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मंगलवार, 21 अगस्त 2018

vyangya geet anand pathak

" छुट-भईए" नेताओं को समर्पित ----"

एक व्यंग्य गीत :-
नेता बन जाओगे प्यारे-----😀😀😀😀😀
आनंद पाठक
*
पढ़-लिख कर भी गदहों जैसा व्यस्त रहोगे
नेता बन जाओगे ,प्यारे ! मस्त रहोगे

कौए ,हंस,बटेर आ गए हैं कोटर में
भगवत रूप दिखाई देगा अब ’वोटर’ में
जब तक नहीं चुनाव खतम हो जाता प्यारे
’मतदाता’ को घुमा-फिरा अपनी मोटर में

सच बोलोगे आजीवन अभिशप्त रहोगे
नेता बन जाओगे ,प्यारे ! मस्त रहोगे

गिरगिट देखो , रंग बदलते कैसे कैसे
तुम भी अपना चोला बदलो वैसे वैसे
दल बदलो बस सुबह-शाम,कैसी नैतिकता?
अन्दर का परिधान बदलते हो तुम जैसे

’कुर्सी,’पद’ मिल जायेगा आश्वस्त रहोगे
नेता बन जाओगे ,प्यारे ! मस्त रहोगे

अपना सिक्का सही कहो ,औरों का खोटा
थाली के हो बैगन ,बेपेंदी का लोटा
बिना रीढ़ की हड्डी लेकिन टोपी ऊँची
सत्ता में है नाम बड़ा ,पर दर्शन छोटा

’आदर्शों’ की गठरी ढो ढो ,त्रस्त रहोगे
नेता बन जाओगे ,प्यारे ! मस्त रहोगे

नेता जी की ’चरण-वन्दना’ में हो जब तक
हाथ जोड़ कर खड़े रहो बस तुम नतमस्तक
’मख्खन-लेपन’ सुबह-शाम तुम करते रहना
छू न सकेगा ,प्यारे ! तुमको कोई तब तक

तिकड़मबाजी,जुमलों में सिद्ध हस्त रहोगे
नेता बन जाओगे ,प्यारे ! मस्त रहोगे

जनता की क्या ,जनता तो माटी का माधो
सपने दिखा दिखा के चाहो जितना बाँधो
राम नाम की ,सदाचार की ओढ़ चदरिया
करना जितना ’कदाचार’ हो कर लो ,साधो !

सत्ता की मधुबाला पर आसक्त रहोगे
नेता बन जाओगे ,प्यारे !

गुरुवार, 9 अगस्त 2018

mahiya: anand pathak

चन्द माहिया सावन के
आनंद पाठक 
*
सावन की घटा काली
याद दिलाती है
वो शाम जो मतवाली
*
सावन के वो झूले
झूले थे हम तुम 
कैसे कोई भूले
*
सावन की फुहारों से
जलता है तन-मन
जैसे अंगारों से
*
आएगी कब गोरी?
पूछ रही मुझ से
मन्दिर की बँधी डोरी
*
क्या जानू किस कारन?
सावन भी बीता 
आए न अभी साजन
*

गुरुवार, 22 जनवरी 2015

laghukatha: anand pathak

लघु कथाआनन्द पाठक




*... एक बार फिर
"खरगोश" और ’कछुए’ के बीच दौड़ का आयोजन हुआ
पिछली बार भी दौड़ का आयोजन हुआ था मगर ’गफ़लत’ के कारण ’खरगोश’ हार गया ।मगर ’खरगोश’ इस बार सतर्क था। यह बात ’कछुआ: जानता था
इस बार ....
दौड़ के पहले कछुए ने खरगोश से कहा -’मित्र ! तुम्हारी दौड़ के आगे मेरी क्या बिसात । निश्चय ही तुम जीतोगे और मैं हार जाऊँगा। तुम्हारी जीत के लिए अग्रिम बधाई। मेरी तरफ़ से उपहार स्वरूप कुछ ’बिस्कुट’ स्वीकार करो। खरगोश इस अभिवादन से खुश होकर बिस्कुट खा लिया।
दौड़ शुरू हुई....खरगोश को फिर नीद आ गई ...कछुआ फिर जीत गया
xxxxx               xxxxx    xxxxx

