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रविवार, 21 सितंबर 2025

सितंबर १९, हम वही हैं, निशा तिवारी, मेघ

सलिल सृजन सितंबर १९
*
विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर : समन्वय प्रकाशन जबलपुर
बचपन के दिन : साझा संस्मरण संकलन
संपादक आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान द्वारा विश्व कीर्तिमान स्थापित कर रहे साझा संकलनों दोहा दोहा नर्मदा २५०/-, दोहा सलिला निर्मला २५०/-, दोहा दिव्य दिनेश ३००/-, हिंदी सॉनेट सलिला ५००/-, चंद्र विजय अभियान ११००/- तथा फुलबगिया ११००/- की श्रंखला में बाल संस्मरण संकलन 'बचपन के दिन' का प्रकाशन किया जाना है। रचनाकारों से १३-१४ वर्ष तक की आयु के रोचक-प्रामाणिक संस्मरण संबंधित चित्रों तथा संक्षिप्त परिचय सहित आमंत्रित हैं। हर सहभागी को २ प्रतियाँ दी जाएँगी। सहभागिता निधि ३५०/- प्रति पृष्ठ (एक पृष्ठ पर लगभग २५० शब्द) + २००/- अग्रिम वाट्स ऐप क्रमांक ४९२५१८३२४४ पर संस्मरण के साथ भेजें। परिचय बिंदु- नाम, जन्म तारीख माह वर्ष स्थान, माता-पिता-जीवनसाथी के नाम, शिक्षा, संप्रति, उपलब्धि, प्रकाशित स्वतंत्र कृति, डाक का पता, ईमेल, चलभाष/वाट्स ऐप क्रमांक।    

सहभागी - 
नीलिमा रंजन जी भोपाल, खंजन सिन्हा जी भोपाल, शिप्रा सेन जी जबलपुर, जहांआरा 'गुल' जी लखनऊ, अवधेश सक्सेना जी शिवपुरी, सरला वर्मा जी भोपाल, अंजली बजाज जी नैरोबी, प्रदीप सिंह जी मुंबई, अर्जुन चव्हाण जी, कोल्हापुर, पवन सेठी जी मुंबई, बसंत शर्मा जी प्रयागराज, मनीषा सहाय राँची, अरविंद श्रीवास्तव झाँसी, शीरीन कुरेशी सरदारपुर, संतोष शुक्ला जी नवसारी, अस्मिता शैली जी जबलपुर, संगीता भारद्वाज भोपाल, भागवत प्रसाद तिवारी जी जबलपुर, मुकुल तिवारी जी जबलपुर, छाया सक्सेना जी जबलपुर, शोभा सिंह जी जबलपुर, मृगेंद्र नारायण सिंह जी जबलपुर, अश्विनी पाठक जी जबलपुर, सुरेन्द्र पवार जी जबलपुर, दुर्गेश ब्योहार जी जबलपुर, अविनाश ब्योहार जी जबलपुर, उमेश साहू जी, नवनीता चौरसिया जी जावरा। 

विशेष आकर्षण- महापुरुषों का बचपन, बचपन पर डाक टिकिट, बाल साहित्य पत्रिकाएँ, बचपन संबंधी चित्रपटीय गीत सूची, बाल कल्याण हेतु सक्रिय संस्थाएँ आदि। सहभागी शीघ्रता करें। ३० सितंबर तक संस्मरण तथा संबंधित चित्र आदि सामग्री व सहभागिता निधि वाट्सऐप ९४२५१८३२४४ पर भेजिए।
०००
नव गीत:
क्या?, कैसा है?...
*
*क्या?, कैसा है?
कम लिखता हूँ,
अधिक समझना...
*
पोखर सूखे,
पानी प्यासा.
देती पुलिस
चोर को झाँसा.
सड़ता-फिंकता
अन्न देखकर
खेत, कृषक,
खलिहान रुआँसा.
है गरीब की
किस्मत, बेबस
भूखा मरना.
क्या?, कैसा है?
कम लिखता हूँ,
अधिक समझना...
*
चूहा खोजे
मिले न दाना.
सूखी चमड़ी
तन पर बाना.
कहता: 'भूख
नहीं बीमारी'.
अफसर-मंत्री
सेठ मुटाना.
न्यायालय भी
छलिया लगता.
माला जपना.
क्या?, कैसा है?
कम लिखता हूँ,
अधिक समझना...
*
काटे जंगल,
भू की बंजर.
पर्वत खोदे,
पूरे सरवर.
नदियों में भी
शेष न पानी.
न्यौता मरुथल
हाथ रहे मल.
जो जैसा है
जब लिखता हूँ
देख-समझना.
क्या?, कैसा है?
कम लिखता हूँ,
अधिक समझना...
***
एक गीत -
हम वही हैं
*
हम वही हैं,
यह न भूलो
झट उठो आकाश छू लो।
बता दो सारे जगत को
यह न भूलो
हम वही है।
*
हमारे दिल में पली थी
सरफरोशी की तमन्ना।
हमारी गर्दन कटी थी
किंतु
किंचित भी झुकी ना।
काँपते थे शत्रु सुनकर
नाम जिनका
हम वही हैं।
कारगिल देता गवाही
मर अमर
होते हमीं हैं।
*
इंकलाबों की करी जयकार
हमने फेंककर बम।
झूल फाँसी पर गये
लेकिन
न झुकने दिया परचम।
नाम कह 'आज़ाद', कोड़े
खाये हँसकर
हर कहीं हैं।
नहीं धरती मात्र
देवोपरि हमें
मातामही हैं।
*
पैर में बंदूक बाँधे,
डाल घूँघट चल पड़ी जो।
भवानी साकार दुर्गा
भगत के
के संग थी खड़ी वो।
विश्व में ऐसी मिसालें
सत्य कहता हूँ
नहीं हैं।
ज़िन्दगी थीं या मशालें
अँधेरा पीती रही
रही हैं।
*
'नहीं दूँगी कभी झाँसी'
सुनो, मैंने ही कहा था।
लहू मेरा
शिवा, राणा, हेमू की
रग में बहा था।
पराजित कर हूण-शक को
मर, जनम लेते
यहीं हैं।
युद्ध करते, बुद्ध बनते
हमीं विक्रम, 'जिन'
हमीं हैं।
*
विश्व मित्र, वशिष्ठ, कुंभज
लोपामुद्रा, कैकयी, मय ।
ऋषभ, वानर, शेष, तक्षक
गार्गी-मैत्रेयी
निर्भय?
नाग पिंगल, पतंजलि,
नारद, चरक, सुश्रुत
हमीं हैं।
ओढ़ चादर रखी ज्यों की त्यों
अमल हमने
तही हैं।
*
देवव्रत, कौंतेय, राघव
परशु, शंकर अगम लाघव।
शक्ति पूजित, शक्ति पूजी
सिय-सती बन
जय किया भव।
शून्य से गुंजित हुए स्वर
जो सनातन
हम सभी हैं।
नाद अनहद हम पुरातन
लय-धुनें हम
नित नयी हैं।
*
हमीं भगवा, हम तिरंगा
जगत-जीवन रंग-बिरंगा।
द्वैत भी, अद्वैत भी हम
हमीं सागर,
शिखर, गंगा।
ध्यान-धारी, धर्म-धर्ता
कम-कर्ता
हम गुणी हैं।
वृत्ति सत-रज-तम न बाहर
कहीं खोजो,
त्रय हमीं हैं।
*
भूलकर मत हमें घेरो
काल को नाहक न टेरो।
अपावन आक्रांताओं
कदम पीछे
हटा फेरो।
बर्फ पर जब-जब
लहू की धार
सरहद पर बही हैं।
कहानी तब शौर्य की
अगणित, समय ने
खुद कहीं हैं।
*
हम वही हैं,
यह न भूलो
झट उठो आकाश छू लो।
बता दो सारे जगत को
यह न भूलो
हम वही है।
*
जय हिंद
जय भारत
वन्दे मातरम्
भारत माता की जय
*
पुस्तक चर्चा -
वर्तमान युग का नया चेहरा: 'काल है संक्रांति का'
समीक्षक: डॉ. निशा तिवारी
*
[पुस्तक विवरण- काल है संक्रांति का, गीत-नवगीत संग्रह, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', वर्ष २०१६, आवरण बहुरँगी, आकार डिमाई, पृष्ठ १२८, मूल्य सजिल्द ३००/-, पेपरबैक २००/-, समन्वय प्रकाशन, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, ०७६१२४१११३१, गीतकार संपर्क- ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com
*
'काल है संक्रांति का' संजीव वर्मा 'सलिल' का २०१६ में प्रकाशित नवीन काव्य संग्रह है। वे पेशे से अभियंता रहे हैं। किन्तु उनकी सर्जक प्रतिभा उर्वर रही है। सर्जना कभी किसी अनुशासन में आबद्ध नहीं रह सकती। सर्जक की अंत:प्रज्ञा (भारतीय काव्य शास्त्र में 'प्रतिभा' काव्य शास्त्र हेतु), संवेदनशीलता, भावाकुलता और कल्पना किसी विशिष्ट अनुशासन में बद्ध न होकर उन्मुक्त उड़ान भरती हुई कविता में निःसृत होती है। यही 'सलिल जी' की सर्जन-धर्मिता है। यद्यपि उनके मूल अनुशासन का प्रतिबिम्ब भी कहीं-कहीं झलककर कविता को एक नया ही रूप प्रदान करता है। भौतिकी की 'नैनो-पीको' सिद्धांतिकी जिस सूक्ष्मता से समूह-क्रिया को संपादित करती है, वह सलिल जी के गीतों में दिखाई देती है। उत्तर आधुनिक वैचारिकी के अन्तर्गत जिस झंडी-खण्ड चेतना का रूपायन सम-सामयिक साहित्य में हो रहा है वही चिन्तना सलिल जी के गीतों में सांस्कृतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनीतिक, साहित्यिक विसंगतियों के रूप में ढलकर आई है- रचनाकार की दृष्टि में यही संक्रांति का काल है। संप्रति नवलेखन में 'काल' नहीं वरन 'स्पेस' को प्रमुखता मिली है।
