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शुक्रवार, 7 अक्टूबर 2011

बाल गीत: सोन चिरैया ---संजीव वर्मा 'सलिल'

बाल गीत: 

सोन चिरैया ---

संजीव वर्मा 'सलिल'

*

सोनचिरैया फुर-फुर-फुर,      
उड़ती फिरती इधर-उधर.      
थकती नहीं, नहीं रूकती.     
रहे भागती दिन-दिन भर.    

रोज सवेरे उड़ जाती.         
दाने चुनकर ले आती.        
गर्मी-वर्षा-ठण्ड सहे,          
लेकिन हरदम मुस्काती.    

बच्चों के सँग गाती है,      
तनिक नहीं पछताती है.    
तिनका-तिनका जोड़ रही,  
घर को स्वर्ग बनाती है.     

बबलू भाग रहा पीछे,       
पकडूँ  जो आए नीचे.       
घात लगाये है बिल्ली,      
सजग मगर आँखें मीचे.   

सोन चिरैया खेल रही.
धूप-छाँव हँस झेल रही.
पार करे उड़कर नदिया,
नाव न लेकिन ठेल रही.

डाल-डाल पर झूल रही,
मन ही मन में फूल रही.
लड़ती नहीं किसी से यह,
खूब खेलती धूल रही. 

गाना गाती है अक्सर,
जब भी पाती है अवसर.
'सलिल'-धार में नहा रही,
सोनचिरैया फुर-फुर-फुर. 

* * * * * * * * * * * * * *                                                              
= यह बालगीत सामान्य से अधिक लम्बा है. ४-४ पंक्तियों के ७ पद हैं. हर पंक्ति में १४ मात्राएँ हैं. हर पद में पहली, दूसरी तथा चौथी पंक्ति की तुक मिल रही है.
चिप्पियाँ / labels : सोन चिरैया, सोहन चिड़िया, तिलोर, हुकना, ग्रेट इंडियन बस्टर्ड, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', great indian bustard, son chiraiya, sohan chidiya, hukna, tilor, indian birds, acharya sanjiv 'salil' 

रविवार, 12 दिसंबर 2010

मुक्तिका थोड़ा ज्यादा, ज्यादा कम.... ---संजीव 'सलिल'

मुक्तिका                                                                             थोड़ा ज्यादा, ज्यादा कम.

संजीव 'सलिल'


*
थोड़ा ज्यादा, ज्यादा कम.
चाहा सुख तो पाया गम.

अधरों पर मुस्कान मिली
लेकिन आँखें पायीं नम.

दूर करो हाथों से बम.
मिलो गले कह बम-बम-बम.

'मैं'-'तू' भूलें काश सभी
कहें साथ मिल सारे 'हम'.

सात जन्म का वादा कर
ठोंक रहे आपस में ख़म.

मन मलीन को ढाँक रहे
क्यों तन को नित कर चम्-चम्.

जब भी बाला दिया 'सलिल'
मिला ज्योति के नीचे तम.

*************

मंगलवार, 2 नवंबर 2010

व्यंग्यपरक मुक्तिका: क्यों डरूँ? संजीव 'सलिल'

व्यंग्यपरक मुक्तिका:                                      

क्यों डरूँ?

संजीव 'सलिल'
*
उठ रहीं मेरी तरफ कुछ उँगलियाँ तो क्यों डरूँ?
छोड़ कुर्सी, स्वार्थ तजकर, मुफ्त ही मैं क्यों मरूँ??

गलतियाँ करना है फितरत पर सजा पाना नहीं.
गैर का हासिल तो अपना खेत नाहक क्यों चरूँ??

बेईमानी की डगर पर सफलताएँ मिल रहीं.
विफलता चाही नहीं तो राह से मैं क्यों फिरूँ??

कौन किसका कब हुआ अपना?, पराये हैं सभी.
लूटने में किसीको कोई रियायत क्यों करूँ ??

बाज मैं,  नेता चुनें चिड़िया तो मेरा दोष क्या?
लाभ अपना छोड़कर मैं कष्ट क्यों उनके हरूँ??

आँख पर पट्टी, तुला हाथों में, करना न्याय है.
कोट काला कहे किस पलड़े पे कितना-क्या धरूँ??

गरीबी को मिटाना है?, दूँ गरीबों को मिटा.
'सलिल' जिंदा रख उन्हें मैं मुश्किलें क्योंकर वरूँ??

****************************************

मंगलवार, 19 अक्टूबर 2010

हिंदी शब्द सलिला : १२ अ से प्रारंभ शब्द : १२ --- संजीव 'सलिल'


हिंदी शब्द सलिला : १२     संजीव 'सलिल'

*
संकेत : अ.-अव्यय, अर. अरबी, अक्रि.-अकर्मक क्रिया, अप्र.-अप्रचलित, अर्थ.-अर्थशास्त्र, अलं.- अलंकार, अल्प-अल्प (लघुरूप) सूचक, आ.-आधुनिक, आयु.-आयुर्वेद, इ.-इत्यादि, इब.-इबरानी, उ. -उर्दू, उदा.-उदाहरण, उप.-उपसर्ग, उपनि.-उपनिषद, अं.-अंगिका, अंक.-अंकगणित, इ.-इंग्लिश/अंगरेजी, का.-कानून, काम.-कामशास्त्र, क्व.-क्वचित, ग.-गणित, गी.-गीता, गीता.-गीतावली, तुलसी-कृत, ग्रा.-ग्राम्य, ग्री.-ग्रीक., चि.-चित्रकला, छ.-छतीसगढ़ी, छं.-छंद, ज.-जर्मन, जै.-जैन साहित्य, ज्या.-ज्यामिति, ज्यो.-ज्योतिष, तं.-तंत्रशास्त्र, ति.-तिब्बती, तिर.-तिरस्कारसूचक, दे.-देशज, देव.-देवनागरी, ना.-नाटक, न्या.-न्याय, पा.-पाली, पारा.- पाराशर संहिता, पु.-पुराण, पुल.-पुल्लिंग, पुर्त. पुर्तगाली, पुरा.-पुरातत्व, प्र.-प्रत्यय, प्रा.-प्राचीन, प्राक.-प्राकृत, फा.-फ़ारसी, फ्रे.-फ्रेंच, ब.-बघेली, बर.-बर्मी, बहु.-बहुवचन, बि.-बिहारी, बुं.-बुन्देलखंडी, बृ.-बृहत्संहिता, बृज.-बृजभाषा  बो.-बोलचाल, बौ.-बौद्ध, बं.-बांग्ला/बंगाली, भाग.-भागवत/श्रीमद्भागवत, भूक्रि.-भूतकालिक क्रिया, मनु.-मनुस्मृति, महा.-महाभारत, मी.-मीमांसा, मु.-मुसलमान/नी, मुहा. -मुहावरा,  यू.-यूनानी, यूरो.-यूरोपीय, योग.योगशास्त्र, रा.-रामचन्द्रिका, केशवदास-कृत, राम.- रामचरितमानस-तुलसीकृत, रामा.- वाल्मीकि रामायण, रा.-पृथ्वीराज रासो, ला.-लाक्षणिक, लै.-लैटिन, लो.-लोकमान्य/लोक में प्रचलित, वा.-वाक्य, वि.-विशेषण, विद.-विदुरनीति, विद्या.-विद्यापति, वे.-वेदान्त, वै.-वैदिक, व्यं.-व्यंग्य, व्या.-व्याकरण, शुक्र.-शुक्रनीति, सं.-संस्कृत/संज्ञा, सक्रि.-सकर्मक क्रिया, सर्व.-सर्वनाम, सा.-साहित्य/साहित्यिक, सां.-सांस्कृतिक, सू.-सूफीमत, स्त्री.-स्त्रीलिंग, स्मृ.-स्मृतिग्रन्थ, ह.-हरिवंश पुराण, हिं.-हिंदी.     

