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मंगलवार, 15 अप्रैल 2025

अप्रैल १५, सॉनेट, उषा, तुम, आम चुनाव, राग छंद, दोहे, शिव, प्यार, नज़रुल

सलिल सृजन अप्रैल १५
*
अभिनव प्रयोग 
पहेली - दोहों में खोजिए साहित्यकारों के नाम
महावीर अरु वीर मिल, देवी सुमिर अधीर।
नमन शिवानी को करें, नीरज ले रघु वीर।। 
गुरु वृंदावन जा रहे, देखें रूप विराट।  
चक्र सुभद्रा-बंधु ले, सज्जित देखें ठाट।।    
प्रभा प्रभाकर की निरख, तुलसी करें प्रणाम। 
रूप निराला अलौकिक, लाल चक्र उद्दाम।। 
लाला माखन खा रह्यो, पुतो गाल अरु भाल।
जसुदा माई निहाल लख, श्यामल माखन लाल।। 
.   
उत्तर 
महावीर  - महावीर प्रसाद द्वुवेदी, महावीर प्रसाद जोशी (राजस्थानी), महावीर रवांल्टा
वीर - वीर सावरकर (मराठी), क्षेत्रि वीर (मणिपुरी)
देवी - महादेवी वर्मा, आशापूर्णा देवी (बांग्ला)
शिवानी - गौरा पंत शिवानी
नीरज - गोपाल प्रसाद सक्सेना नीरज
रघुवीर - डॉ. रघुवीर, रघुवीर सहाय, रघुवीर चौधरी (गुजराती)
गुरु - कामता प्रसाद, रामेश्वर प्रसाद गुरु, गुरु सक्सेना, गुरु गोबिंद सिंह (पंजाबी)
वृन्दावन- वृन्दावन लाल वर्मा
विराट - विष्णु विराट, चन्द्रसेन विराट 
चक्र - सुदर्शन सिंह चक्र, कुम्भार चक्र (उड़िया), चक्रधर अशोक 
सुभद्रा - सुभद्रा कुमारी चौहान
प्रसाद - जय शंकर प्रसाद, महावीर प्रसाद, हजारी प्रसाद, शत्रुघ्न प्रसाद
प्रभा - प्रभा खेतान
प्रभाकर - विष्णु प्रभाकर, प्रभाकर माचवे , प्रभाकर बैगा, प्रभाकर श्रोत्रिय
तुलसी - गोस्वामी तुलसीदास, आचार्य तुलसी, तुलसी बहादुर क्षेत्री (नेपाली), डॉ, तुलसीराम,
निराला - सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' 
लाला - लाला भगवान दीन, लाला श्रीनिवास दास, लाला पूरणमल, लाला जगदलपुरी
माखन - माखनलाल चतुर्वेदी 'एक भारतीय आत्मा'
लाल - लक्ष्मी नारायण लाल, श्रीलाल शुक्ल, लाल पुष्प (सिंधी)
१५.४.२०२५ 
००० 
सॉनेट
उषा
उषा ललित लालित्यमयी।
है मनहर चितचोर सखी।
कवि छवि देखे नयी नयी।।
अपनी किस्मत आप लिखी।।
निधि सतरंगी मनोरमा।
सत्य सुनीता नीलाभित।
ज्योति-कन्हैया लिए विमा।।
नीलम-रेखा अरुणाभित।।
बालारुण खेले कैंया।
उछल-कूद बाहर भागे।
कलरव करती गौरैया।।
संग गिलहरी अनुरागे।।
उषा प्रभाती रही सुना।
कनक-जाल रमणीय बुना।।
***
नहले पे दहला
कभी कभी यूँ भी हम ने अपने जी को बहलाया है
जिन बातों को ख़ुद नहीं समझे औरों को समझाया है?
औरों ने हमें नहीं बख्शा वो रास्ता बताया है।
जिस पर उन्होंने अपना पग नहीं बढ़ाया है।
***
प्रश्नोत्तर
छिपकली से जान कैसे बचाएँ?
मत देखें छिप कली
ऐसी हरकत नहीं भली
उसका करा दें विवाह
मिल जाएगा छुटकारा
कली बन जाएगी फूल
नहीं चुभेगी बनकर शूल
१५-४-२०२३
***
सॉनेट
चमन
*
चमन में साथी! अमन हो।
माँ धरित्री को नमन कर।
छत्र निज सिर पर गगन कर।।
दिशा हर तुझको वसन हो।।
पूर्णिमा निशि शशि सँगाती।
पवन पावक सलिल सूरज।
कह रहे ले ईश को भज।।
अनगिनत तारे बराती।
हर जनम हो श्वास संगी।
जिंदगी दे यही चंगी।
आस रंग से रही रंगी।।
न मन यदि; फिर भी नमन कर।
जगति को अपना वतन कर।
सुमन खिल; सुरभित चमन कर।।
१५-४-२०२२
•••
मुक्तिका
अपने हिस्से जितने गम हैं।
गिने न जाते लेकिन कम हैं।।
बरबस देख अधर मुस्काते।
नैना बेबस होते नम हैं।।
महाबली खुद को कहता जो
अधिक न उससे निर्दय यम हैं।।
दिये जगमगाते ऊपर से
पाले अपने नीचे तम हैं।।
मैं-मैं तू-तू तूतू मैंमैं
जब तक मिलकर हुए न हम हैं।।
उनका बम बम नाश कर रहा
मंगलकारी शिव बम बम हैं।।
रम-रम राम रमामय में रम
वे मदहोश गुटककर रम हैं।।
१५-४-२०२२
•••
मुक्तिका
कर्ता करता
भर्ता भरता
इनसां उससे
रहता डरता
बिन कारण जो
डरता; मरता
पद पाकर क्यों
अकड़ा फिरता?
कह क्यों पर का
दुख ना हरता
***
द्विपदियाँ / अशआर
कोरोना के व्याज, अनुशासित हम हो रहे।
घर के करते काज, प्रेम से।।
*
थोड़े जिम्मेदार, हुए आजकल हम सभी।
आपस में तकरार, घट गई।।
*
खूब हो रहा प्यार, मत उत्पादन बढ़ाना।
बंद घरों के द्वार, आजकल।।
*
तबलीगी लतखोर, बातों से मानें नहीं।
मनुज वेश में ढोर, जेल दो।
*
१५-४-२०२०
***
श्रृंगार गीत
तुम
*
तुम हो या साकार है
बेला खुशबू मंद
आँख बोलती; देखती
जुबां; हो गयी बंद
*
अमलतास बिंदी मुई, चटक दहकती आग
भौंहें तनी कमान सी, अधर मौन गा फाग
हाथों में शतदल कमल
राग-विरागी द्वन्द
तुम हो या साकार है
मद्धिम खुशबू मंद
*
कृष्ण घटाओं बीच में, बिजुरी जैसी माँग
अलस सुबह उल्लसित तुम, मन गदगद सुन बाँग
खनक-खनक कंगन कहें
मधुर अनसुने छंद
तुम हो या साकार है
मनहर खुशबू मंद
*
पीताभित पुखराज सम, मृदुल गुलाब कपोल
जवा कुसुम से अधरद्वय, दिल जाता लख डोल
हार कहें भुज हार दो
बनकर आनंदकंद
तुम हो या साकार है
मन्मथ खुशबू मंद
***
संस्मरण
आम चुनाव
***
मुझे एक चुनाव में पीठासीन अधिकारी बनाया गया, आज से ४५ साल पहले, तब ईवीएम नहीं होती थी, न वाहन मिलते थे। मैं अभियंता था। ट्रेनिंग में कोई कठिनाई नहीं हुई। मुख्यालय से ९९ कि मी दूर रेल से तहसील मुख्यालय पहुँचा। अपने दल के किसी सदस्य को जानता नहीं था। माइक से बार-बार घोषणा कराने पर एक साथी मिले जो शिक्षक थे। हमें लोहे की चार भारी पेटियाँ मिलीं। लगभग साढे़ चार हजार मतपत्र मिले जिनका आकार टेब्लॉयड अखबार के बराबर था। अन्य सामग्री और खुद के कपड़े, बिस्तर और खाने नाश्ते का सामान भी था। शामियाना को एक किनारे बैठकर सूची से सामान का मिलान करने और मतपत्रों को गिनकर गलत मतपत्र बदलवाए। तब तक बाकी दो सहायक आए। एक-एक मतपेटी उन्हें थमाई। अब बस पकड़ना थी। दल में दो पुलिस सिपाही भी थे पर गायब, उनके नाम से मुनादी कराई, जब बस में बैठ गए, तब वे प्रकट हुए। मैं समझ गया कि सामान ढोेने से बचने को लिए आस-पास होते हुए भी नहीं, मिले घुटे पीर हैं। डाल-डाल और पात-पात का नीति अपनाना ठीक लगा। बस चलते समय वे उपस्थिति प्रमाण पत्र पर हस्ताक्षर कराने आए। मैंने इंकार कर दिया कि मैं आपकी गैर हाजिरी रिपोर्ट कर चुका हूँ। मैं मतदान केंद्र पर दो कर्मचारी नियुक्त कर चुनाव करा लूँगा, आप वापिस जाएँ और एस. पी. से निलंबन आदेश लेकर जाँच का सामना करें। उनके पैरों तले से जमीन सरकने लगी, बाजी उलटती देख माफी माँगने लगे। मैंने बेरुखी बनाए रखी।
बस से ४५ कि मी दूर ब्लॉक मुख्यालय तक जाना था। वहाँ सिपाहियों ने आगे बढ़कर मतपेटियाँ और मतपत्र सम्हाले जिसके लिए उनकी ड्यूटी लगाई गई थी। अब हमें ८ कि. मी. बैलगाड़ी से जाना था। कोटवार २ बैलगाड़ी लेकर राह देख रहा था। बैलगाड़ी ने नदी किनारे उतारा। यहाँ डोंगी (पेड़ का तना खोखला कर बनाई छोटी नाव) मिलीं। दल के मुखिया के नाते सबको नियंत्रण में रखकर, सब काम समय पर कराना था। मैं २२ साल का, शेष सब मेरे पिता की उम्र के। पहली डोंगी पर मतपत्र, मतपेटी लेकर एक सिपाही को साथ मैं खुद बैठा। दोपहर २ बज रहे थे। सबको भूख लग रही थी, खाने के लिए रुकते तो एक घंटा लगता। मैंने तय किया कि मतदान केंद्र पहुँच ,कर वहाँ व्यवस्था जो कमी हो उसको ठीक कराने की व्यवस्था कराने के बाद भोजन आदि हो। दल के बाकी लोग पहले खाना चाहते थे। अँधेरा होने पर गाँव में कुछ मिलना संभव न होता। कहावत है बुरे वक्त में खोटा सिक्का काम आता है। मैंने वरिष्ठ सिपाही को किनारे ले जाकर पट्टी पढ़ाई कि सीधे बिना रुके मतदान केंद्र चलोगे और पूरे समय मेरे कहे अनुसार काम करेंगे तो शिकायत वापिस लेकर कर्तव्य प्रमाणपत्र दे दूँगा। अंधा क्या चाहे?, दो आँखें। उसने जान बचते देखी तो मेरे साथ आगे बढ़कर मतपेटी लेकर डोंगी में जा बैठा। उसे बढ़ता देख उसका साथी दूसरी डोंगी में जा बैठा। एक डोंगी में दो सवारी, एक मतपेटी और डोंगी चालक, लहर के थपेड़ों को साथ डोंगी डोलती, हमारी जान साँसत में थी। मुझे तो तैरना भी नहीं आता था पर हौसला रखकर बढ़ते रहे।
राम-राम करते दूसरे किनारे पहुँच चैन की साँस ली। सब सामान की जाँच कर कंदों पर लादा और शुरू हुई पदयात्रा, ४ किलोमीटर पैदल कच्चे रास्ते, पगडंडी और वन के बीच से से होते हुए मतदान स्थान पहुँचे। प्राथमिक शाला एक कमरा, परछी, देशी खपरैल का छप्पर, शौचालय या अन्य सुविधा का प्रश्न ही नहीं उठता था। कमरे में सुरक्षित स्थान पर मतदान सामग्री रखवाई। अब तक ४ बज चुके थे, भूखे और थके तो थे ही दल के सदस्य खाने पर टूट पड़े। मैंने उन्हें भोजन आदि करने दिया किंतु खुद पटवारी और कोटवार को लेकर व्यवस्था देखी। सूर्य अस्ताचल की ओर अग्रसर था। बिजली गाँव में नहीं आई थी।
केंद्र में दो मेजें, दो बेंचे, दो कुर्सियाँ, एक स्टूल, एक बाल्टी, एक लोटा, दो गिलास, एक मटका, एक चिमनी, एक फटी-मैली दरी... कहीं का ईंट कहीं का रोड़ा भानुमती ने कुनबा जोड़ा का तर्ज पर जुटाई गई थी। कमरे के दरवाजे ऐसे कि धक्का देते ही टूट जाएँ। खिड़की बिना पल्लों की चौखट में लोहे के सारी मात्र। यहाँ भी पटवारी और कोटवार दामन बचाते मिले। मुझे एक वरिष्ठ साथी प्रशिक्षण के मध्य गप-शप करते समय बता चुके थे कि पीठासीन अधिकारी के साथ अलग-अलग विभागों के लोग होते हैं जो जानते हैं कि एक दिन बाद अलग हो जाना है। पर्याय: वे सहयोग न कर, जैसे तैसे बेगार टालते हैं जबकि उच्चाधिकारियों को हर कार्य शत-प्रतिशत सही और समय पर चाहिए, न हो तो बिजली पीठासीन अधिकारी पर ही गिरती है। मैंने हालत से निबटने का तरीका पूछ तो वे बोले 'हिकमत अमली'। मैंने यह शब्द पहली बार सुन। वे
संवस, १५.४.२०१९
***
छंद बहर का मूल है: ३
राग छंद
*
छंद परिचय:
बीस मात्रिक महादैशिक जातीय छंद।
तेरह वार्णिक अति जगती जातीय राग छंद।
संरचना: SIS ISI SIS ISI S
सूत्र: रजरजग।
बहर: फ़ाइलुं मुफ़ाइलुं मुफ़ाइलुं फ़अल।
*
आइये! मनाइए, रिझाइए हमें
प्यार का प्रमाण भी दिखाइए हमें
*
चाह में रहे, न सिर्फ बाँह में रहे
क्रोध से तलाक दे न जाइए हमें
*
''हैं न आप संग तो अजाब जिंदगी''
बोल प्यार बाँट संग पाइए हमें
*
जान हैं, बनें सुजान एक हों सदा
दे अजान रोज-रोज भाइये हमें
*
कौन छंद?, कौन बहर?, क्यों पता करें?
शब्द-भाव में पिरो बसाइए हमें
*
संत हों न साधु हों, न देवता बनें
आदमी बने तभी सुहाइये हमें
*
दो, न दो रहें, न एक बनें, क्यों कहो?