शब्दों की परंपरा अथवा उसके इतिहास के बदले व्यंजकों के स्थगन की परिपाटी चल पड़ी है। सलिल जी भी कतिपय गीतों में पुराने व्यंजकों को विखण्डित कर नए व्यंजकों की तलाश करते हैं। उनका सबसे प्रिय 'व्यंजक' सूर्य है। उनहोंने सूर्य के 'आलोक' के परंपरागत अर्थ 'जागरण' को ग्रहण करते हुए भी उसे नए व्यंजक का रूप प्रदान किया है। 'उठो सूरज' गीत में उसे साँझ के लौटने के संदर्भ में 'झुको सूरज! विदा देकर / हम करें स्वागत तुम्हारा' तथा 'हँसों सूर्य भाता है / खेकर अच्छे दिन', 'आओ भी सूरज! / छँट गए हैं फुट के बदल / पतंगें एकता की मिल उड़ाओ। / गाओ भी सूरज!', 'सूरज बबुआ! / चल स्कूल। ', 'हनु हुआ घायल मगर / वरदान तुमने दिए सूरज!', 'खों-खों करते / बादल बब्बा / तापें सूरज सिगड़ी' इत्यादि व्यंजक सूरज को नव्यता प्रदान करते हैं, यद्यपि कवि का परंपरागत मन सूरज को 'तिमिर-विनाशक' के रूप में ही ग्रहण करता है।
कवि का परंपरागत मन अपने गीतों में शास्त्रीय लक्षण ग्रन्थों के मंगलाचरण के अभियोजन को भी विस्मृत नहीं कर पाता। मंगलाचरण के रूप में वह सर्वप्रथम हिंदी जाति की उपजाति 'कायसिहों' के आराध्य 'चित्रगुप्त जी' की वंदना करता है। यों भी चित्रगुप्त जी मनुष्य जाति के कर्मों का लेखा-जोखा रखनेवाले देवता हैं। ऐसा माना जाता है कि उत्तर आधुनिक युग में धर्मनिरपेक्षता का तत्व प्रबल है- कवि की इस वन्दना में चित्रगुप्त जी को शिव, ब्रम्हा, कृष्ण, पैग़ंबर, ईसा, गुरु नानक इत्यादि विभिन्न धर्मों के ईश्वर का रूप देकर सर्वधर्म समभाव का परिचय दिया गया है। चित्रगुप्त जी की वन्दना में भी कवि का प्रिय व्यंजक सूर्य उभरकर आया है - 'तिमिर मिटाने / अरुणागत हम / द्वार तिहरे आए।'
कला-साहित्य की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती की अभ्यर्थना में कवि ने एक नवीन व्यंजना करते हुए ज्ञान-विज्ञान-संगीत के अतिरिक्त काव्यशास्त्र के समस्त उपादानों की याचना की है और सरस्वती माँ की कृपा प्राप्त प्राप्त करने हेतु एक नए और प्रासंगिक व्यंजक की कल्पना की है- 'हिंदी हो भावी जगवाणी / जय-जय वीणापाणी।' विश्वभाषा के रूप में हिंदी भाषा की यह कल्पना हिंदी भाषा के प्रति अपूर्व सम्मान की द्योतक है।
हिन्दू धर्म में प्रत्येक मांगलिक कार्य के पूर्व अपने पुरखों का आशिर्वाद लिया जाता है। पितृ पक्ष में तो पितरों के तर्पण द्वारा उनके प्रति श्रद्धा प्रगट की जाती है। गीत-सृजन को अत्यंत शुभ एवं मांगलिक कर्म मानते हुए कवि ने पुरखों के प्रति यही श्रद्धा व्यक्त की है। इस श्रद्धा भाव में भी एक नवीन संयोजन है- 'गीत, अगीत, प्रगीत न जानें / अशुभ भुला, शुभ को पहचानें / मिटा दूरियाँ, गले लगाना / नव रचनाकारों को ठानें कलश नहीं, आधार बन सकें / भू हो हिंदी-धाम। / सुमिर लें पुरखों को हम / आओ! करें प्रणाम।' कवि अपनी सीमाओं को पहचानता है, सर्जना का दंभ उसमें नहीं है और न ही कोई दैन्य है। वह तो पुरखों का आशीर्वाद प्राप्त कर केवल हिंदी को विश्व भाषा बनाने का स्वप्न पूरा करना चाहता है। यदि चित्रगुप्त भगवान की, देवी सरस्वती की और पुरखों की कृपा रही तो हिंदी राष्ट्रभाषा तो क्या, विश्व भाषा बनकर रहेगी। सलिल जी के निज भाषा-प्रेम उनके मंगलाचरण अथवा अभ्यर्थना का चरम परिपाक है।
उनकी समर्पण कविता इस दृष्टि से उल्लेखनीय है कि उनहोंने उसमें रक्षाबन्धन पर्व की एक सामान्यीकृत अभिव्यंजना की है। बहिनों के प्रत्येक नाम संज्ञा से विशेषण में परिवर्तित हो गए हैं और रक्षासूत्र बाँधने की प्रत्येक प्रक्रिया, आशाओं का मधुवन बन गयी है। मनुष्य और प्रकृति का यह एकीकरण पर्यावरणीय सौंदर्य को इंगित करता है। 'उठो पाखी' कविता में भी राखी बाँधने की प्रक्रिया प्रकृति से तदाकार हो गयी है।
कविता मात्र वैयक्तिक भावोद्गार नहीं है, उसका सामाजिक सरोकार भी होता है। कभी-कभी कवि की चेतना सामाजिक विसंगति से पीड़ित और क्षुब्ध होकर सामाजिक हस्तक्षेपभी करती है। श्री कान्त वर्मा ने आलोचना को 'सामाजिक हस्तक्षेप' कहा है। मेरी दृष्टि में कविता भी यदा-कदा सामाजिक हस्तक्षेप हुआ करती है। प्रतिबद्ध कवि में तो यह हस्तक्षेप निरन्तर बना रहता है। कवि सलिल ने राजनैतिक गुटबाजी, नेताओं अफसरों की अर्थ-लोलुपता, पेशावर के न्र पिशाचों की दहशतगर्दी, आतंकवाद का घिनौना कृत्य, पाक की नापाकी, लोकतंत्र का स्वार्थतंत्र में परिवर्तन, अत्याचार और अनाचार के प्रति जनता का मौन,नेताओं की गैर जिम्मेदारी, स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भी राजनीतिक कुतंत्र में वास्तविक आज़ादी प्राप्त न कर पाना इत्यादि कुचक्रों पर गीत लिखकर अपनी कृति को 'काल है संक्रांति का' नाम दिया है। वास्तव में देश की ये विसंगतियाँ संक्रमण को सार्थक बनाती हैं किन्तु उनके गीत 'संक्रांति काल है' -में संक्रांति का संकेत भर है तथा उससे निबटने के लिए कवी ने प्रेरित भी किया है। यों भी छोटे से गीत के लघु कलेवर में विसंगति के विस्तार को वाणी नहीं दी जा सकती। कवि तो विशालता में से एक चरम और मार्मिक क्षण को ही चुनता है। सलिल ने भी इस कविता में एक प्रभावी क्षण को चुना है। वह क्षण प्रभावोत्पादक है या नहीं, उसकी चिंता वे नहीं करते। वे प्रतिबद्ध कवु न होकर भी एक सजग औए सचेत कवि हैं।
सलिल जी ने काव्य की अपनी इस विधा को गीत-नवगीत कहा है। एक समय निराला ने छंदात्मक रचना के प्रति विद्रोह करते हुए मुक्त छंद की वकालत की थी लेकिन उनका मुक्त छंद लय और प्रवाह से एक मनोरम गीत-सृष्टि करता था। संप्रति कविताएँ मुक्त छंद में लिखी जा रही हैं किन्तु उनमें वह लयात्मकता नहीं है जो जो उसे संगीतात्मक बना सके। ऐसी कवितायेँ बमुश्किल कण्ठस्थ होती हैं। सलिल जी ने वर्तमान लीक से हटकर छंदात्मक गीत लिखे हैं तथा सुविधा के लिए टीप में उन छंदों के नाम भी बताए हैं। यह टीप रचनाकार की दृष्टि से भले ही औचित्यपूर्ण न हो किन्तु पाठक-समीक्षक के लिए सुगम अवश्य है। 'हरिगीतिका' उनका प्रिय छंद है।
सलिल जी ने कतिपय अभिनव प्रयोग भी किये हैं। कुछ गीत उनहोंने बुन्देली भाषा में लिखे हैं। जैसे- 'जब लौं आग' (ईसुरी की चौकड़िया फाग की तर्ज पर), मिलती कांय नें (ईसुरी की चौकड़िया फाग पर आधारित) इत्यादि तथा पंजाबी एवं सोहर लोकगीत की तर्ज पर गीत लिखकर नवीन प्रयोग किये हैं।
कवि संक्रांति-काल से भयभीत नहीं है। वह नया इतिहास लिखना चाहता है- 'कठिनाई में / संकल्पों का / नव है लिखें हम / आज नया इतिहास लिखें हम।'' साथ ही संघर्षों से घबराकर वह पलायन नहीं करता वरन संघर्ष के लिए प्रेरित करता है- 'पेशावर में जब एक विद्यालय के विद्यार्थियों को आतंकवादियों ने गोलियों से भून दिया था तो उसकी मर्मान्तक पीड़ा कवि को अंतस तक मठ गई थी किंतु इस पीड़ा से कवि जड़ीभूत नहीं हुआ। उसमें एक अद्भुत शक्ति जाग्रत हुई और कवि हुंकार उठा-
आसमां गर स्याह है
तो क्या हुआ?
