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शुक्रवार, 3 अगस्त 2018

muktak

मुक्तक 
बह्रर 2122-2122-2122-212
*
हो गए हैं धन्य हम तो आपका दीदार कर 
थे अधूरे आपके बिन पूर्ण हैं दिल हार कर 
दे दिया दिल आपको, दिल आपसे है ले लिया
जी गए हैं आप पर खुद को 'सलिल' हम वार कर
*
बोलिये भी, मौन रहकर दूर कब शिकवे हुए
तोलिये भी, बात कह-सुन आप-मैं अपने हुए
मैं सही हूँ, तू गलत है, यह नज़रिया ही गलत
जो दिलों को जोड़ दें, वो ही सही नपने हुए
*

सोमवार, 11 नवंबर 2013

gazal ki baharen : navin chaturvedi

ग़ज़ल की ३२ बहरें : 
नवीन चतुर्वेदी :

क्र.
बह्र का नाम
बह्र के अरकान , वर्णिक संकेत  [1= लघु अक्षर, 2 = गुरु अक्षर]
शेर बतौरेनज़ीर
1
बहरे कामिल मुसम्मन सालिम
मुतफ़ाएलुन मुतफ़ाएलुन
मुतफ़ाएलुन मुतफ़ाएलुन
11212 11212 11212 11212
ये चमन ही अपना वुजूद है
इसे छोड़ने की भी सोच मत
नहीं तो बताएँगे कल को क्या
यहाँ गुल न थे कि महक न थी 
2
बहरे खफ़ीफ मुसद्दस मख़बून
फ़ाएलातुन मुफ़ाएलुन फ़ालुन
2122 1212 22
प्या को प्या करना था केवल
एक अक्षर बदल न पाये हम
3
बहरे मज़ारिअ मुसम्मन मक्फ़ूफ़ मक्फ़ूफ़
मुख़न्नक मक़्सूर
मफ़ऊलु फ़ाएलातुन मफ़ऊलु फ़ाएलातुन
221 2122 221 2122
जब जामवन्त गरजा, हनुमत में जोश जागा
हमको जगाने वाला, लोरी सुना रहा है
4
बहरे मुजतस मुसमन मख़बून महज़ूफ
मुफ़ाएलुन फ़एलातुन मुफ़ाएलुन फ़ालुन
1212 1122 1212 22  
भुला दिया है जो तूने तो कुछ मलाल नहीं
कई दिनों से मुझे भी तेरा ख़याल नहीं
5
बहरे मज़ारिअ मुसमन अख़रब
मकफूफ़ मकफूफ़ महज़ूफ़
मफ़ऊलु फ़ाएलातु  मुफ़ाईलु फ़ाएलुन
 221 2121 1221 212
क़िस्मत को ये मिला तो मशक़्क़त को वो मिला
इस को मिला ख़ज़ाना उसे चाभियाँ मिलीं 
6
बहरे मुतकारिब मुसद्दस सालिम
फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन
122 122 122
कहानी बड़ी मुख़्तसर है
कोई सीप कोई गुहर है 
7
बहरे मुतकारिब मुसमन सालिम
फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन   
122 122 122 122
वो जिन की नज़र में है ख़्वाबेतरक़्क़ी
अभी से ही बच्चों को पी. सी. दिला दें
8
बहरे मुतक़ारिब मुसम्मन मक़्सूर
फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊ
122 122 122 2
इबादत की किश्तें चुकाते रहो
किराये पे है रूह की रौशनी
9
बहरे मुतदारिक मुसद्दस सालिम
फ़ाएलुन फ़ाएलुन फ़ाएलुन
212 212 212
सीढ़ियों पर बिछी है हयात
ऐ   ख़ुशी! हौले-हौले उतर
10
बहरे मुतदारिक मुसम्मन अहज़ज़ु आख़िर
फ़ाएलुन फ़ाएलुन फ़ाएलुन फ़ा
212 212 212 2
अब उभर आयेगी उस की सूरत
बेकली रंग भरने लगी है
11
बहरे मुतदारिक मुसम्मन सालिम
फ़ाएलुन फ़ाएलुन फ़ाएलुन फ़ाएलुन
212 212 212 212
जब छिड़ी तज़रूबे और डिग्री में जंग
कामयाबी बगल झाँकती रह गयी
12
बहरे रजज़ मख़बून मरफ़ू मुख़ल्ला
मुफ़ाइलुन फ़ाएलुन फ़ऊलुन मुफ़ाइलुन फ़ाएलुन फ़ऊलुन
1212 212 122 1212 212 22
बड़ी सयानी है यार क़िस्मत,
सभी की बज़्में सजा रही है
किसी को जलवे दिखा रही है
कहीं जुनूँ आजमा रही है
13
बहरे रजज़ मुरब्बा सालिम
मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन
2212 2212
ये नस्लेनौ है साहिबो
अम्बर से लायेगी नदी
14
बहरे रजज़ मुसद्दस मख़बून
मुस्तफ़इलुन मुफ़ाइलुन
2212 1212
क्या आप भी ज़हीन थे?
आ जाइये – क़तार में
15
बहरे रजज़ मुसद्दस सालिम
मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन
2212 2212 2212
मैं वो नदी हूँ थम गया जिस का बहाव
