पुरोवाक्-
स्तोत्र कनकधारा दारिद्रय हरे सारा
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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'स्तूयते अनेन इति स्तोत्रम्' किसी देवी-देवता की स्तुति में लिखे गये काव्य को स्तोत्र कहा जाता है। स्तोत्र की रचना देवी-देवता को प्रसन्न कर इष्ट फल की प्राप्ति हेतु की जाती है। स्तोत्र का वैशिष्ट्य माधुर्य, लयात्मकता और गेयता है। स्तोत्र रचयिता के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती कथ्य को कहने के लिए छंद का चयन करना, छंद के विधान का पालन करते हुए सटीक शब्द चयन करना होता है ताकि लय और गति-यति में ताल-मेल बना रहे।
स्तोत्र पवित्र धार्मिक साहित्य है. इसकी रचना तथा पाठ के लिए स्थान को स्वच्छ कर स्वयं स्नान आदि कर, पवित्र आसन पर बैठकर पृथ्वी देवी, दिशाओं तथा विघ्नेश्वर श्री गणेश व्को इष्ट देव को प्रणाम कर सकल स्तोत्र का पाठ एकाग्रचित्त होकर बिना रुके करना चाहिए। पाठ पूर्ण होने पर इष्ट का ध्यान के जाने-अनजाने हुई त्रुटि हेतु क्षमा प्रार्थना व प्रणाम करना चाहिए।
कुछ प्रमुख स्तोत्र रावण रचित शिव तांडव स्तोत्र, गंधर्वराज पुष्पदंत द्वारा रचित शिव महिम्न स्तोत्र,बुधकौशिक ऋषि रचित राम रक्षा स्तोत्र, इंद्र रचित महालक्ष्यमष्टक स्तोत्र, आदि शंकराचार्य रचित शिव पंचाक्षर स्तोत्र एवं कनकधारा स्तोत्र प्रमुख हैं।
किंवदंती है कि आदि शंकराचार्य ने इस कनकधारा स्तोत्र द्वारा श्री लक्ष्मी जी को प्रसन्न कर स्वर्ण वृष्टि कराई थी। इसके पाठ हेतु विशेष विधान या बंधन नहीं है। इसके नियमित पाठ से लक्ष्मी मैया प्रसन्न होकर सुख-समृद्धि देती हैं। सुविधा हो तो कनकधारा यंत्र स्थापित कर उसके पूजन पश्चात् स्तोत्रपाठ कर समापन के समय इष्ट को प्रणाम करना चाहिए। दीपावली की रात्रि में सिंह तथा वृषभ लग्न में इसका पाठ विशेष फलदाई कहा गया है।
इन स्तोत्रों की रचना सुरवाणी संस्कृत में की गई है. वर्तमान समय में शिक्षा का माध्यम हिंदी, अंग्रेजी होने के कारण संस्कृत पढ़ना-समझना-बोलना सहज नहीं है। इसलिए प्रभु चित्रगुप्त और माता शारदा की प्रेरणा से श्री अवधी हरि जी ने कनकधारा स्तोत्र का हिंदी पद्यानुवाद महारौद्र जातीय सुखदावत छंद में किया है। इस लोकोपयोगी कार्य हेतु वे साधुवाद के पात्र है।
बाइस श्लोकी इस स्तोत्र के आरंभ में श्री हरि तथा श्री लक्ष्मी के पारस्परिक अनुराग का इंगित करते हुए कहा गया है कि लक्ष्मी जी की कटाक्ष लीला तथा मनोहर मुखछवि मंगलदाई हो। श्री हरि के शत्रु मुर को मोहनेवाली, नीलकमल की सहोदरा, श्री हरि की अर्धांगिनी, हरि-ह्रदय में सुशोभित, सिंधुतनया, हरि प्रेमिका, कमलासना, केलिनिपुणा, त्रिदेवी, चंद्रामृत-भगिनी, देव पूज्या, ऐश्वर्य दायिनी, पापनाशिनी, क्षीरसागरसुता, भगवती रमा का गुणानुवाद कर, उनकी कृपादृष्टि की कामना करते हुए स्तोत्र का समापन हुआ है।
संस्कृत स्त्रोतों की विशेषता आलंकारिक पदावली है। इनमें रूपकों और बिम्बों का प्रयोग इतना अधिक होता है कि मूल अर्थ को ग्रहण कर पाने में मस्तिष्क का व्यायाम हो जाता है। अति क्लिष्टता ही लोक संस्कृत से विमुख हो गया और वह केवल विद्वानों तक सिमित होकर रह गई।
हर भाषा का अपना संस्कार और प्रवृत्ति होती है। एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद करते समय सर्वाधिक कठिन चुनौती दोनों भाषाओँ, रचना के मूल कथ्य, उसके अर्थ और अनुवादित भाषा में अभिव्यक्त कथ्य-अर्थ में सुसंगति स्थापित कर पाना है। यह चुनौती पद्यानुवाद करते समय अधिक कठिन हो जाती है चूँकि छंद विधान का भी पालन करना होता है। अनुवाद सरल, सहज, बोधगम्य और लोक ग्राह्य होना भी आवश्यक है।
मुझे प्रसन्नता है कि श्री अवधी हरि इन चुनौतियों का सामना करते हुए कनकधारा स्तोत्र का सटीक हिंदी काव्यानुवाद करने में सफल हुए हैं। कई संस्कृत स्त्रोतों को हिंदी में काव्यानुवादित करने के अपने अनुभव के आधार पर मैं निस्संकोच कह सकता हूँ कि यह काव्यानुवाद केवल पुस्तकालयों का शोभावर्धक नहीं होगा। स्थानाभाव के कारण मैं मूल और अनुवाद के उदाहरण न देकर पाठकों को आश्वस्त करता हूँ कि इस स्तोत्रानुवाद को मूल की ही तरह तन्मयता और पवित्रतापूर्वक पढ़ें तो निश्चय ही श्री लक्ष्मी जी की कृपा पात्र होगी।
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