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शुक्रवार, 31 अगस्त 2018

मेरे घर विश्व हिन्दी सम्मेलन

व्यंग्य 


इन दिनो मेरा घर ग्लोबल विलेज की इकाई है . बड़े बेटी दामाद दुबई से आये हुये हैं .,छोटी बेटी लंदन से और बेटा न्यूयार्क से . मेरे पिताजी अपने आजादी से पहले और बाद के अनुभवो के तथा  अपनी लिखी २७ किताबो के साथ हैं . मेरी सुगढ़ पत्नी जिसने हिन्दी माध्यम की सरस्वती शाला के पक्ष में  मेरे तमाम तर्को को दरकिनार कर बच्चो की शिक्षा कांवेंट स्कूलों से करवाई  है , बच्चो की सफलता पर गर्वित रहती है . पत्नी का उसके पिता और मेरे श्वसुर जी के महाकाव्य की स्मृतियो को नमन करते हुये अपने हिन्दी अतीत और अंग्रेजी के बूते दुनियां में सफल अपने बच्चो के वर्तमान पर घमण्ड अस्वाभाविक नही है .  मैं अपने बब्बा जी के स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सेदारी की गौरव गाथायें लिये उसके सम्मुख हर भारतीय पति की तरह नतमस्तक रहता हूं . हमारे लिये गर्व का विषय यह है कि तमाम अंग्रेजी दां होने के बाद भी मेरी बेटियो की हिन्दी में साहित्यिक किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं  और उल्लेखनीय है कि भले ही मुझे अपनी  दस बारह पुस्तकें प्रकाशित करवाने हेतु  भागमभाग , और कुछ के लिये  प्रकाशन व्यय तक देना पड़ा रहा हो पर बेटियो की पुस्तके बाकायदा रायल्टी के अनुबंध पत्र के साथ प्रकाशक ने स्वयं ही छापी हैं . ये और बात है कि अब तक कभी रायल्टी के चैक के हमें दर्शन लाभ नही हो पाये हैं . तो इस भावभूमि के संग जब हम सब मारीशस में विश्व हिन्दी सम्मेलन के पूर्व घर पर इकट्ठे हुये तो स्वाभाविक था कि  हिन्दी साहित्य प्रेमी हमारे परिवार का विश्व हिन्दी सम्मेलन घर पर ही मारीशस के सम्मेलन के उद्घाटन से पहले ही शुरु हो गया . 
मेरे घर पर आयोजित इस विश्व हिन्दी सम्मेलन का पहला ही  महत्वपूर्ण सत्र खाने की मेज पर इस गरमागरम बहस पर परिचर्चा का रहा कि चार पीढ़ीयो से साहित्य सेवा करने वाले हमारे परिवार में से किसी को भी मारीशस का बुलावा क्यो नही मिला ? पत्नी ने सत्र की अध्यक्षता करते हुये स्पष्ट कनक्लूजन प्रस्तुत किया कि मुझमें जुगाड़ की प्रवृत्ति न होने के चलते ही ऐसा होता है . मैने अपना सतर्क तर्क दिया कि बुलावा आता भी तो हम जाते ही नही हम लोगो को तो यहाँ मिलना था और फिर  विगत दसवें सम्मेलन में मैने व पिताजी दोनो ने ही भोपाल में प्रतिनिधित्व किया तो था ! तो छूटते ही पत्नी को मेरी बातो में अंगूर खट्टे होने का आभास हो चुका था उसने बमबारी की,  भोपाल के  उस प्रतिनिधित्व से क्या मिला ? बात में वजन था ,मैं भी आत्म मंथन करने पर विवश हो गया कि सचमुच भोपाल में मेरी  भागीदारी या मारीशस में न होने से न तो मुझे कोई अंतर पड़ा और न ही हिन्दी को . फिर मुझे भोपाल सम्मेलन की अपनी उपलब्धि याद आई वह सेल्फी जो मैने दसवें भोपाल विश्व हिन्दी सम्मेलन के गेट पर ली थी और जो कई दिनो तक मेरे फेसबुक पेज की प्रोफाईल पिक्चर बनी रही थी . 
घर के वैश्विक हिन्दी सम्मेलन के अवसर पर पत्नी ने  प्रदर्शनी का सफल आयोजन किया था .  दामाद जी के सम्मुख उसने उसके पिताजी के महान कालजयी पुरस्कृत महाकाव्य देवयानी की सुरक्षित प्रति दिखलाई , मेरे बेटे ने उसके ग्रेट ग्रैंड पा यानी मेरे बब्बा जी की हस्तलिखित डायरी , आजादी के तराने वाली पाकेट बुक साइज की पीले पड़ रहे अखबारी पन्नो पर मुद्रित  पतली पतली पुस्तिकायें जिन पर मूल्य आधा पैसा अंकित है  ,  ऐतिहासिक दस्तावेज के रूप में उन्हें पालीथिन के भीतर संरक्षित स्वरूप में दिखाया . उन्हें देखकर पिताजी की स्मृतियां ताजा हो आईं और हम बड़ी देर तक हिन्दी , उर्दू , अंग्रेजी, संस्कृत की बातें करते रहे . यह सत्र भाषाई सौहाद्र तथा  विशेष प्रदर्शन का सत्र रहा . 
अगले कुछ सत्र मौज मस्ती और डिनर के रहे . सारे डेलीगेट्स सामूहिक रूप से आयोजन स्थल अर्थात घर के  आस पास भ्रमण पर निकल गये . कुछ शापिंग वगैरह भी हुई . डिनर के लिये शहर के बड़े होटलो में हम टेबिल बुक करके सुस्वादु भोजन का एनजाय करते रहे . मारीशस वाले सम्मेलन की तुलना में खाने के मीनू में तो शायद ही कमी रही हो पर हाँ पीने वाले मीनू में जरूर हम कमजोर रह गये होंगे . वैसे हम वहाँ  जाते भी तो भी हमारा हाल यथावत ही होता . हम लोगो ने हिन्दी के लिये बड़ी चिंता व्यक्त की . पिताजी ने उनके भगवत गीता के हिन्दी काव्य अनुवाद में हिन्दी अर्थ के साथ ही अंग्रेजी अर्थ भी जोड़कर पुनर्प्रकाशन का प्रस्ताव रखा जिससे अंग्रेजी माध्यम वाले बच्चे भी गीता समझ सकें . प्रस्ताव सर्व सम्मति से पास हो गया . मैंने विशेष रूप से अपने बेटे से आग्रह किया कि वह भी परिवार की रचनात्मक परिपाटी को आगे बढ़ाने के लिये हिन्दी में न सही अंग्रेजी में ही साहित्यिक न सही उसकी रुचि के वैज्ञानिक विृयो पर ही कोई किताब लिखे . जिस पर मुझे उसकी ओर से  विचार करने का आश्वासन मिला . बच्चो ने मुझे व अपने बब्बा जी को कविता की जगह गद्य लिखने की सलाह दी . बच्चो के अनुसार कविता सेलेबल नही होती . इस तरह गहन वैचारिक विमर्शो से ओतप्रोत घर का विश्व हिन्दी सम्मेलन परिपूर्ण हुआ . हम सब न केवल हिन्दी को अपने दिलो में संजोये अपने अपने कार्यो के लिये अपनी अपनी जगह वापस हो लिये वरन हिन्दी के मातृभाषी  सास्कृतिक मूल्यों ने पुनः हम सब को दुनियां भर में बिखरे होने के बाद भी भावनात्मक रूप से कुछ और करीब कर दिया . 