जान हमारी बनें बनाइए हमें
१५.४.२०१७
***
काजी नज़रुल इस्लाम - की रचनाओं में राष्ट्रीयता
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
विश्व का महानतम लोकतंत्र भारत अनेकता में एकता, विविधता में समानता, विशिष्टता में सामान्यता और स्व में सर्व के समन्वय और सामंजस्य का अभूतपूर्व उदाहरण था, है और रहेगा। समय-समय पर पारस्परिक टकराव, संघर्ष और विद्वेष के तूफ़ान आते-जाते रहे किन्तु राष्ट्रीयता, समानता, सहयोग, सद्भाव और वैश्विक चेतना के सनातन तत्व भारत में सदा व्याप्त रहे। स्वाधीनता सत्याग्रहों तथा स्वातंत्रयोत्तर काल में राष्ट्रीय एकात्मता की मशाल को ज्योति रखनेवाले महापुरुषों में २४ मई १८९९ को जन्में तथा २९ अगस्त १९७६ को दिवंगत अग्रणी बांग्ला कवि, संगीतज्ञ, संगीतस्रष्टा, दार्शनिक, गायक, नाटककार तथा अभिनेता काजी नज़रुल इस्लाम अग्रगण्य रहे हैं।
अवदान-सम्मान
वे बांग्ला भाषा के अन्यतम साहित्यकार, देशप्रेमी तथा बंगलादेश के राष्ट्रीय कवि हैं। भारत और बांग्लादेश दोनों ही जगह उनकी कविता और गान को समान आदर प्राप्त है। कविता में विद्रोह के स्वर प्रमुख होने के कारण वे 'विद्रोही कवि' कहे गये। उनकी कविता का वर्ण्यविषय 'मनुष्य पर मनुष्य का अत्याचार' तथा 'सामाजिक अनाचार तथा शोषण के विरुद्ध सोच्चार प्रतिवाद' है। कोल्कता विश्वविद्यालय ने उन्हें 'जगतारिणी पुरस्कार से सम्मनित कर खुद को धन्य किया। रवीन्द्र भारती संस्था तथा ढाका विश्वविद्यालय ने मानद डी.लिट्. उपाधि समर्पित की।भारत सरकार ने उन्हें १९६० में पद्मभूषण अलंकरण से अलंकृत किया गया। भारत ने १९९९ में एक स्मृति डाक टिकिट जरी किया। बांगला देश ने २८ जुलाई २०११ को एक स्मृति डाक टिकिट तथा ३ एकल और एक ४ डाक टिकिटों का सेट उनकी स्मृति में जारी किये।
जन्म, परिवार तथा संघर्ष-
अंतिम मुग़ल सम्राट बहादुर शाह ज़फ़र के शासनकाल में एक मुसलमान परिवार बंगाल के हाजीपुर को छोड़कर बर्दवान के पुरुलिया गाँव में आ बसा था। परिवार के किसी सदस्य के काज़ी होने के बाद से परिवार के सभी सदस्य नाम के साथ काजी जोड़ने लगे। इसी वंश के काज़ी फ़कीर अहमद की बेग़म ज़ाहिदा खातून माँ काली से पुत्र देने हेतु प्रार्थना किया करती थी। उन्होंने २४ मई को एक पुत्र जन्मा जिसे कालांतर में काजी नज़रुल इस्लाम के नाम से जाना गया। उनका १ बड़ा भाई, २ छोटे भाई तथा एक छोटी बहिन थी । केवल ८ वर्ष की उम्र में उनके वालिद जो एक मज़ार और मस्जिद की देख-रेख करते थे, का इंतकाल हो गया। अभाव और गरीबी इतनी कि लोग उन्हें 'दुक्खू मियाँ' कहने लगे। हालात से जूझते हुए उन्होंने १० साल की आयु में फजल अहमद के मार्गदर्शन में मखतब का इम्तिहान पास कर अरबी-फारसी पढ़ने के साथ-साथ भागवत, महाभारत, रामायण, पुराण और कुरआन आदि पढ़कर पढ़ाईं तथा माँ काली की आराधना करने लगे।
रानीगंज, बर्दवान के राजा से ७ रुपये छात्रवृत्ति, मुफ्त शिक्षा तथा मुस्लिम छात्रावास में मुफ्त खाना-कपड़े की व्यवस्था होने पर वे कक्षा में प्रथम आये। यहाँ आजीवन मित्र रहे निबारनचंद्र घटक तथा शैलजानंद मुखोपाध्याय से मित्रता हुई जो बाद में बांगला के प्रसिद्ध कहानीकार-उपन्यासकार हुए। किसी विषय में अनुत्तीर्ण होने पर वे आसनसोल लौटकर माथुरन हाई स्कूल में श्री कुमुदरंजन मलिक के विद्यार्थी रहे। परीक्षा शुल्क की व्यवस्था न होने पर वे पढ़ाई छोड़कर समाज की कुरीतियों पर व्यंग्य प्रधान नौटंकी करने वाले दल 'लीटो' में सम्मिलित होकर कलाकारों के लिये काव्यात्मक सवाल-जवाब लिखने लगे और केवल ११ वर्ष की आयु में इस दल के मुख्य 'कवियाल' बने। उन्होंने रेल गार्डों के घरों में काम किया, अब्दुल वहीद बेकारी में १रु. मासिक पर काम किया साथ ही संगीत गोष्ठियों में बाँसुरी बजाना जारी रखा जिससे प्रभावित होकर पुलिस सब इंस्पेक्टर रफीकुल्ला उन्हें अपने गाँव त्रिशाल जिला मैमनपुर बांगला देश ले गये। अंग्रेज बंगालियों को सेना के अयोग्य भीरु मानते थे किंतु स्कूल की अंतिम वर्ष की पढ़ाई छोड़कर १८ वर्षीय नजरुल १९१७ में 'डबल कंपनी' में यहाँ सैनिक शिक्षा लेने लगे।उन्हें ४९ वीं बंगाल रेजिमेंट के साथ नौशेरा उत्तर-पश्चिम सीमांत पर भेज दिया गया। वहाँ से कराची आकर ;कारपोरल' के निम्नतम पद से उन्नति कर कमीशन प्राप्त अफसर के रूप में १९१९ में 'हवलदार' हो गये। मई १९१९ में पहली गद्य रचना 'बाउडीलीयर आत्मकथा (आवारा की आत्मकथा) तथा जुलाई १९१९ में प्रसिद्ध कविता 'मुक्ति' प्रकाशित होने पर उन्हें ख्यति मिली।
एक पंजाबी मौलवी की मदद से उनहोंने फारसी सीखी और फारसी महाकवि हाफ़िज़ की 'रुबाइयाते हाफ़िज़' का अनुवाद आरम्भ किया जो राजनैतिक व्यस्तताओं के कारण १९३० में छप सकी। दूसरा अनुवाद 'काब्यापारा' १९३३ में तथा 'रुबाइयाते उमर खय्याम' १९५९-६० में छपी। ८ अगस्त १९४१ को टैगोर का निधन होने पर नजरुल न २ कविताओं की आल इंडिया रेडिओ पर सस्वर प्रस्तुति कर उन्हें श्रद्धान्जलि दी। बाल साहित्य प्रकाशक अली अकबर खाँ ने 'मुस्लिम भारत' समाचार पत्र कार्यालय में उनसे भेंट कर उन्हें अपना मित्र बनाकर नज्म 'लीचीचोर' माँग ली और मार्च-अप्रैल १९२१ में नजरुल को अपने साथ पूर्वी बंगाल के दौलतपुर गाँव, जिला तिपेरा, हैड ऑफिस कोमिल्ला ले गये। अली अकबर के मित्र वीरेंद्र के पिता श्री इंद्र कुमार सेनगुप्त, माँ बिराजसुन्दरी, बहिन गिरिबाला, बहिन की १३ वर्षीय पुत्री प्रमिला (दोलन) उन्हें परिवार जनों की तरह स्नेह करते। नजरुल बिराजसुंदरी को 'माँ' कहते। २ माह बाद अली अकबर की विधवा बहिन की बेटी नर्गिस बेगम के अस्त नजरुल का निकाह १७ जून १९२१ को होने के निमंत्रण पत्र बँट जाने के बाद अली अकबर द्वारा घर जमाई बनने की शर्त रखी जाने पर नजरुल निकाह रद्द कर दौलतपुर से कोमिल्ला लौट आये। उनकी कई कवितायेँ और गीत नर्गिस के लिये ही थे।अंग्रेज सरकार उन्हें सब रजिस्ट्रार बनाना चाहा पर अंग्रेजी-विरोध के कारण नजरुल ने स्वीकार नहीं किया। 'धूमकेतु' पत्रिका में अंग्रेज शासन विरोधी लेखन के कारण १९२३ में उन्हें एक वर्ष का कारावास दिया गया, छूटने पर वे कृष्ण नगर चले गये। १८ जून १९२१ से ३ जुलाई तक नजरुल सेनगुप्त परिवार के साथ रहे। नज्म 'रेशमी डोर' में ''तोरा कोथा होते केमने एशे मनीमालार मतो, आमार कंठे जड़ा ली'' अर्थात 'तुम लोग कैसे मेरे कंठ से मणिमाला की तरह लिपट गये हो?' लिखकर और 'स्नेहातुर' कविता में नजरुल ने सेनगुप्त परिवार से स्नेहिल संबंधों को अभिव्यक्त किया। वे इस नैराश्य काल में एकमात्र आशावादी कविता 'पलक' लिख सके। ब्रम्ह समाज से जुडी उक्त प्रमिला से २४ अप्रैल १९२४ को नजरुल ने विवाह कर लिया।
विपन्नता से जूझते नजरुल ने प्रथम संतान तथा १९२८ में प्रकाशित प्रथम काव्य संग्रह का नाम बुलबुल रखा। पुत्र अल्पजीवी हुआ किन्तु संग्रह चिरजीवी, इसका दूसरा भाग १९५२ में छपा। 'दारिद्र्य'शीर्षक रचना करने के साथ-साथ नजरुल ने अपने गाँव में विद्यालय खोला तथा 'कम्युनिस्ट इंटरनेशनल' का प्रथम अनुवाद किया।
सांप्रदायिक सद्भाव के अग्रदूत
नजरुल की कृष्णभक्ति परक रचनाओं में आज बन-उपवन में चंचल मेरे मन में, अरे अरे सखि बार बार छि छि, अगर तुम राधा होते श्याम, कृष्ण कन्हैया आयो मन में मोहन मुरली बजाओ, चक्र सुदर्शन छोड़ के मोहन तुम बने बनवारी, जन-जन मोहन संकटहारी, जपे त्रिभुवन कृष्ण के नाम, जयतु श्रीकृष्ण श्री कृष्ण मुरारी, झूले कदम के डार पे झूलना किशोर-किशोरी, झूलन झुलाए झाउ झक झोरे, तुम प्रेम के घन श्याम मैं प्रेम की श्याम-प्यारी, तुम हो मेरे प्रेम के मोहन मैं हूँ प्रेम अभिलाषी, देखो री मेरो गोपाल धरो है नवीन नट की साज , नाचे यशोदा के अँगना में शिशु गोपाल, प्रेम नगर का ठिकाना कर ले, मेरे तन के तुम अधिकारी ओ पीताम्बरधारी, यमुना के तीर पर सखी री सुनी मैं, राधा श्याम किशोर प्रीतम कृष्ण गोपाल, श्याम सुन्दर मन मन्दिर में आओ, सुन्दर हो तुम मनमोहन हो मेरे अंतर्यामी, सोवत-जागत आठूं जान रहत प्रभु मन में तुम्हरो ध्यान, हर का भजन कर ले मनुआ आदि नजरुल की प्रमुख कृष्ण भक्ति रचनाएँ हैं
टैगोर तथा शरत से प्रभावित नजरुल के लिखे दाता कर्ण, कवि कालिदास, शकुनि वध आदि नाटक खूब लोकप्रिय हुए।वे यथार्थ पर आधारित, प्रेम-गंध पूरित, देशी रागों और धुनों से सराबोर, वीरता, त्याग और करुणा प्रधान नाटक लिखते और खेलते थे। पारंपरिक रागों का शुद्ध प्रस्तुतीकरण करने के साथ आधुनिक धुनों में भी ओजस्वी बांगला ३००० से अधिक गीति-रचना तथा अधिकांश का गायन कर संगीत की विविध शैलियों को उन्होंने समृद्ध किया। इसे 'नजरूल गीति' या 'नजरुल संगीत' के नाम से जाना जाता है। विद्रोही, धूमकेतु, भांगरगान, राजबन्दिर, जबानबंदी तथा नजरुल गीति उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं। सांप्रदायिक कट्टरता या संकीर्णता से कोसों दूर नजरुल सांप्रदायिक सद्भाव के जीवंत प्रतीक हैं। रूद्र रचनावली, भाग १, पृष्ठ ७०७ पर प्रकाशित रचना उनके साम्प्रदायिकता विहीनविचारों का दर्पण है-
'हिन्दू और मुसलमान दोनों ही सहनीय हैं
लेकिन उनकी चोटी और दाढ़ी असहनीय है
क्योंकि यही दोनों विवाद कराती हैं।
चोटी में हिंदुत्व नहीं, शायद पांडित्य है
जैसे कि दाढ़ी में मुसल्मानत्व नहीं, शायद मौल्वित्व है।
और इस पांडित्य और मौल्वित्व के चिन्हों को,
बालों को लेकर दुनिया बाल की खाल का खेल खेल रही है
आज जो लड़ाई छिड़ती है
वो हिन्दू और मुसलमान की लड़ाई नहीं
वो तो पंडित और मौलवी की विपरीत विचारधारा का संघर्ष है
रोशनी को लेकर कोई इंसान नहीं लड़ा
इंसान तो सदा लड़ा गाय-बकरे को लेकर।
कविता में विद्रोह मंत्र-
