कुल पेज दृश्य

hindee gazal लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
hindee gazal लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

सोमवार, 13 सितंबर 2010

एक तेवरी : रमेश राज, अलीगढ़.

एक तेवरी :

रमेश राज, अलीगढ़.
*
*
नैन को तो अश्रु के आभास ने अपना पता-
और मन को दे दिया संत्रास ने अपना पता..
*
सादगी-मासूमियत इस प्यार को हम क्या कहें?
खुरपियों को दे दिया है घास ने अपना पता..
*
मरूथलों के बीच भी जो आज तक भटके नहीं.
उन मृगों को झट बताया प्यास ने अपना पता..
*
फूल तितली और भँवरे अब न इसके पास हैं-
यूँ कभी बदला न था मधुमास ने अपना पता..
*
बात कुछ थी इस तरह की चौंकना मुझको पड़ा-
चीख के घर का लिखा उल्लास ने अपना पता..
*****************
प्रेषक: http://divyanarmada.blogspot.com

गुरुवार, 27 मई 2010

मुक्तिका: चाँदनी फसल...... --संजीव 'सलिल'

मुक्तिका

चाँदनी फसल..

संजीव 'सलिल'
*

















*
इस पूर्णिमा को आसमान में खिला कमल.
संभावना की ला रही है चाँदनी फसल..
*
वो ब्यूटी पार्लर से आयी है, मैं क्या कहूँ?
है रूप छटा रूपसी की असल या नक़ल?
*
दिल में न दी जगह तो कोई बात नहीं है.
मिलने दो गले, लोगी खुदी फैसला बदल..
*
तुम 'ना' कहो मैं 'हाँ' सुनूँ तो क्यों मलाल है?
जो बात की धनी थी, है बाकी कहाँ नसल?
*
नेता औ' संत कुछ कहें न तू यकीन कर.
उपदेश रोज़ देते न करते कभी अमल..
*
मन की न कोई भी करे है फ़िक्र तनिक भी.
हर शख्स की है चाह संवारे रहे शकल..
*
ली फेर उसने आँख है क्यों ताज्जुब तुझे.?
होते हैं विदा आँख फेरकर कहे अज़ल..
*
माया न किसी की सगी थी, है, नहीं होगी.
क्यों 'सलिल' चाहता है, संग हो सके अचल?
*
==दिव्यनर्मदा.ब्लॉगस्पोट.कॉम

बुधवार, 19 मई 2010

रचना प्रति रचना : ...क्या कीजे? --महेश चन्द्र गुप्त ’ख़लिश’, संजीव 'सलिल'

रचना प्रति रचना 
 वरिष्ठ और ख्यातिलब्ध शायर श्री महेश चन्द्र गुप्त 'खलिश' रचित यह ग़ज़ल ई-कविता के पृष्ठ पर प्रकाशित हुई. इसे पढ़कर हुई प्रतिक्रिया प्रस्तुत हैं. जो अन्य रचनाकार इस पर लिखेंगे वे रचनाएँ और प्रतिक्रियाएँ भी यहाँ प्रकाशित होंगी. उद्देश्य रचनाधर्मिता और पठनीयता को बढाकर रचनाकारों को निकट लाना मात्र है.
 जब घाव लगे हों दिल पर तो बातों की मरहम क्या कीजे ईकवितामई २०१० 
महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश

जब घाव लगे हों दिल पर तो बातों की मरहम क्या कीजे
जब हार गए हों  मैदाँ में, शमशीरी दम-खम क्या कीजे
दुनिया में अकेले आए थे, दुनिया से अकेले जाना है
दुनिया की राहों में पाया हमराह नहीं ग़म क्या कीजे
बिठला कर के अपने दिल में हम उनकी पूजा करते हैं
वो समझें हमको बेगाना, बतलाए कोई हम क्या कीजे
दिल में तो उनके नफ़रत है पर  मीठी बातें करते हैं
वो प्यार-मुहब्बत के झूठे लहराएं परचम, क्या कीजे
क्या वफ़ा उन्हें मालूम नहीं, बेवफ़ा हमें वो कहते हैं
सुन कर ऐसे इल्ज़ाम ख़लिश जब आँखें हों नम क्या कीजे

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
*
मुक्तिका:
...
क्या कीजे?
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
जब घाव लगे हों दिल पर तो बातों की मरहम क्या कीजे?

सब भुला खलिश, आ नेह-नर्मदा से चुल्लू भर जल पीजे.

दे बदी का बदला नेकी से, गम के बदले में खुशी लुटा.
देता है जब ऊपरवाला, नीचेवाले से क्या लीजे?

दुनियादारी की वर्षा में तू खुद को तर मत होने दे.
है मजा तभी जब प्यार-मुहब्बत की बारिश में तू भीजे.

जिसने बाँटा वह ज्यों की त्यों चादर निर्मल रख चला गया.
जिसने जोड़ा वह चिंता कर अंतिम दम तक मुट्ठी मीजे.

सागर, नदिया या कूप न रीता कभी पिलाकर जल अपना.
मत सोच 'सलिल' किसको कितना कब-कब कैसे या क्यों दीजे?
*