विवेक रंजन श्रीवास्तव 
mo 7000375798

Sandhya Chaturvedi

Thu, Aug 30


  
मनहरण धनाक्षरी


कृष्णा संग बसे राधा
बिन श्याम सब आधा
मन बसे रूप सादा
ये ही सच्ची प्रीत है।
श्याम जब से मिले हो
कष्ट सारे ही हरे हो
बजे मधुर सँगीत
ये  प्रेम की रीत हैं।
दिल में तूम बसे हो
मन मे तूम रमें हो
मेरा तो बस कृष्ण ही
सच्चा मनमीत है।
मधुर कितना लगे
जब प्रभु भक्ति जगे
दिल के तार बजे है
जीवन संगीत है।

✍संध्या चतुर्वेदी
मथुरा

गुरुवार, 23 अगस्त 2018

एक रचना 
जितना जी चाहे
सलिल सरोज 
*
जितना जी चाहे ,तुम खूब मेरा इम्तहान लेना
ज़िंदगी, पहले तुम मुझे जीने का सामान देना 
 
मैं छोड़ सकूँ अपने निशाँ मंज़िल के सीने पे 
मेरी राहों में थोड़ी हँसी, थोड़ी मुस्कान देना 

न चुप हो जाऊँ कभी भी किसी सितमसाई पे 
गर मुँह दिया है  तो जरूर सच्ची ज़ुबान देना 

ज़माने का शक्ल झुलसा हुआ है,  देर लगेगी 
मरम्मत के लिए मेरी रूह को  इत्मीनान देना 

मैं जीत जाऊँ  ये  जंग मोहब्बत के कशीदों से 
पर जरूरत पड़े तो बाक़ायदा तीर-कमान देना 
संपर्क: B 302 तीसरी मंजिल, सिग्नेचर व्यू अपार्टमेंट
मुखर्जी नगर, नई दिल्ली-110009
Mail:salilmumtaz@gmail.com
 
एक रचना:
सीख लिया
डॉरूपेश जैन 'राहत"
*
गले लगते दोस्त बोला क्या छोड़ दिया चैन से जीना सीख लिया
सारा दिन फेसबुक पर रहना छोड़ दिया चैन से जीना सीख लिया
व्हाट्स एप यूनिवर्सिटी हर रोज नए पचड़े सर दर्द की नई दुकान
दिन भर पिंगों-फारवर्ड करना छोड़ दिया चैन से जीना सीख लिया
अब कहें क्या नया चलन चला है दीवाने फ़ुज़ूल वीडियो बनाने का
घडी-घडी यूट्यूब लोड करना छोड़ दिया चैन से जीना सीख लिया
सारे काम यूँही धरे रह गए बस इक फोटू का इन्तजार शामों-सहर
हमनें इंस्टाग्राम फॉलो करना छोड़ दिया चैन से जीना सीख लिया
घर बैठे न होता काम समस्या सुलझाने सड़क पे उतरना पड़ता हैं
'राहत' हमनें हैश टैग करना छोड़ दिया चैन से जीना सीख लिया
डॉ. रूपेश जैन 'राहत'
०८/०८/२०१८

बुधवार, 22 अगस्त 2018

भाषा विविधा दोहा

संस्कृत दोहा: शास्त्री नित्य गोपाल कटारे
वृक्ष-कर्तनं करिष्यति, भूत्वांधस्तु भवान्। / पदे स्वकीये कुठारं, रक्षकस्तु भगवान् 
मैथली दोहा: ब्रम्हदेव शास्त्री
की हो रहल समाज में?, की करैत समुदाय? / किछु न करैत समाज अछि, अपनहिं सैं भरिपाय।।
अवधी दोहा: डॉ. गणेशदत्त सारस्वत
राम रंग महँ जो रँगे, तिन्हहिं न औरु सुहात / दुनिया महँ तिनकी रहनि, जिमी पुरइन के पात।। 
बृज दोहा: महाकवि बिहारी 
जु ज्यों उझकी झंपति वदन, झुकति विहँसि सतरात। / तुल्यो गुलाल झुठी-मुठी, झझकावत पिय जात।।
कवि वृंद: 
भले-बुरे सब एक सौं, जौ लौं बोलत नांहिं। / जान पडत है काग-पिक, ऋतु वसंत के मांहि।।
बुंदेली दोहा: रामेश्वर प्रसाद गुप्ता 'इंदु'
कीसें कै डारें विथा, को है अपनी मीत? इतै सबइ हैं स्वारथी, स्वारथ करतइ प्रीत।।
पं. रामसेवक पाठक 'हरिकिंकर': नौनी बुंदेली लगत, सुनकें मौं मिठियात। बोलत में गुर सी लगत, फर-फर बोलत जात 
बघेली दोहा: गंगा कुमार 'विकल' 
मूडे माँ कलशा धरे, चुअत प्यार की बूँद / अँगिया इमरत झर रओ, लीनिस दीदा मूँद
पंजाबी दोहा: निर्मल जी 
हर टीटली नूं सदा तो, उस रुत दी पहचाण। / जिस रुत महकां बाग़ विच, आके रंग बिछाण
-डॉ. हरनेक सिंह 'कोमल'  
हलां बरगा ना रिहा, लोकां दा किरदारमतलब दी है दोस्ती, मतलब दे ने यार
गुरुमुखी: गुरु नानक   
पहले मरण कुबूल कर, जीवन दी छंड आस। /  हो सबनां दी रेनकां, आओ हमरे पास
भोजपुरी दोहा: संजीव 'सलिल'-
चिउड़ा-लिट्ठी ना रुचे, बिरयानी की चाह/ नवहा मलिकाइन चली, घर फूँके की राह
मालवी दोहा:  संजीव 'सलिल'-  
भणि ले म्हारा देस की, सबसे राम-रहीम /जल ढारे पीपल तले, अँगना चावे नीम 
निमाड़ी दोहा:  संजीव 'सलिल'-  
रयणो खाणों नाचणो, हँसणो वार-तिवार / गीत निमाड़ी गावणो, चूड़ी री झंकार 
छत्तीसगढ़ी दोहा:  संजीव 'सलिल'- 
जाँघर तोड़त सेठ बर, चिथरा झूलत भेस  / मुटियारी माथा पटक, चेलिक रथे बिदेस 
राजस्थानी दोहा:   
पुरस बिचारा क्या करै, जो घर नार कुनार। /ओ सींवै दो आंगळा, वा फाडै गज च्यार।। 
अंगिका दोहा: सुधीर कुमार
ऐलै सावन हपसलो', लेनें नया सनेस । / आबो' जल्दी बालमां, छोड़ी के परदेश।।  
बज्जिका दोहा: सुधीर गंडोत्रा
चाहू जीवन में रही, अपने सदा अटूट। / भुलिओ के न परे दू, अपना घर में फूट
हरयाणवी दोहा: श्याम सखा 'श्याम' 
मनै बावली मनचली, कहवैं सारे लोग। / प्रेम-प्रीत का लग गया, जिब तै मन म्हं रोग।।
मगही दोहा : 
रउआ नामी-गिरामी, मिलल-जुलल घर फोर। / खम्हा-खुट्टा लै चली, 
राजस्थानी दोहा:
पुरस बिचारा क्या करै, जो घर नार कुनार। / ओ सींवै दो आंगळा, वा फाडै गज च्यार।। 
कन्नौजी दोहा:
ननदी भैया तुम्हारे, सइ उफनाने ताल। / बिन साजन छाजन छवइ, आगे कउन हवाल।।  
सिंधी दोहा: चंद्रसिंह बिरकाली  
ग्रीखम-रुत दाझी धरा कळप रही दिन रात। / मेह मिलावण बादळी बरस बरस बरसात ।। 
दग्ध धरा ऋतु ग्रीष्म से, कल्प रही रही दिन-रात।  / मिलन मेह से करा दे, बरस-बरस बरसात।।  
गढ़वाली दोहा: कृष्ण कुमार ममगांई
धार अड़ाली धार माँ, गादम जैली त गाड़। / जख जैली तस्ख भुगत ली, किट ईजा तू बाठ।।
सराइकी दोहा: संजीव 'सलिल' 
शर्त मुहाणां जीत ग्या, नदी-किनारा हार। / लेणें कू धिक्कार हे, देणे कूँ जैकार।। 
मराठी दोहा: वा. न. सरदेसाई 
माती धरते तापता, पर्जन्यची आस।  / फुकट न तृष्णा भागवी, देई गंध जगास।।
गुजराती दोहा: श्रीमद योगिंदु देव 
अप्पा अप्पई जो मुणइ जो परभाउ चएइ। / सो पावइ सिवपुरि-गमणु जिणवरु एम भणेइ।।

