कहीं धूप क्यों?,
कहीं छाँव क्यों??...
सबमें तेरा
अंश समाया।
फ़िर क्यों
भरमाती है काया?
जब पाते तब
खोते हैं क्यों?,
जब खोते-
तब पाते- पाया।
अपने चलते
सतत दाँव क्यों?...
नीचे-ऊपर
ऊपर-नीचे।
झूलें सब,
तू डोरी खींचे।
कोई हँसता,
कोई डरता।
कोई रोये
अँखियाँ मींचे।
चंचल-घायल
हुए पाँव क्यों?...
तन पिंजरे में
मन बेगाना।
श्वास-आस का
ताना-बाना।
बुनता-गुनता,
चुप सर धुनता।
तू परखे, दे
संकट नाना।
सूना पनघट,
मौन गाँव क्यों?...
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दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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शुक्रवार, 15 मई 2009
नव गीत: -आचार्य संजीव 'सलिल'
करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
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4 टिप्पणियां:
सरस, मधुर नवगीत पढ़कर आनंद आ गया. वाह...
मौन गाँव क्यों?...एक गहन प्रश्न उठता गीत...बहुत उम्दा!!
श्रेष्ठ रचना...बधाई!
steek rachna.
badhai
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