| आधुनिक काल में साहित्य के क्षेत्र में जब भी  नये प्रयोग हुए हैं, तो नई चेतना के अन्तर्गत परंपरागत विधाओं के नामकरण  में भी अपेक्षित परिवर्तन का प्रश् उठना स्वाभाविक था। तदनुसार प्रत्येक  विधा के आगे नव या नया-नयी जोड़कर उसे नई कविता, नई कहानी, नया नाटक आदि नाम  दिये गए। इसी प्रकार गीत के स्थान पर नवगीत नाम भी प्रचलित हुआ। समीक्षकों  ने इसे प्रयोगवादी अबूझ और निराशाजन्य झुटपुटों से निकलने का एक प्रयास भी  कहा है। बहरहाल यह युग की मांग भी है। इन्हीं तथ्यों की ओर संकेत करते हुए  डॉ. शंभुनाथ सिंह का कथन है, नवीन पध्दति और विचारों के नवीन आयामों तथा  नवीन भाव-सरणियों को अभिव्यक्त करनेवाले गीत जब भी और जिस युग में भी लिखे  जाएंगे नवगीत ही कहलाएंगे। 
 यह भी एक सच्चाई है कि जब भी कोई विधा  परंपरा से कुछ हटकर चलने लगती है तो उसे प्रवादों-विरोधों की आंधी से भी  टकराना पड़ता है। स्वातंत्र्योत्तर गीतिकाव्य या नवगीत के साथ भी यही हुआ।  उसे नया गीत, प्रगीत, लोकगीत और कबीर गीत के साथ-साथ 'अकहानी' या 'अकविता'  के आधार पर 'अगीत' भी बताया गया। महत्वपूर्ण बात यह है कि इन समस्त नामों  के साथ गीत शब्द तो सर्वत्र जुड़ा रहा। स्पष्ट है कि इसी कृतियों में भाव  विचार समन्वित गेयता का तत्व तो बहरहाल मौजूद रहता ही है। अत:  स्वातंत्र्योत्तर गीतिकाव्य को नवगीत कहना सर्वथा युक्तिसंगत है। इस संदर्भ  में डॉ. शिवकुमार शर्मा का मत द्रष्टव्य है-'नवगीत या नये गीत का आंदोलन  नई कविता के ध्वजावाहकों के समान कतिपय नामों के अभावों का आंदोलन है।  आधुनिकता एवं वैज्ञानिक युग बोध और सौंदर्य के दावेदारों ने इन गीतों में  नये प्रतीक, नये छंद, नई भाषा, नये अप्रस्तुत विधान और नये शिल्पविधान का  प्रयोग कर नवगीत की सार्थकता सिध्द करने का प्रयत्न किया है।'
 स्पष्ट है  आज का नवगीत परिवेशगत यथार्थ की अभिव्यक्ति का गीत है। कहने की आवश्यकता  नहीं कि यह परंपरित गीतों की तुलना में विशेष समाज सापेक्ष है। श्री  रवीन्द्र भ्रमर ने यथार्थ ही कहा है कि-'वास्तव में अगीत, नवगीत, आधुनिक  गीत, आज का गीत से तात्पर्य उस गीत से है जो आज के जीव और जगत से संपृक्त  है। जगत के यथार्थ से संवेदित है और युग बोध को ग्रहण करता है। स्वतंत्रता  के पश्चात के विसंगतिपूर्ण जीवन को, उसकी कुरूपता को, उसमें लगे हुए मानव  के संघर्ष को नये गीतकारों ने वाणी दी है।' अत: नवगीत को हम परंपरागत  गीतिकाव्य की आधुनिक स्वातंत्र्योत्तर युग की विशेष कड़ी कह सकते हैं। यह  किस रूप में नवीन या आधुनिक है, प्रसिध्द गीतकार नीरज के शब्दों में देखिए-
जाने क्यों जितनी ही कम है बात किसी पर कहने की,वह जाने क्यों उतने ही स्वर से शोर मचाता है।
 जो जितना गहरा घाव किये बैठा है दिल में,
 वह दबी-दबी आहें भरता उतना सकुचाता है।
 इस  अनास्थापूर्ण कोलाहल के युग में नवगीतकारों ने आस्था के बिन्दुओं को चुना  है। इस प्रकार नवगीतकारों ने गीत के विषयों की परिधि को विस्तृत करते हुए  अनेक नये विषयों की खोज की है। श्री रामावतार त्यागी रचित थे गीत पंक्तियां  देखिए जिनमें जीवन का यथार्थ चित्र उपस्थित किया गया है-
ममता कैसी प्यार कहां कासुख किस डाली पर फलता है?
