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मंगलवार, 30 अप्रैल 2024

अप्रैल ३०, रासलीला, गीत, ग़ज़ल, लघुकथा, कोरोना, सॉनेट, परीक्षा, आदिमानव

सलिल सृजन अप्रैल ३०
सोनेट (इटेलीयन)
यह मेहनत करता, वह खाता,
यह पानी पी भूख मिटाता,
वह बोटी खा मौज मनाता,
यह मुश्किल से रोटी पाता।

यह मत दे, वह सत्ता पाता,
यह सरहद पर जान गँवाता,
वह घड़ियाली अश्रु बहाता,
यह उसके हित जान गँवाता।

यह श्रम; वह पूँजीपति; चित-पट,
इसे रौंदकर ठठा रह वह,
यह-वह दो पर अंत एक है।

यह बेरंग और वह गिरगिट,
बना रहा यह; मिटा रहा वह,
यह भी; वह भी राख शेष है।
३०.४.२०२४
•••
सॉनेट
आदिमानव
आदिमानव भूमिसुत था
नदी माता, नभ पिता कह
पवन पावक पूजता था
सलिल प्रता श्रद्धा विनत वह
उषा संध्या निशा रवि शशि
वृक्ष प्रति आभार माना
हो गईं अंबर दसों दिशि
भूख मिटने तलक खाना
छीनने या जोड़ने की
लत न उसने सीख पाली
बम बनाने फोड़ने की
उठाई थी कब भुजाली?
पुष्ट था खुश आदिमानव
तुष्ट था हँस आदिमानव
३०-४-२०२२
•••
सॉनेट
परीक्षा
पल पल नित्य परीक्षा होती
उठे बढ़े चल फिसल सम्हल कर
कदम कदम धर, विहँस पुलककर
इच्छा विजयी धैर्य न खोती।
अकरणीय क्या, क्या करना है?
खुद ही सोचो सही-गलत क्या?
आगत-अब क्या, रहा विगत क्या?
क्या तजना है, क्या वरना है?
भाग्य भोगना या लिखना है
कब किसके जैसे दिखना है
अब झुकना है, कब अड़ना है?
कोशिश फसल काटती-बोती
भाग्य भरोसे रहे न रोती
पल-पल नित्य परीक्षा होती।
ज्ञानगंगा
३०-४-२०२२
•••
***
कोरोना क्षणिका
*
काहे को रोना?
कोरो ना हाथ मिला
सत्कार सखे!
कोरोना झट
भेंट शत्रु को कर
उद्धार सखे!
*
को विद? पूछे
कोविद हँसकर
विद जी भागे
हाथ समेटे
गले न मिलते
करें नमस्ते!
*
गीत-अगीत
प्रगीत लिख रहे
गद्य गीत भी
गीतकार जी
गीत करे नीलाम
नवगीत जी
*
टाटा करते
हाय हाय रुचता
बाय बाय भी
बाटा पड़ते
हाय हाय करते
बाय फ्रैंड जी
*
केक लाओ जी!
फरमाइश सुन
पति जी हैरां
मी? ना बाबा
मीना! बाहर खड़ा
सिपाही मोटा
*
रस - हास्य, छंद वार्णिक षट्पदी, यति ५७५५७५, अलंकार - अनुप्रास, यमक, पुनरुक्ति, शक्ति - व्यंजना।
३०-४-२०२०
***
मुक्तक:
पाँव रख बढ़ते चलो तो रास्ता मिल जाएगा
कूक कोयल की सुनो नवगीत खुद बन जाएगा
सलिल लहरों में बसा है बिम्ब देखो हो मुदित
ख़ुशी होगी विपुल पल में, जन्म दिन मन जाएगा
२६-१०-२०१५
***
लघुकथा
अंगार
*
वह चिंतित थी, बेटा कुछ दिनों से घर में घुसा रहता, बाहर निकलने में डरता। उसने बेटे से कारण पूछा। पहले तो टालता रहा, फिर बताया उसकी एक सहपाठिनी भयादोहन कर रही है।
पहले तो पढ़ाई के नाम पर मिलना आरंभ किया, फिर चलभाष पर चित्र भेज कर प्रेम जताने लगी, मना करने पर अश्लील संदेश और खुद के निर्वसन चित्र भेजकर धमकी दी कि महिला थाने में शिकायत कर कैद करा देगी। बाहर निकलने पर उस लड़की के अन्य दोस्त मारपीट करते हैं।
स्त्री-विमर्श के मंच पर पुरुषों को हमेशा कटघरे में खड़ा करती आई थी वह। अभी भी पुत्र पर पूरा भरोसा नहीं कर पा रही थी। बेटे के मित्रों तथा अपने शुभेच्छुओं से- विमर्श कर उसने बेटे को अपराधियों को सजा दिलवाने का निर्णय लिया और बेटे को महाविद्यालय भेजा। उसके सोचे अनुसार उस लड़की और उसके यारों ने लड़के को घेर लिया। यह देखते ही उसका खून खौल उठा। उसने आव देखा न ताव, टूट पड़ी उन शोहदों पर, बेटे को अपने पीछे किया और पकड़ लिया उस लड़की को, ले गई पुलिस स्टेशन। उसने वकील को बुलाया और थाने में अपराध पंजीकृत करा दिया। आधुनिका का पतित चेहरा देखकर उसका चेहरा और आँखें हो रही थीं अंगार।
***
लघुकथा
भवानी
*
वह महाविद्यालय में अध्ययन कर रही थी। अवकाश में दादा-दादी से मिलने गाँव आई तो देखा जंगल काटकर, खेती नष्ट कर ठेकेदार रेत खुदाई करवा रहा है। वे वृक्ष जिनकी छाँह में उसने गुड़ियों को ब्याह रचाए थे, कन्नागोटी, पिट्टू और टीप रेस खेले थे, नौ दुर्गा व्रत के बाद कन्या भोज किया था और सदियों की शादी के बाद रो-रोकर उन्हें बिदा किया था अब कटनेवाले थे। इन्हीं झाड़ों की छाँह में पंचायत बैठती थी, गर्मी के दिनों में चारपाइयाँ बिछतीं तो सावन में झूल डल जाते थे।
हर चेहरे पर छाई मुर्दनी उसके मन को अशांत किए थी। रात भर सो नहीं सकी वह, सोचता रही यह कैसा लोकतंत्र और विकास है जिसके लिए लोक की छाती पर तंत्र दाल दल रहा है। कुछ तो करना है पर कब, कैसे?
सवेरे ऊगते सूरज की किरणों के साथ वह कर चुकी थी निर्णय। झटपट महिलाओं-बच्चों को एकत्र किया और रणनीति बनाकर हर वृक्ष के निकट कुछ बच्चे एकत्र हो गए। वृक्ष कटने के पूर्व ही नारियाँ और बच्चे उनसे लिपट जाते। ठेकेदार के दुर्गेश ने बल प्रयोग करने का प्रयास किया तो अब तक चुप रहे पुरुष वर्ग
का खून खौल उठा। वे लाठियाँ लेकर निकल आए।
उसने जैसे-तैसे उन्हें रोका और उन्हें बाकी वृक्षों की रक्षा हेतु भेज दिया। खबर फैला अखबारनवीस और टी. वी. चैनल के नुमाइंदों ने समाचार प्रसारित कर दिया।
एक जग-हितकारी याचिका की सुनवाई को बाद न्यायालय ने परियोजना पर स्थगन लगा गिया। जनतंत्र में जनमत की जीत हुई।
उसने विकास के नाम पर किए जा रहे विनाश का रथ रोक दिया था और जनगण ने उसे दे दिया था एक नया नाम भवानी।
***
मुक्तिका
पंच मात्रिक राजीव छंद
गण सूत्र: तगण
मापनी २२१
*
दो तीन
क्यों दीन?
.
खो चैन
हो चीन
.
दो झेल
दे तीन
.
पा नाग
हो बीन
.
दीदार
हो लीन
.
गा रोज
यासीन
.
जा बोल
आमीन
.
यासीन कुरआन की एक आयत
***
संवस
३०-४-२०१९
***
मुक्तिका
छंद: साधना छंद
विधान: पंचमात्रिक, पदांत गुरु।
गण सूत्र: रगण
*
एक दो
मूक हो
भक्त हो?
वोट दो
मन नहीं?
नोट लो
दोष ही
'कोट' हो
हँस छिपा
खोट को
विमत को
सोंट दो
बात हर
चोट हो
३०-४-२०१९
***
मुक्तिका: ग़ज़ल
*
निर्जीव को संजीव बनाने की बात कर
हारे हुओं को जंग जिताने की बात कर