पुलिस को आजतक न पता चल सका कि उस बिस्कुट में क्या था। जहरखुरानी तो नहीं थी ?
इस बार कछुआ एक ’ राजनीतिक पार्टी ’ का कर्मठ व सक्रिय कार्यकर्ता था
 इस नीति से आलाकमान बहुत खुश हुआ और कछुए को पार्टी के ’मार्ग दर्शन मंडल’ का सचिव बना दिया

अस्तु

बुधवार, 14 जनवरी 2015

चन्द माहिया : क़िस्त 13

चंद माहिये
-आनन्द पाठक
जयपुर
:१:

इक अक्स उतर आया
दिल के शीशे में
फिर कौन नज़र आया

:२:

ता उम्र रहा चलता
तेरी ही जानिब
ऎ काश कि तू मिलता

:३:

तुम से न कभी सुलझें
अच्छा लगता है
बिखरी बिखरी जुलफ़ें

:४:

गो दुनिया फ़ानी है
लेकिन जैसी हो
लगती तो सुहानी है

:५:

वो ख़ालिक में उलझे
मजहब के आलिम
इन्सां को नहीं समझे

-आनन्द.पाठक
09413395592

मकर संक्रान्ति की शुभ कामनायें

मंच के सभी मित्रों/सदस्यों को

मकर संक्रान्ति की शुभ कामनाएं

मौसम आया है पतंग का
बच्चे-बूढ़ों  के उमंग का
उड़ी पतंगे आसमान में
चित्र बनाती रंग-बिरंग का


सादर
आनन्द पाठक
09413395592

रविवार, 11 जनवरी 2015

laghukatha: anand pathak

लघुकथा:
गोली
आनंद पाठक
.
" तुम ’राम’ को मानते हो ?-एक सिरफिरे ने पूछा
-"नहीं"- मैने कहा
उसने मुझे गोली मार दी क्योकि मै उसकी सोच का हमसफ़ीर नहीं था और उसे स्वर्ग चाहिए था
"तुम ’रहीम’  को मानते हो ?"-दूसरे सिरफिरे ने पूछा
-"नही"- मैने कहा
उसने मुझे गोली मार दी क्योंकि मैं काफ़िर था और उसे जन्नत चाहिए थी।
" तुम ’इन्सान’ को मानते हो"- दोनो सिरफिरों ने पूछा
-हाँ- मैने कहा
फिर दोनों ने बारी बारी से मुझे गोली मार दी क्योंकि उन्हें ख़तरा था कि यह इन्सानियत का बन्दा कहीं  जन्नत या स्वर्ग न हासिल कर ले
 xx                       xxx                           xxx                      xxx

बाहर गोलियाँ चल रही हैं। मैं घर में दुबका बैठा हूँ ।घर से बाहर नहीं निकलता ।
 अब मेरी ’अन्तरात्मा’ ने मुझे गोली मार दी
मैं घर में ही मर गया ।

-आनन्द.पाठक-
09413395592

शुक्रवार, 9 जनवरी 2015

गीत : जै माँ गंगे ! जै माँ गंगे !



फिसल गए तो हर हर गंगे,
जै माँ गंगे ! जै माँ गंगे !


वो विकास की बातें करते करते जा कर बैठे दिल्ली

कब टूटेगा "छीका" भगवन ! नीचे बैठी सोचे बिल्ली
शहर अभी बसने से पहले ,इधर लगे बसने भिखमंगे
जै माँ गंगे ! जै माँ गंगे ! ........