अपनी कविताओं के माध्यम से नज़रूल ने देश के प्रति बलिदान और विदेशी शासन के प्रति विद्रोह के भाव जगाये। मुसलमान होते हुए भी वे माँ काली के समर्पित भक्त थे। उनकी अनेक रचनाएँ माँ काली को ही समर्पित हैं। भारत माता की गुलामी के बंधनों को काट फेंकने का आव्हान करने पर उनकी रचनाओं ने उन्हें 'विद्रोही कवि' का विरुद दिलवाया। अंग्रेजी सत्ता के प्रतिबन्ध भी उनकी ओजस्वी वाणी को दबा नहीं सके। कवि, गायक, संगीतकार होने के साथ-साथ वे श्रेष्ठ दार्शनिक भी थे। नज़रुल ने मनुष्य पर मनुष्य के अत्याचार, सामाजिक अनाचार, निर्बल के शोषण, साम्प्रदायिकता आदि के खिलाफ सशक्त स्वर बुलंद किया। नजरुल ने अपने लेखन के माध्यम से जमीन से जुड़े सामाजिक सत्यों-तथ्यों का इंगित कर इंसानियत के हक में आवाज़ उठायी। वे कवीन्द्र रविन्द्र नाथ ठाकुर के पश्चात् बांगला के दूसरा महान कवि हैं। स्वाभिमानी, समन्ता के पक्षधर नजरुल ने परम्परा तोड़ते हुए किसी शायर को अपना उस्ताद नहीं बनाया। अपने धर्म निरपेक्ष सिद्धांतों के अनुसार वे मस्जिद में इबादत और माँ काली की पूजा में विरोधाभास नहीं मानते थे।
एक अफ़्रीकी कवि ने काव्य को रोष या क्रोध की उपज कहा है। नजरुल के सन्दर्भ में यह सही है। नजरुल के लोकप्रिय नाटकों में १. चाशार शौंग, २. शौकुनी बोध, ३. राजा युधिष्ठिर, ४. दाता कोर्ना (कर्ण), ५. अकबर बादशाह, ६. कॉबि (कवि) कालिदास , ७. बिद्यान होतुम (विद्वान उल्लू), ८. आले आ १९२५-३१, ९. मधुमाला, १०. झली मली १९३०, ११. मधुमाला १९५९-६० मुख्य हैं। 'भंगार गान' में नजरुल का जुझारू और विद्रोही रूप दृष्टव्य है- 'करार आई लौह कपाट, भेंगे फेल कार-रे लोपात, रक्त जामात सिकाल पूजार पाषाण वेदी' अर्थात तोड़ डालो इस बंदीग्रह के लौह कपाट, रक्त स्नात पत्थर की वेदी पाश-पाश कर दो/ जो वेदी रुपी देव के पूजन हेतु खड़ी की गयी है। 'बोलो! वीर बोलो!!उन्नत मम शीर' अर्थात कहो, हे वीर कहो की मेरा शीश उन्नत है। श्री बारीन्द्र कुम घोष के संपादन में प्रकाशित साप्ताहिक पत्रिका 'बिजली' में यह कविता प्रकाशित होने पर जनता ने इसे गाँधी के नेतृत्व में संचालित असहयोग आन्दोलन से जोड़कर देखा। वह अंक भरी मांग के कारण दुबारा छापना पड़ा। गुरुदेव ने स्वयं उनसे यह रचना सुनकर उन्हें आशीष दिया।
नजरुल ने धूमकेतु पत्रिका का प्रकाशन सन १२ अगस्त १९२२ से रवीन्द्र नाथ ठाकुर, शरत चन्द्र चटर्जी, बारीन्द्र कुमार घोष आदि विभूतियों के आशीष से आरंभ कर 'जागिये दे रे चमक मेरे, आछे जारा अर्ध चेतन! (' अर्धचेतना में जो अब भी चमको उन्हें जगाओ रे!') सन्देश दिया। धूमकेतु में की गयी सम्पादकीय टिप्पणियाँ बाद में काव्य संग्रह 'अग्निबीना' (१९२२), दो निबन्ध संग्रहों दुर्दिनेर जात्री (१९३८), रूद्र मंगल, 'वशीर बंसी' तथा 'भंगारन' में प्रकाशित की गयीं जिन्हें सरकार ने अवैध घोषित कर दिया।
नजरुल रूसो के स्वतंत्रता, समानता और भ्रातत्व के सिद्धांत तथा रूस की क्रांति से बहुत प्रभावित थे। १६ जनवरी १९२३ में नजरुल को कैद होने के बाद धूमकेतु का प्रकाशन बंद हो गया। १९६१ में धुन्केतु शीर्षक से उनका निबन्ध संकलन छपा। साम्यवादी दल बंगाल के मुखिया बनकर नजरुल ने नौजूग (नवयुग) पत्रिका निकाली। नजरुल द्वारा १९२२ में प्रकाशित 'जूग बानी'(युगवाणी) की अपार लोकप्रियता को देखते हुए कविवर पन्त जी ने अपने कविता संग्रह को यही नाम दिया। नजरुल की क्रन्तिकारी गतिविधियों से त्रस्त सरकार उन्हें बार-बार काराग्रह भेजती थी। जनवरी १९२३ में नजरुल ने ४० दिनों तक जेल में भूख-हड़ताल की, टैगोर के लिखित अनुरोध पर भी अनशन न तोडा तो उनकी माँ को स्वयं काराग्रह पहुँचकर अनशन तुडवाना पड़ा।कारावासी नेताजी सुभाष ने उनकी प्रशंसा कर कहा- हम जैसे इंसान संगीत से दूर भागते हैं, हममें भी जोश जाग रहा है, हम भी नजरुल की तरह गीत गाने लगेंगे। अब से हम 'मार्च पास्ट' के समय ऐसे ही गीत गायेंगे। इनके गीत गाने और सुनने से हमें कैद भी कैद नहीं लगेगी। ग्यारह माह के कारावास में असंख्य गीटी और कवितायेँ रचकर पंद्रह दिसंबर १९२३ को नजरुल मुक्त किये गये।व्यंग्य रचना 'सुपेर बंदना' (जेल अधीक्षक की प्रार्थना) में नजरुल के लेखन का नया रूप सामने आया। 'एई शिकलपोरा छल आमादेर शिक-पोरा छल' (जो बेड़ी पहनी हमने वो केवल एक दिखावा है / इन्हें पहन निर्दयियों को ही कठिनाई में डाला है)।
शोचनीय आर्थिक परिस्थिति के बाद भी नजरुल की गतिविधियाँ बढ़ती जा रही थीं। गीत 'मरन-मरन' में 'एशो एशो ओगो मरन' (ओ री मृत्यु! आओ आओ) तथा कविता 'दुपहर अभिसार' में जाश कोथा शोई एकेला ओ तुई अलस बैसाखे? (कहाँ जा रहीं कहो अकेली? अलसाये बैसाख में) लिखते हुए नजरुल जनगन को निर्भयता का पाठ पढ़ा रहे थे। सन १९२४ में गाँधी जी के नेतृत्व में असहयोग आन्दोलन और कोंग्रेस व मुस्लिम लीग के बीच स्वार्थपरक राजनैतिक समझौते पर नजरुल ने 'बदना गाडूर पैक्ट' गीत में खिलाफत आन्दोलनजनित क्षणिक हिन्दू-मुस्लिम एकता पर करारा व्यंग्य कर कहा की हम ४० करोड़ भारतीय अलग-अलग निवास और विचारधारामें विभाजित होकर आज़ादी खो बैठे हैं। फिर एक बार संगठित हों, जाति, धर्म आदि के भेद-भाव भुलाकर शांति, साम्य, अन्न, वस्त्र आदि अर्जित करें।सांप्रदायिक एकता को जी रहे नजरुल ने न केवल हिन्दू महिला को शरीके-हयात बनाया अपितु अपने चार बेटों के नाम कृष्ण मुहम्मद, अरिंदम (शत्रुजयी), सव्यसाची (अर्जुन) और अनिरुद्ध (जिसे रोक न जा सके, श्रीकृष्ण का पौत्र) रखे।
स्वतंत्रता हेतु संघर्षरत लोगों का मनोबल बढ़ाते हुए नजरुल ने लिखा 'हे वीर! बोलो मेरा उन्नत सर देखा क्या कभी हिमाद्री शिखर ने अपना सर झुकाया?' आशय यह की अंग्रेजों के उठे सर देखकर तुम भी कभी अपना सर मत झुकाओ। प्रत्यक्षत: कुछ न कहकर परोक्षत: कहने की यही शैली दुष्यंत ने आपातकाल में 'अब तो इस तालाब का पानी बदल दो / ये कमल के फूल मुरझाने लगे हैं' लिखकर अपनायी। नर्गिस बेगम विवाह न हो पाने के बाद भीनजरुल को भुला न सकीं और बार-बार मिलने की चेष्टा करतीं। एक जुलाई १९३७ को एच एम् व्ही कंपनी के लिए रिकोर्ड गीत की पहली पंक्ति 'जार हाथ दिये माला, दिते पारो नाईं / कैनी मने राखा तारे? भूल जाओ तारे, भूले जाओ एके बारे।' (न हाथों में माला देकर भी न दे सकीं / क्यों करती हो याद?, बिसारो, भुला दो उसे एकदम)।
नजरुल ने कोमिल्ला में रहते हुए गाँधी जी के आन्दोलन संबंधी असंख्य गीत व् कवितायेँ रचकर जनानुभूतियों को अभिव्यक्ति दे अपर लोकप्रियता पाई। 'ए कोन पागल पथिक छोटे एलो बंदिनी मार आँगिनाये? ट्रीस कोटि भाई मरण हरण गान गेये तार संगे जाए' (बंदी माँ के आँगन में / जाता है कौन पथिक पागल? / तीस करोड़ बन्धु विस्मृत कर / मौत गा रहे गीत साथ मिल)।
नजरुल गाँधी-दर्शन से पूर्णत: सहमत न थे।उनके अनुसार 'राजबंदी जवानों का लक्ष्य स्पष्ट है,गाँधी जी जिसे दुष्ट सरकार कहते हैं उसकी और अधिक वैध तथा सामूहिक उपकरणों से भर्त्सना करना ही आज उद्दिष्ट है। कवि ईश्वर की एक ऐसी चुनी हुई आवाज़ है जो सदैव यथार्थ और सत्य का पृष्ठपोषण करती है। वह ईश्वर और न्याय का पक्ष ग्रहण करती है और सभी घृणा योग्य उपकरणों को नष्ट-भ्रष्ट करने का साधन है।' उर्दू शायर फैज़ अहमद 'फैज़' ने कारावास में लिखा था 'मताए लौहो-कलम छीन गयी तो क्या गम है?/ कि खूने-दिल में डुबो ली हैं अंगुलियाँ मैंने/ज़बां पर मुहर लगी है तो क्या कि रख दी है/हरेक हलक-ए-जंजीर में ज़बां मैंने।
नजरुल कहते है: 'मुझे पता चल गया है कि मैं सांसारिक विद्रोह करने के लिए ही उस ईश्वर का भेजा हुआ एक लाल सैनिक हूँ। सत्य-रक्षा और न्याय-प्राप्ति हेतु मैं सैनिक मात्र हूँ। उस दिव्य परम शक्ति ने मुझे बंगाल की हरी-भरी धरती पर जो आजकल किसी वशीकरण से वशीभूत है, भेजा है। मैं साधारण सैनिक मात्र हूँ। मैंने उसी ईश्वर के निर्देशों की पूर्ति करने यत्न ही किया है। नजरुल के क्रन्तिकारी विद्रोहात्मक विचार राष्ट्रीयतापरक गीतों में स्पष्ट हैं। दुर्गम गिरि कांतार, मरू दुस्तर पारावार / लांघिते हाबे रात्रि निशीथे, यात्रिरा हुँशियार (दुर्गम गिरि-वन, विकट मरुस्थल / सागर का विस्तार /निशा-तिमिर में, हमें लाँघना, पथिक रहें होशियार)। एक छात्र सम्मलेन के उद्घाटन-अवसर पर नजरुल ने परायण गीत गाया- आमरा शक्ति, आमरा बल, आमरा छात्र दल (हमारी शक्ति, हमारा बल, हमारा छात्र दल)। एक अन्य अवसर पर नजरुल ने परायण गीत गाया- चल रे चल चल, ऊर्ध्व गगने बाजे मादल / निम्ने उत्तला धरणि तल, अरुण प्रान्तेर तरुण दल, चल रे चल चल (चलो रे चलो, नभ में ढोल बजे / नीचे धरती कंपित है / उषा-काल में युवकों, आगे और बढ़ो)। नजरुल के मुख्या कहानी संग्रह ब्याथार दान १९२२, १९९२, रिक्तेर बेदना १९२५ तथा श्यूलीमाला १९३१ हैं।
संगीत में दक्षता-
नजरुल में शैशव से हो संगीत के प्रति अभिरुचि, लग्न तथा प्रतिभा की त्रिवेणी प्रवाहित थी।उनके ग्राम के शास्त्रीय संगीत के प्रकन्द विद्वान क्षितीश्चन्द्र कांजीलाल ने इसे तराशा-निखारा। नसरुल की हारमोनियम, ढोलक और तबला वादन ततः साथ-साथ गायन में महारत थी। उन्होंने लगभग ४००० गीत रचे। 'छन्दसी' नामक गीति काव्य में उन्होंने दस संस्कृत-छंदों का प्रयोग किया।आकाशवाणी के लिये 'नव राग मालिका' के अंतर्गत लगभग ५०० प्रेम-गीत रचे। नजरुल ने उदासी भैरव, रूद्र भैरव, आशा भैरव, अरुण रंजनी, योगिनी, देवयानी चांपा, संध्या मालती, वनकुंतला, शंकरी, मीनाक्षी, रूप्म्न्जरी, निर्झणी (निर्झरिणी) शिव सरस्वती, रक्त हंस सारंग आदि अनेक नये रागों का शोध किया। हिंदी-उर्दू के प्रसिद्द कवी आमिर खुसरो की तरह नजरुल ने भी कई तालों का अविष्कार किया जिनमें बीस मात्रा की नौनंद ताल तथा सात मात्रा की प्रियाछ्न्द ताल मुख्य हैं। उनहोंने बांगला भाषा, संगीत, भावों और अनुभूतियों के अनुकूल रागों के प्रयोग को प्राथमिकता दी। उनकी रचनाओं में लोक संगीत, शास्त्रीय संगीत, अरबी संगीत नीर-क्षीर की तरह प्रवाहमान होते रहे। १९३० से १९४० के मध्य उन्होंने प्रतिदिन कम से कम १२ गीत तथा कुल ४००० गीत रचे जिनमें से आधे आज भी प्राप्त हैं तथा शेष को शोधा जाना आवश्यक है।