हवा बनकर मैं बहूँगा।
दहशतों के
बादलों को उदा दूँगा।
मैं बनूँगा सूर्य
तुम रण हार रोओ
वक़्त लिक्खेगा कहानी
फाड़ पत्थर मैं उगूँगा।
मैं लिखूँगा।
मैं लड़ूँगा।।
*
१९.९.२०१६
संपर्क समीक्षा: डॉ. निशा तिवारी, ६५० नेपियर टाउन, भंवरताल पानी की टँकी के सामने, जबलपुर ४८२००१
चलभाष; ९४२५३८६२३४, दूरलेख: pawanknisha@gmail.com
---
नवगीत:
*
मेघ बजे
*
नभ ठाकुर की ड्योढ़ी पर फिर मेघ बजे.
ठुमुक बेड़नी नचे, बिजुरिया बिना लजे...
*
दादुर देते ताल, पपीहा-प्यास बुझी.
मिले मयूर-मयूरी मन में छाई खुशी...
तोड़ कूल-मरजाद नदी उफनाई तो-
बाबुल पर्वत रूठे, तनया तुरत तजे...
*
पल्लव की करताल, बजाती नीम मुई.
खेत कजलियाँ लिये, मेड़ छुईमुई हुई..
जन्मे माखनचोर, हरीरा भक्त पिए.
गणपति बप्पा, लाये मोदक हुए मजे...
*
टप-टप टपके टीन, चू गयी है बाखर.
डूबी शाला हाय!, पढ़ाए को आखर?
डूबी गैल, बके गाली अभियंता को.
डुकरो काँपें, 'सलिल' जोड़ कर राम भजे...
*
नभ ठाकुर की ड्योढ़ी पर फिर मेघ बजे.
ठुमुक बेड़नी नचे बिजुरिया, बिना लजे...
१९.९.२०१० 
***

मंगलवार, 16 सितंबर 2025

सितंबर, मुक्तिका, हिंदी ग़ज़ल, कुंडलिया, मेघ,

सलिल सृजन सितंबर १६
*
मुक्तिका
*
मन की बात करे अवधेश
जंगल में सिय करे प्रवेश
लखन न लख पाते हैं सत्य
करें वही जो कहें नरेश
भरत न रत सत-साधन में
राजा की जय करें हमेश
शत्रु शत्रुघन खुद अपने
बहिनें नोचें अपने केश
रजक कहे जय आरक्षण
विस्मित देखें दृश्य महेश
गुरु वशिष्ठ चुप झुका नज़र
शोकाकुल माताएँ - देश
समय हुआ विपरीत 'सलिल'
मन की बात करे अवधेश
१६-९-२०२२, ५.५७
*
हिंदी ग़ज़ल / मुक्तिका
पाठ १
हिंदी ग़ज़ल को मुक्तिका कहें क्योंकि हर द्विपदी (दो पंक्तियाँ या शे'र) शेष से मुक्त अपने आप में पूर्ण होती हैं.मुक्तिका में पदांत तथा तुकांत गज़ल की ही तरह होता है किन्तु पदभार (पंक्ति का वजन) हिंदी मात्रा गणना के अनुसार होता है. इसे हिंदी के छंदों को आधार बनाकर रचा जाता है. उर्दू ग़ज़ल बहर के आधार पर रची जाती है तथा वजन तकती'अ के मुताबिक देखा जाता है. जरूरत हो तो लघु को गुरु और गुरु को लघु पढ़ा जा सकता है, मुक्तिका में यह छूट नहीं होती.
गीतिका हिंदी छंद शास्त्र में एक स्वतंत्र छंद है जिसमें १४-१२ = २६ मात्राएँ हर पंक्ति में होती हैं तथा पंक्त्यांत में लघु-गुरु होता है.
गजल में प्रचलित बहरें और उनकी मापनी क्या है?
मुक्तिका, ग़ज़ल, तेवरी, अनुगीत, गीतिका आदि नामों से एक ही शिल्प की रचनाएँ संबोधित की जाती हैं। उनके तत्वों सम्बन्धी जानकारी-
शब्दार्थ
कवि / शायर- जानकार, जाननेवाला, ज्ञानी, वह व्यक्ति जो विधा तथा विषय को जानकर उस पर लिखता है।
द्विपदी / शे'र (बहुवचन अश'आर) - द्विपदी अर्थे दो पंक्तियाँ, शे'र = जानना, जानी हुई बात, ज्ञान।
बैत- फुटकर या अकेली दो पंक्ति तथा समान छंद व भार (वजन) की रचना।
मिसरा- पंक्ति / पद। पहली पंक्ति- अग्र पंक्ति, मिसरा ऊला। दूसरी पंक्ति- पाद पंक्ति, मिसरा सानी।
मिस्राए उला = शेर की प्रथम पंक्ति।
मिस्राए सानी = शेर की दूसरी पंक्ति।
रदीफ़ = (बहुवचन रदाइफ), पदांत, पंक्त्यांत, पंक्ति के अंत में प्रयोग हुआ शब्द या शब्द समूह। बेरदीफ = रदीफ़ रहित।
काफिया = (बहुवचन कवाफी) तुकान्त, पदांत के पहले प्रयुक्त शब्द इनके अंतिम अक्षर या मात्रा आपस में मिलते हैं।
मतला = प्रारम्भिका, उदयिका, मुखड़ा, रचना के आरंभ में प्रयुक्त पंक्ति-युग्म जिनमें तुकांत-पदांत समान हो।
मक्ता = अंतिका, समाप्तिका, अंतिम द्विपदी, इसी में रचनाकार का नाम या उपनाम रखा जाता है।
रुक्न = (बहुवचन इरकान) गण, स्तंभ, खंबा।
अज्जाये रुक्न = लय खंड।
वज्न = मात्रा भार या वर्ण संख्या।
सबब = द्विकल, दो मात्रा।
बतद= त्रिकल, तीन मात्रा।
फासला = चतुश्कल, चार मात्रा।
सदर = उदय।
अरूज़ = उत्कर्ष।
इब्तदा = प्रारंभ।
ज़रब = अंत।
तक्तीअ = शेर की कसोटी या छन्द विभाजन।
बहर = छन्द।
मुरक्कब = मिश्रित।
मजाइफ़ = परिवर्तन।
सालिम = पूर्ण।
रब्त = अन्तर्सम्बन्ध।
पदांत / रदीफ़- वह शब्द समूह, शब्द, अक्षर या मात्रा जिससे पंक्ति का अंत होता है।
तुकांत / काफ़िया- पदांत के पहले प्रयुक्त शब्द का अंतिम अक्षर या मात्रा।
उदाहरण-
१. कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं / गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं।
यहाँ 'लगे हैं' पदांत तथा 'आने व चिल्लाने' तुकांत हैं।
मुक्तिका / गजल में पहली दो पंक्तियों में प्रयुक्त पदांत और तुकांत का अगली हर दूसरी पंक्ति के अंत में प्रयोग किया जाना अनिवार्य होता है।
किसी मुक्तिका में तुकांत ही पदांत भी हो सकता है अर्थात तुकांत के बाद पदांत अलग से न हो तो भी कोई दोष नहीं है। इसे तुकांतहीन या बेदरीफ कहते हैं।
उदाहरण-
अपना बिम्ब निहारो दर्पण मत तोड़ो / राह भटकने से पहले पग को मोड़ो
यहाँ 'तोड़ो', 'मोड़ो' तुकांत और पदांत दोनों है, तुकांत के बाद पदांत अलग से नहीं है।
आरम्भिका / मुखड़ा / मतला- प्रथम दो पंक्तियाँ जिनमें छन्द, पदभार, तुकांत तथा पदांत समान हो।
इस अनुसार दो से अधिक पंक्ति-युग्म होने पर उन्हें क्रमश: प्रथम मुखड़ा (मतला ऊला), द्वितीय मुखड़ा (मतला सानी), तृतीय मुखड़ा (मतला सोम), चौथा मुखड़ा (मतला चहारम) आदि कहते हैं । पहले कई-कई मुखड़ों की रचना करना सम्मान की बात समझी जाती थी, अब दो से अधिक मुखड़ों का चलन नहीं है।
अंतिका / मक़ता- मुक्तिका / गजल की अंतिम दो पंक्तियाँ। इनमें रचनाकार अपना उपनाम / तखल्लुस का प्रयोग कर सकता है। उपनाम का प्रयोग न करने पर रचना को अन्तिकाहीन (बेमक्ता) कहा जाता है।
उपनाम / तखल्लुस- रचनाकार द्वारा प्रयुक्त नामंश, छद्म नाम या उपनाम। पहले रचना की आरंभ व अंत की द्विपदी में उपनाम प्रयोग किया जाता था। अब अंत में उपनाम देना या न देना भी ऐच्छिक है।
****
हिंदी ग़ज़ल
*
ब्रम्ह से ब्रम्हांश का संवाद है हिंदी ग़ज़ल।
आत्म की परमात्म से फ़रियाद है हिंदी ग़ज़ल।।
*
मत गज़ाला-चश्म कहना, यह कसीदा भी नहीं।
जनक-जननी छन्द-गण, औलाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
जड़ जमी गहरी न खारिज़ समय कर सकता इसे
सिया-सत सी सियासत, मर्याद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
भार-पद गणना, पदांतक, अलंकारी योजना
दो पदी मणि माल, वैदिक पाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
सत्य-शिव-सुन्दर मिले जब, सत्य-चित-आनंद हो
आsत्मिक अनुभूति शाश्वत, नाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
नहीं आक्रामक, न किञ्चित भीरु है, युग जान ले
प्रात कलरव, नव प्रगति का नाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
धूल खिलता फूल, वेणी में महकता मोगरा
छवि बसी मन में समाई याद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
धीर धरकर पीर सहती, हर्ष से उन्मत्त न हो
ह्रदय की अनुभूति का, अनुवाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
मुक्तिका है, तेवरी है, गीतिका भी कह रहे
भाव का अनुभूति से संवाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
परिश्रम, पाषाण, छेनी, स्वेद गति-यति नर्मदा
युग रचयिता प्रयासों की दाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
***
[महाभागवत जातीय छन्द]
२-५-२०१६
सी २५६ आवास-विकास, हरदोई
***
काव्य पत्राचार
शायरे-आज़म नूर साहेब के शागिर्दे खास जनाब देवकीनंदन 'शांत' हिंदी भूषण
उम्र भर लड़ता रहा हूँ, गम की लहरों से अशांत
धीरे-धीरे ग़म का सागर, 'शांत' होकर रह गया। - शांत
*
बिन 'सलिल' सागर पियासा, शांत कैसे हो कहो?
