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शुक्रवार, 7 अक्टूबर 2011

छंद सलिला : १ रोला लिखना सीखिए- आचार्य संजीव 'सलिल'

छंद सलिला : १
रोला लिखना सीखिए- 
 
आचार्य संजीव 'सलिल'
vishv वाणी         हिन्दी का गीति काव्य संस्कृत, अपभ्रंश, प्राकृत दंगल तथा शौरसेनी की विरासत के साथ-साथ अरबी-फारसी का संग मिलने पर लश्करी-रेख्ता-उर्दू के सौख्य, विविध भारतीय भाषाओँ-बोलिओं कन्नौजी, ब्रज, टकसाली, आदि के साहचर्य से संपन्न-समृद्ध हुआ है। हिन्दीमें श्रेष्ठ को आत्मसात करने की प्रवृत्ति ने अंग्रेज़ी के सोनेट जैसे छंद के साथ-साथ जापानी के हाइकु, स्नैर्यु आदि को भी पचा लिया है। वर्तमान में जितना वैविध्य हिन्दी गीति काव्य में है ,विश्व की अन्य किसी भाषा में नहीं है। आवश्यकता इस विरासत को आत्मसात करने की क्षमता और सृजन की सामर्थ्य को सतत बढ़ाने की है। 
इस                       इस लेख माला में हर सप्ताह हम किसी एक छंद का परिचय इस उद्देश्य से कराएँगे की रचनाकार उसे समझ कर उस छंद में कविकर्म प्रारम्भ के कीर्ति अर्जित करें। यह लेखमाला समर्पित है दिव्य नर्मदा अभियान जबलपुर के दिवंगत स्तंभों महामंडलेश्वर स्वामी रामचंद्रदास शास्त्री, धर्मप्राण कवयित्री श्रीमती शान्तिदेवी वर्मा, श्री राजबहादुरवर्मा, श्री रामेन्द्र तिवारी  तथा श्रीमती रजनी शर्मा को। ---संपादक 
रोला को लें जान
इस लेखमाला का श्रीगणेश रोला छंद से किया जा रहा है। रोला एक चतुष्पदीय अर्थात चार पदों (पंक्तियों ) का छंद है। हर पद में दो चरण होते हैं। रोला के ४ पदों तथा ८ चरणों में ११ - १३ पर यति होती है. यह दोहा की १३ - ११ पर यति के पूरी तरह विपरीत होती है ।हर पड़ में सम चरण के अंत में गुरु ( दीर्घ / बड़ी) मात्रा होती है ।११-१३ की यति सोरठा में भी होती है। सोरठा दो पदीय छंद है जबकि रोला चार पदीय है। ऐसा भी कह सकते हैं कि दो सोरठा मिलकर रोला बनता है। रोला के विषम चरण (१-३) के अंत में तुक मिलनी आवश्यक है.

आइये, रोला की कुछ भंगिमाएँ देखें- 
सब होवें संपन्न, सुमन से हँसें-हँसाये।
दुखमय आहें छोड़, मुदित रह रस बरसायें॥
भारत बने महान, युगों तक सब यश गायें।
अनुशासन में बँधे रहें, कर्त्तव्य निभायें॥ 
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भाव छोड़ कर, दाम, अधिक जब लेते पाया।
शासन-नियम-त्रिशूल झूल उसके सर आया॥
बहार आया माल, सेठ नि जो था चांपा।
बंद जेल में हुए, दवा बिन मिटा मुटापा॥ --- ओमप्रकाश बरसैंया 'ओमकार' 
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नीलाम्बर परिधान हरित पट पर सुन्दर है।
सूर्य-चन्द्र युग-मुकुट, मेखला- रत्नाकर है॥
नदियाँ प्रेम-प्रवाह, फूल-तारे मंडल हैं।
बंदी जन खग-वृन्द शेष फन सिहासन है॥ 
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रोला को लें जान, छंद यह- छंद-प्रभाकर।
करिए हँसकर गान, छंद दोहा- गुण-आगर॥
करें आरती काव्य-देवता की- हिल-मिलकर।
माँ सरस्वती हँसें, सीखिए छंद हुलसकर॥ ---'सलिल'

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दोहा के चरणों का क्रम बदल दें तो सोरठा हो जाता है:
रहिमन देख बड़ेन को, लघु न दीजिये डार.

जहाँ काम आवे सुई, कहा करे तरवार..        -दोहा.

लघु न दीजिये डार, रहिमन देख बड़ेन को.
कहा करे तरवार, जहाँ काम आवे सुई..        -रोला.

पाठक रोला लिखकर भेजें तो उन्हें यथावश्यक संशोधनों के साथ प्रकाशित किया जाएगा। 
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