूर।।
सत्य सनातन शाश्वत, मेटे इच्छा शेष।
परमानंद तभी मिले, चाह न जब हो लेश।।
इच्छाएँ-संकल्प ही, प्रभु से करते दूर।
करो समर्पित ईश को, होगे दिव्य जरूर।।
तुम ही ईश्वर हो करो, इस सच का भी भान।
मुक्ति मिलें; कमियाँ नहीं, शेष; बनो रस-खान।।
सुख-पीड़ा की तन करे. सदा तीव्र अनुभूति।
'मैं तेरा हूँ' हो सके, सुख-दुःख बिना प्रतीति।।
राग-द्वेष; मन-कामना, शंकाएँ हों दूर।
पल भर में अपना लगे, जग भए भरपूर।।
सभी दुखों का मूल है, मैं-मेरा का भाव।
यह पसंद है; यह नहीं, छोड़ें मिटे अभाव।।
सूर्य उदित हो; अस्त भी, बहे नदी; उग घास।
चंद्र चमकता; मैं यहाँ, सदा करें अहसास।।
चित्ताकर्षक अधिकतम, निराकार जग-व्याप्त।
खींचे अपनी ओर जो, 'कृष्ण' शक्ति है आप्त।।
आकर्षण हो कहीं जो, खींचे अपनी ओर।
वही कृष्ण है; कहीं है, उसका ओर न छोर।।
बाह्य आवरण में उलझ, सत्व न देखें मूल।
चकमा देते कृष्ण तब, जान सकें हम भूल।।
महज खोखला आवरण, अगर न अजना सत्य।
तब आँखों में अश्रु आ, कहें- अधूरा कृत्य।।
हो राधा सम चतुर तुम, छल न सकें तब श्याम।
श्वास-श्वास हो कृष्णमय, सृष्टि लगे अभिराम।।
कृष्ण दिखें यदि हर जगह, तब राधा हो आत्म।
केंद्रित अपने आप में, साथ रहे परमात्म।।
मन बढ़ता सौंदर्य सत्, चिदानंद की ओर।
'शक्ति-ज्ञान-सौंदर्य' हरि, सुने पार्थ कर जोर।।
बढ़ती जब आसक्ति तब, मन हो जाता व्यग्र।
मन: शांति बिन बिखर तुम, टूट हो दुखी-उग्र।।
देर न कर सच समझ लो, मत बिखरो हो शांत।
व्यग्र न हो कर समर्पण, करो साधना-कांत।।
डुबा सिंधु आसक्ति का, रहा; करो मत देर।
'लाइफ जैकेट' शरण-गति, गहो मिटे अंधेर।।
लड़ो नहीं आसक्ति से, वरो आंतरिक मौन।
ज्वरित श्वास पर ध्यान दो, डिगा सकेगा कौन?
मोड़ो निज आसक्ति को, प्रभु-प्रति उपजा ज्ञान।
अनासक्ति संसार-प्रति, आकर्षण तव जान।।
रहे दिव्यता के लिए, जो लगाव-सौंदर्य।
निरासक्ति ही घोलती, जीवन में माधुर्य।।
सुख-चिंतन से लालसा, होती है उत्पन्न।
सुखद न हों अनुभूतियाँ, यादों सम आसन्न।।
दैवी हो या जागतिक, सुख दे तुम्हें विचार।
नश्वर सुख आसक्ति का, दे नैराश्य विकार।।
यदि विचार दैवीय हो, दे सुख; चिर आनंद।
प्रज्ञा-उन्नति ओर जा, पाओ परमानंद।।
'देह नहीं; आनंद हूँ', है दैवीय विचार।
हूँ अनंत; मैं शून्य भी, शांति-प्रकाश अपार।।
धन-पद; कामाहर; हक, आत्म-प्रतिष्ठा-सार।
सांसारिक चिंतन यही, चिंता अपरंपार।।
भौतिकता का सुनहरा, है नकाब; सच लुप्त।
भेद आवरण जान लो, हो रवि; रहो न सुप्त।।
जड़ भी हो चैतन्य यदि, मन में उपजे प्रेम।
तरु-पत्थर बातें करें, रवि-शशि करते क्षेम।।
हो सजीव; निर्जीव यदि, रहे वासना संग।
दे तनाव छ्ल-कपट से, करे रंग में भंग।।
लीला प्रेम-विनोदमय, दे मन को विश्राम।
उतर सकल व्यक्तित्व पर, जीवन करे ललाम।।
कब्जा करती वासना, झपट अंग पर हेय।
प्रेम-समर्पण-यत्न बिन, दे सर्वस्व अदेय।।
हिंसा करती वासना, प्रेम करे बलिदान।
प्रेम सत्य-अधिकार है, माँग वासना जान।।
दुविधा देती वासना, क्षेम केन्द्रित प्रेम।
नीरस तममय वासना, रूप-रंग शुभ प्रेम।।
कहे वासना वही लो, जो है मेरी चाह।
प्रेम कहे जो चाहते, वह लो सच्ची राह।।
ज्वर-कुंठा दे वासना, जकड़े-करे विनाश।
उत्कंठा-स्वाधीनता, मुक्ति-प्रेम मृदु पाश।।
बाधित होकर वासना, करती नफरत-क्रोध।
जग में फ़ैली घृणा का, मूल वासना बोध।।
भोले भोले प्रेम के, श्रेष्ठ पुनीत प्रतीक।
ध्यान-मगण थे काम ने, डाला खलल अलीक।।
उठे ध्यान से शिव लिया, नयन तीसरा खोल।
मन-मथ मन्मथ भस्म हो, 'क्षमा' न पाया बोल।।
