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शुक्रवार, 22 जून 2012

ग़ज़ल दोहा: राधा धारा प्रेम की.... संजीव 'सलिल'

ग़ज़ल दोहा:
राधा धारा प्रेम की....
संजीव 'सलिल'
*
राधा धारा प्रेम की, श्याम स्नेह-सौगात.
बरसाने में बरसती, बिन बरसे बरसात..

माखनचोर चुरा रहा, चित बनकर चितचोर.
सुनते गोपी-गोपिका नित नेहिल नगमात..

जो बोया सो काटता, विषधर करिया नाग.
ग्वाल-बाल गोपाल के असहनीय आघात..

आँख चुरा मुँह फेरकर, गया दिखाकर पीठ.
नहीं बेवफा वफ़ा ने, बदल दिये हालात.
  
तंदुल ले त्रैलोक्य दे, कभी बढ़ाए चीर.
गीता के उपदेश में, भरे हुए ज़ज्बात..

रास रचाए वेणुधर, ले गोवर्धन हाथ,
देवराज निज सिर धुनें, पा जनगण से मात..

पट्टी बाँधी आँख पर, सच से ऑंखें फेर.
नटवर नन्दकिशोर बिन, कैसे उगे प्रभात?

सत्य नीति पथ पर चले, राग-द्वेष से दूर.
विदुर समुज्ज्वल दिवस की, कभी न होती रात..

नेह नर्मदा 'सलिल' की, लहर रचाए रास.
राधा-मीरा कूल दो, कृष्ण-कमल जलजात..

कुञ्ज गली में फिर रहा, कर मन-मंदिर वास.
हुआ साँवरा बावरा, 'सलिल' सृष्टि-विख्यात..

२२.०८.२००५
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