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सोमवार, 7 जून 2010

त्रिपदिक (जनक छंदी ) नवगीत : नवगीत : नेह नर्मदा तीर पर ---- संजीव 'सलिल'

: अभिनव सारस्वत प्रयोग :

त्रिपदिक (जनक छंदी ) नवगीत :
                                  नेह नर्मदा तीर पर
                                                - संजीव 'सलिल'

                     *
[ इस रचना में जनक छंद का प्रयोग हुआ है. संस्कृत के प्राचीन त्रिपदिक छंदों (गायत्री, ककुप आदि) की तरह जनक छंद में भी ३ पद (पंक्तियाँ) होती हैं. दोहा के विषम (प्रथम, तृतीय) पद की तीन आवृत्तियों से जनक छंद बनता है. प्रत्येक पद में १३ मात्राएँ तथा पदांत में लघु गुरु लघु या लघु लघु लघु लघु होना आवश्यक है. पदांत में सम तुकांतता से इसकी सरसता तथा गेयता में वृद्धि होती है. प्रत्येक पद दोहा या शे'र की तरह आपने आप में स्वतंत्र होता है किन्तु मैंने जनक छंद में गीत और अनुगीत (ग़ज़ल की तरह तुकांत, पदांत सहित) कहने के प्रयोग किये हैं. अंतर्जाल पर पहली बार इन्हें प्रस्तुत करते समय संकोच है कि न जाने क्या प्रतिक्रिया मिले. गुण ग्राहकों को रुचे तो आगे अन्य रचनाएँ और अन्य छंद सामने रखने का साहस जुटाऊँगा. इस क्रम में उर्दू का तसलीस आप के समक्ष आ ही चुका है.]












नेह नर्मदा तीर पर,
       अवगाहन कर धीर धर,
           पल-पल उठ-गिरती लहर...
                   *
कौन उदासी-विरागी,
विकल किनारे पर खड़ा?
किसका पथ चुप जोहता?

          निष्क्रिय, मौन, हताश है.
          या दिलजला निराश है?
          जलती आग पलाश है.

जब पीड़ा बनती भँवर,
       खींचे तुझको केंद्र पर,
           रुक मत घेरा पार कर...
                   *
नेह नर्मदा तीर पर,
       अवगाहन का धीर धर,
           पल-पल उठ-गिरती लहर...
                   *
सुन पंछी का मशविरा,
मेघदूत जाता फिरा-
'सलिल'-धार बनकर गिरा.

          शांति दग्ध उर को मिली.
          मुरझाई कलिका खिली.
          शिला दूरियों की हिली.

मन्दिर में गूँजा गजर,
       निष्ठां के सम्मिलित स्वर,
           'हे माँ! सब पर दया कर...
                   *
नेह नर्मदा तीर पर,
       अवगाहन का धीर धर,
           पल-पल उठ-गिरती लहर...
                   *
पग आये पौधे लिये,
ज्यों नव आशा के दिये.
नर्तित थे हुलसित हिये.

          सिकता कण लख नाचते.
          कलकल ध्वनि सुन झूमते.
          पर्ण कथा नव बाँचते.

बम्बुलिया के स्वर मधुर,
       पग मादल की थाप पर,
           लिखें कथा नव थिरक कर...
                   *
divyanarmada.blogspot.com
salil.sanjiv@gmail.com

सोमवार, 29 मार्च 2010

नवगीत: रंग हुए बदरंग --संजीव 'सलिल'

नवगीत:

संजीव 'सलिल'

रंग हुए बदरंग,
मनाएँ कैसे होली?...
*
घर-घर में राजनीति
घोलती ज़हर.
मतभेदों की प्रबल
हर तरफ लहर.
अँधियारी सांझ है,
उदास है सहर.
अपने ही अपनों पर
ढा रहे कहर.
गाँव जड़-विहीन
पर्ण-हीन है शहर.
हर कोई नेता हो
तो कैसे हो टोली?...
*
कद से  भी ज्यादा है
लंबी परछाईं.
निष्ठां को छलती है
शंका हरजाई.
समय करे कब-कैसे
क्षति की भरपाई?
चंदा तज, सूरज संग
भागी जुनहाई.
मौन हुईं आवाजें,
बोलें तनहाई.
कवि ने ही छंदों को
मारी है गोली...
*
अपने ही सपने सब
रोज़ रहे तोड़.
वैश्विकता क्रय-विक्रय
मची हुई होड़.
आधुनिक वही है जो
कपडे दे छोड़.
गति है अनियंत्रित
हैं दिशाहीन मोड़.
घटाना शुभ-सरल
लेकिन मुश्किल है जोड़.
कुटिलता वरेण्य हुई
त्याज्य सहज बोली...
********************