धरा की गोदी में हो, या हाथ में साकी के हो। -सलिल
१६-९-२०१९
***
मुक्तक-
पंचतत्व तन माटी उपजा, माटी में मिल जाना है
रूप और छवि मन को बहलाने का हसीं बहाना है
रुचा आपको धन्य हुआ, पाकर आशीष मिला संबल
है सौभाग्य आपके दिल में पाया अगर ठिकाना है
*
सलिल-लहर से रश्मि मिले तो, झिलमिल हो जीवन नदिया
रश्मि न हो तम छाये दस-दिश, बंजर हो जग की बगिया
रश्मि सूर्य को पूज्य बनाती, शशि को देती रूप छटा-
रश्मि ज्ञान की मिल जाए तो जीवात्मा होती अभया
*
आभा-प्रभा-ज्योति रश्मि की, सलिल-धार में छाया सी
करें कल्पना रवि बिम्बित, है प्रतुल अर्चना माया की
अनुश्री सुमन बिखेरे, दर्शन कर बृजनाथ हुए चंचल
शरद पवन प्रभु राम-शत्रुघन, शिव अशोक लाये शतदल
हैं राजेंद्र-सुरेंद्र बंधु रणवीर संग कमलेश विभोर
रच आदर्श सृष्टि प्रमुदित-संजीव परमप्रभु थामे डोर
***
कुंडलिया-
राधे मेरी स्वामिनी!, कृष्ण विकल कर जोर
मना रहे हैं मानिनी, विमुख हुईं चित चोर
विमुख हुईं चित चोर, हँसें लख प्रिय को कातर
नटवर नट, वर रहा वेणु को, धर अधराधर
कहे 'सलिल' प्रभु चपल मनाते 'करो न देरी
नयन नयन से विहँस मिलाओ, राधे मेरी'
१६-९-२०१६
***
कृति चर्चा:
'अब और नहीं बस' : बेबसी के शब्द चित्र
*
[कृति विवरण: अब और नहीं बस , नवगीत संग्रह, गीता पंडित, २०१३, आकार डिमाई, आवरण पेपरबैक, बहुरंगी, पृष्ठ १२८, १९५/-, शलभ प्रकाशन, ११९ गंगा लेन, सेक्टर ५, वैशाली २०१०१० संपर्क: ०१२० ४१०१६०२]
...
सामान्यत: और विशेषकर गीत/नवगीत अनुभूतिपरक विधा है। गीत में वैयक्तिक और नवगीत में समष्टिगत अनुभूतियों की अभिव्यक्ति का विधान है। नवगीत वर्ग चेतना की चर्चा करते हुए भी उसे वर्ग विशेष तक सीमित नहीं रखता। नवगीत को उसके आरंभिक वर्षों के प्रतिमानों में कैद रखने के पक्षधर यह संघ पढ़कर नाक-भौं सिकोड़ें तो भी समय-सलिला का प्रवाह मूलकी ओर नहीं जा सकता।
वरिष्ठ नवगीतकार और समीक्षक राधेश्याम बंधु के अनुसार 'नवगीत की मूलभूत शैल्पिक अवधारणा और प्रतिमानों को पुनः परिभाषित करने की आवश्यकता महसूस की जा रही है।' -नवगीत के नये प्रतिमान
डॉ. शिवकुमार मिश्र के मत में 'आज नवगीत भावुक मन की मध्यकालीन बोध की चीज नहीं है बल्कि वह समय की सारी विसंगतियों और विद्रूपताओं से उसी तरह मुठभेड़ कर रहा है जिस तरह आधुनिक कही और माने जानेवाली गद्य कविता कर रही है। नवगीतों के रचना शिल्प में भाषा, अलंकार, छंद आदि समूचे रचना विधान में महत्वपूर्ण बदलाव आया है। वह समय की अभिव्यक्ति के रूप में आज हमसे मुखतिब हैकृति चर्चा:
'अब और नहीं बस' : बेबसी के शब्द चित्र
चर्चाकार: आचार्य संजीव
*
[कृति विवरण: अब और नहीं बस , नवगीत संग्रह, गीता पंडित, २०१३, आकार डिमाई, आवरण पेपरबैक, बहुरंगी, पृष्ठ १२८, १९५/-, शलभ प्रकाशन, ११९ गंगा लेन, सेक्टर ५, वैशाली २०१०१० संपर्क: ०१२० ४१०१६०२]
...