dogari bhasha

डोगरी भाषा 
डोगरी भारत के जम्मू और कश्मीर प्रान्त में बोली जाने वाली एक भाषा है। वर्ष 2004 में इसे भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया है। पश्चिमी पहाड़ी बोलियों के परिवार में, मध्यवर्ती पहाड़ी पट्टी की जनभाषाओं में, डोगरी, चंबयाली, मडवाली, मंडयाली, बिलासपुरी, बागडी आदि उल्लेखनीय हैं।
डोगरी इस विशाल परिवार में कई कारणों से विशिष्ट जनभाषा है। इसकी पहली विशेषता यह है कि दूसरी बोलियों की अपेक्षा इसके बोलनेवालों की संख्या विशेष रूप से अधिक है। दूसरी यह कि इस परिवार में केवल डोगरी ही साहित्यिक रूप से गतिशील और सम्पन्न है। डोगरी की तीसरी विशिष्टता यह भी है कि एक समय यह भाषा कश्मीर रियासत तथा चंबा राज्य में राजकीय प्रशासन के अंदरूनी व्यवहार का माध्यम रह चुकी है। इसी भाषा के संबंध से इसके बोलने वाले डोगरे कहलाते हैं तथा डोगरी के भाषाई क्षेत्र को सामान्यतः "डुग्गर" कहा जाता है। रियासत जम्मू कश्मीर की शरतकालीन राजधानी जम्मू नाम का ऐतिहासिक नगर, डोगरी की साहित्यिक साधना का प्रमुख केंद्र है, जहाँ डोगरी के साहित्यिकों का प्रतिनिधि संगठन "डोगरी संस्था" के नाम से, इस भाषा के साहित्यिक योगक्षेम के लिये गत लगभग ६० वर्षो से प्रयत्नशील है।
डोगरी पंजाबी की उपबोली है - यह भ्रांत धारणा डॉ॰ ग्रियर्सन के भाषाई सर्वेक्षण के प्रशंसनीय कार्य में डोगरी के पंजाबी की उपबोली के रूप में उल्लेख से फैली। इसमें उनका दोष नहीं। उस समय उनके इन सर्वेक्षण में प्रत्येक भाषा, बोली का स्वतंत्र गंभीर अध्ययन संभव नहीं था।
जॉन बीम्ज ने भारतीय भाषा विज्ञान की रूपरेखा संबंधी अपनी पुस्तक (प्रकाशित 1866 ई॰) में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया है कि डोगरी ना तो कश्मीरी की अंगभूत बोली है, ना पंजाबी की। उन्होंने इसे भारतीय-जर्मन परिवार की आर्य शाखा की प्रमुख 11 भाषाओं में गिना है।
डॉ॰ सिद्धेश्वर वर्मा ने भी डोगरी की गणना भारत की प्रमुख सात सीमांत भाषाओं में की है।

डोगरी की लिपि 

डोगरी की अपनी एक लिपि है जिसे टाकरी या टक्करी लिपि कहते हैं। यह लिपि काफी पुरानी है। गुरमुखी लिपि का प्रादुर्भाव इसी से माना जाता है। कुल्लू तथा चंबा के कुछ प्राचीन ताम्रपट्टों से ज्ञात होता है कि इस लिपि का प्रारंभिक रूप में विकास 10 वीं- 11वीं शताब्दी में हो गया था। वैसे टाकरी वर्ग के अंतर्गत आने वाली कई लिपियाँ इस विस्तृत प्रदेश में प्रचलित हैं जैसे, लंडे, किश्तवाड़ी, चंबयाली, मंडयाली, सिरमौरी और कुल्लूई आदि। डॉ॰ ग्रियर्सन शारदा को और टाकरी को सहोदरा मानते हैं। श्री व्हूलर का मत है कि टाकरी शारदा की आत्मजा है। टाकरी लिपि आज भी डुग्गर के देहाती समाज में बहीखातों में प्रयुक्त होती है। इसका एक विकसित रूप भी है जिसमें कई ग्रंथों का प्रकाशन हुआ है। कश्मीर नरेश महाराज रणवीर सिंह ने, आज से लगभग एक सौ वर्ष पूर्व, अपने राज्यकाल में, डोगरी लिपि में, नागरी के अनुरूप, सुधार करने का प्रयत्न किया था। मात्रा, चिह्नों के प्रयोग को अपनाया गया तथा पहली बार नई टाकरी लिपि में डोगरी भाषा के ग्रंथों के मुद्रण की समुचित व्यवस्था के लिये जम्मू में शासन की ओर से रणवीर प्रेस की स्थापना की गई। पुरानी डोगरी वर्णमाला का यह संशोधित रूप जनव्यवहार में लोकप्रिय न हो सका। डोगरी की नव साहित्यिक चेतना के साथ ही साथ टाकरी का स्थान नागरी ने ले ले लिया।

डोगरी की कुछ स्वर विषयक विशेषताएँ:

(१) डोगरी में शब्दों के आदि में य तथा ध्वनियाँ नहीं आतीं, इनके स्थान पर ज तथा व ध्वनियाँ उच्चरित होती है।