मन को जकड़े वासना, मति करती कमजोर।
जड़ता हो आसक्ति से, दमन क्रोध दे घोर।।
आदिम ऊर्जा वासना, चंचल बिना लगाम।
करें नियंत्रित तो यही, ऊर्जा-प्रेम ललाम।।
सकें वासना को बदल, शुद्ध प्रेम में मीत।
शीतल जल में स्नान कर, सृजन कार्य की रीत।।
हों विनोद प्रिय आप तो, रहे वासना दूर।
करता विमल विनोद जो, हो न सके वह क्रूर।।
जन्मे देने के लिए, हो उदार यह सोच।
तब विलीन हो वासना, मिटता लालच-पोच।।
रखें याद जब मृत्यु को, तभी कुशल लें मान।
दिव्य प्रेम यदि याद तो, मिटे वासना जान।।
रूप दूसरा प्रेम का, है भय रखिए याद।
नेह-भीति वश चिपकते, माँ-शिशु बिन संवाद।।
मूल पुरातन वृत्ति भय, मिटा सके प्रभु-प्रेम।
ज्ञान-मार्ग अपनाइए, माँगें सबकी क्षेम।।
भय अतीत का चिन्ह है, वर्तमान के साथ।
दर्शा सके भविष्य को, मिटा उठाकर माथ।।
यदि न सके स्वीकार भय, अहंकार ले जीत।
भय स्वीकारो जीत लो, हो निर्भय जग-मीत।।
अस्त-व्यस्त पूरी तरह, या कि व्यवस्थित पूर्ण।
जब होते निर्भय तभी, हों हर भय कर चूर्ण।।
संत और नादान को, निर्भय पाते आप।
मूल वृत्ति भय व्यवस्थित, रखता जग को व्याप।।
जीवन की रक्षा करो, रहो मौत से भीत।
गलती का भय सही से, सदा बढ़ाए प्रीत।।
रोगों का भय सफाई, प्रति रखता चैतन्य।
दुःख-भय नेकी-पथ चला, कहे न बद वर अन्य।।
शिशु भय-वश होकर रहे, चलते समय सतर्क।
कुछ भय भी है जरूरी, व्यर्थ न बढ़े. कुतर्क।।
मिटा न भय; नित ध्यान कर, जाओ सच के पास।
या तो तुम कोई नहीं, या ईश्वर के ख़ास।।
भय पैदा हो तभी जब, हम सीमा दें तोड़।
भय से उपजे द्वेष ही, दे सीमा में छोड़।।
सीमा में सीमित रखें, रक्ष हेतु प्रयास।
निज बचाव की चेष्टा, दे तनाव सायास।।
होते हो कमजोर तुम, जब-जब करो बचाव।
निज रक्षा करता नहीं, जिसे न कोई अभाव।।
पथिक रहें अध्यात्म के, आलोचन से दूर।
रही ज्ञान-प्रयोग से, निज रक्षा-हित दूर।।
ज्ञान छात्र के तरह है, ज्ञान नहीं हथियार।
ज्ञान-बाह्यता हेतु मत, करो इसे स्वीकार।।
गलती सहज स्वभाव है, छोड़ो रक्षा-कर्म।
स्वीकारो आगे बढ़ो, तज बचाव बिन मर्म।।
जब निज रक्षा का नहीं, कोई करे विधान।
तभी सबल हो मान लो, भय का नहीं निशान।।
कर्तापन का भाव ही, चाहे करो सुधार।
कर्तापन ही गल्तियों, का होता आधार।।
अधिक गल्तियाँ कराती, है सुधार की चाह।
यादो पहचानी गलतियाँ, मिले मुक्ति की राह।।
'भूल हुई' जब-जब-जब करें, हम मन से स्वीकार।
कर सफाई की चेष्टा, बनें न जिम्मेदार।।
करें दोष महसूस जब, 'भूल हुई' यह मान।
दुःख हो बुद्धि कचोटती, गलती का हो भान।।
कार्य; परिस्थिति; व्यक्ति में, त्रुटि संभव है सत्य।
त्रुटि मुरझाती फूल सम, होता लुप्त अकृत्य।।
माफी माँगे भक्त क्यों?, चुभन हुई महसूस।
मुक्ति चाहते क्यों मिले?, चुभन करो महसूस।।
चुभन न गलती दुबारा, होने देगी सत्य।
'क्षमा' मिटती चुभन तो, फिर-फिर हो अपकृत्य।।
कैसे जानें क्या गलत?, मन में करें विचार।
जो चुभता वह ही गलत, सोच करो स्वीकार।।
अंतर्मन को कचोटे, चुभन न कर प्रतिकार।
गलती मत फिर से करो, चुभन करे उपकार।।
रहो चुभन के साथ तुम, पर न ग्लानि के साथ।
बहुत सूक्ष्म संतुलन यह, साध उठाकर माथ।।
ग्लानि कार्य की प्रतिक्रिया, किया मानते दोष।
चुभन हुए की प्रतिक्रिया, जिस पर तुमको रोष।।
कर्ता को ही ग्लानि हो, कारण खुद को मान।
भोक्ता को होती चुभन, होनी कारण जान।।
जोहोता कारण बने, कभी अजाने आप।
कभी-कभी कारण न तुम, दूजा हो चुपचाप।।
जान सको मन-चेतना, का स्वभाव; क्या रीत?