अ से प्रारंभ शब्द : १२

संजीव 'सलिल'
*
अक्षया  - स्त्री. सं. पुण्यतिथि विशेष.
अक्षयिणी - वि. स्त्री. सं. देखें अक्षयी, स्त्री. पार्वती.
अक्षयी / यिन  - वि. सं. जिसका क्षय / नाश न हो, अविनाशी.
अक्षय्य - वि. सं. क्षय न होने योग्य, कभी न चुकनेवाला, -नवमी- स्त्री. कार्तिक शुक्ल नवमी.
अक्षय्योदक - पु. सं. श्राद्ध में पिंडदान के बाद दिया जानेवाला जल, मधु और तिल का अर्ध्य.
अक्षर - वि. सं. अविनाशी, अपरिवर्तनशील, अच्युत, नित्य, अक्षय. पु. वर्ण, हर्फ़ उ., स्वर, शब्द, चित्रगुप्त, ब्रम्हा, आत्मा, शिव, विष्णु, खड्ग, आकाश, मोक्ष, तपस्या, जल, अपामार्ग. -गणित- पु. बीजगणित. -चंचु / चण / चन / चुंचु- पु. सुलेखक. -च्युतक- एक खेल. -जननी- स्त्री. लेखनी. - जीवक / जीविक, जीवी / जीविन- पु. लिखने का व्यवसाय करनेवाला, मुंशी, लेखक. -ज्ञान- पु. लिख-पढ़ लेने की योग्यता, साक्षरता, -तूलिक- स्त्री., लेखनी. -धाम- पु. ब्रम्ह्लोक, मोक्ष. -न्यास- पु. लिखावट, तन्त्र की एक क्रिया. -पंक्ति- स्त्री., एक वैदिक वृत्त. -पूजक- वि. धार्मिक पुस्तकों में लिखी बातों का अक्षरशः पालन करनेवाला. -बंध- पु. एक वर्णवृत्त. -माला- स्त्री. स्त्री. वर्णमाला, अल्फाबेट्स इं., हरूफ उ. -मुख- पु. विद्यार्थी, छात्र, विद्वान्. '' अक्षर, वि. अक्षर सीखनेवाला, -मुष्टिका- स्त्री. उँगलियों के संकेत द्वारा बोलना, -वर्जित / शत्रु- व-. अपढ़, निरक्षर. -विन्यास- पु. वर्णविन्यास, हिज्जे उ., स्पेलिंग इं., लिपि, स्क्रिप्ट इं., -वृत्त- वर्णवृत्त, -संस्थापन- पु. लिपि, लिखे हुए अक्षर, -समाम्नाय- पु. वर्णमाला, मु. -घोंटना- अक्षर लिखने का अभ्यास करना, -से भेंट न होना- अपढ़ होना, मुहा. -काला अक्षर भैंस बराबर- अक्षर ज्ञान न होना.              
अक्षरशः - अ. सं. एक-एक अक्षर, हर्फ़-ब-हर्फ़ उ., सोलहों आने, हू-ब-हू, यथावत, जैसे का तैसा.
अक्षरांग - पु. सं. लिपि, लेखन सामग्री, स्टेशनरी इं.
अक्षरा - स्त्री. सं. शब्द, भाषा, देखें अक्षर.
अक्षराक्षर - पु. सं. एक प्रकार की समाधि.
अक्षरारंभ - पु. सं. एक संस्कार कुल १६, पट्टी पूजन, पहले-पहल अक्षर ज्ञान कराना, विद्यारम्भ.
अक्षरार्थ - पु. सं. शब्दार्थ, संकुचित अर्थ.
अक्षरी - स्त्री. सं. वर्ष ऋतु, वर्तनी, हिज्जे, स्पेलिंग इं.
अक्षरौटी - स्त्री. सं. वर्णमाला, लिपि का ढंग, लिखने का तरीका, सितार पर बोल निकलने की क्रिया.
अक्षर्य - वि. सं. अक्षर संबंधी, पु. एक साम.
अक्षान्ति - स्त्री. सं. ईर्ष्या, अधीरता, असहिष्णुता.
अक्षांश - पु. सं. भूमध्य रेखा से उत्तर या दक्षिण का अंतर, पृथ्वी की सतह पर स्थित बिंदु की भू केंद्र पर नापी गयी कोणीय दूरी, जबकि यह दूरी विषुवत रेखा से उत्तर या दक्षिण को ली जाती है. विषुवत रेखा पर स्थित सभी स्थलों का अक्षांश शून्य अंश / डिग्री है, ज्यों-ज्यों उत्तर या दक्षिण की ओर हटते हैं त्यों-त्यों अक्षां बढ़कर अंततः ध्रुवों पर ९० अंश हो जाता है.
अक्षाग्र - पु. सं. धुर, धुरे का छोर. -कील- स्त्री. / कीलन पु.- चक्र्रोध के लिये लगाई जानेवाली खूंटी, लट्ठे और जुए को जोड़नेवाली खूंटी.
अक्षार - वि. सं. क्षाररहित, -लवण- पु. खाररहित प्राकृतिक नमक, नमकरहित हविष्यान्न.
अक्षावाप - पु. सं. जारी. जुआ खेलनेवाला.
अक्षि - स्त्री. सं. आँख, २ / दो संख्या, -कंप- पु. पलक झपकाना, आँख मारना. -कूट / कूटक- पु. आँख की पुतली, नेत्र-गोलक. -गत- वि. दृष्ट, देखा हुआ, विद्यमान, द्वेष्य. -गोलक- आँख की पुतली. -तारक / तारा- आँख का तारा, लाड़ला, अति प्यारा, -निमेश- पु. पल, क्षण. -पक्ष्म / न- पु.बरौनी, भौंह. -पटल- पु. आँख का पर्दा, आँख की पुतली के पीछे की झिल्ली. -भू- वि. दृश्य, सत्य, यथार्थ. -भेषज- पट्टिकालोध्र, आँख पर पट्टी रखना / बाँधना. -लोम / न- पु. बरौनी, भौंह. -विकूणित / विकूशित / विक्षेप - पु. कटाक्ष, चितवन, तिरछी नजर उ., यथार्थ.
अक्षिक / अक्षीक - पु. सं. वृक्ष विशेष, रंजन वृक्ष.
अक्षित - वि. सं. जिसका क्षय न हुआ हो, न छीजने / कम होने / घटने वाला, जिसे चोट न लगी हो, पु. जल, दस लाख की संख्या, मिलियन इं., -वसु- पु. इंद्र, सहस्त्रलोचन.
अक्षितर - पु. सं. जल.
अक्षिब / अक्षिव - पु.. सं. देखें अक्षीब.
अक्षीण - वि. सं. क्षीण / नष्ट न होनेवाला, अनश्वर.
अक्षीब - पु. सं. सहिजन, समुद्र-लवण. वि. अमत्त.
अक्षीय - वि. अक्ष /धुरी संबंधी, एक्सिअल इं.
अक्षीव - पु. सं. देखें अक्षीब.
अक्षुण / akshunna - वि सं. अखंडित, अभग्न, अभंग, अन्यून, अपराजित, कुशल.  
अक्षुद्र - वि. सं. जो नीच / छोटा / तुच्छ न हो, पु. शिव.
अक्षुध्य - वि. सं. भूख नष्ट करने / मिटाने वाला, जिसे भूख न लगती हो.
अक्षुब्ध - वि. सं. क्षोभरहित, अनुत्तेजित, शांत.
अक्षेत्र - वि. सं. क्षेत्ररहित, कृषि के अयोग्य, अनुपजाऊ / परती / बंजर. पु. बुरी / ख़राब जमीन, ज्यामिती का अशुद्ध चित्र, मंदबुद्धि छात्र. -ज्ञ / विद- आध्यात्मिक ज्ञान से शून्य, जिसे शरीर की प्रकृति का ज्ञान न हो.
अक्षेत्री / त्रिन - वि. जिसके पास खेत / कृषि-भूमि न हो.
अक्षोट - पु. सं. पर्वतीय पीलू वृक्ष, अखरोट का पेड़.
अक्षोड / अक्षोडक - पु. सं. देखें अक्षोट.
अक्षोधुक - वि. सं. जो भूखा न हो.
अक्षोनि - स्त्री. देखें अक्षौहिणी.
अक्षोभ - पु. सं. क्षोभ / विकार का अभाव, शांति, हाथी बांधने का खूंटा. वि. शांत, धीर, अविचलित, शिव.
अक्षोभ्य - वि. सं. धीर, गंभीर, अशांत न होनेवाला, पु. वृद्ध, एक बड़ी संख्या, -कवच- पु. एक तंत्रोक्त कवच.
अक्षौहिणी - स्त्री. सं. चतुरंगिणी सेना का एक परिमाण या विभाग, (१.०९,३५० पैदल, ६५,६१० घोड़े, २१,८७० रथ और इतने ही हाथी).
अक्ष्ण - वि. सं. अखंड. पु. समय, काल.  
अक्स - पु. अ. परछाईं, छाया, चित्र, तस्वीर उ., फोटो इं., मुहा. -उतारना- हू-ब-हू नकल करना, जैसा का तैसा बनाना, फोटो खींचना. -छाना- रंग हल्का / फीका पड़ जाना / उतर जाना. -लेना- तस्वीर पर पतला झिल्ली कागज रखकर खाका उतारना.    
अक्सर - अ. देखें अकसर, प्रायः, बहुधा, एकाकी.
अक्सी -  वि. छाया संबंधी, अक्स के जरिये लिया जानेवाला चित्र, फोटोग्राफ. -तसवीर- स्त्री. फोटो, छायाचित्र.                                                                       -- क्रमशः 