'भू माफिये'! भूचाल कहे: 'मत जमीं दबा
जो जोड़ ली है उसको लुटाने की बात कर'


'आँखें मिलायें' मौत से कहती है ज़िंदगी
आ मारने के बाद जिलाने की बात कर
'
तूने गिराये हैं मकां बाकी हैं हौसले
काँटों के बीच फूल खिलाने की बात कर


हे नाथ पशुपति! रूठ मत तू नीलकंठ है
हमसे ज़हर को अमिय बनाने की बात कर


पत्थर से कलेजे में रहे स्नेह 'सलिल' भी
आ वेदना से गंग बहाने की बात कर


नेपाल पालता रहा विश्वास हमेशा
चल इस धरा पे स्वर्ग बसाने की बात कर
३०-४-२०१५
***
गीत:
समय की करवटों के साथ
*
गले सच को लगा लूँ मैँ समय की करवटों के साथ
झुकाया, ना झुकाऊँगा असत के सामने मैं माथ...
*
करूँ मतदान तज मत-दान बदलूँगा समय-धारा
व्यवस्था से असहमत है, न जनगण किंतु है हारा
न मत दूँगा किसी को यदि नहीं है योग्य कोई भी-
न दलदल दलोँ की है साध्य, हमकों देश है प्यारा
गिरहकट, चोर, डाकू, मवाली दल बनाकर आये
मिया मिट्ठू न जनगण को तनिक भी क़भी भी भाये
चुनें सज्जन चरित्री व्यक्ति जो घपला प्रथा छोड़ें
प्रशासन को कसे, उद्यम-दिशा को जमीं से जोड़े
विदेशी ताकतों से ले न कर्जे, पसारे मत हाथ.…
*
लगा चौपाल में संसद, बनाओ नीति जनहित क़ी
तजो सुविधाएँ-भत्ते, सादगी से रहो, चाहत की
धनी का धन घटे, निर्धन न भूखा कोई सोयेगा-
पुलिस सेवक बने जन की, न अफसर अनय बोयेगा
सुनें जज पंच बन फ़रियाद, दें निर्णय न देरी हो
वकीली फ़ीस में घर बेच ना दुनिया अँधेरी हो
मिले श्रम को प्रतिष्ठा, योग्यता ही पा सके अवसर
न मँहगाई गगनचुंबी, न जनता मात्र चेरी हो
न अबसे तंत्र होगा लोक का स्वामी, न जन का नाथ…
३०-४-२०१४
***
रासलीला :
*
आँख में सपने सुनहरे झूलते हैं.
रूप लख भँवरे स्वयं को भूलते हैं.
झूमती लट नर्तकी सी डोलती है.
फिजा में रस फागुनी चुप घोलती है.
कपोलों की लालिमा प्राची हुई है.
कुन्तलों की कालिमा नागिन मुई है.
अधर शतदल पाँखुरी से रसभरे हैं.
नासिका अभिसारिका पर नग जड़े हैं.
नील आँचल पर टके तारे चमकते.
शांत सागर मध्य दो वर्तुल उमगते.
खनकते कंगन हुलसते गीत गाते.
राधिका है साधिका जग को बताते.
कटि लचकती साँवरे का डोलता मन.
तोड़कर चुप्पी बजी पाजेब बैरन.
सिर्फ तू ही तो नहीं; मैं भी यहाँ हूँ.
खनखना कह बज उठी कनकाभ करधन.
चपल दामिनी सी भुजाएँ लपलपातीं.
करतलों पर लाल मेंहदी मुस्कुराती.
अँगुलियों पर मुन्दरियाँ नग जड़ी सोहें.
कज्जली किनार सज्जित नयन मोहें.
भौंह बाँकी, मदिर झाँकी नटखटी है.
मोरपंखी छवि सुहानी अटपटी है.
कौन किससे अधिक, किससे कौन कम है?
कौन कब दुर्गम-सुगम है?, कब अगम है?
पग युगल द्वय कब धरा पर, कब अधर में?
कौन बूझे?, कौन-कब, किसकी नजर में?
कौन डूबा?, डुबाता कब-कौन?, किसको?
कौन भूला?, भुलाता कब-कौन?, किसको?
क्या-कहाँ घटता?, अघट कब-क्या-कहाँ है?
क्या-कहाँ मिटता?, अमिट कुछ-क्या यहाँ है?
कब नहीं था?, अब नहीं जो देख पाए.
सब यहीं था, सब नहीं थे लेख पाए.
जब यहाँ होकर नहीं था जग यहाँ पर.
कब कहाँ सोता-न-जगता जग कहाँ पर?
ताल में बेताल का कब विलय होता?
नाद में निनाद मिल कब मलय होता?
थाप में आलाप कब देता सुनायी?
हर किसी में आप वह देता दिखायी?
अजर-अक्षर-अमर कब नश्वर हुआ है?
कब अनश्वर वेणु गुंजित स्वर हुआ है?
कब भँवर में लहर?, लहरों में भँवर कब?
कब अलक में पलक?, पलकों में अलक कब?
कब करों संग कर, पगों संग पग थिरकते?
कब नयन में बस नयन नयना निरखते?
कौन विधि-हरि-हर? न कोई पूछता कब?
नट बना नटवर, नटी संग झूमता जब.
भिन्न कब खो भिन्नता? हो लीन सब में.
कब विभिन्न अभिन्न हो? हो लीन रब में?
द्वैत कब अद्वैत वर फिर विलग जाता?
कब निगुण हो सगुण आता-दूर जाता?
कब बुलाता?, कब भुलाता?, कब झुलाता?
कब खिझाता?, कब रिझाता?, कब सुहाता?
अदिख दिखता, अचल चलता, अनम नमता.
अडिग डिगता, अमिट मिटता, अटल टलता.
नियति है स्तब्ध, प्रकृति पुलकती है.
गगन को मुँह चिढ़ा, वसुधा किलकती है.
आदि में अनादि बिम्बित हुआ कण में.
साsदि में फिर सांsत चुम्बित हुआ क्षण में.
अंत में अनंत कैसे आ समाया?
दिक् में दिगंत जैसे था समाया.
कंकरों में शंकरों का वास देखा.
और रज में आज बृज ने हास देखा.
मरुस्थल में महकता मधुमास देखा.
नटी नट में, नट नटी में रास देखा.
रास जिसमें श्वास भी था, हास भी था.
रास जिसमें आस, त्रास-हुलास भी था.
रास जिसमें आम भी था, खास भी था.
रास जिसमें लीन खासमखास भी था.
रास जिसमें सम्मिलित खग्रास भी था.
रास जिसमें रुदन-मुख पर हास भी था.
रास जिसको रचाता था आत्म पुलकित.
रास जिसको रचाता परमात्म मुकुलित.
रास जिसको रचाता था कोटि जन गण.
रास जिसको रचाता था सृष्टि-कण-कण.
रास जिसको रचाता था समय क्षण-क्षण.
रास जिसको रचाता था धूलि तृण-तृण..
रासलीला विहारी खुद नाचते थे.
रासलीला सहचरी को बाँचते थे.
राधिका सुधि-बुधि बिसारे नाचतीं थीं.
नटी नट की प्रणय पोथी बाँचती थीं.
'सलिल' की हर बूँद ने वह छवि निहारी.
जग जिसे कहता है श्रीबाँकेबिहारी.
३०-४-२०१०
***