व्यापक दृष्टि अमर रहे, ग्लानि सके मति जीत।।
ले सकते गलतियों से, सीख बुद्धि अनुसार।
आहत होती भावना, चुभन करे छिप वार।।
प्रवहित होती भावना, अधिक शक्ति के साथ।
बुद्धि सीख ले शांत रह, मिला हाथ से हाथ।।
गल्ती फिर-फिर हो नहीं, चुभन उसे ले रोक।
बुद्धि ब्रेक सैम भावना, झट देती है टोंक।।
सिर्फ भावना से नहीं, मिल सकता परिणाम।
मात्र बुद्धि से भी नहीं, बन सकते सब काम।।
करती सजग तुम्हें चुभन, हुआ; न सकते रोक।
रोक सके जो समर्पित, उस-प्रति हो बिन टोक।।
ग्लानि-मुक्त कर समर्पण, देता है उल्लास।
चुभन सजगता समर्पण, मुक्ति न दूर विकास।।
गलती गलती की तरह, जो न देखते धन्य।
कठिन न गलती देखना, अपनी; होकर अन्य।।
अन्यों को दे सफाई, कहो; न किया गुनाह।
अंतरात्मा दोष दे, कभी न कहती वाह।।
गलती चुभती है चुभे, चुभन निकाले राह।
बिन मन मत दो सफाई, करो चुभन की चाह।।
गलती वह जो अंतत:, दे कर्ता को पीर।
जान-बूझ कोई करे, क्यों? सोचो धर धीर?
गलती इंगित करी तो, समझ न खुद को भिन्न।
यह अपना हिस्सा समझ, उससे रहे अभिन्न।।
आवश्यक हो यदि नहीं, तब दर्शाई भूल।
तो यह भी है भूल ही, चुभती बनकर शूल।।
समय-जगह का यदि नहीं, मन में किया ख़याल।
गलत बता; गलती करी, समझो हो न मलाल।।
गलती पहली बार की, देती; ले लो सीख।
दोहराकर गलती बड़ी, करो न दोषी दीख।।
गलती; मौका सीख लो, सबक न चूको आप।
परख न गलती; गुणों से, नाहक कर न विलाप।।
गलती सांसारिक क्रिया, सद्गुण प्रभु-उपकार।
सीख अन्य के गलत से, ले ज्ञानी हर बार।।
खुद की गलती से सबक, लेता है कमअक्ल।
बार-बार गलती करे, जो वह है बेअक्ल।।
हों न इधर या उधर के, तो घटता सद्भाव।
पैदा होता यहीं से अपने आप तनाव।।
बुद्धि-ज्ञान घटना नहीं, कर हर शंका दूर।
जो भाए स्वीकार लो, सत्य मान भरपूर।।
तुम काले को श्वेत या, भूरा ही लो मान।
हो निश्शंक सुशांत मन, हो स्थिरता लो जान।।
'गलती की क्या सजा दूँ?', 'सजा न दें गुरु आप'।
फिर न करूँ गलती कभी, शिष्य हुआ चुपचाप।।
'तुझसे भी गलती हुई, सजा मिले क्या?; बोल।'
'गुरु जी! जो मन दीजिए', शिष्य कहे मुँह खोल।।
'गुरु जी ने हँसकर कहा:'इसे अडिग विश्वास।
अपने गुरु के प्रेम पर, भय न सजा से त्रास'।।
प्रेम अगर तो भय नहीं, प्रभु पर यदि विशवास।
डरो न मिलता दंड यदि, सहो; न टूटे आस।।
जहाँ निकटता-भाव हो, जला न शंका-दीप।
दूरी ही शंका बने, प्रिय निश्शंक समीप।।
शंका उपजे; प्रिय न प्रिय, है समीप पर दूर।
खुद पर हो; उस पर न हो, शंका रहे अदूर।।
अपने प्रति संदेह है, बस नैकट्य-अभाव।
निकट-सहज अपनत्व ही, शंका का प्रतिभाव।।
शंका जीवन अंश वह, जो भूरा-अस्पष्ट।
श्वेत नहीं; काला नहीं, किन्तु करे आकृष्ट।। १६०