रविवार, 17 अक्टूबर 2010

विशेष लेख- भारत में उर्दू :

विशेष लेख-

भारत में उर्दू : 

भारत विभिन्न भाषाओँ का देश है जिनमें से एक उर्दू भी है. मुग़ल फौजों द्वारा आक्रमण में विजय पाने के बाद स्थानीय लोगों के कुचलने के लिये उनके संस्कार, आचार, विचार, भाषा तथा धर्म को नष्ट कर प्रचलित के सर्वथा विपरीत बलात लादा गया तथा अस्वीकारने पर सीधे मौत के घाट उतारा गया. यह एक ऐतिहासिक सत्य है जिसे कोई झुठला नहीं सकता. पराजित हतभाग्य जनों को मुगल सिपाहियों द्वारा अरबी-फ़ारसी के दोषपूर्ण रूप (सिपाही शुद्ध भाषा नहीं जानते थे) को स्थानीय भाषा के साथ मिलावट कर बोलते देख गुलामों को भी वही भाषा बोलने के लिये विवश होना पड़ा.   

भारतीयों को भ्रान्ति है कि उर्दू पाकिस्तान की राष्ट्र या राजकीय भाषा है जबकि यह पूरी तरह गलत है.

न्यूज़ इंटरनॅशनल के अनुसार  लाहौर उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति ख्वाजा मुहम्मद शरीफ ने १३ अक्टूबर २०१० को एक परमादेश याचिका को इसलिए खारिज कर दिया कि याचिकाकर्ता सना उल्लाह और उसके वकील यह सीध करने में असफल हुए कि उर्दू पाकिस्तान की सरकारी काम-काज की भाषा है. याचिकाकरता के अनुसार  १९४८ में पाकिस्तान के राष्ट्रपिता कायदे-आज़म मुहम्मद अली जिन्ना ने  ढाका में विद्यार्थियों को सम्बोधत करते हुए उर्दू को पाकिस्तान की सरकारी काम-काज की भाषा बताया था तथा संविधान में भी एक निर्धारित अवधी में ऐसा किये जाने को कहा गया है लेकिन पाकिस्तान की आज़ादी के ६२ साल बाद तक ऐसा नहीं किया गया. 


लीड्स अमेरिका निवासी हरकादास वासन के अनुसार उर्दू संसार की सर्वाधिक खूबसूरत भाषा है जिसे बोलते समय आप खुद को दुनिया से ऊँचा अनुभव करते है तथा इसे भारत की सरकारी काम-काज की भाषा बनाया जाना चाहिए.वासन के अनुसार उर्दू अरबी-फारसी प्रभाव से हिन्दी का उन्नत रूप है. तुर्की मूल के शब्द -उर्दू- का अर्थ सेना या तंबू है. उर्दू ने व्यवहारिक रूप से हिन्दी की शब्दवाली को उसी तरह दोगुना किया है जैसे फ्रेंच ने अंग्रेजी को. उर्दू ने भारतीय कविता विशेषकर श्रंगारिक कविता में बहुत कुछ जोड़ा है. मेहरबानी तथा तशरीफ़ रखिए जैसे शब्द उर्दू के हैं. 


वस्तुतः उर्दू एक गड्ड-मड्ड भाषा या यूँ कहें कि उर्दू हिन्दी भाषा ही है जो अरबी अक्षरों से लिखी जाती है. उर्दू वास्तव में एक भाषा है ही नहीं. फारस, अरब तथा तुर्की आदि देशों के सिपाहियों की मिश्रित बोली ही उर्दू है. किसी पराजित देश में विजेताओं की भाषा का प्रयोग करने की प्रवृत्ति होती है. इसी कारण भारत में पहले उर्दू तथा बाद में अंग्रेजी बोली गयी. उर्दू तथा अंग्रेजी के प्रचार-प्रसार तथा हिन्दी की उपेक्षा के पीछे अखबारी समाचार माध्यम तथा प्रशासनिक अधिकारियों की महती भूमिका है.व्यक्ति चाहें भी तो भाषा को प्रचलन में नहीं ला सकते जब तक कि अख़बार तथा प्रशासन न चाहें.