नई हवाऒं में भी उनको जाने क्यों साजिश दिखती है

सोच सोच बारूद भरा हो मुठ्ठी में माचिस  दिखती है
सीधी सादी राहों पर भी चाल चला करते बेढंगे
जै माँ गंगे ! जै माँ गंगे ! .....


घड़याली आँसू झरते हैं, कुर्सी का सब खेलम-खेला

कौन ’वाद’? धत ! कैसी ’धारा’, आपस में बस ठेलम-ठेला
ऊपर से सन्तों का चोला ,पर हमाम में सब हैं नंगे
जै माँ गंगे ! जै माँ गंगे !


रामराज की बातें करते आ पहुँचे हैं नरक द्वार तक

क्षमा-शील-करुणा वाले भी उतर गए है पद-प्रहार तक
बाँच रहे हैं ’रामायण’ अब ,गली गली हर मोड़ लफ़ंगे
जै माँ गंगे ! जै माँ गंगे !


अच्छे दिन है आने वाले साठ साल से बैठा ’बुधना"

सोच रहा है उस से पहले उड़ जाए ना तन से ’सुगना’
खींच रहे हैं "वोट" सभी दल शहर शहर करवा कर दंगे
जै माँ गंगे ! जै माँ गंगे !



-आनन्द-पाठक-

09413395592

सोमवार, 10 मार्च 2014

urdu shayari men kahiya nigari -anand pathak

 
उर्दू शायरी में ’माहिया निगारी’[माहिया लेखन]
आनन्द पाठक,जयपुर 

उर्दू शायरी में कई विधायें प्रचलित हैं जैसे क़सीदा, मसनवी, मुसम्मत, क़ता, रुबाई,तरजीहबन्द,तरक़ीबबन्द मुस्तज़ाद, फ़र्द, मर्सिया, हम्द,ना’त,मन्क़बत,ग़ज़ल,नज़्म वगैरह। इन सबमें ज़्यादा लोकप्रिय विधा ग़ज़ल ही है । इन सब के अपनी अरूज़ी इस्तलाहत [परिभाषायें] है, अपने असूल है, अपनी क़वायद हैं। ना’त के साथ तो सबसे ख़ास बात ये है कि ना’त नंगे सर नहीं पढ़ते  ।ना’त पढ़ते वक़्त, शायर सर पर रुमाल, कपड़ा,तौलिया या टोपी रख कर पढ़ते हैं। यह बड़ी मुक़द्दस [पवित्र] विधा है।
परन्तु हाल के कुछ दशकों से उर्दू शायरी में 2-अन्य विधायें बड़ी तेजी से प्रयोग में आ रहीं हैं- माहिया निगारी और हाईकू। जापानी काव्य विधा हाईकू का प्रयोग ’हिन्दी’ और उर्दू दोनों में समान रूप से किया जा रहा है। अभी ये शैशवास्था में हैं। माहिया उर्दू शायरी में बड़ी तेजी से मक़बूल हो रही है।
’माहिया’ वैसे तो पंजाबी लोकगीत में सदियों  से प्रचलित है और काफी लोकप्रिय भी है जैसे हमारे पूर्वांचल में ’कजरी’ ’चैता’ लोकगीत हैं । माहिया को उर्दू शायरी की  विधा बनाने में पाकिस्तान के शायर [जो आजकल जर्मनी में प्रवासी हैं] हैदर क़ुरेशी साहब का काफी योगदान है। माहिया का शाब्दिक अर्थ ही होता प्रेमिका [beloved ] और इसकी [theme] ग़ज़ल की तरह हिज्र [वियोग] ही है परन्तु आप चाहे तो और theme पे माहिया कह सकते है, मनाही नहीं है । बहुत से गायकों ने और पंजाब के आंचलिक गायकों ने माहिया गाया है। दृष्टान्त के लिए एक [link] लगा रहा हूँ जगजीत सिंह और चित्रा सिंह ने गाया है जो पंजाबी में बहुत ही मशहूर और लोकप्रिय माहिया है http://www.youtube.com/watch?v=5CV6w01O95Q
   