(पंजाबी) वेहड़ा (आगण) - वेडा (डोगरी)
यजमान (हिंदी) - जजमान (डोगरी)
यश (हिंदी) - जस (डोगरी)
  • (२) डोगरी में शब्दों के आदि में ह का उच्चारण हिंदी पंजाबी से सर्वथा भिन्न होता है।
  • (३) डोगरी में वर्गों के चतुर्थ वर्णो के उच्चारण में तद्वर्गीय प्रथम अक्षर के साथ हल्की चढ़ती सुर जोड़ी जाती है।
  • (४) ह जब शब्दों के मध्य में आता है तब इसके डोगरी उच्चारण में चढ़ते सुर के स्थान पर उतरते सुर का प्रयोग होता है, जैसे:
हिंदी - डोगरी
पहाड़ प्हाड़ - पा/ड़
मोहर म्होर - मो/र
  • (५) डोगरी के कुछ शब्दों के आदि में ङ तथा ञ का जैसे अनुनासिकों का विशुद्ध उच्चारण मिलता है, जैसे-
हिंदी - डोगरी
अंगार - ङार
अंगूर - ङूर
अञाणा (पंजाबी) - ंयाणा
ग्यारह - आरां
  • (६) संस्कृत का र जो हिंदी में लुप्त हो जाता है, डोगरी में प्राय: सुरक्षित है।
संस्कृत - हिंदी - डोगरी
ग्राम - गाँव - ग्राँ
क्षेत्र - खेत - खेतर
पत्र - पात - पत्तर
स्त्री - तिय, तीमी (पं0) - त्रीम्त
मित्र - मीत - मित्तर
इसी प्रवृति के कारण कई रूपों में र का अतिरिक्त आगम भी हुआ है, जैसे-
संस्कृत - हिंदी - डोगरी
तीक्ष्ण - तीखा - त्रिक्खना
दौड़ - द्रौड़
पसीना - परसीना, परसा
कोप - कोप - करोपी
धिक् - धिक्कार - घ्रिग
  • (७) डोगरी संश्लेषणात्मक भाषा है। इसी के प्रभाव से इसमें संक्षेपीकरण की असाधारण प्रवृति पाई जाती है। संश्लेषणात्मकता जैसे -
संस्कृत - हिंदी - डोगरी
अहम् - मैने - में
माम् - मुझको - में
माम् - मुझको - मिगी (ऊ मी)
अस्माभि: - हमने - असें (हमारे द्वारा)
मह्मम् - मुझे मेरे - तै (गितै) (मेरे लेई पं0)
मत् - मुझसे मेरे - शा (मेरे कोलो-पं0)
मयि - मुझ में - मेरे च (मेरे निच-पं0)
संक्षेपीकरण- जैसे
हिंदी - पंजाबी - डोगरी
मुझसे नहीं आया जाता -मेरे थीं नई आया जांदा - मेरेशा नि नोंदा (औन हुन्दा)
खाया जाता - खान हुंदा - खनोंदा
  • (८) डोगरी में कर्मवाच्य (तथा भाववाच्य) के क्रियारुपों की प्रवृति पाई जाती है:
खनोंदा - खाया जाता नोग तां - औन होग (पं0) ता
पनोंदा- पिया जाता पजोग - पुज्जन होग उ पहुँच सका तो सनोंदा - सोया जाता
  • (९) डोगरी में वर्णविशर्यय की प्रवृति भी असाधारण रूप से पाई जाती है:
उधार - दुआर
उजाड़ - जुआड़
ताम्र - तरामां
कीचड़ - चिक्कड़ आदि
  • (१०) डोगरी में शब्दों के प्रारंभ के लघु स्वर का प्राय: लोप हो जाता है-
अनाज - नाज
अखबार - खबर
इजाजत - जाजत
एतराज - तराज

saraiki doha

सराइकी दोहा:
भाषा विविधा:
दोहा सलिला सिरायकी :
संजीव 
[सिरायकी पाकिस्तान और पंजाब के कुछ क्षेत्रों में बोले जानेवाली लोकभाषा है. सिरायकी का उद्गम पैशाची-प्राकृत-कैकई से हुआ है. इसे लहंदा, पश्चिमी पंजाबी, जटकी, हिन्दकी आदि भी कहा गया है. सिरायकी की मूल लिपि लिंडा है. मुल्तानी, बहावलपुरी तथा थली इससे मिलती-जुलती बोलियाँ हैं. सिरायकी में दोहा छंद अब तक मेरे देखने में नहीं आया है. मेरे इस प्रथम प्रयास में त्रुटियाँ होना स्वाभाविक है. जानकार पाठकों से त्रुटियाँ इंगित करने तथा सुधार हेतु सहायता का अनुरोध है.]
*
बुरी आदतां दुखों कूँ, नष्ट करेंदे ईश। 
साडे स्वामी तुवाडे, बख्तें वे आशीष।।
*
रोज़ करन्दे हन दुआ, तेडा-मेडा भूल। 
अज सुणीज गई हे दुआं,त्रया-पंज दा भूल।।
*
दुक्खां कूँ कर दूर प्रभु, जग दे रचनाकार। 
डेवणवाले देवता, वरण जोग करतार।। 
*
कोई करे तां क्या करे, हे बदलाव असूल। 
कायम हे उम्मीद पे, दुनिया कर के भूल।।
*
शर्त मुहाणां जीत ग्या, नदी-किनारा हार। 
लेणें कू धिक्कार हे, देणे कूँ जैकार।।
*
२९.५.२०१५ 

मंगलवार, 21 अगस्त 2018

दोहा में गण

दोहा रचना में गण व्यवस्था 
*
सरस्वती को नमन कर, हुई लेखनी धन्य। 
शब्द साधना से नहीं, श्रेष्ट साधना अन्य
रमा रहा जो रमा में, उससे रुष्ट रमेश

भक्ति-शक्ति संपन्न है, दोहा दिव्य दिनेश
भाषा-सागर मथ मिला, गीतिकाव्य रस कोष
समय शंख दोहा करे, सदा सत्य का घोष
गीति काव्य रस गगन में, दोहा दिव्य दिनेश
अन्य छंद शशि-तारिका, वे सुर द्विपदि सुरेश

चलते-चलते 
किस मिस को कर मिस रहे, किस मिस को किस आप.
देख मिसेस को हो गया, प्रेम पुण्य से पाप.

*


दोहा में होता सदा, युग का सच ही व्यक्त.
देखे दोहाकार हर, सच्चे स्वप्न सशक्त..
 - सलिल

दोहा साक्षी समय का, कहता है युग सत्य।
ध्यान समय का जो रखे, उसको मिलता गत्य॥



शुचिर्दक्षः शान्तः सुजनः विनतः सूनृत्ततरः.
कलावेदी विद्वानति मृदुपदः काव्य चतुरः.
रसज्ञौ दैवज्ञः सरस हृदयः सतकुलभवः.
शुभाकारश्ददं दो गुण विवेकी सच कविः.


अर्थात-

नम्र निपुण सज्जन विनत, नीतिवान शुचि शांत.
काव्य-चतुर मृदु पद रचें, कहलायें कवि कान्त.
जो रसज्ञ-दैवज्ञ हैं, सरस हृदय सुकुलीन.
गुनी विवेकी कुशल कवि, होता यश न मलीन.
 


ठोंका-पीटा-बजाया, साधा सधा न वाद्य.
बिना चबाये खा लिया, नहीं पचेगा खाद्य.. 

मनु जी! आपने अंग्रेज दोहाकार स्व. श्री फ्रेडरिक पिंकोट द्वारा रचे गए दोहों का अर्थ जानना चाहा है. यह स्वागतेय है. आपने यह भी अनुभव किया कि अंग्रेज के लिए हिन्दी सीखना और उसमें दोहा को जानकार दोहा रचना कितना कठिन रहा होगा. श्री पिंकोट का निम्न सोरठा एवं दोहा यह भी तो कहता है कि जब एक विदेशी और हिन्दी न जाननेवाला इन छंदों को अपना सकता है तो हम भारतीय इन्हें सिद्ध क्यों नहीं कर सकते? पाशं केवा इच्छाशक्ति का है, छंद तो सभी को गले लगाने के लिए उत्सुक है. 