उर्दू का सौदर्य विष कन्या के रूप की तरह मादक किन्तु घातक है. उर्दू अपने उद्भव से आज तक मुस्लिम आक्रमणकारियों और मुस्लिम आक्रामक प्रवृत्ति की भाषा है.८० से अधिक वर्षों तक उर्दू उत्तर तथा उत्तर-पश्चिम भारत की सरकारी काम-काज की भाषा रही है किन्तु यह उत्तर तथा हैदराबाद के मुसलमानों को छोड़कर अन्य वर्गों (यहाँ तक कि मुसलमानों में भी)में अपनी जड़ नहीं जमा सकी. अंग्रेजी राज्य में उत्तर भारत में उर्दू शिक्षण अनिवार्य किये जाने के कारण पुरुष वर्ग उर्दू जान गया था किन्तु घरेलू महिलाएं हिन्दी ही बोलती रहीं.यहाँ तक कि  केवल ५०% मुसलमान ही उर्दू को अपनी मातृभाषा कहते है. यह भी सत्य है कि मुसलमानों की धार्मिक भाषा उर्दू नहीं अरबी है. आरम्भ में मुस्लिन लीग ने भी उर्दू को मुसलमानों की दूसरी भाषा ही कहा था.


भारत में उर्दू का सीधा विरोध न होने पर भी स्वतंत्रता के वर्षों बाद मुस्लिम आतंकवाद ने एक बार फिर उर्दू को अपना औजार बनाने की कोशिश की है. भारत सरकार ने हिंदीभाषियों के धन से उर्दू विश्वविद्यालय स्थापिय करने में संकोच नहीं किया. बांग्ला देश ने उर्दू  के घातक प्रभाव को पहचानकर सांस्कृतिक आधार पर उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया.यहाँ तक कि पाकिस्तान में भी पंजाबियों, सिंधियों बलूचोंऔर पठानों ने भी उर्दू को अपनी सभ्यता-संस्कृति के लिये घातक पाया और अब उर्दू पाकिस्तान में भी सिर्फ मुहाजिरों (भारत से भाग कर पहुँचे मुसलमान) की भाषा है.

भारत में जन्म लेने ओर पोसी जाने के बाद भी उर्दू अबाधी, भोजपुरी, बृज, बुन्देली, छत्तीसगढ़ी, मालवी, निमाड़ी, मेवाड़ी, मारवाड़ी और ऐसी ही अन्य भाषाओँ की तरह आम आदमी की भाषा नहीं बन सक़ी और आज भी यह अधिकांश लोगों के लिये परी भाषा है बव्जीद इसके कि इसके कुछ शब्द प्रेस द्वारा लगातार उपयोग में लाये जाते हैं तथा इसे देवनागरी में लिखा जाता है जिससे इसके हिन्दी होने का भ्रम होता है. वस्तुतः उर्दू के पीछे सांप्रदायिक हिन्दी द्रोही मानसिकता को देखते हुए इसे हिन्दी से इतर पहचान दिया जाना बंद कर हिन्दी में ही विलीन होने दिया जाना चाहिए.

शनिवार, 9 अक्टूबर 2010

हिंदी शब्द सलिला : २ ------ संजीव 'सलिल'

हिंदी शब्द सलिला : २

संजीव 'सलिल'

*
हिंदी शब्द-सलिला में संकलित शब्दों में संशोधन, परिवर्तन, परिवर्धन हेतु सुझाव तथा सहयोग सादर आमंत्रित है.
(संकेत : अ.-अव्यय, अर. अरबी, अक्रि.-अकर्मक क्रिया, अप्र.-अप्रचलित, अर्थ.-अर्थशास्त्र, अलं.- अलंकार, अल्प-अल्प (लघुरूप) सूचक, आ.-आधुनिक, आयु.-आयुर्वेद, इ.-इत्यादि, इब.-इबरानी, उ. -उर्दू, उदा.-उदाहरण, उप.-उपसर्ग, उपनि.-उपनिषद, अं.-अंगिका, अंक.-अंकगणित, अंग.- अंग्रेजी, का.-कानून, काम.-कामशास्त्र, क्व.-क्वचित, ग.-गणित, गी.-गीता, गीता.-गीतावली, तुलसी-कृत, ग्रा.-ग्राम्य, ग्री.-ग्रीक., चि.-चित्रकला, छ.-छतीसगढ़ी, छं.-छंद, ज.-जर्मन, जै.-जैन साहित्य, ज्या.-ज्यामिति, ज्यो.-ज्योतिष, तं.-तंत्रशास्त्र, ति.-तिब्बती, तिर.-तिरस्कारसूचक, दे.-देशज, देव.-देवनागरी, ना.-नाटक, न्या.-न्याय, पा.-पाली, पारा.- पाराशर संहिता, पु.-पुराण, पुल.-पुल्लिंग, पुर्त. पुर्तगाली, पुरा.-पुरातत्व, प्र.-प्रत्यय, प्रा.-प्राचीन, प्राक.-प्राकृत, फा.-फ़ारसी, फ्रे.-फ्रेंच, ब.-बघेली, बर.-बर्मी, बहु.-बहुवचन, बि.-बिहारी, बुं.-बुन्देलखंडी, बृ.-बृहत्संहिता, बृज.-बृजभाषा  बो.-बोलचाल, बौ.-बौद्ध, बं.-बांग्ला/बंगाली, भाग.-भागवत/श्रीमद्भागवत, भूक्रि.-भूतकालिक क्रिया, मनु.-मनुस्मृति, महा.-महाभारत, मी.-मीमांसा, मु.-मुसलमान/नी, मुहा. -मुहावरा,  यू.-यूनानी, यूरो.-यूरोपीय, योग.योगशास्त्र, रा.-रामचन्द्रिका, केशवदस-कृत, रामा.- रामचरितमानस-तुलसीकृत, रा.-पृथ्वीराज रासो, ला.-लाक्षणिक, लै.-लैटिन, लो.-लोकमान्य/लोक में प्रचलित, वा.-वाक्य, वि.-विशेषण, विद.-विदुरनीति, विद्या.-विद्यापति, विरु.-विरुद्धार्थी, वे.-वेदान्त, वै.-वैदिक, व्यं.-व्यंग्य, व्या.-व्याकरण, शुक्र.-शुक्रनीति, सं.-संस्कृत, सक्रि.-सकर्मक क्रिया, समा. -समानार्थी, सर्व.-सर्वनाम, सा.-साहित्य/साहित्यिक, सां.-सांस्कृतिक, सू.-सूफीमत, स्त्री.-स्त्रीलिंग, स्मृ.-स्मृतिग्रन्थ, ह.-हरिवंश पुराण, हिं.-हिंदी.)     