नजरुल के गीत बाउल, झूमर, संथाली आदि तथा सँपेरों के भठियाली, भाउआ आदि लोक गीतों पर आधारित, काव्यात्मक सौन्दर्य तथा श्रेष्ठ संगीतात्मकता से परिपूर्ण हैं। नजरुल ने बांगला काव्य में सर्वप्रथम 'गजल' काव्य विधा का प्रयोग कर औरों को राह दिखाई। उनकी आत्मकथा 'बांडुलेयेर आत्मकाहिनी' जुलाई १९१९ में 'बंगला-मुस्लिम साहित्य पत्रिका में छपी। प्रथम काव्य संग्रह 'बोधान' तथा उपन्यास 'बंधनहारा १९२० में प्रकाशित हुआ। राष्ट्रभाषा परिषद् वर्धा के तत्वावधान में नजरुल की जीवनि, प्रमुख कवितायेँ व गीत गोपाल हालदार के संपादन में छपे। १९३२ से ३५ के मध्य उनके ८०० गीत १० संग्रहों में छप चुके थे जिनमें से ६०० शास्त्रीय रागों तथा लोक संगीत की कीर्तन धुनों पर आधारित और ३० राष्ट्रीय चेतना से परिपूर्ण थे। उनके अनेक गीतों में राग भैरव का प्रभाव दृष्टव्य है।
गुरुदेव रविन्द्र नाथ ठाकुर के बांगला उपन्यास 'गोरा' के चलचित्रीकरण में नजरुल संगीत निर्देशक रहे। सचिन सेनगुप्ता के नाटक 'सिराजुद्दौला' में नजरुल का गीत-संगीत कमाल का था। सं १९३८ में वे कोलकाता रेडियो स्टेशन में समस्त कार्यक्रमों के अधिष्ठाता थे। उन्होंने संगीताधारित डोक्युमेंट्रियाँ हारामोनी, नव्राग मल्लिका आदि प्रसारित कीं। नजरुल के गीतों में फीरोजा बेगम, सुपर्वा सरकार, अंगूरबाला, इंदु बाला, अंजली मुखर्जी, ज्ञानेंद्र प्रसाद मुखर्जी, नीलोफर, यास्मीन, मानवेन्द्र मुखर्जी, कनिका मजूमदार, दिपाली नाग, सुकुमार मित्रा, महेंद्र मित्रा, धीरेन बासु, पूर्बी दत्ता, फिरदौस आरा, शाहीन समद, सुष्मिता गोस्वामी आदि ने अपनी आवाज़ देने का सौभाग्य पाया। एच एम् व्ही कंपनी ने नजरुल के सुयोग्य शिष्यों सचिन देव बर्मन, जोथिका रॉय, सुपर्वा सरकार, के मलिक, गीता बासु, सीता चौधरी आदि के लिये रिकार्ड बनाये। कमल-काँटा, नदी में ज्वार, मेरी कैफियत, भिखारी तुम कौन हो,आज भी रोये मन में कोयलिया, सावन की रात में गर स्मरण तुम आये के लिए नजरुल चिरकाल तक याद किये जायेंगे।
नज़रुल राष्ट्रीयता के आंदोलनों में सक्रिय रहने के साथ-साथ चलचित्रों के माध्यम से जन चेतना जाग्रत करने में भी सफल हुए। उन्होंने कई चित्रपटीय गीतों में संगीत दिया। उनके कालजयी गीतों में से कुछ 'ये किसका तसव्वुर है (गायक अनीस खातून, संगीतकार काजी नजरुल इस्लाम-हनुमानप्रसाद शर्मा, गीतकार जिगर मुरादाबादी), वो कब के आये भी (गायक अनीस खातून, संगीतकार काजी नजरुल इस्लाम-हनुमानप्रसाद शर्मा, गीतकार जिगर मुरादाबादी), एक लफ्ज़ मुहब्बत का (संगीतकार काजी नजरुल इस्लाम-हनुमानप्रसाद शर्मा, गीतकार काजी नजरुल इस्लाम, आरजू लखनवी, मिर्ज़ा ग़ालिब, जिगर मुरादाबादी, परताऊ लखनवी), चौरंगी है ये चौरंगी (संगीतकार काजी नजरुल इस्लाम-हनुमानप्रसाद शर्मा, गीतकार काजी नजरुल इस्लाम), झूमे-झूमे मन मतवाला (संगीतकार काजी नजरुल इस्लाम-हनुमानप्रसाद शर्मा, गीतकार काजी नजरुल इस्लाम, आरजू लखनवी, मिर्ज़ा ग़ालिब, जिगर मुरादाबादी, परताऊ लखनवी), आजा री निंदिया तू (संगीतकार काजी नजरुल इस्लाम-हनुमानप्रसाद शर्मा, गीतकार काजी नजरुल इस्लाम, आरजू लखनवी, मिर्ज़ा ग़ालिब, जिगर मुरादाबादी, परताऊ लखनवी), कैसे खेलन जावे सावन मां कजरिया (संगीतकार काजी नजरुल इस्लाम-हनुमानप्रसाद शर्मा, गीतकार काजी नजरुल इस्लाम, आरजू लखनवी, मिर्ज़ा ग़ालिब, जिगर मुरादाबादी, परताऊ लखनवी),सारा दिन छत पीटी हाथ हूँ दुखाई रे (संगीतकार काजी नजरुल इस्लाम-हनुमानप्रसाद शर्मा, गीतकार काजी नजरुल इस्लाम), जो उनपे गुजरती है (संगीतकार काजी नजरुल इस्लाम-हनुमानप्रसाद शर्मा, गीतकार काजी नजरुल इस्लाम, आरजू लखनवी, मिर्ज़ा ग़ालिब, जिगर मुरादाबादी, परताऊ लखनवी), हम इश्क के मारों का इतना ही फसाना है (संगीतकार काजी नजरुल इस्लाम-हनुमानप्रसाद शर्मा, गीतकार काजी नजरुल इस्लाम, आरजू लखनवी, मिर्ज़ा ग़ालिब, जिगर मुरादाबादी, परताऊ लखनवी), कोई उम्मीद बर नहीं आती (संगीतकार काजी नजरुल इस्लाम-हनुमानप्रसाद शर्मा, गीतकार मिर्ज़ा ग़ालिब), आओ मेरी बिगड़ी के बनानेवाले (संगीतकार काजी नजरुल इस्लाम-हनुमानप्रसाद शर्मा, गीतकार आरजू लखनवी), दिल संगे मलामत का हर चाँद निशाना है (संगीतकार काजी नजरुल इस्लाम-हनुमानप्रसाद शर्मा, गीतकार काजी नजरुल इस्लाम, आरजू लखनवी, मिर्ज़ा ग़ालिब, जिगर मुरादाबादी, परताऊ लखनवी)' आदि हैं।
सन १९४२ में मात्र ४३ वर्ष की आयु में नजरुल अज्ञात रोग से ग्रस्त होकर बधिर हो गये। कोलकाता तथा कराँची में स्वस्थ्य लाभ न होने पर चिंतित शुभचिंतकों ने 'नजरूल ट्रीटमेंट सोसायटी' गठित की। श्री श्यामा प्रसाद मुखर्जी की संस्तुति पर उन्हें लन्दन भेजा गया। वियना में मस्तिष्क रोग विशेषज्ञों ने उन्हें 'मोरबस पिक्स' नामक घातक-विरल लाइलाज रोग से ग्रस्त पाया। सन १९६२ में उनकी पत्नी प्रमिला के निधन पश्चात् वे एकाकी रोग से जूझते रहे पर हार न मानी।सं १९७२ में नवनिर्मित बांग्ला देश सरकार के आमंत्रण पर भारत सरकार से अनुमति लेकर वे ढाका चले गये और अगस्त १९७६ को परलोकवासी हुए। नजरुल इस्लाम जैसे व्यक्तित्व और उनका कृतित्व कभी मरता नहीं। वे अपनी रचनाओं, अपनी यादों, अपने शिष्यों और अपने कार्यों के रूप में अजर-अमर हो जाते हैं। वर्तमान विद्वेष, विखंडन, अविश्वास, आतंक और अजनबियत के दौर में नजरुल का संघर्ष, नजरुल की राष्ट्रीयता, नजरुल की सफलता और नजरुल का सम्मान नयी पीढ़ी के लिये प्रकाश स्तंभ की तरह है। काजी नजरुल इस्लाम के एक कविता की निम्न पंक्तियाँ उनके राष्ट्रवाद को विश्ववाद के रूप में परिभाषित करते हुए ज़ुल्मो-सितम के खात्मे की कामना करती हैं-
"महाविद्रोही रण क्लांत
आमि शेई दिन होबो क्लांत
जोबे उतपीड़ितेर क्रंदनरोल
आकाशे बातासे ध्वनिबे ना
अत्याचारीर खंग-कृपाण
भीम रणेभूमे रणेबे ना
विद्रोही ओ रणेक्लांत
आमि शेई दिन होबो शांत"
(मैं विद्रोही थक लड़ाई से भले गया
पर शांत तभी हो पाऊँगा जब
आह या चीत्कार दुखी की
आग न नभ में लगा सकेगी।
और बंद तलवारें होंगी
चलना अत्याचारी की जब
तभी शांत मैं हो पाऊँगा
तभी शांत मैं हो जाऊँगा।)
१५.४.२०१६
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खबरदार दोहे
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केर-बेर का सँग ही, करता बंटाढार
हाथ हाथ में ले सभी, डूबेंगे मँझधार
(समाजवादी एक हुए )
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खुल ही जाती है सदा, 'सलिल' ढोल की पोल
मत चरित्र या बात में, अपनी रखना झोल
(नेताजी संबंधी नस्तियाँ खुलेंगी)
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न तो नाम मुमताज़ था, नहीं कब्र है ताज
तेज महालय जब पूजे, तभी मिटेगी लाज
(ताज शिव मंदिर है)
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जयस्तंभ की मंजिलें, सप्तलोक-पर्याय
कहें क़ुतुब मीनार मत, समझ सत्य-अध्याय
(क़ुतुब मीनार जयस्तंभ है)
.
दोहा सलिला:
रश्मिरथी रण को चले, ले ऊषा को साथ
दशरथ-कैकेयी सदृश, ले हाथों में हाथ
.
तिमिर असुर छिप भागता, प्राण बचाए कौन?
उषा रश्मियाँ कर रहीं, पीछा रहकर कौन
.
जगर-मगर जगमग करे, धवल चाँदनी माथ
प्रणय पत्रिका बाँचता, चन्द्र थामकर हाथ
.
तेज महालय समर्पित, शिव-चरणों में भव्य
कब्र हटा करिए नमन, रखकर विग्रह दिव्य
.
धूप-दीप बिन पूजती, नित्य धरा को धूप
दीप-शिखा सम खुद जले, देखेरूप अरूप
१५-४-२०१५
.
छंद सलिला;
शिव स्तवन
*
(तांडव छंद, प्रति चरण बारह मात्रा, आदि-अंत लघु)
।। जय-जय-जय शिव शंकर । भव हरिए अभ्यंकर ।।
।। जगत्पिता श्वासा सम । जगननी आशा मम ।।
।। विघ्नेश्वर हरें कष्ट । कार्तिकेय करें पुष्ट ।।
।। अनथक अनहद निनाद । सुना प्रभो करो शाद।।
।। नंदी भव-बाधा हर। करो अभय डमरूधर।।
।। पल में हर तीन शूल। क्षमा करें देव भूल।।
।। अरि नाशें प्रलयंकर। दूर करें शंका हर।।
।। लख ताण्डव दशकंधर। विनत वदन चकितातुर।।
।। डम-डम-डम डमरूधर। डिम-डिम-डिम सुर नत शिर।।
।। लहर-लहर, घहर-घहर। रेवा बह हरें तिमिर।।
।। नीलकण्ठ सिहर प्रखर। सीकर कण रहे बिखर।।
।। शूल हुए फूल सँवर। नर्तित-हर्षित मणिधर ।।
।। दिग्दिगंत-शशि-दिनकर। यश गायें मुनि-कविवर।।
।। कार्तिक-गणपति सत्वर। मुदित झूम भू-अंबर।।
।। भू लुंठित त्रिपुर असुर। शरण हुआ भू से तर।।
।। ज्यों की त्यों धर चादर। गाऊँ ढाई आखर।।
।। नव ग्रह, दस दिशानाथ। शरणागत जोड़ हाथ।।
।। सफल साधना भवेश। करो- 'सलिल' नत हमेश।।
।। संजीवित मन्वन्तर। वसुधा हो ज्यों सुरपुर।।
।। सके नहीं माया ठग। ममता मन बसे उमग।।
।। लख वसुंधरा सुषमा। चुप गिरिजा मुग्ध उमा।।
।। तुहिना सम विमल नीर। प्रवहे गंधित समीर।।
।। भारत हो अग्रगण्य। भारती जगत वरेण्य ।।
।। जनसेवी तंत्र सकल। जनमत हो शक्ति अटल।।
।। बलिपंथी हो नरेंद्र। सत्पंथी हो सुरेंद्र।।
।। तुहिना सम विमल नीर। प्रवहे गंधित समीर।।
।। भारत हो अग्रगण्य। भारती जगत वरेण्य ।।
।। जनसेवी तंत्र सकल। जनमत हो शक्ति अटल।।
।। सदय रहें महाकाल। उम्मत हों देश-भाल।।
।। तुहिना सम विमल नीर। प्रवहे गंधित समीर।।
।। भारत हो अग्रगण्य। भारती जगत वरेण्य ।।
।। जनसेवी तंत्र सकल। जनमत हो शक्ति अटल।।
***
दोहा सलिला
सत-चित-आनंद पा सके, नर हो अगर नरेन्द्र.
जीवन की जय बोलकर, होता जीव जितेंद्र..
*
अक्षर की आराधना, हो जीवन का ध्येय.
सत-शिव-सुन्दर हो 'सलिल', तब मानव को ज्ञेय..
*
नर से वानर जब मिले, रावण का हो अंत.
'सलिल' न दानव मारते, कभी देव या संत..