बुधवार, 27 दिसंबर 2023

सॉनेट, उपनिषद, परीक्षा, दोहा, श्रुति कुशवाहा, नवगीत, हास्य, विष्णु, ओंकारेश्वर

सलिल सृजन २७ दिसंबर 
सॉनेट
परीक्षा
मान परीक्षा हर अवसर को,
करें प्रयास आप जीवन भर,
बने भगीरथ जो जाता तर,
नहीं बैठिए थामे सर को।
रखिए दूर हमेशा डर को,
सुमिरें नित नटवर नटनागर,
भरी रहे भावों की गागर,
सदा भुनाएँ हर अवसर को।

डरकर जो न परीक्षा देता,
वह अवसर खोता सच मानो,
सोता उसका भाग्य मौन हो।
बनना है यदि तुम्हें विजेता,
हर बाधा जय करना ठानो,
भोजन में बन रहो नौन हो।

तक्षशिला महाविद्यालय
२७.१२.२०२३
•••
सॉनेट
उपनिषद
*
आत्मानंद नर्मदा देती, नाद अनाहद कलकल में।
धूप-छाँव सह अविचल रहती, ऊँच-नीच से रुके न बहती।
जान गई सच्चिदानंद है, जीवन की गति निश्छल में।।
जो बीता सो रीता, होनी हो, न आज चिंता तहती।।
आओ! बैठ समीप ध्यान कर गुरु से जान-पूछ लो सत्य।
जिज्ञासा कर, शंका मत कर, फलदायक विश्वास सदा।
श्रद्धा-पथिक ज्ञान पाता है, हटता जाता दूर असत्य।।
काम करो निष्काम भाव से, होनी हो, जो लिखा-बदा ।।
आत्म और परमात्म एक हैं, पूर्ण-अंश का नाता है।
उसको जानो, उस सम हो लो, सबमें झलक दिखे उसकी।
जिसको उसका द्वैत मिटे, अद्वैत एक्य बन जाता है।।
काम करो निष्काम भाव से, होगा वह जो गति जिसकी।।
करो उपनिषद चर्चा सब मिल, चित्त शांत हो, भ्रांति मिटे।
क्रांति तभी जब स्वार्थ छोड़, सर्वार्थ राह चल, शांति मिले।।
२७-१२-२०२१
***
दोहा सलिला
पानी का वादा किया, पूर दिए तालाब.
फ़ूल बनाया शूल दे, कहते दिए गुलाब.
*
कर देकर जनता मरे, शासन है बेफ़िक्र.
सेठों का हित सध सके, बस इतनी है फ़िक्र.
*
मेघा बरसे शिव विहँस, लें केशों में धार.
बहा नर्मदा नेह की, करें जगत उद्धार.
*
मोदी राहुल जप रहे, राहुल मोदी नाम
नूरा कुश्ती कर रहे, जाता ठगा अवाम
***
कृति चर्चा:
'कशमकश' मन में झाँकती कविताएँ
[कृति विवरण: कशमकश, कविता संग्रह, ISBN ९७८-९३-८५०१३-६५-२, श्रुति कुशवाहा, वर्ष २०१६, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द बहुरंगी जैकेट सहित, पृष्ठ ११२, मूल्य २५०/-, अंतिका प्रकाशन, सी ५६ / यूजीएफ़ ४, शालीमार बाग़, विस्तार २, गाज़ियाबाद २०१००५, ०१२० २६४८२१२, ९८७१८५६०५३, antika56@gmailcom, कवयत्री संपर्क बी १०१ महानंदा ब्लोक, विराशा हाईटस, दानिश कुञ्ज पुल के समीप, कोलर मार्ग, भोपाल ४६२०४२, shrutyindia@gmail.com]
*
मूल्यों के संक्रमण और आधुनिक कविता के पराभव काल में जब अच्छे-अच्छे पुरोधा कविता का अखाड़ा और ग़ज़ल का मजमा छोड़कर दिनानुदिन अधिकाधिक लोकप्रिय होते नवगीत की पिचकारी थामे कबीरा गाने की होड़ कर रहे हैं, तब अपनी वैचारिक प्रबद्धता, आनुभूतिक मार्मिकता और अभिव्यक्तात्मक बाँकपन की तिपाई पर सामाजिक परिदृश्य का जायजा लेते हुए अपने भीतर झाँककर, बाहर घटते घटनाक्रम के प्रति आत्मीयता रखते हुए भी पूरी शक्ति से झकझोरने का उपक्रम करती कविता को जस- का तस हो जाने देने के दुस्साहस का नाम है 'श्रुति'। 'श्रुति' की यह नियति तब भी थी जब लिपि, लेखनी और कागज़ का आविष्कार नहीं हुआ था और अब भी है जब नित नए गैजेट्स सामने आकर कागज़ और पुस्तक के अस्तित्व के लिए संकट की घोषणा कर रहे हैं। 'श्रुति' जन-मन की अभिव्यक्ति है जो बिना किसी नकाब के जन के मन को जन के मन के सामने अनावृत्त करती है, निर्वसन नहीं। कायदों और परंपराओं के पक्षधर कितनी भी परदेदारी कर लें 'श्रुति' को साँसों का सच और आसों की पीड़ा जानने और कहने से रोक नहीं पाते। जब 'श्रुति' अबाध हो तो 'स्मृति' को अगाध होने से कौन रोक सकता है? जब कविता स्मृति में सुरक्षित हो तो वह समय का दस्तावेज हो जाती है।
'कशमकश' चेतनता, जीवंतता और स्वतंत्रता का लक्षण है। जड़ या मृत में 'कशमकश' कैसे हो सकती है? किसी पिछलग्गू में केवल अनुकरण भाव होता है। 'कशमकश' वैचारिक आन्दोलन का दूसरा नाम है। आंदोलित होती 'श्रुति' जन-गण के मन में घट रहे या जन-मन को घटा रहे घटनाक्रम के प्रति आक्रोशित हो, यह स्वाभाविक है। एक जन की पीड़ा दूसरा न सुने तो उस पर प्रतिक्रया और कुछ करने या न करने की कशमकश कैसे हो? इस रूप में 'श्रुति' ही 'कशमकश' को जन्म देती है। संयोगवश विवेच्य काव्य संग्रह 'कशमकश' की जननी का नाम भी 'श्रुति' है। यह 'श्रुति' सामान्य नहीं 'कुशवाहा' अर्थात कुश धारण करनेवाली है। कुश धारण किया जाता है 'संकल्प' के समय। जब किसी कृत्य को निष्पादित करने का निश्चय कर लिया, संसाधन जुटा लिए, कृत्य संपादित करने के लिए पुरोहित अर्थात मार्गदर्शक भी आ गया तो हाथ में कुश लेकर भूमि पर जल छोड़ते हुए संकल्प में सहायक होता है 'कुश'। जन-मन की 'कशमकश' को कविता रूपी 'कुश' के माध्यम से उद्घाटित ही नहीं यथासंभव उपचारित करने का संकल्प करती 'श्रुति' की यह कृति सिर्फ पठनीय नहीं चिंतनीय भी है।
'श्रुति' की सत्तर कविताओं का यह संकलन 'कशमकश' असाधारण है। असाधारण इस अर्थ में कि यह अपने समय की 'प्रवृत्तियों' का निषेध करते हुए भी 'निवृत्ति' का पथ प्रशस्त नहीं करता। समय की परख कर पाना हर रचनाकार के लिए आवश्यक है। श्रुति कहती है-
'जब बिकने लगता है धर्म
और घायल हो जाती है आस्था
चेहरे हो जाते हैं पत्थर
दिखने में आदमी जैसा
जब नहीं रह जाता आदमी
जब चरों ओर मंडराता है संकट
वही होता है
कविता लिखने का सबसे सही वक़्त'
श्रुति की कविताएँ इस बात की साक्षी हैं कि उसे समय की पहचान है। वह लिजलिजी भावनाओं में नहीं बहती। ज़िन्दगी शीर्षक कविता में कवयित्री का आत्म विश्वास पंक्ति-पंक्ति में झलकता है-
नहीं,
मेरी ज़िन्दगी
तुमसे शुरू होकर
तुमपर ख़त्म नहीं होती....
... हाँ
मेरी ज़िंदगी
मुझसे शरू होती है
और ख़त्म वहीं होगी
जहाँ मैं चाहूँगी ...