"कोठे ते आ माहिया 
मिलणा ता मिल आ के
नहीं ता ख़स्मा नूँ खा माहिया"

आपने हिन्दी फ़िल्म फ़ागुन (1958,भारत भूषण और मधुबाला,संगीत ओ. पी. नैय्यर) का वो गीत ज़रूर सुना होगा जिसे मुहम्मद रफ़ी और आशा भोंसले जी ने गाया है:

"तुम रूठ के मत जाना
मुझ से क्या शिकवा
दीवाना है दीवाना

यूँ हो गया बेगाना
तेरा मेरा क्या रिश्ता
ये तू ने नहीं जाना

यह माहिया है ।
दरअस्ल माहिया 3-मिसरों की उर्दू शायरी में एक विधा है जिसमें पहला मिसरा और तीसरा मिसरा हम क़ाफ़िया [और हमवज़्न भी] होते हैं और दूसरा मिसरा हमकाफ़िया हो ज़रूरी नहीं । दूसरे मिसरे में 2-मात्रा [एक सबब-ए-ख़फ़ीफ़] कम होता है।

डा0 आरिफ़ हसन खां जो उर्दू के मुस्तनद अरूज़ी और शायर हैं जो मुरादाबाद [उ0प्र0] में क़याम फ़र्माते हैं और उर्दू साहित्य जगत और शैक्षिक जगत में एक नामाचीन हस्ती हैं. आपने उर्दू में दर्जनों किताबें लिखीं और अवार्ड प्राप्त किए हैं।आप वर्तमान में हिन्दू कालेज मुरादाबाद में असोशियेट प्रोफ़ेसर हैं [शायद मेरी उर्दू आशनाई देखते हुए] बतौर-ए-सौगात आप ने अपनी एक किताब ’ख़्वाबों की किरचें’ [माहिया संग्रह] की एक लेखकीय प्रति बड़ी मुहब्बत से मुझें भेंट में किया है 

यह किताब उर्दू में है और इस में 117 माहिया संकलित है। अपने हिन्दीदां दोस्तों की सुविधा के लिए इस किताब को मैंने बड़े शिद्दत-ओ- शौक़ से हिन्दी में ’लिप्यन्तरण’[Transliteration] किया है और डा0 साहब से नज़र-ए-सानी भी करा लिया है। आप ने बड़ी ख़लूस-ओ-मुहब्बत से इस बात की इजाज़त दे दी है कि हिन्दी के पाठकों के लिए इसे मैं अपने ब्लाग [www.hindi-se-urdu.blogspot.in] पर सिलसिलेवार लगा सकता हूं
माहिया के बारे में चन्द हक़ायक़ उन्हीं किताब से [जो उन्होने तम्हीद [प्राक्कथन/भूमिका]के तौर पर लिखा है हू-ब-हू दर्ज-ए-ज़ैल [निम्न लिखित] है

चन्द हक़ायक़ [कुछ तथ्य]

माहिया दरअस्ल पंजाब की अवामी शे’री सिन्फ़ [साहित्यिक विधा] है।उर्दू में इसे मुतआर्रिफ़ [परिचित] कराने का सेहरा [श्रेय]  सरज़मीन पंजाब के एक शायर हिम्मत राय शर्मा के सर है जिन्होने फ़िल्म ’ख़ामोशी’ के लिए 1936 में माहिया लिख कर उर्दू में माहिया निगारी का आग़ाज़ किया।