अब क्या करूँ क़िस्मत में कंकर भी नहीं
16
बहरे रजज़ मुसम्मन सालिम
मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन
मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन
2212 2212 2212 2212
उस पीर को परबत हुये काफ़ी ज़माना हो गया
उस पीर को फिर से नयी इक तरजुमानी चाहिये
17
बहरे रमल मुरब्बा सालिम
फ़ाएलातुन फ़ाएलातुन
2122 2122
मौत से मिल लो, नहीं तो
उम्र भर पीछा करेगी
18
बहरे रमल मुसद्दस मख़बून मुसककन
फ़ाएलातुन फ़एलातुन फ़ालुन
2122 1122 22
सनसनीखेज़ हुआ चाहती है
तिश्नगी तेज़ हुआ चाहती है
19
बहरे रमल मुसद्दस महज़ूफ़
फ़ाएलातुन  फ़ाएलातुन फ़ाएलुन ,
2122 2122 212
अजनबी हरगिज़ न थे हम शह्र में
आप ने कुछ देर से जाना हमें
20
बहरे रमल मुसद्दस सालिम
फ़ाएलातुन  फ़ाएलातुन फ़ाएलातुन
2122 2122 2122
ये अँधेरे ढूँढ ही लेते हैं मुझ को
इन की आँखों में ग़ज़ब की रौशनी है
21
बहरे रमल मुसमन महज़ूफ़
फ़ाएलातुन  फ़ाएलातुन फ़ाएलातुन फ़ाएलुन
2122 2122 21222 212
वह्म चुक जाते हैं तब जा कर उभरते हैं यक़ीन
इब्तिदाएँ चाहिये तो इन्तिहाएँ ढूँढना
22
बहरे रमल मुसम्मन मख़बून महज़ूफ़
फ़ाएलातुन फ़एलातुन फ़एलातुन फ़ालुन
2122 1122 1122 22
गोया चूमा हो तसल्ली ने हरिक चहरे को
उस के दरबार में साकार मुहब्बत देखी
23
बहरे रमल मुसम्मन मशकूल सालिम मज़ाइफ़ [दोगुन]
फ़एलातु फ़ाएलातुन फ़एलातु फ़ाएलातुन
1121 2122 1121 2122  
वो जो शब जवाँ थी हमसे उसे माँग ला दुबारा
उसी रात की क़सम है वही गीत गा दुबारा
24
बहरे रमल मुसम्मन सालिम
फ़ाएलातुन  फ़ाएलातुन फ़ाएलातुन फ़ाएलातुन
2122 2122 2122 2122
कल अचानक नींद जो टूटी तो मैं क्या देखता हूँ
चाँद की शह पर कई तारे शरारत कर रहे हैं
25
बहरे हज़ज  मुसद्दस महजूफ़
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन ,
1222 1222 122 
हवा के साथ उड़ कर भी मिला क्या
किसी तिनके से आलम सर हुआ क्या
26
बहरे हज़ज  मुसद्दस सालिम
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
1222 1222 1222
हरिक तकलीफ़ को आँसू नहीं मिलते
ग़मों का भी मुक़द्दर होता है साहब
27
बहरे हजज़ मुसमन अख़रब
मक्फ़ूफ मक्फ़ूफ मक्फ़ूफ महज़ूफ़
मफ़ऊलु मुफ़ाईलु मुफ़ाईलु फ़ऊलुन
221 1221 1221 122
आवारा कहा जायेगा दुनिया में हरिक सम्त
सँभला जो सफ़ीना किसी लंगर से नहीं था
28
बहरे हज़ज मुसम्मन अख़रब
मक़्फूफ़ मक़्फूफ़ मुख़न्नक सालिम
मफ़ऊलु मुफ़ाईलुन मफ़ऊलु मुफ़ाईलुन
221 1222  221 1222 
हम दोनों मुसाफ़िर हैं इस रेत के दरिया के
उनवाने-ख़ुदा दे कर तनहा न करो मुझ को
29
बहरे हज़ज मुसम्मन अशतर
मक़्फूफ़ मक़्बूज़ मुख़न्नक सालिम 
फ़ाएलुन मुफ़ाईलुन फ़ाएलुन मुफ़ाईलुन
212 1222  212 1222 
ख़ूब थी वो मक़्क़ारी ख़ूब ये छलावा है
वो भी क्या तमाशा था ये भी क्या तमाशा है
30
बहरे हज़ज मुसम्मन अशतर
मक़्बूज़, मक़्बूज़, मक़्बूज़
फ़ाएलुन मुफ़ाएलुन मुफ़ाएलुन मुफ़ाएलुन
212 1212 1212 1212
लुट गये ख़ज़ाने और गुन्हगार कोइ नईं
दोष किस को दीजिये जवाबदार कोई नईं
31
बहरे हज़ज मुसम्मन मक़्बूज़
मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन
1212 1212 1212 1212
गिरफ़्त ही सियाहियों को बोलना सिखाती है
वगरना छूट मिलते ही क़लम बहकने लगते हैं
32
बहरे हज़ज मुसम्मन सालिम
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
1222 1222 1222 1222
मुझे पहले यूँ लगता था करिश्मा चाहिये मुझको
मगर अब जा के समझा हूँ क़रीना चाहिये मुझको