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प्यार के दोहे:
तन-मन हैं रथ-सारथी:
*
दो पहलू हैं एक ही, सिक्के के नर-नार।
दोनों में पलता सतत, आदि काल से प्यार।।
*
प्यार कभी मनुहार है, प्यार कभी तकरार।
हो तन से अभिव्यक्त या, मन से हो इज़हार।।
*
बिन तन के मन का नहीं, किंचित भी आधार।
बिन मन के तन को नहीं, कर पाते स्वीकार।।
*
दो अपूर्ण मिल एक हों, तब हो पाते पूर्ण।
अंतर से अंतर मिटे, हों तब ही संपूर्ण।।
*
जब लेते स्वीकार तब, मिट जाता है द्वैत।
करते अंगीकार तो, स्थापित हो अद्वैत।।
१५-४-२०१०
*

बुधवार, 12 मार्च 2025

मार्च १२, रामकिंकर, सॉनेट, सोरठा, नीरा आर्य, लीलावती, शिव, नवगीत, भव छंद, नवगीत, कुण्डलिया, ऊषा

 सलिल सृजन मार्च १२

*
स्मरण युग तुलसी
मुक्तक
युगतुलसी के ग्रंथ पढ़ें नित।
रामभक्ति के सूत्र गुनें नित॥
भवसागर से मुक्ति मिलेगी-
रखें भरोसा स्वप्न बुनें नित॥
*
रामभक्ति मंदाकिनी पावन।
रूप राम जी का मनभावन॥
युगतुलसी का हाथ पकड़ बढ़-
राम नाम जप पाप नसावन॥
*
हनुमत कृपा मिलेगी उसको।
सिया-राम रुचते हैं जिसको॥
अगर न किंकर-धर्म सुहाता-
जन्म-जन्म भव सागर भटको॥
*
किंकर का किंकर बन जा मन।
सिया-राम जी के गुन गा मन॥
हनुमत चरण न छोड़ रख हृदय-
भक्ति-भाव रस में सन जा मन॥
*
रामायणम् सुपावन आश्रम।
राम-नाम गुंजित हो हर दम॥
मूर्ति मनोहर किंकर जी की-
कार दर्शन मिट जाते दुख-गम॥
***
सॉनेट
नटखट
*
नटखट चंचल पवन छेड़ता,
आँचल उड़ा-उड़ा मुस्काता,
भँवरा गुन-गुन गीत सुनाता,
ज़ुल्फ़ों से हँस खेल खेलता।
तिरस्कार रह मौन झेलता,
कली-कली पर जान लुटाता,
रंग देख जग दूर भगाता,
मन बेदाग न कोई देखता।
नटखट भ्रमर न धर्म छोड़ता,
सुंदरता की करता पूजा,
जिसको जो कहना हो कह ले।
नटखट पवन न हृदय तोड़ता,
मंदिर मन समान नहिं दूजा,
प्रेम भाव से इसमें रह ले।
१२.३.२०२४
***
सोरठा सलिला
*
मन के अंदर झाँक, सुन्दरतम है ह्रदय में।
नहीं रूप को ताक, मिट्टी मिट्टी में मिले।।
*
गेह गेह का नाथ, है केवल विश्वास तक।
देह देह के साथ, रहती केवल श्वास तक।।
*
करने रास का पान, भँवरा झूमे कली पर।
कली न छोड़े आन, नहीं शाख को छोड़ती।।
*
नहीं गुलामी नाम, अनुशासन को दीजिए।
आजादी का काम, उच्छंखलता करती नहीं।।
*
चरणबद्ध हो कार्य, हो विकास केवल तभी।
मनमानी स्वीकार्य, उन्नति को होती नहीं।।
*
ग्यारह होते रूद्र, त्रयोदिशी तिथि तेरहीं।
पीकर शोक समुद्र, शिव भज अमृत पाइए।।
*
नेह नर्मदा स्नान, सलिल पान कर मौन हो।
करिए तट पर ध्यान, नाद अनहद भी सुनें।।
१२-३-२०२३
***
अमर शहीद नीरा आर्य
एक थीं श्रीमती नीरा आर्य ( ०५-०३-१९०२ / २६-०७-१९९८) - नेताजी सुभाषचंद्र बोस की रक्षा के लिए इस बहादुर महिला का "स्तन" तक काट दिया गया। नीरा आर्य ने श्रीकांत जोइरोंजोन दास से शादी की, जो ब्रिटिश पुलिस में एक सीआईडी ​​इंस्पेक्टर थे।
नीरा आर्य एक सच्ची राष्ट्रवादी थीं, उनके पति एक सच्चे ब्रिटिश नौकर थे। देशभक्त होने के नाते नीरा सुभाषचंद्र बोस के नेतृत्व वाली भारतीय राष्ट्रीय सेना की झांसी रेजिमेंट में शामिल हुईं। नीरा आर्य के पति इंस्पेक्टर श्रीकांत जोइरोंजोन दास सुभाषचंद्र बोस की जासूसी कर रहे थे और जोइरोंजोन दास ने एक बार सुभाषचंद बोस पर गोलियाँ चला दीं लेकिन सौभाग्य से सुभाष चंद जी बाल-बाल बच गए। सुभाष चंद बोस को बचाने के लिए नीरा आर्य ने अपने पति की चाकू मार कर हत्या कर दी थी।
I.N.A के आत्म समर्पण के बाद लाल किले में फ़ौज के सैनिकों पर एक मुकदमा नवंबर-१९४५ से मई-१९४६ तक चला। नीरा आर्य को छोड़कर सभी कैदियों को रिहा कर दिया गया । वहीं उसे सेलूर जेल, अंडमान ले जाया गया, जहाँ उसे हर दिन प्रताड़ित किया जाता था। एक लोहार लोहे की जंजीरें और बेड़ियाँ हटाने आया। उसने जान बूझकर बेड़ियाँ हटाने के बहाने उनकी त्वचा का थोड़ा सा हिस्सा भी काट दिया और उनके पैरों को हथौड़े से कई बार जानबूझ चोट पहुँचाई। नीरा आर्य ने असहनीय दर्द को असाधारण धैर्य रखकर सहा। जेलर, जो इस पर पीड़ा का आनंद ले रहा था, जेलर ने नीरा को रिहा करने की पेशकश इस शर्त के साथ की कि वह सुभाष चंद बोस के ठिकाने का भेद बता दें। नीरा आर्य ने जवाब दिया कि बोस की मृत्यु एक विमान दुर्घटना में हुई थी और पूरी दुनिया इसके बारे में जानती है।
जेलर ने विश्वास करने से इनकार कर दिया और जवाब दिया, तुम झूठ बोल रही हो, सुभाष चंद बोस अभी भी जीवित हैं। तब नीरा आर्य ने कहा "हाँ, वो ज़िंदा हैं, वो मेरे दिल में रहते हैं ! जेलर ने गुस्से में आकर कहा, "फिर हम सुभाष चंद बोस को तुम्हारे दिल से निकाल देंगे" जेलर ने उनको गलत तरीके से छुआ और कपड़ों को फाड़ दिया। कपड़े अलग किए और लोहार को उनके स्तन काटने का आदेश दिया। लोहार ने तुरंत ब्रेस्ट रिपर लिया और उसके दाहिने शरीर को कुचलने लगा। बर्बरता यहीं नहीं रुकी, जेलर ने उनकी गर्दन पकड़ ली और कहा कि मैं आपके दोनों 'हिस्सों" को उनके स्थान से अलग कर दूँगा।
उन्होंने आगे बर्बर मुस्कान के साथ कहा गनीमत है "ये ब्रेस्ट रिपर गर्म नहीं हुआ है वरना आपके ब्रेस्ट पहले ही कट चुके होते"। नीरा आर्य ने अपने जीवन के अंतिम दिन फूल बेचने में बिताए और वह फलकनुमा, भाग्य नगरम में एक छोटी सी झोपड़ी में रहती थीं। सरकार ने उनकी झोपड़ी को सरकारी जमीन पर बनाने का आरोप लगाते हुए गिरा दिया।
नीरा आर्य की मृत्यु २६-०७- १९९८ को एक बेसहारा, लावारिस, अनजानी के रूप में हुई, जिसके लिए पूरी पृथ्वी पर कोई रोने वाला तक नहीं था।
***
लीलावती
गणितज्ञ लीलावती का नाम हममें से अधिकांश लोगों ने नहीं सुना है। उनके बारे में कहा जाता है कि वो पेड़ के पत्ते तक गिन लेती थी। आज यूरोप सहित विश्व के सैंकड़ो देश जिस गणित की पुस्तक से गणित को पढ़ा रहे हैं, उसकी रचयिता भारत की एक महान गणितज्ञ महर्षि भास्कराचार्य की पुत्री “लीलावती” है।
दसवीं सदी की बात है, दक्षिण भारत में भास्कराचार्य नामक गणित और ज्योतिष विद्या के एक बहुत बड़े पंडित थे। उनकी कन्या का नाम लीलावती था। वही उनकी एकमात्र संतान थी। उन्होंने ज्योतिष की गणना से जान लिया कि वह विवाह के थोड़े दिनों के ही बाद विधवा हो जाएगी। उन्होंने बहुत कुछ सोचने के बाद ऐसा लग्न खोज निकाला, जिसमें विवाह होने पर कन्या विधवा न हो। विवाह की तिथि निश्चित हो गई। जलघड़ी से ही समय देखने का काम लिया जाता था।
एक बड़े कटोरे में छोटा-सा छेद कर पानी के घड़े में छोड़ दिया जाता था। सूराख के पानी से जब कटोरा भर जाता और पानी में डूब जाता था, तब एक घड़ी होती थी। कहते हैं अपने मन कुछ और है, कर्ता के कुछ और, होनी होकर ही रहती है। लीलावती सोलह श्रृंगार किए सजकर बैठी थी, सब लोग उस शुभ लग्न की प्रतीक्षा कर रहे थे कि एक मोती लीलावती के आभूषण से टूटकर कटोरे में गिर पड़ा और सूराख बंद हो गया; शुभ लग्न बीत गया और किसी को पता तक न चला।
विवाह दूसरे लग्न पर ही करना पड़ा। लीलावती विधवा हो गई, पिता और पुत्री के धैर्य का बांध टूट गया। लीलावती अपने पिता के घर में ही रहने लगी। पुत्री का वैधव्य-दु:ख दूर करने के लिए भास्कराचार्य ने उसे गणित पढ़ाना आरंभ किया। उसने भी गणित के अध्ययन में ही शेष जीवन की उपयोगिता समझी। थोड़े ही दिनों में वह उक्त विषय में पूर्ण पंडिता हो गई। पाटी-गणित, बीजगणित और ज्योतिष विषय का एक ग्रंथ ‘सिद्धांतशिरोमणि’ भास्कराचार्य ने बनाया है। इसमें गणित का अधिकांश भाग लीलावती की रचना है।
पाटीगणित के अंश का नाम ही भास्कराचार्य ने अपनी कन्या को अमर कर देने के लिए ‘लीलावती’ रखा है। भास्कराचार्य ने अपनी बेटी लीलावती को गणित सिखाने के लिए गणित के ऐसे सूत्र निकाले थे जो काव्य में होते थे। वे सूत्र कंठस्थ करना होते थे। उसके बाद उन सूत्रों का उपयोग करके गणित के प्रश्न हल करवाए जाते थे। कंठस्थ करने के पहले भास्कराचार्य लीलावती को सरल भाषा में, धीरे-धीरे समझा देते थे। वे बच्ची को प्यार से संबोधित करते चलते थे, “हिरन जैसे नयनों वाली प्यारी बिटिया लीलावती, ये जो सूत्र हैं…।” बेटी को पढ़ाने की इसी शैली का उपयोग करके भास्कराचार्य ने गणित का एक महान ग्रंथ लिखा, उस ग्रंथ का नाम ही उन्होंने “लीलावती” रख दिया।
आजकल गणित एक शुष्क विषय माना जाता है पर भास्कराचार्य का ग्रंथ ‘लीलावती‘ गणित को भी आनंद के साथ मनोरंजन, जिज्ञासा आदि का सम्मिश्रण करते हुए कैसे पढ़ाया जा सकता है। लीलावती का एक उदाहरण देखें- ‘निर्मल कमलों के एक समूह के तृतीयांश, पंचमांश तथा षष्ठमांश से क्रमश: शिव, विष्णु और सूर्य की पूजा की, चतुर्थांश से पार्वती की और शेष छ: कमलों से गुरु चरणों की पूजा की गई।
अये, बाले लीलावती, शीघ्र बता कि उस कमल समूह में कुल कितने फूल थे..?‘
उत्तर-कमल के १२० फूल।
वर्ग और घन को समझाते हुए भास्कराचार्य कहते हैं ‘अये बाले,लीलावती, वर्गाकार क्षेत्र और उसका क्षेत्रफल वर्ग कहलाता है। दो समान संख्याओं का गुणन भी वर्ग कहलाता है। इसी प्रकार तीन समान संख्याओं का गुणनफल घन है और बारह कोष्ठों और समान भुजाओं वाला ठोस भी घन है।‘
‘मूल” शब्द संस्कृत में पेड़ या पौधे की जड़ के अर्थ में या व्यापक रूप में किसी वस्तु के कारण, उद्गम अर्थ में प्रयुक्त होता है। इसलिए प्राचीन गणित में वर्ग मूल का अर्थ था ‘वर्ग का कारण या उद्गम अर्थात् वर्ग एक भुजा‘।
इसी प्रकार घनमूल का अर्थ भी समझा जा सकता है। वर्ग तथा घनमूल निकालने की अनेक विधियां प्रचलित थीं।
लीलावती के प्रश्नों का जबाब देने के क्रम में ही “सिद्धान्त शिरोमणि” नामक एक विशाल ग्रन्थ लिखा गया, जिसके चार भाग हैं- (१) लीलावती (२) बीजगणित (३) ग्रह गणिताध्याय और (४) गोलाध्याय।
‘लीलावती’ में बड़े ही सरल और काव्यात्मक तरीके से गणित और खगोल शास्त्र के सूत्रों को समझाया गया है।
बादशाह अकबर के दरबार के विद्वान फैजी ने सन् १५६७ में “लीलावती” का फारसी भाषा में अनुवाद किया। अंग्रेजी में “लीलावती” का पहला अनुवाद जे. वेलर ने सन् १७१६ में किया। कुछ समय पहले तक भी भारत में कई शिक्षक गणित को दोहों में पढ़ाते थे। जैसे कि पन्द्रह का पहाड़ा…तिया पैंतालीस, चौके साठ, छक्के नब्बे… अट्ठ बीसा, नौ पैंतीसा…।
इसी तरह कैलेंडर याद करवाने का तरीका भी पद्यमय सूत्र में था-
सित अप जू नव तीस के, बाकी के इकतीस।
अट्ठाइस की फरवरी चौथे सन उनतीस।।
गणित अपने पिता से सीखने के बाद लीलावती भी एक महान गणितज्ञ एवं खगोल शास्त्री के रूप में जानी गयी। मनुष्य के मरने पर उसकी कीर्ति ही रह जाती है। आज गणितज्ञो को गणित के प्रचार और प्रसार के क्षेत्र में "लीलावती पुरूस्कार" से सम्मानित किया जाता है।
***
शिव पूजन
शिवलिंग पर बेलपत्र, धतूरा, चंदन और अक्षत चढ़ाने से शंकर भगवान जल्दी प्रसन्न होते हैं।शिव पुराण के अनुसार किस द्रव्य से अभिषेक करने से क्या फल मिलता है? जानिए-
जल से रुद्राभिषेक करने पर वृष्टि होती है।
- कुशा जल से अभिषेक करने पर रोग व दु:ख से छुटकारा मिलता है।
- दही से अभिषेक करने पर पशु, भवन तथा वाहन की प्राप्ति होती है।
- गन्ने के रस से अभिषेक करने पर लक्ष्मी की प्राप्ति होती है।
- मधुयुक्त जल से अभिषेक करने पर धनवृद्धि होती है।
- तीर्थ जल से अभिषेक करने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है।
- इत्र मिले जल से अभिषेक करने से रोग नष्ट होते हैं।
- दूध से अभिषेक करने से पुत्र प्राप्ति होगी। प्रमेह रोग की शांति तथा मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं।
- गंगा जल से अभिषेक करने से ज्वर ठीक हो जाता है।
- दूध-शर्करा मिश्रित अभिषेक करने से सद्बुद्धि की प्राप्ति होती है।
- घी से अभिषेक करने से वंश विस्तार होता है।
१२-३-२०२२
***
मुक्तक
सूरज चमक रहा माथे पर, बिखरी धूप कपोलों पर
नव विचार कर रहे सवारी, बहते पवन-झकोरों पर
शांत सलिल में बिंबित रवि-छवि, लहर-लहर सिंदूरी कर
कांति नई पाकर कांता से, हो कविता दृग-कोरों पर
*
क्षणिका
*
जानेमन
अब तक रही
क्यों दुश्मने-जां हो गई?
चैन उसके बिन न था
बेचैनियाँ क्यों बो रही?
आस मेरी
प्यास मेरी
श्वास की दुश्मन बनी
हास को छोड़ा नहीं
संत्रास फिर-फिर बो गई।
*
अठ सलल सवैया
११२-११२-११२-११२-११२-११२-११२-११२-११
*
जय हिंद कहें, सब संग रहें, हँस हाथ गहें, मिल जीत वरें हम
अरि जूझ थकें, हथियार धरें, अरमान यही, कबहूँ न डरें हम
मत-भेद भले, मन-भेद नहीं, हम एक रहे, सच नेक रहें हम
अरि मार सकें, रण जीत तरें, हँस स्वर्ग वरें, मर के न मरें हम
१२-३-२०१९
***
नवगीत:
सरहद
*
तुम
स्वीकार सकीं मुझको
जब, सरहद पार
गया मैं लेने।
*
उठा हुआ सर
हद के पार
चला आया तब
अनजाने का
हाथ थाम कर।
मैं बहुतों के
साथ गया था
तुम आईं थीं
निपट अकेली।
किन्तु अकेली
कभी नहीं थीं,
सँग आईं
बचपन-यौवन की
यादें अनगिन।
तुम
स्वीकार सकीं मुझको
जब, पहुँच गया
मैं खुद को देने।
*
था दहेज भी
मैके की
शुभ परम्पराओं
शिक्षा, सद्गुण,
संस्कार का।
ले पतवारें
अपनेपन की
नाव हमें थी
मिलकर खेनी।
मतभेदों की
खाई, अंतरों के
पर्वत लँघ
मधुर मिलन के
सपने बुन-बुन।
तुम
स्वीकार सकीं मुझको
जब, संग हुए हम
अंतर खोने।
*
खुद को खोकर
खुद को पाकर
कही कहानी
मन से मन ने,
नित मन ही मन।
खन-खन कंगन
रुनझुन पायल
केश मोगरा
लटें चमेली।
शंख-प्रार्थना
दीप्ति-आरती
सांध्य-वंदना ,
भुवन भारती
हँसी कीर्ति बन।
तुम
स्वीकार सकीं मुझको
जब, मिली राजश्री
सार्थक होने।
*
भवसागर की
बाधाओं को
मिल-जुलकर
था हमने झेला
धैर्य धारकर।
सावन-फागुन
खुशियाँ लाये
सोहर गूँजे
बजी ढोलकी।
किलकारी
पट्टी पूजन कर,
धरा नापने
नभ को छूने
बढ़ी कदम बन।
तुम
स्वीकार सकीं मुझको
जब, अँगना खेले
मूर्त खिलौने।
*
देख आँख पर
चश्मे की
मोहिनी हँसे हम,
धवल केश की
आभा देखें।
नव पीढ़ी
दौड़े, हम थकते
शांति अंजुला
हुई सहेली।
अन्नपूर्णा
कम साधन से
अधिक लक्ष्य पा
अर्थशास्त्र को
करतीं सार्थक।
तुम
स्वीकार सकीं मुझको
जब, सपने देखे
संग सलोने।
१२-३-२०१६
***
छंद सलिला:
भव छंद
*
लक्षण: जाति रौद्र, पद २, चरण ४, प्रति चरण मात्रा ११, चरणान्त लघु गुरु गुरु या गुरु
लक्षण छंद:
एकादश पग रखो, भवसिंधु पार करो
चरण आदि मन चाहा, चरण अंत गुरु से हो
उदाहरण:
१. आशा का बीज बो, कोशिश से फसल लो
श्रम सीकर नर्मदा, भव तारें वर्मदा
२. सूर्य चन्द्र सितारा, सकल जगत निखारा
भव को जब निहारा, खुद को भी बिसारा
रूप-रंग सँवारा, असुंदर न गवारा
सच जिसने बिसारा, रण न लड़ रण हारा
३. समय शिला पर लिखो, सबसे आगे दिखो
शब्द नये उकेरो, नव उजास बिखेरो
४. नित्य हरि गुण गाओ, मन में शांति पाओ
छन्दों में मन रमा, कष्टों को दो भुला
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, ककुभ, कीर्ति, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दोधक, नित, निधि, प्रदोष, प्रेमा, बाला, भव, मधुभार, मनहरण घनाक्षरी, माया, माला, ऋद्धि, रामा, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शिव, शुभगति, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हंसी)
१२-३-२०१४
***
नव गीत:
ऊषा को लिए बाँह में
*
ऊषा को लिए बाँह में,
संध्या को चाह में.