बैस वंस अवतंस, श्री बाबू हरिचंद जू.
छीर-नीर कलहंस, टुक उत्तर लिख दे मोहि.


शब्दार्थ: बैस=वैश्य, वंस= वंश, अवतंस=अवतंश, जू=जी, छीर=क्षीर=दूध, नीर=पानी, कलहंस=राजहंस, तुक=तनिक, मोहि=मुझे.

भावार्थ: हे वैश्य कुल में अवतरित बाबू हरिश्चंद्र जी! आप राजहंस की तरह दूध-पानी के मिश्रण में से दूध को अलग कर पीने में समर्थ हैं. मुझे उत्तर देने की कृपा कीजिये.

श्रीयुत सकल कविंद, कुलनुत बाबू हरिचंद.
भारत हृदय सतार नभ, उदय रहो जनु चंद.


भावार्थ: हे सभी कवियों में सर्वाधिक श्री संपन्न, कवियों के कुल भूषण! आप भारत के हृदयरूपी आकाश में चंद्रमा की तरह उदित हुए हैं.

सुविख्यात सूफी संत अमीर खुसरो (संवत १३१२-१३८२) 

गोरी सोयी सेज पर, मुख पर डारे केस.
चल खुसरो घर आपने, रैन भई चहुँ देस..

खुसरो रैन सुहाग की, जागी पी के संग.
तन मेरो मन पीउ को, दोउ भये इक रंग..

सजन सकारे जायेंगे, नैन मरेंगे रोय.
विधना ऐसी रैन कर, भोर कभी ना होय..




सोचै सोच न होवई, जे सोची लखवार. 
चुप्पै चुप्प न होवई, जे लाई लिवतार..
इक दू जीभौ लख होहि, लाख होवहि लख वीस.
लखु लखु गेडा आखिअहि, एकु नामु जगदीस..
*
सरसुती के भंडार की, बड़ी अपूरब बात.
ज्यों खर्चे त्यों-त्यों बढे, बिन खर्चे घट जात.

समय बिताने के लिए, करना है कुछ काम.
शुरू करो अन्त्याक्षरी, लेकर हरी का नाम. 


"जो तोको काँटा बुवै, ताहि बोय तू फूल।
तोको फूल को फूल है, वाको है तिरसूल॥"

होनी तो होकर रहे, अनहोनी ना होय.
जाको राखे साइयां, मार सके नहिं कोय. 

"तुलसी भरोसे रामके, निरभय होके सोय।
अनहोनी होनी नहीं, होनी हो सो होय॥"


"जाको राखे साइयां, मार सके ना कोय।
बाल न बाँका कर सके, जो जग बैरी होय॥"

"तुलसी जस भवितव्यता, तैसी मिले सहाय।
आप न जाए ताहि पे, ताहि तहाँ ले जाय॥"