 हमको दर्द बदलने तक की,
 सुविधा नहीं मिली जीवन में।
 नवगीतकार  का यह प्रयास रहा है कि गीत में समकालीन परिवेश की गंध भी मौजूद हो, उसे  झेलने की बाध्यता हो और साथ ही सुखमय जन-जीवन के सुखद सपने हों, संकल्प  हों। ऐसे ही कुछ भाव युवा गीतकार राजेन्द्र गौतम के एक गीत में उपलब्ध होते  हैं। गीतांश द्रष्टव्य है-
शोर को हम गीत में बदलें
इन निरर्थक शब्द ढूहों का-खुरदुरापन ही घटे कुछ तो,
 उमस से दम घोंटते दिन ये-
 सुखद लम्हों में बटें कुछ तो,
 चुप्पियों का यह विषैलापन-
 लयों के नवनीत में बदलें।
 नई  कविता की भांति नवगीत में भी बिम्बों, प्रतीकों तथा भाषा और लयानुवर्तन की  नवीनता अपेक्षित है। इस प्रकार नवगीतकारों ने नवगीत के माध्यम से हमें एक  नया युग बोध दिया है। वस्तुत: यह गीत का स्वाभाविक विकास ही है।
 नवगीत  के लक्षणों में कुछ आग्रहों की भी अनिवार्यता स्वीकृत रही। यथा-अति  बौध्दिकता, अतिशय कुंठाओं का समावेश, अनिश्चय की स्थिति, परंपराओं के प्रति  ओढ़ी हुई विमुखता, असामाजिक प्रवृत्तियों का गायन, अहम्मन्यता का अतिरेक  आदि कुछ ऐसी बातें हैं जो गीतों में घर कर गई थी, किन्तु अब उनका भी निरंतर  तिरोभाव होता जा रहा है।
 स्वातंत्र्योत्तर इन गीतकारों में सर्वश्री  अज्ञेय, नीरज, रमानाथ अवस्थी, शंभुनाथसिंह, वीरेन्द्र मिश्र, केदारनाथ  अग्रवाल, नरेश मेहता, रामदरश मिश्र, श्रीकांत वर्मा, सर्वेश्वरदयाल  सक्सेना, सोम ठाकुर आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। युग प्र्रवत्तक ंगाल कार  दुष्यंत कुमार का नाम भी इस ंफेहरिस्त में जोड़ा जा सकता है।
 श्री  प्रभाकर श्रोत्रिय -संपादित प्रसिध्द साहित्यिक पत्रिका 'वागर्थ' के 74 वें  अंक में प्रकाशित अपने एक साक्षात्कार में लब्धप्रतिष्ठ कवि पत्रकार श्री  मंगलेश डबराल ने गीतिकाव्य के विरोध में जो वक्तव्य दिये उनसे नवगीतकारों  और गीतिकाव्य के अध्येताओं का क्षुब्ध होना स्वाभाविक है। उनके वक्तव्य इस  प्रकार हैं-
 (1) गीतिकाव्य ने कविता की गंभीरता को नष्ट किया है और विचारों के दरवाजे बंद किये हैं।(2) ऐसी कविता समाज और मनुष्य का हाल नहीं बतलाती और इस तरह अपनी जिम्मेदारी पूरी नहीं करती।
 (3)  वह किसी नैतिकता या ग्लानिबोध से रहित होती है और इसी से जुड़ा है उनका यह  प्रश्-क्या आज किसी जाने माने गीतिकाव्यकार ने बावरी मस्जिद को ढहाने या  ग्राहम स्टेंस और उसके बच्चों को जिंदा जलाए जाने की भर्त्सना की है?