रविवार, 25 अप्रैल 2010

विशेष लेख: कविता में छंदानुशासन --संजीव 'सलिल'

विशेष लेख:  
कविता में छंदानुशासन  
--संजीव 'सलिल'
*
शब्द ब्रम्ह में अक्षर, अनादि, अनंत, असीम और अद्भुत सामर्थ्य होती है. रचनाकार शब्द ब्रम्ह के प्रागट्य  का माध्यम मात्र होता है. इसीलिए सनातन प्राच्य परंपरा में प्रतिलिपि के अधिकार (कोपी राइट) की अवधारणा ही नहीं है. श्रुति-स्मृति, वेदादि के रचयिता मन्त्र दृष्टा हैं, मन्त्र सृष्टा नहीं. दृष्टा उतना ही देख और देखे को बता सकेगा जितनी उसकी क्षमता होगी.

रचना कर्म अपने आपमें जटिल मानसिक प्रक्रिया है. कभी कथ्य, कभी भाव रचनाकार को प्रेरित करते है.कि वह 'स्व' को 'सर्व' तक पहुँचाने के लिए अभिव्यक्त हो. रचना कभी दिल(भाव) से होती है कभी दिमाग(कथ्य) से. रचना की विधा का चयन कभी रचनाकार अपने मन से करता है कभी किसी की माँग पर. शिल्प का चुनाव भी परिस्थिति पर निर्भर होता है. किसी चलचित्र के लिए परिस्थिति के अनुरूप संवाद या पद्य रचना ही होगी लघु कथा, हाइकु या अन्य विधा सामान्यतः उपयुक्त नहीं होगी.