रविवार, 7 मार्च 2010

नवगीत : चूहा झाँक रहा हंडी में... --संजीव 'सलिल'

नवगीत :

चूहा झाँक रहा हंडी में...

संजीव 'सलिल'
*
चूहा झाँक रहा हंडी में,
लेकिन पाई सिर्फ हताशा...
*
मेहनतकश के हाथ हमेशा
रहते हैं क्यों खाली-खाली?
मोती तोंदों के महलों में-
क्यों बसंत लाता खुशहाली?
ऊँची कुर्सीवाले पाते
अपने मुँह में सदा बताशा.
चूहा झाँक रहा हंडी में,
लेकिन पाई सिर्फ हताशा...
*
भरी तिजोरी फिर भी भूखे
वैभवशाली आश्रमवाल.
मुँह में राम बगल में छूरी
धवल वसन, अंतर्मन काले.
करा रहा या 'सलिल' कर रहा
ऊपरवाला मुफ्त तमाशा?
चूहा झाँक रहा हंडी में,
लेकिन पाई सिर्फ हताशा...
*
अँधियारे से सूरज उगता,
सूरज दे जाता अँधियारा.
गीत बुन रहे हैं सन्नाटा,
सन्नाटा निज स्वर में गाता.
ऊँच-नीच में पलता नाता
तोल तराजू तोला-माशा.
चूहा झाँक रहा हंडी में,
लेकिन पाई सिर्फ हताशा...
*************************
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

शुक्रवार, 5 मार्च 2010

नवगीत: आँखें रहते सूर हो गए --संजीव 'सलिल'

नवगीत;

संजीव 'सलिल'
*
आँखें रहते सूर हो गए,
जब हम खुद से दूर हो गए.
खुद से खुद की भेंट हुई तो-
जग-जीवन के नूर हो गए...
*
सबलों के आगे झुकते सब.
रब के आगे झुकता है नब.
वहम अहम् का मिटा सकें तो-
मोह न पाते दुनिया के ढब.
जब यह सत्य समझ में आया-
भ्रम-मरीचिका दूर हो गए...
*
सुख में दुनिया लगी सगी है.
दुःख में तनिक न प्रेम पगी है.
खुली आँख तो रहो सुरक्षित-
बंद आँख तो ठगा-ठगी है.
दिल पर लगी चोट तब जाना-
'सलिल' सस्वर सन्तूर हो गए...
*****************************
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

शुक्रवार, 15 जनवरी 2010

नवगीत: गीत का बनकर / विषय जाड़ा -संजीव 'सलिल'

नवगीत:

संजीव 'सलिल'

गीत का बनकर
विषय जाड़ा
नियति पर
अभिमान करता है...
कोहरे से
गले मिलते भाव.
निर्मला हैं
बिम्ब के
नव ताव..
शिल्प पर शैदा
हुई रजनी-
रवि विमल
सम्मान करता है...

गीत का बनकर
विषय जाड़ा
नियति पर
अभिमान करता है...

फूल-पत्तों पर
जमी है ओस.
घास पाले को
रही है कोस.
हौसला सज्जन
झुकाए सिर-
मानसी का
मान करता है...

गीत का बनकर
विषय जाड़ा
नियति पर
अभिमान करता है...

नमन पूनम को
करे गिरि-व्योम.
शारदा निर्मल,
निनादित ॐ.
नर्मदा का ओज
देख मनोज-
'सलिल' संग
गुणगान करता है...

गीत का बनकर
विषय जाड़ा
खुदी पर
अभिमान करता है...
******