स्त्री विमर्श के नाम पर अपने पारिवारिक दायित्वों से पलायन कर कृत्रिम हाय-तोबा और नकली आंसुओं से लबालब कविता करने के स्थान पर कवयित्री संक्षेप में अपने अस्तित्व और अस्मिता को सर्वोच्च मानते हुए कहती है-
अब बस
आज मैं घोषित करती हूँ
तुम्हें
एक आम आदमी
गलतियों का पुतला
और खुद को
पत्नी परमेश्वर
ये कविताएँ हवाई कल्पना जगत से नहीं आईं है। इन्हें यथार्थ के ठोस धरातल पर रचा गया है। स्वयं कवयित्री के शब्दों में-
मेरी कविता का
कचरा बीनता बच्चा
बूट पोलिश करता लड़का
संघर्ष करती लड़की
हाशिए पर खड़े लोग
कोइ काल्पनिक पात्र नहीं
दरअसल
मेरे भीतर का आसमान है
आशावाद श्रुति की कविताओं में खून की तरह दौड़ता है-
सूरज उगेगा एक दिन
आदत की तरह नहीं
दस्तूर की तरह नहीं....
.... एक क्रांति की तरह
.... जिस दिन
वो सूरज उगेगा
तो फिर नहीं होगी कभी कोई रात
'वक्त कितना कठिन है साथी' शीर्षक कविता में स्त्रियों पर हो रहे दैहिक हमलों की पड़ताल करती कवयित्री लीक से हटकर सीधे मूल कारण तलाशती है। वह सीधे सीधे सवाल उठाती है- मैं कैसे प्रेम गीत गाऊँ?, मैं कैसे घर का सपना संजोऊँ?, मैं कैसे विश्वास की नव चढ़ूँ? उसकी नज़र सीधे मर्म पर पहुँचती है कि जो पुरुष अपने घर की महिलाओं की आबरू का रखवाला है, वही घर के बाहर की महिलाओं के लिए खतरा क्यों है? कैसी विडम्बना है?
मर्द जो भाई पति प्रेमी है
वो दूसरी लड़कियों के लिए
भेदिया साबित हो सकता है कभी भी....
'क्या तुम जानते हो' में दुनिया के चर्चित स्त्री-दुराचार प्रकरणों का उल्लेख कर घरवाले से प्रश्न करती है कि वह घरवाली को कितना जानता है?
बताओ क्या तुम जानते हो
सालों से घर के भीतर रहनेवाली
अपनी पत्नी के बारे में
जो हर रात सोती है तुम्हारे बाद
हर सुबह उठती है तुमसे पहले
क्या उसने नींद पर विजय पा ली है?
जो हर वक्त पकाती है तुम्हरी पसंद का खाना
क्या उसे भी वही पसंद है हमेशा से
जो बिस्तर बन जाती है तुम्हारी कामना पर
क्या वो हर बार तैयार होती है देह के खेल के लिए
श्रुति की कविताओं का वैशिष्ट्य तिलमिला देनेवाले सवाल शालीन-शिष्ट भाषा में किंतु दृढ़ता और स्पष्टता के साथ पूछना है। वह न तो निरर्थक लाग-लपेट करते आवरण चढ़ाती है, न कुत्सित और अश्लील शब्दावली का प्रयोग करती है। राम-सीता प्रसंग में गागर में सागर की तरह चंद पंक्तियाँ 'कम शब्दों में अधिक कहने' की कला का अनुपम उअदाह्र्ण है-
सीता के लिए ही था ण
युद्ध
हे राम
फिर जीवित सीता को
क्यों कराया अग्नि-स्नान
श्रुति का आत्मविश्वास, अपने फैसले खुद करने का निश्चय और उनका भला या बुरा जो भी हो परिणाम स्वीकारने की तत्परता काबिले -तारीफ़ है। वह अन्धकार, से प्रेम करना, रावण को समझना तथा कुरूपता को पूजना चाहती है क्योंकि उन्होंने क्रमश: प्रकाश की महत्ता , सीता की दृढ़ता तथा सुन्दरता को उद्घाटित किया किंतु इन सबको भुला भी देना चाहती है कि प्रकाश, दृढ़ता और सुनदरता अधिक महत्वपूर्ण है। यह वैचारिक स्पष्टता और साफगोई इन कविताओं को पठनीय के साथ-साथ चिन्तनीय भी बनाती हैं।
'आशंका' इस संकलन की एक महत्वपूर्ण कविता है। यहाँ कवयित्री अपने पिटा के जन्मस्थान से जुड़ना चाहती है क्योंकि उसे यह आशंका है कि ऐसा ण करने पर कहीं उसके बच्चे भी उसके जन्म स्थान से जुड़ने से इंकार न कर दें। पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलने और पालने वाले जीवन-मूल्यों और परंपराओं की जमीन पर रची गयी इस रचना का स्वर अन्य से भिन्न किंतु यथार्थपूर्ण है।
एक और मार्मिक कविता है 'पापा का गुस्सा'। पापा के गुस्से से डरनेवाली बच्ची का सोचना स्वाभाविक है कि पापा को गुस्सा क्यों आता है? बड़े होने पर उसे प्रश्न का उत्तर मिलता है-
आज समझ पाई हूँ
उनके गुस्से का रहस्य
पापा दरअसल गुस्सा नहीं होते
दुखी होते हैं
जब वे डांटते
तो हमारे लिए ही नहीं
उनके लिए भी सजा होती
आत्मावलोकन और आत्मालोचन इन कविताओं में जहाँ-तहाँ अन्तर्निहित है। कवयित्री गुलाब को तोड़ कर गुल्दासे में सजती है पर खुद को चोट पहुँचाने वाले को क्षमा नहीं कर पाती, भूखे भिखारी को अनदेखा कर देती है, अशक्त वृद्ध को अपनी सीट नहीं देती, अभाव में मुस्कुरा नहीं पाती, सहज ही भूल नहीं स्वीकारती यह तो हम सब करते हैं पर हमसे भिन्न कवयित्री इसे कवि होने की अपात्रता मानती है-
नहीं, मैं कवि नहीं
मैं तो मात्र
रचयिता हूँ
कवि तो वह है
जो मेरी कविता को जीता है।
जिस कविता के शीर्षक से पुस्तक के नामकरण हुआ है, वह है 'कशमकश'। अजब विडम्बना है कि आदमी की पहचान उसके अस्तित्व, कार्यों या सुयश से नहीं दस्तावेजों से होती है-
मैंने
पेनकार्ड रखा
पासपोर्ट, आधार कार्ड
मतदाता प्रमाण पत्र
खुद से जुड़े तमाम दस्तावेज सहेजे
और निकल पडी
लेकिन यह क्या
खुद को रखना तो भूल होगी
मुड़कर देखा तो
दूर तक नज़र नहीं आई मैं
अजीब कशमकश है
खुद को तलाशने पीछे लौटूं
या खुद के बगैर आगे बढ़ जाऊँ...
ये कवितायेँ बाहर की विसंगतियों का आकलन कर भीतर झाँकती हैं। बाहर से उठे सवालों के हल भीतर तलाशती कविताओं की भाषा अकृत्रिम और जमीनी होना सोने में सुहागा है। ये कविताएं आपको पता नहीं रहने देती, आपके कथ्य का भोक्ता बना देती हैं, यही कवयित्री और उसकी कारयित्री प्रतिभा की सफलता है।
***
सामयिक हास्य कविता:
राहुल जी का डब्बा गोल
*
लम्बी_चौड़ी डींग हाँकतीं, मगर खुल गयी पल में पोल
मोदी जी का दाँव चल गया, राहुल जी का डब्बा गोल
मातम मना रहीं शीला जी, हुईं सोनिया जी बेचैन
मौका चूके केजरीवाल जी, लेकिन सिद्ध हुए ही मैन
हंग असेम्बली फिर चुनाव का, डंका जनता बजा रही
नेताओं को चैन न आये, अच्छी उनकी सजा रही
लोक तंत्र को लोभ तंत्र जो, बना रहे उनको मारो
अपराधी को टिकिट दे रहे, जो उनको भी फटकारो
गहलावत को वसुंधरा ने, दिन में तारे दिखा दिये
जय-जयकार रमन की होती, जोगी जी पिनपिना गये
खिला कमल शिवराज हँस रहे, पंजा चेहरा छिपा रहा