सूरज सुलग रहा है-
रजनी के दाह में...
*
पानी के बुलबुलों सी
आशाएँ पल रहीं.
इच्छाएँ हौसलों को
दिन-रात छल रहीं.
पग थक रहे, मंजिल
कहीं पाई न राह में.
सूरज सुलग रहा है-
रजनी के दाह में...
*
तृष्णाएँ खुद ही अपने
हैं हाथ मल रहीं.
छायाएँ तज आधार को
चुपचाप ढल रहीं.
मोती को रहे खोजते
पाया न थाह में.
सूरज सुलग रहा है-
रजनी के दाह में...
*
शिशु शशि शशीश शीश पर
शशिमुखी विलोकती.
रति-मति रतीश-नाश को
किस तरह रोकती?
महाकाल ही रक्षा करें
लेकर पनाह में.
सूरज सुलग रहा है-
रजनी के दाह में...
***
कुण्डलिया
*
हिंदी की जय बोलिए, हो हिंदीमय आप.
हिंदी में नित कार्य कर, सकें विश्व में व्याप..
सकें विश्व में व्याप, नाप लें सकल ज्ञान का.
नहीं व्यक्ति का, बिंदु 'सलिल' राष्ट्रीय आन का..
नेह-नरमदा नहा बोलिए होकर निर्भय.
दिग्दिगंत में गूँज उठे, फिर हिंदी की जय..
१२-३-२०१०
***

मंगलवार, 23 जुलाई 2024

जुलाई २३, उषा, सॉनेट, अहीर छन्द, दोहे, मुक्तक, पेंसिल, आलोक, पोयम, चंचरीक

सलिल सृजन जुलाई २३
*
सॉनेट
अवसर
अवसर परख तुम्हारी होगी
मूक सहमति या विवेक हो?
तंत्र बने किस तरह निरोगी?
संकल्पित या सिर्फ नेक हो?
भाग्यविधाता भाग्य सँवारे
जनआकांक्षा हाथ पसारे
जनाक्रोश सच, मत बिसरा रे
राहत दे मत मौन निहारे
द्वापर में कर सकी समन्वय
अग्नि परीक्षा बार-बार दी
नहीं जानती थी द्रौपदी भय
क्या अब भी चिंगारी बाकी
सख्त बहुत है समय परीक्षक
क्या बन पाओगी तुम रक्षक?
२२-७-२०२२
•••
सॉनेट : आलोक
*
लोक को आलोक दो प्रभु!
तिमिर में निर्भय रहें हम
खुशी ज्यादा, न्यून हो गम
आपदाएँ रोक दो विभु!
परा-अपरा हम न भूलें
मोह पाए नहीं माया
किसी को दे सकें छाया
स्वार्थ झूले में न झूलें
स्वेद सलिला में नहाएँ
छंद-रस आनंद पाएँ
किसी के तो काम आएँ
झूमकर नव गान गाएँ
रोक पाएँ अनय को प्रभु!
लोक को आलोक दो प्रभु!
२२-७-२०२२ •••
***
बालगीत : पेंसिल
पेन्सिल बच्चों को भाती है.
काम कई उनके आती है.
अक्षर-मोती से लिखवाती.
नित्य ज्ञान की बात बताती.
रंग-बिरंगी, पतली-मोटी.
लम्बी-ठिगनी, ऊँची-छोटी.
लिखती कविता, गणित करे.
हँस भाषा-भूगोल पढ़े.
चित्र बनाती बेहद सुंदर.
पाती है शाबासी अक्सर.
बहिना इसकी नर्म रबर.
मिटा-सुधारे गलती हर.
घिसती जाती,कटती जाती.
फ़िर भी आँसू नहीं बहाती.
'सलिल' जलाती दीप ज्ञान का.
जीवन सार्थक नाम-मान का.
***
बाल साहित्य में छंद
सुषमा निगम, अन्नपूर्णा बाजपेई
*
बच्चों में अनुकरणशीतला, जिज्ञासा और कल्पनाशीलता बहुत अधिक होती है। अनुकरण से उनके चरित्र का विकास, जिज्ञासा से ज्ञान-वृद्धि होती है। कल्पनाशीलता से वे जीवन व जगत के विषय में अपेक्षित ज्ञान प्राप्त करने की ओर स्वयमेव उन्मुख होते हैं। अत:, आवश्यक है कि बच्चों के चारित्रिक विकास और ज्ञानवर्धन हेतु शैशव, बचपन और कैशोर्य तीनों अवस्थाओं के अनुरूप बाल साहित्य लिखाजाए। आज के बच्चे ही कल परिवार, समाज एवं देश के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का निर्वहन कर योग्य नागरिक बनेंगे किंतु तभी जब उनके सामने आदर्श हों, उनकी जिज्ञासाओं का सम्यक समाधान हो और उनके कल्पना जगत को यथार्थ की भूमि पर पैर जमाकर प्रयासों के हाथों से उपलब्धियों के आकाश को छूने का अवसर मिले। बच्चों को सद्विचार से आचार की प्रेरणा देने का कार्य बाल साहित्यकार ही कर सकते हैं। बालमन को ध्यान में रखकर कविता, कहानी, नाटक, लेख, जीवनी, संस्मरण, पहेली, चुटकुले आदि रचे जाना आवश्यक है। गद्य की तुलना में पद्य अधिक सरस तथा आसानी से याद रखने योग्य होता है। पद्य के लिए छंद आवश्यक है।
बाल साहित्यकारों द्वारा सरल भाषा में शिशु गीत, बाल गीत, कविता आदि की रचना इस प्रकार हो कि बाल पाठकों का शब्द ज्ञान व शब्द भंडार बढ़े और वे नए नए शब्दों का उपयोग करें। बाल साहित्य सृजन के लिये काल्पनिकता और यथार्थता का समन्वय अपेक्षित है। बाल साहित्यकारों, अभिभावकों, शिक्षकों और प्रकाशकों के समवेत प्रयास से ही बाल साहित्य को उचित प्रतिष्ठा मिल सकेगी। विभिन्न भारतीय भाषाओं में रचित बाल साहित्य के पारस्परिक आदान-प्रदान से बाल साहित्य के विकास व राष्ट्रीय समन्वय भाव को नई दिशा मिल सकती है। अच्छे बालसाहित्य का अध्ययन बच्चों को साहित्य में वर्णित समाज, पर्यावरण, अतीत और भविष्य से संवाद करने के अवसर प्रदान करता है। इससे बच्चों के भाषिक और संज्ञानात्मक कौशल तथा भावनात्मक बुद्धिमत्ता का विकास होता है।
शिशु गीत:
बाल साहित्य लेखन में सर्वाधिक कठिनाई शिशु गीत लेखन में होती है क्योंकि शिशु का शब्द ज्ञान अत्यल्प होता है। शिशु लंबी रचनाएँ याद नहीं कर पाता। सार्थक और उपयोगी शिशु गीत बहुत कम लिखे गए हैं। शिशु गीत का कथ्य बच्चे को परिवेश से जोड़नेवाला होना आवश्यक है। आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने इस दिशा में सार्थक प्रयास किया है। उनके शिशु गीतों में छंद और कथ्य दोनों का प्रभावी प्रस्तुतीकरण हुआ है। भारत धर्म प्रधान देश है। बुद्धि के देवता गणेश, विद्या की देवी सरस्वती, पंच मातृका (धरती माता, भारत माता, हिंदी माता, गौ माता तथा माँ) पर शिशु गीतों का भाषिक प्रवाह और सरसता शिशुओं के लिए उपयुक्त है:
श्री गणेश की बोलो जय, / पाठ पढ़ो होकर निर्भय। / अगर सफलता पाना है- / काम करो होकर तन्मय।। (१४ मात्रिक, मानव जातीय, हाकलि छंद)
माँ सरस्वती देतीं ज्ञान, / ललित कलाओं की हैं खान। / जो जमकर करता अभ्यास - / वही सफल हो, पा वरदान।। (१५ मात्रिक, तैथिक जातीय, पुनीत छंद)
धरती सबकी माता है, / सबका इससे नाता है। / जगकर सुबह प्रणाम करो- / फिर उठ बाकी काम करो।। (१४ मात्रिक, मानव जातीय, हाकलि छंद)
सजा शीश पर मुकुट हिमालय, / नदियाँ जिसकी करधन। / सागर चरण पखारे निश-दिन- / भारत माता पावन। (२८ मात्रिक, यौगिक जातीय, सार छंद १६-१२ पर यति, पदांत कर्णा, अंत के गुरु को दो लघु किया गया है)
हिंदी भाषा माता है, / इससे सबका नाता है। / सरल, सहज मन भाती है- / जो पढ़ता मुस्काता है।। (१४ मात्रिक, मानव जातीय, हाकलि छंद)
देती दूध हमें गौ माता, / घास-फूस खाती है। / बछड़े बैल बनें हल खीचें / खेती हो पाती है। (२८ मात्रिक, यौगिक जातीय, सार छंद १६-१२ पर यति, पदांत कर्णा)
माँ ममता की मूरत है, / देवी जैसी सूरत है। / लोरी रोज सुनाती है, /सबसे ज्यादा भाती है।। (१४ मात्रिक, मानव जातीय, हाकलि छंद)
अंग्रेजी भाषा की शिक्षा के साथ पश्चिमी कुसंस्कार भी घर-घर में घर कर रहे हैं। इन शिशु गीतों में बच्चों को भारतीय संस्कृति और परिवेश से जोड़ने की सजगता सहज दृष्टव्य है। महानगरों में 'अंकल-आंटी' के अलावा अन्य नाते बच्चे नहीं जानते। इस समस्या को सुलझाने के लिए सलिल जी ने नातों को ही शिशु गीतों का विषय बना कर अभिनव और उपयोगी पहल की है। इन शिशु गीतों में प्राय: मानव जातीय, हाकली छंद का प्रयोग हुआ है।
पापा चलना सिखलाते, / सारी दुनिया दिखलाते। / रोज बिठाकर कंधे पर- / सैर कराते मुस्काते।।
मेरा भैया प्यारा है, / सारे जग से न्यारा है। / बहुत प्यार करता मुझको- / आँखों का वह तारा है।।
बहिन गुणों की खान है, / वह प्रभु का वरदान है। / अनगिन खुशियाँ देती है- / वह हम सबकी जान है।।
पापा सूरज, माँ चंदा, / ध्यान सभी का धरते हैं। / मैं तारा, चाँदनी बहिन- / घर में जगमग करते हैं।।
बब्बा ले जाते बाज़ार, / दिलवाते टॉफी दो-चार। / पैसे नगद दिया करते- / कुछ भी लेते नहीं उधार।।
राम नाम जपतीं दादी, / रहती हैं बिलकुल सादी। / दूध पिलाती-पीती हैं- / खूब सुहाती है खादी।।
मम्मी के पापा नाना, / खूब लुटाते हम पर प्यार। / जब भी वे घर आते हैं- / हम भी करते बहुत दुलार।।
कहतीं रोज कहानी हैं, / माँ की माँ ही नानी हैं। / हर मुश्किल हल कर लेतीं- / सचमुच बहुत सयानी हैं।।
चाचा पापा के भाई, / हमको लगते हैं अच्छे। / रहें बड़ों सँग, लगें बड़े- /बच्चों में लगते बच्चे।।
प्यारी लगतीं मुझे बुआ, / मुझे न कुछ हो- करें दुआ। / प्यारी बहिना पापा की- / पाला घर में हरा सुआ।।
मामा मुझको मन भाते, / माँ से राखी बँधवाते। / सब बच्चों को बैठाकर / गप्प मारते-बतियाते।।
मौसी माँ सी ही लगती, / मुझको गोद उठा हँसती। / ढोलक खूब बजाती है, / केसर-खीर खिलाती है।
बाल-काव्य पर विचार करने के लिए यह जरूरी है कि हमारे मन में बच्चों व बचपन के बारे में एक स्पष्ट समझ हो जिसमें बच्चे को एक जागरूक व जिज्ञासु इंसान के रूप देखना, बाल विकास से जुड़े मुद्दों को समझना व समाज को समझना आदि बातें शामिल हो। बाल काव्य में यथार्थ की अभिव्यक्ति मज़े-मज़े में, खेल-खेल में होना आवश्यक है। बच्चे जानकारी से नहीं, नई कल्पना से आनंदित होते हैं। १६-११ २७ मात्रिक नाक्षत्रिक जातीय सरसी छंद में रचे निम्न शिशु गीत में कल्पना की उड़ान देखें:
सुनो मजे की बातें भैया / सुनो मजे की बात
हाथी दादा दबा रहे हैं / चींटी जी के पाँव
चूहे जी के डर से भागी / बिल्ली अपने गाँव
रौब जमाता फिरता सब पर / नन्हा सा खरगोश
चीता सहमा हुआ खड़ा है / भूला अपने होश
एक सात-आठ साल का बच्चा भी यह जानता है कि धरती गोल है और यह सूरज के चारों ओर चक्कर लगाती है। वह इस जानकारी से खुश नहीं होता। उसे तो कहानी में कोई ऐसा पात्र चाहिए जो धरती पर पाँव रखकर उसे चपटा बना दे या धरती को उल्टी दिशा में घुमा दे। ऐसी स्थिति में धरती पर क्या होगा?, इस कल्पना से वह रोमांचित होता है। यह फैंटेसी कल्पनात्मक और कलात्मक आनंद की सृष्टि करती है, जो बालसाहित्य की आत्मा है। यथार्थ बताते हुए असंभव कल्पनाओं को चित्रित करना और फैंटेसी रचना ही बाल साहित्य है।
बाल-काव्य में बच्चों या बचपन की छवि को उभारा जाना जरूरी है। ऐसी रचनाओं में बच्चे और पशु-पक्षी हों किंतु बड़ों की सोच न हो क्योंकि बच्चे उसका पूर्वानुमान लगा लें तो उत्सुकता नहीं जग पाती, 'आगे क्या होने वाला है' का कौतूहल समाप्त हो जाता है।
पाखी ने बिल्ली पाली. / सौंपी घर की रखवाली../ फिर पाखी बाज़ार गई. / लाई किताबें नई-नई / तनिक देर जागी बिल्ली. / हुई तबीयत फिर ढिल्ली../ लगी ऊंघने फिर सोई. / सुख सपनों में थी खोई. / मिट्ठू ने अवसर पाया./ गेंद उठाकर ले आया../ गेंद नचाना मन भाया. / निज करतब पर इठलाया../ घर में चूहा आया एक./ नहीं इरादे उसके नेक../ चुरा मिठाई खाऊँगा./ ऊधम खूब मचाऊँगा../ आहट सुन बिल्ली जागी./ चूहे के पीछे भागी../ झट चूहे को जा पकड़ा./ भागा चूहा दे झटका../ बिल्ली खीझी, खिसियाई./ मन ही मन में पछताई..