shri shri chintan - doha gunjan

श्री-श्री चिंतन - दोहा गुंजन 
दोहा-दोहा महोत्सव, लो जी भर आनंद।
जीवन का दुःख दो भुला, रचकर गाओ छंद।।
एकाकी रह भीड़ का अनुभव है अज्ञान।
छवि अनेक की एक में, मत देखो मतिमान।।
दिखे एकता भीड़ में, जागे बुद्धि-विवेक।
अनुभव दे एकांत का, भीड़ अगर हो नेक।।
जीवन ऊर्जा ज्ञान दे, अमित आत्म-विश्वास।
ज्ञान मृत्यु का निडर कर, देता आत्म उजास।।
शोर भीड़ हो चतुर्दिक, या घेरे एकांत।
मन हर पल उत्सव मना, सज्जन रहते शांत।।
जीवन हो उत्सव सदा, रहे मौन या शोर।
जन्म-मृत्यु उत्सव मना, रही भक्ति-विभोर।।
जीवन अग्नि समान है, जो डालें हो दग्ध।
इन्द्रिय-भट्टी में डला, जो वह हुआ विदग्ध।।
टायर जल दुर्गंध दे, चंदन जले सुगंध।
दूषित करती; शुद्ध भी, अग्नि मुक्ति-निर्बंध।।
अग्नि जले; उत्सव मने, अग्नि जले; हो शोक।
तुम बस अग्नि जला रहे, या देते आलोक?
खुद जल रौशन करें जग, होते संत कपूर।
प्रेमिल ऊष्मा बिखेंरे, जीव-मित्र भरपूर।।
निम्न अग्नि तम-धूम्र दे, मध्यम धूम्र-उजास। 
उच्च अग्नि में ऊष्णता, सह प्रकाश का वास।।
करें बुराई इन्द्रियाँ, तिमिर-धुआँ हो खूब।
संयम दे प्रकृति बदल, जा तू सुख में डूब।।
करें इन्द्रियाँ भलाई, फैले खूब सुवास।
जहाँ रहें सज्जन वहाँ, सब दिश रहे उजास।।
आदत हो या वासना, बाँधें देतीं कष्ट।
तुम छोड़ो वे पकड़कर, करतीं सदा अनिष्ट।।
जीवन चाहे मुक्त हो, किन्तु न जाने राह।
शत जन्मों तक भटकती, आत्मा पाले चाह।।
छुटकारा दें आदतें, करो सुदृढ़ संकल्प।
जीवन-शक्ति दिशा गहे, संयम का न विकल्प।।
फ़िक्र व्यर्थ है लतों की, वापिस लेतीं घेर।
आत्मग्लानि दोषी बना, करें हौसला ढेर।।
लत छोड़ो; संयम रखो, मिले रोग से मुक्ति।
संयम अति को रोकता, सुख से हो संयुक्ति।।
समय-जगह का ध्यान रख, समयबद्ध संकल्प।
करो; निभाकर सफल हो, शंका रखो न अल्प।।
आजीवन संकल्प मत, करो; न होता पूर्ण।
टूटे यदि संकल्प; फिर , करो न रहे अपूर्ण।।
अल्प समय की वृद्धि कर, करना नित्य निभाव।
बंधन में लत बाँधकर, लो तुम बना स्वभाव।।
लत न तज सके तो तुम्हें, हो तकलीफ अपार।
पीड़ाएँ लत छुड़ा दें, साधक वरे सुधार।।
दुर्गुण हटा न सको तो, जाओ उनको भूल।
क्रोध; कामना; फ़िक्र; दुःख, मद को मत दो तूल।।
तुच्छ कारणों से कहो, क्यों होते नाराज़।
ब्रम्ह ईश रब खुदा गुरु, से हो रुष्ट; न लाज।।
अहंकार से तुम अगर, हो न पा रहे मुक्त।
परमेश्वर सँग तुम्हारे, सोच रहो मद-युक्त।।
मोह क्रोध आसक्ति को, अगर न पाते छोड़।
सत् के प्रति आसक्त हो, तब आएगा मोड़।।
ईर्ष्या सेवा के लिए, करो द्वेष से द्वेष।
दिव्य हेतु मदहोश हो, गुरु से राग अशेष।।
इंद्रिय-सुख इच्छा क्षणिक, विद्युत् जैसी जान।
विषय-वस्तु की ओर बढ़, खो प्रभाव अनजान।।
निज सत्ता के केंद्र-प्रति, इच्छाएँ लो मोड़।
हो रोमांचित चिरंतन, सुख पा तजकर होड़।। 
अपने अंदर मिलेगा, तुम्हें नया आयाम। 
प्रेम सनातन शाश्वत, परमानंद अनाम।।
लोभ-ईर्ष्या; वासना, ऊर्जा सबल अपार।
स्रोत तुम्हीं कर शुद्ध दे, निष्ठा-भक्ति सुधार।।
सुख की विद्युत्-धार हो, तुम्हीं समझ लो आप।
घटे लालसा शांति आ, जाती जीवन-व्याप।।
मृत्यु सुनिश्चित याद रख, जिओ आज में आज।
राग-द्वेष से मुक्त हो, प्रभु-अर्पितकर काज।।
इच्छाओं का लक्ष्य है, खुशियाँ सब हों नष्ट।
मन में झाँको; देख लो, इच्छा करे अनिष्ट।।
इच्छा करते ख़ुशी की, दुःख की तनिक न चाह।
कभी न थी; होगी नहीं, मन रह बेपरवाह।।
भाग-भाग जब क्लांत हो, नन्हा मन तब आप।
इच्छाएँ छीनें खुशी, सच जानें पा आप।।
मोह-अंध गुरु नैन खो, खड़ी  करे निज खाट।
दानी में हो अहं तो, वामन बने विराट।।
क्षत्रिय में विप्रत्व के, भार्गव बोते बीज।
यही नाश क्षत्रियों का, अहं गया जब छीज।।
राम-श्याम दो छोर हैं, रख दोनों को थाम।
तजा एक को भी अगर, लगे विधाता वाम।।
कलकिन कल अब के लिए, रखें ज्ञान-तलवार।
काट रहे अज्ञान-सर, कर मानव उद्धार।।
खुशी हेतु इच्छा करें, इच्छाएँ हों लक्ष।
पहुँचा देगी लक्ष्य तक, इच्छा यदि तुम दक्ष।।
इच्छाओं की प्रकृति क्या, करिए कभी विचार।
इच्छा कल, आनंद है, अब में निहित अपार।।
तुम हो यदो आनंदमय, इच्छाएँ हों दूर।
इच्छा मन में हो नहीं, हो आनंद जरूर।।
इच्छा से आनंद का, होता है आभास।
मिल न सके आनंद है, यह माया-अहसास।।
यादें या अनुभव सुखद, हैं इच्छा का मूल।
मिलना सुनना देखना, दे इच्छा को तूल।।
निश्चित घटना या नियति, से इच्छाएँ जाग।
प्रेरित करतीं; कार्यरत, हो लेते तुम भाग।।
भूखे को भोजन दिला, करी किसी से बात।
काम किया कोई कभी, इच्छावश ही तात।।
 इच्छाएँ पूछें नहीं, उपजें अपने आप।
'करूँ न इच्छा चाह में, जाती इच्छा व्याप।।
इच्छा को पकड़ो नहीं, करो समर्पित भूल।
होंगी तब उत्पन्न कम, नाहक मत दो तूल।।
आवेदन दो यदि नहीं, हो किस तरह प्रवेश।
इच्छा-टिकिटें द्ववार पर, देना पड़ें हमेश।।
सदा कामना कर रहे, जो उनका दुर्भाग्य।
इच्छा-पूर्ति विलंब से, तो सच्चा सौभाग्य।।
इच्छा होते पूर्ण हो, तो बेहतर है भाग्य।
इच्छा यदि हो ही नहीं, तो सच्चा सौभाग्य।।
इच्छा कारण दुखों का, कहते गौतम बुद्ध।
पूर्ण न हो कुंठित करे, जैसे दुःख दे युद्ध।।
पूर्ण हुई इच्छा अगर, तृप्ति न पाते आप।
खाली हाथों ही तुम्हें, छोड़े मानो शाप।।
इच्छा कारण सुखों का, कहते रहे वशिष्ठ। 
व्यक्ति-वस्तु की कामना, कर सुख मिलता मिष्ट।।
चाह नहीं तो सुख नहीं, थके; लगी हो प्यास।
शीतल जल दे सुख तभी, खिले अधर पर हास।।
प्यास न हो तो जल नहीं, कर पाता है तृप्त।
सुखदा बाँधे दुखितकर, बंधन रखे अतृप्त।।
इच्छा हो यदि सत्य की, शेष सभी हों दूर।
जो न मिला इच्छा वही, करते होकर सूर।।
सत्य सनातन शाश्वत, मेटे इच्छा शेष।
परमानंद तभी मिले, चाह न जब हो लेश।।
इच्छाएँ-संकल्प ही, प्रभु से करते दूर।
करो समर्पित ईश को, होगे दिव्य जरूर।।
तुम ही ईश्वर हो करो, इस सच का भी भान।
मुक्ति मिलें; कमियाँ नहीं, शेष; बनो रस-खान।।
सुख-पीड़ा की तन करे. सदा तीव्र अनुभूति।
'मैं तेरा हूँ' हो सके, सुख-दुःख बिना प्रतीति।।
राग-द्वेष; मन-कामना, शंकाएँ हों दूर।
पल भर में अपना लगे, जग भए भरपूर।।
सभी दुखों का मूल है, मैं-मेरा का भाव।
यह पसंद है; यह नहीं, छोड़ें मिटे अभाव।।
सूर्य उदित हो; अस्त भी, बहे नदी; उग घास।
चंद्र चमकता; मैं यहाँ, सदा करें अहसास।। 
चित्ताकर्षक अधिकतम, निराकार जग-व्याप्त।
खींचे अपनी ओर जो, 'कृष्ण' शक्ति है आप्त।।
आकर्षण हो कहीं जो, खींचे अपनी ओर।
वही कृष्ण है; कहीं है, उसका ओर न छोर।।
बाह्य आवरण में उलझ, सत्व न देखें मूल।
चकमा देते कृष्ण तब, जान सकें हम भूल।।
महज खोखला आवरण, अगर न अजना सत्य।
तब आँखों में अश्रु आ, कहें- अधूरा कृत्य।।
हो राधा सम चतुर तुम, छल न सकें तब श्याम।
श्वास-श्वास हो कृष्णमय, सृष्टि लगे अभिराम।।
कृष्ण दिखें यदि हर जगह, तब राधा हो आत्म।
केंद्रित अपने आप में, साथ रहे परमात्म।।
मन बढ़ता सौंदर्य सत्, चिदानंद की ओर।
'शक्ति-ज्ञान-सौंदर्य' हरि, सुने पार्थ कर जोर।। 
बढ़ती जब आसक्ति तब, मन हो जाता व्यग्र।
मन: शांति बिन बिखर तुम, टूट हो दुखी-उग्र।।
देर न कर सच समझ लो, मत बिखरो हो शांत।
व्यग्र न हो कर समर्पण, करो साधना-कांत।।
डुबा सिंधु आसक्ति का, रहा; करो मत देर।
'लाइफ जैकेट' शरण-गति, गहो मिटे अंधेर।।
लड़ो नहीं आसक्ति से, वरो आंतरिक मौन।
ज्वरित श्वास पर ध्यान दो, डिगा सकेगा कौन?
मोड़ो निज आसक्ति को, प्रभु-प्रति उपजा ज्ञान।
अनासक्ति संसार-प्रति, आकर्षण तव जान।।
रहे दिव्यता के लिए, जो लगाव-सौंदर्य।
निरासक्ति ही घोलती, जीवन में माधुर्य।। 
सुख-चिंतन से लालसा, होती है उत्पन्न।
सुखद न हों अनुभूतियाँ, यादों सम आसन्न।।
दैवी हो या जागतिक, सुख दे तुम्हें विचार।