अ से आरम्भ होनेवाले शब्द: २ 

अकथ - वि., दे., अकथ्य.
अकथनीय - वि., सं., जिसे कहा न जा सके, अकथ्य.
अकथित - वि., सं., जो न कहा गया हो, अनुक्त, गौड़ (कर्म.-व्या.) .
अकथ्य - वि., सं., जो कहा न जा सके, कथन के अयोग्य, अकथनीय, कहने की शक्ति/मर्यादा के बाहर.
अकद - पु., दे.,
अकधक् - पु., आगा-पीछा, भला-बुरा, आशंका.
अकनना - सक्रि., कान लगाना, आहत लेना, सुनना.
अकना - अक्रि.,घबड़ाना.
अकनिष्ठ - वि., सं., जो सबसे छोटा न हो, जिससे छोटा अन्य हो, पु. बुद्ध, बौद्ध देव, वर्ग विशेष.
अकन्या - स्त्री., सं., कौमार्य खो चुकी कन्या.
अकबक - पु., अंड-बंड बातें, ऊटपटाँग बातें, प्रलाप, सुध-बुध खोकर बडबड़ाना, चिंता, खटका. वि. चकित, निस्तब्ध.
अकबकाना - अक्रि., भौंचक्का होना, घबराना.
अकबर - वि., अ., बहुत बड़ा, महत्तर. भारत के मुग़ल राजवंश का तीसरा बादशाह १५४२-१६०५ई.. 
अकबरी - अकबर द्वारा चलाया गया, अकबर संबंधी, बेमेल (विवाह). स्त्री. एक मिठाई, लकड़ी पर की जानेवाली एक तरह की नक्काशी, -गज, पु., दे. गज इलाही.
अकबाल - पु., दे., इकबाल.
अकर - वि., सं., बिना हाथ का, लूला, कर रहित, कर से मुक्त, बिना महसूल का, दुष्कर, निष्क्रिय, जो काम न कर रहा हो.
अकरकरा - पु., आयुर्वेदिक वनस्पति, जड़ी-बूटी, दवा के काम आनेवाला एक पौधा, आकरकरहा.
अकरखना - सक्रि., आकृष्ट करना, खींचना-तानना.
अकरण - वि. सं., इन्द्रिय-रहित, विदेह, परमात्मा, अकृत्रिम, स्वाभाविक. अकारण, कारणहीन, जिसका करना अनुचित या कठिन हो. पु. कुछ न करना, कर्म का अभाव.
अकरणि - स्त्री., सं., असफलता, विफलता, नैराश्य.
अकरणीय - वि., सं., न करने योग्य. 
अकरन - वि., अकारण, अकरणीय.
अकरनीय - वि., दे., अकरणीय. 
अकरब - पु., अ., बिच्छू, वृश्चिक राशि, घोडा जिसके मुँह पर श्वेत रोमराशि के मध्य दूसरे रंग के रोयें हों.
अकरा - स्त्री., सं., आमलकी. वि., बहुमूल्य, खरा, चोखा.
अकराथ - वि., व्यर्थ, निष्प्रयोजन, अकारण, बिना कारण के, अहैतुक.                            
अकराम - पु., अ., अनुग्रह, बख्शीश, ()करम' का बहु., इनाम-अकराम).
अकराल - वि., सं., जो भयंकर न हो, सुन्दर, सौम्य. विरु. कराल, भयानक.
अकरास - पु., सुस्ती, आलस्य, अँगडाई.
अकरासू - वि., स्त्री., गर्भवती, जिसे हमल हो.

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                                                                                ....... निरंतर 
संस्कारधानी जबलपुर ९.१०.२०१०

गुरुवार, 30 सितंबर 2010

सामयिक कविता: फेर समय का........ संजीव 'सलिल'

सामयिक कविता:

फेर समय का........

संजीव 'सलिल'
*
फेर समय का ईश्वर को भी बना गया- देखो फरियादी.
फेर समय का मनुज कर रहा निज घर की खुद ही बर्बादी..
फेर समय का आशंका, भय, डर सारे भारत पर हावी.
फेर समय का चैन मिला जब सुना फैसला, हुई मुनादी..

फेर समय का कोई न जीता और न हारा कोई यहाँ पर.
फेर समय का वहीं रहेंगे राम, रहे हैं अभी जहाँ पर..
फेर समय का ढाँचा टूटा, अब न दुबारा बन पायेगा.
फेर समय का न्यायालय से खुश न कोई भी रह पायेगा..

फेर समय का यह विवाद अब लखनऊ से दिल्ली जायेगा.
फेर समय का आम आदमी देख ठगा सा रह जायेगा..
फेर समय का फिर पचास सालों तक यूँ ही वाद चलेगा.
फेर समय का नासमझी का चलन देश को पुनः छलेगा..

फेर समय का नेताओं की फितरत अब भी वही रहेगी.
फेर समय का देश-प्रेम की चाहत अब भी नहीं जगेगी..
फेर समय का जातिवाद-दलवाद अभी भी नहीं मिटेगा.
फेर समय का धर्म और मजहब में मानव पुनः बँटेगा..



फेर समय का काले कोटोंवाले फिर से छा जायेंगे.
फेर समय का भक्तों से भगवान घिरेंगे-घबराएंगे..
फेर समय का सच-झूठे की परख तराजू तौल करेगी.
फेर समय का पट्टी बांधे आँख ज़ख्म फिर हरा करेगी..



फेर समय का ईश्वर-अल्लाह, हिन्दू-मुस्लिम एक न होंगे.
फेर समय का भक्त और बंदे झगड़ेंगे, नेक न होंगे..
फेर समय का सच के वधिक अवध को अब भी नहीं तजेंगे.
फेर समय का छुरी बगल में लेकर नेता राम भजेंगे..


फेर समय का अख़बारों-टी.व्ही. पर झूठ कहा जायेगा.
फेर समय का पंडों-मुल्लों से इंसान छला जायेगा..
फेर समय का कब बदलेगा कोई तो यह हमें बताये?
फेर समय का भूल सियासत काश ज़िंदगी नगमे गाये..


फेर समय का राम-राम कह गले राम-रहमान मिल सकें.
फेर समय का रसनिधि से रसलीन मिलें रसखान खिल सकें..
फेर समय का इंसानों को भला-बुरा कह कब परखेगा?
फेर समय का गुणवानों को आदर देकर कब निरखेगा?


फेर समय का अब न सियासत के हाथों हम बनें खिलौने.
फेर समय का अब न किसी के घर में खाली रहें भगौने..
फेर समय का भारतवासी मिल भारत की जय गायें अब.
फेर समय का हिन्दी हो जगवाणी इस पर बलि जाएँ सब..
*
Acharya Sanjiv Salil

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शनिवार, 25 सितंबर 2010

नव गीत: कैसी नादानी??... संजीव 'सलिल'

नव गीत:

कैसी नादानी??...

संजीव 'सलिल'
*
मानव तो रोके न अपनी मनमानी.
'रुको' कहे प्रकृति से कैसी नादानी??...
*
जंगल सब काट दिये
दरके पहाड़.
नदियाँ भी दूषित कीं-
किया नहीं लाड़..
गलती को ले सुधार, कर मत शैतानी.
'रुको' कहे प्रकृति से कैसी नादानी??...
*
पाट दिये ताल सभी
बना दीं इमारत.
धूल-धुंआ-शोर करे
प्रकृति को हताहत..
घायल ऋतु-चक्र हुआ, जो है लासानी...
'रुको' कहे प्रकृति से कैसी नादानी??...
*
पावस ही लाता है
हर्ष सुख हुलास.
तूने खुद नष्ट किया
अपना मधु-मास..
मेघ बजें, कहें सुधर, बचा 'सलिल' पानी.
'रुको' कहे प्रकृति से कैसी नादानी??...
*

सोमवार, 20 सितंबर 2010

एक और मुक्तिका: माँ! अधूरी मेरी बन्दगी रह गई संजीव 'सलिल'

एक और मुक्तिका:
                                                                                        माँ! अधूरी मेरी बन्दगी रह गई

संजीव 'सलिल'
*
ज़िंदगी में तुम्हारी कमी रह गई.
अब न पहले सी यह ज़िंदगी रह गई..