दिग्गी को रूमाल शीघ्र दो, छिपकर आँसू बहा रहा
मतदाता जागो अपराधी नेता, बनें तो मत मत दो
नोटा बटन दबाओ भैया, एक साथ मिल करवट लो
***
पुस्तक चर्चा-
एक बहर पर एक ग़ज़ल - अभिनव सार्थक प्रयास
चर्चाकार- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
पुस्तक परिचय- एक बहर पर एक ग़ज़ल, ब्रम्हजीत गौतम, ISBN ९७८-८१-९२५६१३-७-०, प्रथम संस्करण २०१६, आकार २१.५ से.मी. x १४ से.मी., आवरण पेपरबैक, बहुरंगी, पृष्ठ १४४/-, मूल्य २००/-, शलभ प्रकाशन १९९ गंगा लेन, सेक्टर ५, वैशाली, गाजियाबाद २०१०१०, रचनाकार संपर्क- युक्कौ २०६ पैरामाउंट सिम्फनी, क्रोसिंग रिपब्लिक, गाज़ियाबाद २०१०१६, चलभाष- ९७६०००७८३८।
*
'नाद' ही सृष्टि का मूल है। नाद की निरंतरता उसका वैशिष्ट्य है। नाद के आरोह और अवरोह लघु-गुरु के पर्याय हैं। नाद के साथ विविध ध्वनियाँ मिलकर अक्षर को और विविध अक्षर मिलकर शब्द को जन्म देते हैं। लघु-गुरु अक्षरों के विविध संयोग ही गण या रुक्न हैं जिनके अनेक संयोग लयों के रूप में सामने आते हैं। सरस लयों को काव्य शास्त्र छंद या बहर के रूप में वर्णित करता है। हिंदी पिंगल में छंद के मुख्य २ प्रकार मात्रिक (९२,२७,७६३) तथा वार्णिक (१३,४२,१७,६२६) हैं।१ यह संख्या गणितीय आधार पर गिनी गयी है। सामान्यत: २०-२५ प्रकार के छंद ही अधिक प्रयोग किये जाते हैं। उर्दू में बहरों के मुख्य २ प्रकार मुफरद या शुद्ध (७) तथा मुरक्कब या मिश्रित (१२) हैं।२ गजल छंद चेतना में ६० औज़ानों का ज़िक्र है।३ गजल ज्ञान में ६७ बहरों के उदाहरण हैं।४ ग़ज़ल सृजन के अनुसार डॉ. कुंदन अरावली द्वारा सं १९९१ में प्रकाशित उनकी पुस्तक इहितिसाबुल-अरूज़ में १३२ नई बहरें संकलित हैं।५ अरूज़े-खलील-मुक्तफ़ी में सालिम (पूर्णाक्षरी) बहरें १५ तथा ज़िहाफ (अपूर्णाक्षरी रुक्न) ६२ बताये गए हैं।६ गज़ल और गज़ल की तकनीक में ७ सालिम, २४ मुरक्कब बहरों के नमूने दिए गए हैं। ७. विवेच्य कृति में ६५ बहरों पर एक-एक ग़ज़ल कहीं गयी है तथा उससे सादृश्य रखने वाले हिंदी छंदों का उल्लेख किया गया है।
गौतम जी की यह पुस्तक अन्यों से भिन्न तथा अधिक उपयोगी इसलिए है कि यह नवोदित गजलकारों को ग़ज़ल के इतिहास और भूगोल में न उलझाकर सीधे-सीधे ग़ज़ल से मिलवाती है। बहरों का क्रम सरल से कठिन या रखा गया है। डॉ. गौतम हिंदी प्राध्यापक होने के नाते सीखनेवालों के मनोविज्ञान और सिखानेवालों कि मनोवृत्ति से बखूबी परिचित हैं। उन्होंने अपने पांडित्य प्रदर्शन के लिए विषय को जटिल नहीं बनाया अपितु सीखनेवालों के स्तर का ध्यान रखते हुए सरलता को अपनाया है। छंदशास्त्र के पंडित डॉ. गौतम ने हर बहर के साथ उसकी मात्राएँ तथा मूल हिंदी छंद का संकेत किया है। सामान्यत: गजलकार अपनी मनपसंद या सुविधाजनक बहर में ग़ज़ल कहते हैं किंतु गौतम जी ने सर्व बहर समभाव का नया पंथ अपनाकर अपनी सिद्ध हस्तता का प्रमाण दिया है।
प्रस्तुत गजलों की ख़ासियत छंद विधान, लयात्मकता, सामयिकता, सारगर्भितता, मर्मस्पर्शिता, सहजता तथा सरलता के सप्त मानकों पर खरा होना है। इन गजलों में बिम्ब, प्रतीक, रूपक और अलंकारों का सम्यक तालमेल दृष्टव्य है। ग़ज़ल का कथ्य प्रेयसी से वार्तालाप होने की पुरातन मान्यता के कारण ग़ालिब ने उसे तंग गली और कोल्हू का बैल जैसे विशेषण दिए थे। हिंदी ग़ज़ल ने ग़ज़ल को सामायिक परिस्थितियों और परिवेश से जोड़ते हुए नए तेवर दिए हैं जिन्हें आरंभिक हिचक के बाद उर्दू ग़ज़ल ने भी अंगीकार किया है। डॉ. गौतम ने इन ६५ ग़ज़लों में विविध भावों, रसों और विषयों का सम्यक समन्वय किया है।
नीतिपरकता दोहों में सहज किन्तु ग़ज़ल में कम ही देखने मिलती है। गौतम जी 'सदा सत्य बोलो सखे / द्विधा मुक्त हो लो सखे', 'यों न चल आदमी / कुछ संभल आदमी' आदि ग़ज़लों में नीति की बात इस खुबसूरती से करते हैं कि वह नीरस उपदेश न प्रतीत हो। 'हर तरफ सवाल है / हर तरफ उबाल है', 'हवा क्यों एटमी है / फिज़ा क्यों मातमी है', 'आइये गजल कहें आज के समाज की / प्रश्न कुछ भविष्य के, कुछ व्यथाएँ आज की' जैसी गज़लें सम-सामयिक प्रश्नों से आँखें चार करती हैं। ईश्वर को पुकारने का भक्तिकालीन स्वर 'मेरी नैया भंवर में घिरी है / आस तेरी ही अब आखिरी है' में दृष्टव्य है। पर्यावरण पर अपने बात कहते हुए गौतम जी मनुष्य को पेड़ से सीख लेने की सीख देते हैं- 'दूसरों के काम आना पेड़ से सीखें / उम्र-भर खुशियाँ लुटाना पेड़ से सीखें'। गौतम जी कि ग़ज़ल मुश्किलों से घबराती नहीं वह दर्द से घबराती नहीं उसका स्वागत करती है- 'दर्द ने जब कभी रुलाया है / हौसला और भी बढ़ाया है / क्या करेंगी सियाह रातें ये / नूर हमने खुदा से पाया है'।
प्यार जीवन की सुन्दरतम भावना है। गौतम जी ने कई ग़ज़लों में प्रकारांतर से प्यार की बात की है। 'गुस्सा तुम्हारा / है हमको प्यारा / आँखें न फेरो / हमसे खुदारा', 'तेरे-मेरे दिल की बातें, तू जाने मैं जानूँ / कैसे कटते दिन और रातें, तू जानें मैं जानूँ', 'उनको देखा जबसे / गाफिल हैं हम तबसे / यह आँखों की चितवन / करती है करतब से, 'इशारों पर इशारे हो रहे हैं / अदा पैगाम सारे हो रहे हैं' आदि में प्यार के विविध रंग छाये हैं। 'कितनी पावन धरती है यह अपने देश महान की / जननी है जो ऋषि-मुनियों की और स्वयं भगवान की', 'आओ सब मिलकर करें कुछ ऐसी तदबीर / जिससे हिंदी बन सके जन-जन की तकदीर' जैसी रचनाओं में राष्ट्रीयता का स्वर मुखर हुआ है।
सारत: यह पुस्तक एक बड़े अभाव को मिटाकर एक बड़ी आवश्यकता कि पूर्ति करती है। नवगजलकार खुश नसीब हैं कि उन्हें मार्गदर्शन हेतु 'गागर में सागर' सदृश यह पुस्तक उपलब्ध है। गौतम जी इस सार्थक सृजन हेतु साधुवाद के पात्र हैं। उनकी अगली कृति कि बेकरारी से प्रतीक्षा करेंगे गजल प्रेमी।