 (4) उसमें चुटकुलों को विचार की तरह परोसने की कोशिश होती है।
 
 गीतिकाव्य  के सम्बन्ध में श्री मंगलेश डबराल की उक्त स्थापनाएं निश्चय ही एक सजग  पाठक और साहित्य के अध्येता को सोचने पर विवश करती हैं। प्रसिध्द समकालीन  रचनाकार एवं प्रतिष्ठित गीतकार कुमार रवीन्द्र ने उक्त चारों वक्तव्यों पर  अपनी तीखी किन्तु सार्थक प्रतिक्रियाएं व्यक्त करते हुए समूचे गीतिकाव्य की  रक्षा कार् कत्तव्य निभाया है। कुमार रवीन्द्र की इन प्रतिक्रियाओं को  सिध्दहस्त गीतकार व संपादक डॉ. विष्णु विराट द्वारा प्रकाशित अनियतकालीन  पत्रिका 'भव्य भारती' के पिछले एक अंक में ब्यौरेवार प्रकाशित किया गया है।  जिन्हें विस्तार भय से यहां प्रस्तुत कर पाना कठिन है, किन्तु उनके द्वारा  उध्दृत हिन्दी नवगीत के सशक्त हस्ताक्षर वसु मालवीय के एक नवगीत की निम्  पंक्तियां अवश्य ध्यातव्य हैं जिनमें बाबरी ध्वंस से समूची भारतीय अस्मिता  के टूटे हुए संस्पर्शों की ओर बड़ी संवेदनशीलता व अंतरंगता के साथ संकेत  किया गया है। पंक्तियां हैं-
बहुत दिनो से नहीं आए घर कहो अनवर क्या हुआ?आ गया क्या बीच अपने भी  छह दिसंबर क्या हुआ?
 टूटने को बहुत कुछ टूटा बचा क्या?
 छा गई है देश के ऊपर अयोध्या!
 धर्मग्रंथों से निकलकर  हो रहे तलवार अक्षर क्या हुआ?
 बहुत दिनों से नहीं आए घर कहो अनवर क्या हुआ?
 समय  संदर्भ से जुड़ी इन गीत पंक्तियों की मार्मिकता के क्षितिज कितनी दूर तक  विस्तार पाते हैं, इसकी व्याख्या करना अनावश्यक है। सीधी सपाट भर्त्सना से  अधिक दीर्घजीवी है ऐसी गीति-कविता और उसकी मर्मस्पर्शी भावानुभूति।
 स्वातंत्र्योत्तर  ऐसे ही सजग नवगीतकारों की श्रृंखला में उल्लेखनीय नाम हैं सर्वश्री किशन  सरोज, कैलाश गौतम, यश मालवीय, मधुर शास्त्री, भारतभूषण, रामअधार, सुमित्रा  कुमारी, ज्ञानवती सक्सेना, सरस्वती कुमार दीपक, तारा पांडे आदि जिन्होंने  पूरी निष्ठा से हिन्दी नवगीत के कोष को समृध्द किया है। हां, क्वचित,  अतृप्तियों, कुंठाओं और वर्जनाओं के चित्र हैं तो दूसरी ओर सामाजिक चेतना  भी प्रखरता के साथ मुखर हुई है। समाज में व्याप्त अर्थ विषमताओं,  सर्वतोमुखी मूल्य विघटन एवं सांस्कृतिक ह्रास का मर्मस्पर्शी चित्रण भी  अनेकत्र मिलता है।
 आज नवगीतों में एक ओर प्राकृतिक उपादान अपने नवीन रूप  में व्यक्त हो रहे हों तो दूसरी ओर सामाजिक परिवेश के माध्यम से वैयक्तिक  सुख-दुख की अनुभूतियां भी व्यक्त हो रही हैं। ऐन्द्रिक, सांवेगिक और  बौध्दिक चेतना के स्वर भी समन्वित रूप में मुखर हो रहे हैं। नवगीतों में  कथ्यगत वैविध्य के साथ-साथ विभिन्न शिल्पगत प्रयोग भी दृष्टिगत हो रहे हैं,  किन्तु उन तमाम अभिनव प्रयोगों के बीच लय की एक अन्त: सलिला भी अक्षुण्ण  रूप से प्रवहमान रही है। वस्तुत: परूष व सुकुमार अनुभूतियों की सहज भंगिया  तथा तीव्र लयात्मकता से युक्त शब्दार्थमयी अभिव्यक्ति ही गीतिकाव्य के  आधारभूत लक्षण हैं जो समकालीन नवगीतों में विद्यमान हैं।