सामान्यत: और विशेषकर गीत/नवगीत अनुभूतिपरक विधा है। गीत में वैयक्तिक और नवगीत में समष्टिगत अनुभूतियों की अभिव्यक्ति का विधान है। नवगीत वर्ग चेतना की चर्चा करते हुए भी उसे वर्ग विशेष तक सीमित नहीं रखता। नवगीत को उसके आरंभिक वर्षों के प्रतिमानों में कैद रखने के पक्षधर यह संघ पढ़कर नाक-भौं सिकोड़ें तो भी समय-सलिला का प्रवाह मूल की ओर नहीं जा सकता।
वरिष्ठ नवगीतकार और समीक्षक राधेश्याम बंधु के अनुसार 'नवगीत की मूलभूत शैल्पिक अवधारणा और प्रतिमानों को पुनः परिभाषित करने की आवश्यकता महसूस की जा रही है।'
डॉ. शिवकुमार मिश्र के मत में 'आज नवगीत भावुक मन की मध्यकालीन बोध की चीज नहीं है बल्कि वह समय की सारी विसंगतियों और विद्रूपताओं से उसी तरह मुठभेड़ कर रहा है जिस तरह आधुनिक कही और माने जानेवाली गद्य कविता कर रही है। नवगीतों के रचना शिल्प में भाषा, अलंकार, छंद आदि समूचे रचना विधान में महत्वपूर्ण बदलाव आया है। वह समय की अभिव्यक्ति के रूप में आज हमसे मुखातिब है।
डॉ. नामवर सिंह में अनुसार ' समय की चुनौती के अनुसार यदि गीत की अंतर्वस्तु बदलती है तो उसका 'सुर' और 'कहन' की बदलती है।'
उक्त तीनों अभिमतों के प्रकाश में गीता पंडित के तीसरे (पहला मौन पलों का स्पंदन १९११, दूसरा लकीरों के आर-पार १९१३) नवगीत संग्रह 'अब और नहीं बस' को पढ़ना और उस पर चर्चा करना बेहतर होगा। विवेच्य संग्रह का केंद्र नारी उत्पीड़न और नारी विमर्श है। 'पीर के हर एक समंदर / को बना नदिया / बहो तुम', 'ओ री चिड़िया! / तनिक ज़रा तुम / मुख तो खोलो', ' गांठें इतनी / लगी पलों में / मन की रस्सी टूट गयी', 'मैं जो हूँ / बस वो ही हूँ / करो ना हस्ताक्षर मुझ पर', 'अपने घर हो / गये पराये / वहशी आदम जात लगे', 'एकाकी गलियों में जाकर / मन तो / रोया करता है', 'कसकता रहा / रात भर मनवा / पीर हुई पल में गहरी', 'लेकिन जो / अंतर को छू ले / ऐसा साथी मिला कहाँ?', 'पहनाई ये / कैसी पायल / जिनमें बोल नहीं सजते', 'सब कुछ बदल / रहा है लेकिन / पीर कहाँ बदली मीते!', 'भूल गयी मैं देस पीया का / असुंवन भीगे / गाल', 'मौन हो गये / मन के पाखी / मौन हुई डाली-डाली', 'मात्र समर्पण / की हूँ दासी / बिन इसके कुछ भान नहीं', ' नीर / सिसकते गहरे / शेष अभी / क्या है तन में?' आदि-आदि अभियक्तियाँ नारी की व्यथ-कथा पर ही केंद्रित हैं।
प्रश्न यह उठता है कि नवगीत वर्ग विशेष की अनुभूतियों का वाहक हो या समग्र समाज की भावनाओं का पोषक हो? यह भी कि क्या वास्तव में नारी इतनी पीड़ित है कि उसका जीवन दूभर है? यदि ऐसा है तो घर-घर में जो शक्ति माँ, बहिन, भाभी, पत्नी, बेटी के रूप में मान, ममता, आदर, प्यार और लाड़ पा रही, अपने सपने साकार कर रही और पुरुष का सहारा ही नहीं सम्बल भी बन रही है, वह कौन है? स्त्री-पुरुष संबंध में टूटन हो तो क्या पीड़ा केवल स्त्री को होती है? पुरुष की टूटन भी क्या चिंतन का विषय नहीं होना चाहिए? क्यास्त्री प्रताड़ना का दोषी पुरुष मात्र है? क्या स्त्री का शोषण स्त्री खुद भी नहीं करती? क्या सास-बहू, नन्द भाभी, विमाता, सौतन आदि की भूमिकाओं में खलनायिकाएँ स्त्री ही नहीं होतीं? इस प्रश्नों पर विचरण का यहाँ न स्थान है न औचित्य किन्तु संकेतन इसलिए कि संग्रह की रचनाओं में यह एकांगी स्वर मुखर हो रहा है। इससे रचनाकार की तटस्थता और निष्पक्षता के साथ-साथ सृजन के उद्देश्य पर भी सवाल उठता है।
यदि वाकई यह पीड़ा इतनी घनीभूत तथा असह्य है तो फिर नारी-मन में पीड़ा के कारण पुरुष के प्रति विद्रोह के स्थान पर आकर्षण क्यों?, पुरुष के साथ की कामना क्यों? 'हरकारा संदेसा लेकर / जैसे ही आया / ढोल नगाड़े / बज उठे / लो उत्सव मन छाया', 'एक तुम्हारे बिन कैसे / आज सुन्दर है तन-मन', 'एक तुम्हारे संग में ही तो / मन के पंछी गाये थे', 'तुम बिन मीते! हँसी स्वप्न सब / सपने होकर / रह गये', 'भाव की हर भंगिमा ने / मीत! तुमको ही पुकारा', 'गेट बन जाऊँगी मीठे! / गुनगुना जो / दो मुझे तुम', 'छोड़ तुम्हें / किसको / ध्यायें', 'पाये ना कल मन ना बैठे हार कर / ओ परदेसी! / मीत मेरे जल्दी आना', 'जिन गीतों में / तुमको गाते / गीत वो ही बस मन भाये', 'जो जीवन में / रस घोले / ऐसा रसमय सार चाहिए / एक तुम्हारा प्यार चाहिए', 'अस्त होते / सूर्य सा ढलना सहा है / मीत तुम बिन', 'तुम सुधा का सार प्यासी / बूँद हूँ मैं / तुमसे ही अस्तित्व मेरा', 'इस अँधेरी रात के / लो पायताने बैठकर / फिर तुम्हें दोहरा रही हूँ / 'मीत! तुमको गा रही हूँ', 'द्वारे बैठे बात जोहती / जल्दी से आ जाओ' आदि भावभिव्यक्तियाँ नारी उत्पीड़न के स्वर को कमजोर ही नहीं करतीं, झुठ्लाती भी हैं।
श्रृंगार के मिलन-विरह दो पक्षों की तरह इन्हें एक-दूसरे का पूरक मान लेने पर भी ये अभिव्यक्तियाँ पारम्परिकता का ही निर्वहन करती प्रतीत होती हैं, इनमें जनसंवादधर्मिता अथवा भावों का सामान्यीकरण नहीं दिखता।
गीता पंडित सुशिक्षित (एम. ए. अंग्रेजी साहित्य, एम. बी. ए. विपणन), सचेतन तथा जागरूक हैं किन्तु उनके इन गीतों में नगरीय परिवेश में शोषित होते, संघर्ष करते, टूटते-गिरते, उठते-बढ़ते मानवों की जय-पराजय का संकेतन नहीं है। ये गीत दैनंदिन जीवन संघर्षों, अवसादों-उल्लासों से दूर निजी दुनिया की सैर कराते हैं।
गीता पंडित के गीतों की भाषा सहज बोधगम्य, मुहावरेदार, प्रसाद गुण संपन्न है। अंग्रेजी, उर्दू, अथवा तत्सम-तद्भव शब्द कहीं-कहीं प्रयोग हुए हैं। इन गीतों का सबलपक्ष इनकी सहजता, सरलता तथा सरसता है। मीत, मीता, मीते सम्बोधन की बारम्बार आवृत्ति खटकती है। गीता जी शिल्प पर कस्थ्य को वरीयता देती हैं। वे शब्दों, तथा क्रियाओं के प्रचलित रूपों का सहजता से प्रयोग करती हैं। ल्हाश, बस्स, क्यूँ, यूं, कन्नी, समंदर, अलस्सवेरे, झमाझम, मनवा, अगन, बत्यकार, मद्धम, जैसे देशज शब्द भाषा में मिठास घोलते हैं।
'देख आज ये कैसा मेरे / मन पर लगे / मलाल, प्रेम गली बुहरा आये, मनवा आता अँखियाँ मूँद, तनिक ज़रा तुम, नेह का मौली' जैसी अभिव्यक्तियों पर पुनर्विचार कर परिवर्तन अपेक्षित है।
सारत: अब और नहीं बस के गीत पाठक को रुचेंगे किन्तु समीक्षकों की दृष्टि से गीत-नवगीत की परिधि पर हैं। गीता जी छंद को अपनाती हैं पर उसके विधाओं के प्रति आग्रही नहीं है। वे 'सहज पके सो मीठा होय' की लोकोक्ति की पक्षधर हैं। आलोच्य संग्रह के गीत रचनाकार के मंतव्य को पाठकों-श्रोताओं तक पहुँचाने में सफल हैं। उनके पूर्व २ संकलन देखें के बाद विकास यात्रा की चर्चा हो सकेगी। आगामी संकलन में उनसे नवगीत के विधानात्मक पक्ष के प्रति अधिक सजगता की अपेक्षा की जासकती है.
***
अलंकार चर्चा : ७
अन्त्यानुप्रास अलंकार
जब दो या अधिक शब्दों, वाक्यों या छंद के चरणों के अंत में अंतिम दो स्वरों की मध्य के व्यंजन सहित आवृत्ति हो तो वहाँ अन्त्यानुप्रास अलंकार होता है.
छंद के अंतिम चरण में स्वर या व्यंजन की समता को अन्त्यनुप्रास कहा जाता है. इसके कई प्रकार हैं. यथा सर्वान्त्य, समान्तय, विषमान्त्य, समान्त्य-विषमान्त्य तथा सम विषमान्त्य।
अ. सर्वान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार:
सभी चरणों में अंतिम वर्ण समान हो तो सर्वान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार होता है. सामान्यत सवैया में यह अलंकार होता है.
उदाहरण:
१. धूरि भरे अति सोभित स्यामजू तैसि बनी सिर सुंदर चोटी
खेलत खात फिरैं अँगना पग पैजनिया कटि पीरी कछौटी
वा छवि को रसखान विलोकत वारत काम कलानिधि कोटी
काग के भाग बड़े सजनी हरि हाथ सों लै गयो माखन रोटी (मत्तगयन्द सवैया, ७ भगण २ गुरु, २३ वर्ण)
२. खेलत फाग सुहाग भरी अनुरागहिं कौं झरी कै
मारत कुंकुम केसरि के पिचकारिन मैं रंग को भरि कै
गेरत लाल गुलाल लली मन मोहनि मौज मिटा करि कै
जाट चली रसखानि अली मदमत्त मनौ-मन कों हरि कै (मदिरा सवैया, ७ भगण १ गुरु, २२ वर्ण)
आ. समान्त्य अंत्यानुप्रास अलंकार
सम चरणों अर्थात दूसरे, चौथे छठवें आदि चरणों में अंतिम वर्णों की समता होने पर समान्त्य अंत्यानुप्रास अलंकार होता है. दोहा में इसकी उपस्थिति अनिवार्य होती है.
उदाहरण:
१. जन्म ब्याह राखी तिलक, गृह प्रवेश त्यौहार
हर अवसर पर दें 'सलिल', पुस्तक ही उपहार
२. मेरी भव-बाधा हरो, राधा नागरि सोइ
जा तन की झांई परै, श्याम हरित दुति होइ
इ. विषमान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार
विषम अर्थात प्रथम, तृतीय, पंचम आदि चरणों के अंत में वर्णों की समता विषमान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार दर्शाती है. यह अलंकार सोरठा, मुक्तक आदि में मिलता है.