*** सन्दर्भ- १. छंद प्रभाकर- जगन्नाथ प्रसाद 'भानु', २. गजल रदीफ़ काफिया और व्याकरण- डॉ. कृष्ण कुमार 'बेदिल', ३. गजल छंद चेतना- महावीर प्रसाद 'मुकेश', ४. ग़ज़ल ज्ञान- रामदेव लाल 'विभोर', ५. गजल सृजन- आर. पी. शर्मा 'महर्षि', ६. अरूज़े-खलील-मुक्तफ़ी- ज़ाकिर उस्मानी रावेरी, ७. गज़ल और गज़ल की तकनीक- राम प्रसाद शर्मा 'महर्षि'.
***
पुस्तक चर्चा-
'गज़ल रदीफ़,-काफ़िया और व्याकरण' अपनी मिसाल आप
चर्चाकार- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
पुस्तक विवरण- गज़ल रदीफ़,-काफ़िया और व्याकरण, डॉ. कृष्ण कुमार 'बेदिल', विधा- छंद शास्त्र, प्रथम संस्करण २०१५, आकार २२ से.मी. X १४.५ से.मी., आवरण सजिल्द बहुरंगी जैकेट सहित, पृष्ठ ९५, मूल्य १९५/-, निरुपमा प्रकाशन ५०६/१३ शास्त्री नगर, मेरठ, ०१२१ २७०९५११, ९८३७२९२१४८, रचनाकार संपर्क- डी ११५ सूर्या पैलेस, दिल्ली मार्ग, मेरठ, ९४१००९३९४३।
*
हिंदी-उर्दू जगत के सुपरिचित हस्ताक्षर डॉ. कृष्ण कुमार 'बेदिल' हरदिल अज़ीज़ शायर हैं। वे उस्ताद शायर होने के साथ-साथ, अरूज़ के माहिर भी हैं। आज के वक्त में ज़िन्दगी जिस कशमकश में गुज़र रही है, वैसा पहले कभी नहीं था। कल से कल को जोड़े रखने कि जितनी जरूरत आज है, उतनी पहले कभी नहीं थी। लार्ड मैकाले द्वारा थोपी गयी और अब तक ढोई जा रही शिक्षा प्रणाली कि बदौलत ऐसी नस्ल तैयार हो गयी है जिसे अपनी सभ्यता और संस्कृति पिछड़ापन तथा विदेशी विचारधारा प्रगतिशीलता प्रतीत होती है। इस परिदृश्य को बदलने और अपनी जड़ों के प्रति आस्था और विश्वास पैदा करने में साहित्य की भूमिका अधिक महत्वपूर्ण हो गयी है। ऐसे रचनाकार जो सृजन को शौक नहीं धर्म मानकर सार्थक और स्वस्थ्य रचनाकर्म को पूजा की तरह निभाते हैं उनमें डॉ. बेदिल का भी शुमार है।
असरदार लेखन के लिए उत्तम विचारों के साथ-साथ कहने कि कला भी जरूरी है। साहित्य की विविध विधाओं के मानक नियमों की जानकारी हो तो तदनुसार कही गयी बात अधिक प्रभाव छोड़ती है। गजल काव्य की सर्वाधिक लोकप्रिय वि धाओं में से एक है। बेदिल जी, ने यह सर्वोपयोगी किताब बरसों के अनुभव और महारत हासिल करने के बाद लिखी है। यह एक शोधग्रंथ से बहुत अधिक महत्वपूर्ण है। शोधग्रंथ विषय के जानकारों के लिए होता है जबकि यह किताब ग़ज़ल को जाननेवालों और न जाननेवालों दोनों के लिए सामान रूप से उपयोगी है। उर्दू की काव्य विधाएँ, ग़ज़ल का सफर, रदीफ़-काफ़िया और शायरी के दोष, अरूज़(बहरें), बहरों की किस्में, मुफरद बहरें, मुरक़्क़ब बहरें तथा ग़ज़ल में मात्रा गिराने के नियम शीर्षक अष्टाध्यायी कृति नवोदित ग़ज़लकारों को कदम-दर-कदम आगे बढ़ने में सहायक है।
एक बात साफ़ तौर पर समझी जानी चाहिए कि हिंदी और उर्दू हिंदुस्तानी जबान के दो रूप हैं जिनका व्याकरण और छंदशास्त्र कही-कही समान और कहीं-कहीं असमान है। कुछ काव्य विधाएँ दोनों भाषा रूपों में प्रचलित हैं जिनमें ग़ज़ल सर्वाधिक लोकप्रिय और महत्वपूर्ण है। उर्दू ग़ज़ल रुक्न और बहारों पर आधारित होती हैं जबकि हिंदी ग़ज़ल गणों के पदभार तथा वर्णों की संख्या पर। हिंदी के कुछ वर्ण उर्दू में नहीं हैं तो उर्दू के कुछ वर्ण हिंदी में नहीं है। हिंदी का 'ण' उर्दू में नहीं है तो उर्दू के 'हे' और 'हम्ज़ा' के स्थान पर हिंदी में केवल 'ह' है। इस कारण हिंदी में निर्दोष दिखने वाला तुकांत-पदांत उर्दूभाषी को गलत तथा उर्दू में मुकम्मल दिखनेवाला पदांत-तुकांत हिन्दीभाषी को दोषपूर्ण प्रतीत हो सकता है। यही स्थिति पदभार या वज़न के सिलसिले में भी हो सकती है। मेरा आशय यह नहीं है कि हमेशा ही ऐसा होता है किन्तु ऐसा हो सकता है इसलिए एक भाषारूप के नियमों का आधार लेकर अन्य भाषारूप में लिखी गयी रचना को खारिज करना ठीक नहीं है। इसका यह अर्थ भी नहीं है कि विधा के मूल नियमों की अनदेखी हो। यह कृति गज़ल के आधारभूत तत्वों की जानकारी देने के साथ-साथ बहरों कि किस्मों, उनके उदाहरणों और नामकरण के सम्बन्ध में सकल जानकारी देती है। हिंदी-उर्दू में मात्रा न गिराने और गिराने को लेकर भी भिन्न स्थिति है। इस किताब का वैशिष्ट्य मात्रा गिराने के नियमों की सटीक जानकारी देना है। हिंदी-उर्दू की साझा शब्दावली बहुत समृद्ध और संपन्न है।
उर्दू ग़ज़ल लिखनेवालों के लिए तो यह किताब जरूरी है ही, हिंदी ग़ज़ल के रचनाकारों को इसे अवश्य पढ़ना, समझना और बरतना चाहिए इससे वे ऐसी गज़लें लिख सकेंगे जो दोनों भाषाओँ के व्याकरण-पिंगाल की कसौटी पर खरी उतरें। लब्बोलुबाब यह कि बिदिक जी ने यह किताब पूरी फराखदिली से लिखी है जिसमें नौसिखियों के लिए ही नहीं उस्तादों के लिए भी बहुत कुछ है। इया किताब का अगला संस्करण अगर अंग्रेजी ग़ज़ल, बांला ग़ज़ल, जर्मन ग़ज़ल, जापानी ग़ज़ल आदि में अपने जाने वालों नियमों की भी जानकारी जोड़ ले तो इसकी उपादेयता और स्वीकृति तो बढ़ेगी ही, गजलकारों को उन भाषाओँ को सिखने और उनकी ग़ज़लों को समझने की प्रेरणा भी मिलेगी।
डॉ. बेदिल इस पाकीज़ा काम के लिए हिंदी-उर्दू प्रेमियों की ओर से बधाई और प्रशंसा के पात्र हैं। गुज़ारिश यह कि रुबाई के २४ औज़ानों को लेकर एक और किताब देकर कठिन कही जानेवाली इस विधा को सरल रूप से समझाकर रुबाई-लेखन को प्रोत्साहित करेंगे।
२७-१२-२०१६
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ॐकारेश्वर का विष्णु मंदिर – अल्पचर्चित किंतु भव्य
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ओमकारेश्वर ज्योतिर्लिंग होने के कारण यहाँ की पहचान मुख्य मंदिर तथा ॐ आकार का वह पर्वत है जिसकी परिक्रमा श्रद्धालुओं द्वारा की जाती है। यहाँ धार्मिक दृष्टि से आने वाले सैलानियों के लिये भी एक अन्य आकर्षण जुड गया, वह है ॐकारेश्वर में एनएचडीसी द्वारा निर्मित बाँध। इसके अतिरिक्त ममलेश्वर मंदिर नर्मदा नदी के दूसरे तट पर अवस्थित है जिसे कतिपय विद्वान ज्योतिर्लिंग परिभाषित करते हैं। यहाँ मंदिर की दीवारों पर उकेरी गयी प्रस्तराकृतियाँ व लिखे गये स्त्रोत वर्ष 1063 के बताये जाते हैं।