मन ने रोका बहुत, तन ने टोका बहुत.
आस खो, आँख में पुरनमी रह गई..

दिल की धड़कन बढ़ी, दिल की धड़कन थमी.
दिल पे बिजली गिरी कि गिरी रह गई..

साँस जो थम गई तो थमी रह गई.
आँख जो मुंद गई तो मुंदी रह गई..

मौन वाणी हुई, मौन ही रह गई.
फिर कहर में कसर कौन सी रह गई?.

दीप पल में बुझे, शीश पल में झुके.
ज़िन्दगी बिन कहे अनकही कह गई..

माँ! अधूरी मेरी बन्दगी रह गई.
ज़िन्दगी में तुम्हारी कमी रह गई..

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शनिवार, 18 सितंबर 2010

दोहा सलिला : भू-नभ सीता-राम हैं... संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला :

भू-नभ सीता-राम हैं...

संजीव 'सलिल' 

*     
भू-नभ सीता-राम हैं, दूरी जलधि अपार.
कहाँ पवनसुत जो करें, पल में अंतर पार..

चंदा वरकर चाँदनी, हुई सुहागिन नार.
भू मैके आ विरह सह, पड़ी पीत-बीमार..

दीपावली मना रहा, जग- जलता है दीप.
श्री-प्रकाश आशीष पा, मन मणि मुक्ता सीप..

जिनके चरण पखार कर, जग हो जाता धन्य.
वे महेश तुझ पर सदय,'सलिल' न उन सा अन्य..

दो वेदों सम पंक्ति दो, चतुश्वर्ण पग चार.
निशि-दिन सी चौबिस कला, दोहा रस की धार..

नर का क्या, जड़ मर गया, ज्यों तोडी मर्याद.
नारी बिन जीवन 'सलिल', निरुद्देश्य फ़रियाद..

खरे-खरे प्रतिमान रच, जी पायें सौ वर्ष. .
जीवन बगिया में खिलें, पुष्प सफलता-हर्ष..

चित्र गुप्त जिसका सकें, उसे 'सलिल' पहचान.
काया-स्थित ब्रम्ह ही, कर्म देव भगवान.
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Acharya Sanjiv Salil

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मंगलवार, 14 सितंबर 2010

नवगीत: अपना हर पल है हिन्दीमय .... संजीव 'सलिल'

नवगीत: 
संजीव 'सलिल'
*
*
अपना हर पल
है हिन्दीमय
एक दिवस
क्या खाक मनाएँ?

बोलें-लिखें
नित्य अंग्रेजी
जो वे
एक दिवस जय गाएँ...
                                                                                                 
*

निज भाषा को
कहते पिछडी.
पर भाषा
उन्नत बतलाते.

घरवाली से
आँख फेरकर
देख पडोसन को
ललचाते.

ऐसों की
जमात में बोलो,
हम कैसे
शामिल हो जाएँ?...

                                                                                                   हिंदी है
दासों की बोली,
अंग्रेजी शासक
की भाषा.

जिसकी ऐसी
गलत सोच है,
उससे क्या
पालें हम आशा?

इन जयचंदों
की खातिर
हिंदीसुत
पृथ्वीराज बन जाएँ...

ध्वनिविज्ञान-
नियम हिंदी के
शब्द-शब्द में
माने जाते.

कुछ लिख,
कुछ का कुछ पढने की
रीत न हम
हिंदी में पाते.

वैज्ञानिक लिपि,
उच्चारण भी
शब्द-अर्थ में
साम्य बताएँ...

अलंकार,
रस, छंद बिम्ब,
शक्तियाँ शब्द की
बिम्ब अनूठे.

नहीं किसी
भाषा में मिलते,
दावे करलें
चाहे झूठे.

देश-विदेशों में
हिन्दीभाषी
दिन-प्रतिदिन
बढ़ते जाएँ...

अन्तरिक्ष में
संप्रेषण की
भाषा हिंदी
सबसे उत्तम.

सूक्ष्म और
विस्तृत वर्णन में
हिंदी है
सर्वाधिक
सक्षम.

हिंदी भावी
जग-वाणी है
निज आत्मा में
'सलिल' बसाएँ...

********************
-दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

शुक्रवार, 10 सितंबर 2010

मुक्तिका: कहीं निगाह... संजीव 'सलिल'

                        मुक्तिका::                                                           कहीं निगाह...

संजीव 'सलिल'
*
कहीं निगाह सनम और कहीं निशाना है.
हज़ार झूठ सही, प्यार का फसाना है..

न बाप-माँ की है चिंता, न भाइयों का डर.
करो सलाम ससुर को, वो मालखाना है..

पड़े जो काम तो तू बाप गधे को  कह दे.
न स्वार्थ हो तो गधा बाप को बताना है..

जुलुम की उनके कोई इन्तेहां नहीं लोगों
मेरी रसोई के आगे रखा पाखाना है..

किसी का कौन कभी हो सका या होता है?
एके आये 'सलिल' औ' अकेले जाना है..

चढ़ाये रहता है चश्मा जो आँख पे दिन भर.
सचाई ये है कि बन्दा वो 'सलिल' काना है..

गुलाब दे रहे हम तो न समझो प्यार हुआ.
'सलिल' कली को कभी खार भी चुभाना है..

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दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम


Acharya Sanjiv Salil

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गुरुवार, 9 सितंबर 2010

दोहा सलिला : भू-नभ सीता-राम हैं ------संजीव 'सलिल'


दोहा सलिला :                                                                                     

संजीव 'सलिल' 

*
भू-नभ सीता-राम हैं, दूरी जलधि अपार.
कहाँ पवनसुत जो करें, पल में अंतर पार..

चंदा वरकर चाँदनी, हुई सुहागिन नार.
भू मैके आ विरह सह, पड़ी पीत-बीमार..

दीपावली मना रहा जग, जलता है दीप.
श्री-प्रकाश आशीष पा, मन मणि मुक्ता सीप.

जिनके चरण पखार कर, जग हो जाता धन्य.
वे महेश तुझ पर सदय,'सलिल' न उन सा अन्य..

दो वेदों सम पंक्ति दो, चतुश्वर्ण पग चार.
निशि-दिन सी चौबिस कला, दोहा रस की धार..

नर का क्या, जड़ मर गया, ज्यों तोडी मर्याद.
नारी बिन जीवन 'सलिल', निरुद्देश्य फ़रियाद..


जिनके चरण पखार कर, जग हो जाता धन्य.
वे महेश तुझ पर सदय,'सलिल'न उन सा अन्य..

 खरे-खरे प्रतिमान रच, जी पायें सौ वर्ष.
जीवन बगिया में खिलें, पुष्प सफलता-हर्ष..

चित्र गुप्त जिसका सकें, उसे 'सलिल' पहचान.                                      
काया-स्थित ब्रम्ह ही, कर्म देव भगवान.

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Acharya Sanjiv Salil

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मुक्तिका: प्रश्न वन संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
प्रश्न वन

संजीव 'सलिल'
*
प्रश्न वन में रह रहे हैं आजकल.
उत्तरों बिन दह रहे हैं आजकल..

शिकायत-शिकवा किसी से क्या करें?
जो अचल थे बह रहे आजकल..