उदाहरण:
१. लक्ष्य चूम ले पैर, एक सीध में जो बढ़े
कोई न करता बैर, बाँस अगर हो हाथ में
२. आसमान कर रहा है इन्तिज़ार
तुम उड़ो तो हाथ थाम ले बहार
हौसलों के साथ रख चलो कदम
मंजिलों को जीत लो, मिले निखार
ई. समान्त्य-विषमान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार
किसी छंद की एक ही पंक्ति के सम तथा विषम दोनों चरणों में अलग-अलग समानता हो तो समान्त्य-विषमान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार होता है. यह अलंकार किसी-किसी दोहे, सोरठे, मुक्तक तथा चौपाई में हो सकता है.
उदाहरण :
१. कुंद इंदु सम देह, उमारमण करुणा अयन
जाहि दीन पर नेह, करहु कृपा मर्दन मयन
इस सोरठे में विषम चरणों के अंत में देह-नेह तथा सम चरणों के अंत में अयन-मयन में भिन्न-भिन्न अंत्यानुप्रास हैं.
२. कहीं मूसलाधार है, कहीं न्यून बरसात
दस दिश हाहाकार है, गहराती है रात
इस दोहे में विषम चरणों के अंत में 'मूसलाधार है' व 'हाहाकार है' में तथा सम चरणों के अंत में 'बरसात' व 'रात' में भिन्न-भिन्न अन्त्यानुप्रास है.
३. आँख मिलाकर आँख झुकाते
आँख झुकाकर आँख उठाते
आँख मारकर घायल करते
आँख दिखाकर मौन कराते
इस मुक्तक में 'मिलाकर', 'झुकाकर', 'मारकर' व दिखाकर' में तथा 'झुकाते', उठाते', 'करते' व 'कराते' में भिन्न-भिन्न अन्त्यानुप्रास है.
उ. सम विषमान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार
जब छंद के हर दो-दो चरणों के अन्त्यानुप्रास में समानता तथा पंक्तियों के अन्त्यनुप्रास में भिन्नता हो तो वहां सम विषमान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार होता है.
उदाहरण:
१. जय गिरिजापति दीनदयाला। सदा करात सन्ततं प्रतिपाला ।।
भाल चद्रमा सोहत नीके। कानन कुण्डल नाग फनीके ।।
यहाँ 'दयाला' व 'प्रतिपाला' तथा 'नीके' व 'फनीके' में पंक्तिवार समानता है पर विविध पंक्तियों में भिन्नता है.
अन्त्यानुप्रास के विविध प्रकारों का प्रयोग चलचित्र 'उत्सव' के एक सरस गीत में दृष्टव्य है:
मन क्यों बहका री बहका, आधी रात को
बेला महका री महका, आधी रात को
किस ने बन्सी बजाई, आधी रात को
जिस ने पलकी चुराई, आधी रात को
झांझर झमके सुन झमके, आधी रात को
उसको टोको ना रोको, रोको ना टोको,
टोको ना रोको, आधी रात को
लाज लागे री लागे, आधी रात को
देना सिंदूर क्यों सोऊँ आधी रात को
बात कहते बने क्या, आधी रात को
आँख खोलेगी बात, आधी रात को
हम ने पी चाँदनी, आधी रात को
चाँद आँखों में आया, आधी रात को
रात गुनती रहेगी, आधी बात को
आधी बातों की पीर, आधी रात को
बात पूरी हो कैसे, आधी रात को
रात होती शुरू हैं, आधी रात को
गीतकार : वसंत देव, गायक : आशा भोसले - लता मंगेशकर, संगीतकार : लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, चित्रपट : उत्सव (१९८४)
इस सरस गीत और उस पर हुआ जीवंत अभिनय अविस्मरणीय है.इस गीत में आनुप्रासिक छटा देखते ही बनती है. झांझर झमके सुन झमके, मन क्यों बहका री बहका, बेला महका री महका, रात गुनती रहेगी आदि में छेकानुप्रास मन मोहता है. इस गीत में अन्त्यानुप्रास का प्रयोग हर पंक्ति में हुआ है
***
विमर्श :
साहित्यिक चोरी : सत्य या मुगालता
रचनाकारों द्वारा बहुधा यह कहा जाता है कि एक की रचना दूसरे ने चुरा ली. इतना कहते ही दोनों चर्चा में आ जाते हैं. क्रिया-प्रतिक्रिया का दौर चलता है. यह आरोप प्राय: कुछ पंक्तियों या शब्दों की समानता से लेकर पंक्तियों और पूरी रचना चुराने तक लगाया जाता है.
इस विषय के कुछ और भी पहलू हैं.
१. क्या दो लोगों के मन में एक जैसे विचार, एक सी शब्दावली में नहीं आ सकते?
एक समान विचार तो अनेक लोगों के हो सकते हैं. विचारों के अभिव्यक्ति के लिये प्रयोग की गयी भाषा, शब्द,भाव, वाक्य, शैली आदि में अंतर प्राय: होता है. प्रश्न यह कि क्या किन्हीं २ रचनाकारों की कलम से शत-प्रतिशत एक जैसी रचना निकल सकती है?
मुझे ज्ञात है आप झट से कह देंगे नहीं,ऐसा नहीं हो सकता.
मैं आपसे सहमत हूँ पर पूरी तरह सहमत नहीं हूँ. मेरे ५० वर्ष से अधिक के साहित्योक जीवन में एक प्रसंग ऐसा है जब २ रचनाकारों की रचना शत-प्रतिशत समान हुई. उनमें से के मैं हूँ और दूसरे लखनऊ के एक रचनाकार हैं. हम दोनों एक दूसरे से परिचित नहीं हैं. दोनों की रचनाधर्मिता इतनी प्रखर है कि उन्हें अन्य की रचना आवश्यकता नहीं है. हमारे कार्यक्षेत्र और प्रकाशन का दायरा भी भिन्न है.वर्षों पूर्व मैंने एक सरस्वती वंदना रची, स्थानीय स्टार पर प्रकाशित हुई. कुछ वर्षों बाद एक काव्य संग्रह समीक्षार्थ मिल. वह सरस्वती जी की स्तुतियों का ही संग्रह था. उसमें एक वंदना मुझे अपनी रचना की तरह लगी, पथ मिलाया तो शब्द-शब्द, पंक्ति-पंक्ति समान। आश्चर्य हुआ, रचनाकार के बारे में जानकारी ली. वे उस रचना को कई वर्षों पूर्व से यत्र-तत्र पढ़ रहे थे. उनके विपुल साहित्य को देखते हुए उनकी क्षमता में कोई संदेह नहीं किया जा सकता था. संभवत:मैंने रचना बाद में की थी. मुझे ज्ञात है कि मैंने उनकी कोई रचना पहले पढ़ी नहीं थी. नकल या चोरी का प्रश्न ही नहीं हो सकता। एक ही सम्भावना थी की दोनों के मस्तिष्क में सम्मान विचार आये और दोनों ने समान शब्दों का चयन कर उन्हें व्यक्त किया. जब भी किसी से यह चर्चा करता हूँ वह इसे स्वीकार नहीं पाता किन्तु मैं तो जानता हूँ कि ऐसा हुआ है. मैंने आज तक उन सज्जन को भी यह नहीं बताया.
यह 'रेयरेस्ट ऑफ़ रेयर' प्रकरण है किन्तु है.
रचनाकार जिस वर्णमाला और शब्दावली का प्रयोग करता है, वह उसकी अपनी नहीं होती। हम सब किसी और द्वारा विकसित वर्णों और शब्दों का प्रयोग करते हैं. हमारी शैली, भाव, बिम्ब, प्रतीक, रूपक, छंद, लय, रस आदि हमसे पहले कई लोग प्रयोग में ला चुके होते हैं तो क्या इसे भी चोरी कहा जाएगा?
यदि हर रचनाकार अपनी वर्णमाला,शब्द मुहावरे, प्रतीक,बिम्ब, रूपक बनाये तो एक दूसरे को समझना कैसे संभव होगा? अत:यह स्पष्ट है की कोई भी सौ प्रतिशत मौलिक नहीं होता। हर रचनाकार पर किसी न किसी का,कहीं न कहीं से प्रभाव होता है. प्रभाव ही न हो तो साहित्य रचा ही क्यों जाए?
३. क्या आपने किसी चोर को धनपति होते देखा-सुना है?यदि कोई रचनाकार इतना असमर्थ है कि रचना लिख ही न सके तो कितनी रचनाएँ चुराएगा? आज साहित्य के श्रोता-पाठक न होने का रोना हम सब रोते हैं. किताबें न बिकने की शिकायत आम है. ऐसी स्थिति में कोई रचना चुराकर क्या कर लेगा?
४. आरम्भ में मित्र रचनाकार मुझे अंतर्जाल पर रचनाएँ लगाने से रोकते थे कि कोई चुरा लेगा. वे अपनी रचनाएँ चोरी के भय से नहीं अंतर्जाल पर नहीं लगाते थे पर समय के साथ भय मिट गया. २० वर्ष बाद आज अधिकाधिक रचनाकार यहाँ हैं. जब लोग श्रेष्ठतम रचनाएँ नहीं चुरा रहे तो मैं क्यों डरूँ? कोई रचना ही तो चुराएगा मेरा मस्तिष्क तो नहीं चुरा लेगा.