 साठोत्तरी  नवगीतकारों में आज कई सशक्त हस्ताक्षर उभरकर सामने आए हैं जिनसे हिन्दी  गीतिकाव्य की बड़ी संभावनाएं जुड़ी हैं। कुछ नाम उल्लेखनीय हैं सर्वश्री  कैलाश गौतम, यश मालवीय, कुमार रवीन्द्र, शीलेन्द्र कुमार चौहान, वेद प्रकाश  अमिताभ, महेश अनघ, देवेन्द्र शर्मा, इन्द्र, उमाशंकर तिवारी, अमरनाथ  श्रीवास्तव, सुश्री महाश्वेता चतुर्वेदी, माहेश्वर तिवारी, श्रीकांत जोशी,  सुश्री मधुप्रसाद, मधुकर गौड, विष्णु विराट, किशोर काबरा, द्वारका प्रसाद  सांचीहर, बुध्दिनाथ मिश्र, सुश्री रागिनी चतुर्वेदी आदि। जोड़ाताल और कविता  लौट पड़ी कृतियों के सर्जक सशक्त नवगीतकार श्री कैलाश गौतम का यह गीतांश  देखिए जिसमें यथार्थ की कटु अनुभूति से उभरनेवाली संवेदना और करूणा की  मर्मस्पर्शी व्यंजना है।
अकेले तुम्हीं सब उड़ाओगे भाईकि मेरी तरफ भी बढ़ाओगे भाई।
 दिखाओ ारा पेट देखूं तो क्या-क्या
 बप्पारे बप्पा! दइया रे दइया!
 अब क्या खाके ये सब पचाओगे भाई।
 बहुत हो चुका अब नहीं मैं सहूंगा
 कहूंगा कहूंगा कहूंगा कहूंगा
 कहां तक मुझे तुम दबाओगे भाई
 यश  मालवीय अपने युगधर्म के प्रति निरंतर जागरूक हैं। समाज राष्ट्र, राजनीति  में व्याप्त विसंगतियों को अपने नवगीतों में बड़ी दक्षता के साथ पिरोकर  व्यक्त करते हैं। आज के आदमी की विवशता और निरीहता का एक मर्मांतक चित्र  देखिए-
हर जगह भवदीय हैं या झुके सर हैंलोग जैसे उड़ानों के कटे पर हैं
 जोड़ते हैं हाथ  घिघियाते हमेशा
 दीनता भी हो गई है  एक पेशा
 स्वाभिमानों के  जले हुए-से घर हैं।
 जीवन  मूल्यों के इस ह्रासोंमुखी युग में आज हमारे आपसी रिश्तों में भी कुछ ऐसी  गहरी दरारें पड़ गई हैं कि तमाम दुन्यवी सम्बन्ध आज एकदम बेमानी लगते हैं  डॉ. वेदप्रकाश अमिताभ के एक नवगीत की कुछ पंक्तियां द्रष्टव्य हैं-
बहुत-बहुत चुभते हैं पाटल सम्बंधों के।लगता है रूठ गए पाहुन सुगन्धों के।
 मौसम के साथ-साथ मन भी बदले,
 आंखो में परिचय के चिह्न हुए धुंधले।
 नंफरत से भरे हुए दामन सौगन्धों के।
 चेहरों पर अभिनय की बेशुमार पर्तें,
 रिश्तों के इर्द-गिर्द रोज नई शर्तें।
 सिमट सिमट आते हैं घेरे प्रतिबंधों के।
 अतिरिक्त  बुध्दिवाद से ग्रस्त आज का मानव यंत्र परिचालित खिलौने की मानिंद  संवेदनाशून्य हो गया है। समकालीन जनजीवन का यह कटु सत्य डॉ. महाश्वेता  चतुर्वेदी के एक नवगीत में अत्यंत प्रभावी ढंग से व्यक्त हुआ है-