गजल का अपना छांदस अनुशासन है. पदांत-तुकांत, समान पदभार और लयखंड की द्विपदियाँ तथा कुल १२ लयखंड गजल की विशेषता है. इसी तरह रूबाई के २४ औजान हैं कोई चाहे और गजल या रूबाई की नयी बहर या औजान रचे भी तो उसे मान्यता नहीं मिलेगी. गजल के पदों का भार (वज्न) उर्दू में तख्ती के नियमों के अनुसार किया जाता है जो कहीं-कहीं हिन्दी की मात्र गणना से साम्य रखता है कहीं-कहीं भिन्नता. गजल को हिन्दी का कवि हिन्दी की काव्य परंपरा और पिंगल-व्याकरण के अनुरूप लिखता है तो उसे उर्दू के दाना खारिज कर देते हैं. गजल को ग़ालिब ने 'तंग गली' और आफताब हुसैन अली ने 'कोल्हू का बैल' इसी लिए कहा कि वे इस विधा को बचकाना लेखन समझते थे जिसे सरल होने के कारण सब समझ लेते हैं. विडम्बना यह कि ग़ालिब ने अपनी जिन रचनाओं को सर्वोत्तम मानकर फारसी में लिखा वे आज बहुत कम तथा जिन्हें कमजोर मानकर उर्दू में लिखा वे आज बहुत अधिक चर्चित हैं.

गजल का उद्भव अरबी में 'तशीबे' (संक्षिप्त प्रेम गीत) या 'कसीदे' (रूप/रूपसी की प्रशंसा) से तथा उर्दू में 'गजाला चश्म (मृगनयनी, महबूबा, माशूका) से वार्तालाप से हुआ कहा जाता है. अतः, नाज़ुक खयाली गजल का लक्षण हो यह स्वाभाविक है. हिन्दी-उर्दू के उस्ताद अमीर खुसरो ने गजल को आम आदमी और आम ज़िंदगी से बावस्ता किया. इस चर्चा का उद्देश्य मात्र यह कि हिन्दी में ग़ज़ल को उर्दू से भिन्न भाव भूमि तथा व्याकरण-पिंगल के नियम मिले, यह अपवाद स्वरूप हो सकता है कि कोई ग़ज़ल हिन्दी और उर्दू दोनों के मानदंडों पर खरी हो किन्तु सामान्यतः ऐसा संभव नहीं. हिन्दी गजल और उर्दू गजल में अधिकांश शब्द-भण्डार सामान्य होने के बावजूद पदभार-गणना के नियम भिन्न हैं, समान पदांत-तुकांत के नियम दोनों में मान्य है. उर्दू ग़ज़ल १२ बहरों के आधार पर कही जाती है जबकि हिन्दी गजल हिन्दी के छंदों के आधार पर रची जाती है. दोहा गजल में दोहा तथा ग़ज़ल और हाइकु ग़ज़ल में हाइकु और ग़ज़ल दोनों के नियमों का पालन होना अनिवार्य है किन्तु उर्दू ग़ज़ल में नहीं.

हिन्दी के रचनाकारों को समान पदांत-तुकांत की हर रचना को गजल कहने से बचना चाहिए. गजल उसे ही कहें जो गजल के अनुरूप हो. हिन्दी में सम पदांत-तुकांत की रचनाओं को मुक्तक कहा जाता है क्योकि हर द्विपदी अन्य से स्वतंत्र (मुक्त) होती है. डॉ. मीरज़ापुरी ने इन्हें प्रच्छन्न हिन्दी गजल कहा है. विडम्बनाओं को उद्घाटित कर परिवर्तन और विद्रोह की भाव भूमि पर रची गयी गजलों को 'तेवरी' नाम दिया गया है.

एक प्रश्न यह कि जिस तरह हिन्दी गजलों से काफिया, रदीफ़ तथा बहर की कसौटी पर खरा उतरने की उम्मीद की जाती है वैसे ही अन्य भाषाओँ (अंग्रेजी, बंगला, रूसी, जर्मन या अन्य) की गजलों से की जाती है या अन्य भाषाओँ की गजलें इन कसौटियों पर खरा उतरती हैं? अंग्रेजी की ग़ज़लों में  पद के अंत में उच्चारण नहीं हिज्जे (स्पेलिंग) मात्र मिलते हैं लेकिन उन पर कोई आपत्ति नहीं होती. डॉ. अनिल जैन के अंग्रेजी ग़ज़ल सन्ग्रह 'ऑफ़ एंड ओन' की रचनाओं में पदांत तो समान है पर लयखंड समान नहीं हैं.