इस के तक़रीबन 17 साल बाद क़तील शिफ़ाई ने पाकिस्तानी फ़िल्म ’हसरत’ के लिए 1953 में माहिए लिखे। क़मर जलालाबादी ने 1958 में फ़िल्म ’फ़ागुन’ के लिए माहिए लिखे। इस के बाद चन्द और फ़िल्मों के लिए भी शायरों ने माहिए लिखे जो काफी मक़बूल[लोकप्रिय] हुए। लेकिन माहिए लिखे जाने का ये सिलसिला चन्द फ़िल्मों के बाद मुनक़तअ [ख़त्म] हो गया और बीसवीं सदी की आठवीं औए नौवीं दहाई [दशक] में माहिया शो’अरा [शायरों] की अदम तवज्जही [उपेक्षा] का शिकार रहा । लेकिन सदी की आख़िरी दहाई माहिया के हक़ में बड़ी साज़गार साबित हुई और एक बार फिर शो’अरा ने माहियों की तरफ़ न सिर्फ़ तवज्जो दी बल्कि माहिया निगारी एक तहरीक [आन्दोलन] की शकल में नमूदार [प्रगट] हुई। गुज़िश्ता [पिछले] पाँच-छ: साल की मुद्दत में शायरों की एक बड़ी तादाद इस सिन्फ़ की तरफ़ मुतवज्ज: [आकर्षित] हुई है। माहिया निगारी की इस तहरीक में जर्मनी में मुक़ीम [प्रवासी] पाकिस्तानी शायर हैदर क़ुरेशी की कोशिशों को बहुत दख़ल है और बिला शुबह [नि:सन्देह] बहुत से शायर इन की तहरीक पर ही इस सिन्फ़ की तरफ़ मुतवज्ज हुए। वजह जो भी बहरहाल गुज़िश्ता 5-6 साल में मुख़तलिफ़ [विभिन्न]अदबी रिसाईल ने [साहित्यिक पत्रिकाओं ने] माहिये पर मज़ामीन [कई आलेख] शायअ [प्रकाशित]किए। कुछ ने माहिया नम्बर [विशेषांक] और माहिए पर गोशे [स्तम्भ] निकाले और माहिए की शमूलियत [शामिल करना] तो अब तक़रीबन हर एक अदबी रिसाले में होती ही है।

माहिये के सिलसिले में एक बहस अभी नाक़िदीन[आलोचकों] और शो’अरा में जारी है कि इस का दुरुस्त वज़न क्या है? बाज़ [कुछ लोगों] के नज़दीक और अक्सरीयत [बहुत लोगों] का यही ख़याल है कि माहिया का पहला और तीसरा मिसरा हम वज़न [और हम क़ाफ़िया भी] होते हैं जबकि दूसरा मिसरा इन के मुक़ाबिले में एक सबब-ए-ख़फ़ीफ़ कम होता है। लेकिन बाज़ के नज़दीक तीनों मिसरों का वज़न बराबर होता है। बहरहाल अक्सरीयत के ख़याल को तर्जीह [प्रधानता] देते हुए माहिया के का दुरुस्त वज़्न पहले और तीसरे मिसरे के लिए फ़एलुन्,फ़एलुन्, फ़एलुन् /फ़एलान्] मुतदारिक मख़बून /मख़बून मज़ाल] और दूसरे मिसरे के लिए फ़ेलु .. फ़ऊल्.. फ़अल्/फ़ऊल् [मुतक़ारिब् असरम् मक़्बूज़् महज़ूफ़् /मक़सूर्] है। इन दोनों औजान [वज़्नों] पर बित्तरतीब [क्रमश:] तकसीन और तख़नीक़ के अमल हैं। मुख़तलिफ़ मुतबादिल औज़ान [वज़न बदल बदल कर विभिन्न वज़्न के रुक्न] हासिल किए जा सकते हैं [तफ़सील [विवेचना ] के लिए मुलाहिज़ा कीजिए राकिम उस्सतूर [इन पंक्तियों के लेखक] की किताब ’ मेराज़-उल-अरूज़’ का बाब माहिए के औज़ान]। अकसर-ओ-बेशतर[प्राय:] शायरों ने इन औज़ान में ही माहिए कहे हैं