सभ्य से जो लगते यंत्र-संचालित खिलौनेचाबियां जब तक भरी हैं  नाचते हमको मिलेंगे
 देख वासंती घटाएं  मन नहीं जिनके खिलेंगे।
 मानवों के बीच आकर  दीखते जड़ और बौने।
 कुमार  रवीन्द्र के नवगीतों में प्राय: जनवादी तेवर व्यक्त हुए हैं। सुकुमार  संवेदनाओं से वंचित आधुनिक शहरों में आज हर आम आदमी भीड़ में अकेला है। एक  रोगिष्ठ बूढ़े से ब्याह दी जानेवाली नवयौवना संतों की युवा आकांक्षाओं का  असमय ही बुढ़ा जाना जैसे कई मर्मस्पर्श जनवादी चित्र आपके नवगीतों में मिलते  हैं। आपका एक नवगीतांश द्रष्टव्य हैं-
अजनबी हैयह शहर या वह शहर सारे शहर पत्थरों के हैं बने
 मेहसूसते ये कुछ नहींवहीं के हर गांव में मीठा ाहर
 गांव-घर-चौखटसभी कुछ लीलते ये
 आदमी की खाल तक कोछीलते ये
 कुछ दिनों मेंसांस को कर डालते खंडहर
 डॉ.  रामदरश मिश्र साठोत्तरी नवगीत के एक प्रतिष्ठित और सशक्त हस्ताक्षर हैं।  आपके नवगीतों में आंचलिक परिवेश अपनी संपूर्ण चेतना के साथ व्यक्त हुआ है।  वेदना-संवेदना सभर आपका एक नवगीतांश देखिए-
पथ सूना है, तुम हो हम हैं, आओ बात करें।पता नहीं चलते-चलते कब कौन पिछड़ जाए,
 कौन पात कब किस अंधी आंधी में झड़ जाए।
 अभी समय की आंखे नम हैं, आओ बात करें।
 अविनाश  श्रीवास्तव ने परिवेश की विसंगतियों तथा जनसाधारण की पीड़ा को बड़ी शिद्दत  के साथ महसूस किया है। सद्य: प्रकाशित उनके काव्य संग्रह जब हम सिंर्फ शब्द  होते हैं से उध्दृत ये गीत-पंक्तियां देखिए जिनमें गीतकार ने वर्तमान  जन-जीवन की पीड़ा को कितनी मार्मिकता के साथ व्यक्त किया है-
सुनो पगडण्डी कहां जाकर रूकोगी?दिग्भ्रमित करती यहां की सब दिशाएं
 पीटती हैं सर यहां अन्धी कराहें
 चीख औ कोहराम से व्याकुल हवाएं
 चुप्पियाें ने धर दबोची हैं ंफिजाएं
 आदमियों की बदलती आस्थाएं
 मार्ग के इन तक्षकों का क्या करोगी?
 इस  प्रकार आज हिन्दी साहित्य जगत में नवगीत की अपनी एक स्वतंत्र पहचान बन  चुकी ही। युगीन यथार्थ बोध से संप्रेरित हिन्दी के समकालीन नवगीतकारों ने  आज जन मानस को पर्याप्त आंदोलित किया है। प्रकृति के एकान्त उपासक गीतकार  भी करवट बदलकर अब जनवादी गीतधारा में जुड़ गए हैं। नवगीत की काव्यधारा में  जहां एक ओर जनवादी चेतना मुखर हुई है, वहीं दूसरी ओर उसमें व्यक्ति एवं  समष्टि के स्तर पर अन्तर्वाह्य स्थितियों का सूक्ष्म चित्रांकन भी हुआ है।  निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि अपने परिवेश और उसमें सांस लेनेवाले आम  आदमी के प्रति पूर्णत: प्रतिबध्द हिन्दी के समसामयिक नवगीत का भविष्य उावल  है। |