बाल गीत और पात्र:
मुझे याद आता है एक बार मैंने जैसे ही बाल-कथा सुनाते समय पात्रों का परिचय दिया- एक थी गिलहरी ...बच्चे बोल पड़े 'बड़ी नटखट और चुलबुली थी।' सचमुच कहानी में ऐसा ही था मगर कहानी में मजा बनाए रखने के लिए मुझे गिलहरी के पात्र को फिर से गढ़ना पड़ा। अतः, बाल-शिक्षण की दृष्टि से रचनाओं का चयन करते समय देखना चाहिए कि क्या इन रचनाओं में पात्रों की प्रचलित छवियों (लोमड़ी चालाक ही होगी, खरगोश चतुर ही होगा, शेर बहादुर ही होगा, बच्चे बड़ो के निर्देश पर ही काम करेंगे, सौतेली माँ दुष्ट ही होगी आदि) को तोड़ते हुए किसी स्वतन्त्र छवि को गढ़ा जा रहा है? ख्यात बाल साहित्यकार डॉ. शेषपाल सिंह 'शेष' ने एक कथा-गीत में बिल्ली की चूहे पकड़ने की परम्पराबद्ध छवि से मुक्त कर नव युग के अनुरूप नयी छवि दी है: 'सोचो-बदलो बिल्ली मौसी / हमें बदलने दो / चलते हुए समय को अपनी / गति से चलने दो / मेल-जोल से बुरी बात को / दूर हटाना है / टी. वी., टेलीफोन, मेल-ई, / इंटरनेट हुए / एरोप्लेन, टैंकर, अणुबम , युद्धक-जेट हुए / बढ़ें वेब-कंप्यूटर युग में / देश उठाना है.' २६ मात्रिक, महाभागवत जातीय, विष्णुपद छंद ने इस कथा-गीत में चार चाँद लगा दिए हैं।
बाल साहित्य और चित्रांकन:
बच्चों की किताबों में चित्रांकन एक आवश्यक पहलू है। चित्र गीत या कहानी का अटूट हिस्सा होते हैं। बच्चे चित्रों के आधार पर ही पढ़ने की शुरुआत कर लिखे गए का अर्थ ग्रहण करते हैं। अतः, छोटे बच्चों की किताबों में चित्र स्पष्ट, बड़े और बोलते हुए होने चाहिए। चित्रों के साथ उनके बारे में कुछ काव्य-पंक्तियाँ या वाक्य लिखे हों तो प्रभाव और भी बढ़ जाता है। छोटे बच्चों की किताबों में अक्षरों का आकार बड़ा हो ताकि उन्हें आसानी से पढ़ा जा सके। चित्रों के बारे में हमें यह भी समझना होगा कि चित्र इस तरह के हों जो पाठ की हू-ब-हू नकल जैसे न हों वरन लिखी गई बात को और आगे बढ़ाएँ जिससे बच्चों को सोचने व कल्पना करने का मौका मिले। इसके साथ ही स्थिर व रूढि़वादी चित्रों की बजाय चित्रों में गतिशीलता हो जो वास्तविकता में कुछ घट रहा हो ऐसा महसूस करा सकें। वरिष्ठ साहित्यकार श्री सदाशिव कौतुक ने चहक-महक में 'हम पौधे हैं' गीत के साथ पौधे लगाते हुए बच्चों का चित्र दिया है जो गीत का प्रभाव बढ़ाता है- 'हम दुनिया के पौधे हैं / दुनिया हमसे है आबाद / हम महकेंगे; हम चहकेंगे / शुद्ध मिलेगा पानी-खाद।'
राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत श्रेष्ठ शिक्षक तथा प्राचार्य रहे डॉ. रमेशचंद्र खरे ने शब्दों को ही चित्रांकन का माध्यम बनाया है। शब्द चित्र उपस्थित करने के लिए कवि की सामर्थ्य असाधारण होना चाहिए- 'पौ फूटी, भोर हो गया / जागे सब, शोर हो गया। / चिड़ियों की चूं-चूं-चूं / कौओं की काँव-काँव / मुर्गों की बांग-बिगुल / बजता है गाँव-गाँव / अब तो मन मोर हो गया' इस रचना में पूरा परिवेश जीवन हो उठा है। (मुखड़ा १४ मात्रिक मानव जातीय हाकलि छन्द, अंतरा २४ मात्रिक अवतारी जातीय छंद, यति १२-१२)
बालसाहित्य और चेतना-जागृति:
ख्यात शिक्षक और प्राचार्य रहे कृष्णवल्लभ पौराणिक बच्चों को बहुराष्ट्रीय उत्पादों के प्रति विमुख करने के लिए गीत को माध्यम बनाते हैं: 'बोलो बच्चों! तुम्हें चाहिए? / जेम्स गोलियां? केडबरीज? / चुईन्गम गोली?, फिफ्टी-फिफ्टी? / चोकलेट फाइवस्टार?, पार्ले बिस्किट? / और कहो जो तुम्हें चाहिए / नहीं, हमें ये नहीं चाहिए / हमें दीजिए खीर दूध की / सब्जी-रोटी डाल व चांवल / अचार, भुट्टा, गुलाब जामुन / और जलेबी, मथुरा पेड़े ' (सोलह मात्रिक संस्कारी जातीय छंद)
डॉ. बलजीत सिंह पुस्तक संस्कृति के प्रति बच्चों के लगाव को १६ मात्रिक संकरी जातीय छंद में रचित गीत के माध्यम से बढ़ा रहे हैं- पुस्तक है अनमोल खज़ाना / बता रहे थे मेरे नाना / पढ़-पढ़कर वे मुझे सुनाते / बात-बात में ज्ञान बढ़ाते / और न इन सा साथी-संगी / इनकी दुनिया रंग-बिरंगी। / कभी हँसा दें, कभी रुला दें / मीठी-मीठी नींद सुला दें' (१६ मात्रिक संस्कारी जातीय छंद)
डॉ. दिनेश चमोला 'शैलेश' बालगीत के माध्यम से राष्ट्रीय भावधारा का बीजारोपण करते हैं: 'जहाँ हिमालय प्रहरी बनकर, करता सबका मान है / जिसकी रज तक प्यार बाँटती, मेरा हिन्दुस्तान है / हर युग में गौतम-गाँधी बन / लेते सुत अवतार हैं / जहाँ ह्रदय से होती माँ की / एक कंठ जयकार है। / जहाँ देश के लिए लाड़ले, हँसकर देते जान हैं / शांति-ज्ञान का अमर कोष वह मेरा हिन्दुस्तान है' (मुखड़ा-अंतरा २९ मात्रीय महायौगिक जातीय छंद, १६-१३ पर यति)।
बाल चिकित्सा विशेषज्ञ डॉ. प्रदीप शुक्ल ने बाल गीतों के स्वास्थ्य-चेतना जगाने का उपकरण बनाया है। एक अमीबा शीर्षक गीत में वे क्रिकेट की गेंद नाली में गिरने, उसे निकालते समय नाखूनों में अमीबा लगने और खाने के साथ पेट में जाने और गड़बड़ मचाने की घटना के माध्यम से स्वच्छता का संदेश देते हैं: 'एक अमीबा बड़े मजे से नाले में था रहता / अरे! वही गंदा नाला जो सड़क पार था बहता / कहने को तो एक अमीबा ढेरों उसके बच्चे / नाली में उनकी कोलोनी रहते गुच्छे-गुच्छे / क्रिकेट खेलते हुए गेंद नाली में गिरी छपाक / आव न देखा, ताव न देखा पप्पू गया तपाक / साथ गेंद के कई अमीबा पप्पू लेकर आया / बड़े-बड़े नाखून, भूल से उनको वहीं छुपाया / हाथ नहीं धोया अच्छे से पप्पू ने घर जाकर / खुश थे बहुत अमीबा सारे उसके पेट में आकर / रात हुई पप्पू चिल्लाया हुई पेट में गुड़गुड़ / सारे बच्चे समझ रहे हैं कहाँ-कहाँ थी गड़बड़ / तो बच्चों गलती ना करना पप्पू जैसी तुम भी / वरना प्यारे बच्चों तुम फिर सजा पाओगे लंबी।' ( २८ मात्रिक यौगिक जातीय छंद, १६-१२ पर यति)
बाल-रचनाओं की भाषा:
बच्चों को रचना पढ़ने का आनंद तभी आएगा जब भाषा आसानी से समझ में आती हो और दिल तक उतर जाती हो। कॉमिक्स और परीकथाएँ अपनी भाषाई सहजता और बोलचाल के शब्दों के उपयोग के कारण बच्चों को अपनी ओर आकर्षित करती हैं। तात्पर्य यही है कि बच्चों की पुस्तकों में उपयोग में लाई जा रही रचनाओं की भाषा बनावटी व कठिन न हो वरन् सहज और प्रवाहपूर्ण हो बच्चे ऐसी रचनाएँ पसंद करते हैं जिनमें बात नए तरीके से कही जा रही हो, नई कल्पनाएँ हों, असंभव को संभव बनाने के लिए फैंटेसी रची गई हो। वे ऐसी रचनाएँ भी पसंद करते हैं जिनमें एक ही बात का दोहराव हो और दोहराते समय उनमें नए पात्र या घटना जोड़ दी गई हो। बाल कविताओं मे भी ध्वनियों के साथ विविध प्रयोग जैसे: 'बादल गरजा धम धम धडाम / बिजली चमकी कड़ कड़ कड़ाम' आदि हो तो वे बच्चों को आकर्षित करते हैं। बच्चे भाषा से पूरी तरह से वाकिफ नहीं हो पाते, अतः उनके लिए लिखी गई रचनाओं में सरल शब्द हों जिन्हें बच्चे आसानी से समझ पाएँ। बच्चों के लिए लिखे गए गीतों की भाषा में प्रवाह, लय और छांदस सहजया आवश्यक है। उक्त सभी गीतों में सरसता, सरलता, शब्द-चयन में सटीकता, छंद के गेयता तथा अर्थ की स्पष्टता देखी जा सकती है। बालोपयोगी रचना गद्य, पद्य, नाट्य या नृत्य किसी भी विधा में हो उसमें छंद का होना शरबत में शक्कर का होना है।
संदर्भ: दिव्य नर्मदा नेट पत्रिका, झूमे नाचें गीति कथाएँ -शेषपाल सिंह शेष, चहक-महक -सदाशिव कौतुक, आओ सीखें मैदानों में गाते-गाते गीत -डॉ. रमेश चंद्र खरे, रेल चली भई रेल चली -कृष्णवल्लभ पौराणिक, हम बगिया के फूल -डॉ. बलजीत सिंह, एक सौ एक बाल गीत -डॉ. दिनेश चमोला 'शैलेश', गुल्लू का गाँव -डॉ. प्रदीप शुक्ल।
***
मुक्तक
रंग इश्क के अनगिनत, जैसा चाहे देख
लेखपाल न रख सके लेकिन उनका लेख
जी एस टी भी लग नहीं सकता, पटको शीश -
खींच न लछमन भी सकें, इस पर कोई रेख
माँ
माँ की महिमा जग से न्यारी, ममता की फुलवारी
संतति-रक्षा हेतु बने पल भर में ही दोधारी
माता से नाता अक्षय जो पाले सुत बडभागी-
ईश्वर ने अवतारित हो माँ की आरती उतारी
नारी
*
नर से दो-दो मात्रा भारी, हुई हमेशा नारी
अबला कभी न इसे समझना, नारी नहीं बिचारी
माँ, बहिना, भाभी, सजनी, सासु, साली, सरहज भी
सखी न हो तो समझ जिंदगी तेरी सूखी क्यारी
*
पत्नि
पति की किस्मत लिखनेवाली पत्नि नहीं है हीन
भिक्षुक हो बारात लिए दर गए आप हो दीन
करी कृपा आ गयी अकेली हुई स्वामिनी आज
कद्र न की तो किस्मत लेगी तुझसे सब सुख छीन
*
दीप प्रज्वलन
शुभ कार्यों के पहले घर का अँगना लेना लीप
चौक पूर, हो विनत जलाना, नन्हा माटी-दीप
तम निशिचर का अंत करेगा अंतिम दम तक मौन
आत्म-दीप प्रज्वलित बन मोती, जीवन सीप
*
परोपकार
अपना हित साधन ही माना है सबने अधिकार
परहित हेतु बनें समिधा, कब हुआ हमें स्वीकार?
स्वार्थी क्यों सुर-असुर सरीखा मानव होता आज?
नर सभ्यता सिखाती मित्रों, करना पर उपकार
*
एकता
तिनका-तिनका जोड़ बनाते चिड़वा-चिड़िया नीड़
बिना एकता मानव होता बिन अनुशासन भीड़
रहे-एकता अनुशासन तो सेना सज जाती है-
देकर निज बलिदान हरे वह, जनगण कि नित पीड़
*
असली गहना
असली गहना सत्य न भूलो
धारण कर झट नभ को छू लो
सत्य न संग तो सुख न मिलेगा
भोग भोग कर व्यर्थ न फूलो
२३-७-२०१९
***
बात पर दोहे
*
इसने उसकी बात की, उसने इसकी बात।
शब्द-शब्द होते रहे, उस-इस पर आघात।।
*
किसलय से ही सीख लें, किस लय में हो बात।
मधुकर कौशल माधुरी, सिक्त रहें जज्बात।।
*
तन्मय होकर बात कर, मन में रख सद्भाव।
तंत न व्यर्थ भिड़ंत में, रख बसंत सा चाव।।
*
जय प्रकाश सम बात कर, छोड़ छल-कपट-दाँव।
बागर हो बागरी सदृश, बचा देश घर गाँव।।
*
परिणीता चाहे नहीं, रहे विनीता बात।
सत्यपरक मिथिलेश सी, तब सुधरें हालात।।
*
व्यर्थ बात ही बात में, निकल बात से बात।
बढ़े बात तो टालिए, हो न बात से मात।
*
सुनी न समझी अन्य की, की अपनी ही बात।
भले प्रात से रात तक, सुलझ न पाई बात।।
*
वन प्रकाश की राह चल, धन्य केशवानंद।
बात करें परमार्थ की, दें जन को आनंद।।
*
धाम सैलवारा ललित, वरदायी वट-वृक्ष।
बैठ छाँह में बात कर, पाले ग्यान सुलक्ष।।
*
बात-बात में मात हो, बात-बात से जीत।
कहें केशवानंद जी, बात बढ़ाती प्रीत।।
२३-७-२०१८
*
रसानंद दे छंद नर्मदा ४० : अहीर छन्द
लक्षण: जाति रौद्र, पद २, चरण ४, प्रति चरण मात्रा ११, चरणान्त लघु गुरु लघु (जगण).