राकिम-उस्सतूर को माहिए कहने का ख़याल पहली बार उस वक़्त आया जब ’तीर-ए-नीमकश’ में तबसिरे [समीक्षा] के लिए बिरादर गिरामी डा0 मनाज़िर आशिक़ हरगानवी ने अपनी मुरत्तबकर्दा[सम्पादित की हुई] किताब ’रिमझिम रिमझिम’ इरसाल की। इस पर तबसिरे के दौरान दिल में ख़्वाहिश पैदा हुई कि चन्द माहिये लिखे जाएं। चुनांचे [अत:] चन्द माहिए लिखे और ’तीर-ए-नीमकश’ अप्रैल 1997 के शुमारे [अंक] में शामिल किए।फिर उन्हीं की फ़रमाइश पर ’कोहसार’ के लिए चन्द माहिए लिखे।

इस वज़्न में ऐसी दिलकशी है कि राक़िम-उस्सतूर[इन पंक्तियों के लेखक] के नज़दीक एक मख़सूस [ख़ास] क़िस्म के जज़्बात की तर्जुमानी के लिए इस से ज़ियादा मौज़ूँ [उचित] कोई दूसरी हैयत नहीं। बहरहाल गुज़िश्ता दिनों जो चन्द माहिए मअरज़े वजूद में आए उन्हीं मे से कुछ नज़र-ए-क़ारईन [पाठकों के सामने] हैं। ख़ाशाक [घास-फूस] के इस ढेर में शायद एक-आध ऐसी तख़्लीक़ [रचना] भी हो जो क़ारईन [पाठकों] के दिल को छू सके।

आरिफ़ हसन ख़ान
मुरादाबाद

उर्दू शायरी में माहिया के लिए निम्न बुनियादी औज़ान मुकर्रर किए गये हैं

फ़एलुन् ,फ़एलुन् .फ़एलुन्   [22   22  22 
फ़एलुन् ,फ़एलुन् .फ़ा     [22 22 2]
फ़एलुन् ,फ़एलुन् .फ़एलुन् [22   22  22 ]
डा0 आरिफ़ हसन खां साहब ने अपनी किताब ’मेराज़-उल-अरूज़;[उर्दू में ] में माहिया के निज़ाम-ए-औज़ान पर काफी तफ़सील से लिखा है बुनियादी वज़न पर तख़्नीक़ के अमल से पहले और तीसरे मिसरे [हमक़ाफ़िया और हमवज़न भी] के लिए 16 औज़ान और दूसरे मिसरे के लिए 8 औज़ान मुक़र्रर किए जा सकते हैं ठीक वैसे ही जैसे रुबाई के लिए 24-औज़ान मुक़र्रर किए गये हैं।

यह विधा उर्दू शायरी में इतनी तेजी से मक़बूल हो रही है कि अब तो कई शायर इस पर तबाआज़्माई [कोशिश] कर रहे हैं । नमूने के तौर पे कुछ माहिया दीगर शायरों के लगा रहा हूँ जिससे आप लोग भी आनन्द उठायें कहा जाता है कि सबसे पहला माहिया, हिम्मत राय शर्मा जी ने एक फ़िल्म के लिए 1936 में लिखा था

इक बार तो मिल साजन
आ कर देख ज़रा
टूटा हुआ दिल साजन
---------
जनाब हैदर क़ुरेशी साहब का [जिन्हें उर्दू शायरी में माहिया के प्रवर्तक के रूप में जाना जाता है] का एक माहिया है

फूलों को पीरोने में
सूई तो चुभनी थी
इस हार के होने में
--------
एक माहिया हरगानवी साहिब का है
रंगीन कहानी दो
अपने लहू से तुम
गुलशन को जवानी दो

यहाँ यह कहना ग़ैर मुनासिब न होगा कि माहिया निगारी में शायरात [महिला शायरों]ने भी तबाआज़्माई की है 1-2 उदाहरण देना चाहूंगा