सत्य का वध नुक्कड़ों-संसद में कर.
अवध खुद को कह रहे हैं आजकल..

काबिले-तारीफ हिम्मत आपकी.
सच को चुप रह सह रहे हैं आजकल..

लाये खाली हाथ भरकर जायेंगे.
जर-जमीनें गह रहे हैं आजकल..

ज्यों की त्यों चादर रहेगी किस तरह?
थान अनगिन तह रहे हैं आजकल..

ढाई आखर पढ़ न पाये जो 'सलिल'
सियासत में शह रहे हैं आजकल..

'सलिल' सदियों में बनाये मूल्य जो
बिखर-पल में ढह रहे हैं आजकल..

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Acharya Sanjiv Salil

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कविता: जीवन अँगना को महकाया संजीव 'सलिल'

कविता:

जीवन अँगना को महकाया

संजीव 'सलिल'
*
*
जीवन अँगना को महकाया
श्वास-बेल पर खिली कली की
स्नेह-सुरभि ने.
कली हँसी तो फ़ैली खुशबू
स्वर्ग हुआ घर.
कली बने नन्हीं सी गुडिया.
ममता, वात्सल्य की पुडिया.
शुभ्र-नर्म गोला कपास का,
किरण पुंज सोनल उजास का.
उगे कली के हाथ-पैर फिर
उठी, बैठ, गिर, खड़ी हुई वह.
ठुमक-ठुमक छन-छननन-छनछन
अँगना बजी पैंजन प्यारी
दादी-नानी थीं बलिहारी.
*
कली उड़ी फुर्र... बनकर बुलबुल
पा मयूर-पंख हँस-झूमी.
कोमल पद, संकल्प ध्रुव सदृश
नील-गगन को देख मचलती
आभा नभ को नाप रही थी.
नवल पंखुडियाँ ऊगीं खाकी
मुद्रा-छवि थी अब की बाँकी.
थाम हाथ में बड़ी रायफल
कली निशाना साध रही थी.
छननन घुँघरू, धाँय निशाना
ता-ता-थैया, दायें-बायें
लास-हास, संकल्प-शौर्य भी
कली लिख रही नयी कहानी
बहे नर्मदा में ज्यों पानी.
बाधाओं की श्याम शिलाएँ
संगमरमरी शिला सफलता
कोशिश धुंआधार की धरा
संकल्पों का सुदृढ़ किनारा.
*
कली न रुकती,
कली न झुकती,
कली न थकती,
कली न चुकती.
गुप-चुप, गुप-चुप बहती जाती.
नित नव मंजिल गहती जाती.
कली हँसी पुष्पायी आशा.
सफल साधना, फलित प्रार्थना.
विनत वन्दना, अथक अर्चना.
नव निहारिका, तरुण तारिका.
कली नापती नील गगन को.
व्यस्त अनवरत लक्ष्य-चयन में.
माली-मलिन मौन मनायें
कोमल पग में चुभें न काँटें.
दैव सफलता उसको बाँटें.
पुष्पित हो, सुषमा जग देखे
अपनी किस्मत वह खुद लेखे.
******************************
टीप : बेटी तुहिना (हनी) का एन.सी.सी. थल सैनिक कैम्प में चयन होने पर रेल-यात्रा के मध्य १४.९.२००६ को हुई कविता.
------- दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

शनिवार, 4 सितंबर 2010

मुक्तिका: उज्जवल भविष्य संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:



उज्जवल भविष्य



संजीव 'सलिल'

*

उज्जवल भविष्य सामने अँधियार नहीं है.

कोशिश का नतीजा है ये उपहार नहीं है..



कोशिश की कशिश राह के रोड़ों को हटाती.

पग चूम ले मंजिल तो कुछ उपकार नहीं है..



गर ठान लें जमीन पे ले आयें आसमान.

ये सच है इसमें तनिक अहंकार नहीं है..



जम्हूरियत में खुद पे खुद सख्ती न करी तो

मिट जायेंगे और कुछ उपचार नहीं है..



मेहनतो-ईमां का ताका चलता हो जहाँ.

दुनिया में कहीं ऐसा तो बाज़ार नहीं है..



इंसान भी, शैतां भी, रब भी हैं हमीं यारब.

वर्ना तो हम खिलौने हैं कुम्हार नहीं हैं..



दिल मिल गए तो जात-धर्म कौन पूछता?

दिल ना मिला तो 'सलिल' प्यार प्यार नहीं है..



जगे हुए ज़मीर का हर आदमी 'सलिल'

महका गुले-गुलाब जिसमें खार नहीं है..



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divyanarmada.blogspot.com

बुधवार, 1 सितंबर 2010

लघुकथा: मोहनभोग संजीव वर्मा 'सलिल'

लघुकथा: मोहनभोग ---संजीव वर्मा 'सलिल'


*















*
'हे प्रभु! क्षमा करना, आज मैं आपके लिये भोग नहीं ला पाया. मजबूरी में खाली हाथों पूजा करना पड़ रही है.' किसी भक्त का कातर स्वर सुनकर मैंने पीछे मुड़कर देखा.

अरे! ये तो वही सज्जन हैं जिन्होंने सवेरे मेरे साथ ही मिष्ठान्न भंडार से भोग के लिये मिठाई ली थी फिर...? मुझसे न रहा गया, पूछ बैठा: ''भाई जी! आज सवेरे हमने साथ-साथ ही भगवान के भोग के लिये मिष्ठान्न लिया था न? फिर आप खाली हाथ कैसे? वह मिठाई क्या हुई?''

'क्या बताऊँ?, आपके बाद मिष्ठान्न के पैसे देकर मंदिर की ओर आ ही रहा था कि देखा किरणे की एक दूकान में भीड़ लगी है और लोग एक छोटे से बच्चे को बुरी तरह मार रहे हैं. मैंने रुककर कारण पूछा तो पता चला कि वह एक डबलरोटी चुराकर भाग रहा था. लोगों को रोककर बच्चे को चुप किया और प्यार से पूछा तो उसने कहा कि उसने सच ही डबलरोटी बिना पैसे दिये ले ली थी. . रुपये-पैसों को उसने हाथ नहीं लगाया क्योंकि वह चोर नहीं है...मजबूरी में डबल रोटी इसलिए लेना पड़ा कि मजदूर पिता तीन दिन से बुखार के कारण काम पर नहीं जा सके...घर में अनाज का एक दाना भी नहीं बचा... आज माँ बीमार पिता और छोटी बहन को घर में छोड़कर काम पर गयी कि शाम को खाने के लिये कुछ ला सके....छोटी बहिन रो-रोकर जान दिये दे रही थी... सबसे मदद की गुहार की.. किसी ने कोई सहायता नहीं की तो मजबूरी में डबलरोटी...'  और वह फिर रोने लगा...

'मैं सारी स्थिति समझ गया... एक निर्धन असहाय भूख के मारे की मदद न कर सकनेवाले ईमानदारी के ठेकेदार बनकर दंड दे रहे थे. मैंने दुकानदार को पैसे देकर बच्चे को डबलरोटी खरीदवाई और वह मिठाई का डिब्बा भी उसे ही देकर घर भेज दिया. मंदिर बंद होने का समय होने के कारण दुबारा भोग के लिये मिष्ठान्न नहीं ले सका और आप-धापी में सीधे मंदिर आ गया, इस कारण मोहन को भोग नहीं लगा पा रहा.'

