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सोमवार, 20 सितंबर 2010

मुक्तिका: आँख नभ पर जमी संजीव 'सलिल

मुक्तिका:
आँख नभ पर जमी

संजीव 'सलिल'
*
आँख नभ पर जमी तो जमी रह गई.
साँस भू की थमी तो थमी रह गई.
*
सुब्ह सूरज उगा, दोपहर में तपा.
साँझ ढलकर, निशा में नमी रह गई..
*
खेत, खलिहान, पनघट न चौपाल है.
गाँव में शेष अब, मातमी रह गई..
*
रंग पश्चिम का पूरब पे ऐसा चढ़ा.
असलियत छिप गई है, डमी रह गई..
*
जो कमाया गुमा, जो गँवाया मिला.
ज़िन्दगी में तुम्हारी, कमी रह गई..
*****************

शनिवार, 10 अप्रैल 2010

नवगीत: करो बुवाई... --संजीव 'सलिल'

नवगीत:
करो बुवाई...
संजीव 'सलिल'
*

खेत गोड़कर
करो बुवाई...
*
ऊसर-बंजर जमीं कड़ी है.
मँहगाई जी-जाल बड़ी है.
सच मुश्किल की आई घड़ी है.
नहीं पीर की कोई जडी है.
अब कोशिश की
हो पहुनाई.
खेत गोड़कर
करो बुवाई...
*
उगा खरपतवार कंटीला.
महका महुआ मदिर नशीला.
हुआ भोथरा कोशिश-कीला.
श्रम से कर धरती को गीला.
मिलकर गले
हँसो सब भाई.
खेत गोड़कर
करो बुवाई...
*
मत अपनी धरती को भूलो.
जड़ें जमीन हों तो नभ छूलो.
स्नेह-'सलिल' ले-देकर फूलो.
पेंगें भर-भर झूला झूलो.
घर-घर चैती
पड़े सुनाई.
खेत गोड़कर
करो बुवाई...
*
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com