५. यदि कोई मेरी रचना अपने नाम से छाप ले तो क्या करूँ? उससे लड़ने में या उस सम्बन्ध में लिखने में जितना समसमय लगेगा उससे काम समय में मैं नयी रचना कर लूँगा. शिकायत से मन को क्लेश मिलेगा, रचना से आनंद. मन अपनी बुद्धि, समय और ऊर्जाव्ययकर क्लेशक्लेश क्यों लूँ?, आनंद लेता हूँ.
रचना कर्म के प्रतिदान में किसी लाभ (पुरस्कार,राशि या सम्मान) की अपेक्षा नहीं करना चाहिए। गीता भी यही कहती है 'कर्मण्ये वाधिकारस्ते माँ फलेषु कदाचन'. रचना सरस्वती मैया की कृपा से की जाती है. रचनाकार केवल माध्यम होता है. शब्द ब्रम्ह मस्तिष्क को माध्यम बनाकर प्रगत होता है और उसे शब्द ब्रम्ह उपासकों तक पहुँचाने का दायित्व रचनाकार को मिलना उसका सौभाग्य है. जिस तरह डाकिया डाक पहुँचाने का माध्यम है, डाक का मालिक नहीं वैसे ही रचनाकार भी रचना का मालिक नहीं है. इसी कारण वेदों का कोई रचयिता नहीं व् अन्य ग्रंथों का कोई रचयिता नहीं है. प्रतिलिप्याधिकार (कॉपीराइट) की संकल्पना ही भारत में नहीं की गयी. यह पश्चिम से आयातित है.
सार यह कि अपना सृजन कर्म निष्काम भाव से पूजा की तरह करना चाहिए. उसे मिली प्रशंसा या आलोचना तटस्थ भाव से ग्रहण करनी चाहिए. रचना को सार्वजनिक रूप से प्रस्तुत करने के बाद उसकी चिंता छोड़ नयी रचना पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।
१६-९-२०१५
***
शरतचंद्र
कालजयी बंगला कथाकार/उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय का जन्म १५ सितम्बर १८७६ को हुगली में हुआ था। १९०७ में इनका पहला उपन्यास 'बोडदीदी' प्रकाशित हुआ था। १९१४ में 'परिणीता' व 'बिराज बहू' आया। १९०१ में लिखा 'श्रीकांत' (४ भाग) प्रकाशित हुआ। 'देवदास' इन्होनें १९०१ में लिखा था पर प्रकाशन हुआ १९१७ में। कुल ३९ उपन्यासों के लेखक शरत बाबू विश्वसाहित्य की विभूति हैं। मन के अवगुंठन के चितेरे हैं शरतचंद्र। देवदास को ही देखिये। वास्तव में हर प्रेमी देवदास ही होता है। यह चरित्र आज प्रेमी का प्रतीक बन गया है। इस उपन्यास पर विभिन्न भाषाओँ में १६ बार फ़िल्में बन चुकी हैं और हर फिल्म लोकप्रिय हुई। फिल्मकारों ने इन्हें वाजिब हक़ दिया है इनके लिखे पर फ़िल्में बनाकर। परिणीता, मंझली दीदी, बिराज बहू इसके उदाहरण हैं। विष्णु प्रभाकर जी ने शरत पर आत्म चरितात्मक उपन्यास 'आवारा मसीहा' लिखा है।
***
गीत
मेघ का सन्देश
*
गगनचारी मेघ हूँ मैं.
मैं न कुंठाग्रस्त हूँ.
सच कहूँ तुम मानवों से
मैं हुआ संत्रस्त हूँ.
मैं न आऊँ तो बुलाते.
हजारों मन्नत मनाते.
कभी कहते बरस जाओ-
कभी मुझको ही भगाते..
सूख धरती रुदन करती.
मौत बिन, हो विवश मरती.
मैं गरजता, मैं बरसता-
तभी हो तर, धरा तरती..
देख अत्याचार भू पर.
सबल करता निबल ऊपर.
सह न पाती गिरे बिजली-
शांत हो भू-चरण छूकर.
एक उँगली उठी मुझ पर.
तीन उँगली उठीं तुझ पर..
तू सुधारे नहीं खुद को-
तम गए दे, दीप बुझकर..
तिमिर मेरे संग छाया.
आस का संदेश लाया..
मैं गरजता, मैं बरसता-
बीज ने अंकुर उगाया..
तूने लाखों वृक्ष काटे.
खोद गिरि तालाब पाटे.
उगाये कोंक्रीट-जंगल-
मनुज मुझको व्यर्थ डांटे.
नद-सरोवर फिर भरूँगा.
फिर हरे जंगल करूँगा..
लांछन चुप रह सहूँगा-
धरा का मंगल करूँगा..
१६-९-२०१०
***

मंगलवार, 22 जुलाई 2025

जुलाई २२, सुग्गा,हाड़ौती मुक्तिका, रामकिसोर, यमक, महिला क्रिकेट, पुर, सॉनेट, मेघ

सलिल सृजन जुलाई २२
विश्व मस्तिष्क दिवस
*
पूर्णिका
मत हो चंचल
मन रह अविचल
देख रहा वह
कण-कण हर पल
देख सका है 
कहो कौन कल?
छलिए पर जय
पाने कर छल
सबल वही जो
निर्बल का बल
यदि कल उगना 
आज मौन ढल
सलिल नयन में
बन सपना पल
२२.७.२०२५
०0०
मेघ
मेघदूत संदेश यक्ष का पहुँचाना भूले,
मेघासुर सम रूप बदलकर लड़ते-भिड़ते हैं,
पवन झुलाता झूला फिर भी शांत न होते हैं,
गरज गरज कर गुस्सा करते, गिरते-उठते हैं।
मल्ल लड़ाते पंजा, पल पल दांँव बदलते हैं,
झपट पकड़ते, बगली देते, टाँग अड़ाते हैं,
रपट फिसलते, सँभल न गिरते, मचल लपकते हैं,
कुछ न किसी को कभी समझते फँसा-गिराते हैं।
रूपवती दामिनी अदा दिखला भरमा गिरती,
घर घमंड का खाली होता फूटे जल-गगरी,
कोष लुटा सिर पीटें पर तकदीर नहीं जगती,
ठेंगा दिखा भागती आती हाथ न गिर बिजुरी।
वसुधा गिरा सलिल संचित कर हँस हरियाती है।
जब दिखता है कहीं बदरवा, मोद मनाती है।।
२२-७-२०२३
•••
छंद सलिला : सॉनेट
तिरंगा
ध्वज न केवल मैं तिरंगा
चिरंतन बलिदान हूँ मैं
लोक के हित सदा बेकल
सनातन अरमान हूँ मैं
सद्भाव हूँ मैं, शांति हूँ
चाहता सबका भला नित
नव सृजन की क्रांति भी हूँ
साध्य केवल लोक का हित
हरितिमा हूँ, भाग्य-भाषा
अहर्निश उन्नति-परिश्रम
स्वेद उपजी नवल आशा
जन प्रगति का चक्र अनुपम
आत्म जेता लो न पंगा
ध्वज न केवल मैं तिरंगा
(शेक्सपीरियन सॉनेट)
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छंद सलिला : (अभिनव प्रयोगः प्रदोष सॉनेट)
मुखिया
नव मुखिया को नमन है
सबके प्रति समभाव हो
अधिक न न्यून लगाव हो
हर्षित पूरा वतन है
भवन-विराजी है कुटी
जड़ जमीन से है जुड़ी
जीवटता की है धनी
धीरज की प्रतिमा धुनी
अग्नि परीक्षा है कड़ी
दिल्ली के दरबार में
सीता फिर से है खड़ी
राह न किंचित सहज है
साथ सभी का मिल सके
यह संयोग न महज है
२२-७-२०२२
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छंद सलिला : (अभिनव प्रयोगः प्रदोष सॉनेट)
प्रदोष रहिए खुशी से
हमेशा करें व्रत-कथा
जीतें हर बाधा-व्यथा
आशीष मिले शिवा से
प्रदोष रचिए हमेशा
अठ-पच कल मिल खेलिए
सुख-दुख सम चुप झेलिए
विनम्र रहिए हमेशा
गुरु लघु हो न पदांत में
आस्था मिले न भ्रांत में
रखिए शांति दिनांत में
चौदह पद सॉनेट में
चौ चौ चौ दो या रहे
चौ चौ त्रै त्रै पद सदा
२२-७-२०२२
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नवगीत
तुम्हें प्रणाम
*
मेरे पुरखों!
तुम्हें प्रणाम।
*
सूक्ष्म काय थे,
चित्र गुप्त विधि ,
अणु-परमाणु-विषाणु विष्णु हो धारे तुमने।
कोष-वृद्धि कर
'श्री' पाई है।
जल-थल--नभ पर
कीर्ति-पताका
फहराई है।
पंचतत्व तुम
नाम अनाम।
मेरे पुरखों!
तुम्हें प्रणाम।
*
भू-नभ
दिग्दिगंत यश गाते।
भूत-अभूत तुम्हीं ने नाते, बना निभाए।
द्वैत दिखा,
अद्वैत-पथ वरा।
कहा प्रकृति ने
मनुज है खरा।
लड़, मर-मिटे
सुरासुर लेकिन
मिलकर जिए
रहे तुम आम।
मेरे पुरखों!
तुम्हें प्रणाम।
*
धरा-पुत्र हे!
प्रकृति-मित्र हे!