हिन्दी में दोहा ग़ज़लों में हर मिसरे का कुल पदभार तो समान (१३+११) x२ = ४८ मात्रा होता है पर दोहे २३ प्रकारों में से किसी भी प्रकार के हो सकते हैं. इससे लयखण्ड में  भिन्नता आ जाती है. शुद्ध दोहा का प्रयोग करने पर हिन्दी दोहा ग़ज़ल में हर मिसरा समान पदांत का होता है जबकि उर्दू गजल के अनुसार चलने पर दोहा के दोनों पद सम तुकान्ती नहीं रह जाते. किसे शुद्ध माना जाये, किसे ख़ारिज किया जाये? मुझे लगता है खारिज करने का काम समय को करने दिया जाये. हम सुधार के सुझाव देने तक सीमित रहें तो बेहतर है.

गीत का फलक गजल की तुलना में बहुत व्यापक है. 'स्थाई' तथा 'अंतरा' में अलग-अलग लय खण्ड हो सकते है और समान भी किन्तु गजल में हर शे'र और हर मिसरा समान लयखंड और पदभार का होना अनिवार्य है. किसे कौन सी विधा सरल लगती है और कौन सी सरल यह विवाद का विषय नहीं है, यह रचनाकार के कौशल पर निर्भर है. हर विधा की अपनी सीमा और पहुँच है. कबीर के सामर्थ्य ने दोहों को साखी बना दिया. गीत, अगीत, नवगीत, प्रगीत, गद्य गीत और अन्य अनेक पारंपरिक गीत लेखन की तकनीक (शिल्प) में परिवर्तन की चाह के द्योतक हैं. साहित्य में ऐसे प्रयोग होते रहें तभी कुछ नया होगा. दोहे के सम पदों की ३ आवृत्तियों, विषम पदों की ३ आवृत्तियों, सम तह विषम पदों के विविध संयोजनों से नए छंद गढ़ने और उनमें रचने के प्रयोग भी हो रहे हैं.

हिन्दी कवियों में प्रयोगधर्मिता की प्रवृत्ति ने निरंतर सृजन के फलक को नए आयाम दिए हैं किन्तु उर्दू में ऐसे प्रयोग ख़ारिज करने की मनोवृत्ति है. उर्दू में 'इस्लाह' की परंपरा ने बचकाना रचनाओं को सीमित कर दिया तथा उस्ताद द्वारा संशोधित करने पर ही प्रकाशित करने के अनुशासन ने सृजन को सही दिशा दी  जबकि हिन्दी में कमजोर रचनाओं की बाढ़ आ गयी. अंतरजाल पर अराजकता की स्थिति है. हिन्दी को जानने-समझनेवाले ही अल्प संख्यक हैं तो स्तरीय रचनाएँ अनदेखी रह जाने या न सराहे जाने की शिकायत है. शिल्प, पिंगल आदि की दृष्टि से नितांत बचकानी रचनाओं पर अनेक टिप्पणियाँ तथा स्तरीय रचनाओं पर टिप्पणियों के लाले पड़ना दुखद है.

छंद मुक्त रचनाओं और छन्दहीन रचनाओं में भेद ना हो पाना भी अराजक लेखन का एक कारण है. छंद मुक्त रचनाएँ लय और भाव के कारण एक सीमा में गेय तथा सरस होती है. वे गीत परंपरा में न होते हुए भी गीत के तत्व समाहित किये होती हैं. वे गीत के पुरातन स्वरूप में परिवर्तन से युक्त होती हैं,  किन्तु छंदहीन रचनाएँ नीरस व गीत के शिल्प तत्वों से रहित बोझिल होती हैं.               

हिंद युग्म पर 'दोहा गाथा सनातन' की कक्षाओं और गोष्ठियों के ६५ प्रसंगों तथा साहित्य शिल्पी पर 'काव्य का रचना शास्त्र' में अलंकारों पर ५८ प्रसंगों में मैंने अनुभव किया है कि पाठक को गंभीर लेखन में रुची नहीं है. समीक्षात्मक गंभीर लेखन हेतु कोई मंच हो तो ऐसे लेख लिखे जा सकते हैं.

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Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com