''नहीं मेरे भाई!, हम सब तो मोहन की पाषाण प्रतिमा को ही पूजते रह गए... वास्तव में मोहन के जीवंत विग्रह को तो आपने ही भोग लगाया है.'' मेरे मुँह से निकला...प्रभु की मूर्ति पर दृष्टि पडी तो देखा वे मंद-मंद मुस्कुरा रहे हैं.

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दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

दोहा दुनिया : छाया से वार्ता संजीव 'सलिल'

दोहा दुनिया :

छाया से वार्ता

संजीव 'सलिल'
 *














*
अचल मचल अविचल विचल, सचल रखे चल साथ.
'सलिल' चलाचल नित सतत, जोड़ हाथ नत माथ..
*
प्रतिभा से छाया हुई, गुपचुप एकाकार.
देख न पाये इसलिए, छाया का आकार..
*
छाया कभी डरी नहीं, तम उसका विस्तार.
छाया बिन कैसे 'सलिल', तम का हो विस्तार..
*
कर प्रकाश का समादर, सिमट रहे हो मौन.
सन्नाटे का स्वर मुखर, सुना नहीं- है कौन?.
*
छाया की माया प्रबल, बली हुए भयभीत.
माया की छाया जहाँ, होती नीत-अनीत..
*
मायापति इंगित करें, माया दे मति फेर.
सुमति-कुमति सम्मति करें, यह कैसा अंधेर?.
*
अंतरिक्ष के मंच पर, कठपुतली है सृष्टि.
छाया-माया ही ध्खीं, गयी जहाँ तक दृष्टि..
*
दोनों रवि-राकेश हैं, छायापति मतिमान.
एक हुआ रजनीश तो, दूजा है दिनमान..
*
मायापति की गा सका, पूरी महिमा कौन?
जग में भरमाया फिरे, माया-मारा मौन..
*
छाया छाए तो मिले, प्रखर धूप से मुक्ति.
आए लाए उजाला, जाए जगा अनुरक्ति..
*
छाया कहती है करो, सकल काम निष्काम.
जब न रहे छाया करो, तब जी भर विश्राम..
*
छाया के रहते रहे, हर आराम हराम.
छाया बिन श्री राम भी, करें 'सलिल' आराम..
*
परछाईं-साया कहो, या शैडो दो नाम.
'सलिल' सत्य है एक यह, छाया रही अनाम..
*
दिव्यनर्मदा.ब्लॉगस्पोट.कॉम 

मंगलवार, 31 अगस्त 2010

गीत : स्वागत है... संजीव 'सलिल' *


गीत :

स्वागत है...

संजीव 'सलिल'
*

















*
पीर-दर्द-दुःख-कष्ट हमारे द्वार पधारो स्वागत है.
हम बिगड़े हैं जनम-जनम के, हमें सुधारो स्वागत है......
*
दिव्य विरासत भूल गए हम, दीनबंधु बन जाने की.
रूखी-सूखी जो मिल जाए, साथ बाँटकर खाने की..
मुट्ठी भर तंदुल खाकर, त्रैलोक्य दान कर देते थे.
भार भाई, माँ-बाप हुए, क्यों सोचें गले लगाने की?..

संबंधों के अनुबंधों-प्रतिबंधों तुम पर लानत है.
हम बिगड़े हैं जनम-जनम के, हमें सुधारो स्वागत है......
*
सात जन्म तक साथ निभाते, सप्त-पदी सोपान अमर.
ले तलाक क्यों हार रहे हैं, श्वास-आस निज स्नेह-समर?
मुँह बोले रिश्तों की महिमा 'सलिल' हो रही अनजानी-
मनमानी कलियों सँग करते, माली-काँटे, फूल-भ्रमर.
सत्य-शांति, सौन्दर्य-शील की, आयी सचमुच शामत है.
हम बिगड़े हैं जनम-जनम के, हमें सुधारो स्वागत है......
*

वसुधा सकल कुटुंब हमारा, विश्व नीड़वत माना था.
सबके सुख, कल्याण, सुरक्षा में निज सुख अनुमाना था..
सत-शिव-सुन्दर रूप स्वयं का, आज हो रहा अनजाना-
आत्म-दीप बिन त्याग-तेल, तम निश्चय हम पर छाना था.

चेत न पाया व्हेतन मन, दर पर विनाश ही आगत है.
हम बिगड़े हैं जनम-जनम के, हमें सुधारो स्वागत है......
*
पंचतत्व के देवों को हम दानव बनकर मार रहे.
प्रकृति मातु को भोग्या कहकर, अपनी लाज उघार रहे.
धैर्य टूटता काल-चक्र का, असगुन और अमंगल नित-
पर्यावरण प्रदूषण की हर चेतावनी बिसार रहे.

दोष किसी को दें, विनाश में अपने स्वयं 'सलिल' रत हैं.
हम बिगड़े हैं जनम-जनम के, हमें सुधारो स्वागत है......

**************
दिव्यनर्मदा.ब्लॉगस्पोट.कॉम

बुधवार, 25 अगस्त 2010

गीत: आराम चाहिए... संजीव 'सलिल'

गीत:

आराम चाहिए...

संजीव 'सलिल'
*













*
हम भारत के जन-प्रतिनिधि हैं
हमको हर आराम चाहिए.....
*
प्रजातंत्र के बादशाह हम,
शाहों में भी शहंशाह हम.
दुष्कर्मों से काले चेहरे
करते खुद पर वाह-वाह हम.
सेवा तज मेवा के पीछे-
दौड़ें, ऊँचा दाम चाहिए.
हम भारत के जन-प्रतिनिधि हैं
हमको हर आराम चाहिए.....
*
पुरखे श्रमिक-किसान रहे हैं,
मेहनतकश इन्सान रहे हैं.
हम तिकड़मी,घोर छल-छंदी-
धन-दौलत अरमान रहे हैं.
देश भाड़ में जाये हमें क्या?
सुविधाओं संग काम चाहिए.
हम भारत के जन-प्रतिनिधि हैं
हमको हर आराम चाहिए.....
*
स्वार्थ साधते सदा प्रशासक.
शांति-व्यवस्था के खुद नाशक.
अधिनायक हैं लोकतंत्र के-
हम-वे दुश्मन से भी घातक.
अवसरवादी हैं हम पक्के
लेन-देन  बेनाम चाहिए.
हम भारत के जन-प्रतिनिधि हैं
हमको हर आराम चाहिए.....
*
सौदे करते बेच देश-हित,
घपले-घोटाले करते नित.
जो चाहो वह काम कराओ-
पट भी अपनी, अपनी ही चित.
गिरगिट जैसे रंग बदलते-
हमको ऐश तमाम चाहिए.
हम भारत के जन-प्रतिनिधि हैं
हमको हर आराम चाहिए.....
*
वादे करते, तुरत भुलाते.
हर अवसर को लपक भुनाते.
हो चुनाव तो जनता ईश्वर-
जीत उन्हें ठेंगा दिखलाते.
जन्म-सिद्ध अधिकार लूटना
'सलिल' स्वर्ग सुख-धाम चाहिए.
हम भारत के जन-प्रतिनिधि हैं
हमको हर आराम चाहिए.....
****************
दिव्यनर्मदा.ब्लॉगस्पोट.कॉम

*