नश्वर सुख आसक्ति का, दे नैराश्य विकार।।
यदि विचार दैवीय हो, दे सुख; चिर आनंद।
प्रज्ञा-उन्नति ओर जा, पाओ परमानंद।।
'देह नहीं; आनंद हूँ', है दैवीय विचार।
हूँ अनंत; मैं शून्य भी, शांति-प्रकाश अपार।।
धन-पद; कामाहर; हक, आत्म-प्रतिष्ठा-सार।
सांसारिक चिंतन यही, चिंता अपरंपार।।
भौतिकता का सुनहरा, है नकाब; सच लुप्त।
भेद आवरण जान लो, हो रवि; रहो न सुप्त।।
जड़ भी हो चैतन्य यदि, मन में उपजे प्रेम।
तरु-पत्थर बातें करें, रवि-शशि करते क्षेम।।
हो सजीव; निर्जीव यदि, रहे वासना संग।
दे तनाव छ्ल-कपट से, करे रंग में भंग।।
लीला प्रेम-विनोदमय, दे मन को विश्राम।
उतर सकल व्यक्तित्व पर, जीवन करे ललाम।।
कब्जा करती वासना, झपट अंग पर हेय।
प्रेम-समर्पण-यत्न बिन, दे सर्वस्व अदेय।।
हिंसा करती वासना, प्रेम करे बलिदान।
प्रेम सत्य-अधिकार है, माँग वासना जान।।
दुविधा देती वासना, क्षेम केन्द्रित प्रेम।
नीरस तममय वासना, रूप-रंग शुभ प्रेम।।
कहे वासना वही लो, जो है मेरी चाह।
प्रेम कहे जो चाहते, वह लो सच्ची राह।।
ज्वर-कुंठा दे वासना, जकड़े-करे विनाश।
उत्कंठा-स्वाधीनता, मुक्ति-प्रेम मृदु पाश।।
बाधित होकर वासना, करती नफरत-क्रोध।
जग में फ़ैली घृणा का, मूल वासना बोध।।
भोले भोले प्रेम के, श्रेष्ठ पुनीत प्रतीक।
ध्यान-मगण थे काम ने, डाला खलल अलीक।।
उठे ध्यान से शिव लिया, नयन तीसरा खोल।
मन-मथ मन्मथ भस्म हो, 'क्षमा' न पाया बोल।। 
 मन को जकड़े वासना, मति करती कमजोर।
जड़ता हो आसक्ति से, दमन क्रोध दे घोर।।
आदिम ऊर्जा वासना, चंचल बिना लगाम।
करें नियंत्रित तो यही, ऊर्जा-प्रेम ललाम।।
सकें वासना को बदल, शुद्ध प्रेम में मीत।
शीतल जल में स्नान कर, सृजन कार्य की रीत।।
हों विनोद प्रिय आप तो, रहे वासना दूर।
करता विमल विनोद जो, हो न सके वह क्रूर।।
जन्मे देने के लिए, हो उदार यह सोच।
तब विलीन हो वासना, मिटता लालच-पोच।।
रखें याद जब मृत्यु को, तभी कुशल लें मान।
दिव्य प्रेम यदि याद तो, मिटे वासना जान।। 
रूप दूसरा प्रेम का, है भय रखिए याद।
नेह-भीति वश चिपकते, माँ-शिशु बिन संवाद।।
मूल पुरातन वृत्ति भय, मिटा सके प्रभु-प्रेम।
ज्ञान-मार्ग अपनाइए, माँगें सबकी क्षेम।।
भय अतीत का चिन्ह है, वर्तमान के साथ।
दर्शा सके भविष्य को, मिटा उठाकर माथ।।
यदि न सके स्वीकार भय, अहंकार ले जीत।
भय स्वीकारो जीत लो, हो निर्भय जग-मीत।।
अस्त-व्यस्त पूरी तरह, या कि व्यवस्थित पूर्ण।
जब होते निर्भय तभी, हों हर भय कर चूर्ण।।
संत और नादान को, निर्भय पाते आप।
मूल वृत्ति भय व्यवस्थित, रखता जग को व्याप।।
जीवन की रक्षा करो, रहो मौत से भीत।
गलती का भय सही से, सदा बढ़ाए प्रीत।।
रोगों का भय सफाई, प्रति रखता चैतन्य।
दुःख-भय नेकी-पथ चला, कहे न बद वर अन्य।।
शिशु भय-वश होकर रहे, चलते समय सतर्क।
कुछ भय भी है जरूरी, व्यर्थ न बढ़े. कुतर्क।।
मिटा न भय; नित ध्यान कर, जाओ सच के पास।
या तो तुम कोई नहीं, या ईश्वर के ख़ास।। 
भय पैदा हो तभी जब, हम सीमा दें तोड़।
भय से उपजे द्वेष ही, दे सीमा में छोड़।।
सीमा में सीमित रखें, रक्ष हेतु प्रयास।
निज बचाव की चेष्टा, दे तनाव सायास।।
होते हो कमजोर तुम, जब-जब करो बचाव।
निज रक्षा करता नहीं, जिसे न कोई अभाव।।
पथिक रहें अध्यात्म के, आलोचन से दूर।
रही ज्ञान-प्रयोग से, निज रक्षा-हित दूर।।
ज्ञान छात्र के तरह है, ज्ञान नहीं हथियार।
ज्ञान-बाह्यता हेतु मत, करो इसे स्वीकार।।
गलती सहज स्वभाव है, छोड़ो रक्षा-कर्म।
स्वीकारो आगे बढ़ो, तज बचाव बिन मर्म।।
जब निज रक्षा का नहीं, कोई करे विधान।
तभी सबल हो मान लो, भय का नहीं निशान।। 
कर्तापन का भाव ही, चाहे करो सुधार।
कर्तापन ही गल्तियों, का होता आधार।।
अधिक गल्तियाँ कराती, है सुधार की चाह।
यादो पहचानी गलतियाँ, मिले मुक्ति की राह।।
'भूल हुई' जब-जब-जब करें, हम मन से स्वीकार।
कर सफाई की चेष्टा, बनें न जिम्मेदार।।
करें दोष महसूस जब, 'भूल हुई' यह मान।
दुःख हो बुद्धि कचोटती, गलती का हो भान।।
कार्य; परिस्थिति; व्यक्ति में, त्रुटि संभव है सत्य।
त्रुटि मुरझाती फूल सम, होता लुप्त अकृत्य।।
माफी माँगे भक्त क्यों?, चुभन हुई महसूस।
मुक्ति चाहते क्यों मिले?, चुभन करो महसूस।।
चुभन न गलती दुबारा, होने देगी सत्य।
'क्षमा' मिटती चुभन तो, फिर-फिर हो अपकृत्य।।
कैसे जानें क्या गलत?, मन में करें विचार।
जो चुभता वह ही गलत, सोच करो स्वीकार।। 
अंतर्मन को कचोटे, चुभन न कर प्रतिकार।
गलती मत फिर से करो, चुभन करे उपकार।।
रहो चुभन के साथ तुम, पर न ग्लानि के साथ।
बहुत सूक्ष्म संतुलन यह, साध उठाकर माथ।।
ग्लानि कार्य की प्रतिक्रिया, किया मानते दोष।
चुभन हुए की प्रतिक्रिया, जिस पर तुमको रोष।।
कर्ता को ही ग्लानि हो, कारण खुद को मान।
भोक्ता को होती चुभन, होनी कारण जान।।
जोहोता कारण बने, कभी अजाने आप।
कभी-कभी कारण न तुम, दूजा हो चुपचाप।।
जान सको मन-चेतना, का स्वभाव; क्या रीत?
व्यापक दृष्टि अमर रहे, ग्लानि सके मति जीत।।
ले सकते गलतियों से, सीख बुद्धि अनुसार।
आहत होती भावना, चुभन करे छिप वार।। 
प्रवहित होती भावना, अधिक शक्ति के साथ।
बुद्धि सीख ले शांत रह, मिला हाथ से हाथ।।
गल्ती फिर-फिर हो नहीं, चुभन उसे ले रोक।
बुद्धि ब्रेक सैम भावना, झट देती है टोंक।।
सिर्फ भावना से नहीं, मिल सकता परिणाम।
मात्र बुद्धि से भी नहीं, बन सकते सब काम।।
करती सजग तुम्हें चुभन, हुआ; न सकते रोक।
रोक सके जो समर्पित, उस-प्रति हो बिन टोक।।
ग्लानि-मुक्त कर समर्पण, देता है उल्लास।
चुभन सजगता समर्पण, मुक्ति न दूर विकास।।
गलती गलती की तरह, जो न देखते धन्य।
कठिन न गलती देखना, अपनी; होकर अन्य।।
अन्यों को दे सफाई, कहो; न किया गुनाह।
अंतरात्मा दोष दे, कभी न कहती वाह।।
गलती चुभती है चुभे, चुभन निकाले राह।
बिन मन मत दो सफाई, करो चुभन की चाह।। 
गलती वह जो अंतत:, दे कर्ता को पीर।
जान-बूझ कोई करे, क्यों? सोचो धर धीर?
गलती इंगित करी तो, समझ न खुद को भिन्न।
यह अपना हिस्सा समझ, उससे रहे अभिन्न।।
आवश्यक हो यदि नहीं, तब दर्शाई भूल।
तो यह भी है भूल ही, चुभती बनकर शूल।।
समय-जगह का यदि नहीं, मन में किया ख़याल।
गलत बता; गलती करी, समझो हो न मलाल।।
गलती पहली बार की, देती; ले लो सीख।
दोहराकर गलती बड़ी, करो न दोषी दीख।। 
गलती; मौका सीख लो, सबक न चूको आप।
परख न गलती; गुणों से, नाहक कर न विलाप।।
गलती सांसारिक क्रिया, सद्गुण प्रभु-उपकार।
सीख अन्य के गलत से, ले ज्ञानी हर बार।।
खुद की गलती से सबक, लेता है कमअक्ल।
बार-बार गलती करे, जो वह है बेअक्ल।।
हों न इधर या उधर के, तो घटता सद्भाव।
पैदा होता यहीं से अपने आप तनाव।। 
बुद्धि-ज्ञान घटना नहीं, कर हर शंका दूर।
जो भाए स्वीकार लो, सत्य मान भरपूर।।
तुम काले को श्वेत या, भूरा ही लो मान।
हो निश्शंक सुशांत मन, हो स्थिरता लो जान।।
'गलती की क्या सजा दूँ?', 'सजा न दें गुरु आप'।
फिर न करूँ गलती कभी, शिष्य हुआ चुपचाप।।
'तुझसे भी गलती हुई, सजा मिले क्या?; बोल।'
'गुरु जी! जो मन दीजिए', शिष्य कहे मुँह खोल।।
'गुरु जी ने हँसकर कहा:'इसे अडिग विश्वास।
अपने गुरु के प्रेम पर, भय न सजा से त्रास'।।
प्रेम अगर तो भय नहीं, प्रभु पर यदि विशवास।
डरो न मिलता दंड यदि, सहो; न टूटे आस।। 
जहाँ निकटता-भाव हो, जला न शंका-दीप।
दूरी ही शंका बने, प्रिय निश्शंक समीप।।
शंका उपजे; प्रिय न प्रिय, है समीप पर दूर।
खुद पर हो; उस पर न हो, शंका रहे अदूर।।
अपने प्रति संदेह है, बस नैकट्य-अभाव।
निकट-सहज अपनत्व ही, शंका का प्रतिभाव।।
शंका जीवन अंश वह, जो भूरा-अस्पष्ट।
श्वेत नहीं; काला नहीं, किन्तु करे आकृष्ट।। १६०     
         
