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रविवार, 30 अक्टूबर 2011

मुक्तिका: देखो -- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका

देखो

संजीव 'सलिल'
*
रात के गर्भसे, सूरज को उगा कर देखो.
प्यास प्यासे की 'सलिल' आज बुझा कर देखो.

हौसलों को कभी आफत में पजा कर देखो.
मुश्किलें आयें तो आदाब बजा कर देखो..

मंजिलें चूमने कदमों को खुद ही आयेंगी.
आबलों से कभी पैरों को सजा कर देखो..

दौलते-दिल को लुटा देंगे विहँस पल भर में.
नाजो-अंदाज़ से जो आज लजा कर देखो..

बात दिल की करी पूरी तो किया क्या तुमने.
गैर की बात 'सलिल' खुद की रजा कर देखो..

बंदगी क्या है ये दुनिया न बता पायेगी.
जिंदगी क्या है किताबों को हटा कर देखो.

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रविवार, 10 अक्टूबर 2010

तेवरी : किसलिए? नवीन चतुर्वेदी

तेवरी ::

किसलिए?

नवीन चतुर्वेदी
*
*
बेबात ही बन जाते हैं इतने फसाने किसलिए?
दुनिया हमें बुद्धू समझती है न जाने किसलिए?

ख़ुदग़र्ज़ हैं हम सब, सभी अच्छी तरह से जानते!
हर एक मसले पे तो फिर मुद्दे बनाने किसलिए?

सब में कमी और खोट ही दिखता उन्हें क्यूँ हर घड़ी?
पूर्वाग्रहों के जिंदगी में शामियाने किसलिए?

हर बात पे तकरार करना शौक जैसे हो गया!
भाते उन्हें हर वक्त ही शक्की तराने किसलिए?
*

शनिवार, 9 अक्टूबर 2010

मुक्तिका: वह रच रहा... संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

वह रच रहा...

संजीव 'सलिल'
*
वह रच रहा है दुनिया, रखता रहा नजर है.
कहता है बाखबर पर इंसान बेखबर है..

बरसात बिना प्यासा, बरसात हो तो डूबे.
सूखे न नेह नदिया, दिल ही दिलों का घर है..

झगड़े की तीन वज़हें, काफी न हमको लगतीं.
अनगिन खुए, लड़े बिन होती नहीं गुजर है..

कुछ पल की ज़िंदगी में सपने हजार देखे-
अपने न रहे अपने, हर गैर हमसफर है..

महलों ने चुप समेटा, कुटियों ने चुप लुटाया.
आखिर में सबका हासिल कंधों का चुप सफर है..

कोई हमें बताये क्या ज़िंदगी के मानी?
है प्यास का समर यह या आस की गुहर है??

लिख मुक्त हुए हम तो, पढ़ सिर धुनेंगे बाकी.
अक्सर न अक्षरों बिन होती 'सलिल' बसर है..
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बुधवार, 22 सितंबर 2010

दोहा-नवगीत : बरसो राम धड़ाके से -संजीव 'सलिल'

दोहा-नवगीत :
बरसो राम धड़ाके से


संजीव 'सलिल'
*
बरसो राम धड़ाके से !
मरे न दुनिया फाके से !

*
लोकतंत्र की जमीं पर, 
लोभतंत्र के पैर
अंगद जैसे जम गए 
अब कैसे हो खैर?

अपनेपन की आड़ ले, 
भुना रहे हैं बैर
देश पड़ोसी मगर बन- 
कहें मछरिया तैर

मारो इन्हें कड़ाके से, 
बरसो राम धड़ाके से !
मरे न दुनिया फाके से !
*
कर विनाश मिल, कह रहे, 
बेहद हुआ विकास
तम की कर आराधना- 
उल्लू कहें उजास

भाँग कुएँ में घोलकर, 
बुझा रहे हैं प्यास
दाल दल रहे आम की- 
छाती पर कुछ खास

पिंड छुड़ाओ डाके से, 
बरसो राम धड़ाके से !
मरे न दुनिया फाके से !
*
मगरमच्छ अफसर मुए, 
व्यापारी घड़ियाल
नेता गर्दभ रेंकते- 
ओढ़ शेर की खाल

देखो लंगड़े नाचते, 
लूले देते ताल
बहरे शीश हिला रहे- 
गूँगे करें सवाल

चोरी होती नाके से, 
बरसो राम धड़ाके से !
मरे न दुनिया फाके से !

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