ॐकारेश्वर के इन मुख्य आकर्षणों पर पर्यटकों की अच्छी खासी संख्या दैनिक रूप से उपस्थित रहती है। नौकायन करते हुए जब मैं नदी के उत्तरी तट पर ओमकारेश्वर ज्योतिर्लिंग के दर्शनों के लिये जा रहा था, मध्य से चारों ओर का दृश्य निहारते हुए इस प्राचीन स्थान के महात्म्य और ऐतिहासिकता ने मन-मोह लिया। पर्वत के शीर्ष पर प्राचीन राजमहल बहुत ही दयनीय अवस्था में भी शान से कुछ कहता प्रतीत होता है। यत्र तत्र अनेक ऐतिहासिक महत्व के भग्नावशेष हैं जिनतक पहुँचना भी संभव नहीं चूंकि उनकी पीठ पर कई धर्मशालायें हैं। यह केवल ओंकारेश्वर की ही बात नहीं अपितु कमोबेश पूरे देश में ही इतिहास हमारी सोच में भी केन्द्रित नहीं और हम खण्डहर कह सब कुछ अनदेखा कर देते हैं।
ओंकारेश्वर मुख्य मंदिर और ममलेश्वर मंदिर के अतिरिक्त यहाँ अनेक मंदिरों व आश्रमों की श्रंखला है जो अपनी प्राचीनता के कारण महत्व के स्थान हैं। ओमकार पर्वत और आसपास गोविन्देश्वर गुफा, ऋणमुक्तेश्वर मंडिर, गौरी-सोमनाथ मंदिर, सिद्धनाथ मंदिर, आशापुरी मंदिर, ब्रम्हेश्वर मंदिर, लक्ष्मीनारायण मंदिर, इन्द्रेश्वर मंदिर, काशी-विश्वनाथ मंदिर, वृहदेश्वर मंदिर, कपिलेश्वर मंदिर, हनुमान मंदिर, अन्नपूर्णा मंदिर, मार्कण्डेय आश्रम, गया शिला तीर्थ आदि अवस्थित हैं। केवल मंदिर ही नहीं अपितु इस परिधि में गुरुद्वारा तथा सिद्धवरकूट जैनतीर्थ भी नर्मदा एवं कावेरी नदियों के संगम पर है। नर्मदा नदी पर इन तीर्थों को देख कर यह स्वत: ही मनोभावना उठती है कि “त्वदीय पाद पंकजम नमामि देवि नर्मदे”।
नदी के दक्षिणी तट पर स्थित एक मंदिर ने अपनी कलात्मकता के कारण मेरा ध्यान खींचा था। मुझे जानकारी प्राप्त हुई कि यह एक विष्णु मंदिर है। मंदिर की पूरी संरचना को सफेद रंग के पोत दिया गया है यहाँ तक कि प्रतिमायें भी लिपि-पुती हैं जो संभव है इतिहास के किसी विद्यार्थी को मायूस कर सकती हैं। बहुत पर्यटक नहीं आते अंत: शांत और एकांतप्रिय लोगों के लिये यहाँ खडे हो कर नर्मदा नदी के प्रवाह को देखना अद्भुत आनंद का सिद्ध हो सकता है। मंदिर का मुख नर्मदा नदी की ओर है तथा यह गर्भगृह, अंतराल एवं मण्डप तीन भागों में विभक्त है।
विष्णु मंदिर के मण्डप वाले हिस्से में सोलह अलंकृत स्तम्भ है जो मंदिर की भव्यता बढाते हैं। मंदिर का प्रत्येक स्तम्भ नृत्य मुद्रा में किसी अपसरा से ले कर किसी पौराणिक आख्यान तक स्वयं में समाविष्ट किये हुए हैं। पृष्ठ भाग छोड कर तीन ओर से सीढियाँ है जिनसे हो कर चबूतरे पर चढा जा सकता है एवं चतुर्भुजी भगवान विष्णु के दर्शन किये जा सकते हैं। अंतराल वाले भाग में दीवारों पर भगवान विष्णु, उमा-महेश्वर तथा भगवान कृष्ण की लीलाओं सम्बन्धी प्रतिमायें देखी जा सकती हैं। मंदिर का गर्भगृह आयताकार है किंतु बहुत विशाल नहीं है। मंदिर का शिखर यद्यपि तुलनात्मक रूप से विशाल व दर्शनीय है। शिखर पर निश्चित अंतराल में दो द्वार बने हुए हैं। मंदिर के चारो को दो हाथी, कमल, भगवान विष्णु आदि सहित कतिपय मिथुन प्रतिमायें भी हैं।
मंदिर के अहाते में ही भगवान विष्णु की एक प्रतिमा खण्डित अवस्था में रखी हुई है। प्रतिमा अलंकृत है तथा दर्शनीय है। इस स्थान से आगे बढ कर नर्मदानदी के विस्तार का आनंद लिया जा सकता है। यहाँ से ओमकारेश्वर का पुराना पुल, अनेकों मंदिर व प्राकृतिक दृष्य दृष्टिगोचर होते हैं। ओमकारेश्वर में अवस्थित यह भव्य विष्णु मंदिर पर्यटकों की उपेक्षा क्यों झेल रहा है इसका कारण संभवत: इस स्थान के समुचित प्रचार – प्रसार का न होना है। मुझे लगता है कि किसी स्थान की महत्ता को यदि वास्तव में जानना-समझना है तो ऐसे ही अल्प-चर्चित स्थलों के लिये थोड़ा समय निकालना भी आवश्यक है।
***
नवगीत
गुरु विपरीत
*
गुरु विपरीत
हमेशा चेले
*
गाँधी कहते सत्य बोलना
गाँधीवादी झूठ बोलते
बुद्ध कहें मत प्रतिमा गढ़ना
बौद्ध मूर्तियाँ लिये डोलते
जिन मुनि कहते करो अपरिग्रह
जैन संपदा नहीं छोड़ते
चित्र गुप्त हैं निराकार
कायस्थ मूर्तियाँ लिये दौड़ते
इष्ट बिदा हो जाता पहले
कैसे यह
विडंबना झेले?
गुरु विपरीत
हमेशा चेले
*
त्यागी मठ-आश्रम में बैठे
अपने ही भक्तों को लूटें
क्षमा करो कहते ईसा पर
ईसाई दुश्मन को कूटें
यवन पूजते बुत मक्का में
लेकिन कहते बुत हैं झूठे
अभियंता दृढ़ रचना करते
किन्तु समय से पहले टूटें
माया कहते हैं जो जग को
रमते हैं
लगवाकर मेले
गुरु विपरीत
हमेशा चेले
*
विद्यार्थी विद्या की अर्थी
रोज निकालें नकल कर-कर
जन प्रतिनिधि जनगण को ठगते
निज वेतन-भत्ते बढ़वाकर
अर्धनग्न घूमे अभिनेत्री
नित्य न अभिनय बदन दिखाकर
हम कहते गृह-स्वामी खुद को
गृहस्वामिनी की आज्ञा लेकर
गिनें कहाँ तक
बहुत झमेले?
गुरु विपरीत
हमेशा चेले
***
नवगीत -
*
सल्ललाहो अलैहि वसल्लम
*
सल्ललाहो अलैहि
वसल्लम
क्षमा करें सबको
हम हरदम
*
सब समान हैं, ऊँच न नीचा
मिले ह्रदय बाँहों में भींचा
अनुशासित रह करें इबादत
ईश्वर सबसे बड़ी नियामत
भुला अदावत, क्षमा दान कर
द्वेष-दुश्मनी का
मेटें तम
सल्ललाहो अलैहि
वसल्लम
*
तू-मैं एक न दूजा कोई
भेदभाव कर दुनिया रोई
करुणा, दया, भलाई, पढ़ाई
कर जकात सुख पा ले भाई
औरत-मर्द उसी के बंदे
मिल पायें सुख
भुला सकें गम
सल्ललाहो अलैहि
वसल्लम
*
ज्ञान सभ्यता, सत्य-हक़ीक़त
जगत न मिथ्या-झूठ-फजीहत
ममता, समता, क्षमता पाकर
राह मिलेगी, राह दिखाकर
रंग- रूप, कद, दौलत, ताकत
भुला प्रेम का
थामें परचम
सल्ललाहो अलैहि
वसल्लम
*
कब्ज़ा, सूद, इजारादारी
नस्लभेद घातक बीमारी
कंकर-कंकर में है शंकर
हर इंसां में है पैगंबर
स्वार्थ छोड़कर, करें भलाई
ईशदूत बन
संग चलें हम
सल्ललाहो अलैहि
वसल्लम
२७-१२-२०१५
***