गही विरासत हाय! न हमने, चूक यही।
रौंद प्रकृति को
'ख़ास' हो रहे।
नाश बीज का
आप बो रहे।
खाली हाथों
जाना फिर भी
जोड़ मर रहे
विधि है वाम।
२२-७-२०१९
***
मुक्तक
दीप्ति तम हरकर उजाला बाँट दे
अब न शर्मा शतक से तम छांट दे
दस दिशाओं से सुनो तुम तालियाँ
फाइनल लो जीत धोबीपाट दे
*
एकता है तो मिलेगी विजय भी
गेंद की गति दिशा होगी मलय सी
खाए चक्कर ब्रिटिश बल्लेबाज सब
तिरंगा फ़हरा सके, हो जयी भी
***
महिला क्रिकेट के दोहे
स्मृति का बल्ला चला, गेंद हुई रॉकेट.
पलक झपकते नभ छुए, गेंदबाज अपसेट.
*
कैसे करती अंगुलियाँ, पल में कहो कमाल.
मात दे रही पेस से, झूलन मचा धमाल.
*
दीप्ति कौंधती दामिनी, गिरे उड़ा दे होश.
चमके दमके निरंतर, कभी न रीते कोश.
*
पूनम उतरी तो हुई, अजब अनोखी बात.
घिरे विपक्षी तिमिर में, कहें अमावस तात.
*
शर संधाना तो हुई, टीम विरोधी ढेर.
मंधाना के वार से, नहीं किसी की खैर.
२२.७.१७
***
मनहरण छन्द
विधान: 8-8-8-7 वर्ण
.
चीनियों को ठोंककर, पाकियों को पीटकर, फ़हरा तिरंगा आज, हम मुसकाएँगे.
लाख मतभेद रहें, पर मनभेद ना हों, जन गण मन, वंदे मातरम गाएँगे.
सिक्किम भूटान नेपाल की न बात करो, तिब्बत को भी 'सलिल', आजाद हम कराएँगे.
भारत के भाग, किसी वक्त जो अलग हुए, एक साथ जोड़, आर्यावर्त हम बनाएँगे.
***
गीत
कारे बदरा
*
आ रे कारे बदरा
*
टेर रही धरती तुझे
आकर प्यास बुझा
रीते कूप-नदी भरने की
आकर राह सुझा
ओ रे कारे बदरा
*
देर न कर अब तो बरस
बजा-बजा तबला
बिजली कहे न तू गरज
नारी है सबला
भा रे कारे बदरा
*
लहर-लहर लहरा सके
मछली के सँग झूम
बीरबहूटी दूब में
नाचे भू को चूम
गा रे कारे बदरा
*
लाँघ न सीमा बेरहम
धरा न जाए डूब
दुआ कर रहे जो वही
मनुज न जाए ऊब
जारे कारे बदरा
*
हरा-भरा हर पेड़ हो
नगमे सुना हवा
'सलिल' बूंद नर्तन करे
गम की बने दवा
जारे कारे बदरा
२२-७-२०१६
***
दोहा-यमक
*
गले मिले दोहा यमक, गणपति दें आशीष।
हो समृद्ध गणतंत्र यह, गणपति बने मनीष।।
*
वीणावादिनि शत नमन, साध सकूं कुछ राग ।
वीणावादिनि है विनत, मन में ले अनुराग। ।
*
अक्षर क्षर हो दे रहा, क्षर अक्षर ज्ञान।
शब्द ब्रह्म को नमन कर, भव तरते मतिमान।।
*
चित्र गुप्त है चित्र में, देख सके तो देख।
चित्रगुप्त प्रति प्रणत हो, अमिट कर्म का लेख।।
*
दोहा ने दोहा सदा, भाषा गौ को मीत।
गीत प्रीत के गुँजाता, दोहा रीत पुनीत।।
*
भेंट रहे दोहा-यमक, ले हाथों में हार।
हार न कोई मानता, प्यार हुआ मनुहार।।
*
नीर क्षीर दोहा यमक, अर्पित पिंगल नाग।
बीन छंद, लय सरस धुन, झूम उठे सुन नाग।।
*
गले मिले दोहा-यमक, झपट झपट-लिपट चिर मीत।
गले भेद के हिम शिखर, दमके ऐक्य पुनीत।।
*
ग्यारह-तेरह यति रखें, गुरु-लघु हो पद अंत।
जगण निषिद्ध पदादि में, गुरु-लघु सम यति संत।।
*
नाहक हक ना त्याग तू, ना हक पीछे भाग।
ना मन में अनुराग रख, ना तन में बैराग।।
*
ना हक की तू माँग कर, कर पहले कर कर्तव्य।
नाहक भूला आज को, सोच रहा भवितव्य।।
२२-६-२०१६
***
एक रचना:
का बिगार दओ?
*
काए फूँक रओ बेदर्दी सें
हो खें भाव बिभोर?
का बिगार दो तोरो मैंने
भइया रामकिसोर??
*
हँस खेलत ती
संग पवन खें
पेंग भरत ती खूब।
तेंदू बिरछा
बाँह झुलाउत
रओ खुसी में डूब।
कें की नजर
लग गई दइया!
धर लओ मो खों तोर।
का बिगार दो तोरो मैंने
भइया रामकिसोर??
*
काट-सुखा
भर दई तमाखू
डोरा दओ लपेट।
काय नें समझें
महाकाल सें
कर लई तुरतई भेंट।
लत नें लगईयो
बीमारी सौ
दैहें तोय झिंझोर
का बिगार दो तोरो मैंने
भइया रामकिसोर??
*
जिओ, जियन दो
बात मान ल्यो
पीओ नें फूकों यार!
बढ़े फेंफडे में
दम तुरतई
गाड़ी हो नें उलार।
चुप्पै-चाप
मान लें बतिया
सुनें न कौनऊ सोर।
का बिगार दो तोरो मैंने
भइया रामकिसोर??
*
अपनों नें तो
मेहरारू-टाबर
का करो ख़याल।
गुटखा-पान,
बिड़ी लत छोड़ो
नई तें होय बबाल।
करत नसा नें
कब्बऊ कौनों
पंछी, डंगर, ढोर।
का बिगार दो तोरो मैंने
भइया रामकिसोर??
*
बात मान लें
निज हित की जो
बोई कहाउत सयानो।
तेन कैसो
नादाँ है बीरन
साँच नई पहचानो।
भौत करी अंधेर
जगो रे!
टेरे उजरी भोर।
का बिगार दो तोरो मैंने
भइया रामकिसोर??
*
२१-११-२०१५
कालिंदी विहार लखनऊ
***
हाड़ौती मुक्तिका:
*
तनखा पूड़ी, घूस मलाई
मत देखै तू पीर पराई
.
अंग्रेजी में गिट-पिट कर लै
हिंदी की मत करै पढ़ाई
.
बेसी धन सूं मन हरखायो
आछी लागी श्याम कमाई
.
कंसराज को खाड कालज्यो
लार सुदामा करी मिताई
.
बना भेंट कै नाक चढ़ावै
ऊँ ई सांचो जगत गुसाई
.
धोला कपड़ा, मैला मन सूं
भव सागर सूँ पार न्ह पाई
.
आतंकी रावण की लंका
सिरी राम ने जा'र ढहाई
.
आपण सबका पाप धो'र भी
यार 'सलिल' नंदी हरखाई
***
दोहे का रंग कविता के संग
*
बाहर कम भीतर अधिक जब-जब झाँकें आप
तब कविता होती प्रगट, अंतर्मन में व्याप
*
औरों की देखें कमी, दुनिया का दस्तूर
निज कमियाँ देखो बजे, कविता का संतूर
*
कविता मन की संगिनी, तन से रखे न काम
धन से रहती दूर यह, प्रिय जैसे संतान
*
कविता सविता तिमिर हर, देते दिव्य प्रकाश
महक उठे मन-मोगरा, निकट लगे आकाश
*
काव्य -कामिनी ने कभी, करी न कोई चाह
बैठे चुप थक-हारकर, कांत न पाएं थाह
***
मुक्तिका
*
मापनी: २१२२ १२१२ २२
*
आँख से आँख जब मिलाते हैं
ख्वाहिशें आप क्यों छिपाते हैं?
आइना गैर को दिखाते हैं
और खुद से नज़र चुराते हैं
वक़्त का दे रहे दुहाई जो
फ़र्ज़ का क़र्ज़ कब चुकाते हैं?
रौशनी भीख माँगती उनसे
जो मशालें जला उठाते हैं
मैं 'सलिल' ज़िंदगी का जीवन हूँ
आप बेकार क्यों बहाते हैं?
२२-७-२०१५
***
गीतः
सुग्गा बोलो
जय सिया राम...
*
सुग्गा बोलो
जय सिया राम...
*
काने कौए कुर्सी को
पकड़ सयाने बन बैठे
भूल गये रुकना-झुकना
देख आईना हँस एँठे
खिसकी पाँव तले धरती
नाम हुआ बेहद बदनाम...
*
मोहन ने फिर व्यूह रचा
किया पार्थ ने शर-सन्धान
कौरव हुए धराशायी
जनगण सिद्ध हुआ मतिमान
खुश मत हो, सच याद रखो
जन-हित बिन होगे गुमनाम...
*
हर चूल्हे में आग जले
गौ-भिक्षुक रोटी पाये
सांझ-सकारे गली-गली
दाता की जय-जय गाये
मौका पाये काबलियत
मेहनत पाये अपना दाम...
२२-७-२०१४
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