लक्षण छंद:
चाहे राँझ अहीर, बाला सुन्दर हीर
लघु गुरु लघु चरणांत, संग रहे नत शांत
पूजें ग्यारह रूद्र, कोशिश लँघे समुद्र
जल-थल-नभ में घूम, लक्ष्य सके पद चूम
उदाहरण:
१. सुर नर संत फ़क़ीर, कहें न कौन अहीर?
आत्म-ग्वाल तज धेनु, मन-प्रयास रस-वेणु
प्रकृति-पुरुष सम संग, रचे सृष्टि कर दंग
ग्यारह हों जब एक, मानो जगा विवेक
२. करो संग मिल काम, तब ही हो यश-नाम
भले रहे विधि वाम, रखना साहस थाम
सुबह दोपहर शाम, रचना छंद ललाम
कर्म करें बिन लोभ, सह परिणाम
३. पूजें ग्यारह रूद्र, मन में रखकर भक्ति
जनगण-शक्ति समुद्र, दे अनंत अनुरक्ति
लघु-गुरु-लघु रह शांत, रच दें छंद अहीर
रखता उन्नत माथ, खाली हाथ फ़क़ीर
***
गले मिले दोहा यमक २
*
चल बे घर बेघर नहीं, जो भटके बिन काज
बहुत हुई कविताई अब, कलम घिसे किस व्याज?
*
पटना वाली से कहा, 'पट ना' खाई मार
चित आए पट ना पड़े, अब की सिक्का यार
*
धरती पर धरती नहीं, चींटी सिर का भार
सोचे "धर दूँ तो धरा, कैसे सके सँभार?"
*
घटना घट ना सब कहें, अघट न घटना रीत
घट-घटवासी चकित लख, क्यों मनु करे अनीत?
*
सिरा न पाये फ़िक्र हम, सिरा न आया हाथ
पटक रहे बेफिक्र हो, पत्थर पर चुप माथ
*
बेसिर-दानव शक मुआ, हरता मन का चैन
मनका ले विश्वास का, सो ले सारी रैन
*
करता कुछ करता नहीं, भरता भरता दंड
हरता हरता शांति सुख, धरता धरता खंड
*
बजा रहे करताल पर, दे न सके कर ताल
गिनते हैं कर माल फिर, पहनाते कर माल
*
जल्दी से आ भार ले, व्यक्त करूँ आभार
असह्य लगे जो भार दें, हटा तुरत साभार
*
हँस सहते हम दर्द जब, देते हैं हमदर्द
अपना पन कर रहा है सब अपनापन सर्द
*
भोग लगाकर कर रहे, पंडित जी आराम
नहीं राम से पूछते, "ग्रहण करें आ राम!"
२३-७-२०१६
***
Poem:
Sanjiv
*
Why do I wish to swim
Against the river flow?
I know well
I will have to struggle
More and more.
I know that
Flowing downstream
Is a easy task
As compare to upstream.
I also know that
Well wishers standing
On both the banks
Will clap and laugh.
If I win,
They will say:
Their encouragement
Is responsible for the success.
If unfortunately
I loose,
They will not a second
To say that
They tried their best
To stop me
By making laugh on me.
In both the cases
I will loose and
They will win.
Even than
I will swim
Against the river flow.
***
हम क्यों
हम क्यों
निज भाषा बोलें?
निज भाषा बोले बच्चा
बच्चा होता है सच्चा
हम सचाई से सचमुच दूर
आँखें रहते भी हैं सूर
फेंक अमिय
नित विष घोलें
हम क्यों
निज भाषा बोलें?
निज भाषा पंछी बोले
संग-साथ हिल-मिल डोले
हम लड़ते हैं भाई से
दुश्मन निज परछाईं के
दिल में
भड़क रहे शोले
हम क्यों
निज भाषा बोलें?
निज भाषा पशु को भाती
प्रकृति न भूले परिपाटी
संचय-सेक्स करे सीमित
खुद को करे नहीं बीमित
बदले नहीं
कभी चोले
हम क्यों
निज भाषा बोलें?
पर भाषा पर होते मुग्ध
परनारी देखें दिल दग्ध
शांति भूलकर करते युद्ध
भ्रष्टाचार सुहाता शुद्ध
मनमानी
करते डोलें
हम क्यों
निज भाषा बोलें?
अय्याशी में सुर प्यारे
क्रूर असुर भाते न्यारे
मानवता से क्या लेना
हम न जानते हैं देना
खुद को
'सलिल' नहीं तोलें
हम क्यों
निज भाषा बोलें?
२३.७.२०१५
***
दोहा सलिला
*
जो न उषा को चाह्ता, उसके फूटे भाग
कौन सुबह आकर कहे, उससे जल्दी जाग
*
लाल-गुलाबी जब दिखें, मनुआ प्राची-गाल
सेज छोड़कर नमन कर, फेर कर्म की माल
***
स्मरणांजलि:
महाकवि जगमोहन प्रसाद सक्सेना 'चंचरीक'
संजीव
*
महाकवि जगमोहन प्रसाद सक्सेना 'चंचरीक' साधु प्रवृत्ति के ऐसे शब्दब्रम्होपासक हैं जिनकी पहचान समय नहीं कर सका। उनका सरल स्वभाव, सनातन मूल्यों के प्रति लगाव, मौन एकाकी सारस्वत साधना, अछूते और अनूठे आयामों का चिंतन, शिल्प पर कथ्य को वरीयता देता सृजन, मौलिक उद्भावनाएँ, छांदस प्रतिबद्धता, सादा रहन-सहन, खांटी राजस्थानी बोली, छरफरी-गौर काया, मन को सहलाती सी प्रेमिल दृष्टि और 'स्व' पर 'सर्व' को वरीयता देती आत्मगोपन की प्रवृत्ति उन्हें चिरस्मरणीय बनाती है। मणिकांचनी सद्गुणों का ऐसा समुच्चय देह में बस कर देहवासी होते हुए भी देह समाप्त होने पर विदेही होकर लुप्त नहीं होता अपितु देहातीत होकर भी स्मृतियों में प्रेरणापुंज बनकर चिरजीवित रहता है. वह एक से अनेक में चर्चित होकर नव कायाओं में अंकुरित, पल्लवित, पुष्पित और फलित होता है।
लीलाविहारी आनंदकंद गोबर्धनधारी श्रीकृष्ण की भक्ति विरासत में प्राप्त कर चंचरीक ने शैशव से ही सन १८९८ में पूर्वजों द्वारा स्थापित उत्तरमुखी श्री मथुरेश राधा-कृष्ण मंदिर में कृष्ण-भक्ति का अमृत पिया। साँझ-सकारे आरती-पूजन, ज्येष्ठ शिकल २ को पाटोत्सव, भाद्र कृष्ण १३ को श्रीकृष्ण छठी तथा भाद्र शुक्ल १३ को श्री राधा छठी आदि पर्वों ने शिशु जगमोहन को भगवत-भक्ति के रंग में रंग दिया। सात्विक प्रवृत्ति के दम्पति श्रीमती वासुदेवी तथा श्री सूर्यनारायण ने कार्तिक कृष्ण १४ संवत् १९८० विक्रम (७ नवंबर १९२३ ई.) की पुनीत तिथि में मनमोहन की कृपा से प्राप्त पुत्र का नामकरण जगमोहन कर प्रभु को नित्य पुकारने का साधन उत्पन्न कर लिया। जन्म चक्र के चतुर्थ भाव में विराजित सूर्य-चन्द्र-बुध-शनि की युति नवजात को असाधारण भागवत्भक्ति और अखंड सारस्वत साधना का वर दे रहे थे जो २८ दिसंबर २०१३ ई. को देहपात तक चंचरीक को निरंतर मिलता रहा।
बालक जगमोहन को शिक्षागुरु स्व. मथुराप्रसाद सक्सेना 'मथुरेश', विद्यागुरु स्व. भवदत्त ओझा तथा दीक्षागुरु सोहनलाल पाठक ने सांसारिकता के पंक में शतदल कमल की तरह निर्लिप्त रहकर न केवल कहलाना अपितु सुरभि बिखराना भी सिखाया। १९४१ में हाईस्कूल, १९४३ में इंटर, १९४५ में बी.ए. तथा १९५२ में एलएल. बी. परीक्षाएँ उत्तीर्ण कर इष्ट श्रीकृष्ण के पथ पर चलकर अन्याय से लड़कर न्याय की प्रतिष्ठा पर चल पड़े जगमोहन। जीवनसंगिनी शकुंतला देवी के साहचर्य ने उनमें अदालती दाँव-पेंचों के प्रति वितृष्णा तथा भागवत ग्रंथों और मनन-चिंतन की प्रवृत्ति को गहरा कर निवृत्ति मार्ग पर चलाने के लिये सृजन-पथ का ऐसा पथिक बना दिया जिसके कदमों ने रुकना नहीं सीखा। पतिपरायणा पत्नी और प्रभु परायण पति की गोद में आकर गायत्री स्वयं विराजमान हो गयीं और सुता की किलकारियाँ देखते-सुनते जगमोहन की कलम ने उन्हें 'चंचरीक' बना दिया, वे अपने इष्ट पद्मों के 'चंचरीक' (भ्रमर) हो गये।
महाकाव्य त्रयी का सृजन:
चंचरीककृत प्रथम महाकाव्य 'ॐ श्री कृष्णलीला चरित' में २१५२ दोहों में कृष्णजन्म से लेकर रुक्मिणी मंगल तक सभी प्रसंग सरसता, सरलता तथा रोचकता से वर्णित हैं। ओम श्री पुरुषोत्तम श्रीरामचरित वाल्मीकि रामायण के आधार पर १०५३ दोहों में रामकथा का गायन है। तृतीय तथा अंतिम महाकाव्य 'ओम पुरुषोत्तम श्री विष्णुकलकीचरित' में अल्पज्ञात तथा प्रायः अविदित कल्कि अवतार की दिव्य कथा का उद्घाटन ५ भागों में प्रकाशित १०६७ दोहों में किया गया है। प्रथम कृति में कथा विकास सहायक पदों तृतीय कृति में तनया डॉ. सावित्री रायजादा कृत दोहों की टीका को सम्मिलित कर चंचरीक जी ने शोधछात्रों का कार्य आसान कर दिया है। राजस्थान की मरुभूमि में चराचर के कर्मदेवता परात्पर परब्रम्ह चित्रगुप्त (ॐ) के आराधक कायस्थ कुल में जन्में चंचरीक का शब्दाक्षरों से अभिन्न नाता होना और हर कृति का आरम्भ 'ॐ' से करना सहज स्वाभाविक है। कायस्थ [कायास्थितः सः कायस्थः अर्थात वह (परमात्मा) में स्थित (अंश रूप आत्मा) होता है तो कायस्थ कहा जाता है] चंचरीक ने कायस्थ राम-कृष्ण पर महाकाव्य साथ-साथ अकायस्थ कल्कि (अभी क्लक्की अवतार हुआ नहीं है) से मानस मिलन कर उनपर भी महाकाव्य रच दिया, यह उनके सामर्थ्य का शिखर है।
देश के विविध प्रांतों की अनेक संस्थाएं चंचरीक सम्मानित कर गौरवान्वित हुई हैं। सनातन सलिला नर्मदा तट पर स्थित संस्कारधानी जबलपुर में साहित्यिक संस्था अभियान के तत्वावधान में समपन्न अखिल भारतीय दिव्य नर्मदा अलंकरण में अध्यक्ष होने के नाते मुझे श्री चंचरीक की द्वितीय कृति 'ॐ पुरुषोत्तम श्रीरामचरित' को नागपुर महाराष्ट्र निवासी जगन्नाथप्रसाद वर्मा-लीलादेवी वर्मा स्मृति जगलीला अलंकरण' से तथा अखिल भारतीय कायस्थ महासभा व चित्राशीष के संयुक्त तत्वावधान में शांतिदेवी-राजबहादुर वर्मा स्मृति 'शान्तिराज हिंदी रत्न' अलंकरण से समादृत करने का सौभाग्य मिला। राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद के जयपुर सम्मेलन में चंचरीक जी से भेंट, अंतरंग चर्चा तथा शकुंतला जी व् डॉ. सावित्री रायजादा से नैकट्य सौभाग्य मिला।
चंचरीक जी के महत्वपूर्ण अवदान क देखते हुए राजस्थान साहित्य अकादमी को ऊपर समग्र ग्रन्थ का प्रकाशन कर, उन्हें सर्वोच्च पुरस्कार से सम्मानित करना चाहिए। को उन पर डाक टिकिट निकालना चाहिए। जयपुर स्थित विश्व विद्यालय में उन पर पीठ स्थापित की जाना चाहिए। वैष्णव मंदिरों में संतों को चंचरीक साहित्य क्रय कर पठन-पाठन तथा शोध हेतु मार्ग दर्शन की व्यवस्था बनानी चाहिए।
दोहांजलि:
ॐ परात्पर ब्रम्ह ही, रचते हैं सब सृष्टि
हर काया में व्याप्त हों, कायथ सम्यक दृष्टि
कर्मयोग की साधना, उपदेशें कर्मेश
कर्म-धर्म ही वर्ण है, बतलाएं मथुरेश
सूर्य-वासुदेवी हँसे, लख जगमोहन रूप
शाकुन्तल-सौभाग्य से, मिला भक्ति का भूप
चंचरीक प्रभु-कृपा से, रचें नित्य नव काव्य
न्यायदेव से सत्य की, जय पायें संभाव्य
राम-कृष्ण-श्रीकल्कि पर, महाकाव्य रच तीन
दोहा दुनिया में हुए, भक्ति-भाव तल्लीन
सावित्री ही सुता बन, प्रगटीं, ले आशीष
जयपुर में जय-जय हुई, वंदन करें मनीष
कायथ कुल गौरव! हुए, हिंदी गौरव-नाज़
गर्वित सकल समाज है, तुमको पाकर आज
सतत सृजन अभियान यह, चले कीर्ति दे खूब
चित्रगुप्त आशीष दें, हर्ष मिलेगा खूब
चंचरीक से प्रेरणा, लें हिंदी के पूत
बना विश्ववाणी इसे, घूमें बनकर दूत
दोहा के दरबार में, सबसे ऊंचा नाम
चंचरीक ने कर लिया, करता 'सलिल' प्रणाम
चित्रगुप्त के धाम में, महाकाव्य रच नव्य
चंचरीक नवकीर्ति पा, गीत गुँजाएँ दिव्य
२३-७-२०१४
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