सोमवार, 17 दिसंबर 2018

नवगीत

नवगीत:
परीक्षा
*
किसकी कौन
परीक्षा लेता?
*
यह सोचे मैं पढ़कर आया
वह कहता है गलत बताया
दोनों हैं पुस्तक के कैदी
क्या जानें क्या खोया-पाया?
उसका ही जीवन है सार्थक
बिन माँगे भी
जो कुछ देता
किसकी कौन
परीक्षा लेता?
*
सोच रहा यह नित कुछ देता
लेकिन क्या वह सचमुच लेता?
कौन बताएं?, किससे पूछें??
सुप्त रहा क्यों मनस न चेता?
तज पतवारें
नौका खेता
किसकी कौन
परीक्षा लेता?
*
मिलता अक्षर ज्ञान लपक लो
समझ न लेकिन उसे समझ लो
जो नासमझ रहा है अब तक
रहो न चिपके, नहीं विलग हो
सच न विजित हो
और न जेता
किसकी कौन
परीक्षा लेता?
*
१७-१२-२०१५

सोमवार, 7 दिसंबर 2015

laghukatha

लघुकथा -
परीक्षा
*
अभियांत्रिकी महाविद्यालय में प्रायोगिक परीक्षाएँ चल रहीं हैं। कक्षा में विद्यार्थियों का झुण्ड अपनी प्रयोग पुस्तिका, किताबों, कैलकुलेटर तथा चलभाष आदि से सुसज्जित होकर होकर रणक्षेत्र में करतब दिखा रहा है। एक अन्य कक्ष में गरमागरम नमकीन तथा मिष्ठान्न का स्वाद लेते परीक्षक तथा प्रभारी मौखिक प्रश्नोत्तर कर रहे हैं जिसका छवि-अंकन निरंतर हो रहा है।  

पर्यवेक्षक के नाते परीक्षार्थियों से पूछा कौन सा प्रयोग कर रहे हैं? कुछ ने उत्तर पुस्तिका से पढ़कर दिया, कुछ मौन रह गये। परिचय पत्र माँगने पर कुछ बाहर भागे और अपने बस्तों में से निकालकर लाये, कुछ की जेब में थे।जो बिना किसी परिचय पत्र के थे उन्हें परीक्षा नियंत्रक के कक्ष में अनुमति पत्र लेने भेजा। कुतूहलवश कुछ प्रयोग पुस्तिकाएँ उठाकर देखीं किसी में नाम अंकित नहीं था, कोई अन्य महाविद्यालय के नाम से सुसज्जित थीं, किसी में जाँचने के चिन्ह या जाँचकर्ता के हस्ताक्षर नहीं मिले। 

प्रभारी से चर्चा में उत्तर मिला 'दस हजार वेतन में जैसा पढ़ाया जा सकता है वैसा ही पढ़ाया गया है. ये पाठ्य पुस्तकों नहीं कुंजियों से पढ़ते हैं, अंग्रेजी इन्हें आती नहीं है, हिंदी माध्यम है नहीं। शासन से प्राप्त छात्रवृत्ति के लोभ में पात्रता न होते हुए भी ये प्रवेश ले लेते हैं। प्रबंधन इन्हें प्रवेश न दे तो महाविद्यालय बंद हो जाए। हम इन्हें मदद कर उत्तीर्ण न करें तो हम पर अक्षमता का आरोप लग जाएगा। आप को तो कुछ दिनों पर्यवेक्षण कर चला जाना है, हमें यहीं काम करना है। आजकल विद्यार्थी नहीं प्राध्यापक की होती है परीक्षा कि वह अच्छा परिणाम देकर नौकरी बचा पाता है या नहीं?

***