आँगन में खिले बूटे
ऐसे मौसम में 
वो हम से रहे रूठे
-सुरैया शहाब

खिड़की में चन्दा है
इश्क़ नहीं आसां
ये रुह का फ़न्दा है
--बशरा रहमान

मंच के पाठकों के लिए आरिफ़ खां साहब की किताब[ख़्वाबों की किरचें]  से नमूने के तौर पर चन्द माहिया  लगा रहा हूँ जिससे आप लोग भी लुत्फ़-अन्दोज़ हों
1
ऎ काश न ये टूटें
दिल में चुभती हैं
इन ख़्वाबों की किरचें
--------
2
मिट्टी के खिलौने थे
पल में टूट गए
क्या ख़्वाब सलोने थे
-------------------
3
आकाश को छू लेता
साथ जो तू देती
क़िस्मत भी बदल देता
-----------------
4
पिघलेंगे ये पत्थर
इन पे अगर गुज़रे
जो गुज़री है मुझ पर
-----------------
5
वो दिलबर कैसा है
मुझ से बिछुड़ कर भी
मेरे दिल में रहता है

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बुधवार, 3 अप्रैल 2013

gazal: anand pathak

ग़ज़ल :  
क्या करेंगे....
आनन्द पाठक,जयपुर

 
क्या करेंगे आप से हम याचनाएं
मर चुकी जिनकी सभी संवेदनाएं
 
जो मिले अनुदान रिश्वत में बँटे है फ़ाइलों में चल रही परियोजनाएं
 
रोशनी के नाम दरवाजे खुले हैं हादसों की बढ़ गई संभावनाएं
 
पत्थरों के शहर में कुछ आइनें हैं डर सताता है कहीं वो बिक न जाएं
 
आप की हर आहटें पहचानते हैं जब कभी जितना दबे भी पाँव आएं
 
चाहता है जब कहे वो बात कोई बेझिझक हम हाँमें उसकी हाँमिलाएं
 
वो इशारों से नहीं समझेगा आननजब तलक आवाज न अपनी बढ़ाएं
-
 

शुक्रवार, 14 दिसंबर 2012

एक ग़ज़ल : वो आम आदमी है.... आनंद पाठक


एक ग़ज़ल
 वो आम आदमी है....
  आनंद पाठक 
 
वो आम आदमी है , ज़ेर--नज़र नहीं है
उसको भी सब पता है ,वो बेख़बर नहीं है
 
सपने दिखाने वाले ,वादे हज़ार कर ले  
कैसे यकीन कर लूं , तू मोतबर नहीं है
 
तू मीर--कारवां है ,ग़ैरों से क्यों मिला है?  
 अब तेरी रहनुमाई, उम्मीदबर नहीं है
 
की सरफ़रोशी तूने जिस रोशनी की ख़ातिर  
गो सुब्ह हुई तो लेकिन ये वो सहर नहीं है
 
तेरी रगों में अब भी वो ही इन्कलाबी ख़ूं हैं  
फिर क्या हुआ कि उसमें अब वो शरर नहीं है
 
यां धूप चढ़ गई है तू ख़्वाबीदा है अब भी  
दुनिया किधर चली है तुझको ख़बर नहीं है
 
मर कर रहा हूँ ज़िन्दा हर रोज़ मुफ़लिसी में  
ये मोजिज़ा है शायद ,मेरा हुनर नहीं है
 
पलकें बिछा दिया हूं वादे पे तेरे आकर 
 मैं जानता हूँ तेरी ये रहगुज़र नहीं है
 
किसकी उमीद में तू बैठा हुआ है आनन 
इस सच के रास्ते का यां हम सफ़र नहीं है
 
-आनन्द.पाठक
 
ज़े--नज़र = सामने ,focus में
मोतबर=विश्वसनीय,
मीर--कारवां = यात्रा का नायक
शरर= चिंगारी
ख्वाविंदा= सुसुप्त ,सोया हुआ
मुफ़लिसी= गरीबी ,अभाव,तंगी
मोजिज़ा=दैविक चमत्कार
यां=यहाँ