         
  
         
        
      
 
  
 
   
























vyangya geet anand pathak

" छुट-भईए" नेताओं को समर्पित ----"

एक व्यंग्य गीत :-
नेता बन जाओगे प्यारे-----😀😀😀😀😀
आनंद पाठक
*
पढ़-लिख कर भी गदहों जैसा व्यस्त रहोगे
नेता बन जाओगे ,प्यारे ! मस्त रहोगे

कौए ,हंस,बटेर आ गए हैं कोटर में
भगवत रूप दिखाई देगा अब ’वोटर’ में
जब तक नहीं चुनाव खतम हो जाता प्यारे
’मतदाता’ को घुमा-फिरा अपनी मोटर में

सच बोलोगे आजीवन अभिशप्त रहोगे
नेता बन जाओगे ,प्यारे ! मस्त रहोगे

गिरगिट देखो , रंग बदलते कैसे कैसे
तुम भी अपना चोला बदलो वैसे वैसे
दल बदलो बस सुबह-शाम,कैसी नैतिकता?
अन्दर का परिधान बदलते हो तुम जैसे

’कुर्सी,’पद’ मिल जायेगा आश्वस्त रहोगे
नेता बन जाओगे ,प्यारे ! मस्त रहोगे

अपना सिक्का सही कहो ,औरों का खोटा
थाली के हो बैगन ,बेपेंदी का लोटा
बिना रीढ़ की हड्डी लेकिन टोपी ऊँची
सत्ता में है नाम बड़ा ,पर दर्शन छोटा

’आदर्शों’ की गठरी ढो ढो ,त्रस्त रहोगे
नेता बन जाओगे ,प्यारे ! मस्त रहोगे

नेता जी की ’चरण-वन्दना’ में हो जब तक
हाथ जोड़ कर खड़े रहो बस तुम नतमस्तक
’मख्खन-लेपन’ सुबह-शाम तुम करते रहना
छू न सकेगा ,प्यारे ! तुमको कोई तब तक

तिकड़मबाजी,जुमलों में सिद्ध हस्त रहोगे
नेता बन जाओगे ,प्यारे ! मस्त रहोगे

जनता की क्या ,जनता तो माटी का माधो
सपने दिखा दिखा के चाहो जितना बाँधो
राम नाम की ,सदाचार की ओढ़ चदरिया
करना जितना ’कदाचार’ हो कर लो ,साधो !

सत्ता की मधुबाला पर आसक्त रहोगे
नेता बन जाओगे ,प्यारे !